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बड़ा समाचारः उत्तराखंड आंदोलन के चर्चित रामपुर तिराहा कांड के 5 आरोपित पुलिस कर्मियो की संपत्ति कुर्क करने के वारंट जारी…

Rampur Tiraha Kand | Blog | UK Pedia | UK Academe

नवीन समाचार, मुजफ्फरनगर, 3 मार्च 2023। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जनपद के चर्चित रामपुर तिराहा कांड में हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के आदेश पर सुनवाई कर रही स्थानीय अदालत ने शुक्रवार को 18 आरोपित पुलिस कर्मी अदालत में पेश हुए, और अपने वारंट रिकॉल कराए। जबकि अदालत में पेश नहीं होने वाले शेष 5 आरोपित पुलिस कर्मियों के कुर्की के वारंट जारी किए गए। उल्लेखनीय है कि अदालत ने गत 23 फरवरी को 23 आरोपित पुलिसकर्मियों के गैर जमानती वारंट जारी किए थे। यह भी पढ़ें : हल्द्वानी की युवती से पुलिस कर्मी ने नैनीताल के होटल में नशीला पदार्थ पिलाकर किया दुष्कर्म..

विदित हो कि पृथक उत्तराखंड की मांग को लेकर 1 अक्टूबर 1994 को सैकड़ों की संख्या में उत्तराखंडवासी वाहनों में सवार होकर दिल्ली की ओर जा रहे थे। इस दौरान मुजफ्फरनगर के उपार थाना क्षेत्र के रामपुर तिराहे पर पहुंचते ही सभी लोगों को बैरिकेडिंग लगाकर रोक लिया गया था। सभी लोग वहीं पर बैठकर प्रदर्शन करने लगे थे। बाद में आदोलनकारियों पर पुलिस ने लाठीचार्ज के साथ फायरिंग कर दी थी, जिसमें सात आंदोलनकारियों की जान चली गई थी। महिलाओं के साथ ज्यादती करने के आरोप भी पुलिस पर लगे थे। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड कैबिनेट की बैठक में भविष्य के लिहाज से सबसे बड़ा निर्णय, भवन निर्णय में करना होगा एक छोटा सा प्राविधान…

इस मामले को लेकर थाना उपार में घटना से जुड़े अलग-अलग आधा दर्जन से अधिक मामले दर्ज कराए गए थे। इसके बाद सीबीआई ने मामले की जांच कर कोर्ट में चार्जशीट पेश की थी। हाल ही में हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने घटना के मुकदमे की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट से अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश कोर्ट संख्या सात शक्ति सिंह की अदालत में ट्रांसफर करने के आदेश दिए थे। यह भी पढ़ें : सरे बाजार तेज रफ्तार कार से राह चलती लड़की का अपहरण ! हड़कंप… लड़की की इसी माह शादी होनी है…

उसके बाद उन्होंने 23 फरवरी को सुनवाई करते हुए मुकदमे से संबंधित आरोपी 23 पुलिसकर्मियों के विरुद्ध गैर जमानती वारंट जारी कर सीबीआई को निर्देशित किया था कि उन्हें तीन मार्च को कोर्ट में पेश करें। इस आदेश पर शुक्रवार को 18 आरोपी कोर्ट में पेश हुए। इसके अलावा जो पांच पुलिसवाले पेश नहीं हुए उनके खिलाफ कुर्की के आदेश जारी किए गए हैं। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

यह भी पढ़ें : उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर गोली चलाने के मामले में तत्कालीन थाना प्रभारी पर आरोप तय…

नवीन समाचार, देहरादून, 1 मार्च 2023। फास्ट ट्रैक कोर्ट ने 29 साल पुराने रामपुर तिराहा कांड में छपार थाने के तत्कालीन थाना प्रभारी राजवीर सिंह पर साक्ष्य मिटाने के लिए जीडी फाड़ने और और जीडी में फर्जी एंट्री करने के मामले में आरोप तय कर दिए हैं। इस मामले में पुलिस वालों पर गोली चलाने का आरोप भी है जिसमें सात लोगों की मौत हो गई थी। यह भी पढ़ें : दारोगा के बेटे ने दिखाई पुलिस की धोंस, पुलिस ने भी दिखाई मेहरबानी…

मंगलवार को तत्कालीन थाना प्रभारी राजवीर सिंह फास्ट ट्रैक कोर्ट के समक्ष बीमार हालत में पेश हुए। उसे बीमारी के चलते मथुरा से एंबुलेंस में कोर्ट लाया गया। इसके अलावा एक अन्य मामले में सीबीआई बनाम ब्रजकिशोर के मामले की सुनवाई भी फास्ट ट्रैक कोर्ट में हुई। इसमें सीबीआई द्वारा लगाई गई फॉरेंसिक रिपोर्ट के बारे में सीबीआई फारेंसिक लैब के विशेषज्ञ अभिजीत डे ने भी बयान दर्ज कराए। बचाव पक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा ने जिरह की। यह भी पढ़ें : सरकारी विद्यालय के छात्र ने बनाया ऐसा कमाल का ड्रोन, जो दुश्मनों के दांत खट्टे कर देगा, इसमें लगे हैं गन प्वाइंट के साथ ही बम ड्रॉपर व पैराशूट भी…

विदित हो कि एक अक्टूबर 1994 को पृथक उत्तराखंड की मांग के लिए चल रहे आंदोलन के तहत उत्तराखंड आंदोलनकारी दिल्ली जा रहे थे। इस दौरान थाना छपार के रामपुर तिराहा पर बैरिकेडिंग कर उन्हें रोक लिया गया। रात के समय पुलिस वालों ने आंदोलनकारियों पर गोली चला दी, जिसमें सात आंदोलनकारियों की मौत हुई। पुलिस पर महिलाओं के साथ ज्यादती का भी आरोप लगा। सीबीआई ने मामले में सात मुकदमों में चार्जशीट दाखिल की थी। यह भी पढ़ें : सप्ताह भर का रिस्क लेकर करें रुपये दोगुने, अब बिना यूएसडीटी में बदले-सीधे मात्र 2000 रुपए से भी जुड़ सकते हैं डोकोडेमो में

बचाव पक्ष के अधिवक्ता ज्ञान कुमार ने बताया कि मामले में तत्कालीन थानाध्यक्ष राजवीर सिंह पर दो अलग-अलग मुकदमे में आरोप तय हुए। उन्होंने बताया कि राजवीर सिंह पर आरोप थे कि उन्होंने मुकदमे से संबंधित जीडी फाड़ दी थी और जीडी में फर्जी एंट्री की थी।  (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

यह भी पढ़ें : हर्षोल्लास से मनाया गया 22वां राज्य स्थापना दिवस

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 9 नवंबर 2021। सरोवरनगरी में उत्तराखंड राज्य का 21वां स्थापना दिवस हर्षोल्लास से मनाया गया। कार्यक्रमों की शुरुआत सुबह 21 किलोमीटर की मैराथन दौड़ से हुई। इसके उपरांत चिड़ियाघर रोड स्थित शहीद स्मारक पर एवं महात्मा गांधी, डॉ. अंबेडकर, शहीद मेजर राजेश अधिकारी व भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत की मूर्तियों पर माल्यार्पण किया गया। देखें विडियो :

आगे 10 बजे से नैनी झील में कयाक, चप्पू वाली एवं पालदार नौकाओं की दौड़ एवं रैली आयोजित की गई। आगे ऐतिहासिक फ्लैट्स मैदान में दोपहर 12 बजे से मुख्य कार्यक्रम की शुरुआत मार्च पास्ट से हुई। राजीव लोचन साह हरीश भट्ट, पान सिंह रौतला, पुष्कर मेहरा आदि राज्य आंदोलनकारियों एवं कुमाऊं मंडलायुक्त सुशील कुमार तथा जिला पंचायत अध्यक्ष बेला तोलिया सहित मंचासीन गणमान्यजनों ने राज्य आंदोलन एवं राज्य बनने के बाद के 21 वर्षों की उपलब्धियों एवं छूट गई राज्य अवधारणा पर विचार रखे। आयुक्त श्री कुमार ने कहा कि उत्तराख्ंाड में सड़क के साथ ही वायु व रेल यातायात, परिवहन, शिक्षा स्वास्थ्य तथा पर्यटन आदि के क्षेत्रों में चहुमुखी विकास हुआ है। राज्य में महिलाआंे को आत्मनिर्भर बनाने के लिए राज्य व केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। महिलाओं को भूमिधरी का अधिकार दिया गया है। इस दौरान सूचना लोक सम्पर्क विभाग की ‘विकल्प रहित संकल्प नये इरादे युवा सरकार’ नामक पुस्तिका का विमोचन भी किया गया। साथ ही 18 वर्ष की उम्र में मतदाता सूची में सम्मलित होने पर रानी, पार्वती, पूजा व ज्योति आदि को निर्वाचन प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया गया।
कार्यक्रम में डीआईजी नीलेश आनंद भरणे, डीएम धीराज गर्ब्याल, मुख्यमंत्री के जन संपर्क अधिकारी दिनेश आर्य, अनुसूचित जाति आयोग के उपाध्यक्ष पीसी गोरखा, एडीएम अशोक जोशी, एसएसपी प्रीति प्रियदर्शिनी, सासंद प्रतिनिधि गोपाल रावत, पूर्व अंतरराष्ट्रीय धावक सुरेश पांडे व हरीश तिवारी, भूपाल नयाल, राज्य आंदोलनकारी मनोज जोशी, मोहन पाल, हरीश भट्ट, विकास जोशी, हेम आर्य, नीलू जोशी, बबली, श्याम नेगी, पूरन मेहरा, डॉ. नवीन जोशी सहित संयुक्त मजिस्टेªट प्रतीक जैन, जीएम केएमवीएन एपी बाजपेयी, जिला पर्यटन अधिकारी अरविंद गौड, सहायक निर्वाचन अधिकारी प्रकाश त्रिपाठी व ईओ नगर पलिका एके वर्मा आदि लोग उपस्थित रहे।
प्रदर्शनी में यह हुए शामिल
राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर नैना देवी, खुशी, शीतला, चेस्टा महिला, पशुपालन विभाग, उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड, कृषि विभाग, खाद्यान एंव खाद्य प्रसंस्करण विभाग, ऑचल दुग्ध डेयरी, रेशम विभाग, होम्योपैथिक स्वास्थ्य विभाग, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, समाज कल्याण ,राष्ट्रीय स्वास्थ्य विभाग, आयुर्वेदिक एंव यूनानी विभाग, महिला सशक्तिकरण विभााग, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, मतदाता सूची स्वीप व एनसीसी द्वारा विभागीय उपलब्धियों, खासकर जैविक खेती एवं गृहोद्योग से संबंधित उत्पाद, ऐपण लोक कला के अनुप्रयोग आदि प्रदर्शित किये गए। साथ ही मैदान के बास्केटबॉल कोर्ट वाले हिस्से में हिमालयन फूड फेस्टिवल का आयोजन किया गया, जिसमें अनुपम रेस्टोरेंट, हिमालय होटल, मनु महारानी, ताज कार्बेट रिर्सोट व द स्वीट अफेयर बेकर्स आदि के द्वारा पर्वतीय अंचलों के परंपरागत व्यंजनों के अतिरिक्त उनके साथ किऐ गए नये-नये प्रयोग प्रमुखता से प्रदर्शित किये गये।

पुरुषों में सुनील, महिलाओं में आशा, वरिष्ठों में बिष्ट व स्थानीय धावकों में कुणाल रहे मैराथन दौड़ के विजेता
नैनीताल। राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर मुख्यालय में 21 किलामीटर की मैराथन दौड़ आयोजित हुई। सांसद प्रतिनिधि गोपाल रावत ने मैराथन दौड़ को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया।
यह मैराथन दौड़ बागेश्वर के सुनील कुमार ने एक घंटा 20 मिनट 40 सेकेंड में पूरी कर जीती, जबकि नैनीताल के स्थानीय धावकों के रूप में पूरी दौड़ में पांचवे स्थान पर रहे कुणाल बिष्ट एक घंटा 27 मिनट 9 सेकेंड में दौड़ पूरी कर प्रथम रहे। जबकि 1.29.40 का समय लेकर स्थानीय धावत नितिन कुमार दूसरे व 1.40.02 का समय लेकर सुमित साह तृतीय रहे। वहीं सभी धावकों में से पुरुषों के वर्ग में विपिन जोशी दूसरे, हल्द्वानी के रमेश नेगी तीसरे, लोकेश कुमार चौथे व कुणाल बिष्ट पांचवे स्थान पर, जबकि महिलाओं के वर्ग में आशा बिष्ट पहले, रिया भंडारी दूसरे, गीतांजलि चंद तीसरे व गरिमा शर्मा चौथे स्थान पर रहीं। वरिष्ठ धावकों के वर्ग में जीसीएस बिष्ट पहले व कलाम सिंह बिष्ट दूसरे स्थान पर रहे, और पुरस्कृत भी किये गये। अन्य नवीन समाचार पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य स्थापना दिवस पर विशेष: नैनीताल में पहले संगीन से गला काटा ! फिर गोली भी मारकर किया शहीद, गुरूरानी ने हत्यारे अधिकारी को गवाही देकर नौकरी से बर्खास्त करवाया…!

-बुजुर्ग राज्य आंदोलनकारी व संस्कृतिकर्मी सुरेश गुरुरानी ने किया दावा

राज्य आंदोलनकारी सुरेश गुरुरानी।

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 9 नवंबर 2021। आज नौ नवंबर यानी उत्तराखंड की राज्य स्थापना का दिन है। यह दिन अनायास ही राज्य आंदोलनकारियो को दो और तीन अक्टूबर 1994 का दिन और उस दिन की विभीषिका को याद दिला देता है। इन दो दिनों को याद कर आज भी उस दिन के प्रत्यक्षदर्शियों को आत्मा कांप जाती है।

दो अक्टूबर 1994 का दिन उत्तराखंड के राज्य आंदोलन के इतिहास का सबसे बड़ा काला दिन था। लेकिन इसके अगले दिन नैनीताल में जो हुआ वह भी कम वीभत्स नहीं है। उस दिन को याद कर इस मामले में काफी दिनों तक सीबीआई की जांच के दायरे में रहे और बकौल उनके सीबीआई के एक हत्यारे अधिकारी को नौकरी से बर्खास्त कराने वाले वयोवृद्ध राज्य आंदोलनकारी व संस्कृतिकर्मी सुरेश गुरुरानी आज भी सिंहर उठते हैं।

श्री गुरुरानी ने बताया दो अक्टूबर को रामपुर तिराहा और मुजफ्फरनगर के साथ हुए दमन पर नैनीताल में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई थी। लोग सड़कों पर उतर आए थे। नगर के मल्लीताल फव्वारे से तल्लीताल डांठ तक जुलूस निकाला गया था। इस दौरान गुरुरानी ने उन्हें संस्कृति के संरक्षण के लिए पूर्व मंत्री प्रताप भैया से मिला स्वर्ण पदक लौटा दिया था।

तभी तल्लीताल में रैफ यानी रैपिड एक्शन फोर्स ने अचानक गोलीबारी शुरू कर दी। इस पर लोग बेतहाशा इधर-उधर भागने लगे। कई लोगों को चोटें आईं। भागते हुए गुरुरानी चिड़ियाघर रोड की ओर भागे और वहां मेघदूत होटल के कर्मी प्रताप बिष्ट की रैफ के अधिकारियों द्वारा की गई नृशंस हत्या के चश्मदीद गवाह रहे।

उन्होंने बताया, वह नैनी विजन होटल में चढ़ गए थे, तभी रैफ के अधिकारी व जवान फौजी बूटों में दनदनाते वहां आ गए और रामचरण नाम के एक अधिकारी, जो अन्य को दिशा-निर्देश दे रहे थे, ने सुनी न जा सकने योग्य गालियां देते हुए होटल कर्मी प्रताप बिष्ट का रायफल के आगे लगी संगीन से ऐसे गला रेत डाला, और फिर गोली भी मारी, जैसे वह कोई आतंकवादी हो। उसका खून गौरी होटल तक बह रहा था। इसके बाद रैफ के जवान तत्काल ही वापस लौट गए।

इसके बाद तत्काल ही प्रशांत होटल के स्वामी अतुल साह व अन्य लोग प्रताप को लेकर अस्पताल के लिए ले कर भागे, लेकिन रास्ते में ही प्रताप ने दम तोड़ दिया और वह शहीद हो गए। लोग यह भी बताते हैं कि वास्तव में प्रताप राज्य आंदोलन में शामिल नहीं थे, बल्कि होटल में काम करते थे। गोलीबारी व रैफ के सैनिकों के आने की आवाज सुन वह जिज्ञासावश होटल से बाहर झांक रहे थे कि दुर्योग से वह ही इंसानियत और सैनिकों के फर्ज को शर्मसार करने पर आमादा रैफ के हैवान बने जवानों की गिरफ्त में आ गए और हैवानों ने बिना कोई बात किए उनकी बेवजह हत्या कर दी।

