April 20, 2024

Vichar-1 : ‘I.N.D.I.A.’ बनाम ‘इंडिया’ बनाम ‘क्विट इंडिया’… किसकी होशियारी चलेगी ?

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Quit India Movement Day 2021: History and Significanceडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 9 अगस्त 2023 (Vichar)। पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी ने बड़ी होशियारी से अपनी पार्टी के नाम ‘Indian National Congress’ के पहले दो अक्षरों ‘Indian National’ के ‘I’ व ‘N’ को मिलाकर अपनी नई-नवेली सहयोगी पार्टी ‘आम आदमी पार्टी’ (Aam Aadmi Party)

के छोटे नाम आआपा की जगह AAP को भी असामान्य तरीके से एक बार और छोटा करते हुए सामान्य बोलचाल में अनायास ही लगातार प्रयोग होने वाले शब्द ‘आप’ बनाने की कला का उपयोग करते हुए अपने गठबंधन का नाम (अपनी पार्टी का छोटा नाम INC की जगह ‘इंक’ रखे बिना), कुछ सहयोगी दलों के विरोध के बावजूद I.N.D.I.A. और इसे भी एक बार फिर बीच के डॉटस ‘.’ हटकर INDIA (इंडिया) करवा दिया था, ताकि सत्तापक्ष ‘इंडिया हारेगा’ या ‘इंडिया को हराएंगे’ जैसा कुछ न बोलने के मनोवैज्ञानिक दबाव में आ जाए। 

वहीं आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 अगस्त यानी अगस्त क्रांति के दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा आज के ही दिन 1942 में किए गए ‘क्विट इंडिया’ के हिंदी अनुवाद ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से जोड़कर ‘भ्रष्टाचार क्विक इंडिया’, ‘परिवारवाद क्विट इंडिया’ व ‘तुष्टीकरण क्विट इंडिया’ और इनके हिंदी अनुवाद में भी ‘भ्रष्टाचार, परिवारवाद व तुष्टीकरण भारत छोड़ो’ की जगह होशियारी से ‘भ्रष्टाचार छोड़ो इंडिया’, ‘परिवारवाद छोड़ो इंडिया’ और ‘तुष्टीकरण छोड़ो इंडिया’ के नारे दे दिए हैं।

इस तरह पर विपक्षी गठबंधन का नाम पहले ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ और ‘पीएफआई’ के नाम में शामिल ‘इंडिया’ से जोड़कर और विपक्षी गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ की जगह ‘आई डॉट एन टॉट डी डॉट आई डॉट ए डॉट’ (I.N.D.I.A.) बोलकर उसकी काट ढूंढ रहे सत्तारूढ़ गठबंधन की कोशिश इस नए प्रयोग से कितनी कारगर होगी, समय बताएगा।

साथ ही यह भी देखना होगा कि कहीं यहां से शुरू हुई बात भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित ‘इंडिया दैट इज भारत’ (India that is Bharat) से होते हुए ‘India V/s भारत’ तक तो नहीं पहुंच जाएगी। देखने वाली बात यह भी होगी कि सत्ता पक्ष व विपक्षी गठबंधन में से किसकी होशियारी जनता पर चलती है। ‘2024’ इस सबसे बड़े सवाल का जवाब भी संभवतया देगा।

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यह भी पढ़ें Vichar-2 : फटी जींस की कहानी….

Vichar  Extreme Cut Out Jeans Trend - Viral Photo: जींस के नाम पर सिर्फ जेब और  ज़िप, कीमत जानकर हैरान रह जाएंगे आपडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 30 मार्च 2021 (Vichar)। यह कहानी तब से शुरू होती है जब फटी क्या जींस ही नहीं होती थी। हम बच्चे स्कूल की पहली कक्षा में खरीदी खद्दर की खाकी पैंट को उसी नहीं, हर कक्षा में पहन लेते थे और यह हर कक्षा में साथ चलती हुई फटी-रिप्ड, टल्लेमारी-डैमेज्ड और शॉर्ट्स का अहसास दिलाती हुई चलती रहती थी। और साहब लोगों के बच्चे इस्त्री की हुई पूरे बाजू की पैंटें पहनते थे। 

