उत्तराखंड में क्यों सुलग रहा है मूल निवास का मुद्दा, किसकी वजह से लाभों से वंचित हैं उत्तराखंड के मूल निवासी ?
डॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार,नैनीताल (Mool-Nivas or Issue of domicile in Uttarakhand। उत्तराखंड में भूकानून के साथ मूल निवास राज्य की अवधारणा से जुड़ा हुआ बड़ा विषय है। राज्य में मूल निवास की जगह स्थायी निवास प्रमाण पत्र को माने जाने से प्रदेश में बाहर से आये लोग भी बल्कि वह ही वह लाभ प्राप्त कर रहे हैं, जिनके हकदार या पात्र केवल राज्य के मूल निवासी होने चाहिये थे। आइये इस आलेख में इस विषय को पूरा समझते हैं। देखें वीडिओ :
उल्लेखनीय है भारत देश के आजाद होने के बाद भारत में अधिवासन को लेकर वर्ष 1950 में 8 अगस्त 1950 और 6 सितंबर 1950 को प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन यानी राष्ट्रपति के माध्यम से एक नोटिफिकेशन जारी हुआ था, जो उत्तराखंड के पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश सहित पूरे उत्तराखंड में भी लागू था। इसको वर्ष 1961 में गजट नोटिफिकेशन के तहत प्रकाशित किया गया था।
10 अगस्त 1950 से जो व्यक्ति देश के जिस राज्य में मौजूद, वह वहीं का मूल निवासी
इसमें भारत के अधिवासन को लेकर कहा गया था कि 10 अगस्त 1950 से जो व्यक्ति देश के जिस राज्य में मौजूद है, वो वहीं का मूल निवासी होगा। इस नोटिफिकेशन में साफ तौर से मूल निवास की परिभाषा को परिभाषित किया गया था और मूल निवास की अवधारणा को लेकर के भी स्पष्ट व्याख्यान किया गया था।
मूल निवास को लेकर वर्ष 1977 में हुई पहली बहस
भारत में मूल निवास को लेकर पहली बहस वर्ष 1977 में हुई, जब 1961 में महाराष्ट्र और गुजरात राज्य का विभाजन हुआ और यहां पर मराठा संप्रदाय ने मूल निवास को लेकर पहली बार सर्वोच्च न्यायालय में बहस की। इसके बाद देश की सर्वोच्च न्यायालय की 8 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने अपने फैसले में राष्ट्रपति के वर्ष 1950 के नोटिफिकेशन को मूल निवास के लिए देश के हर एक राज्य में बाध्य किया। साथ ही 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को बाध्य मानते हुए मूल निवास की सीमा को 1950 ही रखा। देखें वीडिओ :
उत्तराखंड में राज्य गठन के साथ हुई स्थायी निवास की इंट्री
वर्ष 2000 में देश के तीन नए राज्यों उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन हुआ। इन तीन नए राज्यों में से झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों ने मूल निवास को लेकर प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य मानते हुए 1950 को ही मूल निवास रखा, लेकिन उत्तराखंड की अंतरिम सरकार के पहले स्वयं बाहरी बताये जाने वाले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व में बनी भाजपा की अंतरिम सरकार ने मूल निवास के साथ स्थायी निवास की नयी व्यवस्था कर दी।
इसके तहत 15 वर्ष पूर्व से उत्तराखंड में रहने वालों को स्थायी निवास प्रमाण पत्र देने की व्यवस्था कर दी गई, और मूल निवास के साथ स्थायी निवास को भी अनिवार्य कर दिया। इसके बाद से ही स्थायी निवास की व्यवस्था उत्तराखंड में चल पड़ी।
यह हुआ प्रभाव
इसका प्रभाव यह हुआ कि उत्तराखंड बनते समय उत्तराखंड की जनसंख्या 65 लाख थी। यानी इतने या इनमें से भी केवल 1950 से उत्तराखंड में रहने वाले लोग ही राज्य के मूल निवासी माने जाते। और देश की जनसंख्या में वर्ष 2000 से हुई लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि को भी जोड़ दें तो आज अधिकतम 84.5 लाख लोग राज्य के मूल निवासी होने चाहिए थे और उन्हें ही राज्य के मुख्य लाभ मिलते, लेकिन स्थायी निवास के मान्य होने से राज्य की वर्तमान आबादी लगभग 145 लाख में से अधिकांश लोग राज्य का स्थायी निवास प्रमाण पत्र बनाकर लाभ ले पा रहे हैं।
वर्ष 2010 में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय ने उत्तराखंड में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य किया