महिलाएं भी हुईं घायल
गुरुरानी ने बताया, इस घटना में गजाला खान, नीरू साह, उमा भट्ट व डॉ. सरस्वती खेतवाल आदि महिलाओं सहित सरदार बिशन सिंह विर्क, पूर्व विधायक बिहारी लाल व डीडी रुवाली आदि कई अन्य लोग भी चोटिल व घायल हुए। बताया जाता है कि इस घटना में रामदेव, देवेंद्र व राम सिंह भी मल्लीताल में रैफ की गोलियों से गंभीर घायल रूप से घायल हुए थे।

हत्यारे अधिकारी को गवाही देकर नौकरी से बर्खास्त करवाया
श्री गुरुरानी ने आगे बताया कि वह इस घटना के चश्मदीद गवाह थे, इसलिए वह मामले की सीबीआई से हुई जांच के दायरे में आ गए। कई-कई बार उन्हें हत्यारे रैफ अधिकारी रामचरण को अलग-अलग कपड़ों, वेश-भूषा में, कभी आगे तो कभी पीछे खड़ा कर पहचान करने को लाया गया। उन पर काफी दबाव भी रहा। गुरुरानी का दावा है कि आखिर में सीबीआई कोर्ट हल्द्वानी में उनकी गवाही से ही रामचरण नौकरी से बर्खास्त भी हुआ, अलबत्ता इसके बाद क्या हुआ, यह किसी को पता नहीं है।

गुरुरानी ने कहा, उन्हें संतोष है कि वह बिना डरे हत्यारे अधिकारी को सजा दिला पाए, पर वह राज्य आंदोलन में हल्द्वानी जेल जाने के बावजूद राज्य आंदोलनकारी के रूप में भी चिन्हित नहीं हुए। गुरुरानी को इस बात का भी क्षोभ है कि राज्य आंदोलन के बाद भले उत्तराखंड अलग राज्य बन गया हो, लेकिन आज भी राज्य में विकास केवल शहरों तक सिमटा है। गांवों से आज भी बीमार-बुजुर्ग महिलाओं-वृद्धों को डोली में अस्पताल लाना पड़ता है। न वास्तविक राज्य आंदोलनकारियों को राज्य बनने का लाभ मिला, न ही राज्य की अवधारणा ही पूरी हुई। तब लखनऊ की ही दरों पर सुदूर-सीमांत, दुर्गम इलाकों में विकास कार्य होते थे, अब देहरादून की दरों पर हो रहे हैं। विकास के पैमानों और मानकों में भी कोई बदलाव नहीं हुआ। अन्य नवीन समाचार पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : आज भी कांप जाती है 3 अक्टूबर को याद कर नैनीताल वासियों की रूह, दी गई शहीद को श्रद्धांजलि

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 3 अक्टूबर 2021। 27 वर्ष पूर्व पूर्व तीन अक्टूबर 1994 के दिन को याद कर आज भी नैनीताल वासियों की रूहें कांप जाती हैं। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की जयंती के अगले ही दिन यहां बेकाबू, बदहवास हुऐ रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने अमानवीयता और हिंसा का नंगा नाच किया था। आरएएफ की गोलियों से एक आंदोलनकारी प्रताप सिंह शहीद हो गया, जबकि तीन अन्य लोग रामदेव, देवेंद्र व राम सिंह गोलियों से गंभीर घायल रूप से घायल हुए। लेकिन अफसोस कि आज तक आंदोलनकारियों की मांग के अनुरूप मामले की सीबीआई जांच में दोषी पाये गये शहीद के हत्यारों को कोई सजा मिली। बमुश्किल बीते वर्ष चिड़ियाघर रोड पर शहीद स्मारक बना भी है तो शहीदों को मुंह चिढ़ाते हुऐ बिल्कुल कूड़ा घर से सटा कर बनाया गया। कूड़ा घर यहां से कब हटेगा, यह बड़ा यक्ष प्रश्न है।

रविवार को हमेशा की तरह शहीद प्रताप सिंह के शहादत के समय ठीक शाम चार बजे हर वर्ष की तरह राज्य आंदोलनकारी राजीव लोचन साह की अगुवाई में भी शहीद स्थल पर शोक सभा हुई। इस दौरान दो मिनट का मौन भी रखा गया। इस मौके पर उक्रांद के पूर्व कंेद्रीय अध्यक्ष व विधायक डॉ. नारायण सिंह जंतवाल, डॉ. शेखर पाठक, डा. उमा भट्ट, डॉ. शीला रजवार, दिनेश उपाध्याय व चंपा उपाध्याय आदि लोग मौजूद रहे। अन्य नवीन समाचार पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

तीन अक्टूबर: जिसे याद कर आज भी कांप जाती हैं नैनीताल वासियों की रूहें

  • 20 वर्ष पूर्व बेकाबू आरएएफ की गोलियों ने आज बरपाया था कहर, प्रताप सिंह हुआ था शहीद
  • राम देव, देवेंद्र व राम सिंह को भी लगी थीं गोलियां
  • कूड़ेदान से सटाकर बनाया गया शहीद स्मारक

नवीन जोशी, नैनीताल। वह 20 वर्ष पूर्व तीन अक्टूबर 1994 का दिन था, जिसे याद कर आज भी नैनीताल वासियों की रूहें कांप जाती हैं। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की जयंती के अगले ही दिन बेकाबू, बदहवास हुऐ रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने अमानवीयता और हिंसा का यहां नंगा नाच किया था। आरएएफ की गोलियों से एक आंदोलनकारी प्रताप सिंह शहीद हो गया, जबकि तीन अन्य लोग रामदेव, देवेंद्र व राम सिंह गोलियों से गंभीर घायल रूप से घायल हुए। लेकिन अफसोस कि आज तक आंदोलनकारियों की मांग के अनुरूप मामले की सीबीआई जांच में दोषी पाये गये शहीद के हत्यारों को कोई सजा मिली। बमुश्किल बीते वर्ष चिड़ियाघर रोड पर शहीद स्मारक बना भी है तो शहीदों को मुंह चिढ़ाते हुऐ बिल्कुल कूड़ा घर से सटा कर बनाया गया। कूड़ा घर यहां से कब हटेगा, यह बड़ा यक्ष प्रश्न है।

(पृथक उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान नैनीताल में शहीद हुए प्रताप सिंह का परिवार)
(पृथक उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान नैनीताल में शहीद हुए प्रताप सिंह का परिवार)

दो अक्टूबर 1994 को रामपुर तिराहा और मुजफ्फरनगर में दिल्ली कूच करते राज्य आंदोलनकारियों के साथ हुऐ पुलिस के दुव्र्यवहार की खबर जैसे ही नैनीताल पहुंची थी, लोग आक्रोशित हो सड़कों पर उतर पड़े थे। नगर में आरएएफ की उपस्थिति ने माहौल को बेहद तनाव पूर्ण बना दिया था। दोपहर बाद ढाई बजे तल्लीताल डांठ पर लोग पुलिस के दमन के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। एक ओर रैफ, और दूसरी ओर तीन चार सौ प्रदर्शनकारी। रैफ ने उकसाया तो प्रदर्शनकारियों ने पथराव से इसका जवाब दिया। फिर दोनों ओर से पत्थरबाजी शुरू हो गई। रैफ ने रबर की गोलियां भीड़ की ओर चलाईं। यहां तक तो ठीक था, लेकिन इसके बाद जो हुआ उसे नगर के डेढ़ सौ वर्ष के इतिहास में नगरवासियों ने अपनी सुरक्षा के लिए तैनात सिपाहियों को करते पहली बार देखा। अचानक रैफ ने हवा में गोलियां दागनीं प्रारंभ कर दीं। इस पर भीड़ तितर-बितर हो गई, लेकिन फौजी बूट अराजक होकर मानवता को कुचलते चले गऐ। जवान कई किमी तक नगर में आंदोलनकारियों के पीछे जानवरों की तरह दौड़े। महिलाओं, छात्रों को घरों से निकाल-निकाल कर मारा गया। घटनास्थल से करीब एक किमी दूर और डेढ़ घंटे बाद चिडि़याघर रोड पर अल्मोड़ा जनपद के मिरौली ग्राम निवासी 33 वर्षीय होटल कर्मी प्रताप सिंह को रैफ के दरिंदों ने गोली मार दी। शहीद के खून से लतपथ शरीर को जीवन बचाने की प्रत्याशा में प्रशांत होटल के स्वामी अतुल साह नजदीकी जिला अस्पताल लेकर दौड़े। उधर तीन किमी दूर मल्लीताल में पोस्ट आफिस रोड व अन्य जगह राम देव, देवेंद्र व राम सिंह को गोलियां लगीं। इसके बाद जनांदोलन और तेज हुआ, जिसके दबाव में सरकार मामले की सीबीआई जांच कराने को मजबूर हुई, लेकिन जांच बेनतीजा समाप्त हुई। कारण हर व्यक्ति जहां आंदोलनकारी था, वहीं नेतृत्वकारी नेता एक भी नहीं था। सीबीआई के अफसरों के समक्ष किसी भी व्यक्ति ने गवाही नहीं दी, और शहीद के हत्यारे आजाद घूमते रहे। तब से आज तक चिडि़याघर रोड पर तमाम नेताओं के आश्वासनों के बाद ‘कूड़ेदान” से सटे और इसी तिथि को पुतने वाले शहीद स्थल पर आज सुबह से ही शहीद को श्रद्धांजलि देने वालों का मेला लगता है। इस वर्ष शहीद स्थल पर शहीद स्मारक भी स्थापित कर दिया गया, लेकिन गंदगी से बजबजाता कूड़ेदान नहीं हटाया गया है। अन्य नवीन समाचार पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : दो अक्टूबर के कुछ अलग मायने हैं उत्तराखंड वासियों के लिए

-उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इस दिन छह शहीद, 60 से अधिक हुए थे घायल, कई महिलाओं को गंवानी पड़ी थी अस्मत

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 2 अक्टूबर 2021। दो अक्टूबर का दिन जहां देश-दुनिया में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती के रूप में एवं दुनिया में ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, वहीं उत्तराखंड राज्य इससे इतर इस दिन को ‘काले दिन” के रूप में मनाता है। इस दिन से उत्तराखंड वासियों की बेहद काली व डरावनी यादें जुड़ी हुई हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इस दिन छह आंदोलनकारी शहीद हुए थे, जबकि 60 से अधिक घायल हुए थे, और कई महिलाओं को अपनी अस्मत गंवानी पड़ी थी।

उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान दो अक्टूबर 1994 को राज्य आंदोलनकारियों ने दिल्ली कूच का ऐलान किया था। लाल किले के पीछे स्थित पुराने किले के मैदान में राज्य आंदोलनकारियों को आमंत्रित किया गया था। सभा में केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राजेश पायलट सहित कई वरिष्ठ नेताओं के आने और सरकार की ओर से उत्तराखंड राज्य का गठन किए जाने की घोषणा होने की चर्चा थी। इसलिए पूरे प्रदेश से उत्तराखंडी बसों के जत्थों के जत्थों में एक अक्टूबर को रवाना हो गए थे।

लेकिन यूपी की मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली सपा सरकार इससे खार खाई थी। उनकी कोशिश थी-उत्तराखंडी दिल्ली न पहुंच पाएं। इसी कोशिश में कुमाऊं से दिल्ली जा रहे आंदोलनकारियों को मुरादाबाद और गढ़वाल की ओर से आ रहे आंदोलनकारियों को मुजफ्फरनगर से पहले पड़ने वाले नारसन चौराहे व रामपुर तिराहे पर तलाशी के बहाने रोका गया। इसी दौरान यूपी की रक्षक कही जाने वाली पुलिस बेकाबू हो कर मानो भक्षक बन गई और फिर वह हुआ, जिसे उत्तराखंड के इतिहास में सबसे काले दिन और जलियावाला कांड की संज्ञा दी जाती है। इस घटना में देहरादून के नेहरू कालोनी के रविंद्र रावत उर्फ पोलू, भाववाला के सतेंद्र चौहान, बद्रीपुर निवासी गिरीश भद्री, अजबपुर निवासी राजेश लखेड़ा, ऋषिकेश के सूर्यप्रकाश थपलियाल और उखीमठ रुद्रप्रयाग निवासी अशोक केशिव शहीद हुए जबकि पांच दर्जन से अधिक लोग घायल हुए और अनेक महिलाओं की अस्मत पर हमला हुआ। अन्य नवीन समाचार पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

सम्बंधित चित्र :

यह भी पढ़ें : खटीमा-मसूरी के शहीदों को जनगीतों से दी श्रद्धांजलि, भूकानून की मांग भी उठी

डॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 1 सितंबर 2021। राज्य आंदोलनकारियों के द्वारा हर वर्ष की तरह वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन साह की पहल पर एक एवं दो सितंबर को राज्य आंदोलन के दौरान 1994 में खटीमा एवं मसूरी में हुए गोलीकांडों के शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है। इस वर्ष भी उस कांड की 27वीं बरसी के मौके पर बुधवार को राज्य आंदोलनकारियों ने शहीदों को याद किया, और उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। देखें विडियो :

तल्लीताल गांधी चौक पर आयोजित हुए कार्यक्रम में वक्ताओं ने इस बात पर नाराजगी जताई कि राज्य को बने 20 वर्ष होने के बावजूद आज तक राज्य की पहचान और राज्य वासियों की जनभावनाओं से जुड़े मुद्दों का हल नहीं हुआ है। इस दौरान प्रदेश के दिवंगत जनकवि गिरीश तिवारी ’गिर्दा’ के ‘उत्तराखंड मेरी मातृभूमि’, ‘जैंता एक दिन त आलो’ और ‘हम लड़ते रयां भुला हम लड़ते रूंलो..’ आदि जनगीत गाये गये। साथ ही प्रदेश में सशक्त भूकानून लाने, मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को फांसी देने, राज्यवासियों को उनके हक-हकूक देने और शहीदों के अरमानों को पूरे करने के समर्थन में नारे भी लगाए गए। इस मौके पर राजीव लोचन साह, डॉ. नारायण सिंह जंतवाल, प्रकाश पांडे, डॉ. उमा भट्ट, डॉ. शीला रजवार, दिनेश उपाध्याय, चंपा उपाध्याय, चंचला बिष्ट व माया चिलवाल सहित बड़ी संख्या में राज्य आंदोलनकारी एवं विभिन्न संगठनों के लोग मौजूद रहे।

आम आदमी पार्टी ने भी दी श्रद्धांजलि
नैनीताल। आम आदमी पार्टी की नगर इकाई ने भी बुधवार को खटीमा और मसूरी गोलीकांड में अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि एवं श्रद्धासुमन अर्पित किये। श्रद्धांजलि अर्पित करने वालों में नगर अध्यक्ष शाकिर अली, प्रदेश प्रवक्ता प्रदीप दुम्का, जिला महामंत्री देवेद्र लाल, नगर महामंत्री महेश आर्य, विधानसभा उपाध्यक्ष डॉ. भुवन आर्या, हरीश बिष्ट, आरसी पंत, सुनील कुमार, मोहम्मद शान बुरहान आदि प्रमुख रहे।

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एक सितंबर से हिंसक हो उठा था उत्तराखंड आंदोलन

पृथक उत्तराखण्ड राज्य का आन्दोलन पहली बार एक सितम्बर 1994 को तब हिंसक हो उठा था, जब खटीमा में स्थानीय लोग राज्य की मांग पर शांतिपूर्वक जुलूस निकाल रहे थे। जलियांवाला बाग की घटना से भी अधिक वीभत्स कृत्य करते हुए तत्कालीन यूपी की अपनी ही सरकार ने केवल घंटे भर के जुलूस के दौरान जल्दबाजी और गैरजिम्मेदाराना तरीके से जुलूस पर गोलियां चला दीं, जिसमें सर्वधर्म के प्रतीक प्रताप सिंह, भुवन सिंह, सलीम और परमजीत सिंह शहीद हो गए। यहीं नहीं उनकी लाशें भी सम्भवतया इतिहास में पहली बार परिजनों को सौंपने की बजाय पुलिस ने ‘बुक’ कर दीं। यह राज्य आन्दोलन का पहला शहीदी दिवस था। इसके ठीक एक दिन बाद मसूरी में यही कहानी दोहराई गई, जिसमें महिला आन्दोलनकारियों हंसा धनाई व बेलमती चौहान के अलावा अन्य चार लोग राम सिंह बंगारी, धनपत सिंह, मदन मोहन ममंगई तथा बलबीर सिंह शहीद हुए। एक पुलिस अधिकारी उमा शंकर त्रिपाठी को भी जान गंवानी पड़ी। इससे यहां नैनीताल में भी आन्दोलन उग्र हो उठा। यहां प्रतिदिन शाम को आन्दोलनात्मक गतिविधियों को ‘नैनीताल बुलेटिन” जारी होने लगा। नैनीताल में दो अक्टूबर के कांड के प्रतिरोध में तीन अक्टूबर 1994 को विरोध जता रहे लोगों पर रैपिड एक्शन चढ़ बैठी, और एक होटल कर्मी प्रताप सिंह बेमौत मारा गया। उनका शहीदी दिवस यहां हर वर्ष तीन अक्टूबर को चिड़ियाघर रोड स्थित शहीद स्थल में मनाया जाता है।

