एक शताब्दी से अधिक लम्बे संघर्ष से नसीब हुआ उत्तराखंड राज्य
-सर्वप्रथम 1897 में इंग्लेंड की महारानी विक्टोरिया के समक्ष रखी गई थी कुमाऊं को प्रांत का दर्जा देने की मांग
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state)। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए उत्तराखंड राज्य में पृथक राज्य की मांग एक सदी से भी अधिक पुरानी थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार सर्वप्रथम जून 1897 में रानी विक्टोरिया को शर्तें याद दिलाते हुए तत्कालीन ब्रिटिश कुमाऊं (जिसमें प्रदेश के वर्तमान गढ़वाल मंडल का भी अलकनंदा नदी के पूर्वी ओर का पूरा सहित तत्कालीन टिहरी रियासत को छोड़कर अधिकांश क्षेत्र शामिल था) को अलग प्रान्त के रूप में रखने को प्रत्यावेदन भेजा गया था।
हरी दत्त पांडे, ज्याला दत्त जोशी, रायबहादुर बद्री दत्त जोशी, रायबहादुर दुर्गा दत्त जोशी (जज) व गोपाल दत्त जोशी द्वारा इंग्लेंड की महारानी विक्टोरिया को भेजे गए पत्र में कहा गया था कि अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को जीता नहीं था, वरन 1815 में स्वयं अपनी मर्जी से अपने आप को ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण में रखा था, इसलिए उनकी वफादारी के बदले उनकी मातृभूमि को अलग प्रांत का दर्जा दें।
आगे दूूसरा प्रयास 1916 में उत्तराखंड की प्रथम संस्था-कुमाऊं परिषद के गठन के रूप में हुआ। इसके बाद तीसरा प्रयास सात नवंबर 1929 को हुआ, जब राजा आनंद सिंह, त्रिलोक सिंह रौतेला, ठाकुर जंग बहादुर बिष्ट, एफ रिच, डेनियल पंत, गोविंद लाल साह, नित्यानंद जोशी, खुशाल सिंह, उत्तम सिंह रावत व हाजी नियाज मोहम्मद आदि कई लोगों ने तत्कालीन संयुक्त प्रांत के गवर्नर से भेंट कर ज्ञापन सोंपा और कुमाऊं के प्राचीन समय से एक पृथक इकाई होने और उसे विशेषाधिकार मिले होने का हवाला देते हुए पृथक राजनीतिक इकाई के रूप में मान्यता देने, ब्रिटिश संसद के लिए कुमाउनी प्रतिनिधियों को सम्मिलित कर उन्हें अलग संविधान देने के लिए एक समिति का गठन करने आदि की मांगें कीं। इस पर गवर्नर ने उन्हें साइमन कमीशन के समक्ष अपना पक्ष रखने की सलाह दी।
आगे 1938 में प्रदेश के गढ़वाल मंडल की ओर के बुद्धिजीवियों की ओर से भी यह मांग उठनी शुरू हुई। इसी साल 5-6 मई को कांग्रेस के श्रीनगर सम्मेलन में पृथक प्रशासनिक व्यवस्था की मांग की गई। इस सम्मलेन में प्रताप सिह नेगी, जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित भी शामिल हुए थे। सम्मेलन में स्थानीय जनता की मांग को देखकर जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने का अधिकार मिलना चाहिए।’
वहीं आजादी मिलने की सुगबुगाहट के बीच तत्कालीन संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री गोविंद बल्लभ पंत (भारत रत्न) ने पहले 1946 में हल्द्वानी में हुए सम्मेलन में और आगे आजादी के बाद 1952 में जब राज्यों के पुर्नगठन के लिए पणिकर आयोग के अध्यक्ष केएम पणिकर ने उत्तराखंड राज्य की मांग का समर्थन किया था, किन्तु स्वर्गीय पंत ने पर्वतीय क्षेत्र में एक राज्य के लिए जरूरी संसाधनों व रोजगार के साधनों की कमी बताकर इस मांग को पूरी तरह खारिज कर दिया था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल ने इस तथ्य का जिक्र अपनी पुस्तक ‘स्वतंत्रता संग्राम में कुमाऊं का योगदान’ में किया है।
आगे भाकपा के सचिव कॉमरेड पीसी जोशी ने 1952 में भारत सरकार को पृथक पर्वतीय राज्य के गठन के लिए एक ज्ञापन भेजकर यह मांग प्रमुखता से उठाई थी। इसके साथ ही यह मांग मुखर होने लगी थी। पेशावर कांड के नायक और स्वतंत्रता सेनानी चंद्र सिह गढ़वाली ने भी पीएम जवाहर लाल नेहरू को राज्य की मांग का ज्ञापन दिया। 22 मई 1955 को नई दिल्ली में पर्वतीय जन विकास समिति की आम सभा में उत्तराखंड क्षेत्र को प्रस्तावित हिमाचल में मिलाने की मांग की।
1956 में पृथक हिमाचल बनाने की राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा ठुकराने के बाद भी तत्कालीन गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर हिमाचल की मांग को सिद्धांत रूप में स्वीकार किया, किंतु उत्तराखंड के बारे में कुछ नहीं किया। इस पर अगस्त 1966 में पर्वतीय क्षेत्र के लोगों ने पुनः पीएम को अलग राज्य की मांग का ज्ञापन भेजा। 10-11 जून 1966 को जगमोहन सिंह नेगी एवं चंद्रभानु गुप्त की अगुवाई में रामनगर में आयोजित कांग्रेस के सम्मेलन में पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिए पृथक प्रशासनिक आयोग का प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया, तथा 24-25 जून को नैनीताल में दयाकृष्ण पांडेय की अध्यक्षता में ऋषिबल्लभ सुन्दरियाल, गोविंद सिंह मेहरा आदि को शामिल करते हुए आठ पर्वतीय जिलों की ‘पर्वतीय राज्य परिषद’ का गठन किया गया।
इसी वर्ष दिल्ली के बोट क्लब में इस मांग के लिए ऋषि बल्लभ सुंदरियाल ने प्रवासी उत्तराखंडियों को साथ लेकर प्रदर्शन किया। इसी वर्ष 14-15 अक्टूबर को दिल्ली में उत्तराखंड विकास संगोष्ठी का आयोजन हुआ, जिसका उदघाटन तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अशोक मेहता ने किया। इसमें सांसद एवं टिहरी नरेश मानवेंद्र शाह ने इस क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए केंद्र शासित प्रदेश की मांग की।
1968 में लोकसभा में सांसद शाह के प्रस्ताव के आधार पर योजना आयोग ने पर्वतीय नियोजन प्रकोष्ठ खोला। 12 मई 1970 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान प्राथमिकता से करने की घोषणा की। 1971 में मानवेंद्र शाह, नरेंद्र सिंह बिष्ट, इंद्रमणि बड़ोनी और लक्ष्मण सिंह ने अलग राज्य के लिए कई जगह आंदोलन किए। 1972 में ऋषिबल्लभ सुंदरियाल व पूरन सिंह डंगवाल सहित 21 लोगों ने अलग राज्य की मांग को लेकर वोट क्लब पर गिरफ्तारी दी। 23-24 अक्टूबर 1971 को प्रताप बिष्ट ने उत्तराखंडवासियों से आजादी के लिए दी गई जीवन की कुर्बानी की तर्ज पर आर्थिक आजादी के लिए कुर्बानी देने का आह्वान किया।