फिर 90 के दशक में एक दिन दिल्ली में, अक्टूबर का महीना। महानगर के एक व्यस्ततम रेड लाइट युक्त चौराहे पर शाम को घर लौटते लोग। सभी को घर पहुंचने की शीघ्रता, हवा में ठंडक। रुके वाहनों के पास कुछ बेचते या भीख मांगते लोगों के लिए एक मौका। भीख मांगने वालों में एक अठारह-बीस साल की लड़की, सुंदर, वस्त्र स्वच्छ, परंतु जगह-जगह से जर्जर। एक ही धोती में लिपटा उसका असहज शरीर ठंड से बचने की प्रयास में दिखी।

वहीं एक एयरकंडीशन्ड गाड़ी में एक नवयौवना को अपने सामान्य वस्त्रों में भी ऊष्णता हो रही थी। वह अपने शरीर से कपड़ों का बोझ कम करती जा रही थी और केवल अंतः वस्त्रों में रह गई थी। पर शायद उसके साथ बैठा युवक पूर्ण वस्त्रों में भी सहज था। फिर भी इधर किसी की दृष्टि नहीं थी। सबकी दृष्टि भीख मांगने वाली लड़की पर थी। किसी को वह सुंदरता का प्रतिमान दिख रही थी, तो कुछ को उसमें ‘असली भारत’ नजर आ रहा था, और कुछ की आंखों में वासना चढ-उतर रही थी। उधर से एक विदेशी जोड़ा राम-नाम की दुशाला ओढ़े गुजर रहा था।

पर अब जमाना कभी खदानों में काम करने वाले मजदूरों के लिए बनी और फटी या फाड़ी गई समाजवादी जींस का है। इस फटी जींस ने उन लोगों को असहज होने से बचा लिया है जिनके पास जींस नहीं है, या फटी हुई है, या डैमेज्ड या रिप्ड है। क्योंकि जिनके पास है, उन्होंने उसे डैमेज्ड-रिप्ड बना लिया है। सही कहते थे लोग, समय और फैशन स्वयं को दोहराता है। हमारे बचपन की पैंटें अब साहब लोगो के बच्चे ‘सहजता’ से पहनने लगे हैं।

सही कहते हैं लोग फटी जींस नहीं, ऐसी सोच समाज के लिए हानिकारक है। खासकर उन लोगों की सोच जो खुद ही डैमेज्ड, रिप्ड व शॉर्ट्स के जमाने के लोग है। बेहतर है, वह चुप ही रहें। समाजवादी जींस में संस्कार न ढूंढें। और ढूंढना ही हो तो ‘जारा’ के महंगे स्टोर्स पर जाएं और महंगे चीथड़ों की शॉपिंग कर आएं। क्योंकि अब ‘रोटी कपड़ा और मकान’ फिल्म का दौर नहीं रहा जब कपड़ा का मतलब ‘तन ढकना’ नहीं बल्कि ‘तन दिखाना’ हो गया है।

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यह भी पढ़ें Vichar-3 : आज ‘महाज्ञानी’ बोले ‘उट्र-उट्र’…

Vichar डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल (Vichar)। एक बार ज्ञानियों को विद्योत्तमा नाम की परम विदुषी के अभिमान का मर्दन करने के लिए महामूर्ख की आवश्यकता पड़ी। उन्हें मिला एक ऐसा ‘महामूर्ख’, जो जिस डाल पर बैठा था, उसी को काट रहा था। ज्ञानियों ने उसे महाज्ञानी बताकर उस विदूषी से शास्त्रार्थ करवा दिया। ‘महाज्ञानी’ को शास्त्रार्थ से पहले मौनव्रत करवा दिया गया, लिहाजा उसे शास्त्रार्थ में केवल इशारे करने थे।

उसने विदूषी की पहले एक और दोनों आंखें फोड़ने को एक और दो अंगुलियां, फिर थप्पड़ जड़ने को पांचों अंगुलियां व आगे मुक्का दिखाया, लेकिन ज्ञानियों ने उसके इन इशारों की ऐसी व्याख्या की कि विदूषी शास्त्रार्थ हार गई और शर्त के मुताबिक उसे अपना पति बना लिया। ‘महाज्ञानी’ अब भी मौन व्रत में ही था, लेकिन एक दिन बाहर ऊंट को देखकर उससे रहा नहीं गया और बोला ‘उट्र-उट्र’, जबकि ज्ञानियों की भाषा में उसे बोलना था ‘उष्ट्र-उष्ट्र’। उत्तराखंड की राजनीति में भी आज भीमताल से ‘उट्र-उट्र’ की ध्वनि सुनाई दी है।

कुछ समझ न आया हो तो यह सुन लें :

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Vichar-4 : यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ? ((मूलतः 2011 में लिखी गई पोस्ट) )

