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March 19, 2024

गूगल ने चिपको आन्दोलन पर डूडल बनाकर बढाया उत्तराखंड का मान

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चिपको से रहा है उत्तराखण्ड की महिलाओं के आन्दोलन का इतिहास

गौरा देवी

महिलाएं उत्तराखंड की दैनिक काम-काज से लेकर हर क्षेत्र में धूरी हैं। कदाचित वह पुरुषों के नौकरी हेतु पलायन के बाद पूरे पहाड़ का बोझ अपने ऊपर ढोती हैं। विश्व विख्यात चि‍पको आंदोलन और शराब विरोधी आंदोलनों से उनका आन्दोलनों का इतिहास रहा है। वनों को बचाने हेतु रैणी गांव की एक साधारण परंतु असाधारण साहस वाली महिला ‘गौरा देवी ने 21 मार्च 1974 को अपने गांव के पुरुषों की अनपुस्थिति में जिस सूझबूझ व साहस का परि‍चय दिया, वह चिपको आंदोलन के रूप में इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित होने के साथ ही अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया। जब उन्होंने व विभाग के कर्मचारि‍यों ने पेड़ों को काटने का वि‍रोध किया और न मानने पर वो तकरीबन 30 अन्य महिलाओं के साथ पेड़ों पर चि‍पक गई जिससे पेड़ काटने वालों को उल्टे पैर वापस जाना पड़ा। इस घटना के बाद 1975 में गोपेश्‍वर व 1978 में बद्रीनाथ समेत अनेक क्षेत्रों में महिलाओं ने वि‍रोध कर जंगलों को काटने से बचाया।

बकौल गिर्दा, यह रहा चिपको-वनान्दोलन का प्रभाव

‘हम भोले-भाले पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं। हमने देश-दुनिया के अनूठे ‘चिपको आन्दोलन’ वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन सच्चाई कुछ और थी।’ गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से जनता के हक-हकूकों पर और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी। 1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आंदोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आंदोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आंदोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आंदोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक-हुकूक के लिए आंदोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक-हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे, और आंदोलनकारियों को अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आंदोलन में अगली पंक्ति में रहे गिर्दा को आखिरी दिनों में यह टीस बहुत कष्ट पहुंचाती थी। उनके अनुसार ‘1972 में वनांदोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा अपने हक-हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन-यापन के लिए अधिकार लेने की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ आंदोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। वरन, जनता की स्थिति बद से बदतर हो गई। तत्कालीन पतरौलशाही के खिलाफ जो आक्रोष था, वह आज भी है। औपनिवेषिक व्यवस्था ने ‘जन’ के जंगल के साथ ‘जल’ भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम-वन निगम और बिल्डर वनों को वेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वशीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते हुए वह अपनी भूमि के निजी पेड़ों तक को नहीं काट सकते है। उन्हें हक-हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी लेने के लिए भी मीलों दूर जाना पड़ता है। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिस्ता खत्म हो गया है। वन जैसे उनके दुश्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें पूर्व की तरह अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजें तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहुंचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नजरों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़-पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब लोग गांव में अपना नया घर बनाना तो दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। लोगों का न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की ‘दुंदार’, न ‘बांस’ और न छत के लिऐ चौड़े ‘पाथरों’ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी ग्रामीण गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का शडयंत्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काष्ठशालायें, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बंद हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को ‘बाबीला’ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औषधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बंद हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी अत्यधिक चिंतित थे। उनका मानना था कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित न सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।

पर्यावरण-रक्षा के लिए “चिपको आंदोलन”