1973 में ‘पर्वतीय राज्य परिषद’ का नाम ‘उत्तराखंड राज्य परिषद’ किया गया। सांसद प्रताप सिंह बिष्ट इसके अध्यक्ष तथा मोहन उप्रेती व नारायण सुंदरियाल इसके सदस्य बने। 1978 में चमोली के विधायक प्रताप सिंह की अगुवाई में बदरीनाथ से दिल्ली वोट क्लब तक पदयात्रा और संसद का घेराव का प्रयास किया गया। दिसंबर 1978 में राष्ट्रपति को ज्ञापन देते समय 19 महिलाओं सहित 71 लोगों को तिहाड़ भेजा गया। 1979 में सांसद त्रेपन सिंह नेगी के नेतृत्व में उत्तराखंड राज्य परिषद का गठन करके 31 जनवरी को दिल्ली में 15 हजार से भी अधिक लोगों ने पृथक राज्य के लिये मार्च किया।
आगे 24-25 जुलाई 1979 में 24-15 जुलाई 1979 को मंसूरी में ‘पर्वतीय जन विकास सम्मेलन’ में इसी मांग पर प्रदेश के पहले क्षेत्रीय दल-उत्तराखंड क्रांति दल का जन्म हुआ। 1980 में यूकेडी ने घोषणा की कि उत्तराखंड भारतीय संघ का एक शोषण विहीन, वर्ग विहीन और धर्म निरपेक्ष राज्य होगा। मई 1982 में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने बद्रीनाथ मे यूकेडी के प्रतिनिधि मंडल के साथ 45 मिनट बातचीत की। 20 जून 1983 को दिल्ली में चौधरी चरण सिंह ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि उत्तराखंड की मांग राष्ट्र हित में नही है। सितंबर-अक्टूबर 1984 में आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन ने पर्वतीय राज्य के मांग को लेकर गढ़वाल क्षेत्र में 900 किमी. साइकिल यात्रा की।
23 अप्रैल को उक्रांद ने तत्कालीन पीएम राजीव गांधी के नैनीताल आगमन पर पृथक राज्य के समर्थन में प्रदर्शन किया। 1987 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अटल विहारी वाजपेयी ने उत्तराखण्ड राज्य की मांग को पृथकतावादी करार दिया। नौ अगस्त को वोट क्लब पर अखिल भारतीय प्रवासी उक्रांद ने सांकेतिक भूख हड़ताल की और पीएम को ज्ञापन दिया। 23 नवंबर को युवा नेता धीरेंद्र प्रताप भदोला ने लोकसभा में दर्शक दीर्घा में राज्य निर्माण के समर्थन में नारेबाजी की। 23 फरवरी 1988 को अनेक लोगों ने असहयोग आंदोलन किया और गिरफ्तारियां दी।
21 जून को अल्मोड़ा में ‘नए भारत में नया उत्तराखंड’ नारे के साथ ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ का गठन हुआ। 23 अक्टूबर को दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में हिमालयन कार रैली का उत्तराखंड समर्थकों ने विरोध किया, जिस पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया। 17 नवंबर को पिथौरागढ़ में नारायण आश्रम से देहारादून तक पैदल यात्रा हुई। 1989 में यूपी के सीएम मुलायम सिह यादव ने उत्तराखंड को यूपी का ताज बता कर अलग राज्य बनाने से इंकार किया। लेकिन अलग राज्य के लिए दबाव बनता देख 10 अप्रैल 1990 को दिल्ली के वोट क्लब पर उत्तरांचल प्रदेश संघर्ष समिति के तत्वावधान में भाजपा ने उत्तराखण्ड के समर्थन में रैली की, और 30 अगस्त 1991 को कांग्रेस नेताओं ने ‘वृहद उत्तराखंड’ राज्य बनाने का नया शिगूफा छोड़ा।
इसी साल यूपी की भाजपा सरकार ने पृथक राज्य संबंधी प्रस्ताव संस्तुति के साथ केंद्र को भेजा तो भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी पृथक राज्य का वायदा किया। इसी साल दिसंबर 1991 में एनडी तिवारी ने राज्य की मांग का विरोध करते हुए कथित तौर पर कहा कि ‘उत्तराखण्ड उनकी लाश पर बनेगा’। इधर भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के उत्तर प्रदेश सम्मेलन में राज्य की मांग का समर्थन किया गया। सम्मेलन की समाप्ति पर सांसद डा. जयन्त रैंगती ने कहा ‘छोटे और कमजोर समूहों को राजनैतिक सत्ता में भागीदार बनाने का काम कभी पूरा नहीं किया गया’।
इसी दौरान यूपी की भाजपानीत कल्याण सिंह सरकार ने केंद्र सरकार को याद दिलाया कि राज्य की मांग स्वीकार न होने से कारण पर्वतीय क्षेत्र की जनता में असंतोष पनप रहा है। मार्च 1992 में एनडी तिवारी ने राज्य का पुनः विरोध किया। 27 मार्च 1992 को मुक्ति मोर्चा ने बंद का आहवान किया और 30 अप्रैल को उत्तरांचल संघर्ष समिति ने जंतर मंतर पर रैली निकाली। पांच अगस्त 1993 को लोकसभा में उत्तराखंड राज्य के मुद्दे पर मतदान हुआ तो 98 सदस्यों ने पक्ष में और 152 ने विपक्ष में मतदान किया। 23 नवंबर 1993 को ‘उत्तराखण्ड जनमोर्चा’ का गठन हुआ। इसमें जगदीश नेगी, देब सिंह रावत, राजपाल बिष्ट व बीडी थपलियाल आदि शामिल थे।
1993 में हुए यूपी विधानसभा के मध्यावधि चुनावों में विजयी हुए मुलायम सिंह यादव ने पृथक उत्तराखंड की मांग को जायज बताते हुए 21 जून को अपने मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में उत्तराखंड राज्य गठन का खाका खींचने के लिए एक उपसमिति गठित की, जिसने पांच मई 1994 को पेश की गई अपनी 356 पेज की रिपोर्ट में आठ पर्वतीय जनपदों को मिलाकर एक पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने और गैरसेंण को प्रस्तावित उत्तराखंड प्रदेश की राजधानी के रूप में प्रस्तुत किया। 24 अप्रैल 1994 को दिल्ली के पूर्व निगमायुक्त बहादुर राम टम्टा के नेतृत्व में रामलीला मैदान से संसद मार्ग थाने तक विशाल प्रदर्शन किया गया। किंतु इसी बीच मुलायम सरकार द्वारा 11 दिसंबर 1993 को शासकीय सेवाओं में ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों के लिए 27 फीसद आरक्षण देने की व्यवस्था लागू करने का उत्तराखंड में इस आधार पर भारी विरोध हुआ कि यहां इन जातियों की आबादी मात्र डेढ़ फीसद थी।
