March 29, 2024

पद्मावत समीक्षा : बेउसूल, बेईमान, वहशी और बदज़ात मुस्लिम किरदार के लिए देखें फिल्म

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  • जायसी के पद्मावत से संबंध सिर्फ किरदारों के नाम तक
  • जौहर फिल्म में आखिर तक नहीं है
  • राजपूतों के संघर्ष और त्याग को भी नहीं दर्शाती है फ़िल्म
  • नहीं पचते कई दृश्य, युद्ध दृश्यों में भी कामचलाऊपन 
  • बहुत बड़े विषय को जल्दीबाजी में उत्पाद बनाने की भंसाली की जिद लगती है फिल्म

इस एक दशक में मैंने बहुत कम फिल्में देखी हैं। खासकर सिनेमाघर में जाकर तो बहुत ही कम। उंगलियों पर गिनूँ तो दस भी नहीं बैठेंगी। मगर, ‘ऐतिहासिक’ विरोध के धक्का-ठेल ने मुझे भी पद्मावत की स्क्रीन तक पहुंचा ही दिया। फ़िल्म पर आ रही प्रतिक्रियाएं मिश्रित हैं, फिर भी मैं सिर्फ अपना अनुभव ही साझा करूंगा।

पद्मावत फ़िल्म देखकर स्पष्ट हो जाता है कि इसका मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत से संबंध सिर्फ किरदारों के नाम तक ही सीमित है। क्योंकि निर्देशक ने अपनी सोच और कलात्मकता को प्रदर्शित करने के लिए प्रचलित कथाओं से पूरी छूट ली है। जैसे शिवानी की अधिकांश कहानियों में एक जीवट औरत बंगाल से पहाड़ चढ़ती मिलती है, उसी तरह भंसाली भी अपनी अधिकांश फिल्मों की ही तरह मिलन की अधूरी रह गई जिद और प्रेम को भव्यता व ऐश्वर्य के आंगन में परोसते नजर आए हैं।

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तीन-चार दशकों से फिल्मों में मुस्लिम किरदार को शरीफ, ईमानदार और उसूलमंद दिखाए जाने की शिकायत करने वालों के लिए फ़िल्म में बेउसूल, बेईमान, वहशी और बदज़ात मुस्लिम किरदार तराशे गए हैं। इतिहास के सर्वकालिक सफलतम (सीमा विस्तार के आधार पर) मुस्लिम शासक को एक मसखरे जैसा प्रस्तुत कर खिलजी के किरदार को खलनायक स्वरूप देने की कोशिश की गई है। जबकि उसके गुलाम खास काफूर मलिक के अतिशय कामुक किरदार को उभरकर उसके अन्य कौशल को पूरी तरह छिपा दिया गया है।

फ़िल्म के दो महत्वपूर्ण तथ्य हैं। पहला, अभ्यास के बिना कौशल किसी काम का नहीं होता। पद्मावती युद्धकला और राजनीति में पारंगत थीं मगर, राघव चेतन को कारागार में रखे जाने के रावल रतन सिंह के निर्णय को देश निकाला में परिवर्तित कराया जाना ही सारे फसाद की जड़ बना। पुरुषवादी विचारक इसे शासन में नारी की सहभागिता के दुष्परिणाम का उदाहरण भी बता सकते हैं। दूसरा, पूरी फिल्म जिस जौहर के लिए गढ़ी गई उसका चित्रण-निरूपण और विवरण भंसाली की पद्मावत में आखिर तक नहीं है। निर्देशक ने मानों विषय को कथानक में उठाया ही नहीं और क्लाइमेक्स पर उसे भव्यता से उभार भर दिया है। बल्कि जौहर की महानता को खिलजी के पद्मावती को देख पाने या नहीं देख पाने के सस्पेंस में धुंधला दिया गया है। जबकि जौहर के दो मुख्य कारण-नारी का पति या प्रेमी के प्रति समर्पण और मुगलों की दासों के प्रति क्रूरता-का चित्रण फ़िल्म में नहीं होने के कारण भी दर्शक जौहर से नहीं जुड़ पाता। उस दौर के आक्रांताओं और आपसी फूट से राजपूतों के संघर्ष और त्याग को भी नहीं दर्शाए जाने से फ़िल्म दो लोगों की निजी खुन्नस का प्रदर्शन मालूम होती है।

फ़िल्म में कई स्थानों पर वैचारिक विरोधाभास भी है। पद्मावती के कहने पर चेतन राघव को देश निकाला देने वाले रावल रतन सिंह निमंत्रण पर गढ़ आए खिलजी को मेहमान होने के नाते नहीं मारते हैं। (खिलजी द्वारा पद्मावती को देखने की इच्छा जाहिर करने पर) मगर, इस घटना पर पद्मावती द्वारा उसे मारने की इच्छा जताने के बावजूद दिल्ली में रावल रतन सिंह ने खिलजी को जीवनदान दिया, यह भी नहीं पचता है। दिल्ली में गोरा-बादल की वीरता बमुश्किलन 45 सेकेंड में समेट दी गई, जबकि युद्ध की तैयारी के दृश्य को भी श्रृंगार रस में लपेटकर 5 मिनट का स्लो-रिप्ले स्टाइल चित्रण कहीं से भी किसी राजा के साहस और पराक्रम का उद्बोधक नहीं दिखता। खिलजी और रतन सिंह के एकल युद्ध का दृश्यांकन अत्यंत कामचलाऊ है और काफूर और खिलजी सेना द्वारा रतन सिंह पर पीठ की ओर से तीर चलाए जाने के बाद भी राजपूत तीरंदाजों का खिलजी पर तीर नहीं चलाना पूरी तरह समझ से परे है।

चलचित्र के मध्य में तीन गीत पूरी तरह भरताऊ और उबाऊ जान पड़ते हैं जबकि निर्देशक अमीर खुसरो जैसे महान सूफी कवि को सहेजने के बाद भी उनके किरदार से फ़िल्म को एक स्तर ऊपर ले जाने में पूर्णतः असफल रहे। फ़िल्म के दृश्यांकन पर जितना खर्च किया गया है, यदि उसके संवाद और पटकथा लेखन पर 10 फीसद भी खर्च होता तो कहानी का स्तर कुछ और ही होता। जैसा मुग़ले-आजम में देखने को मिलता है। देवदास में बशीर बद्र का सहयोग लेने वाले भंसाली इतने महत्वपूर्ण विषय पर संवाद और काव्य के मसले पर चूक गए। साउंड और बैकग्राउंड धुनों में भी श्रोता-दर्शक को फ़िल्म से जोड़ने, झकझोरने वाले गुणों का सर्वथा अभाव है।

कुल मिलाकर यह फ़िल्म बहुत बड़े विषय को जल्दीबाजी में उत्पाद बनाने की जिद अनुभूत होती है। जिससे इसका प्रभाव बहुत थका हुआ और हल्का ही रह जाता है। विषय की गंभीरता के कारण दर्शक जिस सब्र और जिम्मेदारी से थिएटर की सीट से चिपका रहता है, फ़िल्म के आखिर में उसे उस कोटि की गुणवत्ता का प्रत्युत्तर नहीं  मिलता। सच यह है कि पद्मासन 10-5 मिनट ही ठीक लगता है। आधे घंटे नहीं। और…दो घंटे तो पद्मावत भी कतई नहीं !

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