बात कुछ पुराने संदर्भों से शुरू करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि 1836 में उनके गुरु आचार्य रामकृष्ण परमहंस के जन्म के साथ ही युग परिवर्तन काल प्रारंभ हो गया है। यह वह दौर था जब देश 700 वर्षों की मुगलों की गुलामी के बाद अंग्रेजों के अधीन था, और पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल भी नहीं बजा था।

बाद में महर्षि अरविन्द ने प्रतिपादित किया कि युग परिवर्तन का काल, संधि काल कहलाता है और यह करीब 175 वर्ष का होता है…

पुनः, स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘वह अपने दिव्य चक्षुओं से देख रहे हैं कि या तो संधि काल में भारत को मरना होगा, अन्यथा वह अपने पुराने गौरव् को प्राप्त करेगा…. ’

उन्होंने साफ किया था ‘भारत के मरने का अर्थ होगा, सम्पूर्ण दुनिया से आध्यात्मिकता का सर्वनाश ! लेकिन यह ईश्वर को भी मंजूर नहीं होगा… ऐसे में एक ही संभावना बचती है कि देश अपने पुराने गौरव को प्राप्त करेगा….और यह अवश्यम्भावी है।’

वह आगे बोले थे ‘देश का पुराना गौरव विज्ञान, राज्य सत्ता अथवा धन बल से नहीं वरन आध्यात्मिक सत्ता के बल पर लौटेगा….’

अब 1836 में युग परिवर्तन के संधि काल की अवधि 175 वर्ष को जोड़िए. उत्तर आता है 2011. यानी हम 2011 में युग परिवर्तन की दहलीज पर खड़े थे, और इसी दौर से देश में परिवर्तनों के कई सुर मुखर होने लगे थे….

अब आज के दौर में देश में आध्यात्मिकता की बात करें, और बीते कुछ समय से बन रहे हालातों के अतिरेक तक जाकर देखें तो क्या कोई व्यक्ति इस दिशा में आध्यात्मिकता की ध्वजा को आगे बढाते हुआ दिखते हैं, क्या वह बाबा रामदेव या अन्ना हजारे हो सकते हैं…..?

कोई आश्चर्य नहीं, ईश्वर बाबा अथवा अन्ना को युग परिवर्तन का माध्यम बना रहे हों, और युगदृष्टा महर्षि अरविन्द और स्वामी विवेकानंद की बात सही साबित होने जा रही हो….

यह भी जान लें कि आचार्य श्री राम शर्मा सहित फ्रांस के विश्वप्रसिद्ध भविष्यवेत्ता नास्त्रेदमस सहित कई अन्य विद्वानों ने भी इस दौर में ही युग परिवर्तन होने की भविष्यवाणी की हुई है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि दुनिया में तीसरे महायुद्ध की स्थिति सन् 2012 से 2025 के मध्य उत्पन्न हो सकती है। तृतीय विश्वयुद्ध में भारत शांति स्थापक की भूमिका निबाहेगा। सभी देश उसकी सहायता की आतुरता से प्रतीक्षा करेंगे। नास्त्रेदमस ने तीसरे विश्वयुद्ध की जो भविष्यवाणी की है उसी के साथ उसने ऐसे समय एक ऐसे महान राजनेता के जन्म की भविष्यवाणी भी की है, जो दुनिया का मुखिया होगा और विश्व में शांति लाएगा।”

अब 2014 में, जबकि लोक सभा चुनावों की दुंदुभि बज चुकी है। ऐसे में क्या यह मौका युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच साबित होने का तो नहीं है। देश का बदला मिजाज भी इसका इशारा करता है, पर क्या यह सच होकर रहेगा ? कौन होगा युग परिवर्तक ? क्या मोदी ?

एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार अब तक चीनी, आईपीएल, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी, २-जी स्पेक्ट्रम आदि सहित २,५०,००० करोड़ मतलब २,५०,००, ००,००,००,००० रुपये का घोटाला कर चुकी है. मतलब दो नील ५० खरब रुपये का घोटाला, 

यह अलग बात है कि हमारे (कभी विश्व गुरु रहे हिंदुस्तान के) प्रधानमंत्री मनमोहन जी और देश की सत्ता के ध्रुव सोनिया जी को यह नील..खरब जैसे हिन्दी के शब्द समझ में ही नहीं आते हैं…. 