इस आंदोलन ने निरंतर व्यापक होते हुए आगे निर्णायक उत्तराखंड आंदोलन का स्वरूप ग्रहण किया, और इसके परिणामस्वरूप 22 जून 1994 को मुलायम सरकार ने उत्तराखंड के लिए अतिरिक्त मुख्य सचिव नियुक्त करने की घोषणा की। 11 जुलाई को पौड़ी में उक्रांद ने प्रदर्शन करके 791 लोगों की गिरफ्तारी दी। दो अगस्त को पौड़ी में वयोवृद्ध नेता इंद्रमणि बड़ोनी के नेतृत्व में आमरण अनशन शुरु किया गया। 7-8 और नौ अगस्त को पुलिस का लाठी चार्ज के साथ ही पूरे उत्तराखंड में प्रखर राज्य जनांदोलन का बिगुल बज गया। 10 अगस्त को श्रीनगर में ‘उत्तराखण्ड छात्र संघर्ष समिति’ का गठन हुआ और 16 अगस्त को संसद एवं जंतर-मंतर पर आंदोलनकारी संगठनों का धरना शुरू हुआ, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तमाम आंदोलनकारी संगठन जुड़े।
24 अगस्त-94 को यूपी विधानसभा में दूसरी बार अलग राज्य का प्रस्ताव पारित हुआ। इसी बीच छात्र नेता मोहन पाठक और मनमोहन तिवारी ने राज्य के समर्थन में नारेबाजी करते हुए संसद में छलांग लगाई। 30 अगस्त को पूरे देश से आए हजारों उत्तराखंडियों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया।, जिस पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े। दो सितंबर 1994 को खटीमा में जुलूस निकाल रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग की, यह उत्तराखण्ड आंदोलन का पहला गोलीकांड था। इसमें आठ आंदोलनकारी शहीद हुए, और हल्द्वानी और खटीमा में कर्फ्यू लगा।
दो सितंबर को मसूरी में आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कहर बरपा, जिसमें पुलिस उपाधीक्षक सहित आठ आंदोलनकारी शहीद हो गए। इसके विरोध में दिल्ली सहित पूरे देश में भारी आक्रोश फैल गया। आठ सितंबर को छात्रों के आहवान पर 48 घंटे उत्तराखंड बंद रहा। 20 सितंबर को ‘पर्वतीय कर्मचारी शिक्षक संगठन’ के बैनर तले राज्य कर्मचारी बेमियादी हड़ताल पर चले गए। दो अक्टूबर 1994 को लाल किले के पीछे के मैदान में आयोजित रैली के लिए लाखों उत्तराखंडी शांतिपूर्वक दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे। यूपी पुलिस ने इस दौरान मुजफ्फरनगर व रामपुर तिराहा में महिलाओं के साथ हुए अमानवीय दुर्व्यवहार किया। यहां आठ आंदोलनकारी शहीद हुए, जबकि कई महिलाओं की अस्मत लूटी गई। पुलिस की बर्बरता से समूचे उत्तराखंड में व्यापक आक्रोश फैल गया। घिनौनी करतूत पर शर्मिंदा होने की बजाय यूपी पुलिस ने फिर तांडव किया। देहरादून और कोटद्वार मे दो-दो और नैनीताल में एक आंदोलनकारी प्रताप सिंह शहीद हुए।
इस पर नैनीताल में माधवानंद मैनाली (देहावसान 20 सितम्बर 2017) के नेतृत्व में ही ‘नागरिक संघर्ष समिति’ के बैनर तले 54 दिनों तक लंबा धरना कार्यक्रम चला। उधर 13 अक्टूबर को आंदोलन के चलते देहरादून में कर्फ्यू लगा दिया गया। यहीं पर एक और आंदोलनकारी ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। अक्टूबर में सतपाल महाराज ने ’संयुक्त संघर्ष समिति’ के संरक्षक के रूप में बद्रीनाथ से नारसन तक जनजागरण पदयात्रा की।
सात दिसंबर को बीसी खंडूड़ी के नेतृत्व में लाल किला मैदान पर भाजपा की रैली में अटल विहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती व कल्याण सिंह आदि ने भी शिरकत की। उत्तराखंड आंदोलन संचालन समिति के आहवान पर संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान जेल भरो आंदोलन में 4612 लोगों ने गिरफ्तारी दी। 22 दिसंबर को हड़ताली कर्मचारी ‘काम के साथ संघर्ष’ का नारा देते हुए काम पर लौटे, जबकि छात्रों ने ‘पढाई के साथ लड़ाई’ का नारा बुलंद किया। 25 फरवरी 1995 को प्रमुख आंदोलनकारी संगठनों का दो दिवसीय प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन जवाहरलाल नेहरू विवि के सिटी सेंटर में डा. कर्ण सिंह के उदघाटन संबोधन के साथ शुरू हुआ।
23 मार्च को शहीद भगत सिंह आजाद के शहादत दिवस पर ले.जन. गजेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व में पूर्व सैन्य अधिकारियों व पूर्व सैनिकों ने अन्य आंदोलनकारियों के साथ मिलकर विशाल प्रदर्शन किया। 30 दिसंबर को मुजफ्फरनगर कांड के अपराधियों को तत्काल दंडित करने की मांग को लेकर सैकड़ों महिलाओं ने गृह मंत्री के आवास पर प्रदर्शन किया। आठ अक्टूबर को अलकनंदा की जलधारा के बीच स्थित श्रीयंत्र टापू पर यूकेडी (डंगवाल) ने आमरण अनशन शुरू किया। पांच नवंबर को पुलिस का दमन चक्र फिर चला, जिसमें पुलिस ने दो आंदोलनकारियों को अलकनंदा की तेज जलधारा में बहा दिया, साथ ही अनेक आंदोलनकारियों को सहारनपुर जेल भेज दिया गया।
12 अक्टूबर को दिवाकर भट्ट ने खैट पर्वत पर पुनः आमरण अनशन शुरू किया। जनवरी 1996 में केंद्र और आंदोलनकारियों के बीच वार्ता शुरू हुई। 26 जनवरी को दिल्ली के विजय चौक पर परेड के दौरान ही संयुक्त महिला संघर्ष समिति की 44 महिलाओं और 18 नवयुवकों ने संसद की वीआईपी गैलरी में राज्य के समर्थन में जोरदार नारेबाजी की।, इस पर आन्दोलनकारी उषा नेगी को गिरफ्तार किया गया। परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने लाल किले की प्राचीर से उत्तराखंड राज्य बनाने की ऐतिहासिक घोषणा की, अगले साल पीएम इंद्र कुमार गुजराल ने भी लाल किले से इस संकल्प को दोहराया।
1998 में अटल बिहारी के नेतृत्त्व वाली भाजपा की गठ्बंधन सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से उत्तराखंड राज्य संबंधी उत्तर प्रदेश पुर्नगठन विधेयक यूपी विधानसभा को भेजा। इस बीच दिल्ली में जन्तर मन्तर पर आंदोलनकारियों का धरना जारी था। नौ अगस्त को भारी पुलिस बल ने धावा बोलकर उन्हें भगा दिया। इस पर आंदोलनकारी मंदिर मार्ग पर धरना करने लगे और बाद में पुनः जंतर मंतर पर आ गये। 1999 में कांग्रेस नेता हरीश रावत पहली बार संघर्ष में कूदे। 20 जुलाई 2000 को उत्तर प्रदेश पुर्नगठन विधेयक तत्कालीन अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के द्वारा लोकसभा में पेश किया गया, तथा एक अगस्त को लोकसभा और 10 अगस्त को राज्यसभा ने इसे मंजूरी दी।
