March 28, 2024

‘भारत के स्विटजरलेंड’ में गांधी जी ने लिखी थी ‘अनासक्ति योग’

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डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, कौसानी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक अलग दृष्टि के महामानव थे। यही कारण है कि उन्होंने अपनी आग उगलती बंदूकों और जुल्मो-सितम के लिए पहचाने जाने वाले अंग्रेजों को, जिनके राज में तब कभी सूर्य अस्त न होता था, एक अलग तरह के अहिंसा के अस्त्र का प्रयोग कर असंभव को संभव कर दिखाते हुए देश से बाहर कर दिया। यह जानना दिलचस्प है कि गांधी जी अहिंसा की प्रेरणा भी देश के उस महाग्रंथ से ले रहे थे, जिसे युद्ध, युद्ध और केवल युद्ध के लिए जाना जाता है। जिसे घर में रखा जाना तक इसलिए निषिद्ध बताया जाता है कि उसे घर में रखने से घर में भी ‘महाभारत’ यानी युद्ध हो जाएगा। उस ‘महाभारत’ एवं उसके सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्से गीता के प्रति भी गांधी जी की सोच अनूठी थी। वे गीता एवं महाभारत को आध्यात्मिक ग्रंथ तो मानते थे, परंतु ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं मानते थे। उनका मानना था कि गीता में भौतिक युद्ध के वर्णन के बहाने प्रत्येक मनुष्य के हृदय के भीतर निरंतर होते रहनेवाले द्वंद्व-युद्ध का ही वर्णन है। मानुषी योद्धाओं की रचना हृदयगत युद्ध को रोचक बनाने के लिए गढ़ी हुई कल्पना है। गीता से गांधी इतने प्रभावित थे कि उन्होंने इसकी हिंदी में अनुवाट टीका अनासक्ति योग नाम से लिखी थी, और इसे लिखा था उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में स्थित कौसानी नाम के स्थान पर जिसे गांधी ने प्राकृतिक खूबसूरती के लिए ‘भारत के स्विटजरलेंड’ की संज्ञा दी थी।

इससे पहले वर्ष 1928 में साइमन कमीशन के भारत आने के बाद इसका विरोध करने के लिये महात्मा गांधी ने समूचे भारत में यात्रा कर जनजागरण किया। इसी कड़ी में वे वर्ष 1929 में कुमाऊं मंडल के दौरे पर निकले थे। कहा जाता है कुमाऊं के पूर्ववर्ती कत्यूरी राज के दौरान कौसानी का क्षेत्र राजा बैचलदेव के अधिकार में आता था, जिन्होंने इसे श्रीचंद तिवारी नाम के एक गुजराती ब्राह्मण को दे दिया था। संभवतया वहीं से गांधी जी इस स्थान के नाम से परिचित हुए और इसी लिये कौसानी में अपनी थकान मिटाने के उद्देश्य से यहां के एक चाय बागान के मालिक के अतिथि गृह में केवल दो दिवसीय विश्राम हेतु आये थे, परन्तु यहाँ आने के बाद कौसानी के उस पार हिममंडित पर्वतमालाओं पर पड़ती सूर्य की स्वर्णमयी किरणों को देखकर इतना मुग्ध हो गये कि इस स्थान के आकर्षण में पूरे 14 दिन न केवल यहां रुके वरन यहां ध्यान लगाकर गीता के हिंदी अनुवाद की टीका ‘अनासक्ति योग’ की रचना। वे 24 जून 1929 को कौसानी पहुंचे थे, और 7 जुलाई तक यहां रुके। 14 दिन के इस प्रवास के दौरान कुमाऊं में आजादी के आंदोलन को उन्होंने जो धार दी, वह देश को आजादी मिलने तक बढ़ती ही चली गई। कुमाऊं की सल्ट से लेकर बौरारो घाटी तक, नैनीताल से लेकर पिथौरागढ़ तक आजादी की मांग की आवाज मुखर होती गई। ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा उस समय बुलंद था और इसमें कुमाऊं ने भी अपनी आवाज मिलाई।

यह भी कहा जाता है कि इस दौरान गांधी जी का स्वास्थ्य कुछ खराब चल रहा था। इस पर पं. नेहरू के सुझाव पर वे स्वास्थ्य लाभ करने अहमदाबाद से कुमांऊ की यात्रा पर आये थे। वैसे वे यहां 22 जून की शाम को ही पहुंच गये थे किंतु इस दिन सीधे बागेश्वर को निकल गये थे और वहां बागनाथ मंदिर के दर्शन कर तथा सरयू बगड़ में अपार जनसभा को संबोधित करने तथा प्रार्थना सभा में शामिल होने के बाद वापसी में 24 जून को बागेश्वर पहुंचे थे। यहां उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता पर अपनी पुस्तक ‘अनासक्ति योग’ की प्रस्तावना का समापन किया था। कुछ जगह उनके दो जुलाई को ही कौसानी से काशीपुर होते हुए दिल्ली लौटने की बात भी कही जाती है।