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उत्तराखंड आन्दोलन की कहानी-एक आन्दोलनकारी की जुबानी  : जब अपनी ही सत्ता से टकराए थे छात्र…

पूरन मेहरा।

भारत को आजादी दिलवाने वालों ने ये कभी न सोचा होगा कि आजादी के बाद भी हमारे बच्चों, छात्रों, नौजवानों तथा माताओं-बहनों को अपने ही देश, राज्य में अपने हक की मांग व अन्याय का विरोध करने का अधिकार नही होगा ना शहीद आजादी के दीवानों की तरह, उनके बच्चों को भी शहीद होना पड़ेगा ना जेल जाना होगा। लेकिन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों-वर्तमान उत्तराखंड में अपने भविष्य की चिंता से भयग्रस्त छात्रों व नौजवानों को अपराधों को रोकने में नाकाम उत्तर प्रदेश पुलिस की बर्बरता का सामना करना पड़ा और दुर्दांत अपराधियों की तरह उनके साथ जेल में भी रहना पड़ा।
आबादी के हिसाब से उत्तराखंड में ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों के वाशिंदों की संख्या मात्र दो प्रतिशत ही थी। ऐसे में 1994 में उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया। आरक्षण लागू होने से उत्तराखंड का ताना बाना ही छिन्न-भिन्न होने की आशंका थी। यह आशंका भांपते हुए छात्र-छात्राओं ने अपने अधिकार के तहत अपनी लड़ाई प्रजातांत्रिक रूप में लड़नी प्रारंभ की और पूरे उत्तराखंड को पिछड़ा मानते हुए 27 प्रतिशत आरक्षण देने की मांग के साथ साथ ‘पूरे राज्य को 27 प्रतिशत आरक्षण दो’ नारे के साथ आंदोलन शुरु किया। नारा दिया ‘पहाड़ में उस नीति की नही गुंजाइश, जो दो को देती सत्ताइस’। पर छात्रों को नहीं पता था अपने अधिकारों की मांग पर उन्हें खूंखार अपराधियों की तरह गिरफ्तार कर संगीन अपराध में बंद बाहुबलियों के साथ ही जेलों में ढूंस दिया जायेगा। जबकि अपने अधिकार के लिए मांग करने की इजाजत उन्हें देश का कानून भी देता था। जनसंघर्ष की परिपाटी इस पुरातन प्राचीन देश में युगों-युगों से रही। हम सनातनी मानते हैं कि प्रथम विद्रोही तो प्रहलाद थे, जो क्रूर अन्यायी सत्ता से टकराये और स्वयं लडे़।
आरक्षण आंदोलन व पृथक उत्तराखंड आंदोलन के लिहाज से माह अगस्त 1994 काफी ज्यादा महत्वपूर्ण रहा। इसी माह पुलिस की नासमझी ने छात्रों व गैर छात्र युवाओं के बीच आंदोलन को समूचे उत्तराखंड मे सुलगा दिया। जबकि मैदानी क्षेत्रों में शासन-प्रशासन व पुलिस की हठधर्मिता से आंदोलनकारी छात्र आरक्षण के विरोध में आक्रामक होने लगे और यह आरोप भी लगे यह सब शराब माफियाओं व लाटरी कारोबारियों के इशारे पर हो रहा था। जगह-जगह पर आंदोरनरत छात्र अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने तरीके से विरोध के तरीके अपनाने लगे। इसी क्रम में छात्रों के अनुरोध के बाद भी कि जब तक सरकार से फैसला न हो जाए किसी भी प्रकार कोई नियुक्ति या साक्षात्कार न किये जायें, छात्रों की मांग को दरकिनार करते हुए नैनीताल में कुमाऊँ मण्डल के शिक्षकों की भर्ती के लिए साक्षात्कार ले रहे उपशिक्षा निदेशक के मुख पर कुछ लोगों द्वारा कालिख पोत उन्हें बाजार में घुमा दिया गया। इसी तरह कहीं बिजली के तार काट दिए गए तो कई जगह मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के विशालकाय पुतले आग के हवाले किये गये, जबकि कहीं युवाओं की टोली ने मुख्यमंत्री की शवयात्रा निकाल विरोध किया गया। इस दौरान लम्बे-लम्बे जूलूस कहीं भी देखे जा सकते थे।
इस दौरान एआरएफ व कई छात्र संगठन छात्रों के अलावा गांव-गांव में साइकिलों व पैदल चलकर लोगों से आन्दोलन में शामिल होने व सहयोग को कह रहे थे। सयुंक्त छात्र मोर्चा के लोग विद्युतापूर्ति ठप कर रहे थे, वहीं मैदानी क्षेत्रों में रामनगर, खटीमा, लालकुआं व हल्दी आदि स्थानों पर रेल रोको अभियान के लिए सम्पर्क कर रहे थे। बेरोजगार सेना टाइगर्स फोर्स सहित कई अन्य संगठन भी आन्दोलन को धार देने में लगे थे। मानो सभी का लक्ष्य हार न मानना हो गया था। छात्र, छोटे-बड़े राजनीतिक-सामाजिक संगठनों के लोगों से भी सम्पर्क कर रहे थे। छात्रों की मंशा भांप सभी दलों के लोग भी अपना समर्थन छात्रों को दे रहे थे। कुछ लोग अपने-अपने दलों से इस्तीफा भी दे रहे थे और धरना-प्रदर्शन भी कर रहे थे। बार एसोसिएशन द्वारा अदालतों में काम बन्द कर और सयुंक्त कर्मचारी संघ द्वारा छात्र आन्दोलन के समर्थन में कूदने के साथ तो आन्दोलन ‘जन आन्दोलन’ बन गया। छात्र सभी गिरफ्तार साथी छात्र आन्दोलनकारयों को रिहा करने व दोषी पुलिस कर्मियों पर कारवाई की जोर-शोर से मांग करने लगे।
दूसरी ओर प्रशासन की ओर से आन्दोलनकारी छात्रों पर अराजकता फैलाने व आन्दोलन में अराजक तत्वों की घुसपैठ की बात कह कर कड़ी कारवाई की जा रही थी। नैनीताल में उपशिक्षा निदेशक द्वारा शिक्षकों की नियुक्ति हेतु साक्षात्कार लेना, सैकड़ों छात्रों को खटीमा व नैनीताल से गिरफ्तार कर उत्तर प्रदेश की दूरस्थ जेलों में भिजवाना, एक छात्र नेता की पुलिस द्वारा पिटाई कर थाने तक घसीट कर ले जाना, एक गर्भवती महिला की पिटाई, तिहाड़ जेल में बन्द मोहन पाठक व मनमोहन तिवारी (जो अब इस दुनिया में नही रहे) की रिहाई न होना, नैनीताल में दिनेश मेहता सहित सैकड़ों की संख्या में छात्रों को फतेहगढ उरई की जेल में भेज देना, जगह-जगह बर्बर लाठीचार्ज व छात्रों पर मुकदमे दर्ज करने ने आग में घी डालने का काम किया। पूरे उत्तराखंड में इन पुलिस ज्यादतियों के खिलाफ जबरजस्त माहौल बनने लगा। हर कोई सशंकित व आक्रोशित हो गया। जब यह समाचार आया कि छात्रों को उत्तर प्रदेश सरकार ने खूंखार उम्र कैद की सजा पाए अपराधियों के साथ रखा है। लोगों को कुछ सूझ ही नही रहा था। हालात बद से बदतर होते चले जा रहे थे। हताश छात्र मानो रास्ता भटक रहे हों। कुछ ताकतें आन्दोलनरत छात्रों को गुमराह भी कर रही थीं। छात्रों के अभिभावक ने अपने नौनिहालों के साथ किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त हो गए थे। राजनीतिक दलों के नेता व गणमान्य लोग सभी सरकार से सम्पर्क कर छात्रों को रिहा करवाने के प्रयास कर रहे थे, पर जैसे हर जगह छल-प्रपंच की चौसर बिछाए शकुनि भी बैठे थे, या जानकर भी अनजाने बनने को बाध्य कर्ण थे। या जो समाधान कर सकते थे वे अंधे धृतराष्ट्र बन हाथ मसल रहे थे। और पूरे उत्तराखंड को पिछड़ा मानने व आरक्षण के दायरे में लेने की मांग को एक बहुत बड़ी तिकड़म के साथ यह सिद्ध किया जाने लगा था कि यह आन्दोलन आरक्षण के खिलाफ है। कई गिरफ्तार साथियों ने बताया कि उन्हें मिर्जापुर व फतेहगढ़ जेल में अन्दर ले जाकर अपराधियों से यह कह कर परिचय कराया जाता था ये पहाड़ में आरक्षण विरोधी हैं और नेता जी की सरकार का विरोध करते हैं। यह सब सुन-जानकर महिलाओं व पूर्व सेनिकों ने कड़ी चेतावनी देते हुए अगस्त माह के अन्तिम दिनों में निषेधाज्ञा को धता बताते हुए विशाल जूलूस निकाले। छात्र साथी छात्रों की रिहाई न हो पाने के कारण अधिकारियों को बंधक बनाने लगे। सांसद-विधायकों से इस्तीफा मांग रहे थे। इसी कड़ी में तत्कालीन सांसद बलराज पासी व विधायक तिलक राज बेहड़ को महिलाओं ने हल्द्वानी में घेर लिया और इस्तीफे की मांग की। सांसद व विधायक ने भी महिलाओं को कोरे कागज में हस्ताक्षर कर दे दिये।
इस दौरान बंद व आगजनी की घटनाएं भी बढ़ गयीं। अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, रानीखेत, लोहाघाट, बागेश्वर, भतरौजखान, रुद्रपुर, टनकपुर व काठगोदाम सहित समूचे कुमाऊँ मण्डल सहित गढ़वाल मण्डल के उत्तरकाशी, ऋषिकेश व उखीमठ सहित पूरे उत्तराखंड में पुलिस द्वारा बल प्रयोग कर लाठीचार्ज किया जाता रहा। जिस तरह से आन्दोलन में लोगों की हिस्सेदारी बढ़ रही थी, उसी तरह से प्रदेश की मुलायम सिंह यादव की सरकार द्वारा आन्दोलन को कुचलने के भरसक प्रयास किये जा रहे थे। कर्मचारी नेताओं को लखनऊ बुलाकर डराया-धमकाया गया, और आन्दोलनकारियों को बदनाम करने की नीयत व आन्दोलन को तोड़ने के तिकड़म व षडयंत्र भरसक हो रहे थे। वहीं दूसरी तरफ छात्रों के कई संगठन ‘एन्टी रिजर्वेशन फोरम’, सयुंक्त छात्र मोर्चा, छात्र युवा संघर्ष मोर्चा, स्वायत्त कर्मचारी महासंघ, बार एसोसिएशन, स्वच्छता शाखा कर्मचारी महासंघ, छात्र युवा संघर्ष समिति व बजरंग दल सभी छात्र संघ आरक्षण विरोधी मोर्चा तथा विभिन्न कर्मचारी यूनियन, संसद में पर्चा फेकने वाले मोहन पाठक, मनमोहन तिवारी, शंकर भट्ट, दिनेश मेहता, गणेश रावत, मनोज जोशी, विजय भट्ट, तरुण पंत, नीरज बंगोला, गजराज बिष्ट, भाष्कर मेहता, भाष्कर बृजवासी, हरीश सती, आलोक साह, हरीश भट्ट, देवेन्द्र बिष्ट, गणेश फर्त्याल, ललित जोशी, कमल पाण्डेय, अनुज, सचिन, नीरज पंत, चन्दन बिष्ट, राकेश वाल्मीकि, आदित्य कोठारी, प्रमोद बिष्ट, संजय बिष्ट, कुन्दन धामी, इंदर बमोला, इंद्रेश लोहनी, खुशाल सिंह, जय हिंद, भगवत सिंह, संजय बत्रा, नरपत सिंह राजपूत, पंकज अग्रवाल, दीपक मित्तल, सुरेंद्र रौतेला, महेंद्र बिष्ट, ललित जोशी, गगन पांडे, विजय बिष्ट, पवन गुरुरानी, कमलेन्द्र सेमवाल, कैलाश विन्तोला, रविन्द्र पांडे, दीपक पांडे, अवतार सिंह, शैलेन्द्र शर्मा, शशांक त्यागी, मनोज शाही, प्रीतम पांडे, मो. शफी, मुकेश तिवारी व अनिल शर्मा सहित हजारों की संख्या में छात्र ‘कहां चले भाई कहां चले-जेल चले भाई जेल चले’ कर्मचारी नेता हजारों हजार, महिलाऐं, छात्राएं वकील ‘हमारे भाइयों को रिहा करो, भड़क उठी चिंगारी है, अब जाग उठी नारी है, जेल के ताले टूटेंगें हमारे भाई छूटेगें, आरक्षण तो धोखा है राज्य बचा लो मौका है, हम उत्तराखंड की नारी हैं फूल नही चिंगारी हैं, मुलायम तुम क्या करोगे ? चूडी़ पहन राज करोगे, उत्तरांचल-उत्तराखंड की यही पुकार बंद करो छात्रों पर अत्याचार, उत्तर प्रदेश सरकार हाय-हाय आदि के नारे गूंजा रहे थे।
एक दिन आन्दोलन के दोरान तब बड़ा मार्मिक दृश्य हो गया जब एक सेना का ट्रक छात्र आन्दोलनकारियों के बीच से गुजरा, तो महिलाएं जोर जोर से कहने लगीं-‘सेना के भाईयो, हमारे साथ आओ, हमारे भाईयों को छुड़वाओ। सेना के जवान भी टकटकी लगाकर महिलाओं की ओर देख रहे थे। आन्दोलन के दरमियान कई शान्त व सुलझे अधिकारी अजय सिंह नबियाल, जगतराज, पुष्कर सिंह सैलाल व शकुन्तला गौतम सहित कई लोग आन्दोलनकारियों को समझाने-बुझाने का काम भी किया करते थे।
छात्रों की ओर से नैनीताल के कर्मचारी नेता राम पंत (जिन्हें इस आन्दोलन के कारण ही जान गंवानी पड़ी। वह एकमात्र कर्मचारी थे जिन पर इस दौरान मुकदमा भी चला), जेपी साह (अब स्वर्गीय) बीडी पलड़िया, मोहन सिंह चम्याल, एनके कपिल, खीमा बिष्ट, राजेन्द्र लाल साह, प्रफुल्ल चंद पंत, प्रेम बल्लभ जोशी, डीडी शर्मा, जीसी उप्रेती, नरेंद्र सिंह रजवार, जेके चौधरी, बीसी काण्डपाल, पीएस रौतेला, जेसी खुल्बे, प्रीतम बिष्ट आदि छात्रों के साथ दमदार अभिभावकों की भूमिका में दिखलाई पड़ते थे। कई लोग इस दरम्यान आन्दोलन का रुख अलग राज्य की मांग के आन्दोलन में तब्दील करना चाहते थे, पर इसके लिए अधिकतर छात्र तैयार नही थे। उनका मानना था कि पूरे उत्तराखंड को ही 27 प्रतिशत आरक्षण की परिधि में लिया जाता है तो, वह ठीक होगा। इस बात को लेकर छात्र आगाह भी करते रहते थे। इस तरह वास्तव में यह आंदोलन मूलतः उत्तराखंड राज्य के लिए नहीं, आरक्षण विरोधी भी नहीं, बल्कि अपने लिए आरक्षण मांगने का आंदोलन था।
लेकिन धीरे-धीरे झड़प, आगजनी, घेराव, टकराव, कुमाऊँ बन्द तक सीमित आंदोलन गिरफ्तारियां, बर्बर लाठीचार्ज व आमने-सामने पुलिस गोलीबारी में बदल गया जिसके परिणाम स्वरूप दर्जनों लोग खटीमा व मंसूरी में शहीद हो गये।
यही वह समय था जब नैनीताल में उत्तराखंड क्रांति दल पे अलग राज्य की मांग के लिए 15 अगस्त से आमरण अनशन शुरू किया। यह अनशन 27 अगस्त को प्रशासन द्वारा समाप्त करा दिया गया। उसके बाद उक्रांद नेता काशी सिंह ऐरी द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार पर लगातार बनाये गये दबाव से बनी कोशिक समिति का उत्तराखंड के पक्ष में संस्तुति के साथ उनके साथियों द्वारा चलाया जा रहा सम्पर्क अभियान जोर पकड़ने लगा। इस पर कई लोगों ने उन पर ‘मुलायम की गोदी में बैठने’ का आरोप भी लगाया।
इसके साथ महिलाओं के द्वारा भी उत्तर प्रदेश सरकार से नाता तोड़ने, हत्यारी अन्यायी सरकार के साथ न रहने, अपने बच्चों के साथ संगीन अपराधियों जैसा व्यवहार व खूंखार अपराधियों, उम्र कैदियों के साथ रखने तथा पहाड़ के साथ दशकों से हो रहे गैर बराबरी व अन्याय के खिलाफ भी आवाज उठाई जाने लगी।
साल 1994 में अगस्त व सितंबर का महीना था जब कई आन्दोलनकारी आजादी से पूर्व प्रताप बोरा जी के गीत-
‘हिटो हो ददा भुलियो आज कसम खोंला।
हम अपनी जान तक राज्यां-देंशा लिजी द्यौंला।
यो माटी मां पायी पोसी बैं हम हयां जवाना।
यो माटी मां मिली जाणों छु हम तुमलें निदाना।
रणभूमि में उई मरनी जैल करा दाना।’ और ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है।’ अंधेरों से मत लड़ो व पृथक राज्य की आवाजें भी जोर-शोर से सुनाई पड़ने लगी।
नोट: अधिकतर जानकारी व्यक्तिगत व नैनीताल-ऊधमसिंहनगर जिले की व कुछ-कुछ जितना संभव था कुमाऊँ क्षेत्र की है।