15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से पीएम अटल बिहारी ने उत्तराखंड गठन की घोषणा की। 16 अगस्त को जंतर-मंतर पर छह सालों से चल रहे धरने का समापन करने में सभी आंदोलनकारियों, संगठनों और दलों ने भाग लिया। 28 अगस्त को राष्ट्रपति केआर नारायणन ने भी राज्य गठन विधेयक को मंजूरी दे दी। और आखिर नौ नवंबर को ‘उत्तरांचल’ राज्य अस्तित्व में आया, तथा नित्यानंद स्वामी ने पहले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। जनवरी 2007 में एनडी तिवारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने राज्य का नाम ‘उत्तराँचल’ से बदलकर ‘उत्तराखण्ड’ कर लिया।
अंग्रेजों के आगमन (1815) से ही अपना अलग अस्तित्व तलाशने लगा था उत्तराखंड
नैनीताल। नौ नवंबर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आए उत्तराखंड राज्य का गठन बहुत लंबे संघर्ष और बलिदानों के फलस्वरूप हुआ। क्षेत्रीय जनता ने अंग्रेजों को 1815 में सिगौली की संधि के साथ इसी शर्त के साथ अपनी जमीन पर पांव रखने दिये थे कि वह उनके परंपरागत कानूनों के साथ उन्हें अलग इकाई के रूप में रखेंगे। ब्रिटिश कुमाऊं के पहले कमिश्नर बने ई गार्डनर के बीच 27 अप्रैल 1815 को हुई सिगौली की संधि में इस भूभाग को अलग प्रशासनिक अधिकार दिये जाने की शर्त रखी गई थी, जिसे अलग पटवारी व्यवस्था जैसे कुछ प्रावधानों के साथ कुछ हद तक मानते हुए अंग्रेजी दौर से ही प्रशासनिक व्यवस्था उनके हक-हकूकों पर पाबंदी लगाती रही।
इसी कारण कभी यहां विश्व को वनों के संरक्षण का संदेश देने वाला ‘मैती आंदोलन’ तो कभी देश को नया वन अधिनियम देने वाला ‘वनांदोलन’ लड़ा गया। सितम्बर 1916 में, बाद में स्वतंत्र भारत के दूसरे गृह मंत्री बने गोविन्द बल्लभ पंत, ‘कुमाऊं केसरी’ बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत, इंद्र लाल साह, मोहन सिंह दड़मवाल, चन्द्र लाल साह, प्रेम बल्लभ पांडे, भोला दत्त पांडे व लक्ष्मीदत्त शास्त्री आदि के द्वारा ‘कुमाऊं परिषद्’ की स्थापना की गई, जो कि 1926 में स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए कांग्रेस में समाहित हो गई। 27 नवम्बर 1923 को संयुक्त प्रांत के गवर्नर को ज्ञापन देकर पूर्व की तरह अलग इकाई बनाए रखने की मांग की।
आगे वर्ष 1940 में कांग्रेस के हल्द्वानी सम्मेलन में बद्री दत्त पांडे ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊं-गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन करने की मांगें रखीं। 1952 में सीपीआई नेता कामरेड पीसी जोशी ने अलग राज्य की मांग उठाई। 1954 में विधान परिषद के सदस्य इंद्र सिंह नयाल (वर्तमान कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता) ने यूपी के मुख्यमंत्री बने गोविंद बल्लभ पंत के समक्ष विधान परिषद में पर्वतीय क्षेत्र के लिए पृथक विकास योजना बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसके फलस्वरूप 1955 में फजल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की।
वर्ष 1973 से यूपी में उत्तराखंडवासियों को कुछ दिलासा देने को पर्वतीय विकास विभाग का गठन कर दिया गया, लेकिन बात नहीं बनी। 24 जुलाई 1979 को पृथक राज्य के गठन के लिए मसूरी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के भौतिकी वैज्ञानिक एवं गांधीवादी विचारक कुमाऊं विवि के कुलपति डा. डीडी पंत की अगुवाई में हुई बुद्धिजीवियों की बैठक में उत्तराखंड क्रांति दल नाम से राजनीतिक दल का गठन किया गया। नवम्बर 1987 में पृथक राज्य के गठन के लिए नई दिल्ली में प्रदर्शन हुआ और राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजकर हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की मांग की गई। आगे 1994 में यूपी में अन्य पिछड़ी जातियों को 27 फीसद आरक्षण देने के विरोध में सुलगे आरक्षण आंदोलन की चिनगारी राज्य आंदोलन की मशाल बन उठी। इस आंदोलन के छह वर्ष बाद उत्तराखंड राज्य का गठन किया गया।
इस तरह हुई थी उत्तराखंड आंदोलनकारियों के साथ बर्बरता
नैनीताल। उत्तराखंड राज्य की अलग माँग को लेकर पूरे प्रदेश के आंदोलनकारी 2 अक्तूबर 1994 को दिल्ली में विशाल प्रदर्शन के लिए कूच कर रहे थे। इसी दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने आंदोलनकारियों को दिल्ली जाने से रोकने के आदेश दिए, और पुलिस ने तत्कालीन सरकार के आदेश पर 1 अक्टूबर की रात को सभी आंदोलनकारियों को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर रोक लिया। रोके जाने से आंदोलनकारी नाराज हुए तो पुलिस ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर फायरिंग कर दी, जिसमें दर्जन भर पुरुष और महिला आंदोलकारी शहीद हो गए, और सैकडो आंदोलनकारी घायल हो गए। साथ ही आंदोलन में दिल्ली जा रही महिला आंदोलनकारियों के साथ दुष्कर्म भी किया गया।
राज्य आंदोलन में इन आंदोलनकारियों ने दी थी शहादत
अजबपुर कलां, 22 वर्षीय, ग्रीश कुमार भंडारी, दून के राजेश लखेड़ा, सतेंद्र सिंह चौहान सेलाकुई, सूर्यप्रकाश शर्मा निवासी मुनि की रेती, 21 वर्षीय रवींद्र रावत निवासी नेहरू कॉलोनी, अशोक कुमार निवासी ऊखीमठ चमोली, उपचार के दौरान मौत। 18 आंदोलनकारी बंदूक की गोली से जख्मी हुए। उस रात दिल्ली जा रही सात आंदोलनकारी महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म, जबकि 17 के साथ अभद्रता व छेड़खानी की गई।
राज्य आंदोलन में कुमाऊं के शहीद
9 नवंबर के दिन का इतिहास :
- 1236 : आज ही के दिन रूकनुद्दीन फिरोज शाह को फांसी दी गई थी.