बहरहाल, गांधी जी कौसानी की प्राकृति सुंदरता से बेहद प्रभावित हुए थे। उन्होंने कौसानी के बारे में कहा था, ‘इन पहाड़ों में प्राकृतिक सौंदर्य की मेहमाननवाजी के आगे मानव द्वारा किया गया कोई भी सत्कार फीका है। मैं आश्चर्य के साथ सोचता हूँ कि इन पर्वतों के सौंदर्य और जलवायु से बढ़ कर किसी और जगह का होना तो दूर, इनकी बराबरी भी संसार का कोई सौंदर्य स्थल नहीं कर सकता। अल्मोड़ा के पहाड़ों में करीब तीन सप्ताह का समय बिताने के बाद मैं बहुत ज्यादा आश्चर्यचकित हूँ कि हमारे यहाँ के लोग बेहतर स्वास्थ्य की चाह में यूरोप क्यों जाते हैं, जबकि यहीं भारत का स्विटजरलेंड मौजूद है।’ उनका वह ध्यान केंद्र आज यहां ‘अनासक्ति आश्रम’ के रूप में मौजूद है।

महात्मा गांधी की विश्राम स्थली रहा चाय बागान का अंग्रेजी दौर का बना वह अतिथि गृह कालान्तर में जिला पंचायत का डाक बंगला बन गया, और अविभाजित उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय सुचेता कृपलानी द्वारा गांधी जी की स्मृति को तरोताजा रखने के लिये ‘उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि’ को प्रदान कर दिया गया। यह आश्रम महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए बनाया गया था इसीलिये महात्मा जी की अमर कृति ‘अनासक्ति योग’ के नाम पर उनकी विश्राम स्थली को 1966 में ‘अनासक्ति आश्रम’ का नाम दिया गया। गांधीजी के अल्प निवास से प्रसिद्ध हुआ यह स्थान अब गांधीजी के जीवन की झांकियों और उनके जीवन दर्शन के लिए जाना जाता है। यहाँ रूकने की भी व्यवस्था है। आश्रमवासियों को कुछ नियमों का पालन करना होता है, जैसे प्रार्थना सभा में अनिवार्य उपस्थिति, मद्य-मांस आदि का पूर्णतयः निषेध इत्यादि। आश्रम में गांधी जी के जीवन से जुड़ी पुस्तकों और फोटोग्राफ्स का अच्छा संग्रह है और एक छोटी-सी किताबों की दुकान और एक छोटा-सा प्रार्थना कक्ष भी है, जहाँ हर दिन सुबह और शाम प्रार्थना सभा आयोजित होती है। आश्रम के क्रियाकलापों में सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली कार्यक्रम गांधी जी की सामूहिक प्रार्थना ही है। यह प्रार्थना इस आश्रम के दैनिक दिनचर्या का विशेष अंग है। यहाँ आने वाले लोग भी प्रार्थना सभा में शामिल हो सकते हैं जो कि एक नियत समय पर होती है।

अपनी पुस्तक अनासक्ति योग में गांधी लिखते हैं, ‘मैने यह अनुभव किया है कि जब हम सारी आशा छोडकर बैठ जाते हैं, हमारे दोनो हाथ टिक जाते हैं, तब कहीं न कहीं से मदद आ पहुंचती है। स्तुति, उपासना, प्रार्थना वहम नहीं है, बल्कि हमारा खाना पीना, चलना बैठना जितना सच है, उससे भी अधिक सच यह चीज है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि यही सच है, और सब झूठ है। ऐसी उपासना, ऐसी प्रार्थना निरा वाणी विलास नहीं होती उसका मूल कंठ नहीं हृदय है।’ उन्होंने उपासना पर यह भी लिखा, ‘मुझे इस विषय में कोई शंका नहीं है कि विकार रूपी मलों की शुद्धि के लिए हार्दिक उपासना एक रामबाण औषधि है।’

कौसानी में जहां महात्मा गांधी ने प्रवास किया था, वहां भवन निर्माण ब्रिटिश काल में हुआ था। महात्मा गांधी के जाने के बाद यहां प्रार्थना सभा होने लगी। इसके बाद नए भवन का निर्माण किया गया। गांधी स्मारक निधि की ओर से 1966 में इस बंगले को ‘अनासक्ति आश्रम’ का नाम दिया गया। ‘अनासक्ति’ का शाब्दिक अर्थ आसक्ति यानी राग-द्वेष से मुक्ति है। इस आश्रम में बापू के जीवन-दर्शन को सहेजने का प्रयास किया गया है। उनसे जुड़ी यादों के रूप में कुछ किताबें हैं, कुछ बर्तन हैं, कुछ तस्वीरें हैं और कुछ कपड़े। लोग जब आश्रम पहुंचते हैं तो आजादी के दौर की याद ताजा हो जाती है और उसी जज्बे के साथ लौटते हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अपने जीवन में कई वर्ष तक अनासक्ति योग का पालन किया। उन्होंने गीता के श्लोकों का सरल अनुवाद करके ‘अनासक्ति योग’ का नाम दिया। अपने अनुभवों को लोगों में बाँटा और इसके महत्व को समझाया था। इसमें उन्होंने आश्रम वासियों के जीवन दर्शन का भी उल्लेख किया है। गांधी जी ने अनासक्ति योग की उपनिषदों का सार बताया है।

