March 29, 2024
कुमाउनी को समर्पित एक परिवार के तीन पीढ़ियों की कुमाउनी कविता
कुमाउनी को समर्पित एक परिवार के तीन पीढ़ियों की कुमाउनी कविता

पढ़ें कुमाऊनी कवितायेँ, हिंदी भावानुवाद के साथ :

  1. दशहराक दिनाक तें खास कविता: भैम
  2. पनर अगस्ता्क दिन
  3. गाड़ ऐ रै…
  4. नईं जमा्न में…
  5. चुनावों पारि कुमाउनी कविता: फरक पडूं
  6. कां है रै दौड़
  7. आम आदिम
  8. होलि पारि रंङोंकि कविता: पर्या रंङ
  9. खबरदार !
  10. उमींद
  11. उदंकार
  12. लड़ैं
  13. चिनांड़
  14. पछ्यांण
  15. ‘लौ’
  16. कि ल्येखूं
  17. सिणुंक
  18. ढुड.
  19. राजक च्यल
  20. तिना्ड़
  21. घुम्तून हूं
  22. राजअनीति
  23. ठण्ड
  24. हमार गों में
  25. मकें भरौस छू 
  26. झुठि-सांचि
  27. को छां हम ?
  28. कुन्ब
  29. ज्यूनि और मौत 

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पुस्तक समीक्षा : उघङी आंखोंक स्वीण                                                               राजेंद्र ढैला

स्वीण कूंण में हमर ध्यान जां सिद्द उ स्वीणन में जो हम अक्सर रात हूँ नींन आई में देखनु। पैं हमेशा स्वीण रात नींन आई में ई न देखीन , कुछ स्वीण उज्याव में,हिटन बाटै,खान-खानै, काम करनै लै देखीनी,जमें हमार आंख बिलकुल खुली हुनी,उनन धैं कयी जां उघङी आंखोंक स्वीण।
उघङी आंखोंक स्वीण श्री नवीन जोशी ‘नवेंदु’ ज्यूक एक कविता संग्रह छ। जकैं हम कै सकनू कि यौ एक घाक टान छ,जमें सबै प्रकारक घा समाई-छजाई छ। जनारन् आपण-आपण गुण धर्म और स्वाद छन। इजा बटी शुरू हैई यौ कविता संग्रह बखत बखतैकि बात जो कि आंखिरी कविता छ तक कुल ११० कविता छन। जो सामाजिक,राजनीतिक कटाक्षाक दगङ-दगङै संदेश व भलि सीख दिणयी।
उसिक तो पुर कविता संग्रह भौत सुंदर व बढिया ढंगल रची रौ। पर कुछेक कवितानक शीर्षक देखिबेर पढनकि उत्सुकता बढी जैं कि यमें, के जै लिख राख हुनेल कै । जसिक देखो-सिणुंक, तिनांङ, भल-नक, रीङ, जङ उपाङ, ज्यूनि और मौत, ढुंग, लौ, बाटक कुङ, इतिहास, म्यर छौव, उमींद, सैद, महानगर में, नौं में कि धरि राखो, इंटरभ्यू में, दूदक रीण, आंंखर कवित्त , असल दगङू, भैम, खबरदार , चिनांण, हैरैगो पिरमू, मैंस और जनावर, भकार, नखरू बखत और संग्रहकि शीर्षक कविता उघङी आंखोंक स्वीण
यल्लै कुछ कवीतानक अंश दिनयूं आपूं लै स्वाद ल्हियो ….
–मुछ्याव तापो–
ओरे देशाक नौजवानों,हाथ बटी हात मिलाओ।
धर्ति पारि जो ब्वझ बणि रौ,उकैं घटाओ,कान लगाओ।।

…सिणुंक–
मैं सिङि बणि
तुमार पुरुखन कें
सरग पुजै सकूं
सूंड में फैटि बेर
हाथि कें लै
फरकै सकूं…/

..रींङ–
ओ रे मनखा ! पाणिक रयाला !
हाय रे त्यर अफुल्याट
उपनक जस तिङतिङाट
मुसक जस चुङफुङाट
स्यावक जस डूंडाट
कुकुरा प्वाथौं जस कूंकाट
सोच धैं तू हैं त
इनैरी ज्यूनि भलि
न कै कै के ल्हिण, न दिण..

–उमींद–
एक दिन
इकार सांस लै लागि सकूं
नाङि लै हरै सकैं
दिन छनै रात,
कब्बै न सकीणीं
काई रात लै है सकैं!..

–खेल खेलनु–
आओ खेल खेलनु
मिं त्यार् पुठ में चढुंल
तु वीक पीठ में चढ
मिं तुकें घुर्यूंल
तु उकैं घुर्या
एक दुसरक ख्वर फोङनु
आओ खेल खेलनु।…कटाक्ष छ यो एक..

–भरौस–
अन्यार हैरौ ऐल,मिं मानि ल्यूं तुमरि बात
पर फिर ह्वल उज्याव,मकैं भरोस छ ।।
काव् करि, पैरि स्यत,स्वांग रचि जो छन पधान
ह्वल उनर मूंख काव्, मकैं भरौस छ ।।

–आंखर कबित्त–
को छै तु?
कां छै?
जां लै छै
वां बै आ
नां नि कौ,
कौ नौं कि?
कौ,कि चैं?
ओ ! तु छै
तु त भै ज छै
भै जा भीं में
के खै ले
यो दै खा…. यै में एक एक शब्द कि तागत बतूनान कवि।/

–हमार गौं-
हमार गौं में आब पैली जसि बातै न्हैं,
जसी बोटक, जाङन बै, क्वे नातै न्हैं।।

–मिं तुमर पहाड़ छुं–
मिं तुमर पहाड़ छुं
आब त हाङै हाङ छुं
मि कें भुलि जया झन
मिं कैं बचै धरिया बस
मिं तुमर पराण छुं
मिं तुमर पहाड़ छुं…./पहाड़ कि पीङ /

–उघङी आंखोंक स्वीण–
राताक घुप्प अन्याय में
मिं देखणयूं उदंकार उज्याव
हतपलास लगै चाणयूं ठिनुक
ठनकै बेर उणूणयूं चिणूक
बालणयूं मुछ्याव
चलणै तेज हाव् बयाव
मिं देखणयूं
टुटणैं मैंसोंकि नींन
देखणई उघङी आंखोंक स्वीण
है गई छाव्……… आदि कविता एक हैबेर एक छन।
इन कवितान कें पढन में एक आनंद छ,एक शिक्षा छ,एक उमींद छ,आपण गौं पहाड़ छ,आपणि बोलि क मिठास छ,एक विश्वास जागों कि हमन लै देखण चैंनी स्वीण उ लै उघङी आखोंल, और उ स्वीणन कैं पुर करणैंकि पुर कोशिश लै करण चैं । आपण पुर ग्यानल-ध्यानल ताकि हम उनन कें जी सकूं।
एक कविताक शीर्षक छ “हू आर यू” मैं कें लागूं यौ शीर्षक अंग्रेज़ी में न हैबेर आपणी लोक भाषा में हुण चैंछी।। यो कविता संग्रह कवि कि पछ्याण बणो, लोग येकें पढो -गुणो,प्रसिद्ध हवो येई कामना दगङी भावी जीवनकि लिजी शुभकामना छ मेरी। यो एक परिचय छ किताबक मेरी नजर में सादर।

प्रिय भुला राजेंद्र ढैला ज्यू कैं एक भौत भलि समालोचना-समीक्षाक लिजी धन्यवाद, आभार, साधुवाद। और सबै कुमाउनी प्रेमियों कें लै भौत-भौत धन्यवाद। : नवीन जोशी 

श्री मोहन चन्द्र तिवारी : श्री नवीन जोशी ‘नवेन्दु’ ज्यूक ‘उघड़ी आंखोंक स्वीण’ रचना बटि कुछ कुमाउनी कविताओंक जो अंश ढैला ज्यू द्वारा उद्धृत करी गई , उं बहौत व्यंग्यात्मक और आधुनिक युगबोधपरक छें।’अन्यार हैरो ऐल’, को छै तु कां छै’, ‘मि तुमर पहाड़ छुं’ आदि कविता बहौत भाल लागी।इन कविताओं में पहाड़े पीड़ प्रकट हरै और पलायनवादियों लिजि एक सन्देश लै दिराखौ। कवि क यौ विचार मौजूदा बखत में हृदयस्पर्शी बन गई।-
“हमार गौं में आब ,

पैली जसि बातै न्हें।
जसी बोटक जाडन,
बै क्वे बातै न्हें।।
मैगें यौ कविता बहौत भलि लागी।
राजेंद्र ढैला ज्यूल यौ कवितासंग्रहक कविताओं क खुशबुल फेसबुक मित्रों कणि जो सुवासित करौ , उनर जो विद्वतापूर्ण विश्लेषण करौ, वी लिजि उनुहैं धन्यवाद और नवेन्दु ज्यू कणि बहौत बहौत बधाई।