- 1270 : महान संत नामदेव का जन्म.
- 1877 : उर्दू के महान कवि और दार्शनिक मोहम्मद इकबाल का जन्म. वह सियालकोट में पैदा हुए, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है.
- 1922 : अल्बर्ट आइंस्टाइन को 1921 में भौतिक शास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने का फैसला किया गया था. नोबेल समिति ने किन्हीं कारणों से 1921 के पुरस्कार के विजेता का चयन 1922 में किया.
- 1943 : संयुक्त राष्ट्र राहत और पुनर्वास प्रशासन की स्थापना की गई और शुरू में 44 देशों ने इसकी स्थापना पर सहमति जताई.
- 1947 : जूनागढ़ को भारतीय संघ में शामिल किया गया.
- 1960 : भारत के पहले एयर चीफ मार्शल सुब्रत मुखर्जी का निधन.
- 1985 : दुनिया का सबसे चर्चित दंपति, राजकुमार चार्ल्स और राजकुमारी डायना विवाह के बाद अमेरिका पहुंचे, जहां उनका जबर्दस्त स्वागत किया गया.
- 1989 : तीन दशक तक पश्चिमी और पूर्वी बर्लिन को अलग करने वाली बर्लिन की दीवार को गिरा दिया गया. इसे 1961 में बनाया गया था और इसकी लंबाई बढ़ते-बढ़ते 45 किलोमीटर तक पहुंच गई थी.
- 1989 : ब्रिटेन में मौत की सज़ा पर पूरी तरह से रोक लगाई गई.
- 1996 : एवेंडर होलीफील्ड ने तकनीकी आधार पर माइक टायसन को हराकर विश्व हैवीवेट मुक्केबाजी का खिताब तीसरी बार जीता.
- 2000 : आज ही के दिन उत्तराखंड की स्थापना हुई थी.
पृथक राज्य आंदोलन में महिलाओं की भी रही प्रमुख भूमिका
नैनीताल। पृथक राज्य आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पर विस्तृत शोध करने वाली कुमाऊं विश्व विद्यालय के इतिहास विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डा. सावित्री कैड़ा जंतवाल बताती हैं कि उत्तराखंड आंदोलन के दौरान पुलिस के दमन का शिकार होने वाली पहली महिला के रूप में आंदोलनकारी जगदंबा देवी रतूड़ी का नाम आता है, जिन्हें दो अगस्त 1994 को पौड़ी में आमरण अनशन पर बैठे वयोवृद्ध नेता इंद्रमणि बड़ोनी व उनके साथियों के साथ हुए संघर्ष का विरोध करने पर पुलिस कर्मी द्वारा सड़क पर गिराकर जमकर मारा-पीटा गया।
देहरादून में सुशीला बलूनी कचहरी परिसर में अनशन पर बैठी, उधर कमला पंत ने प्रगतिशील महिला मंच के द्वारा अन्य महिलाओं के साथ मिल कर एक नारा प्रचलित किया, “आरक्षण का एक इलाज-पृथक राज्य पृथक राज्य”। इस दौरान पुष्पा चौहान सहित कई अन्य महिला आंदोलनकारी को भी पीटा गया और बदसलूकी हुई। इस दौरान 17 अगस्त 1994 को अलग राज्य की मांग लेकर महिलाओं की पहली विशाल रैली निकली, जिस कारण पुष्पलता सिलमान, भुवनेश्वरी देवी, पार्वती नेगी, कमला पंत व निर्मला बिष्ट सहित डेढ़ दर्जन से अधिक महिला आंदोलकारी गिरफ्तार की गईं।
इस घटना के विरोध में नैनीताल में 20 अगस्त को आमरण अनशन पर बैठे राज्य आंदोलनकारियों के समर्थन में नैनीताल में पहली बार कुंती वर्मा, देवकी चौनियाल, जानकी देवी व भगवती वर्मा धरने पर बैठीं। उधर दो सितंबर 1994 को खटीमा में हुए प्रथम गोलीकांड के विरोध में मंसूरी में जुलूस निकालने के लिए हंसा धनाई और बेलमती चौहान शहीद हो गईं, जो उत्तराखंड आंदोलन में शहीद होने वाली प्रथम महिला आंदोलनकारी थीं। वहीं दो अक्टूबर 1994 को रात्रि में मुजफ्फरनगर व रामपुर तिराहा में दिल्ली कूच के दौरान अनेक महिला आंदोलनकारी पुलिस के क्रूर व अमानवीय दमनचक्र का शिकार हुईं, जबकि दर्जनों महिलाएं गिरफ्तार हुईं। आगे महिलाओं ने दिसंबर 1994 में राज्य आंदोलन में राज्य आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए डा. धनेश्वरी तोमर के संयोजकत्व में ‘उत्तराखंड महिला मंच’ का गठन किया।
गैर ही रहा गैरसैंण (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state)
देश में उत्तराखण्ड ऐसा अभागा प्रदेश है, जिसकी स्थायी राजधानी राज्य बनने के 17 साल बाद भी तय नहीं हो पाई है। वर्ष 1994 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उत्तराखंड राज्य गठन हेतु रमा शंकर कौशिक समिति का गठन किया गया और इस समिति ने उत्तराखंड राज्य का समर्थन करते हुए 5 मई 1994 को कुमाऊँ एवं गढ़वाल के मध्य स्थित गैरसैंण (चंद्रनगर) नामक स्थान पर राजधानी बनाने की संस्तुति दी।
उस समिति की रिपोर्ट के मुताबिक गैरसैंण को 60.21 फीसदी अंक मिले थे, जबकि नैनीताल को 3.40, देहरादून को 2.88, रामनगर-कालागढ़ को 9.95, श्रीनगर गढ़वाल को 3.40, अल्मोड़ा को 2.09, नरेंद्रनगर को 0.79, हल्द्वानी को 1.05, काशीपुर को 1.31, बैजनाथ-ग्वालदम को 0.79, हरिद्वार को 0.52, गौचर को 0.26, पौड़ी को 0.26, रानीखेत-द्वाराहाट को 0.52 फीसद अंक मिलने के साथ ही किसी केंद्रीय स्थल को 7.25 फीसद अन्य को 0.79 प्रतिशत ने अपनी सहमति दी थी। गैरसैंण के साथ ही केंद्रीय स्थल के नाम पर राजधानी बनाने के पक्षधर लोग 68.85 फीसद थे।
कौशिक समिति की संस्तुति पर 24 अगस्त 1994 को उत्तर प्रदेश विधानसभा ने उत्तराखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया। आगे उत्तराखंड की नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी प्रथम सरकार ने राजधानी गैरसैण (चंद्रनगर) के नाम पर एक राजनैतिक षडयंत्र के तहत दीक्षित आयोग नाम की एक समिति गठित कर हमारे ऊपर थोप दिया और दीक्षित आयोग ने 11 बार अपना कार्यकाल बढ़ने के बाद वही रिपोर्ट दी जिसकी वहां की जनता को पहले ही आशंका थी।