अपनी पुस्तक ‘अनासक्ति योग’ की प्रस्तावना में गांधी जी ने लिखा है, ‘जैसे स्वामी आनंद आदि मित्रों के प्रेम के वश होकर मैंने सत्य के प्रयोगों के लिए आत्मकथा का लिखना आरंभ किया था, वैसे गीता का अनुवाद भी। स्वामी आनंद ने असहयोग के जमाने में मुझसे कहा था-‘आप गीता का अर्थ करते हैं, वह अर्थ तभी समझ में आ सकता है, जब आप एक बार समूची गीता का अनुवाद कर जाएँ और उसके ऊपर जो टीका करने हो, वह करें और वह संपूर्ण एक बार पढ़ जाएँ। फुटकर श्लोकों में से अहिंसादि का प्रतिपादन मुझे तो ठीक नहीं लगता है।’ फिर मैं जेल गया। वहाँ तो गीता का अध्ययन कुछ अधिक गहराई से करने का मौका मिला। लोकमान्य का ज्ञान का भंडार पढ़ा। उन्होंने ही पहले मुझे मराठी, हिंदी और गुजराती अनुवाद प्रेमपूर्वक भेजे थे और सिफारिश की थी कि मराठी न पढ़ सकूं तो गुजराती अवश्य पढूँ। जेल के बाहर तो उसे न पढ़ पाया, पर जेल में गुजराती अनुवाद पढ़ा। इसे पढ़ने के बाद गीता के संबंध में अधिक पढ़ने की इच्छा हुई गीता-संबंधी अनेक ग्रंथ उलटे-पलटे।

मुझे गीता का प्रथम परिचय एडविन आर्नाल्ड के पद्य-अनुवाद से सन् 1888-89 में प्राप्त हुआ। उससे गीता का गुजराती अनुवाद पढ़ने की तीव्र इच्छा हुई और जितने अनुवाद हाथ लगे, उन्हें पढ़ गया, परंतु ऐसी पढ़ाई मुझे अपना अनुवाद जनता के सामने रखने का बिल्कुल अधिकार नहीं देती। इसके सिवा मेरा संस्कृत-ज्ञान अल्प है, गुजराती का ज्ञान विद्वता के विचार से कुछ नहीं है। तब मैंने अनुवाद करने की धृष्टता क्यों की ?

गीता को मैंने जिस प्रकार समझा है, उस प्रकार का आचरण करने का मेरा और मेरे साथ रहनेवाले कई साथियों का बराबर प्रयास है। गीता हमारे लिए आध्यात्मिक ग्रंथ है। उसके अनुवाद आचरण में निष्फलता रोज आती है, पर वह निष्फलता हमारा प्रयत्न रहते हुए है इस निष्फलता में सफलता की फूटती हुई किरणों की झलक दिखाई देती है। यह नन्हा-सा जन-समुदाय जिस अर्थ को आचार में परिणत करने का प्रयत्न करता है, वह इस अनुवाद में है।

इसके सिवा स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र-सरीखे, जिन्हें अक्षरज्ञान थोड़ा ही है, जिन्हें मूल संस्कृत में गीता समझने का समय नहीं है, इच्छा नहीं है, परंतु जिन्हें गीता रूपी सहारे की आवश्यकता है, उन्हीं के लिए इस अनुवाद की कल्पना की गयी है। गुजराती भाषा का मेरा ज्ञान कम होने पर भी उसके द्वारा गुजरातियों को, मेरे पास जो कुछ पूँजी हो वह, दे जाने की मुझे सदा भारी अभिलाषा रही है। मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि आज गंदे साहित्य का जो प्रवाह जोरों से जारी है, उस समय में हिन्दू-धर्म में अद्वितीय माने जानेवाले इस ग्रंथ का सरल अनुवाद गुजराती जनता को मिले और उसमें से वह उस प्रवाह का सामना करने की शक्ति प्राप्त करें।

इस अभिलाषा में दूसरे गुजराती अनुवादों की अवहेलना नहीं है। उन सबका स्थान भले ही हो पर उनके पीछे उनके अनुवादों का आचार-रूपी अनुभव का दावा हो, ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है। इस अनुवाद के पीछे अड़तीस वर्ष के आचार के प्रयत्न का दावा है। इसलिए मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि प्रत्येक गुजराती भाई और बहन, जिन्हें धर्म को आचरण में लाने की इच्छा है, इसे पढ़ें, विचारें और इसमें से शक्ति प्राप्त करें।

इस अनुवाद में मेरे साथियों की मेहनत मौजूद है। मेरा संस्कृत-ज्ञान बहुत अधूरा होने के कारण शब्दार्थ पर मुझे पूरा विश्वास नही हो सकता था, अतः इतने भर के लिए इस अनुवाद को विनोबा, काका कालेलकर, महादेव देसाई और किशोरीलाल मशरूवाला ने देख लिया है।