पहाड़ि राज्योंकि भाषाओं पारि अलोप हुंणक सबूं है ज्यादे छू खत्र

क्वे लै बोलि-भाषा खालि आपस में बुलांण-चुलांण, आपंण मनैकि बात दुसरों तक पुजूणैकि साधनै न हुनि, बल्कि उकें बुलांणी पुर समुदायक युग-युगों बटी चली ऊंणी इतिहास और वीकि संस्कृतिक सबूंहै विश्वसनीय श्रोत लै हैं। सो, जब एक बोलि या भा्ष खतम हैं, वीक दगाड़ उकें बोलणी पुर समुदायक हुत्तै ज्ञान-विज्ञान लै खतम है जां। और य भौतै ठुल नुकसान हुं। दुनी में जतू लै भाषा हुनीं, उन सबूंकी के न के अलग विशेषता हैं। एक भाषा में मूल रूप में निकली भावोंक क्वे दुसरि भाषा में भावानुवाद त करी जै सकूं, पर उं मूल भावना कें जस्सै क तस्सै न धरी जै सकन। यै दगड़ै भाषाक खतम हुंणैल नुकसान केवल संस्कृतिकै नैं, आर्थिक लै हुं। आज भाषाओंक सबूंहै बाकि नुकसान ग्लोबलाइजेशन यानी भूमंडलीकरण और यैक फलस्वरूप ग्लोबल विलेज यानी विश्व ग्राम यानी सारि दुणियांक एक गौं में तब्दील हुंणाक और सही शब्दों में कई जाओ तो शहरीकरणाक कारण हुंणौ। मानव सभ्यताक आज तकाक इतिहास में सबूं है ज्यादे गतिल हुंणी बदलावाक यो बखत में ‘ग्लोबल विलेज’ शब्द कें ‘ग्लोबल सिटी’ में बदली जांणैकि लै जरूरत महसूस हुंणै। किलैकि गौंन बटी शहरों में आई लोग एकमही जानीं, और आपंणि मूल बोलि-भा्ष में बुलांण पैली-पैली ह्याव समझनी, तिर्îूनी, और ढील-ढीलै उनैरि दुहैरि पीढ़ी उकैं भलीकै भुलि जानीं। यो प्रक्रिया में हिंदीक संस्कृति शब्द बटी ‘संस्कृतिकरण’ होते हुये ‘सैंस्क्रिटाइजेशन’ तक पुजी शब्द लै ठुलि भूमिका निभूं। समाज में ठुल देखीणीं वर्ग जो भा्ष में बुलां, जस पैरूं, जि करूं, समाजक ना्न, खुद कें तिर्îाई महसूस करणीं लोग लै उस्सै करण लागनीं। यै ‘सैंस्क्रिटाइजेशन’ भै। लेकिन आपंणि भाषाओंकि फिकर करी जाओ तो भाषा वैज्ञानिक कूंनी कि गौंन है शहरों में भाषाओंक संरक्षण और लै भलि भैं है सकूं। लेकिन हुंण न देखींणय। शहरी लोगों में एकभाषी संस्कृति बणणै, जबकि बहुभाषी बंणि बेर उं कई बार औरों है भल काम निकाई सकनीं, और बहु-भाषाओंक मददैल आर्थिक लाभ लै प्राप्त करि सकनीं।
देश में भाषाओंक सबूं है पैली सर्वे सन 1898 बटी 1928 जांलै आयरलैंडाक भाषा विद्वान जॉर्ज अब्राहम गियर्सनैल करौ। उनार बाद 1961 में देश में पैलि फ्यार भाषा आधारित जनगणना करी गे, जमंे पत्त चलौ कि देश में कुल 1652 मातृभाषा छन। लेकिन अघिल जब 1971 में 10 हजार है ज्यादे लोगों द्वारा बलाइणीं भाषाओंक नई सर्वे करी गो, तो उमें केवल 182 भाषाई ऐ सकीं, और सन द्वि हजार में यैसि भाषाओंकि संख्या केवल 122 बची रै सकी। यै है अलावा ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे’ में 1971 में कम-ज्यादे बुलांणी, हर तरीकाक कुल 780 भाषा रै ग्याछी। यानी 1961 बटी 10 सालों में 872 भाषा अलोप है ग्याछी। और इथां दुनी बटी हालाक 30 सालों में करीब ढाई हजार भाषा अलोप है ग्येईं।
दरअसल, बाजार आधारित यो व्यवस्था कें लागूं कि अंग्रेजी या हिंदी जैसि एकाध ठुलि भाषाओंलै पुरि दुनियौक काम चलि सकूं, सो नानि-नानि भाषाओंकि जरूरतै न्है। यं लोग एक भाषाक फैद बतूनीं कि दुनी में एकै ठुलि भाषा होली, और सब उ भाषा कें जांणला, त दुनी में क्वे लै हर बात समझि सकल। सो, उं कमजोर भाषाओं में तिरयूंण और उना्र भा्ल शब्दों कें आपंणि भाषाओं में शामिल करि बेर आपंणि भाषा कें मजबूत करंणा्क फेर में छन। पर यो गलत धारणा छू। दुनी में कुदरत, पेड़-पौध, जनावर, मैंस अलग-अलग और किसम-किसमाक छन। उनर रूंण-खां्ण, लुकुण पैरंणा्क दगाड़ शरीरैकि लंबाइ, ढांच और खासकर जिबण, और जिबण बटी बलांण लै अलग-अलग छू, त उनैरि बांणि, बोलि-भाषा लै क्वे खट्टि-क्वे मिट्ठि अलग हुनेर भै। तबै दुनी में ‘कोश-कोश में पांणि और चार कोश में बांणि’ बदईं कई जनेर भै। सो नानि-ठुलि किसम-किसमैकि सब भाषाओंक आपंण अलग-अलग महत्व छू, और उनार बिना दुणियैकि कल्पना लै न करी जै सकनि।
इथां भूमंडलीकरण, उदारीकरण और संचार तकनीक में हई क्रांतिक दौर में जस खत्र प्रकृति और पर्यावरण पारि छू उस्सै खत्र मानव सभ्यताक इतिहासाक सबूं है ठुल गवाह कईणीं बोलि-भाषाओं पारि लै छू। संयुक्त राष्ट्रैकि पैलि ‘स्टेट ऑफ द इंडीजीनस पीपुल्स रिपोर्ट-द्वि हजार एका’क मुताबिक दुनी भर में करीब 6,900 भाषा छी, जनूं में बटी करीब 2,500 या तो अलोप है ग्येईं, या इनूं पारि अलोप हुंणक खत्र छू। जबकि करीब 900 अलोप हुंणाक कगार पारि छन। इथां भाषाओंक बिमार हुंण और मरणक यो खत्र और तेज हैगो। करीब 15 साल पैली संयुक्त राष्ट्रैल जतू भाषान कैं बीमार बताछी, वी मुकाबल में आज बिमार भाषाओंकि संख्या करीब तिगुणि हैगे। इथां, संयुक्त राष्ट्राक शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन, यानी यूनेस्को’क भाषा एटलसाक मुताबिक जो देशोंकि भाषन पारि अलोप हुंणक बांकि खत्र छू, उनूमें भारतक नाम सबूं है मलि छू। भारत में 196 भा्ष या तो अलोप है ग्येईं या अलोप हुंणा्क कगार पर छन।
यो एटलस में हमा्र उत्तराखंडैकि कुमाउनी, गढ़वाली और रांग्पो भाषा ‘वलनरेबल’ यानी अलोप हुणांक ठुल खत्र वाली भाषाओंक दगाड़ धरी जै रयीं। किलैकि इन भाषाओंक बोलंणी वा्ल लोग इनन कें छोड़ि बेर दुसरि भाषाओंक उज्याणि जांणईं। इना्र दगाड़ै यो एटलस में उत्तराखण्डैकि दारमा और ब्यौंग्सी भाषाओं कें ‘निश्चित खत्र’ और वांगनी कें ‘अति गंभीर खत्र’ वालि भाषाओंक दगाड़ धरि राखौ। उनार मुताबिक कुमाउनी भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जैं। यो भा्ष कें बोलंणी लोग उत्तराखंडा्क अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम और पड़ोसि देश नेपाल में लै छन। यानी यूनेस्कोक सर्वे करंण बखत यां रूंणी कएक लोगोंल लै आपंणि भाषा कुमाउनी बतै हुनैलि। यैक अलावा गढ़वालि बोलंणी लोगोंकि संख्या 22 लाख 67 हजार 314 बताई जै रै। वैं ‘वलनरेबल’ भाषाओंकि सूची में देशैकि कुल 82 भाषा छन, जनूंमें चमोलि जिल्ल में आठ हजार लोगों द्वारा बुलाई जांणी रॉग्पो लै छू। यैक अलावा देशैकि 62 भाषान कें ‘डेफिनेटली इंनडेंजर्ड’ यानी निश्चित खत्र वालि श्रेणी में धरी जैरौ। यो श्रेणी में उत्तराखंडा्क अल्माड़ व पिथौरागढ़ जिलोंक अलावा नेपालाक दार्चूला जिल्ल में 1,761 लोगों द्वारा बोली जांणी ‘दारमा’ और महाकालिकि घाटी वाल इला्क में 1,734 लोगों द्वारा बोली जांणी ‘ब्योंसी’ कें लै धरी जैरौ। वैं करीब 12 हजार लोगों द्वारा बुलाई जांणी गढ़वालैकि ‘वांगनी’ कें ‘अति गंभीर’ भाषाओंकि श्रेणी में धरि राखौ, जबकि आखिरी श्रेणी अलोप है चुकी भाषाओंकि छू, जमें देशाक पूर्वोत्तराक पहाड़ि राज्योंकि अहोम, अण्डरो व सेंगमाई तथा उत्तराखंडैकि ‘तोहचा’ व ‘रंगकास’ भाषा शामिल छन। खास बात यो लै छु कि देशैकि जो 196 भाषाओं कें यो खत्र वालि सूचिन में धरी जैरौ, उनूमें दक्षिण भारतैकि केवल एक दर्जन भाषांेक अलावा मणीं उड़ीसा और बाकि करीब 85 परसेंट पूवोत्तराक सात पहाड़ि तथा उत्तराखंड, हिमांचल, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम जास हिमालयी पहाड़ि राज्योंकि छन। सो साबित है जां कि पहाड़ि राज्योंकि भाषाओं पारि सबूं है बाकि खत्र छू।
वै अंतर देखी जाओ तो भाषाओं पारि खत्राक मामल में श्रीलंका भारत है भौतै भाग्यशाली छू। यांकि केवल एक भाषा ई खत्र में छू, जबकि भारतीय उपमहाद्वीपाक दुसार देश पाकिस्तानैकि 27 और नेपालैकि 71 भाषा खत्र में छन। वैं आपंणि भाषा में सबूंहै ज्यादे महत्व दिंणी जापानैकि केवल आठै भाषा यो श्रेणी में छन। जबकि भाषाओंक अलोप हुंणाक मामल में भारता्क बाद अमेरिका नंबर द्वि पारि छू। वां 192 भाषा अलोप हुंणा्क धार में छन, या अलोप है चुकि ग्येईं। यैक अलावा दुनी में 199 यैसि भाषा छन, जनूंकें बुलांणी 10 या इनूंहै लै कम लोग बचि रईं, जबकि 397 भाषान कें केवल 50 लोग बुलानीं। इनार अलावा पांच साल पैली 46 भाषाओं कें बुलाणी केवल एक आदिम बचि रौ छी, आ्ब पत्त न्हें कि इनूंमें बटी कतूकन में आब यं एक मैंस लै ‘हो कूंणी-धात लगूंणी’ बचि रईं। इनूंमें बटी एक भाषा हमा्र देशा्क अंडमान निकोबार द्वीप में एक आदिवासी कबिलाक लोगों द्वारा बलाई जांणी ‘बो’ नामैकि भाषा लै छी। भाषा वैज्ञानिकोंक अनुसार करीब 65 हजार साल पुराणि यो ‘प्री नियोलोथिक’ बखतैकि बो भाषा कें बुलांणी 85 सालाक बोआ नामा्क आखिरी आदिम लै हालाक सालों में हिट दि गो, और वीक दगाड़ यो भाषा लै नसि गे। ‘बो’ भाषा इतू खास छी कि यै है पुराणि क्वे लै भाषाक इतिहास दुनी में मौजूद न्हें, हालांकि यो जरूर कई जां कि दुनी में भाषाओंक इतिहास करीब 70 हजार साल पुरांण छू। जबकि आजाक आधुनिक तरिकैल लेखी जांणी लिपि वालि भाषाओंक इतिहास केवल चार बटी छह हजार सालै पुरांणै छू। बो भाषाक बा्र में दिल्लीक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालयैकि चा्ड़-प्वाथन पारि अध्ययन करणी प्रोफेसर डा. अवनिता अब्बीलैल बता कि उनूंल यो भाषाक आखिरी बुलांणी बोआ नामाक बुजुर्ग कें चाड़-पोथीलन दगाड़ भौतै आरामैल बात करंण देखौ। यो बातैल समझी जै सकूं कि क्वे भाषाक अलोप हुंण क्वे आदिमाक मरंण जसै दुखदायी हूं। मैंसै की भें क्वे भाषा मरि जैं त उ लै मरी मैसैकि ई भें कब्बै वापस न ऐ सकनि। बशर्ते वीक बिं कैं और समाई बेर धरी न जाओ त।
‘बो’ भाषाकी भें 1974 में ‘आइसले ऑफ मैन’ नामैकि जा्ग में नेड मैडरले नामाक आखिरी बुलांणी मैंसैकि मौताक दगाड़ ‘मैक्स’ नामैकि एक दुसरि भाषा लै खतम है ग्येछी। इसीकै 2008 में अलास्का में मैरी स्मिथ जॉन्सैकि मौता्क दगा्ड़ ‘इयाक’ नामैकि एक तिसरि भाषा लै अलोप लै ग्येछी। भारत में लै यैसि भौत भाषा छन, जनूं पारि आजि यस्सै खत्र ऊंणी हैरौ। इनूमें दर्मिया, जाद, राजी, चिनाली, गहरी, जंघूघ, स्पिति, कांधी या मलानी और रौंगपो कैं धरी जैरौ, जनूंमें बै राजी और रौंगपो हमार उत्तराखंडैकि भाषा छन। इनूंकैं बुलांणी आब ज्यादे है ज्यादे पांच हजार और कम है कम द्वि-तीन सौ लोगै बचि रईं। दर्मिया, जाद और राजी तिब्बती-बर्मी मूलैकि भाषा छन, जो उत्तराखंडा्क दगाड़ हिमांचल प्रदेशाक कुछ इलाकों में बुलाई जानीं, जबकि चिनौली और गहरी कें बुलांणी द्वि-ढाई हजार लोगै बचि रईं।
‘पीपुल्स लिंग्युस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’क एक दुसार अध्ययना्क मुताबिक भारत में भाषाओंक मामल में सबूंहै समृद्ध राज्य अरुणांचल प्रदेश छू, जां 90 है ज्यादे बोलि-भाषा बोली जानीं। यैक बाद महाराष्ट्र, गुजरातक और फिर उड़ीसाक नंबर उं। महाराष्ट्र में 50 और गुजरात-उड़ीसा में करीब 47 बोलि बोली जानीं। इनार अलावा भारत में करीब 400 बोलि-भाषा आदिवासी समाजों, घुमंतू और गैर अधिसूचित समुदायों द्वारा बलाई जानीं। और सबूं है बांकि खत्र इनूं पारि ई छू। उत्तराखंड जसी भौगोलिक और प्राकृतिक स्थितियों वा्ल देशा्क पूर्वोत्तर राज्यों के 130 बोलि-भा्षों पारि खत्र छू। जबकि ज्यादे भाषाओं वा्ल लै यै राज्य छन, जांक लोग देश में औसतन सबूं है बांकि भा्ष बुलानी। यांक असम में 55, मेघालय में 31, मणिपुर में 28, नागालेंड में 17 और त्रिपुरा में 10 भा्षन पारि अलोप हुंणक खत्र छू। यो तथ्यन कें देखि बेर देशाक भाषा वैज्ञानिक लै मानणईं कि भारत में तटीय और पहाड़ी-हिमालयी या शहरन हुं बांकि पलायन हुंणी इलाकोंक भाषा ई सबूं है तेजील खतम है ग्येईं, और हुंणईं।

