चंद राजाओं की विरासत है कुमाऊं का प्रसिद्ध छोलिया नृत्य
नवीन जोशी, नैनीताल। आधुनिक भौतिकवादी युग के मानव जीवन में सैकड़ों-हजारों वर्ष पुरानी कम ही सांस्कृतिक परंपराएं शेष रह पाई हैं। इन्हीं में एक आज कुमाऊं ही नहीं उत्तराखंड राज्य की सांस्कृतिक पहचान बन चुका प्रसिद्ध छल या छलिया और हिन्दी में छोलिया कहा जाने वाला लोकनृत्य है, जो कि मूलतः युद्ध का नृत्य बताया जाता है। एक साथ श्रृंगार और वीर रस के दर्शन कराने वाले इस नृत्य के बारे में कुछ इतिहासकारों का मत है कि सबसे पहले चंद वंश के पहले राजा सोमचंद के विवाह के अवसर पर इसका प्रयोग हुआ था, जो कि ‘कुमाऊं का इतिहास’ पुस्तक के लेखक बद्री दत्त पांडे के अनुसार 700 ईसवी में गद्दी पर बैठे थे। इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह नृत्य चंद राजाओं की विरासत है, और इसे प्रदर्षित करने वाले ‘छलेर’ या ‘छोल्यार’ उस काल की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
इस यु़द्ध नृत्य के इतिहास के बारे में आसानी से समझने योग्य तथ्य है कि करीब एक हजार वर्ष पूर्व उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में भी युद्ध राजाओं की सेनाओं के बीच आमने-सामने ढाल-तलवार, भाले, बरछे, कटार आदि से लड़े जाते थे। योद्धाओं को युद्ध में प्रोत्साहित करने के लिए यहां ढोल, दमुवा (दमाऊ), बीन बाजा (मशकबीन-बैगपाईपर), तुरी (तुरही), नगार (नगाड़ा), भेरी व रणसिंघा आदि वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता था। संभवतया दूसरे राजाओं की कन्याआंे का वरण करने के लिए भी इसी तरह के युद्ध का प्रयोग किया जाता होगा, जिसका ही आधुनिक संस्करण आज का छोलिया नृत्य है। हालिया दौर में जिस तरह से विवाहों में छोलिया नृत्य का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रारूप को इतिहास में लेकर जाएं तो कल्पना करना कठिन नहीं कि उस दौर में राजा अपनी सेना के साथ दूर देशों में विवाह करने जाते थे। सबसे आगे किसी युद्ध की तरह ही लाल ध्वजा सामने आने वालों को आगाह करने के लिए और सबसे पीछे सफेद ध्वजा शांति के प्रतीक स्वरूप रखी जाती थी। कन्या का वरण करने के उपरांत लौटते समय ध्वजाएं इस संदेश के साथ आपस में आगे-पीछे अदल-बदल दी जाती थीं, कि अब सामने वाले को केाई खतरा नहीं है। इस प्रथा का आज भी कुमाउनी विवाहों में निर्वहन किया जाता है। संभव है कि विवाह के लिए जाने के दौरान दूल्हे राजा के सैनिकों को कई बार दूसरे राजा के अपनी पुत्री का विवाह इस राजा से करने की अनिच्छा की स्थिति में उसके सैनिकों से कड़ा मुकाबला करना पड़ता होगा, और कई बार दूल्हे राजा के सैनिक रास्ते में आपस में ही अपनी युद्ध कला को और पैना करने के लिए आपस में ही युद्ध का अभ्यास करते हुए चलते होंगे, और धीरे-धीरे यही अभ्यास विवाह यात्राओं का एक आवश्यक अंग बन गया होगा। लेकिन देश में प्रचलित अन्य अनेकों युद्ध नृत्यों से इतर कुमाऊं के छोलिया नृत्य की एक विशिष्टता इसकी आपस में तलवार व ढाल टकराने और शरीर को मोड़कर कुछ प्रदर्शन करने से इतर इसके नाम ‘छोलिया’ नाम से जुड़ी है।