अतिरेक नहीं कि एक विदेशी है और दूसरा विश्व बैंक का पुराना कारिन्दा…. यानी दोनों ही देश की आत्मा से बहुत दूर …

शायद वह अपनी करनी से देश में क्रांति को रास्ता दे रहे है…. 

संभव है बाबा रामदेव जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं, और अन्ना हजारे जो जन लोकपाल के मुद्दे पर आन्दोलन का बिगुल बजाये हुए हैं, इस क्रांति के अग्रदूत हों. बाबा रामदेव के आरोप अब सही लगने लगे हैं की गरीब देश कहे जाने वाले (?) हिन्दुस्तानियों के ( जिनमें निस्संदेह नेताओं का हिस्सा ही अधिक है) १०० लाख करोड़ (यानी १०,००,००,००,००,००,००,०००) यानी १० पद्म रुपये (बाबा रामदेव के अनुसार) और एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार ७० लाख करोड़ यानी सात पद्म रुपये भारत से बाहर स्विस और दुनिया ने देश के अन्य देशों के अन्य बैंको में छुपाये है. इस अकूत धन सम्पदा को यदि वापस लाकर देश की एक अरब  से अधिक जनसँख्या में यूँही बाँट दिया जाए तो हर बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब को ७० लाख से एक करोड़ रुपये तक बंट सकते हैं….  

जान लीजिये की देश की केंद्र सरकार, सभी राज्य सरकारों और सभी निकायों का वर्ष का कुल बजट इस मुकाबले कहीं कम केवल २० लाख करोड़ यानी दो पद्म रुपये यानी विदेशों में जमा धन का पांचवा हिस्सा  है. यानी इस धनराशी से देश का पांच वर्ष का बजट चल सकता है..

लेकिन अपने सत्तासीन नेताओं से यह उम्मीद करनी ही बेमानी है की देश की इस अकूत संपत्ति को वापस लाने के लिए वह इस ओर पहल भी करेंगे…

मालूम हो की संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा धन वापस लाने के लिए भारत सहित १४० देशों के बीच एक संधि की है. इस संधि पर १२६ देश पुनः सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कर चुके हैं, लेकिन भारत इस पर हस्ताक्षर नहीं कर रहा है. 

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 10 अक्टूबर 2010। हाल में आयी एक खबर में कहा गया है ‘विश्व बैंक ने भारत को अधिक से अधिक बच्चों को शिक्षा सुविधाएं मुहैया कराने के लिए एक अरब पांच करोड़ डॉलर यानी 5,250 करोड़ रुपये से अधिक के ऋण की मंजूरी दे दी है। यह ऋण सरकार द्वारा चलाए जा रहे सर्व शिक्षा अभियान की सहायता के लिए दिया जाएगा।’ यह शिक्षा के क्षेत्र में विश्व बैंक का अब तक का सबसे बड़ा निवेश तो है ही, साथ ही यह कार्यक्रम विश्व में अपनी तरह का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। 

इसके इतर दूसरी ओर  इससे भी बड़ी परन्तु दब गयी खबर यह है कि भारत सरकार देश भर के स्कूलों में परंपरागत आंकिक परीक्षा प्रणाली को ख़त्म करना चाहती है, वरन देश के कई राज्यों की मनाही के बावजूद सी.बी.एस.ई. में इस की जगह ‘ग्रेडिंग प्रणाली’ लागू कर दी गयी है 

तीसरे कोण पर जाएँ तो अमेरिका भारतीय पेशेवरों से परेशान है. कुछ दशक पहले नौकरी करने अमेरिका गए भारतीय अब वहां नौकरियां देने लगे हैं अमेरिका की जनसँख्या के महज एक फीसद से कुछ अधिक भारतीयों ने अमेरिका की ‘सिलिकोन सिटी’ के 15 फीसद से अधिक हिस्सेदारी अपने नाम कर ली है। उसे भारतीय युवाओं की दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा तो चाहिए, पर नौकरों के रूप में, नौकरी देने वाले बुद्धिमानों के रूप में नहीं

आश्चर्य नहीं इस स्थिति के उपचार को अमेरिका ने अपने यहाँ आने भारतीयों के लिए H 1 B व L1 बीजा के शुल्क में इतनी बढ़ोत्तरी कर ली है अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की गत दिनों हुई भारत यात्रा में भी यह मुख्य मुद्दा रहा 