जड़ बटी हो लोक भाषाकि सज-समाव

बोलि-भाषा क्वे लै समाज, इला्क, देश-प्रदेश और वांक लोगूंक न केवल विचार, बोल-चाल कें एक-दुसरा्क सामंणि प्रकट करणैंकि माध्यम हैं, बल्कि यै है बांकि उ संस्कृति, पछ्यांण, अस्मिता कें इतिहास बटी आजैकि पीढ़ी अैर आजैकि पीढ़ी बअी अधिलैकि पीढ़ी कें सोंपणैकि माध्यम लै हैं। बोलि-भा्ष बदलें त मैंस लै बदइ जां। यो वास्ते संस्कृत और प्राकृत भा्षना्क जमा्न बै लै भा्षनक रूप बिगड़ण और एक भा्षक दुसैरि भा्ष कें हटै बेर आपूं वीक जा्ग स्थापित है जांणा्क बिरखांत इतिहास में लै मिलनीं। यानी भा्षनक बदलंण एक चलते रूंणी बात छू। ये कें भा्षक विस्तार-विकासै कई जै सकूं। पर उ बखत क्वे लै भाषा्क कि मैंसा्क तें लै महत्वपूर्ण हूं, जब उ आखिरी सांस गिणूं। आज ‘ग्लोबलाइजेशना्क’ जमा्न में भाषाओंक मरणैकि, दुसैरि कमजोर भाषाओं कें ज्यूनै निगइ जांणैकि रफ्तार कुछ ज्यादे’ई हैगे। देश में आज उ इंग्लिश सबूंहै मजबूत भाषा छू, जैक बुलाणियोंल हमूं पारि 1815 बटी 1947 तलक 132 साल राज करौ, और हमा्र स्वतंत्रता संग्राम सेनानियोंल आपंणि ज्यान दी बेर उनूं कें देश बै भजा, पर उ कें न भजै सक्यां। जसिक हनुमाना्क ह्यि में सीता-राम बैठी छी, उसी हमा्र ह्यिया्क क्वाठ में इंग्लिश पांजी रै। उ हमैरि हिंदी’ई नैं दुनियैकि तमाम भाषाओं कें ज्यूनै न्यवणैकि कोशिश करणै। वैं आबादीक मामल में चीनैकि ‘मंदारिना्’क बाद दुणियैकि दुसैरि नंबरैकि भाषा हिंदी लै टीवी-सिनेमाक दगा्ड़ ‘बजारै’कि ताकत हासिल करि बेर ‘हिंग्लिशा्क’ रूप में देशैकि और भा्षनैकि तें यस्सै अन्या्र गड्ढ (ब्लेक होल) साबित हुंणै, जमै देशैकि कएक भाषा हराते-बिलाते जांणईं। यै वास्ते महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुष’ जा्स ना्र ‘हिंदी’क मुकाबल हुं ठा्ण हुंणईं, त दक्षिण भारता्क कन्नड़, तेलगू, तमिल और पूर्वी भारता्क असमी, बंगाली व पश्चिमी भारता्क गुजराति, राजस्थानी दगाड़ सबूं है बांकि पर्वतीय क्षेत्रोंक कश्मीरी, कुमाउनी, गढ़वाली जसि भा्ष डरान है रईं। किलैकि पहाड़ी इलाकों बै सबूं है तेज गतिल पलायना्क हुंणौ, और पलायना्क दगा्ड़ केवल जवानी और पांणि’ई नै वांकि बांणी यानी बोलि-भाषा लै तलि मैदानूं और हिंदीक उज्याणि बगड़ै। तो बखत ऐगो, जब आपंण ‘दुदबोलि’ कें बचूणैकि तें पुर जोरैल कोशिश करी जाओ। यो कोशिश जड़ बटी हुंण चैं, यानी घर बटी, दूद बटी, नांनछनां बटी, इस्कूल बटी आपंणि दुदबोलि कुमाउनी या गढ़वालि कें पढ़ूणेकि शुरुआत करैणि पड़लि। उत्तराखंड सरकार यो दिशा में, पाठ्यक्रम में कुमाउनी-गढ़वालि कें लगूंणैकि कोशिश करणै। पर यो कोशिश तब सफल होलि, जब हम लै घर बटी यो कोशिश में आपंण जोर लै लगूंल। ना्नतिनों कें और भा्षना्क दगा्ड़ आपंणि दुदबोलि लै पढ़ूंल। यो कच्चि उमर में जब हमा्र पहाड़ि ना्नतिन हिंदी, अंग्रेजी कि पढ़ाई जाओ त चीनी-जापानी कें समझि सकनीं त आपंण खून-दूद में शामिल कुमाउनी या गढ़वालि कें न समझि सकला। याद धरंण पड़ौल, हमैरि भा्ष ज्यूनि रौली, तबै हमा्र तिथि-बार, तीज-त्यार, रीति-रिवाज, ख्या्ल-म्या्ल, संस्कृति-पछ्यांण लै ज्यून रौल। जसी देशा्क और राज्योंक लोगूं कें चाहे हिंदी, अंग्रेजी में बणांण में लै पछ्यांणी जै सकूं। उना्र जिबा्ड़ बटी आफी उनैरि दुदबोलिकि ‘टोन’ ऐ जैं। हमूं बै लै हमैरि पछ्यांण-शिनाख्ता्क चिनांण-निसांण रूंणै चैनीं। बस यैकि शुरुआत हमूंकैं जड़ै बटि करंणि पड़ैलि।

जरा हंसि ल्हिओ

1.हल्द्वानि में खास खास चौराहन में पुलिसैल सी.सी.टी.वी. कैमरा लगवै हालीं। लेकिन हल्द्वाणिक मैंश लै हल्द्वाणिकै भा्य, ऊं इनूं में नई-नई प्रयोग करनईं। एक लौंडैल रत्तै रत्तै “पुलिस कंट्रोल” रूम में “फोन” करौ…..