अब गीता के अर्थ पर आता हूँ। सन् 1888-89 में जब गीता का प्रथम दर्शन हुआ तभी मुझे ऐसा लगा कि यह ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है, वरन् इसमें भौतिक युद्ध के वर्णन के बहाने प्रत्येक मनुष्य के हृदय के भीतर निरंतर होते रहनेवाले द्वंद्व-युद्ध का ही वर्णन है। मानुषी योद्धाओं की रचना हृदयगत युद्ध को रोचक बनाने के लिए गढ़ी हुई कल्पना है। यह प्राथमिक स्फुरण धर्म का और गीता का विशेष विचार करने के बाद पक्की हो गई। महाभारत पढ़ने के बाद यह विचार और भी दृढ़ हो गया। महाभारत-ग्रंथ को मैं आधुनिक अर्थ में इतिहास नहीं मानता। इसके प्रबल प्रमाण आदिपर्व में ही है। पात्रों की अमानुषी और अतिमानुषी उत्पति का वर्णन करके व्यास भगवान् ने राजा-प्रजा के इतिहास को मिटा दिया है। उसमें वर्णित पात्र मूल में ऐतिहासिक भले ही हों, परंतु महाभारत में तो उनका उपयोग व्यास भगवान् ने केवल धर्म का दर्शन कराने के लिए ही किया है।

महाभारतकार ने भौतिक युद्ध की आवश्यकता नहीं, उसकी निरर्थकता सिद्ध की है। विजेता ने रुदन कराया है, पश्चात्ताप कराया है और दुख के सिवा और कुछ नहीं करने दिया। इस महाग्रंथ में गीता शिरोमणि रूप से विराजती है। उसका दूसरा अध्याय भौतिक युद्ध-व्यवहार सिखाने के बदले स्थितप्रज्ञ के लक्षण सिखाता है। स्थितप्रज्ञ का ऐहिक युद्ध के साथ कोई संबंध नहीं होता, यह बात उसके लक्षणों में ही मुझे प्रतीत हुई है। साधारण पारिवारिक झगड़ों के औचित्य-अनौचित्य का निर्णय करने के लिए गीता-जैसी पुस्तक की रचना संभव नहीं है।

गीता के कृष्ण मूर्तिमान शुद्ध संपूर्ण ज्ञान हैं। पंरतु काल्पनिक हैं। यहाँ कृष्ण नाम के अवतारी पुरुष का निषेध नहीं है। केवल संपूर्ण कृष्ण काल्पनिक हैं, संपूर्णावतार का आरोपण पीछे से हुआ है। अवतार से तात्पर्य है शरीरधारी पुरुष विशेष। जीवमात्र ईश्वर के अवतार है, परंतु लौकिक भाषा में सबको हम अवतार नहीं कहते। जो पुरुष अपने युग में सबसे श्रेष्ठ धर्मवान् है, उसे भावी प्रजा अवताररूप से पूजती है। इसमें मुझे कोई दोष नहीं जान पड़ता। इसमें न ईश्वर के बड़प्पन में कमी आती है, न उसमें सत्य को आघात पहुँचता है। ‘आदम खुदा नहीं लेकिन खुदा के नूर से आदम जुदा नहीं।’ जिसमें धर्म-जागृति अपने युग में सबसे अधिक है वह विशेषावतार है। इस विचार-श्रेणी से कृष्णरूपी संपूर्णावतार आज हिंदू-धर्म में साम्राज्य भोग रहा है।

यह दृश्य मनु्ष्य की अंतिम सद्भिलाषा का सूचक है। मनुष्य को ईश्वर-रूप हुए बिना चैन नहीं पड़ता, शांति नहीं मिलती। ईश्वररूप होने के प्रयत्न का नाम सच्चा और एकमात्र पुरुषार्थ है और यही आत्मदर्शन है। यह आत्मदर्शन सब धर्म-ग्रंथों का विषय है वैसे ही गीता का भी है। पर गीताकार ने इस विषय का प्रतिपादन करने के लिए गीता नहीं रची, वरन् आत्मार्थी को आत्मदर्शन का एक अद्वितीय उपाय बतलाना गीता का आशय है। जो चीज हिंदू धर्म-ग्रंथों में छिट-पुट दिखाई देती हैं, उसे गीता ने अनेक रुपों में, अनेक शब्दों में, पुनरुक्ति का दोष स्वीकार करके भी, अच्छी तरह स्थापित किया है। वह अद्वितीय उपाय है ‘कर्मफलत्याग।’

इस मध्यबिंदु के चारों ओर गीता की सारी सजावट है। भक्ति, ज्ञान इत्यादि इसके आसपास तारा-मंडल-रूप में सज गए है। जहाँ देह है, वहाँ कर्म तो है ही। उससे कोई मुक्त नहीं है, तथापि देह को प्रभु का मंदिर बनाकर उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है, यह सब धर्मों ने प्रतिपादित किया है। परंतु कर्ममात्र में कुछ दोष तो हैं ही, मुक्ति तो निर्दोष की ही होती है। तब कर्मबंधन में से अर्थात् दोष-स्पर्श में से कैसे छुटकारा हो ? इसका जवाब गीताजी ने निश्चयात्मक शब्दों में दिया है-‘निष्काम कर्म से, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्मफल त्याग करके, सब कर्मों को कृष्णार्पण करके, अर्थात् मन, वचन और काया को ईश्वर में होम करके।’