वर्ष 2010 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय में ‘नैना सैनी बनाम उत्तराखंड राज्य और देश के सर्वोच्च न्यायालय में ‘प्रदीप जैन बनाम भारत सरकार’ के नाम सेदो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गई। इन दोनों याचिकाओं में एक ही विषय रखा गया था, जिसमें उत्तराखंड में राज्य गठन के समय निवास करने वाले व्यक्ति को मूल निवासी के रूप में मान्यता देने की मांग की गई थी, लेकिन इन दोनों याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय ने एक ही फैसला दिया। वह फैसला 1950 के प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन के पक्ष में था। इस तरह याचिकाकर्ताओं को सफलता प्राप्त नहीं हुई और उत्तराखंड में 1950 का मूल निवास लागू रहा।
वर्ष 2012 में कांग्रेस सरकार में हुआ बड़ा खेल, खत्म हुआ मूल निवास का अस्तित्व
लेकिन इसके बावजूद वर्ष 2012 में उत्तराखंड में कांग्रेस की विजय बहुगुणा के नेतृत्व वाली सरकार आई और इसी दौरान ही मूल निवास और स्थायी निवास को लेकर वास्तविक खेल हुआ। 17 अगस्त 2012 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में एक याचिका पर सुनवाई हुई। जिसमें उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने फैसला दिया कि 9 नवंबर 2000 के दिन से राज्य में निवास करने वाले व्यक्तियों को मूल निवासी माना जाएगा।
हालांकि एकल पीठ का यह फैसला उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 24 और 25 के अधिनियम 5 और 6 अनुसूची के साथ ही 1950 में लागू हुए प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन का उल्लंघन था, इसके बावजूद भी सरकार ने एकल पीठ के इस फैसले को चुनौती न देते हुए इसे स्वीकार कर लिया। साथ ही तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने वर्ष 2012 के बाद से मूल निवास प्रमाण पत्र बनाने की व्यवस्था भी बंद कर दी।
धामी सरकार का आधा-अधूरा आदेश
इधर उत्तराखंड की धामी सरकार ने 20 दिसंबर 2022 को राज्य के मूल निवास प्रमाण पत्र धारकों से स्थायी निवास प्रमाण पत्र न मांगने का आदेश जारी किया है, जबकि राज्य में मूल निवास के प्रमाण पत्र पूर्व की तरह जारी किये जाने और स्थायी निवास प्रमाण पत्र धारकों को मूल निवास प्रमाण पत्र धारकों की तरह समस्त लाभ न दिये जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
तब से उत्तराखंड में केवल स्थायी निवास की व्यवस्था ही लागू है और राज्य की मूल निवासी जनता पहले उत्तराखंड की भाजपानीत अंतरिम सरकार और बाद में उत्तराखंडियत की बात करने वाली कांग्रेस सरकार के फैसलों से आज मूल निवासी होते हुए लाभ नहीं प्राप्त कर पा रही है और ठगी रह गयी है।
मानो मकान मालिकों के बराबर हो गए किरायेदारों के अधिकार (Mool-Nivas or Issue of domicile in Uttarakhand, Uttarakhand News, Mool NIwas, Domicile of Uttarakhand, Pahad ke Mudde)
मूल निवासियों व स्थायी निवासियों को समझने के लिये मकान मालिक व किरायेदार के उदाहरण को देखा जा सकता है। मूल निवासी देश के उत्तराखंड के अतिरिक्त अन्य सभी राज्यों में 10 अगस्त 1950 से पहले रह रहे लोग हैं। और प्रेसीडेंसियल नोटिफिकेशन में यह व्यवस्था थी कि हर राज्य में इन मूल निवासियों को विशेष अधिकार होंगे, जबकि राज्यों में दूसरे राज्यों से आने-जाने वाले लोग वहां की सरकारों के द्वारा बनाये जाने वाले कानूनों के तहत अस्थायी या एक निश्चित अवधि से अधिक समय से रहने पर स्थायी निवासी माने जा सकते हैं।
उत्तराखंड देश का इकलौता राज्य है जहां 1950 की जगह उत्तराखंड राज्य बनने यानी नवंबर 2000 से पहले से रहने वाले लोग भी मूल निवासी कहे जाएंगे और 15 वर्षों से रह रहे लोग स्थायी निवास प्रमाण पत्र प्राप्त कर सकेंगे। वर्तमान में राज्य में एक ओर मूल निवास प्रमाण पत्र की सरकार बनाने की व्यवस्था बंद कर दी गयी है, वहीं स्थायी निवास प्रमाण पत्र के लिये जमीन के कागजात आदि दिखाने का प्राविधान नहीं है, इसलिये राज्य में कम अवधि से रह रहे लोग भी स्थायी निवास प्रमाण पत्र प्राप्त कर यहां की नौकरियों के लिये पात्र हो जा रहे हैं।
स्थिति यहाँ तक चिंताजनक है कि कई लोग अपने मूल अन्य राज्यों के साथ उत्तराखंड के दोहरी स्थायी निवासी भी बने हुए हैं, क्योंकि ऐसे लोगों को अलग करने की कोई व्यवस्था लागू नहीं है। और ऐसे बाहरी लोग भी राज्य के मूल निवासियों की जगह राज्य के संसाधनों व नौकरियों को प्राप्त कर रहे हैं। (Mool-Nivas or Issue of domicile in Uttarakhand, Uttarakhand News, Mool NIwas, Domicile of Uttarakhand, Pahad ke Mudde)
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