लौंड – के तुमार सी.सी टी.वी. काम करण लाग रईं ? कंट्रोल रूम वाल – होय हो किलै नै ! लौंडैल फिर पूछो – के मुखानी चौराहा नजर उँण लाग रौछै ? कंट्रोल रूम वाल – होय किलै ? लौंड – के कपिलाज दुकान लै देखीण लाग रैछी ? कंट्रोल रूम वाल – होय पै ! के बात है गे ? लौंड – अरे दाज्यू जरा एक बार देख बेर बताओ धें ……. गरम-गरम समोसा बणंण लागि गेयीं के ?

2. यार मोहनदा, आज मैल आपंणि स्यैंणि कें फतोड़ि दे……. पत्त नै के के करणै अच्यान ऊ…                                                         मोहनदा :  के भौ ? के करौ भौजिल ???                                                                                                                                                   ऊ मि पारि जादू-टोन करणैं छी, आज वील म्यार चहा में ताबीज खित बेर मकें चहा पिला ।                                                             मोहनदा : त्यार खोरि कें बज्जर पड़ौ उल्लू पट्ठा !!! उ ताबीज नि छी, टी बैग छी ।

कुमाउनी समग्रः चंद शासन काल में राजभाषा रही कुमाउनी, गढ़वाली व जौनसारी सहित उत्तराखंड की समस्त लोक भाषाओं को उनकी पहचान लौटाने का एक प्रयास…

आप भी चाहें तो अपनी प्रविष्टियां इस पेज के लिए भेजें @ saharanavinjoshi@gmail.com और कुमगढ़ के लिए @ kumgarh@gmail.com

समीक्षा- ‘कुमगढ़’ पत्रिका द्वितीय वर्ष प्रवेशांक

कुमगढ़ पत्रिका, मई-जून-2015
कुमगढ़ पत्रिका, मई-जून-2015

समय बहुत बलवान एवं चलायमान है। यह न किसी के लिए रुकता है, और ना ही किसी के सामने झुकता है। लेकिन जो लोग समय के साथ कदम मिलाकर चलते हैं, उन्हें समय खुद से भी तेज आगे बढ़ाता है। इतिहास में अनेक महापुरुषों, साहित्यकारों, लेखकों के उदाहरण मिलते हैं, जो अपने कम उम्र के जीवन में ही अमर हो गए और उनकी रचनाएं कालजयी हो गईं। यह भी कहा जाता है कि कोई कार्य सफल होगा या नहीं, यह उस कार्य की शुरुआत में किए गए श्रम पर निर्भर करता है। क्योंकि यहीं से उस कार्य की अच्छी या बुरी बुनियाद बनती है। बाद-बाद में काम को शुरू करने वालों का संकल्प भी कई बार कमजोर पड़ जाता है। देखते-देखते उत्तराखंड प्रदेश की लोक भाषाओं को एक मंच पर लाने के संकल्प के साथ पिछले वर्ष अप्रैल माह में प्रदेश के प्रतिष्ठित डा. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार संपादक दामोदर जोशी ‘देवांशु’ द्वारा सामूहिक प्रयासों से शुरू की गई पत्रिका-कुमगढ़ को भी एक वर्ष हो गया है, तथा इसका दूसरे वर्ष का प्रवेशांक भी प्रकाशित हो गया है। पत्रिका का यह दूसरा प्रवेशांक अपने संपादकीय में इसी संकल्प को याद करता तथा आगे के लिए सामूहिक प्रयासों से राज्य की लोकभाषाओं के दस्तावेजीकरण के जरिए एक आंदोलन की तरह प्रदेश की बोली-भाषाओं को राज्य की राजभाषा और देश के संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल कराने के अपने संकल्प को और मजबूत करता दिखाई देता है। पत्रिका की विषयवस्तु की बात करें तो पत्रिका उत्तराखंड की कुमाउनी, गढ़वाली, जौनसारी व शौका आदि लोक भाषाओं का सुंदर गुलदस्ता सी प्रतीत होती है। जहां शुरुआत पुष्पलता जोशी व दिवंगत स्वनामधन्य कुमाउनी कवि मोहम्मद अली ‘अजनबी’ की सरस्वती वंदनाओं में गंगा-जमुनी तहजीब के भी दर्शन होते हैं। आगे चिट्ठी-पत्री के हिस्से में दिखता है कि राज्य की सभी लोक भाषाओं को जोड़ने और एक मंच देने की इस अपनी तरह की पहली पहल से पाठक किस तरह पत्रिका की एक वर्ष की यात्रा में राज्य की दूसरी बोलियों को समझने लगे हैं। यह पत्रिका की सफलता कही जा सकती है। पत्रिका में भगवती प्रसाद नौटियाल की गढ़वाली रचना-‘खुद’ एक गूढ़ गढ़वाली निबंध है। प्रदेश के दिवंगत जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की कविता ‘हम ओड़ बारुड़ि’ समाज के उपेक्षित कामगार वर्ग की आवाज है। कुमाउनी की पहली पत्रिका कही जाने वाली ‘प्रयास’ से भी पत्रिका में कुछ अंश संकलित किए गए हैं। इस तरह कविता ऐतिहासिक धरोहरों को भी आगे बढ़ाती नजर आती है। डा. सुरेंद्र दत्त सेमल्टी ने पत्रिका में गढ़वाली बोली की विकास यात्रा प्रस्तुत की है, तो पूरन पंत ‘पथिक’ ने राज्य में नौकरशाहों व राजनेताओं द्वारा आपसी गठजोड़ से मचाई गई खुली लूट की पोल-पट्टी खोलने का कार्य किया है। वहीं ‘जैल थै-वील पै’ और ‘स्काउटैकि ड्यूटि’ नाटकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। रतन सिंह रायपा शौका बोली के मुहावरों के साथ राज्य की लोकबोलियों का एक और फूल खिलाते हैं। डा. गीता गोबाड़ी की असम यात्रा कुमाउनीं में यात्रा साहित्य और पवनेश ठकुराठी की ‘राष्ट्रक सेवक’ रचना कुमाउनी में अनुवाद विधा की प्रतिनिधि रचनाएं हैं। आगे उमा भट्ट एवं कमल जोशी भाषा पाठ के जरिए कुमाउंनी-गढ़वाली व हिंदी सिखाने का स्तंभ संभाले हैं। पत्रिका में डा. प्रीतम अपछ्यांण द्वारा गीतकार देवेश जोशी की पुस्तक-गाणि गिणी गीणि धरीं की गढ़वाली में की गई समीक्षा का एक अलग स्तंभ भी मौजूद है। इसके अलावा भी पत्रिका में उत्तराखंड का सामान्य ज्ञान, नव हस्ताक्षरों के कोने में अशोक कुमार सिंह की रचना, ह्वट्स अप जैसे नए मीडिया माध्यमों में आ रही अच्छी विषय वस्तु के रूप में डा. सागर की प्रतिनिधि रचना-ढुंढनै रै जाला, ललित मोहन पांडे की कुमाउनी कथा, कुमाउनी की अनूठी प्रश्न विधा-आंणे, लोकोक्तियां, बालगीत, प्रेम सिंह नेगी की चर्चित कहानी-‘नंग ठुल या भगवान’, अभी हाल ही में कुमाउनी भाषा सम्मान प्राप्त करने वाले चारु चंद्र पांडे का बच्चों के लिए उपयोगी ‘पहाड़ों’ पर आधारित ‘बालगीत’ के अलावा पहाड़ की पहचान फसक-फराल, लघु कथा व हास्य-व्यंग विधा के अलावा लोक कवि लच्छी राम कलाकार के ‘जोड़’ व समाचारों के साथ ही प्रचलित कुमाउनी-गढ़वाली कविता, कहानी, लेख आदि की भी प्रतिनिधि रचनाएं शामिल की गई हैं, जिनके माध्यम से प्रदेश की लोकभाषाओं में अनेकानेक विधाओं में हो रहे लेखन को ‘कुमगढ़’ पत्रिका अपने नाम के अनुरूप गुलदस्ते की तरह ही पेश करती है।