(26 मार्च 2018) 45 वर्ष पूर्व 1973 में (तत्‍कालीन उत्‍तर प्रदेश) वर्तमान में उत्तराखंड राज्य के पर्वतीय अंचल के गढ़वाल मंडल में चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी.चिपको आन्दोलन एक पर्यावरण-रक्षा का आन्दोलन रहा..दरअसल तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जंगल की जमीन को खेल का सामान बनाने वाली एक कंपनी को देने का फैसला कर लिया था.. ग्रामीणों ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए इस आंदोलन की रूपरेखा तय की..वे राज्य के वन विभाग के ठेकेदारों द्वारा वनों की कटाई का विरोध कर रहे थे और उन पर अपना परम्परागत अधिकार भी जता रहे थे..पेड़ों के कटान के इस फैसले का विरोध करने के लिए ग्रामीण विशेष रूप से महिलाएं पेड़ों के चारों तरफ घेरा बनाकर उससे चिपक जाती थीं.. इससे पेड़ों को काटना मुश्किल हो गया..
स्‍थानीय महिलाओं की अगुआई में शुरू हुए इस आंदोलन का प्रसार चंडी प्रसाद भट्ट और उनके एनजीओ “दशौली ग्राम स्वराज्य संघ” ने भी किया..व इस महान कार्य में विद्वान गांधीवादी विचारक सुंदरलाल बहुगुणा ने इस आंदोलन को दिशा दी और उन्‍होंने तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से पेड़ों की कटाई रोकने का आदेश देने की अपील की.. उसका नतीजा यह हुआ कि केंद्र की कांग्रेसनीत इंदिरा गांधी सरकार ने 15 वर्षों के लिए पेड़ों की कटाई को बैन कर दिया.. धूम सिंह नेगी, बचनी देवी, गौरा देवी और सुदेशा देवी इस आंदोलन से जुड़ी प्रमुख हस्तियां थीं..केवल उपरोक्त वर्णित नाम ही नही वरन गाँव के गाँव इस आंदोलन में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने लगे..इस शांत विरोध आंदोलन की सफलता के बाद यह आंदोलन देश के अन्‍य हिस्‍सों में भी फैलने लगा..
‘चिपको आन्दोलन’ का उदघोष रहा…
“क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।”
 सन १९८७ में इस आन्दोलन को सम्यक जीविका पुरस्कार (Right Livelihood Award) से भी सम्मानित किया गया..
कुलमिलाकर पर्यावरण की रक्षा के लिए जब रैणि गाँव उत्तराखंड की पाँचवी कक्षा तक पढ़ी गौरा देवी की भूमिका इतिहास में दर्ज हो सकती है तो पढ़ा लिखा समाज कब जागेगा..क्योंकि आज की स्थितियाँ 1973 में शुरू हुए चिपको आंदोलन से भी कठिन हो गई हैं..लोग जननायक तो चाहते हैं पर करना कुछ नही चाहते..इसलिए वनों के विलुप्त होने में पढ़े-लिखे समाज को ही ज्यादा जिम्मेदार कहा जायेगा..पेड़ों की उपलब्धता में विश्व में 180 देशों में हुए सर्वे में भारत 177 वें स्थान पर आसीन है..सरकारों को भी वनों ,वनाश्रितों के हितों को सुरक्षित करने के लिए कड़े कानून बनाने चाहिए..अन्यथा महंगाई,भ्रष्टाचार के मुद्दे भी गौण हो जाएंगे क्योंकि जनजीवन के लिए अतिआवश्यक तत्व ऑक्सीजन की भारी कमी हो जाएगी…
-संजय नागपाल नैनीताल

यह भी पढ़ें : गूगल ने पंडित नैन सिंह पर डूडल बना बढ़ाया देश के साथ उत्तराखंड का मान

  • ‘विक्टोरिया पदक’ व ‘कम्पेनियन इंडियन एम्पायर अवार्ड-सीआईएम’ जैसे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित प्रथम भारतीय थे नैन सिंह 
  • गूगल ने उन्हें बताया है, ‘उनके द्वारा नापे गए पर्वतों (हिमालय) की तरह अडिग विश्वास वाला व्यक्ति’
  • अनपढ़ होते हुए भी स्कूल खोलने व शिक्षक के रूप में कार्य करने पर मिली थी ‘पंडित’ की पदवी
  • अपने बराबर कदमों से चलकर और कंठी माला पर कदमों को गिनकर नापे थे हिमालय पर स्थित ‘एशिया की पीठ’ और बनाए थे मानचित्र