असल में दीक्षित आयोग का गठन ही गैरसैण को राजधानी न बनाने के लिए किया गया था। इसके साथ ही राष्ट्रीय दलों ने गैरसैण का विरोध शुरू किया। गैरसैंण के विरोध में वे लोग हैं, जो न आन्दोलन में थे और न उनकी कही आन्दोलन में भूमिका रही थी। राज्य के लिए 42 लोगों की शहादत और राजधानी गैरसैण (चंद्रनगर) के लिए बाबा मोहन उत्तराखंडी 38 दिनों तक आमरण अनशन करने के बाद बाबा मोहन उत्तराखंडी शहीद हुए थे। और छात्र कठैत ने भी शहादत दी थी। गैरसैंण केवल स्थान हीं नहीं अपितु उत्तराखण्ड में लोकशाही के प्रतीक का भी केन्द्र बिंदु है, जबकि राज्य के एक कोने पर स्थित देहरादून उत्तराखण्डियों के लिए लखनऊ से बदतर साबित हो रहा है।
क्यों गैरसैंण : पंकज सिंह महर
बहुत दिनों से गैरसैण को राजधानी बनाने वाले युवा लोगों का उत्साह देख रहा था, और इसको ना चाहने वाले लोगों के कुतर्क भी। कुतर्कों से दुख तो हुआ लेकिन पहले तो सोचा कि छोड़ो भैंस के आगे बीन बजाने से क्या होगा। लेकिन जब हमारे युवा-उत्तराखंड के तथाकथित उत्तराखंड प्रेमी लोग अपने कुतर्कों को इस इंटरनैट युग में इधर उधर फैलाने लगे और उनके पीछे पीछे कुछ लोग “हम तुम्हारे साथ हैं” की तरह पर हुवां-हुवां चिल्लाने लगे तो लगा कि मुझे भी अपनी भावनायें व्यक्त कर ही देनी चाहिये।
वे कहते हैं कि गैरसैण क्यों? मैं कहता हूँ ‘ उत्तराखंड क्यों’ फिर ‘भारत क्यों’। अग्रेजों के जमाने में भी ऐसे कुछ लोग रायबहादुर का खिताब लेकर अंग्रेजों के जूते चाटते थे और कहते थे कि हमें आजादी क्यों चाहिये। लेकिन एक आम आदमी के लिये आजादी अस्मिता का सवाल था, खुली हवा में सांस लेना वही समझ सकता है जिसने बदबूदार, सीलन युक्त कोठरी में दिन बितायें हैं।
जिन लोगों ने ना पहाड़ के उस दर्द को देखा है जो धीरे धीरे पहाड़ को उजाड़ रहा है और ना आज की उसकी वास्तविकता से वाकिफ हैं वो तो कहेंगे ही गैरसैण क्यों। यदि ए.सी. चैम्बर में बैठकर इंटरनैट पर धक्कापेल करने से ही उत्तराखंड का विकास होना होता तो उत्तराखंड आज सबसे अच्छा राज्य होता। उत्तरप्रदेश के वे अधिकारी क्या बुरे थे जो लखनऊ में बैठकर पहाड़ के भाग्य का फैसला करते थे। ऐसे लोगों के लिये पहाड़ केवल साल में एक बार छुट्टी बिताने के लिये जाने वाला स्थान है, और फिर अपने लेटेस्ट कैमरे से फोटो खींच कर इंटरनैट पर साझा करके अपने को तीसमारखां समझने का माध्यम भी ।
पहाड़ का आदमी आज पहाड़ से क्यों भागने को मजबूर है, इसीलिये क्योंकि पहाड़ को पहाड़ के ऐसे नैनिहालों ने बिसरा दिया है। दिल्ली, मुम्बई, लंदन, कनाडा, दुबई में बैठकर पहाड़ी गीत गाना, पहाड़ी नाइट आयोजित करना और हो हो करते हुए हँसते हुए पहाड़ की दुर्दशा का दुखड़ा रोना, यह सब बहुत आसान है। कठिन है तो पहाड़ में बैठकर एक आम पहाड़ी के दर्द को महसूस कर उसके लिये चुपचाप कुछ करते जाना।
लेकिन जब तक पहाड़ के लिये कुछ करने के नाम पर अपने नाम को आगे करने, कोई संस्था बनाकर उसके लिये चंदा उगाहने और पहाड़ के हालात बदलने के नाम पर साल में एक दो बार पहाड़ के प्रायोजित टूर करने की प्रवृति सामने रहेगी तब तक पहाड़ का भला होने वाला नहीं। गैरसैण के नाम पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले कितने लोग उत्तराखंड के मानचित्र पर गैरसैंण को पहचान सकते हैं। उनमें से कितने लोगों को उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति की सही सही जानकारी है। लेकिन नहीं उन्हें बिना जाने समझे सिर्फ विरोध करना है तो करेंगे।
आज राजधानी बदलने से पहाड़ के बुनियादी विकास की नींव पड़ेगी। उन अधिकारियों, नेताओं को भी उन्ही सब असुविधाओं से दो चार होना पड़ेगा जिन्हें एक आम उत्तराखंडी हर दिन झेलता है। यह लोकतंत्र है कोई राजशाही तो नहीं कि प्रजा परेशान और राजा महान। यदि उत्तराखंड भूकंप प्रभावित क्षेत्र है तो क्या, राजधानी भी ऐसे ही जगह में हो तो क्या बुरा है। आप राजधानी को ऐसे क्षेत्र से निकालकर अलग बनाना चाहते हैं ताकि जनता मरे और आप राहत कार्यों का हवाई सर्वेक्षण करने पहुंच जायें। नीरो ऐसे ही तो बंशी बजा रहा था जब रोम जल रहा था। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
सुदूर क्षेत्र में बैठे एक आम उत्तराखंडी को किसी भी काम के लिये राजधानी जाने के लिये कितना समय लगता है उससे आपको क्या मतलब। आपके पास जहाज है, गाड़ी है पहुंच जाइए देहरादून, हल्द्वानी या नैनीताल। आपको इससे क्या कि एक पहाड़ी को 2 मील दूर से हर रोज पीने का पानी लाना पड़ता है। आप कहेंगे इसकी क्या जरूरत है मिनरल वाटर क्यों नहीं खरीद लेता। पढ़ाई के लिये पांच मील दूर स्कूल जाना होता है जिसमें साल के आधे से ज्यादा दिन पढ़ाई नहीं होती। आप कहेंगे घर बैठे ई-लर्निंग क्यों नहीं कर लेता। अस्पताल जाने के लिये 15 मील चलना पड़ता है। मेडिकल इंस्योरेंस नहीं है क्या? (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