‘कुमगढ’ केवल एक पत्रिका नैं एक आंदोलन

‘कुमगढ़’ एक पत्रिका नैं, एक आंदोलन छू, उत्तराखंड राज्यैकि लोक भाषान कें एक दगाड़ लूंणैक। यो तो शुरुआत छू। असल बात यै है अघिल, भाषाओं दगाड़ पुर उत्तराखंड राज्य कें लैं और नजिक लूंणैक, एकबट्यूणैकि कोशिश लै छू। यो क्वे अलग बात न्हैं कि दुणिया्क क्वे लै भू-भाग में विविधता हुनीं। न केवल जमीन पारि, बल्कि हमा्र मना्क क्वा्ठ में लै। अल्लै क्वे खेलै करै लियो हमा्र देश भारत और दुणिया्क क्वे देशा्क खिलाफ, हम भारतैकि टीमा्क दगा्ण है जूंल। पर सोचो कि यदि खेलणीं द्वि टीमों में हमा्र देशैकि टीम न हो, तब सैद हम एशियाकि क्वे दुसरि टीमा्क दगा्ड़ है जूंल। है सकूं आपंण विरोधी पाकिस्ताना्क टीमा्क दगा्ड़ लै है जूंल। इसी कै जब मुकाबल हमा्र राज्य और क्वे दुसा्र राज्या्क बीच में ह्वल, हम उत्तराखंडा्क दगा्ड़ है जूंल, और इसीकै आपंण जिल्ल, आपंण ब्लौक और आपंण शहर-गौंक दगा्ड़ हम जुड़नूं। और असल में सोचो तो जुड़नू नें, बल्कि टुटनूं, और आपंणै हिस्स दुसरन कें पर्या बड़ै दिनूं। यो मानव प्रवृत्ति छू। पर ‘कुमगढ़’ में हमैरि कोशिश जोड़णैकि छू। जोड़णैकि सबूं है ठुल माध्यम हैं-भाषा। सोचो कि यदि दुणिया्क सब लोग अलग-अलग भाषा बुलाल, और एक-दुसरा्क बात न समझि सकला, तो उनूं में विचारोंक आदान-प्रदान भलि भैं न है सकौ्ल। या्स में उं एक-दुसरा्क बारि में बिना कारण गलत राय लै बड़ै सकनीं। यैसि गलत फैहमी भौत बारि दोस्तोंक बीच में लै है जैं, जब उं आपस में बात न करन, या दुसरा्क कइयक ‘क्याप्पक-क्याप्प’ या गलत अर्थ निकालि ल्हिनीं। दुनीं में जतू लै लड़ैं-झगा्ड़ हुनीं, उनूं में बै ज्यादेतर यै भाषाओं-बिचारोंकि नासमझी या गलतसमझी कै कारण हुनीं। दुसरि तरफ भाषा दुनीं कें आपस में जोडैं। अंग्रेजी भाषाल दुनीं कें आज भारतीय पुराणोंकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कि कल्पना कें काफि हद तक जोणि हालौ। कम्प्यूटर-इंटरनेट पारि हिंदी लै यूनिकोडा्क माध्मैलि दुनी है जुड़नै। ऑनलाइन अनुवादकोंक मदतैल आज दुनी में क्वे लै इंटरनेट पारि हिंदी में लेखी साहित्य कें आपंणि भाषा में पढ़ि और समझि सकूं। हमैरि अघिल कोशिश पैली आपंण राज्यैकि सब भाषाओं कें जोड़णैकि और फिरि उकें देशैकि भाषाआंेकि आठूं अनुसूचि में शामिल करै बेर संवैधानिक मान्यता दिलूंणा्क तें जमीन तैयार करूंणैकि लै छू। जै है अधिक संवैधानिक मान्यता प्राप्त करि बेर हमैरि भाषा दुनिया्क अनुवादकोंक लिस्ट में लै शामिल है सकैलि, और हिंदी-अंग्रेजी या देशा्क और राज्योंकि पछ्यांण जा्स गुजराती, पंजाबी, तमिल, तेलगू व मलियालमैकि भैं दुणियैकि क्वे लै भाषा में पढ़ी और समझी जै सकैलि। हमा्र दुंणियाक लिजी और दुंणिया्क हमा्र लिजी द्वार और फराङ कै खुलि सका्ल। हमैरि केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ज्यूल लै यो मातृभाषा दिवस (21 फरवरी 2015) हुं देशा्क एक हजार है बांकि मातृभाषाओं वा्ल, बहुभाषी हुंण कें ‘देशैकि अमूल्य धरोहर और विरासत’ बतै बेर हमैरि यो मान्यता पारि आपंणि मुहरै लगै राखी। सो हमर लै यो फर्ज छू कि हम यो धरोहर, विरासत कें बचूंणा्क, अघिल बड़ूंणा्क तें आपंण पुर जोर लगै बेर कोशिश करूं। कई जां कि देशा्क प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और कवि सुब्रहमन्या भारतील 30 है बांकि भाषा जांणछी, तो किलै नैं हम लै आपंण राज्यैकि सबै भाषाओं कें सिखणैकि कोशिश करना।
पत्रिका की प्रति सुरक्षित करवाने, नियमित या आजीवन सदस्यता लेने एवं आगामी अंकों के लिए अपने मौलिक लेख, कविताएं आदि प्रेषित करने के लिए पताः श्री दामोदर जोशी ‘देवांशु’ संपादक-कुमगढ़ पत्रिका हिमानी वाङमय पीठ, पश्चिमी खेड़ा, पोस्ट-काठगोदाम, जिला-नैनीताल, पिन-263126। मोबाइलः 9719247882। ईमेलः kumgarh@gmail.com । सदस्यता राशिः सदस्यता (संरक्षक): रुपए 5000 आजीवन सदस्यताः रुपए 1000 विशेष सहयोगः रुपए 500 वार्षिक सहयोगः रुपए 100 एक प्रतिः रुपए 20

सदियों पहले से कुमाऊंनी में लिखी जा रहीं पुस्तकें

नैनीताल। कुमाऊंनी को बोली या भाषा मानने पर चल रही बहस के बीच नैनीताल में एक ऐसी पांडुलिपि प्राप्त हुई है, जो कुमाऊंनी में लिखी गई है। यह पुस्तक जन्म कुंडली निर्माण की पद्धति को बेहद सहज और सरल पद्धति से सिखाती है। देश भर में वर्ष 2003 से चल रहे राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के तहत प्रदेश में कार्य कर रहे उत्तराखंड संस्कृत अकादमी सव्रेक्षकों के हाथ अनूठे हस्तलिखित दस्तावेज हाथ लगे हैं। 
उल्लेखनीय है कि कुमाऊंनी को भाषा के इतर बोली मानने के तर्क दिए जाते हैं। तर्क है कि इसमें प्राचीन लिखित साहित्य मौजूद नहीं है। इस मान्यता को कुमाऊं विवि के मुख्यालय स्थित हिमालयन संग्रहालय में मौजूद कुमाऊंनी में जन्म कुंडली निर्माण पद्धति पर लिखित पुस्तक आईना दिखाने वाली है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के सर्वेक्षकों को 300 वर्ष पुराना अनूठा संस्कृत व फारसी का ज्योतिष गणना यंत्र के साथ ही जागेश्वर महात्म्य, रामगंगा महात्मय, दशकर्म पद्धति, षोडश संस्कार पुस्तक, धार्मिक कर्मकांड तंत्र-मंत्र से जुड़ी पांडुलिपियां प्राप्त हुई हैं। इन पांडुलिपियों का रानीबाग की हिमसा संस्था के क्यूरेटरों द्वारा संरक्षण किया जा रहा है। इस मौके पर सर्वेक्षकों डा. कैलाश कांडपाल व शैक्षिक समन्वयक कैलाश पंत ने आमजन से अपील की कि वह घरों में मौजूद प्राचीन पांडुलिपियों को मिशन के तहत पंजीकृत कराए।