पर निष्कामता, कर्मफल-त्याग कहने-भर से नहीं हो जाता। यह केवल बुद्धि का प्रयोग नहीं है। यह हृदय-मंथन से ही उत्पन्न होता है। यह त्याग-शक्ति पैदा करने के लिए ज्ञान चाहिए। एक प्रकार का ज्ञान तो बहुतेरे पंडित पाते हैं। वेदादि उन्हें कंठस्थल होते हैं, उनमें से अधिकांश भोगादि में लगे-लिपटे रहते हैं। ज्ञान का अतिरेक शुष्क पांडित्य के रूप में न हो जाए, इस ख्याल से गीताकार ने ज्ञान के साथ भक्ति को मिलाया और उसे प्रथम स्थान दिया। बिना भक्ति का ज्ञान हानिकार है। इसलिए कहा गया-‘भक्ति करो तो ज्ञान मिल ही जाएगा।’ पर भक्ति तो ‘सिर का सौदा’ है, इसलिए गीताकार ने भक्ति के लक्षण स्थितप्रज्ञ के-से बतलाए हैं।

तात्पर्य, गीता की भक्ति बाह्याचारिता नहीं है, अंधश्रद्धा नहीं है। गीता में बताए उपचार का बाह्य चेष्टा या क्रिया के साथ कम-से-कम संबंध है। माला-तिलक, अर्ध्यादि साधन भले भी भक्त बरते, पर वे भक्ति के लक्षण नहीं हैं। जो किसी का द्वेष नहीं करता, जो करूणा का भंडार है और ममता-रहित हैं, जो निरहंकार है, जिसे सुख-दुःख शीत-उष्ण समान हैं, जो क्षमाशील है, जो सदा संतोषी है, जिसके निश्चय कभी बदलते नहीं, जिसने मन और बुद्धि ईश्वर को अर्पण कर दिए हैं, जिससे लोग उद्वेग नहीं पाते, जो लोगों का भय नहीं रखता, जो शुभाशुभ का त्याग करनेवाला है, जो शत्रु-मित्र पर समभाव रखनेवाला है, जिसे मान-अपमान समान है, जिस स्तुति से खुशी नहीं होती और निदा से ग्लानि नहीं होती, जो मौनधारी है, जिसे एकांत प्रिय है, जो स्थिरबुद्धि है, वह भक्त है। यह भक्ति आसक्त स्त्री-पुरुषों में संभव नहीं है।

इससे हम देखते हैं कि ज्ञान प्राप्त करना, भक्त होना ही आत्मदर्शन है। आत्मदर्शन उससे भिन्न वस्तु नहीं है। जैसे रुपए के बदले में जहर खरीदा जा सकता है और जीवन भी लाया जा सकता है, वैसे ज्ञान या भक्ति के बदले बंधन भी लाया जा सके और मोक्ष भी, यह संभव नहीं हैं। यहाँ तो साधन और साध्य, बिल्कुल एक नहीं तो लगभग एक ही वस्तु हैं, साधन की पराकाष्ठा जो है, वही मोक्ष है और गीता के मोक्ष का अर्थ परम शांति हैं। किंतु ऐसे ज्ञान और भक्ति को कर्म-फल-त्याग की कसौटी पर चढ़ना ठहरा। लौकिक कल्पना में शुष्क पंडित भी ज्ञानी मान लिया जाता है। उसे कुछ काम करने को नहीं रहता। हाथ से लोटा तक उठाना भी उसके लिए कर्म-बंधन है। यज्ञशून्य जहाँ ज्ञानी गिना जाए वहाँ लोटा उठाने जैसी तुच्छ लौकिक क्रिया को स्थान ही कैसे मिल सकता है ?

लौकिक कल्पना में भक्त से मतलब है बाह्याचारी, माला लेकर जप करनेवाला। सेवा-कर्म करते भी उसकी माला में विक्षेप पड़ता है। इसलिए वह खाने-पीने आदि भोग-भोगने के समय ही माला को हाथ से छोड़ता हैं, चक्की चलाने या रोगी की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए कभी नहीं छोड़ता। इन दोनों वर्गों को गीता ने साफ तौर से कह दिया-‘कर्म बिना किसी ने सिद्धि नहीं पाई। जनकादि भी कर्म द्वारा ज्ञानी हुए। परिणाम और साधन का विचार और उसका ज्ञान आत्मावश्यक है। इतना होने के बाद जो मनुष्य परिणाम की इच्छा किए बिना साधन में तन्मय रहता है, वह फलत्यागी है। पर यहाँ फलत्याग का कोई यह अर्थ न करे कि त्यागी को फल मिलता नहीं। गीता में ऐसे अर्थ का कहीं स्थान नहीं हैं।