पूरन मेहरा, नैनीताल।

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-सर्वप्रथम 1897 में इंग्लेंड की महारानी विक्टोरिया के समक्ष रखी गई थी कुमाऊं को प्रांत का दर्जा देने की मांग
नवीन जोशी, नैनीताल। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए उत्तराखंड राज्य में पृथक राज्य की मांग एक सदी से भी अधिक पुरानी थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार सर्वप्रथम जून 1897 में रानी विक्टोरिया को शर्तें याद दिलाते हुए तत्कालीन ब्रिटिश कुमाऊं (जिसमें प्रदेश के वर्तमान गढ़वाल मंडल का भी अलकनंदा नदी के पूर्वी ओर का पूरा सहित तत्कालीन टिहरी रियासत को छोड़कर अधिकांश क्षेत्र शामिल था) को अलग प्रान्त के रूप में रखने को प्रत्यावेदन भेजा गया था। हरी दत्त पांडे, ज्याला दत्त जोशी, रायबहादुर बद्री दत्त जोशी, रायबहादुर दुर्गा दत्त जोशी (जज) व गोपाल दत्त जोशी द्वारा इंग्लेंड की महारानी विक्टोरिया को भेजे गए पत्र में कहा गया था कि अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को जीता नहीं था, वरन 1815 में स्वयं अपनी मर्जी से अपने आप को ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण में रखा था, इसलिए उनकी वफादारी के बदले उनकी मातृभूमि को अलग प्रांत का दर्जा दें।

राष्ट्रीय सहारा 2 अक्टूबर 2015 (पेज-1)
जंतर-मंतर दिल्ली में उत्तराखंड आन्दोलनकारी
दो अक्टूबर 1994 को दिल्ली रैली में उमड़ा राज्य आन्दोलनकारियों का रेला, काशी सिंह ऐरी (लाल घेरे में)
उत्तराखण्ड आन्दोलन में महिलाओं की उमड़ी भीड़

आगे दूूसरा प्रयास 1916 में उत्तराखंड की प्रथम संस्था-कुमाऊं परिषद के गठन के रूप में हुआ। इसके बाद तीसरा प्रयास सात नवंबर 1929 को हुआ, जब राजा आनंद सिंह, त्रिलोक सिंह रौतेला, ठाकुर जंग बहादुर बिष्ट, एफ रिच, डेनियल पंत, गोविंद लाल साह, नित्यानंद जोशी, खुशाल सिंह, उत्तम सिंह रावत व हाजी नियाज मोहम्मद आदि कई लोगों ने तत्कालीन संयुक्त प्रांत के गवर्नर से भेंट कर ज्ञापन सोंपा और कुमाऊं के प्राचीन समय से एक पृथक इकाई होने और उसे विशेषाधिकार मिले होने का हवाला देते हुए पृथक राजनीतिक इकाई के रूप में मान्यता देने, ब्रिटिश संसद के लिए कुमाउनी प्रतिनिधियों को सम्मिलित कर उन्हें अलग संविधान देने के लिए एक समिति का गठन करने आदि की मांगें कीं। इस पर गवर्नर ने उन्हें साइमन कमीशन के समक्ष अपना पक्ष रखने की सलाह दी।
आगे 1938 में प्रदेश के गढ़वाल मंडल की ओर के बुद्धिजीवियों की ओर से भी यह मांग उठनी शुरू हुई। इसी साल 5-6 मई को कांग्रेस के श्रीनगर सम्मेलन में पृथक प्रशासनिक व्यवस्था की मांग की गई। इस सम्मलेन में प्रताप सिह नेगी, जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित भी शामिल हुए थे। सम्मेलन में स्थानीय जनता की मांग को देखकर जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने का अधिकार मिलना चाहिए।’ वहीं आजादी मिलने की सुगबुगाहट के बीच तत्कालीन संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री गोविंद बल्लभ पंत (भारत रत्न) ने पहले 1946 में हल्द्वानी में हुए सम्मेलन में और आगे आजादी के बाद 1952 में जब राज्यों के पुर्नगठन के लिए पणिकर आयोग के अध्यक्ष केएम पणिकर ने उत्तराखंड राज्य की मांग का समर्थन किया था, किन्तु स्वर्गीय पंत ने पर्वतीय क्षेत्र में एक राज्य के लिए जरूरी संसाधनों व रोजगार के साधनों की कमी बताकर इस मांग को पूरी तरह खारिज कर दिया था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल ने इस तथ्य का जिक्र अपनी पुस्तक ‘स्वतंत्रता संग्राम में कुमाऊं का योगदान’ में किया है। आगे भाकपा के सचिव कॉमरेड पीसी जोशी ने 1952 में भारत सरकार को पृथक पर्वतीय राज्य के गठन के लिए एक ज्ञापन भेजकर यह मांग प्रमुखता से उठाई थी। इसके साथ ही यह मांग मुखर होने लगी थी। पेशावर कांड के नायक और स्वतंत्रता सेनानी चंद्र सिह गढ़वाली ने भी पीएम जवाहर लाल नेहरू को राज्य की मांग का ज्ञापन दिया। 22 मई 1955 को नई दिल्ली में पर्वतीय जन विकास समिति की आम सभा में उत्तराखंड क्षेत्र को प्रस्तावित हिमाचल में मिलाने की मांग की।
1956 में पृथक हिमाचल बनाने की राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा ठुकराने के बाद भी तत्कालीन गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर हिमाचल की मांग को सिद्धांत रूप में स्वीकार किया, किंतु उत्तराखंड के बारे में कुछ नहीं किया। इस पर अगस्त 1966 में पर्वतीय क्षेत्र के लोगों ने पुनः पीएम को अलग राज्य की मांग का ज्ञापन भेजा। 10-11 जून 1966 को जगमोहन सिंह नेगी एवं चंद्रभानु गुप्त की अगुवाई में रामनगर में आयोजित कांग्रेस के सम्मेलन में पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिए पृथक प्रशासनिक आयोग का प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया, तथा 24-25 जून को नैनीताल में दयाकृष्ण पांडेय की अध्यक्षता में ऋषिबल्लभ सुन्दरियाल, गोविंद सिंह मेहरा आदि को शामिल करते हुए आठ पर्वतीय जिलों की ‘पर्वतीय राज्य परिषद’ का गठन किया गया। इसी वर्ष दिल्ली के बोट क्लब में इस मांग के लिए ऋषि बल्लभ सुंदरियाल ने प्रवासी उत्तराखंडियों को साथ लेकर प्रदर्शन किया। इसी वर्ष 14-15 अक्टूबर को दिल्ली में उत्तराखंड विकास संगोष्ठी का आयोजन हुआ, जिसका उदघाटन तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अशोक मेहता ने किया। इसमें सांसद एवं टिहरी नरेश मानवेंद्र शाह ने इस क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए केंद्र शासित प्रदेश की मांग की।
1968 में लोकसभा में सांसद शाह के प्रस्ताव के आधार पर योजना आयोग ने पर्वतीय नियोजन प्रकोष्ठ खोला। 12 मई 1970 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान प्राथमिकता से करने की घोषणा की। 1971 में मानवेंद्र शाह, नरेंद्र सिंह बिष्ट, इंद्रमणि बड़ोनी और लक्ष्मण सिंह ने अलग राज्य के लिए कई जगह आंदोलन किए। 1972 में ऋषिबल्लभ सुंदरियाल व पूरन सिंह डंगवाल सहित 21 लोगों ने अलग राज्य की मांग को लेकर वोट क्लब पर गिरफ्तारी दी। 23-24 अक्टूबर 1971 को प्रताप बिष्ट ने उत्तराखंडवासियों से आजादी के लिए दी गई जीवन की कुर्बानी की तर्ज पर आर्थिक आजादी के लिए कुर्बानी देने का आह्वान किया। 1973 में ‘पर्वतीय राज्य परिषद’ का नाम ‘उत्तराखंड राज्य परिषद’ किया गया। सांसद प्रताप सिंह बिष्ट इसके अध्यक्ष तथा मोहन उप्रेती व नारायण सुंदरियाल इसके सदस्य बने। 1978 में चमोली के विधायक प्रताप सिंह की अगुवाई में बदरीनाथ से दिल्ली वोट क्लब तक पदयात्रा और संसद का घेराव का प्रयास किया गया। दिसंबर 1978 में राष्ट्रपति को ज्ञापन देते समय 19 महिलाओं सहित 71 लोगों को तिहाड़ भेजा गया। 1979 में सांसद त्रेपन सिंह नेगी के नेतृत्व में उत्तराखंड राज्य परिषद का गठन करके 31 जनवरी को दिल्ली में 15 हजार से भी अधिक लोगों ने पृथक राज्य के लिये मार्च किया। आगे 24-25 जुलाई 1979 में 24-15 जुलाई 1979 को मंसूरी में ‘पर्वतीय जन विकास सम्मेलन’ में इसी मांग पर प्रदेश के पहले क्षेत्रीय दल-उत्तराखंड क्रांति दल का जन्म हुआ। 1980 में यूकेडी ने घोषणा की कि उत्तराखंड भारतीय संघ का एक शोषण विहीन, वर्ग विहीन और धर्म निरपेक्ष राज्य होगा। मई 1982 में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने बद्रीनाथ मे यूकेडी के प्रतिनिधि मंडल के साथ 45 मिनट बातचीत की। 20 जून 1983 को दिल्ली में चौधरी चरण सिंह ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि उत्तराखंड की मांग राष्ट्र हित में नही है। सितंबर-अक्टूबर 1984 में आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन ने पर्वतीय राज्य के मांग को लेकर गढ़वाल क्षेत्र में 900 किमी. साइकिल यात्रा की। 23 अप्रैल को उक्रांद ने तत्कालीन पीएम राजीव गांधी के नैनीताल आगमन पर पृथक राज्य के समर्थन में प्रदर्शन किया। 1987 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अटल विहारी वाजपेयी ने उत्तराखण्ड राज्य की मांग को पृथकतावादी करार दिया। नौ अगस्त को वोट क्लब पर अखिल भारतीय प्रवासी उक्रांद ने सांकेतिक भूख हड़ताल की और पीएम को ज्ञापन दिया। 23 नवंबर को युवा नेता धीरेंद्र प्रताप भदोला ने लोकसभा में दर्शक दीर्घा में राज्य निर्माण के समर्थन में नारेबाजी की। 23 फरवरी 1988 को अनेक लोगों ने असहयोग आंदोलन किया और गिरफ्तारियां दी। 21 जून को अल्मोड़ा में ‘नए भारत में नया उत्तराखंड’ नारे के साथ ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ का गठन हुआ। 23 अक्टूबर को दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में हिमालयन कार रैली का उत्तराखंड समर्थकों ने विरोध किया, जिस पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया। 17 नवंबर को पिथौरागढ़ में नारायण आश्रम से देहारादून तक पैदल यात्रा हुई। 1989 में यूपी के सीएम मुलायम सिह यादव ने उत्तराखंड को यूपी का ताज बता कर अलग राज्य बनाने से इंकार किया। लेकिन अलग राज्य के लिए दबाव बनता देख 10 अप्रैल 1990 को दिल्ली के वोट क्लब पर उत्तरांचल प्रदेश संघर्ष समिति के तत्वावधान में भाजपा ने उत्तराखण्ड के समर्थन में रैली की, और 30 अगस्त 1991 को कांग्रेस नेताओं ने ‘वृहद उत्तराखंड’ राज्य बनाने का नया शिगूफा छोड़ा। इसी साल यूपी की भाजपा सरकार ने पृथक राज्य संबंधी प्रस्ताव संस्तुति के साथ केंद्र को भेजा तो भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी पृथक राज्य का वायदा किया। इसी साल दिसंबर 1991 में एनडी तिवारी ने राज्य की मांग का विरोध करते हुए कथित तौर पर कहा कि ‘उत्तराखण्ड उनकी लाश पर बनेगा’। इधर भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के उत्तर प्रदेश सम्मेलन में राज्य की मांग का समर्थन किया गया। सम्मेलन की समाप्ति पर सांसद डा. जयन्त रैंगती ने कहा ‘छोटे और कमजोर समूहों को राजनैतिक सत्ता में भागीदार बनाने का काम कभी पूरा नहीं किया गया’। इसी दौरान यूपी की भाजपानीत कल्याण सिंह सरकार ने केंद्र सरकार को याद दिलाया कि राज्य की मांग स्वीकार न होने से कारण पर्वतीय क्षेत्र की जनता में असंतोष पनप रहा है। मार्च 1992 में एनडी तिवारी ने राज्य का पुनः विरोध किया। 27 मार्च 1992 को मुक्ति मोर्चा ने बंद का आहवान किया और 30 अप्रैल को उत्तरांचल संघर्ष समिति ने जंतर मंतर पर रैली निकाली। पांच अगस्त 1993 को लोकसभा में उत्तराखंड राज्य के मुद्दे पर मतदान हुआ तो 98 सदस्यों ने पक्ष में और 152 ने विपक्ष में मतदान किया। 23 नवंबर 1993 को ‘उत्तराखण्ड जनमोर्चा’ का गठन हुआ। इसमें जगदीश नेगी, देब सिंह रावत, राजपाल बिष्ट व बीडी थपलियाल आदि शामिल थे। 1993 में हुए यूपी विधानसभा के मध्यावधि चुनावों में विजयी हुए मुलायम सिंह यादव ने पृथक उत्तराखंड की मांग को जायज बताते हुए 21 जून को अपने मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में उत्तराखंड राज्य गठन का खाका खींचने के लिए एक उपसमिति गठित की, जिसने पांच मई 1994 को पेश की गई अपनी 356 पेज की रिपोर्ट में आठ पर्वतीय जनपदों को मिलाकर एक पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने और गैरसेंण को प्रस्तावित उत्तराखंड प्रदेश की राजधानी के रूप में प्रस्तुत किया। 24 अप्रैल 1994 को दिल्ली के पूर्व निगमायुक्त बहादुर राम टम्टा के नेतृत्व में रामलीला मैदान से संसद मार्ग थाने तक विशाल प्रदर्शन किया गया। किंतु इसी बीच मुलायम सरकार द्वारा 11 दिसंबर 1993 को शासकीय सेवाओं में ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों के लिए 27 फीसद आरक्षण देने की व्यवस्था लागू करने का उत्तराखंड में इस आधार पर भारी विरोध हुआ कि यहां इन जातियों की आबादी मात्र डेढ़ फीसद थी। इस आंदोलन ने निरंतर व्यापक होते हुए आगे निर्णायक उत्तराखंड आंदोलन का स्वरूप ग्रहण किया, और इसके परिणामस्वरूप 22 जून 1994 को मुलायम सरकार ने उत्तराखंड के लिए अतिरिक्त मुख्य सचिव नियुक्त करने की घोषणा की। 11 जुलाई को पौड़ी में उक्रांद ने प्रदर्शन करके 791 लोगों की गिरफ्तारी दी। दो अगस्त को पौड़ी में वयोवृद्ध नेता इंद्रमणि बड़ोनी के नेतृत्व में आमरण अनशन शुरु किया गया। 7-8 और नौ अगस्त को पुलिस का लाठी चार्ज के साथ ही पूरे उत्तराखंड में प्रखर राज्य जनांदोलन का बिगुल बज गया। 10 अगस्त को श्रीनगर में ‘उत्तराखण्ड छात्र संघर्ष समिति’ का गठन हुआ और 16 अगस्त को संसद एवं जंतर-मंतर पर आंदोलनकारी संगठनों का धरना शुरू हुआ, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तमाम आंदोलनकारी संगठन जुड़े। 24 अगस्त-94 को यूपी विधानसभा में दूसरी बार अलग राज्य का प्रस्ताव पारित हुआ। इसी बीच छात्र नेता मोहन पाठक और मनमोहन तिवारी ने राज्य के समर्थन में नारेबाजी करते हुए संसद में छलांग लगाई। 30 अगस्त को पूरे देश से आए हजारों उत्तराखंडियों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया।, जिस पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े। दो सितंबर 1994 को खटीमा में जुलूस निकाल रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग की, यह उत्तराखण्ड आंदोलन का पहला गोलीकांड था। इसमें आठ आंदोलनकारी शहीद हुए, और हल्द्वानी और खटीमा में कर्फ्यू लगा। दो सितंबर को मसूरी में आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कहर बरपा, जिसमें पुलिस उपाधीक्षक सहित आठ आंदोलनकारी शहीद हो गए। इसके विरोध में दिल्ली सहित पूरे देश में भारी आक्रोश फैल गया। आठ सितंबर को छात्रों के आहवान पर 48 घंटे उत्तराखंड बंद रहा। 20 सितंबर को ‘पर्वतीय कर्मचारी शिक्षक संगठन’ के बैनर तले राज्य कर्मचारी बेमियादी हड़ताल पर चले गए। दो अक्टूबर 1994 को लाल किले के पीछे के मैदान में आयोजित रैली के लिए लाखों उत्तराखंडी शांतिपूर्वक दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे। यूपी पुलिस ने इस दौरान मुजफ्फरनगर व रामपुर तिराहा में महिलाओं के साथ हुए अमानवीय दुर्व्यवहार किया। यहां आठ आंदोलनकारी शहीद हुए, जबकि कई महिलाओं की अस्मत लूटी गई। पुलिस की बर्बरता से समूचे उत्तराखंड में व्यापक आक्रोश फैल गया। घिनौनी करतूत पर शर्मिंदा होने की बजाय यूपी पुलिस ने फिर तांडव किया। देहरादून और कोटद्वार मे दो-दो और नैनीताल में एक आंदोलनकारी प्रताप सिंह शहीद हुए।