व्यंग्य: चुफू और कुर्सी

Uttarakhandi Ladiesचुफू ना्न एक बै ठुल एक में एक्कै साल में पुजि गोछी। पर ठुल एक बै द्वि में जां्ण में उकैं द्वि साल ला्गि ग्या्य। वीकि यो तरक्की अघिल हुं लै इसी कै उरातार जारी रै। उकैं द्वि बै तीन में जां्ण में तीन, तीन बै चार में जां्ण में चार और चार बै पांच में जां्ण में पांच साल ला्गीं, और उमर है ग्येइ इक्कीस। मल्लब, चुफू पांच पास हुंण जांलै है गो्य छ्वर-म्वर अयां्ण बै कानूनी तौर पारि लै पुर सयां्ण मैंस। घर पन आ्ब कां मन ला्गछी। बिड़ि सिलैक गुजारा्क लिजी तलि मावन हुं भा्जि गो्य, और एक सेठा्क वां नौकर है गो्य। काम द्वि परकारा्क हुनीं। एक-एक नंबर, द्वि-द्वि नंबर। सेठ द्वि नंबरी काम वा्ल भय। ‘यांक वां-वांक यां’ वा्ल काम भय वीक, पर उ करणा्क नौ पारि सिंणुका्क टोणि बेर द्वि नि करनेर भय। बस एक कुर्सि में भै रुनेर भय। और त के नैं, चुफू कें सेठैकि कुर्सि भलि ला्गि ग्येइ। मन में परण करि ल्यय-‘मिं लै भैटुंल तस्सी…तै है लै भलि कुर्सि में ए दिन।’ उसी चुफूवा्क कुर्सि पिरेमा्क क्वीड़ यै है लै पुरां्ण भा्य। उ कूनीं नैं-हुंणी च्याला्क गणंवै न्यार हुनीं। चुफूवा्क गणूं लै ना्न छनै बै न्यारै भा्य। उ ना्न छनै बै, तब बै, जब उ भली भैं बुलै लै न सकछी, ‘कुत्ती में बैथुंल’ कूनेर भय। य अलग बात छु कि वीक इज-बा्ब सो्चनेर भा्य, उ कुकूर में बैठुंल कूणौ। जब पैल फ्या्र वील इस्कूल में मास्यैप में कुर्सि में भैटी द्यख, वीक कुर्सि पिरेम और बढ़ि गो्य। तबै, जब उ माव बै घर हुं आ, कुर्सि कें सुरन में भै। कुर्सीक डिजैन वीक डिमाग में तैय्यार भै। कसी बैठुंल, कस ला्गुंल, कि करुंल, वील सब सो्ची भय। पर एक परेशानी भै कि कुर्सि बणूंण हुं वीक पास लाकड़ै न भा्य। बां्कि त ऽ सब है जा्ल, पर कुर्सीक चार खुट ? उनूं तें कां बै आल लाका्ड़ ? आल्छ्यो-पा्ल्छ्यो, अड़ोसि-पड़ोसिन थैं कई जाओ-कि पत्त है जांछै जुगाड़। भगवानैकि किर्प-तीन खुट त बिना शर्त मिलि जांणा्य पर चौथ खुटा्क तें लाका्ड़ दिंण हुं बचुलि दि कूंण लागी-‘ला्कड़ त मैं दि द्यूंल, पर म्येरि ए शर्त छू। पैली मिं भैटुंल कुर्सि में।’ बचुलि दि और पगा्लोंकि चारि नि भै। आपंण तीन फेल चोर धुलौक परसाद वीक लै थोव लागी भै कुर्सिक सवाद। स्वींणौंकि जसि फाम भै उकें, जब एक रात वीक धुलौ कें बै एक कुर्सि चोरि ल्याछी। तब द्विय्यै स्यैंणि-बैग रात भरि वी में भै राछी। कस नस जस है गोछी द्वीनों कें। ओ हो रे ! कतू मा्ज आ रात भरि। पर नांश हो पुलिस वावनों्क, जो रात्ति ब्यांण धमकि आ्य मोव थें। कुर्सिक दगा्ड़ धुलौ कें लै ल्हिजानै रा्य, और धुलौकि जो मारि-मारि बेर छा्ल घाम लगै, उ अलग। खैर, चुफू कें मुफत में तीन खुट दिणीं लोगन है लै सिदि बचुलि दि ई ला्गी, जो खालि पैली एक फ्यार कुर्सि में भैटंण हुं कूंणै। कि हुं कैकै भैटणैल। पैली बैठो, चाहे पछां। कुर्सि क्वे अन जै कि छु, जो जुठी जा्लि। चुफू भली भें जांणछी, जो ऐल बिना शर्तेकि बात करणईं, भो वीं पैली आं्ख दिखाल। ‘तसी सिद्योइल न चलल रे चुफुआ ! जरा टेढ़ि कर आपंणि दीठि‘ वीक मन भितेर बै अवाज ऐ। चम्म उठि बेर ठा्ड़ भै गो्य चुफू। हुत्तै आङ बरकंण जस ला्गि गोय वीक। कि करूं-कि नि करूं, सोच पड़ि ग्या्य उकैं। लका्ड़ इकबटी ग्या्य, आ्ब चैनेर भय ए भल सिपा्व मिस्तिरि, जो बणै दिओ कुर्सि। यो बीचै दिनैकि बात भै, ए मिस्तिरि सुद्याई गो्य। धो-धो कै ‘बीपै’ हुं खुरि-तुरि शुरू है ग्येइ मिस्तिरिकि। ‘यो ला्कड़ ट्यड़, यो ला्कड़ बाङ…. ’ आपूं में नौं नि धरियौ्ल कै मिस्तिरि ला्कड़न में खोट निकालनेर भय। खैर होते-करते ‘छनजर’ हुं है ग्येइ कुर्सी तैय्यार, पर ए खुट औरन है ना्न है गो्य। कुर्सि ढपकींणी है ग्येइ। कसीकै कुर्सि मणीं हलकली, घंटेका्क तें हलकते रौलि। आ्ब बारि ऐ भैटणैकि-बचुलि दी अघी ग्येइ। फटक मारि बेरि चड़ि ग्येइ कुर्सि में। कुर्सि ढपकि बेर हलकंण ला्गि ग्येइ। मिस्तिरि पिङव-पट्ट हई भय डरैल नड़क्याल कै। वां जै बचुलि दि कें झुलक मा्ज ऊंणय कुर्सि में भै बेर। चुफू सो्चणंय आ्ब जै उतरैलि बचुलि दि, आ्ब जै उतरैलि। पर बचुलि दि न उतरि। चुफू लै, और झंणि ले खाप तांणि बेर चा्इयै रै ग्या्य। रफ्ते-रफ्ते चा्ई-चा्इयै उना्र आं्ख ला्गि ग्या्य, मुनइ उलइ ग्येइ, घुनि-मुनि ज्येड़ी ग्येइ। उथां, बचुलिक आङ तांणी गो्य। उकैं आफी लै यस अंताज नि भय इतू मा्ज आल कै। वील य स्वींण में लै न सोची भय। चुफूवैकि नींन सबूं है पैली टुटी। चांछियौ-बचुलि दि क्या्प-क्या्प जस बलांणैइ-‘हमि यस करुंल….हमि उस करुंल….हमिंल द्यखौ…हमि द्यखुंल….विकास हुंणौ….गरीबी जांणै….।’ और लै उठीं वीक बक्तर्याट सुंणि बेर, ‘बचुलि दि… बचुलि दी……ऽऽ’ बचुलि दि पा्रि के फरकै नैं। ‘बौई गे सैद बचुलि। कुर्सि कें खजबजूंण पड़ल, तब आलि होश में….’ एक कूंणय। वील कुर्सि जरा खजबजाछी, औरी माया है ग्येइ। ‘सबू कें झेल खिति द्यूंल, अलांण रनकर यस, फलांण रनकर उस…..।’ चुफू कें झसझसाट है गो्य, ‘कैं मरी न जा्नि बचुलि दि…..?’ वील जोर लगै बेर कुर्सि कें पकड़ि ल्यय, और उकें थिरथाम करणैकि कोशिश करंण ला्गौ। पर कुर्सि बौई ग्येछी सैद। वील चुफू कें ई पलि पत्येड़ि द्यय। पर चुफू भय जल्दी हार न मानणी। वील ए फ्या्र आ्जि कोशिश करण लगै। औरन थें लै जोर लगाओ कय। चारों तरफ बै दिवारन लै खुटन कें अत्या्ड़ लगै, अङवाल खिति ‘इक्कै जोरौ ऽ हइस्सा….ऽ’ कौ छियौ, कुर्सि रुकि ग्येइ। कुर्सि कि रुकी, जां्णि सारि दुंणी रुकि ग्येइ। कैकें आ्पंण होश नैं। सब अस्यंण-पश्यंण है बेर ए-दुसरौ्क मूंख चांणा्य। बचुलि नसि आ्इ कुर्सि बै। खैर, फिर सब तिर जस छी-उस्सै। यं त भा्य भ्यारा्क हाल। भ्यार बै सब्बै चुप भा्य, पर ह्यि में सबूंकै कुर्सी भैटी भैइ। ‘हमि लै भैटुंल कुर्सि में…’ सबूं कै ह्यि में कुलबुलाट हूंणय। पर चुफूवैल साफ-साफ कै दि-‘कुर्सि म्येरि छु, मैंल बणै रा्खौ इकें। मिं भैटुंल कुर्सि में। शर्ता्क अनुसार बचुलि दि कें भैटै हा्लौ पैली, आ्ब मिं भैटंुल….और क्वे नैं।’ सबना्क ह्यिउंन का्ना्क जा्ग हवा्क फा्व जा्स घो्पी ग्या्य। बचुलि मांतर चुपै रइ। पर औरनैल जुबाब पा्त में जस धरि द्यय-‘सुंण रे चुफुआ ! हमा्र लकाड़ लै ला्गि रईं कुर्सि में, और उं लै कुर्सिक खुटन में। तु न समजणयै हमैरि तागत। ए फ्या्र कुर्सि में भैटंण जै न दिंणयै। ला् हमा्र लका्ड़….