फलत्याग से मतलब है फल के संबंध में आसक्ति का अभाव। वास्तव में देखा जाए तो फलत्यागी को तो हजारगुना फल मिलता है। गीता के फलत्याग में तो अपरिमित श्रद्धा की परीक्षा है। जो मनुष्य परिणाम का ध्यान करता रहता है, वह बहुत बार कर्म-कर्तव्यभ्रष्ट हो जाता है। उसे अधीरता घेरती हैं, इससे वह क्रोध के वश हो जाता है और फिर वह न करने योग्य करने लग पड़ता है, एक कर्म में से दूसरे में और दूसरे में से तीसरे में पड़ता जाता है। परिणाम की चिंता करनेवाले की स्थिति विषयांध की-सी हो जाती है। और अंत में यह विषयी की भाँति सारासार का, नीति-अनीति का विवेक छोड़ देता हैं, और फल प्राप्त करने के लिए हर किसी साधन से काम लेता है और उसे धर्म मानता है।

फलासक्ति के ऐसे कटु परिणामों में से गीताकार ने अनासक्ति का अर्थात् कर्मफलत्याग का सिद्धांत निकाला और संसार के सामने अत्यंत आकर्षक भाषा में रखा। साधारणतः तो यह माना जाता है कि धर्म और अर्थ विरोधी वस्तु हैं, ‘व्यापार इत्यादि लौकिक व्यवहार में धर्म नहीं बचाया जा सकता, धर्म को जगह नहीं हो सकती, धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए किया जा सकता है। धर्म की जगह धर्म शोभा देता है और अर्थ की जगह अर्थ।’ बहुतों को ऐसा कहते हम सुनते हैं। गीताकार ने इस भ्रम को दूर किया है। उसने मोक्ष और व्यवहार के बीच ऐसा भेद नहीं रखा है, वरन् व्यवहार में धर्म को उतारा है। जो धर्म व्यवहार में न लाया जा सके, वह धर्म नहीं है, मेरी समझ से यह बात गीता में हैं। मतलब, गीता के मतानुसार जो कर्म ऐसे हैं कि आसक्ति के बिना हो ही न सकें, वे भी त्याज्य हैं।

गांधी का यही कौसानी स्थित अनासक्ति आश्रम इस वर्ष 26 जनवरी 2019 को राजपथ पर उत्तराखंड की झांकी के रूप में पूरे देश के रूप में प्रस्तुत हुआ और इसने उत्तराखंड से गांधी जी के जुड़ाव को और अधिक मजबूत किया।

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Kausaniनवीन जोशी, नैनीताल। महाकवि कालीदास के कालजयी ग्रंथ कुमार संभव में नगाधिराज कहे गए हिमालय को बेहद करीब से निहारता और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा ‘भारत का स्विटजरलेंड’ कहा गया ‘कौसानी’ देश के चुनिंदा प्राकृतिक सौंदर्य से ओतप्रोत रमणीक पर्वतीय पर्यटक स्थलों में एक है। महात्मा गांधी को अपनी नीरवता और शांति से गीता के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान कराने और ‘अनासक्ति योग’ ग्रंथ की रचना कराने वाली और प्रकृति के सुकुमार छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत की यह जन्म भूमि आदि-अनादि काल से लेकर वर्तमान तक प्रकृति प्रेमियों का पसंदीदा स्थान रही है। यहां दूर तक कोसी, गोमती और गगास नदियों के बीच फैली कत्यूर, बोरारो व कैड़ारो घाटियों के बीच लहलहाती धान व आलू की खेती, हरे कालीन से बिछे चाय के बागानों और शीतलता बिखेरते देवदार व चीड़ के दरख्तों के बीच पर्वतराज हिमालय को अपनी स्वर्णिम आभा से रंगते सूर्याेदय और सूर्यास्त के स्वर्णिम आभा बिखेरते मनोहारी दृश्य सौंदर्य के वशीभूत सैलानियों को न केवल आकर्षित करते वरन अपना बना लेते हैं।