स्व. मैनाली लाल घेरे में

इस पर नैनीताल में माधवानंद मैनाली (देहावसान 20 सितम्बर 2017) के नेतृत्व में ही ‘नागरिक संघर्ष समिति’ के बैनर तले 54 दिनों तक लंबा धरना कार्यक्रम चला। उधर 13 अक्टूबर को आंदोलन के चलते देहरादून में कर्फ्यू लगा दिया गया। यहीं पर एक और आंदोलनकारी ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। अक्टूबर में सतपाल महाराज ने ’संयुक्त संघर्ष समिति’ के संरक्षक के रूप में बद्रीनाथ से नारसन तक जनजागरण पदयात्रा की। सात दिसंबर को बीसी खंडूड़ी के नेतृत्व में लाल किला मैदान पर भाजपा की रैली में अटल विहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती व कल्याण सिंह आदि ने भी शिरकत की। उत्तराखंड आंदोलन संचालन समिति के आहवान पर संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान जेल भरो आंदोलन में 4612 लोगों ने गिरफ्तारी दी। 22 दिसंबर को हड़ताली कर्मचारी ‘काम के साथ संघर्ष’ का नारा देते हुए काम पर लौटे, जबकि छात्रों ने ‘पढाई के साथ लड़ाई’ का नारा बुलंद किया। 25 फरवरी 1995 को प्रमुख आंदोलनकारी संगठनों का दो दिवसीय प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन जवाहरलाल नेहरू विवि के सिटी सेंटर में डा. कर्ण सिंह के उदघाटन संबोधन के साथ शुरू हुआ। 23 मार्च को शहीद भगत सिंह आजाद के शहादत दिवस पर ले.जन. गजेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व में पूर्व सैन्य अधिकारियों व पूर्व सैनिकों ने अन्य आंदोलनकारियों के साथ मिलकर विशाल प्रदर्शन किया। 30 दिसंबर को मुजफ्फरनगर कांड के अपराधियों को तत्काल दंडित करने की मांग को लेकर सैकड़ों महिलाओं ने गृह मंत्री के आवास पर प्रदर्शन किया। आठ अक्टूबर को अलकनंदा की जलधारा के बीच स्थित श्रीयंत्र टापू पर यूकेडी (डंगवाल) ने आमरण अनशन शुरू किया। पांच नवंबर को पुलिस का दमन चक्र फिर चला, जिसमें पुलिस ने दो आंदोलनकारियों को अलकनंदा की तेज जलधारा में बहा दिया, साथ ही अनेक आंदोलनकारियों को सहारनपुर जेल भेज दिया गया। 12 अक्टूबर को दिवाकर भट्ट ने खैट पर्वत पर पुनः आमरण अनशन शुरू किया। जनवरी 1996 में केंद्र और आंदोलनकारियों के बीच वार्ता शुरू हुई। 26 जनवरी को दिल्ली के विजय चौक पर परेड के दौरान ही संयुक्त महिला संघर्ष समिति की 44 महिलाओं और 18 नवयुवकों ने संसद की वीआईपी गैलरी में राज्य के समर्थन में जोरदार नारेबाजी की।, इस पर आन्दोलनकारी उषा नेगी को गिरफ्तार किया गया। परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने लाल किले की प्राचीर से उत्तराखंड राज्य बनाने की ऐतिहासिक घोषणा की, अगले साल पीएम इंद्र कुमार गुजराल ने भी लाल किले से इस संकल्प को दोहराया। 1998 में अटल बिहारी के नेतृत्त्व वाली भाजपा की गठ्बंधन सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से उत्तराखंड राज्य संबंधी उत्तर प्रदेश पुर्नगठन विधेयक यूपी विधानसभा को भेजा। इस बीच दिल्ली में जन्तर मन्तर पर आंदोलनकारियों का धरना जारी था। नौ अगस्त को भारी पुलिस बल ने धावा बोलकर उन्हें भगा दिया। इस पर आंदोलनकारी मंदिर मार्ग पर धरना करने लगे और बाद में पुनः जंतर मंतर पर आ गये। 1999 में कांग्रेस नेता हरीश रावत पहली बार संघर्ष में कूदे। 20 जुलाई 2000 को उत्तर प्रदेश पुर्नगठन विधेयक तत्कालीन अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के द्वारा लोकसभा में पेश किया गया, तथा एक अगस्त को लोकसभा और 10 अगस्त को राज्यसभा ने इसे मंजूरी दी। 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से पीएम अटल बिहारी ने उत्तराखंड गठन की घोषणा की। 16 अगस्त को जंतर-मंतर पर छह सालों से चल रहे धरने का समापन करने में सभी आंदोलनकारियों, संगठनों और दलों ने भाग लिया। 28 अगस्त को राष्ट्रपति केआर नारायणन ने भी राज्य गठन विधेयक को मंजूरी दे दी। और आखिर नौ नवंबर को ‘उत्तरांचल’ राज्य अस्तित्व में आया, तथा नित्यानंद स्वामी ने पहले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। जनवरी 2007 में एनडी तिवारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने राज्य का नाम ‘उत्तराँचल’ से बदलकर ‘उत्तराखण्ड’ कर लिया।

पृथक राज्य आंदोलन में महिलाओं की भी रही प्रमुख भूमिका

नैनीताल। पृथक राज्य आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पर विस्तृत शोध करने वाली कुमाऊं विश्व विद्यालय के इतिहास विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डा. सावित्री कैड़ा जंतवाल बताती हैं कि उत्तराखंड आंदोलन के दौरान पुलिस के दमन का शिकार होने वाली पहली महिला के रूप में आंदोलनकारी जगदंबा देवी रतूड़ी का नाम आता है, जिन्हें दो अगस्त 1994 को पौड़ी में आमरण अनशन पर बैठे वयोवृद्ध नेता इंद्रमणि बड़ोनी व उनके साथियों के साथ हुए संघर्ष का विरोध करने पर पुलिस कर्मी द्वारा सड़क पर गिराकर जमकर मारा-पीटा गया। देहरादून में सुशीला बलूनी कचहरी परिसर में अनशन पर बैठी, उधर कमला पंत ने प्रगतिशील महिला मंच के द्वारा अन्य महिलाओं के साथ मिल कर एक नारा प्रचलित किया, “आरक्षण का एक इलाज-पृथक राज्य पृथक राज्य”। इस दौरान पुष्पा चौहान सहित कई अन्य महिला आंदोलनकारी को भी पीटा गया और बदसलूकी हुई। इस दौरान 17 अगस्त 1994 को अलग राज्य की मांग लेकर महिलाओं की पहली विशाल रैली निकली, जिस कारण पुष्पलता सिलमान, भुवनेश्वरी देवी, पार्वती नेगी, कमला पंत व निर्मला बिष्ट सहित डेढ़ दर्जन से अधिक महिला आंदोलकारी गिरफ्तार की गईं। इस घटना के विरोध में नैनीताल में 20 अगस्त को आमरण अनशन पर बैठे राज्य आंदोलनकारियों के समर्थन में नैनीताल में पहली बार कुंती वर्मा, देवकी चौनियाल, जानकी देवी व भगवती वर्मा धरने पर बैठीं। उधर दो सितंबर 1994 को खटीमा में हुए प्रथम गोलीकांड के विरोध में मंसूरी में जुलूस निकालने के लिए हंसा धनाई और बेलमती चौहान शहीद हो गईं, जो उत्तराखंड आंदोलन में शहीद होने वाली प्रथम महिला आंदोलनकारी थीं। वहीं दो अक्टूबर 1994 को रात्रि में मुजफ्फरनगर व रामपुर तिराहा में दिल्ली कूच के दौरान अनेक महिला आंदोलनकारी पुलिस के क्रूर व अमानवीय दमनचक्र का शिकार हुईं, जबकि दर्जनों महिलाएं गिरफ्तार हुईं। आगे महिलाओं ने दिसंबर 1994 में राज्य आंदोलन में राज्य आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए डा. धनेश्वरी तोमर के संयोजकत्व में ‘उत्तराखंड महिला मंच’ का गठन किया।

अंग्रेजों के आगमन (1815) से ही अपना अलग अस्तित्व तलाशने लगा था उत्तराखंड

नैनीताल। नौ नवंबर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आए उत्तराखंड राज्य का गठन बहुत लंबे संघर्ष और बलिदानों के फलस्वरूप हुआ। क्षेत्रीय जनता ने अंग्रेजों को 1815 में सिगौली की संधि के साथ इसी शर्त के साथ अपनी जमीन पर पांव रखने दिये थे कि वह उनके परंपरागत कानूनों के साथ उन्हें अलग इकाई के रूप में रखेंगे। ब्रिटिश कुमाऊं के पहले कमिश्नर बने ई गार्डनर के बीच 27 अप्रैल 1815 को हुई सिगौली की संधि में इस भूभाग को अलग प्रशासनिक अधिकार दिये जाने की शर्त रखी गई थी, जिसे अलग पटवारी व्यवस्था जैसे कुछ प्रावधानों के साथ कुछ हद तक मानते हुए अंग्रेजी दौर से ही प्रशासनिक व्यवस्था उनके हक-हकूकों पर पाबंदी लगाती रही। इसी कारण कभी यहां विश्व को वनों के संरक्षण का संदेश देने वाला ‘मैती आंदोलन’ तो कभी देश को नया वन अधिनियम देने वाला ‘वनांदोलन’ लड़ा गया। सितम्बर 1916 में, बाद में स्वतंत्र भारत के दूसरे गृह मंत्री बने गोविन्द बल्लभ पंत, ‘कुमाऊं केसरी’ बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत, इंद्र लाल साह, मोहन सिंह दड़मवाल, चन्द्र लाल साह, प्रेम बल्लभ पांडे, भोला दत्त पांडे व लक्ष्मीदत्त शास्त्री आदि के द्वारा ‘कुमाऊं परिषद्’ की स्थापना की गई, जो कि 1926 में स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए कांग्रेस में समाहित हो गई। 27 नवम्बर 1923 को संयुक्त प्रांत के गवर्नर को ज्ञापन देकर पूर्व की तरह अलग इकाई बनाए रखने की मांग की। आगे वर्ष 1940 में कांग्रेस के हल्द्वानी सम्मेलन में बद्री दत्त पांडे ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊं-गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन करने की मांगें रखीं। 1952 में सीपीआई नेता कामरेड पीसी जोशी ने अलग राज्य की मांग उठाई। 1954 में विधान परिषद के सदस्य इंद्र सिंह नयाल (वर्तमान कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता) ने यूपी के मुख्यमंत्री बने गोविंद बल्लभ पंत के समक्ष विधान परिषद में पर्वतीय क्षेत्र के लिए पृथक विकास योजना बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसके फलस्वरूप 1955 में फजल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की। वर्ष 1973 से यूपी में उत्तराखंडवासियों को कुछ दिलासा देने को पर्वतीय विकास विभाग का गठन कर दिया गया, लेकिन बात नहीं बनी। 24 जुलाई 1979 को पृथक राज्य के गठन के लिए मसूरी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के भौतिकी वैज्ञानिक एवं गांधीवादी विचारक कुमाऊं विवि के कुलपति डा. डीडी पंत की अगुवाई में हुई बुद्धिजीवियों की बैठक में उत्तराखंड क्रांति दल नाम से राजनीतिक दल का गठन किया गया। नवम्बर 1987 में पृथक राज्य के गठन के लिए नई दिल्ली में प्रदर्शन हुआ और राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजकर हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की मांग की गई। आगे 1994 में यूपी में अन्य पिछड़ी जातियों को 27 फीसद आरक्षण देने के विरोध में सुलगे आरक्षण आंदोलन की चिनगारी राज्य आंदोलन की मशाल बन उठी। इस आंदोलन के छह वर्ष बाद उत्तराखंड राज्य का गठन किया गया।

पूर्व समाचार : हाईकोर्ट के फैसले से आहत अधिवक्ता बोले-उत्तराखंड ‘संपूर्ण राज्य’ नहीं, जानें क्यों ?