नवीन जोशी, नैनीताल। दुनिया का सबसे बड़ा खोज इंजन यूं हर खास मौके पर एक नया डूडल बनाने के लिए भी विख्यात है। किंतु आज 21 अक्टूबर को उसने जो डूडल बनाया है उसे देश के साथ खासकर उत्तराखंड वासियों का सिर गर्व से ऊंचा हो गया है, और वे दीपावली-भैया दूज पपर गूगल से मिले इस खास तोहफे को शायद कभी न भुला पाएं। यह तोहफा है गूगल द्वारा आज के दिन के लिये बनाया गया डूडल, जिसमें हाथ में कंठी माला पकड़े एक व्यक्ति को हिमालय के खूबसूरत पहाड़ों व नदी को सलाम करते हुए दिखाया गया है। गूगल पर अपना मनपसंद विषय खोजने वाली पूरी दुनिया आज इस शख्श के बारे में जानने को उत्सुक है। गूगल ने उन्हें ‘उनके द्वारा नापे गए पर्वतों (हिमालय) की तरह अडिग विश्वास वाला व्यक्ति’ बताया है। उत्तराखंड के लिये गर्व करने वाली बात यह है कि यह शख्श महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार, हिमालय पुत्र पंडित नैन सिंह रावत हैं, और देश के गिने-चुने व्यक्तियों में शुमार और उत्तराखंड के ऐसे पहले व्यक्ति हो गए हैं, जिनके 187वें जन्मदिन पर गूगल ने आज उन पर खास डूडल बनाया है।