‘छोलिया’ शब्द को ‘छल’ से जोड़कर देखा जाता है, जो इस नृत्य विधा में भी कई बार दिखता है। कल्पना के अनुसार प्राचीन क्षत्रिय सैनिकों जैसे ही किंतु रंग-बिरंगे विशिष्ट परिधानों-सफेद चूड़ीदार पाजामा व लम्बा घेरदार चोला, सिर पर सफेद पगड़ी, बेल्ट, सिर में पगड़ी, पैरों में घुंघरू की पट्टियां, कानों में बालियां और चेहरे पर चंदन व सिन्दूर आदि से सजे पुरुष छोलिया नर्तक बीच-बीच में एक-दूसरे पर छल करते हुए वार करने का प्रदर्शन करते हैं। वह विवाह के दौरान सामान्यतया ढाल-तलवार घुमाते हुए चलते हैं, और जगह-जगह अपने खास अंदाज में नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। वह कभी-कभार ही एक-दूसरे पर हाथ अथवा पैर से नृत्य में रोचकता लाने के लिए बल का प्रयोग करते हैं। इस दौरान देखने वाले लोग बीच में कुछ रुपए या सिक्के डालते हैं, जिन्हें छोल्यारों के द्वारा अपनी तलवार की नोक से ही उठाने का विधान है। इस दौरान उनकी भाव-भंगिमा में भी ‘छल’ का प्रदर्शन होता है। वह अपने हाव-भाव से एक दूसरे को छेड़ने, चिढ़ाने व उकसाने के साथ ही भय व खुशी के भाव आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते हुए एक-दूसरे को उलझाकर, चालाकी से स्वयं रुपए उठाने का प्रयास करते हैं, जो काफी रोचक होता है। कुमाऊं में छोलिया नृत्य का प्रयोग परंपरागत तौर पर क्षत्रिय जातियों के विवाहों में ही अलग-अलग वाद्य यंत्रों के साथ आधे से दो दर्जन तक कलाकारों के समूह के साथ किया जाता रहा है, जबकि जबकि ब्राह्मणों की बारातें शंख की ध्वनि करते हुए ही जाया करती थीं। इधर नृत्य में रोचकता लाने के लिए छोलिया नृत्य में एक दूसरे के कंधों पर चढ़कर व कमर पर पैरों का फंदा डालते हुए लटककर मीनार बनाने सरीखे प्रयोग भी किये जा रहे हैं। कुमाऊं के अलग-अलग क्षेत्रों के छोलिया नृत्यों की भी अपनी अलग विशिष्टताएं हैं। पाली पछाऊं में प्रचलित छोलिया नृत्य में छोल्यार पारम्परिक परिधानों की जगह सफेद कपड़े पहनकर हाथों में लंबी तलवारें और गैंडे की खाल से बने ढाल पकड़कर नगाड़े की थाप पर थिरकते हैं। स्थानीय भाषा में इस युद्ध को ‘सरकार’ कहा जाता है।
ढोल वादक की भी होती है बड़ी भूमिका
कुमाऊं मंडल ही नहीं उत्तराखंड प्रदेश में ढोल वादन भी एक अन्य बड़ा व महत्वपूर्ण विषय है। बीते दौर में परंपरागत तौर पर युद्ध भूमि में दरबारी दास द्वारा तथा मौजूदा दौर में देव मंदिरों और शादी-व्याह और कमोबेश सभी संस्कारों, त्योहारों में ढोल वादन के अलग-अलग व विशिष्ट तरीके हैं। लोक विद्वानों के अनुसार ढोल वादक वीरों के उत्साह वर्धन के साथ ही युद्ध कला में भी प्रवीण होते थे। वह युद्ध भूमि में अपने राजा की सेना की स्थिति पर पूरी दृष्टि रखता था, और जरूरत के अनुसार सेना को आगे बढने या या पीछे हटने अथवा किसी विशेष दिशा में बढने तथा युद्ध जीतने के लिये सेना के लिए जरूरी व्यूह रचना ढोल वादन के गुप्त संकेतों के जरिए प्रकट करते थे। महाभारत के “चक्रव्यूह“ की तरह पर्वतीय क्षेत्रो में ‘गरुड व्यूह’, ‘मयूर व्यूह’ व ‘सर्प व्यूह’ आदि की रचना करने के प्रमाण भी मिलते हैं। इस दौरान ढोल वादक गंगोलिया बाजा, हिटुवा बाजा, बधाई का बाजा, दुल्हन के घर पर पहुंचने का बाजा, वापस गांव की सीमा पर बजने वाला बाजा आदि अलग-अलग प्रकार के बाजे बजाते हैं। इस दौरान आम बाराती हाथों में रुमाल लेकर कलात्मक नृत्य करते हैं, जो एक अलग आकर्षण होता है।
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