धरि दे गिंणि बेर तीन।’ और उं जबरजस्ती आपंण-आपंण बांट ल्हिजानै रा्य। कुर्सि एक्कै खुट में रै ग्येइ। ठा्ड़ि कसी हुंछी-भतकि ग्येइ। बचुलिल चुफू कें मस्त नड़क्या्य। पर आ्ब के हे सकछी-कओ धैं। पर चुफू लै चुफू भय, घुरू न भय। फिरि लगा्य डिमांग। मिस्तिरि उत्ती भय। उकें चुफुवै्ल क्या्प-क्या्प जस समझा्य। खुरि-तुरि करी ग्येइ और कुर्सि इक्कै खुट में ठड़ी लै ग्येइ। असल में घुरू ए फ्या्र भाबर बटी एक बैरिंग चोरि बेर ल्हि आछी। वी बैरिंग वील मिस्तिरि कें दिखा्य। मिस्तिरिल बैरिंग कुर्सिक एक खुट में ज्येड़ि द्यय। कुर्सि एक्कै खुट में न केवल ठा्णि है ग्येइ, और लै बढ़ी भें रिङणी लै है ग्येइ। चुफू खुशि है गो्य। औरना्क ह्यिओंन का्व भट जा्स भुटी ग्या्य। चुफू आ्ब हर बखत कुर्सि में ई भैटी रुनेर भय। गौं वा्ल भिं में भैटनेर भा्य। भिं में भैटि बेर उनूंकें चुफू भौत ठुल जस चिताइनेर भय। भितर बै भलै उं चुफू कें गा्इ हुतनेर भा्य, वीकि फुतफुता्इ करनेर भा्य, पर कुर्सि में भैटी चुफूवा्क सामंणि उनैरि ‘चूं’ न निकइनेर भै। उल्ट उं वीकि जै-जैकार करनेर भा्य। कुर्सि में भै बेर चुफुवा्क बचन लै बदइ ग्याई भा्य, और गौं वा्ल वीक बचनों कें कल्जुगी बिक्रमादित्या्क भैं बड़ि धियानै्ल सुंणनेर लै भा्य। ढील-ढीलै, उनूं कें पत्तै न चल, कब चुफू उनर नेता है गो्य। देश में पैली पांच-पांच साल में हुंणी भोट साल-साल में लै है जांणा्य। चुफू लै भोटन में ठा्ण है गो्य, और जिति लै गो्य। आखिर कसी न जितछी। उकें कुर्सि में भैटणक औरन है बांकि अनुभव जै भय। आ्ब चुफू खा्लि चुफू न रै गो्य, नेताज्यू है गो्य। यो कुर्सि आ्ब पुरांणी ग्येइ। दिल्लीकि कुर्सि मिलि ग्येइ। बंग्यल लै मिलि गो्य, औरै चैंन है ग्या्य। चुफू कें ‘उद्घाटन मंत्रालय’ में मंत्री बंणाई गो्य। दनादन उद्घाटन हुंण ला्ग। कदिनै शराबैकि भट्टीक, कदिनै नांच-गीत हुंणी नांच घरना्क। मंत्रीज्यू कें लाल फीताशाही बिल्कुल पसंद नि भै। यो वास्ते उद्घाटन मंत्रालयैकि सब फाइलों में लालैकि जा्ग हरी फित बदई जांणा्य। दुसराैंक बंणाई पुल, इस्कूल, रोड, अस्पतालोंक उद्घाटन करंण में मंत्रीज्यू आपंणि इज्जत समझनेर भा्य। दुसरों कें निच द्यखूंण में उनूंकें अलगै मा्ज ऊनेर भय। गौंक चौराहन में ठड़ी बोट का्टि बेर नंगि नांणी स्यैणियोंकि और बजारोंक चौराहन में नेताज्यूक बाबुकि मूर्ति लगाई जांणा्य। पर एक खास बात भै-मंत्रिज्यू हर बखत कुर्सि में ई भैटी रुनेर भा्य। ए दिन एक पत्रकारैल उनूं थें यैक कारण पुछि दी। मंत्रिज्यू उल्ट कें पत्रकारै थें जै सवाल पुछंण ला्ग। ‘दाज्यू, आज जब सारि लड़ै ई कुर्सीक लिजी छू, तब मिं किलै मंणी देरा्क तें लै कुर्सि कें छोड़ूं ?’ य कै बेर उनूंल आपांण द्वियै हात मलि उठै भीड़ा्क उज्यांणि ताई बजूंण्क शान करि दि। भीड़ जोर-जोरैल ताइ बजूंण लागी। पत्रकार फिरि क्वे दुसर सवाल न पुछि सक। उथां, उनर हर बखत भैटी रूंणै्ल कुर्सि भौतै परेशान भइ। मंत्रिज्यू उकें सांस ल्हिणैकि लै सुबुत न दिनेर भा्य। कभतै उं उठना, उ सांस पलटूनि। वीक हात धरणीं, भैटणीं, लधार लागणीं सब गद्द, अंजर-पंजर पिचकि ग्या्य। पर मंत्रिज्यू वीकि फिकर न करनेर भा्य। होते-करते भौत दिन है ग्या्य। कुर्सीक अस्यंण-पस्यंण ऐ गो्य। अथांणि है ग्येइ। और ए दिन उ छन मंत्रिज्यूकै भिं में घुरी ग्येइ। मंत्रिज्यू पीड़ैल कलत्याई ग्या्य। आपंण ढ्यांङ पकड़ि बेर उठणैकि कोशिश करी, पर उठि न सक। हर बखत कुर्सि में भैटी रूंणै्ल उना्र खुट पैलियै लुली राछी। आ्ब पटक अलग ला्गि गेछी। कसिक उठि सकछी, न उठि सा्क। कैलै अस्पताल फूंन करि दे। अस्पताल वा्ल ‘स्ट्रेचर’ ल्हि बेर आ्ईं और चार का्नों में खिति ल्हि जानै रईं। मंत्रिज्यू बिहोश हई भा्य। आखिर भौत देर बाद जब मंत्रिज्यू होश में आईं, त सब तिर बदइ गोछी। उनर कई सही साबित भौ। उना्र कुर्सि में बै उतरनै उनूंकें ता्की क्वे दुसर नेता उनैरि जा्ग कुर्सि में भैटि गो्य। के कमी जै कि भै नेताओंकि। इथां, उना्र बखत में हई पांच हजार करोड़ रुपैंक ‘कुर्सि घोटा्ल’ लै खुलि पड़ौ। हर तरफ उना्र नौंकि और उना्रै घोटालै्कि चर्च है रैछी। और नेताओंक चारि उना्र लिजी लै यो शरमैकि नै इज्जतैकि बातै हुनि। उं लै चांछी कि यो चर्च कें उं ‘घ्यामड़ घुरू जसि’ जनताक सामंणि ठा्ड़ है बेर आपंण नौं और अघिल बढ़ै सकनी। पर उं यस न करि सा्क। किस्मतै्ल उनूंकें यैक लैकै न छ्वड़। उना्र खुटों में फालिज पड़ि गोछी। खुट लुली ग्याछी। आ्ब उं आपंण खुटों में ठा्ड़ हुंण चांछी। कुर्सि बै मोहभंग है गोछी। पर किस्मता्क ल्येखी ह्ना्र को मिटै सकूं। डॉक्टरनैल उनूंकें ‘ह्वीलचेयर रिकमंड’ करि दे। आ्ब नेताज्यू ए बारि फिरि कुर्सिक एक नई औतार-घ्वीर वा्इ ह्वील चेयर में पुजि ग्या्य। वी किस्मत बणि ग्येइ उनैरि। उथां, सीबीआइ वा्लनैल कच्छेरि बै ‘वारंट’ निकाइ हा्ल उनर नौंक। हर तरफ बै फंसि ग्या्य बिचा्र। जब के समज न आई, ए दिन उं दिल्ली बै घर हंु भा्जि आ्य। पत्त नैं पै उनैरि कुनइ में ई यो ल्येखी छी कि करमा्क दानै पिंड़ाणाछी। या कि कुर्सि ई आपूं पारि हई अत्याचारोंक बदव ल्हिणैछी, उनैरि के समज में न ऊंणौछी। खुट पैलियै लुली ग्याछी, आ्ब टैम-बिटैम दिन में कुर्सि में बै कतुकप फ्या्र घुरी जनेर भा्य। पत्तै न चलनेर भै, कसी घुरींणी कबेर। मनै-मन मांफि मांङनेर भा्य। कान पकड़नेर भा्य। पर सैद आजि कुर्सिक डंड पुरी न रौछी। सैद वीक कल्जौ्क दहा आजि न निमी रौछी। ए दिन मंत्रिज्यू ब्याव हुं कुर्सि में भैबेर घुमंण हुं घर बै निकईं। पत्त नैं कसिक, कुर्सि उनूंकें ल्हिबेर भ्योव हुं तेज घुरीते न्है ग्येइ। पत्तै न चल नेताज्यूं कां पुजीं। उनर के चिनांड़ न मिल। कुर्सि जरूड़ मिली दस-पनर दिन बाद। गाड़ में बगि बेर दस-पनर मैल टाड़ पुजि ग्येछी। पर जस हुंण चैंछी-उस क्ये न भय। कैलै उ कुर्सि कें फिरि न बगा्य। वीक खपिर-खपिर, पुर्ज-पुर्ज रक्तबीजा्क चारि नईं-नईं कुर्सि बंणि ग्येईं। और पगाल मैंस, सब पड़ि रई वीक पिछाड़ि चुफूवैकि ई भें उकें हत्यूंण हुं। सब नेता ई बडंण चांणईं। भग्वान करौ तनूं कें छींक अकल ऐ जओ। और नौंमेट है जौ त कुर्सीक कु‘नौंक।                                                                                                                *नवीन जोशी ‘नवेन्दु’, नैनीताल।