पंडित नैन सिंह (मूलतः मिलम गांव के निवासी मिलम्वाल) रावत (1830-1895) का जन्म पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को हुआ था। उन्हें हिन्दी और तिब्बती के अलावा फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। वे ऐसे गिने-चुने भारतीयों में शामिल थे जिनका नाम अंग्रेजी हुकूमत के लोग भी सम्मान के साथ लेते थे। 19वीं शताब्दी के ‘एशिया की पीठ’ कहे जाने वाले हिमालय के तिब्बती क्षेत्र के ऐसे ऐसे अन्वेषक थे, जिन्होंने बिना किन्ही खास उपकरणों के नेपाल से होते हुए तिब्बत तक के व्यापारिक मार्ग और तिब्बत से बहने वाली मुख्य नदी त्सांगपो के बहुत बड़े भाग का लगातार 16 वर्षों तक गुमनाम व घर से निर्वासित रहते हुए केवल अपने कदमों व कंठी माला, कंपास व थर्मामीटर जैसे परंपरागत उपकरणों से 1200 मील से अधिक पैदल चल कर मानचित्रण किया, और सबसे पहले शिंगात्से व ल्हासा सहित तिब्बत के 99 महत्वपूर्ण स्थानों वैज्ञानिक दृष्टिकोण से खरे अक्षांश, देशांतर, समुद्र सतह से ऊंचाई, तापमान, वायुमंडल के तापक्रम, उबाल बिंदु आदि के विवरण प्रस्तुत किए। उनकी यात्राओं के विस्तृत विवरण रॉयल जियोग्राफिक सोसायटी की पत्रिका ‘दि जनरल ऑफ दि रॉयल जियोग्राफिक सोसायटी’ के 1868 के खंड 38, 1869 के खंड 39 और 1877 के खंड 47 में पूरे विस्तार से प्रकाशित हुए। इस उपलब्धि पर ही ‘विक्टोरिया पदक’ से सम्मानित पहले भारतीय बने। साथ ही रॉयल जियोग्राफिक सोसायटी तथा कलकत्ता में ‘कम्पेनियन इंडियन एम्पायर अवार्ड-सीआईएम’ जैसे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए। कहते है कि पहली बार किसी भारतीय को सीआईएम मिलने पर कलकत्ता में जश्न मना था और लोगों ने घरों में घी के दीये जलाए थे। वहीं भारतीय डाक विभाग ने उनकी उपलब्धि के 139 साल पूरे होने पर 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट भी जारी किया था।
इस तरह बिना उपकरणों के नाप दिये हिमालय
नैनीताल। 19वीं शताब्दी के उस दौर में अंग्रेज भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे और लगभग पूरे भारत का नक्शा बना चुके थे। वे आगे बढ़ते हुए तिब्बत का नक्शा चाहते थे लेकिन इस जगह पर किसी भी विदेशी के जाने पर मनाही थी। यदि कोई वहां छिपकर पहुंच भी जाएं तो बाद में पकड़े जाने पर मौत की सजा दी जाती थी। ऐसे में किसी भारतीय को ही वहां भेजने की योजना बनाई गई। इसके लिए लोगों की खोज शुरू हुई। आखिरकार 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी को 33 साल के नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मानी सिंह के रूप में दो ऐसे इच्छित लोग मिल गए। दोनों को देहरादून में सर्वे ऑफ इंडिया में प्रशिक्षण दिया गया। जिसके बाद दोनों भाई केवल अपने कदमों व कंठी माला, कंपास व थर्मामीटर जैसे परंपरागत उपकरणों से अपने बराबर चले हुए कदमों को अपनी अनूठी कला व प्रतिभा के बल पर कंठी माला के दानों में गिनते और डायरी में नोट करते हुए सटीक दूरियां इंगित करते हुए नक्शे बना पाए, और सबसे पहले दुनिया को ल्हासा की समुद्र तल से ऊंचाई और उसके अक्षांश और देशांतर से अवगत कराया। यही नहीं उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की थी। उन्होंने दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुने रहस्यों के बारे में भी बताया। तिब्बती भिक्षु के रूप में प्रसिद्ध रावत अपने घर से काठमांडू, ल्हासा और तवांग से लेकर मानसरोवर तक गए थे।
जर्मनी के श्लाघइटवाइट बंधुओं ने अंग्रेजों को सुझाया था नैन सिंह का नाम
नैनीताल। पंडित नैन सिंह पर काफी कार्य करने वाले डा. शेखर पाठक ने बताया कि स्वयं अनपढ़ होने के बावजूद नैन सिंह ने अपने सर्वेक्षण कार्यों से अपने गृह क्षेत्र में शिक्षा के प्रसार हेतु कार्य किये। 1859 में मिलम और धारचूला में 1863 में उन्होंने स्कूल खोले। शिक्षक के रूप में कार्य करने पर ही उन्हें क्षत्रिय वर्ग से आने के बावजूद ‘पंडित’ की उपाधि मिली। इस दौरान ही जर्मनी के हरमन श्लाघइटवाइट व उनके दो अन्य सर्वेक्षक श्लाघइटवाइट बंधुओं के साथ उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए भारत के साथ तिब्बत, अफगानिस्तान व मध्य एशिया के विभिन्न क्षेत्रों का 1854 से 1858 के बीच चुंबकीय (मैग्नेटिक सर्वे) सर्वेक्षण किया। श्लाघइटवाइट बंधुओं द्वारा किये गये कुमाऊं के उन सर्वेक्षण कार्यों के दस्तावेज और नैन सिंह की स्मृतियां आज भी बर्लिन और म्यूनिख के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। इन कार्य से प्रभावित होकर स्लागंट वाइट बंधु उन्हें साथ लंदन ले जाना चाहते थे। परंतु भाइयों के विरोध के कारण वे तब उनके साथ नहीं गए, परंतु बाद में स्लागंट वाइट बंधुओं ने ही उनका नाम तिब्बत व ल्हासा के सर्वेक्षण के लिये अंग्रेजों को सुझाया था।

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