-कहा-आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने हर हद तक जाएंगे
-19 को नैनीताल में बुलाई राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ की प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक

नवीन समाचार, नैनीताल, 6 दिसंबर 2018। राज्य आंदोलनकारियों के साथ हुए मुजफ्फरनगर कांड के मामले को गत दिवस आये फैसले पर उच्च न्यायालय के ही अधिवक्ताओं द्वारा पुर्नजीवित किये गये उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ के सदस्य बुरी तरह से आहत हैं। संघ के अध्यक्ष ने कहा, उच्च न्यायालय के इस फैसले से साबित होता है कि गठन के 18 वर्ष के बाद भी उत्तराखंड ‘souverain state’  यानी संपूर्ण राज्य नहीं है। इसीलिये उच्च न्यायालय को कहना पड़ा है कि राज्यवासी राज्य आंदोलनकारियों के मामले यूपी के घटनास्थल पर दायर किये जाएं। जबकि संपूर्ण राज्य की परिकल्पना न्याय को पीड़ित के द्वार पर पहुंचाने की है। कहा कि राज्य आंदोलन में अपनी जान एवं इज्जत गंवाने वाले भाई-बहन आंदोलनकारियों को न्याय गंवाने के लिए संघ संगठित होकर हर हद तक जाएगा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्याय की लड़ाई लड़ रहे रवींद्र जुगरान को भी पूरी मदद दी जाएगी। इस संबंध में आगे की रणनीति बनाने के लिए आगामी 19 दिसंबर को संघ की प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक आहूत कर दी गयी है, जिसमें अधिवक्ताओं के साथ ही अन्य संगठनों के सदस्यों को भी आमंत्रित किया जा रहा है।
बृहस्पतिवार को नगर के एक होटल में आयोजित पत्रकार वार्ता में संघ के अध्यक्ष रमन शाह, महासचिव एमसी पंत एवं सैयद नदीम मून व पूर्व सांसद डा. महेंद्र पाल आदि ने कहा कि अलग राज्य बनने के बाद से लगातार उत्तराखंड अपने निर्णय स्वयं नहीं ले पा रहा है, और यह सिलसिला अब भी जारी है। यह भी कहा कि वास्तव में उच्च न्यायालय ने जिस मामले को गत दिवस निस्तारित करते हुए यूपी में मामला दायर करने की बात कही है, उसे उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए स्वयं ही जनहित याचिका के रूप में लिया था, जबकि पहले ही राज्य आंदोलनकारी आरक्षण के विषय पर अपने राज्य की जगह सर्वोच्च न्यायालय में तथा मुजफ्फरनगर में दर्ज सात मामलों के लखनऊ स्थानांतरित होने के बाद वहां न्याय की लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं, और इस लड़ाई में एक गवाह की ट्रेन में हत्या भी हो चुकी है। जबकि राज्य सरकार को अपने लोगों की लड़ाई स्वयं लड़नी चाहिए थी। इस दौरान राज्य के अस्तित्व को बचाने के लिए भूअध्यादेश लाने तथा राज्य के उद्योगों में स्थानीय निवासियों की सेवा की भागीदारी व सेवा सुरक्षा हेतु अनिवार्य कानूनी उपबंध संबंधी प्रस्ताव राज्य व केंद्र सरकार को भेजने का निर्णय भी लिया गया। इस अवसर पर संघ के भुवनेश जोशी, रवींद्र बिष्ट, महेश उप्रेती, नंदन सिंह कन्याल, त्रिभुवन फर्त्याल, दुर्गा सिंह मेहता, डा. कैलाश तिवारी, राकेश नेगी, डीएस बिष्ट, वीरेंद्र अधिकारी, भगवत सिंह, कौशल साह जगाती, हेम लोहनी व विशाल मेहरा आदि सदस्य अधिवक्ता भी मौजूद रहे।

पूर्व समाचार : राज्य आंदोलनकारियों पर हाईकोर्ट के फैसले के बाद अधिवक्ताओं ने किया बड़ा एलान

-उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ को किया पुर्नजीवित, राज्य आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने तक लगातार लड़ने का लिया संकल्प

रमन शाह

नवीन समाचार, नैनीताल, 3 दिसंबर 2018। सोमवार को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के उत्तराखंड आंदोलन से संबंधित मामले में विपरीत निर्णय आने के बाद उत्तराखंड उच्च न्यायालय के अधिवक्ता भी आहत हुए हैं। अधिवक्ताओं ने ऐसे फैसले आने के आने के बाद पूर्व सांसद डा. महेंद्र पाल की अध्यक्षता एवं रविंद्र बिष्ट के संचालन में बैठक की, और राज्य आंदोलनकारियों को सहायता दिलाने के लिए ‘उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ उत्तराखंड’ को पुर्नर्जीवित कर दिया। बैठक में उच्च न्यायालय की ओर से खासकर खटीमा, मसूरी व मुजफ्फरनगर के आंदोलनकारियों पर हुए अत्याचार तथा उत्तराखंड आंदोलनकारियों को मिले सम्मान पर उत्तराखंड के विपरीत निर्णय पर विचार किया गया। वक्ताओं ने कहा कि राज्य आंदोलनकारियों को मिला सम्मान ‘अवार्ड’ नहीं ‘रिवार्ड’ यानी पुरस्कार नहीं ईनाम है।
कहा कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत विधिक आंदोलन था। संविधान के 19 बी के तहत आंदोलनकारियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ था, जिस कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मानव अधिकारों का हनन मानते हुए राज्य आंदोलनकारियों के पक्ष में ‘रिवार्ड’ घोषित किया था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी सही ठहराया, किंतु कुछ बिंदु समाप्त किये। किंतु उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने आतंकवादी व आंदोलनकारी में कोई फर्क नहीं माना इसलिए आंदोलनकारी अब सर्वोच्च न्यायालय की शरण में हैं, और सर्वोच्च न्यायालय में प्रक्रिया जारी है।

रमन शाह बने अध्यक्ष, मनोज पंत महासचिव

नैनीताल। बैठक में आंदोलन के दौरान कोटद्वार अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष रमन कुमार शाह को संघ का अध्यक्ष, देहरादून के अधिवक्ता मनोज पंत को महासचिव मनोनीत किया गया। साथ ही आगे सभी 13 जिलों में अधिवक्ताओं से विचार विमर्श करके वृहद कार्यकारिणी बनाने तथा राज्य आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने तक संघर्ष जारी रखने का निर्णय लिया गया। इसके अतिरिक्त सुरेंद्र पुंडीर, राम सिंह संबल, महेश परिहार, दीवान बिष्ट, राम सिंह बसेड़ा, जगमोहन नेगी सहित 30 उपाध्यक्ष, तथा रवींद्र बिष्ट, रघुवीर कठैत, चंद्रमोहन बर्थवाल, गंगा सिंह नेगी, दुर्गा सिंह मेहता, बीएस पाल, अजय पंत, ध्यान सिंह नेगी, विनोद तिवारी, हयात बिष्ट, जय बिष्ट, शार्दुल नेगी, मनोज चौहान, भुवनेश जोशी, राजेंद्र टम्टा व सुनील चंद्रा को सचिव तथा त्रिभुवन फर्त्याल व प्रभाकर जोशी आदि को उपसचिव एवं प्रख्यात राज्य आंदोलनकारी स्वर्गीय निर्मल जोशी की पत्नी वरिष्ठ अधिवक्ता पुष्पा जोशी व बार काउंसिल के पूर्व सदस्य डीके शर्मा, वीबीएस नेगी व अवतार सिंह रावत सहित 10 वरिष्ठ अधिवक्ताओं को विशेष आमंत्रित सदस्य बनाया गया है।

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-राज्य सरकार का शपथ पेश बना आधार, जिसमें यूपी में बताया गया घटनास्थल का न्याय क्षेत्र
नैनीताल, 3 दिसंबर 2018। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों के मामले में स्वतः सज्ञान लेने से सम्बंधित जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए इसे निस्तारित कर दिया है। मुख्य न्यायधीश रमेश रंगनाथन व न्यायमूर्ति रमेश चंद्र खुल्बे की खंडपीठ ने यह कहा है कि यह मामला उत्तर प्रदेश के मुज्जफरनगर से जुड़ा है। इसलिये मामला उत्तर प्रदेश में दायर किया जाये। उल्लेखनीय है कि पूर्व में उच्च न्यायालय ने सरकार से इस मामले में जवाब पेश करने को कहा था। सोमवार को न्यायालय के आदेश पर उत्तराखंड सरकार की ओर से शपथपत्र पेश किया गया जिसमंे कहा गया कि यह मामला 1994 का है। तब उत्तराखंड यूपी से अलग नही हुआ था।
उत्तराखंड सरकार के द्वारा सभी पीड़ितों को उचित मुआवजा व पेंशन दी जा रही है। यदि कोई पीड़ित छूट़ गया है तो वह उत्तर प्रदेश सरकार के सामने अपने पक्ष रखे क्योंकि यह मामला उत्तर प्रदेश से जुड़ा है और इसका न्यायिक क्षेत्र भी उत्तर प्रदेश में ही है। पूर्व में न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव गृह को मामले में पक्षकार बनाते हुए उनसे पूछा था कि मुज्जफरनगर कांड में जिम्मेदार पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियो पर क्या कार्रवाई हुई और तमाम अदालतों में मुजफरनगर कांड से संबंधित मुकदमों का स्थिति क्या है, और उसकी रिपोर्ट कोर्ट में पेश करने को कहा था।

इस तरह हुई थी उत्तराखंड आंदोलनकारियों के साथ बर्बरता

नैनीताल। उत्तराखंड राज्य की अलग माँग को लेकर पूरे प्रदेश के आंदोलनकारी 2 अक्तूबर 1994 को दिल्ली में विशाल प्रदर्शन के लिए कूच कर रहे थे। इसी दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने आंदोलनकारियों को दिल्ली जाने से रोकने के आदेश दिए, और पुलिस ने तत्कालीन सरकार के आदेश पर 1 अक्टूबर की रात को सभी आंदोलनकारियों को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर रोक लिया। रोके जाने से आंदोलनकारी नाराज हुए तो पुलिस ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर फायरिंग कर दी, जिसमें दर्जन भर पुरुष और महिला आंदोलकारी शहीद हो गए, और सैकडो आंदोलनकारी घायल हो गए। साथ ही आंदोलन में दिल्ली जा रही महिला आंदोलनकारियों के साथ दुष्कर्म भी किया गया।

उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेकर याचिका की थी दर्ज

नैनीताल। मुजफ्फरनगर कांड में पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिलने व फायरिंग के आरोपितों पर कार्रवाई नहीं होने पर उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने 5 अक्टूवर 2018 को एक समाचार पत्र में छपी खबर का संज्ञान लेकर जनहित याचिका के रूप में स्वतः सज्ञान लिया था, और मामले को ‘इन द मैटर आफ डिमांड आफ जस्टिस फॉर प्रो स्टेटहुड पीपुल’ के नाम से जनहित याचिका दर्ज की थी। याचिका में कहा गया था कि अभी तक आरोपियों को सजा नही मिल पाई है। अधिकांश आरोपी अदालतो से बरी हो चुके हैं, यहां तक की इनकी फाइले भी न्यायालयों से गायब हो चुकी है।

उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों को न्याय मिलने की अब कोई उम्मीद नहीं बची

‘रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा होगी और उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों को न्याय जरूर मिलेगा.’ उत्तराखंड की जनता को आश्वासन देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने यह बयान दिया था। लेकिन इस बयान की व्यावहारिकता जाँचने के लिए जब न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 22 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है।

उत्तराखंड की सभी सरकारें, राज्य आंदोलनकारी परिषद् के सभी पदाधिकारी और आंदोलनकारियों के तमाम छोटे-बड़े मोर्चे समय-समय पर शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की बातें करते रहे हैं। लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना था, वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहीं। नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक-एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गए। बेहद गिने-चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगी।

सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह भी है कि जिन लोगों पर शहीद आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की जिम्मेदारी थी, उनमें से किसी को यह खबर तक नहीं है कि आंदोलनकारियों से जुड़े मुकदमों का आखिर हो क्या रहा है। उत्तराखंड आंदोलनकारी परिषद् के तमाम पदाधिकारी, सत्ता पक्ष और विपक्ष के तमाम नेता और इन मामलों के लिए नियुक्त किये गए वकीलों तक को यह जानकारी नहीं है कि आंदोलनकारियों के कितने मामले अभी लंबित हैं, ये किन न्यायालयों में हैं, किन धाराओं के तहत दर्ज हैं और इनमें कुल कितने आरोपित या पीड़ित हैं। इन न्यायिक मामलों की वर्तमान स्थिति को एक-एक कर समझने से पहले संक्षेप में उत्तराखंड आंदोलन की उन घटनाओं को समझते हैं जिनमे दर्जनों आंदोलनकारी शहीद हुए थे और जिन घटनाओं के चलते ये मामले दर्ज किये गए।

उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास में साल 1994 सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। यही वह साल था जब पृथक राज्य की मांग एक व्यापक जनांदोलन में तब्दील हुई और इसी साल इस आंदोलन को कुचलने के लिए कई नरसंहारों को भी अंजाम दिया गया। ‘उत्तराखंड महिला मंच’ से जुड़ी राज्य आंदोलनकारी निर्मला बिष्ट बताती हैं, ‘1994 में उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया था। इस फैसले का पूरे उत्तराखंड में विरोध हुआ और यह जल्द ही एक आंदोलन में बदल गया। ‘आरक्षण का एक इलाज, पृथक राज्य-पृथक राज्य’ का नारा दिया गया और दशकों पुरानी यह मांग इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य बन गई।’

1994 में जैसे-जैसे उत्तराखंड आंदोलन में जनता की भागीदारी बढती गई, वैसे-वैसे तब की उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार के इसे दबाने के प्रयास भी बढ़ते चले गए। अगस्त के महीने में पौड़ी, उत्तरकाशी, नैनीताल, ऋषिकेश, कर्णप्रयाग, उखीमठ और पिथौरागढ़ में दर्जनों लाठीचार्ज हुए जिनमें सैकड़ों आंदोलनकारी घायल हुए। सितंबर आते-आते यह पुलिसिया दमन बेहद बर्बर हो गया और आंदोलनकारियों पर सिर्फ लाठीचार्ज ही नहीं बल्कि फायरिंग तक की जाने लगी। सितंबर की शुरूआत में ही खटीमा और मसूरी में दो गोलीकांड हुए जिनमें एक दर्जन से ज्यादा आंदोलनकारी पुलिस की गोलियों का शिकार हो गये।

इन घटनाओं के ठीक एक महीने बाद वह दिन आया जिसे आज तक उत्तराखंड में ‘काला दिवस’ के रूप में जाना जाता है। यह दिन था दो अक्टूबर 1994। उत्तराखंड के हजारों आंदोलनकारी इस दिन पृथक राज्य की शांतिपूर्ण मांग के लिए दिल्ली जा रहे थे। लेकिन एक अक्टूबर की रात को ही इन आंदोलनकारियों की सैकड़ों गाड़ियों को मुज़फ्फरनगर के रामपुर तिराहे के पास रोक लिया गया। यहां आंदोलनकारियों को पुलिस के सबसे बर्बर रवैये का शिकार होना पड़ा। पुलिस ने कई आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार किया और कई लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी। दो अक्टूबर को हुए इस ‘रामपुर तिराहा कांड’ को देश में पुलिसिया बर्बरता की सबसे क्रूर घटनाओं में से एक माना जाता है।
रामपुर तिराहा कांड के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दाखिल हुई जिनमें उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर हुए अत्याचार की सीबीआई से जांच करवाने की मांग की गई थी। न्यायालय ने इस मांग को स्वीकार किया और जल्द ही सीबीआई को यह जांच सौंप दी गई। सीबीआई की जांच के दौरान ही नौ फ़रवरी 1996 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक और फैसला दिया जिसे उत्तराखंड आंदोलनकारियों के मामलों में अब तक का सबसे ऐतिहासिक फैसला माना जाता है।

इस फैसले में न्यायालय ने सरकार को आदेश दिए कि उत्तराखंड आंदोलन में शहीद हुए लोगों के परिजनों और बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं को दस लाख रूपये, उत्पीड़न का शिकार हुई महिलाओं को पांच लाख रूपये, आंशिक विकलांग हुए आंदोलनकारियों को ढाई लाख रूपये, गैरकानूनी तौर से जेलों में बंद किये गए आंदोलनकारियों को 50 हजार रूपये और घायल हुए आंदोलनकारियों को 25-25 हजार रूपये का मुआवजा दिया जाए। उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद कई आंदोलनकारियों को मुआवजा दिया भी गया लेकिन 13 मई 1999 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी।

अब बात करते हैं रामपुर तिराहा कांड से जुड़े उन आपराधिक मामलों की जिनकी जांच सीबीआई को सौंपी गई थी। इन मामलों में एक पक्ष की पैरवी करने वाले मुज़फ्फरनगर के अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘सबसे पहले इन मामलों की सुनवाई देहरादून की सीबीआई अदालत में होना तय हुई थी। लेकिन आरोपित पुलिसकर्मियों ने प्रार्थनापत्र देते हुए कहा कि देहरादून में उन्हें जान का खतरा हो सकता है लिहाजा यह सुनवाई देहरादून से बाहर की जाए। तब उच्च न्यायालय ने इन मामलों की सुनवाई मुरादाबाद की सीबीआई अदालत में करने के आदेश दिए।’
मुरादाबाद में इन मामलों की सुनवाई अभी शुरू ही हुई थी कि छह जनवरी 1999 को अदालत से लौटते हुए पुलिस कांस्टेबल सुभाष गिरी की हत्या कर दी गई। सुभाष गिरी भी रामपुर तिराहा कांड में आरोपित थे लेकिन वे सीबीआई के गवाह बन चुके थे और माना जाता है कि उनकी गवाही कई बड़े अधिकारियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकती थी। सीबीआई के इस मुख्य गवाह की हत्या ने रामपुर तिराहा कांड के पीड़ितों के मन में अपनी सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए। इसके बाद से इस मामले से जुड़े पीड़ित और गवाह सुदूर पहाड़ों से मुरादाबाद आने में और भी हिचकने लगे।