काथ-क्वीड़                                                               नेतका                                                              (शेखर जोशी)

Statue (2)नेतका द्याप्तै ठ्यि में बैठि बेर रत्तै-ब्याल द्वि आखर सन्ध्यि के करि ल्हिनी उनरि औरि जै गाव-गाव ऐ जां। गौं पनाक बुड़-बाड़ि अन्यार मुखै नौव जै बेर नै ऊनी। नाणैं भै, द्वि लोटी पाणि कानिन खितौ, सकसकाट पाड़ि बेर जोरैल ‘गंगे जमुनेश्चैव गोदावरी सरस्वती’ कै ल्ही। फिर एक लोटी ख्वार में खितो ‘नर्मदे सिन्धु कावेरी’ कै। फिर धोतिक टुकैल आङ पोछन-पोछनै, दांत किटकिटानै ‘जलेस्मिन सिंधदकुरू’ है गयो नांण लै है गोय। अरड़पð लोटी, कस्योर ल्यूंण में घर ऊंण-जांलै आंङु लकड़ी जानेर भै। पै एतुक भै, रत्तै नाणिन हुं सीर‘क पाणि गल्त-गल्त रूनेर भै। लोकलाज धरंण हुं नानेर नेतका लै रोजै भै, पै उनरि बुती रत्तै कभै नि उठीण – न रूड़िन में, न ह््यूंन में। भटकोटा‘क डान में जति जांलै घाम नि ऐयो उनरि आंखि नि खुलनेर भै। बोज्युक भानकुननौ‘क खणमणाट, मुखौक मणमणाट रत्ते ब्याणै बै लागि जानेर भै। नेतका‘क तरबै क्याप्प भै ! दाज्यू कि तिसरि ब्याकि भईन बोज्यू – उमर में देवर नेतका बीसेक बरस ठुलै हुनाल। आब त बुड़््यांकाल ऐ गो, जै दिन बै डोलि में बैठि बेर बोज्यू घर ऐछिन तब्बै बै घूंट गाड़ि बेरै बलानेर भईन। लाल नि भै, ज्याठज्यू, सौरज्यू है गे ऊं। तबै ‘लला उठौ, रत्तै है गे’ कूंण जस लै नि भै। भानकुननैकि खटमणाट मुखैकि मणमणाटैल जै नेतका‘क नीन टुटनी पै के छी !
नेतका‘कि आपणि घरवालि एक चेलि छोड़ि बेर जानै रैछी। और अघिल पछिल क्वे भै नैं। आपंण कूंण हुं बिधौ बोज्यु और भतिज-भतिजी भै।
घाम ऐई उठि बेर नेतका लोटी हाथ में ल्हि, धोति-अंगोछ कानि में खिति बेर नौल उज्याणि जानेर भै। धोति-अंगोछ नौला‘क पाख में धरि बेर गध्यार‘क तरबै गया घण्टेक लागी जानेर भै। नौल में क्वे मुखबलांणी मिलि गयो, नेतका आपणि रत्तैकि रिपोट जरूर दि दिनेर भै, ‘‘बांऽट खिती मुलौ‘क साग अमृत भै हो अमृत! आज पेट ठीक रौ, खूब सफाइ है गे’’ पै एस सन्तोष कभै-कभै हुनेर भै। ‘‘के नै हो, सुक गो पेट, भलीकै सुक गो। हरड़ खाऔ, हिगाष्टक खाऔ, के नि हुन।’’
रत्तैकि सन्ध्यि पुज निबटै, नेतका आपण मुसि गोरु कें ग्वाड़ाक आङण में बादि बेर घा-पात दि ऊनेर भै। दिन में घण्टेक बाड़-खुड़न में चरै ल्हियो मुसिक पेट भरी जानेर भै। जस नाम, उसै रूप लै भै मुसिक। नानि-नानि मुस जसि। रत्तै-ब्याल पौ-आध पौ दूध दिनेर भै। ऊ दूध नेतकाकि आपणि सम्पत्ति भै। चहा बणाऔ, दै जमाऔ या घुटकै ल्हियौ। बोज्यु‘क तरबै कसम कराऔ जो कभै मुसी दूध‘क एक छिट लै मुख में धर हुनलौ। भतिज बसु कें बाईस दिन बैसौल हुंण जांलै बिगौत जरूर पिवै दिनेर भै नेतका और यै कै वील कबखतै बसु थें मुसि कें बादंण-खोलंण या पाणि पिऊंण हुं कूंण में उनन कें के संकोच नि हुनेर भै। बसु लै ना कसिक कऔ ? बिगौत वील खई भै और को बादौल-खोलौल ?
ब्याल भई सगड़ तापण हुं, फसक-फराल मारण हुं द्वि-चार मैंस और लै ऐ जानेर भै। द्वि आखर सन्ध्यि करी, एक आचमन करो सगड़ थें बैठी मैंसनाक, नानतिननाक क्वीड़ कान में पड़ि जानेर भै। कैलै के अणकस्सि, गलत बात कै दी, तब ‘‘तस जै के एस’’ कूंण हुं उनर लै मन छटपटानेर भै। सन्ध्यि अधबीचै में रोकि बेर ऊं नड़क छाड़ि दिनेर भै ‘‘तस अणहोत्ति नि कौ यार दामू ! मैं लै वैं छ््यूं तस जै कि भौछी।’’ बात पुर््यै बेर ऊं फिर आपण सन्ध्यि में लागि जानेर भै। फिरि कैलै के नकि-भलि कै दी, उनार कान ठाड़ जै जानेर भै। आब सन्घ्यि पुज हुंण में बखत नि लागलो तो के होल ? बोज्यू हुं रिस्या में भुकान्त है जानेर भै। पंखि में आपण आङ कें भलीकै कुटमुटै बेर ऊं सगड़ छोपि बेर बैठी नानतिनन कें नड़कूनै रूनेर भै, ‘‘पलि सर रे बचिया ! त्वी लै सुदै सगड़ कणी अङग्वाव खिति हाली, मिणि ताप लागण दे पुठि में-अरड़पð है गो।’’
सन्घ्यि पुज पुरि भई, अटाइ में बैठि बेर द्वि गास र्वाटाक मुख में खिता फिर आपुं लै सगड़ थें ऐ जानेर भै। तब रोज के न के नई क्वीड़ लागनेर भै।
‘‘नेतका, तुमर तरुड़‘क लगिल भिड़पन लोटी रौ, एक ठांगर लगै दिना मल्लि चढ़ि जान’’ एस कूनेर भै घनदा।
तरुड़‘क लगिल में ठांगर किलै नि लाग, लगिल भिड़पन किलै लोटी रौ यो सबन कें मालून भै, पै नेतका‘कि दुर्गत उनार मुखैल सुणनै हौस भै लोगन कें।
ऊं आपणि काथ लगूनेर भै, ‘‘के कूं यार ! पोरूं धो-धो करनै नानखोलि में एक पतल, लम्ब, तुर-तुर, बोट काटि ऐछ््यूं। घर ल्यूंणें उज नि ऐ। मैंल कै, ब्याल हुं हलि पदम थें कूंल, वी ल्यै द््योल। उ रनकरैल मुखै नि दिखै। दुसार दिन नानखोलि गेयूं, मैंल कै आफी बिसून-बिसूनै लि ऊंल, पै कूंछा वां ठांगरौ नाम निसाणे नै। बेलि उस्सै एक ठांगर दामुक बाड़ में देखौ-मैंल कौ यार एस्सै ठांगर मैं लै नानखोलि में काटि ऐछ््यूं, जो ल्हिगो हुनौल ! दामु‘क साल देसि में बलाणौैं, ‘‘भिनज्यू ! वनस्पति सब एकजस्सी देखीं’’ आब के कून्यूं ! पधानौ‘क मुखछुट साल भै, के कईं ? बनस्पति सब एकजस्सै हुनी भाऊ ! पै मैंस सब एकजास नि हुन ! कै कै घर‘क पौंण-पच्छि भै, के कऔ उ लै ठीक नैं, नि कऔ उलै ठीक नै।
सगड़ै में जांति धरि बेर नेतका जबरी में मुसि‘क दूध लै ततै ल्हिनेर भै। घुनन मुनइ खिति बेर वें क्वीड़-बात लै सुड़नै रूनेर भैद्ध कभतै बैठि-बैठियै उनन कें टोप लै ऐ जानेर भै।
दूध‘क जबरी में करोंटि देखि बेर क्वे बलाणों, ‘‘देश वाल लै न्यारि बात करि दिनी। वां छार-माट सब बेची जां। दूध, मलाई, रबड़ी, कुन्द भयै पै वां करोंटि लै बेचि खानी। क्याप कूंनी उ थें – खुरची-खुरची जस !’’
‘‘खुरची नै रे ! खुरचन कूंनी’’ नेतका बलाणीं। कैलै पुछौ, ‘‘तुमैल खै राखी नेतका ?’’
नेतका‘ल काथ लगै, ‘‘नि खै यार ! हौस छि खाणैकि। पै छ्वार-म्वार नैल नि खाण दि। उ साल सब जाणी हरद्वार जांणौछियां, भोजीपुरा में एक बेचणिं आ। मैं मोल्यूंण लाग्यूं। नन्दन बलाणौ – कका ! तै में बेसण मिलि छुं। त चोख नि भै – आपूं खै मरीं रनकार ! पछां कूंण भैटीं – हमूंल सुद्दै ठगि दे कै। घर ऊंण बखत एकलै हल्द्वाणि बजार पन हिटणें छ्यू, उस्सि के चीज एक फेरि वाल बेचणौछी। मैंल चार आनैकि ल्हि ल्हेछ। उबखतै के बै दुर्गा दत्त ऐ पड़ौ, वील कौ तौ के करणौछा ? गंङ्ग नै बेर आब जुठ-पिठ के खाणोंछा ? मैंल कौ यो दूधैकि चोखि चीज भै खुर्चन। फेरि वाल बलाणों – पंण्डिज्यू यो खुर्चन न्हां, यो बेसण कि बरफी छ। फिर के खांछ्यूं ? नानतिनन हुं धरि ल्यैयूं।’’ नेतका‘क मुख में खुरचनैकि बात कूंण में पाणि जस ऐ गोछी।
एक दिन तसिकै जबरी में दूध तातणौंछि। नेतका कें घुनन मुनइ दि बेर टोप ऐ गेछी। दामका कि उपन्यासि बुद्धि जागी। उनैल जबरियौक दूध गिलास में टोटिल करि बेर आफी चणकै ल्हे और एक गिलास पाणि जबरी में खिति बेर फिर जांति में धरि दे।
थोड़ि देर बाद नेतका‘ल खोर मल्लि टिप छियो कैलै कौ, ‘‘तुमर यो दूध भुटकि गो, आब पि ल्हियौ।’’
नेेतकाल द्याप्तै ठ्यै बै एक मिसिरी कुंज गाड़ि, वीक टपुक लगै बेर दूध सुड़कूण लगा।
दामका बलाणीं, ‘‘दूध कस हैरौ ? अत्ती भुटकी नि गेय ?’’
परमहंस जास नेतकाल जवाब दे, ‘‘के हूं, एतुक जाणिनेंकि आंखि लागी भै, पण्यैन है रौ।’’
और ऊं सुपुड़-सुपुड़ करि बेर गिलास भर गंगाजल रोजैकि चार पि गेईं।
सगड़ छोपि बेर बैठी नानतिनन बटी एक भौ उठि बेर कें पाणि-पेशाब हुं गे हुनौल, वापिस ऐ बेर उ आपणि जाग में बैठी लौंड दगै जगांक लिजी झगड़ करणौछी।
नेतका क्वे पुराणि बातै याद करिबेर मनैमन खुशि है रौछी। ऊं मांठु-मांठ हंसण लागीं। फिर उनैल सुर लगा, ‘‘तसिकै वील लै कौछी, उठि जा, यो मेरि जाग छ।’’
‘‘कैल कौछी नेतका ? एकैल पुछौ।
‘‘अरे, उ एक गोर टॉमी छी’’ नेतका बलाणीं ‘‘उन बिचान राणिखेत-नैनताल में जां देखंछा वी लालमुखी बानर देखीनेर भै। मौलरोड में क्वे हिन्दुस्तानि नि जै सकनेर भै। मैं त पैल फ्यार नैनताल गेछयूं। मैंकें के मालूम वां यस कानून छ। मैं कमलदा ड््यार बै हुलरि बेर मौल रोड में ऐयूं और एक बेंच में बैठिबेर मूंगफलि खाण लाग्यूं। वी बखतै ऊ बदजात लै कें बै वां ऐ पड़ौ।
‘‘मैंल भलमन्सेति में कै, क्वे मुखबलाणिये आ धें कसि जै अंग्रेजी बलां, भोल-पोरूं मेरि लै नौकरी लागि गेई सैपैंकि बात समझुंलो नै, यै वील मैंल कौ – कम सैप, ईट मूंगफली।
‘‘वील म्यार हातैकि मूंगफलि नि ल्ही, पै बेंच में आपणि टोपि में जो मूंगफलि मैंल धरि राखि छी – वी में बै मुट्ठि भरि बेर मैकें नड़क्यूंण लागौ, ‘‘यू फूल, गो अवे, आई सिट हियर।’’
‘‘मै कें लै रीस चढ़िगे। एक त सालैल म्यार मूंगफलिन में डाक मार ल्हे और वी माथि बै मैंथें भाजिजा कूंणौ। मैंल लै मल्लि बोटै तरफ सान करिबेर आपणि उल्टि-सिधि अंग्रेजी झाड़ि दे, ‘‘मंकी सिट अप, आई सिट हियर – माई फादर लैण्ड।’’
नानतिननौक खिलखिलाट पड़ि गोय। कसिकै आपणि हंसि थामि बेर कैलै पूछौ, ‘‘पै फिरि ?’’
‘‘फिरि के ? विकें द्वि फच्चैक लगै बेर भाजि ऐयूं आपण फादरलैण्ड यां गों में’’ नेतका बहादुरिल बलाणीं और जोरैल हंसण लागीं। उनकें देखि बेर चितइणोंछि ऊं रोजै आज‘क जस परमहंस नि रै हुनाल।

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