Kausani1कौसानी उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले से 53 किलोमीटर उत्तर में बागेश्वर, पिंडारी-सुंदरढूंगा ग्लेशियर के मार्ग पर समुद्र सतह से लगभग 1950 मीटर यानी 6075 फीट की ऊंचाई पर पिंगनाथ चोटी पर बसा एक छोटा सा पहाड़ी कस्बा है। यहाँ से बर्फ से ढके नंदा देवी पर्वत की चोटी का नजारा ‘ऊं’ जैसे स्वरूप में नजर आता है। साथ ही चौखंबा, नीलकंठ, नंदा घुंटी, नंदा देवी, नंदा खाट व नंदाकोट से लेकर पंचाचूली तक की हिम मंडित पर्वत श्रृंखलाओं का सुंदर व भव्य नजारा भी दिखता है। Himalaya's Trishul Peak from Kausaniकहा जाता है कुमाऊं में कत्यूरी राज के दौरान यह क्षेत्र राजा बैचलदेव के अधिकार में आता था, जिन्होंने इसे श्रीचंद तिवारी नाम के एक गुजराती ब्राह्मण को दे दिया था। संभवतया वहीं से गांधी जी इस स्थान के नाम से परिचित हुए और 1929 में एक स्थानीय चाय बागान मालिक के आतिथ्य में केवल दो दिन के प्रवास के लिए यहां आए थे, लेकिन इस स्थान के आकर्षण में पूरे 14 दिन न केवल रुके वरन ध्यान लगाकर ‘अनासक्ति योग’ ग्रंथ की रचना कर डाली। उन्होंने इस स्थान के बारे में कहा था, ‘इन पहाड़ों में प्राकृतिक सौंदर्य की मेहमाननवाजी के आगे मानव द्वारा किया गया कोई भी सत्कार फीका है। मैं आश्चर्य के साथ सोचता हूँ कि इन पर्वतों के सौंदर्य और जलवायु से बढ़ कर किसी और जगह का होना तो दूर, इनकी बराबरी भी संसार का कोई सौंदर्य स्थल नहीं कर सकता। अल्मोड़ा के पहाड़ों में करीब तीन सप्ताह का समय बिताने के बाद मैं बहुत ज्यादा आश्चर्यचकित हूँ कि हमारे यहाँ के लोग बेहतर स्वास्थ्य की चाह में यूरोप क्यों जाते हैं, जबकि यहीं भारत का स्विटजरलेंड मौजूद है।’

Anasakti Ashram Kausaniउनका वह ध्यान केंद्र आज यहां ‘अनासक्ति आश्रम’ के रूप में मौजूद है। कौसानी हिन्दी के छायावादी कवि त्रिमूर्ति महादेवी-पंत-निराला के पंत की न केवल जन्म स्थली रही है, वरन यहीं उनका बचपन बीता और उन्होंने अपनी कवि कालजयी रचनाओं का सृजन भी यहीं किया। उनकी यांदें आज भी यहां प्रसिद्ध इतिहासकार व साहित्यकार पं. नित्यानंद मिश्रा के प्रयासों से निर्मित राजकीय संग्रहालय में अनेक दुर्लभ चित्रों के रूप में मौजूद हैं। DSC07486पंत के पिता गंगा दत्त पंत कौसानी की खूबसूरती के एक प्रमुख आकर्षण, यहां उस दौर में करीब 390 एकड़ में फैले चाय बागान के व्यवस्थापक थे। यहां के चाय बागानों की गिरनार ब्रांड की चाय पहाड़ की खुशबू से लबरेज होती है, और देश ही नहीं जर्मनी, कोरिया और आस्ट्रेलिया तक निर्यात की जाती है।

गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन काल में महारानी विक्टोरिया ने वर्ष 1885 में भारत के तमाम हिस्सों में टी इस्टेट की स्थापना की थी। इसके तहत उत्तराखंड के देहरादून, कौसानी, चौकोड़ी, बेरीनाग, धरमघर (बागेश्वर व पिथौरागढ़ दोनों जिलों की सीमा), भीमताल समेत कई हिस्सों में टी इस्टेट विकसित किये गए थे। इन इलाकों में उत्पादित चाय ब्रिटेन समेत कई यूरोपीय देशों को भेजी जाती थी। भारत से ब्रिटिश राज के खात्मे से पहले टी इस्टेट को ब्रिटिश मूल की किसी महिला को सौंप दिया गया था। बाद में धीरे-धीरे तमाम लोगों ने टी इस्टेट में शेयर किया। साहित्यकार धर्मवीर भारती ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘ठेले पर हिमालय’ में कौसानी की खूबसूरती को अनेक कोणों से उकेरा है।

Pant Sangralaya kausaniकौसानी के अन्य पर्यटक स्थलों में गांधी जी की लंदन निवासी शिष्या कैथरीन मेरी हेल्वमन द्वारा 1964 में निर्मित लक्ष्मी आश्रम भी है। कैथरीन 1948 में भारत आकर गांधी जी के सत्य, अहिंसा के सिद्धांतों से इतना प्रभावित हुईं कि सरला बहन के रूप में यहीं बस गईं। वह यहां कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल के तहत महिलाओं का संगठन बनाकर उन्हें स्वरोजगार से जोड़कर कार्य करती रहीं। कौसानी से 17 किमी की दूरी पर गोमती नदी के तट पर कत्यूरी शासनकाल में 12वीं सदी में बने शिव, गणेश, पार्वती, चंडिका, कुबेर व सूर्य आदि देवताओं के मंदिर के समूह बैजनाथ भी एक दर्शनीय पौराणिक व धार्मिक महत्व का स्थल है। पास ही में गरुण के पास 21 किमी की दूरी पर कुमाऊं की कुलदेवी कही जाने वाली नंदा देवी एवं कोट भ्रामरी देवी का मंदिर भी बेहद प्रसिद्ध है। Kausani2