जब पहाड़ से निकले लोग ही बड़े शहरों में जाकर पहाड़ के असली दुख दर्दों को भूल जाते हैं और सिर्फ फैशन के लिये उत्तराखंड प्रेम की दुहाई देते हैं और खुद को पहाड़ी कहलाने में शर्म महसूस करते हैं तो उन देहरादून में बैठे शहरों में पले बड़े अधिकारियों का क्या दोष। “गैरसैण क्यों “यह सवाल ही एक बहुत बड़ा तमाचा है उन लोगों पर जिन्होंने पहले उत्तराखंड का सपना देखा और अब राजधानी परिवर्तन की जिद पाले बैठे हैं। यह तमाचा है हर उस पहाड़ में रहने वाले उत्तराखंडी पर जो आज भी अपने दैनिक सुख सुविधाओं के लिये जूझ रहा है। पहाड़ में शराब घर घर पहुंच गयी है, ऐसा कहने वाले लोग बहुत मिलेंगे, लेकिन उसका समाधान क्या है यह कोई नहीं बतायेगा। इसके जिम्मेवार भी वही लोग हैं जो पूछते हैं गैरसैण क्यों?
हाँ तो कुछ तथाकथित उत्तराखंड प्रेमी कह रहे हैं कि यह केवल भावनात्मक मुद्दा है। कह रहे हैं आप लोग पागल हो जो केवल भावनाओं के वशीभूत होकर काम करते हो। हमें देखो हमने अपनी भावनाओं को काबू में किया इसलिये आज सब कुछ छोड़छाड़कर दिल्ली, मुम्बई, लंदन, दुबई ना जाने कहाँ कहाँ बैठे हैं। ऐसे ही लोग होते हैं जो भावनाओं की परवाह नहीं करते और अपने माँ-बाप और कम पढे लिखे भाई-बहनों को पहाड़ की कठिन भूमि में छोड़कर उड़ंछू हो जाते हैं। लेकिन यही लोग यह भी कहते हैं हम उत्तराखंड के नाम को बेचेंगे, लोगों को भावनात्मक रूप से मजबूर करेंगे कि वह हमसे जुडें और बदले में हम नाम, दाम कमायेंगे। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
यदि गैरसैंण की रट लगाने वाले पगले लोग भावनात्मक मुद्दे पर उछ्ल रहे हैं तो आप क्या कर रहे हैं आप भी तो लोगों को भावनात्मक रूप से मजबूर कर रहे हैं। आप उत्तराखंड के नाम पर ग्रुप बना रहे हैं, एन जी ओ बना रहे हैं, ट्र्स्ट बना रहे हैं, साहित्य लिख रहे हैं, कविता कहानी लिख रहे हैं..क्यों भला। खुद ही ना जाने क्या क्या अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, संचालक, प्रवर्तक बन बैठे हैं, क्यों? व्हाई…क्यों आप लोगों को उत्तराखंड के नाम पर भावनात्मक रूप से भड़का रहे हैं। आप भावनात्मक रूप से करें तो ठीक और हम करें तो गलत. क़्यों? व्हाई…..
लेकिन इसे केवल भावनात्मक मुद्दा बताने वाले उस अधजल गगरी की तरह हैं जो छलकती रहती है। कहते हैं ना A Little Knowledge is a Dangerous Thing ठीक वही बात है। या तो ये कुछ ना जानते होते, तो चुप रहते और केवल अपनी परेशानियों का हल ढूंढने के लिये ही सही गैरसैण को राजधानी बनाने की बात कहते। एक आम उत्तराखंडी इसीलिये ही तो जुड़ा है इस आन्दोलन से। या फिर यह जानकार ही होते, पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी वर्ग की तरह। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
उत्तराखंड का यही वर्ग तो है जो गैरसैण को समर्थन दे रहा है। प्रेमियों को शायद यह भी नहीं मालूम कि यह राजनीतिक मुद्दा है ही नहीं क्योंकि इस पर किसी भी पार्टी ने अपना मत साफ नहीं किया है। इसको उत्तराखंड के बुद्धिजीवी वर्ग ने समर्थन दिया है और दे रहे हैं। यदि हमारे प्रेमी लोग जानते हों तो कौशिक समिति की रिपोर्ट में 60 % लोगों ने गैरसैण को सीधे और 8% ने केन्द्रीय स्थान के बहाने गैरसैण को ही चुना था। अब कौशिक समिति क्या थी किससे इसने बात की थी वह मैं यहाँ नही बताने जा रहा। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
यह लोग तो चार किताबें पढ़ लिये और अच्छी अंग्रेजी लिखना सीख गये यह तो कहेंगे ही व्हाई गैरसैण… पद्म श्री शेखर पाठक हों या गैरसैण के लिये शहादत देने वाले बाबा उत्तराखंडी या बुद्धिजीवी वर्ग के अन्य लोग, सभी दिलो जान से गैरसैण के लिये समर्थन में..व्हाई मेरे भाई। क्योंकि यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है इसके पीछे वैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक आधार हैं। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
तो अब आते हैं कि क्या गैरसैण केवल कुछ पगलाये लोगों का भावनात्मक मुद्दा ही है या इसके पीछे कोई अन्य कारण भी है। लेकिन पहले मैं कुछ खाये,पीये अघाये लोगों यह बता दूँ कि उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन भी कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं था। इसकी संकल्पना को बनने, पकने और आन्दोलन का रूप लेने में पर्याप्त समय लगा। यह केवल एक राज्य के भौगोलिक धरातल को कम कर अपने लिये जमीन छांट लेने की लड़ाई नहीं थी बल्कि हिमालय के समाजों की अलग भौगोलिक परिवेश में जीने वाले लोगों की परेशानियों को समझने में सक्षम सरकार की स्थापना करने की लड़ाई थी। हिमाचल हो या मेघालय सभी हिमालयी समाजों ने अपने अपने हिस्से के राज्य हमसे पहले प्राप्त कर लिये।
अब चुंकि व्हाई गैरसैण कहने वाले उत्तराखंड प्रेमी लोग पढ़े-लिखे हैं और अंग्रेजी बोलना बेहतर समझते हैं तो उनके लिये कुछ अंग्रेजी सन्दर्भ देने की कोशिश कर रहा हूँ। जीन-जैकस रूसो एक दार्शनिक हुआ करते थे। रूसे साहब मानते थे कि विज्ञान व कला के विस्तार से नैतिक गुणों का ह्रास होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, और इंसान स्वभावत: अच्छे ही होते हैं लेकिन घटनायें या दुर्घटनायें या परिस्थितियां उन्हें बुरा बना देती हैं, ऐसे ही लोग समाज-निर्माण करते हैं। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