यह लापरवाही आरोपितों के पक्ष में गई और कई मामलों में आरोप ही तय नहीं हो सके। कुछ अन्य मामले इसलिए भी बंद हो गए क्योंकि सीबीआई तय समय सीमा के भीतर इन मामलों में आरोपपत्र ही दाखिल नहीं कर सकी थी।

दूसरी तरफ सीबीआई की लापरवाही के चलते भी रामपुर तिराहा कांड के कई आरोपित आरोपमुक्त हो गए। अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘रामपुर तिराहा कांड के अधिकतर मामले आरोप तय होने के स्तर पर ही ख़ारिज हो गए थे। सीबीआई ने अधिकतर मामलों में आरोपित अधिकारियों पर अभियोग चलाने के लिए आवश्यक अनुमति ही नहीं ली थी। यह लापरवाही आरोपितों के पक्ष में गई और कई मामलों में आरोप ही तय नहीं हो सके। कुछ अन्य मामले इसलिए भी बंद हो गए क्योंकि सीबीआई तय समय सीमा के भीतर इन मामलों में आरोपपत्र ही दाखिल नहीं कर सकी थी। और कुछ इसलिए कि इन सालों के दौरान मुख्य आरोपितों की मौत हो गई थी।’

आज स्थिति यह है कि रामपुर तिराहा कांड से संबंधित अब सिर्फ चार मामले ही बाकी रह गए हैं। ये चारों मामले मुज़फ्फरनगर जिला न्यायालय में लंबित हैं। इन मामलों के मुरादाबाद से मुज़फ्फरनगर आने के बारे में सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘ऐसा सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों पर हुआ। एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिए थे कि मामलों की सुनवाई वहीं की जाएगी जहां अपराध हुआ हो। लिहाजा बचे हुए मामलों को मुरादाबाद से मुज़फ्फरनगर ट्रांसफर कर दिया गया।’ मुज़फ्फरनगर में लंबित इन चार मामलों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है:

महिलाओं के साथ हुए अपराधों से संबंधित मामले
रामपुर तिराहा कांड में महिलाओं पर हुए अत्याचारों के लिए कुल दो मामले दाखिल हुए थे। ये दोनों ही मामले आज भी लंबित हैं। इनमें पहला है- ‘सीबीआई बनाम मिलाप सिंह व अन्य।’ इस मामले में पीएसी के दो कांस्टेबल आरोपित हैं जिनपर आईपीसी की धारा 120बी, 354, 323, 376, 392 और 509 के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। सीबीआई द्वारा इस मामले में दाखिल किए गए आरोपपत्र के अनुसार मिलाप सिंह और वीरेंद्र प्रताप नाम के पीएसी के जवानों ने कमला खंडूरी (बदला हुआ नाम) के साथ बलात्कार किया, उनसे मारपीट की और उनकी नकदी व गहने लूट लिए। आरोप पत्र में यह भी जिक्र है कि जांच के दौरान फोटो दिखाए जाने पर कमला खंडूरी ने दोनों आरोपितों को पहचान लिया है।

इस मामले की वर्तमान स्थिति यह है कि पिछले 22 सालों में इसमें सिर्फ दो ही गवाहों के बयान दर्ज हो सके हैं। कमला खंडूरी कहती हैं, ‘मुज़फ्फरनगर जाने का ख़याल तक मुझे डरा देता है। लेकिन फिर भी किसी तरह हिम्मत जुटाकर मैं तीन बार गवाही के लिए वहां जा चुकी हूं। लेकिन कभी वहां हड़ताल हो जाती है तो कभी किसी और कारण से गवाही नहीं हो पाती।’ वे आगे बताती हैं, ‘कुछ साल पहले मेरे ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था। उस हमले में मेरा कंधा भी टूट गया था। लेकिन इसके बाद भी सरकार ने कभी हमारी सुरक्षा की चिंता नहीं की। इस राज्य की लड़ाई में हमने जो कुछ खोया है उसके लिए कोई सम्मान देना तो दूर, किसी भी मुख्यमंत्री ने कभी भी हमारा हाल तक जानने की कोशिश नहीं की।’ बीते 22 सालों में कमला खंडूरी ने जो अनुभव किया है, उसके चलते उनकी यह उम्मीद समाप्त हो चुकी है कि उन्हें अब कभी न्याय मिल सकेगा। वे कहती हैं, ‘अब मैं गवाही के लिए भी नहीं जाना चाहती। वहां जाकर सिर्फ बुरी यादें ही ताजा होती हैं। 22 साल में जब कुछ नहीं हुआ तो अब शायद किसी को सजा होगी भी नहीं।’

रामपुर तिराहा कांड में महिलाओं के साथ हुए अपराधों से जुड़ा दूसरा और आखिरी मामला है- ‘सीबीआई बनाम राधा मोहन द्विवेदी व अन्य।’ यह मामला सबसे ज्यादा गंभीर है लेकिन फिर भी इसकी वर्तमान स्थिति सबसे बुरी है। यह मामला 16 आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार और शारीरिक शोषण जैसे जघन्य अपराध पुलिस हिरासत में रहने के दौरान हुए अपराधों का है। सीबीआई द्वारा दाखिल किये गए आरोपपत्र के अनुसार इनमें से तीन महिलाओं के साथ बलात्कार या सामूहिक बलात्कार जैसे अपराध किए गए और 13 महिलाओं का शारीरिक शोषण किया गया, उनके कपड़े फाड़े गए और उनके साथ लूटपाट भी की गई। इस मामले में कुल 27 पुलिसकर्मियों को आरोपित बनाया गया है जिनपर आईपीसी की धारा 120बी, 376, 354, 392, 323 और 509 के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। 

आरोप पत्र के अनुसार तत्कालीन एसओ राधा मोहन द्विवेदी ने एक अक्टूबर 1994 की रात कुल 345 लोगों को हिरासत में लिया था। इनमें 298 पुरुष और 47 महिलाएं शामिल थीं। सीबीआई के आरोप पत्र में जिक्र है कि ‘गिरफ्तार की गई महिलाओं में से तीन महिलाओं के साथ पुलिस हिरासत में रहते हुए ही बलात्कार किये जाने और 13 महिलाओं के शारीरिक शोषण किये जाने की बात सामने आई है।’ इस मामले की वर्तमान स्थिति यह है कि बीते दस सालों से तो यह पूरी तरह से बंद पड़ा है। साल 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई पर अस्थायी रोक लगा दी थी। दस साल बीत चुकने के बाद यह ‘अस्थायी’ रोक अभी भी बरकरार है।

इस मामले की 16 पीड़िताओं में से एक, मधु भंडारी (बदला हुआ नाम) कहती हैं, ‘मुझे यह भी नहीं मालूम कि उन पुलिसवालों को सजा देने के लिए कोई मुकदमा चल भी रहा है या नहीं। मुझे आज तक कभी किसी कोर्ट में बयानों के लिए नहीं बुलाया गया। राज्य बनने पर हमें उम्मीद जगी थी कि अब हमें न्याय जरूर मिलेगा, लेकिन तब से आज तक हमें अपमान के अलावा कुछ नहीं मिला।’ मधु आगे कहती हैं, ‘राज्य बनने के कुछ समय बाद हम लोग मुख्यमंत्री से मिलने देहरादून गए थे। वहां हमारे बारे में कहा गया – ‘ये आ गयी मुज़फ्फरनगर कांड वाली, दस लाख वाली।’ उस दिन के बाद से मैं कभी किसी मुख्यमंत्री के पास नहीं गई। आज भी वो शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं।’

इन मामलों की निगरानी के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा नियुक्त किये गए विशेष अधिवक्ता केपी शर्मा कहते हैं, ‘ये दोनों ही सीबीआई के केस हैं इसलिए हम इन मामलों में चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। वैसे हमने सीबीआई को लिखा है कि राधा मोहन द्विवेदी वाला केस, जो पिछले दस साल से लटका पड़ा है, उसकी सुनवाई उच्च न्यायालय से आर्डर लेकर जल्दी ही शुरू करवाई जाए। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय तो समुद्र की तरह है। वहां जो केस एक बार खो जाता है उसका मिलना फिर बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन हम कोशिश कर रहे हैं।

रामपुर तिराहा कांड से जुड़े अन्य मामले
महिलाओं के साथ हुए अपराध के दो मामलों के अलावा दो और मामले हैं जो आज भी मुज़फ्फरनगर की अदालतों में लंबित हैं। ये दोनों मामले मजिस्ट्रेट कोर्ट में चल रहे हैं। इनमें पहला है- ‘सीबीआई बनाम एसपी मिश्रा व अन्य।’ आईपीसी की धारा 120बी और 201 के तहत चल रहे इस मामले में कुछ पुलिसकर्मियों पर आरोप है कि उन्होंने आपराधिक षड्यंत्र रचा और आंदोलनकारी शहीदों की लाशों को रामपुर तिराहे से कुछ दूरी पर गंगनहर में फेंक दिया था। इस मामले में बचाव पक्ष की पैरवी कर रहे अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा अपनी डायरी खंगालते हुए बताते हैं, ‘इस मामले में अभी आरोप भी तय नहीं हुए हैं। फिलहाल तो उस कोर्ट में कोई जज ही नहीं है जहां ये मामला लंबित है। जज आएंगे तो फिर आरोप तय होने के लिए बहस होगी।’

मजिस्ट्रेट कोर्ट में लंबित दूसरा मामला है- ‘सीबीआई बनाम बृज किशोर व अन्य।’ आईपीसी की धारा 218, 211, 182 और 120बी के अंतर्गत चल रहे इस मुकदमे में पुलिसकर्मियों पर झूठी बरामदगी दिखाने (जैसे कि हथियार, पेट्रोल आदि) के आरोप हैं। रामपुर तिराहा कांड से जुड़े कुल चार लंबित मामलों में यही सबसे ‘तेजी’ से चलता दिखता है। इस मामले में बीते 22 सालों में कुल 13 लोगों की गवाही हो चुकी है।
क्या रामपुर तिराहा कांड के आरोपित जानबूझकर इन सभी मामलों में देरी करवा रहे हैं ताकि वे सजा पाने से बच सकें ? इस सवाल के जवाब में बचाव पक्ष के वकील सुरेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘आप पिछले 22 साल का कोर्ट रिकॉर्ड जांच लीजिये। इन 22 सालों में मुश्किल से दो या तीन बार ही बचाव पक्ष ने तारीख आगे टालने की प्रार्थना की होगी। जबकि अभियोजन पक्ष (सीबीआई) लगभग हर दूसरी तारीख पर केस आगे टालने का ही आवेदन करता आया है।’ वे आगे कहते हैं, ‘इसका मुख्य कारण यह है कि मुज़फ्फरनगर में सीबीआई के वकील नहीं हैं। इसलिए इन मामलों की पैरवी के लिए उसके वकील दिल्ली से आते हैं। लिहाजा उनकी यही कोशिश रहती है कि उनका पैरोकार ही यहां आकर अगली तारीख ले जाए।’

इन मामलों में देरी का एक कारण यह भी है मुज़फ्फरनगर में अलग से कोई सीबीआई अदालत नहीं है। ऐसी अदालतें प्रदेश के कुछ सीमित जिलों में ही होती हैं। लिहाजा इन मामलों की सुनवाई के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय किसी एक जज को नियुक्त करता है। लेकिन जैसे ही उस जज का ट्रांसफर होता है ये मामले फिर से तब तक के लिए लटक जाते हैं जब तक सीबीआई दोबारा इलाहाबाद तो इसी वजह से ‘सीबीआई बनाम मिलाप सिंह’ वाला मामला लंबित पड़ा था। कुछ दिन पहले ही उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई के लिए मुज़फ्फरनगर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (द्वितीय) को इसकी सुनवाई के लिए नियुक्त किया है।

रामपुर तिराहा कांड से संबंधित मामलों का सबसे दुखद पहलू यह है कि जो चार मामले आज न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें एक भी ऐसा नहीं है जिसमें शहीदों के हत्यारों को सजा हो सके। वे सभी मामले काफी समय पहले ही ख़ारिज हो चुके जिनमें आरोपित पुलिसकर्मियों और अधिकारियों पर आंदोलनकारियों की हत्या करने, गैर इरादतन हत्या करने या उनकी हत्या का प्रयास करने के आरोप लगाए गए थे। रामपुर तिराहा कांड में शहीद हुए सत्येन्द्र चैहान के भाई आशुतोष बताते हैं, ‘मुझे नहीं पता कोर्ट में क्या हुआ। मुझे सीबीआई ने 1994-95 के दौरान ही सिर्फ एक बार अपने भाई के कपड़ों की पहचान करने के लिए बुलाया था। उसके बाद से कभी किसी ने यह नहीं बताया कि उसकी हत्या के लिए कोई मुकदमा चला भी या नहीं और अगर चला तो उसका क्या हुआ।’

उत्तराखंड आंदोलन में सक्रियता से जुडी रही डॉ. उमा भट्ट बताती हैं, ‘इसमें कुछ दोष हमारा भी रहा कि हम न्यायालयों में लड़ाई को मजबूती से नहीं लड़ पाए। राज्य बनने के बाद भी हमने यह मुहिम चलाई थी कि शहीदों को न्याय मिलना और दोषियों को सजा होना, हमारे लिए राज्य निर्माण से भी बड़ा उद्देश्य था। हमने न्यायालयों से ख़ारिज होने वाले शुरूआती मामलों पर पुनर्विचार करवाने के भी प्रयास किये, लेकिन यह काम लगातार नहीं कर सके।’

डॉक्टर उमा भट्ट जैसे बेहद कम ही लोग हैं जो यह स्वीकार करते हैं कि रामपुर तिराहा कांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की लड़ाई में उनकी भी कुछ भूमिका होनी थी। बाकी राज्य बनने के बाद तरह-तरह की रेवड़ियां लूटने के फेर में इस लड़ाई को भूल गये। जनता ने भी इसमें उनका साथ दिया जिससे इस लड़ाई के लिए जरूरी दबाव कभी बन ही नहीं सका। नतीजा यह कि उत्तराखंड को बनाने के लिए जिन्होंने बड़ी कुर्बानियां दीं उनकी लड़ाई लड़ने वाला तो दूर अब कोई उनके बारे में सोचने वाला भी नहीं। (पत्रकार राहुल कोटियाल की बेहद खोजपरक रपट ‘सत्याग्रहडाॅटस्क्राॅलडाॅटइन’ से साभार)

पहले हाई कोर्ट ने ही 23 साल बाद राज्य आंदोलन के शहीदों-महिलाओं के लिए जगाई थी उम्मीदें

कोर्ट ने मामले को गंभीरता से लेते हुए जनहित याचिका के रूप में किया स्वीकार
-राज्य आंदोलनकारियों और महिलाओं के साथ हुई बर्बरता के मामले में सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सरकार से चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने के आदेश पारित
नैनीताल, 8 अक्तूबर 2018। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान दो अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा कांड में पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिलने व फायरिंग के आरोपितों पर कार्रवाई नहीं होने के मामले का हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया है। कोर्ट ने 23 साल बाद कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए इसे जनहित याचिका के रूप में स्वीकार सूचीबद्ध किया है। इससे शहीद, घायल आंदोलकारियों के साथ ही अस्मत लुटा चुकी महिलाओं को न्याय की उम्मीद जगी है।
मामले की सुनवाई करते हुए कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजीव शर्मा व न्यायमूर्ति मनोज कुमार तिवारी की खंडपीठ ने राज्य आंदोलन के दौरान एक अक्टूबर 1994 की रात राज्य आंदोलनकारियों और महिलाओं के साथ हुई बर्बरता के मामले में सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सरकार से चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने के आदेश पारित किए हैं। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव गृह को याचिका में पक्षकार बनाते हुए पूछा है इस मामले के जिम्मेदार पुलिस व प्रशासनिक अफसरों पर क्या कार्रवाई हुई और तमाम अदालतों में रामपुर तिराहा कांड से संबंधित मुकदमों की स्थिति क्या है।
उल्लेखनीय है कि रामपुर तिराहा पर पुलिस ने दिल्‍ली जा रहे उत्‍तराखंड राज्‍य आंदोलनकारियों पर कहर ढाया था। इलाहाबाद हाई कोर्ट में राज्य आंदोलन के दौरान खटीमा, मसूरी, मुजफ्फरनगर कांड के मामले में पांच-अलग जनहित याचिकाएं दायर की गईं तो सीबीआइ को जांच के आदेश दिए गए। सीबीआइ ने पांच आरोप पत्र सीबीआइ मजिस्ट्रेट मुजफ्फरनगर, दो सीबीआइ जज मुजफ्फरनगर तथा पांच सीबीआइ देहरादून में दाखिल किए। इसमें आरोपी तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह, आइजी नसीम, डीआइजी बुआ सिंह तथा दो दर्जन अन्य पुलिस अफसर शामिल थे। छह अप्रैल 1996 को देहरादून में सीबीआइ ने पांच केस दर्ज किए। इसमें डीएम अनंत कुमार सिंह, एसपी राजपाल सिंह, एएसपी एनके मिश्रा, सीओ जगदीश सिंह व सीओ का गनर सुभाष गिरी के खिलाफ धारा-304, 307, 324 व 326 के तहत केस दर्ज किया गया। सीबीआइ देहरादून ने 22 अप्रैल 1996 को इस मुकदमे में हत्या की धारा जोड़ दी। छह मई को पांचों आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद निजी मुचलके में रिहा कर दिया गया। राज्य आंदोलन में खटीमा, मसूरी, मुजफ्फरनगर व अन्य स्थानों पर 35 आंदोलनकारियों ने शहादत दी थी।