अब एक और कोण, 1991 में भारत के रिजर्व बैंक में विदेशी मुद्रा भण्डार इस हद तक कम हो जाने दिया गया कि सरकार दो सप्ताह के आयात के बिल चुकाने में भी सक्षम नहीं थी। यही मौका था जब अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान संकट मोचक का छद्म वेश धारण करके सामने आये । देश आर्थिक संकट से तो जूझ रहा था पर विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय मुद्राकोष को पता था कि भारत कंगाल नहीं हुआ है, और वह इस स्थिति का फायदा उठा सकते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सुझाव पर भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने भण्डार में रखा हुआ 48 टन सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा एकत्र की। उदारवाद के मोहपाश में बंधे तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी सरकार और अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। यही वह समय था जब सरकार हर सलाह के लिये विश्व बैंक-आईएमएफ की ओर ताक रही थी। हर नीति और भविष्य के विकास की रूपरेखा वाशिंगटन में तैयार होने लगी थी। याद कर लें, वाशिंगटन केवल अमेरिका की राजधानी नहीं है बल्कि यह विश्व बैंक का मुख्यालय भी है।  

अब वापस इस तथ्य को साथ लेकर लौटते हैं कि आज “1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह” भारत के प्रधानमंत्री हैं उन्होंने देश भर में ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने का खाका खींच लिया है, वरन सी.बी.एस.ई. में (निदेशक विनीत जोशी की काफी हद तक अनिच्छा के बावजूद) इसे लागू भी कर दिया है इसके पीछे कारण प्रचारित किया जा रहा है कि आंकिक परीक्षा प्रणाली में बच्चों पर काफी मानसिक दबाव व तनाव रहता है, जिस कारण हर वर्ष कई बच्चे आत्महत्या तक कर बैठते हैं 

(यह नजर अंदाज करते हुए कि “survival of the fittest” का अंग्रेज़ी सिद्धांत भी कहता है कि पीढ़ियों को बेहतर बनाने के लिए कमजोर अंगों का टूटकर गिर जाना ही बेहतर होता है जो खुद को युवा कहने वाले जीवन की प्रारम्भिक छोटी-मोटी परीक्षाओं से घबराकर श्रृष्टि के सबसे बड़े उपहार “जीवन की डोर” को तोड़ने से गुरेज नहीं करते, उन्हें बचाने के लिए क्या आने वाली मजबूत पीढ़ियों की कुर्बानी दी जानी चाहिए

यह भी कहा जाता है कि फ़्रांस के एक अखबार ने चुनाव से पहले ही वर्ष २००० में सिंह के देश का अगला वित्त मंत्री बनाने की भविष्यवाणी कर दी थी….(यानी जिस दल की भी सरकार बनती, ‘मनमोहन’ नाम के मोहरे को अमेरिका और विश्व बैंक भारत का वित्त मंत्री बना देते)

कोई आश्चर्य नहीं, यहाँ “दो और लो (Give and Take)” के बहुत सामान्य से नियम का ही पालन किया जा रहा है  अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान कर्ज एवं अनुदान दे रहे हैं, इसलिये स्वाभाविक है कि शर्ते भी उन्हीं की चलेंगी। लिहाजा हमारे प्रधानमंत्री जी पर अमेरिका का भारी दबाव है, “तुम्हारी (दुनियां की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति वाली) युवा ब्रिगेड ने हमारे लोगों के लिए बेरोजगारी की समस्या खड़ी कर दी है, विश्व बेंक के 1.05 अरब डॉलर पकड़ो, और इन्हें यहाँ आने से रोको, भेजो भी तो हमारे इशारों पर काम करने वाले कामगार….हमारी छाती पर मूंग दलने वाले होशियार नहीं…समझे….”, और प्रधानमंत्री जी ठीक सोनिया जी के सामने शिर झुकाने की अभ्यस्त मुद्रा में ‘यस सर’ कहते है, और विश्व बैंक के दबाव में ग्रेडिंग प्रणाली लागू कर रहे हैं

उनके इस कदम से देश के युवाओं में बचपन से एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिद्वंद्विता की भावना और “self motivation” की प्रेरणा दम तोड़ने जा रही है देश की आने वाली पीढियां पंगु होने जा रही हैं अब उन्हें कक्षा में प्रथम आने, अधिक प्रतिशतता के अंक लाने और यहाँ तक कि पास होने की भी कोई चिंता नहीं रही शिक्षकों के हाथ से छड़ी पहले ही छीन चुकी सरकार ने अब अभिभावकों के लिए भी गुंजाइस नहीं छोडी कि वह बच्चों को न पढ़ने, पास न होने या अच्छी परसेंटेज न आने पर डपटें भी

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