उन्होने यह भी कहा कि एक संगठित राज्य एक मानव शरीर की तरह है, जिस तरह शरीर के प्रत्येक हिस्से का अपना एक कार्य होता है उसी तरह राज्य के अलग अलग हिस्से अलग अलग कार्य करते हैं और एक अच्छे राज्य के लिये भी इसके सभी भागों का सुचारु रूप से कार्य करना आवश्यक है। उन्होने यह भी कहा कि यदि राजनैतिक सत्ता , जन भावनाओं के अनुसार काम नहीं करती तो राज्य में विवाद होना अवश्यम्भावी है। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
ऐसे ही एक भूगोलवेत्ता थे कार्ल रिटर जिन्होने राज्य के जैविक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत को फ्रेडरिक रैटजल, हॉसहॉफ़र और रुडोल्फ जैसे कई लोगों ने माना और आगे बढ़ाया। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
राज्य के जैविक विकास के सिद्धांत के अनुसार जिस प्रकार शरीर कोशिकाओं का बना होता है वैसे ही राज्य का हर स्थान मानव शरीर की एक कोशिका की तरह काम करता है। यही कोशिकायें समान इच्छा शक्ति, समान आकांक्षा, समान गुण-धर्म वाले लोगों के आवास में बदल जाती हैं और राज्य के गुण-धर्म को प्रभावित करती हैं। तो एक राज्य का गुण-धर्म उनमें स्थित स्थानों और उन स्थानों में रहने वाले व्यक्तियों की भावना का प्रतिरूप होता है। डार्विन नें लगभग यही सिद्धांत जीव-विकास के लिये प्रतिपादित किया था। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
अमरीकी भूगोलविज्ञानी स्टीलसी ने माना की किसी भी राज्य में एक ऐसा ऊर्जा केन्द्र होता है जो राज्य को जीवित रखता है। स्टीलसी नें एक नाभिस्थल की संकल्पना की और कहा किसी भी राज्य के भविष्य का निर्धारण उसके नाभि-स्थल (महत्वपूर्ण स्थल) से होता है। हाँलाकि स्टीलसी ने स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि यह नाभिस्थल ही राजधानी का स्थान है लेकिन कई विद्वानों नाभि-स्थल को राजधानी के रूप में प्रतिपादित किया। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
अब यदि उत्तराखंड राज्य हिमालय समाज को एक अलग परिप्रेक्ष्य में रखकर उसका योजनाबद्ध विकास करने के लिये बना है और इसका मूल गुण-धर्म पहाड़ी है तो इसकी राजधानी पहाड़ में होनी चाहिये ना कि मैदानी इलाके में, और यह स्थान नाभि की तरह राज्य के मध्य भाग के आसपास होना चाहिये। इस स्थिति में गैरसैण एक उपयुक्त स्थान बैठता है। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
कुछ लोगों का कहना है कि यदि गैरसैण में राजधानी बनेगी तो इसमें बहुत खर्चा होगा। तो इसमें बुराई क्या है? यदि पहाड़ के विकास के लिये खर्चा हो रहा तो अच्छा ही तो है। क्या आप चाहते हैं कि यह खर्चा केवल देहरादून जैसे बड़े शहरों तक ही सीमित रह जाये। कुछ कहते हैं कि उत्तराखंड में भ्रष्टाचार है इसलिये अधिकतर पैसा भ्रष्ट लोग खा जायेंगे। तो यह तो देहरादून पर होने वाले खर्चे के लिये भी सही है, वहाँ भी तो लोग पैसा खायेंगे तो ना करें कुछ भी खर्चा। अरे भ्रष्टाचार तो सारे भारत में हैं तो क्या सारे नये निर्माण रोक दिये जाने चाहिये। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
भ्रष्टाचार एक समस्या है हमें उसके भी समाधान की जरूरत है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जब तक वह समस्या हल नहीं हो जाती तब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। कई लोगों ने कहा है कि सरकारी योजनाओं का केवल 10 से 15 प्रतिशत ही इसके सही हकदार के पास पहुँचता है और यह केवल उत्तराखंड के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिये सत्य है। एक और जहाँ हमें इसके खिलाफ लड़ना है वहीं विकास को जारी रखना जरूरी है नहीं तो जो दस या पन्द्रह पैसा पहुंच रहा है वह भी नहीं पहुँचेगा।(1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
अब आते हैं कुछ और विद्वानों के उदाहरणों पर। कई लोगों ने राजधानियों पर शोध किया और अपनी पुस्तकें प्रकाशित की। डेविड गौर्डन, थामस हॉल जैसे विद्वानों ने 19 वीं व बीसवीं सदी की युरोप की राजधानियों का अध्ययन किया। इसके अलावा सर पीटर हॉल ने 7 प्रकार की राजधानियों को चिन्हित किया। कई विद्वानों के अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि राजधानी ही राज्य की दशा व दिशा को निर्धारित करती है। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
यूरोप के अधिकाश देशों की राजधानियाँ उसके नाभि स्थल में स्थित रही हैं। जिन देशों में ऐसा नहीं है उनमे से अधिकांश देश एक से अधिक राजधानियों का भार ढो रहे हैं। विद्वानों का यह भी मानना है कि सोवियत संघ के विघटन व जर्मनी के एकीकरण दोनों उदाहरण यह साबित करते हैं राजधानियाँ देश के भविष्य को प्रभावित करती हैं और यह करती रही हैं। तो यह रही वैज्ञानिक व अध्ययन आधारित सोच जो यह बताती है कि गैरसैण या उसके आसपास की जगह राजधानी के लिये उपयुक्त है। (1 Centenary Long Struggle for Uttarakhand state, History, Struggle of Uttarakhand State, Uttarakhand Statehood Movement, Separate State Demand)
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