बैजनाथ से 28 किमी और आगे बढ़ने पर सरयू और गोमती के संगम पर कुमाऊं की काशी कहा जाने वाला बागेश्वर नाम का स्थान है, जो पिंडारी, सुंदरढूंगा व काफनी ग्लेशियरों के यात्रा मार्ग का बेस शिविर भी है। आगे 87 किमी की दूरी पर स्थित चौकोड़ी से हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं को और भी अधिक करीब से देखा जा सकता है। बैजनाथ से ही दूसरी ओर कुमाऊँ और गढ़वाल मंडलों के मिलन स्थल ग्वालदम होते हुए स्वर्ग से भी सुंदर कहे जाने वाले बेदनी बुग्याल तक जाया जा सकता है। साहसिक खेलों के शौकीन सैलानियों के लिए यहां ट्रेकिंग, रॉक क्लाइबिंग के प्रबंध भी उपलब्ध हैं।

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यहां पहुंचने के लिए निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर-178 किमी, निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम-178 किमी तथा दिल्ली 431 किमी की दूरी पर है। मार्च-अप्रेल एवं सितंबर-अक्टूबर कौसानी सहित सभी पर्वतीय पर्यटक स्थलों की सैर एवं प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने के लिए सबसे बेहतर समय है, अलबत्ता गर्मियों में भी यहां शीतल जलवायु के लिए आया जा सकता है। कौसानी के प्रेमियों में गांधी जी के साथ ही अनेक अन्य खास हस्तियां भी शामिल हैं, इनमें पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के अलावा यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी, पूर्व केंद्रीय मंत्री डा. कर्ण सिंह व अरुण शौरी के साथ प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं, जो कमोबेश हर वर्ष यहां आते रहते हैं। 

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सोमेश्वर का इतिहासः

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले की सोमेश्वर तहसील में 150 गांव आते हैं। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से करीब 40 किलोमीटर दूर और सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मस्थली कौसानी से करीब 12 किलोमीटर पहले स्थित इस घाटी का इतिहास इस तरह हैः

कहते हैं कि चंपावत के राजा गोरिया यानी पूरे कुमाऊं में न्यायप्रिय राजा के रूप में पूजे जाने वाले लोक देवता ग्वेल अर्थात ने धानिरौ में चार जातों को थात (जागीर) दे रखी थी, जिसमें बोर, बोरिला, चौधरी और कार्की थे। इनमें बोर काफी लड़ाकू था और उसने दूसरी तीनों जातों को काफी परेशान किया। आखिरकार तीनों ने मिलकर ग्वल के दरबार में गुहार लगाई। ग्वल ने बोर को बुलाकर काफी समझाया, लेकिन वो नहीं माना। इसलिए ग्वल ने बोर को अपने राज्य से निकाल दिया। बोर धानिरौ छोड़कर अल्मोड़ीहाट यानी तत्कालीन आलमशहर, अल्मोड़ा आ गया, जहां उस समय चंद वंशीय राजाओं का राज था।

कहते हैं कत्यूरी राजवंश का पतन 700 ईस्वी के करीब हो गया था, जिसके बाद चंद वंशीय राजाओं का उदय हुआ। इसके प्रथम शासक सोमचंद बताए जाते हैं। जिन्होंने शुरुआत में अपनी राजधानी चंपावत बनाई। लेकिन 1563 ईस्वी में राजा बलदेव कल्याण चंद इसे अल्मोड़ा ले आए। शायद ये इसके बाद की ही घटना होगी, तब अल्मोड़ा में राजा उदय चंद, तिरमोली चंद, राजा वीर विक्रमी चंद का राज था। बोर ने धानिरौ से आने के बाद इनके दरबार में नौकरी मांगी, तो इन्होंने कैड़ के साथ बोर को भी अपना शिकारी बना लिया। एक दिन जब राजा शिकार करते हुए रिहेड़छिन यानी रनमन के करीब आए, तो दोनों शिकारियों ने राजा से जागीर की मांग की। ऐसे में राजा ने दोनों को अपनी मर्जी से जगह हथियाने के लिए कह दिया। कहते हैं कि बोर काफी चतुर था, जिसने एक किल यानी सीमा रेखा के लिए लकड़ी वही रिहेड़छिन में गाड़ दी। इसके बाद दूसरा हथछिन यानी कौसानी, तीसरा लोदछिन यानी मवे के पास लोद में और चौथा गिरेछिन यानी भूलगांव-आगर के करीब गाड़ दिया। इसके बाद चार छिन का मालिक बन गया बोर। इस चार किलों के एरिया को ही बोरारौ घाटी कहते हैं।

बोर खुद छह राठ फल्या यानी चारों किलों के केंद्र सोमेश्वर में विराजमान हुए। कहते हैं कि बोर बाद में भाना राठ, अर्जुन राठ, हतु राठ और रितु राठ समेत छह भाई हुए, जिनके नाम पर आज भी फल्या में छह गांव बंटे हुए हैं। इस चारों छिन के एरिया में खाती, खर्कवाल, महरा, फर्त्याल राणा, भंडारी, नेगी और भैसौड़ा समेत कई जातियां रहती हैं। ब्राह्मणों में जोशी, कांडपाल, तिवारी, लोहनी लोगों के भी कुछ गांव हैं।

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