अब तक यह है मामले की स्थिति

मामले में आरोपी डीएम अनंत कुमार सिंह ने 2003 में नैनीताल हाई कोर्ट में रिट दायर की थी। 22 जुलाई को जस्टिस पीसी वर्मा व जस्टिस एमएम घिल्डियाल की कोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए सीबीआइ दून के हत्या की धारा जोड़ने संबंधी आदेश को निरस्त कर दिया। इस आदेश के खिलाफ आंदोलनकारियों ने पुनर्विचार याचिका दायर की। 22 अगस्त 2003 को डबल बेंच ने ही आदेश को रिकॉल कर लिया, साथ ही मामले को दूसरी बेंच के लिए स्थानांतरित कर दिया। 28 सितंबर 2004 में जस्टिस राजेश टंडन व जस्टिस इरशाद हुसैन की खंडपीठ ने अनंत कुमार सिंह की याचिका खारिज कर दी। इधर, सीबीआइ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के केस ट्रांसफर से संबंधित दस मामलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। साल 2005 में सीबीआइ की अपीलें खारिज कर दी। इसके बाद उत्तराखंड आंदोलनकारी मंच के अधिवक्ता रमन साह की ओर से हाई कोर्ट में प्रार्थना पत्र दाखिल किया गया। जस्टिस लोकपाल सिंह की कोर्ट ने जिला जज देहरादून को इस मामले की जांच रिपोर्ट मांगी, जबकि जस्टिस मनोज तिवारी की कोर्ट ने जांच रिपोर्ट में आपत्ति दाखिल करने के निर्देश दिए। याचिकाकर्ता रमन साह का कहना है कि जो मुकदमा 1996 में इलाहाबाद हाई कोर्ट से ट्रांसफर नहीं हुआ, उसकी सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं हो सकती। यहां यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस मामले में हाजिर माफी गवाह तत्कालीन सीओ के गनर सुभाष गिरि की 1996 में हत्या कर दी गई। मामले में सीबीसीआइडी ने फाइनल रिपोर्ट लगा दी।

बड़ा समाचार : राज्य आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण पर राज्य सरकार ने सभी दरवाजे किये बंद !

हाईकोर्ट के आदेश का दिया हवाला, जबकि सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है मामला
नवीन समाचार, देहरादून, 14 दिसंबर 2018। सर्वोच्च न्यायालय से जगी उम्मीद के बीच उत्तराखंड सरकार ने राज्य निर्माण आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण नहीं देने का आदेश देकर बड़ा झटका दे दिया है। इस फैसले से आंदोलनकारी आरक्षण से संबंधित पूर्व में जारी सभी आदेश, नियम और अधिसूचनाएं निरस्त हो गई हैं। अपर मुख्य सचिव-कार्मिक राधा रतूड़ी की ओर से सभी विभागों के साथ ही लोक सेवा आयेाग को भी हाईकोर्ट और सरकार के फैसले की जानकारी दे दी गई है। राज्य सरकार ने इस आदेश के लिए उच्च न्यायालय के फैसले को आधार बताया है, जबकि मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी चल रहा है। इस फैसले के बाद पहले ही उच्च न्यायालय में कमजोर पैरवी केरोपों में घिरी राज्य सरकार का राज्य आंदोलनकारियों के निशाने पर आना तय माना जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गत 7 मार्च 2018 को आरक्षण के मामले में आदेश दिया था। जबकि इधर पांच दिसंबर को जारी आदेश में अपर मुख्य सचिव ने आदेश में लिखा है कि हाईकोर्ट के इस आदेश के क्रम में राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण देने संबंधित राज्य सरकार के सभी परिपत्र, नियम और अधिसूचनाएं निरस्त हो गई हैं। लिहाजा सभी विभाग अपने स्तर पर भी कार्रवाई सुनिश्चित करें। सूत्रों के अनुसार इस फैसले से विभागों को अपनी भर्ती नियमावलियों को संशोधित करना पड़ेगा।

राजभवन में दो वर्ष से लटका था राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का विधेयक
उल्लेखनीय है कि राज्य निर्माण आंदोलनकारियों के लिए वर्ष 2004 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था की थी। लेकिन वर्ष 2013 में हाईकोर्ट ने क्षैतिज आरक्षण की इस व्यवस्था पर रोक लगा दी। इधर 2016 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए गैरसैंण में आयोजित विधानसभा सत्र में विधेयक पारित किया था। विधेयक को मंजूरी के लिए राजभवन भेजा गया था, लेकिन तब से इस विधेयक को मंजूरी नहीं मिली।

पूर्व समाचार: क्षैतिज आरक्षण चाह रहे राज्य आंदोलनकारियों के लिए सुप्रीम कोर्ट से आयी उम्मीद की खबर

    • राज्य आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण की याचिका मंजूर
    • सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य सचिव, सचिव गृह व जिलाधिकारियों को भेजा नोटिस जवाब देने के लिए एक माह का समय, अगली सुनवाई 26 को

नई दिल्ली 31 अक्टूबर 2018। उत्तराखंड के राज्य आंदोलनकारियों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण से संबंधित विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर ली है। वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। न्यायालय ने प्रदेश के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह व सभी जनपदों के जिलाधिकारियों के साथ ही उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी मंच को नोटिस जारी कर अगले 30 दिन में जबाव दाखिल करने के लिए कहा है। याचिका दाखिल करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह ने बताया कि उच्चतम न्यायालय ने सरकारी सेवा करने वाले राज्य आंदोलनकारी कोटे के सभी कर्मचारियों की सूची भी तलब की है। इस मामले की अगली सुनवाई अब 26 नवंबर को होगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य आंदोलनकारियों को दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के लाभ से संबंधित एसएलपी को स्वीकार किये जाने का राज्य आंदोलनकारी मंच ने स्वागत किया है। मंच के प्रदेश अध्यक्ष जगमोहन सिंह नेगी ने कहा कि मंच से जुड़े राज्य आंदोलनकारी इस मामले की उचित पैरवी करने के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह के साथ उपस्थित रहेंगे। याद हो कि राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी सेवाओं में दस प्रतिशत आरक्षण का लाभ दिये जाने का प्रावधान था। लेकिन कुछ समय पहले एक याचिका पर सुनवाई करते हुए नैनीताल उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों को मिलने वाले दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के लाभ को निरस्त कर दिया था। राज्य आंदोलनकारी की मांग पर विस में इस संदर्भ में बिल पेश किया गया लेकिन यह बिल पिछले लंबे समय से लंबित है। राज्य आंदोलनकारी बार-बार बिल को पास करने की मांग कर रहे थे। लेकिन राज्य सरकार ने उनकी एक नहीं सुनी। इस पर राज्य आंदोलनकारियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

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नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों के मामले में शुक्रवार को उत्तराखंड उच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की खंडपीठ में एक राय नहीं बनी। ऐसे में इस संबंध में आये दोनों पक्षों को समझना भी एक दिलचस्प कहानी है। खास बात यह भी है कि यह मामला शुरू से राज्य आंदोलनकारियों को मिलने वाले आरक्षण से संबंधित कहा जा रहा है, जबकि खास बात यह है कि मामले में आरक्षण पर सुनवाई ही कई वर्षो के बाद हुई है।इस मामले की शुरुआत 11 अगस्त 2004 को आये उत्तराखंड सरकार के शासनादेश संख्या 1269 से हुई। जिसके आधार पर कम से कम सात दिन जेल में रहे राज्य आंदोलनकारियों को उनकी योग्यता के अनुसार समूह ‘ग’ व ‘घ’ में सीधी भर्ती से नियुक्तियां दी गयीं। खास बात यह भी थी कि इस शासनादेश में कहीं भी राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का जिक्र नहीं था, अलबत्ता इसके साथ ही एक अन्य शासनादेश संख्या 1270 भी जारी हुआ था जिसमें उत्तराखंड राज्य के अंतर्गत सभी सेवाओं में राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देने का प्राविधान किया गया था।बहरहाल, हल्द्वानी निवासी एक राज्य आंदोलनकारी करुणेश जोशी ने नौकरी की मांग करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। बताया गया है कि करुणेश के पास सरकारी के बजाय निजी चिकित्सक का राज्य आंदोलन के दौरान घायल होने का प्रमाण पत्र था। इसी आधार पर उसे इस शासनादेश का लाभ नहीं मिला था। उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की एकल पीठ ने शासनादेश संख्या 1269 के बाबत राज्य सरकार की कोई नियमावली न होने की बात कहते हुए इस शासनादेश को असंवैधानिक करार देते हुए करुणोश की याचिका को खारिज कर दिया। इस पर राज्य सरकार ने वर्ष 2010 में सेवायोजन नियमावली बनाते हुए उसमें शासनादेश संख्या 1269 के प्राविधानों को यथावत रख लिया। इस पर करुणोश ने पुन: उच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर कर अब नियमावली होने का तर्क देते हुए उसे शासनादेश संख्या 1269 के तहत नियुक्ति देने की मांग की। इस बार न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की खंड ने याचिका के साथ ही शासनादेश संख्या 1269 को भी खारिज के साथ ही कर दिया, साथ ही मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर इस मामले को जनहित याचिका के रूप में लेने एवं राज्य सरकार की नियमावली की वैधानिकता की जांच करने की संस्तुति की। इस पर 26 अगस्त 2013 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बारिन घोष एवं न्यायमूर्ति एसके गुप्ता की खंडपीठ ने याचिका को स्वीकार करते हुए राज्य आंदोलनकारियों के लिए अंग्रेजी के ‘राउडी’ यानी अराजक तत्व शब्द का प्रयोग किया, साथ ही आगे से राज्य आंदोलनकारियों का आरक्षण देने पर रोक लगा दी। इस बीच एक अप्रैल 2014 को एक अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण देने पर भी रोक लगा दी। राज्य आंदोलनकारी एवं अधिवक्ता रमन साह ने वर्ष 2015 में इस शब्द पर आपत्ति जताते हुए और इस शब्द को हटाने और आरक्षण पर आये स्थगनादेश को निरस्त करने की मांग की। उनका कहना था कि राज्य आंदोलनकारी कभी भी अराजक नहीं हुए, उन्होंने सरकारी संपत्तियों को नुकसान भी नही पहुंचाया। इस बीच खंड पीठ में अलग-अलग न्यायाधीशगण आते रहे। आखिर न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया व न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की खंडपीठ ने ‘‘राउडी’ शब्द को हटा दिया, अलबत्ता आरक्षण पर स्थगनादेश और मामले पर सुनवाई जारी रही। साह का कहना था कि राज्य आंदोलनकारी ‘पीड़ित’ हैं। उन्होंने राज्य के लिए अनेक शहादतें और माताओं-बहनों के साथ अमानवीय कृत्य झेले हैं। लिहाजा उन्हें संविधान की धारा 16 (4) के तहत तथा इंदिरा सावनी मामले में संविधान पीठ के फैसले का उल्लंघन न करते हुए, यानी अधिकतम 50 फीसद आरक्षण के दायरे में ही जातिगत आरक्षण के इतर, संविधान के अनुच्छेद 47 के तहत बाढ़, भूस्खलन व दंगा प्रभावित आदि कमजोर वगरे को मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर मिलने वाले आरक्षण की तर्ज पर सामान्य वर्ग के अंतर्गत ही क्षैतिज आधार पर सामाजिक आरक्षण दिया जाना चाहिए। उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने गत 18 मार्च को सुनवाई पूरी कर इस पर फैसला सुरक्षित रख लिया था और शुक्रवार को फैसला सुनाया। फैसले में खंडपीठ के दोनों न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी ने शासनादेश संख्या 1269 की वैधता के संबंध में अलग-अलग फैसले देते हुए मामले को बड़ी पीठ को संदर्भित करने की संस्तुति की। आगे संविधान विशेषज्ञों के अनुसार मामले में मुख्य न्यायाधीश की ओर से इन दो न्यायाधीशों को छोड़कर अन्य तीन अथवा अधिक न्यायाशीशों की खंडपीठ गठित कर मामले की सुनवाई किया जाना तय माना जा रहा है।

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उत्तराखंड के राज्य आंदोलनकारियों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण से संबंधित विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर ली है। वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। न्यायालय ने प्रदेश के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह व सभी जनपदों के जिलाधिकारियों के साथ ही उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी मंच को नोटिस जारी कर अगले 30 दिन में जबाव दाखिल करने के लिए कहा है। याचिका दाखिल करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह ने बताया कि उच्चतम न्यायालय ने सरकारी सेवा करने वाले राज्य आंदोलनकारी कोटे के सभी कर्मचारियों की सूची भी तलब की है। इस मामले की अगली सुनवाई अब 26 नवंबर को होगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य आंदोलनकारियों को दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के लाभ से संबंधित एसएलपी को स्वीकार किये जाने का राज्य आंदोलनकारी मंच ने स्वागत किया है। मंच के प्रदेश अध्यक्ष जगमोहन सिंह नेगी ने कहा कि मंच से जुड़े राज्य आंदोलनकारी इस मामले की उचित पैरवी करने के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह के साथ उपस्थित रहेंगे। याद हो कि राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी सेवाओं में दस प्रतिशत आरक्षण का लाभ दिये जाने का प्रावधान था। लेकिन कुछ समय पहले एक याचिका पर सुनवाई करते हुए नैनीताल उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों को मिलने वाले दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के लाभ को निरस्त कर दिया था। राज्य आंदोलनकारी की मांग पर विस में इस संदर्भ में बिल पेश किया गया लेकिन यह बिल पिछले लंबे समय से लंबित है। राज्य आंदोलनकारी बार-बार बिल को पास करने की मांग कर रहे थे। लेकिन राज्य सरकार ने उनकी एक नहीं सुनी। इस पर राज्य आंदोलनकारियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

उत्तराखंड : 18 साल में बस नौकरशाह और राजनेताओं की पौ-बारह

  • कई निदेशालयों में चपरासी क्लास वन तक पहुंचे, शिक्षक और जनता को नहीं मिला कुछ भी
  • राज्य गठन के मुद्दे जस के तस, पलायन में इजाफा तो अपसंस्कृति का घना हुआ फैलाव

गणेश पाठक, हल्द्वानी। रात ठीक 12 बजे नवोदित उत्तराखंड राज्य ने एक कदम और बढ़ाकर 19वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। इसके साथ ही इन 18 सालों में राज्य ने क्या हासिल किया और क्या नहीं, इस पर भी मंथन का दौर शुरू हो गया है। कुछेक शब्दों में अगर 18 साल की उपलब्धि देखें तो मुख्यमंत्रियों की एक लंबी फेहरिस्त और तमाम जांच आयोगों का गठन सामने आ सकता है। इसके इतर कई नेताओं का उदभव व अवसान का भी इतिहास सृजित हुआ है। कई निदेशालयों में चतुर्थ श्रेणी में भर्ती हुए कर्मचारियों के क्लास वन अफसर तक का सफर भी याद किया जा सकता है। राज्य गठन के मुद्दे जस के तस तो स्थायी राजधानी पर छाया घना कोहरा भी राज्य की तकदीर की तस्दीक कर रहा है। किसी भी बच्चे के अठारह वसंत काफी महत्वपूर्ण होते हैं। यह बच्चे की नई तकदीर तय कर लेता है। हमारे मुल्क में तो 18 साल का युवा या युवती ताज सौंपने या तख्त पलटने का भी काम करते हैं। इसके विपरीत नवोदित राज्य उत्तराखंड के लिए अठारह साल काफी कम दिखाई दे रहे हैं। विकास की बात करें तो कांग्रेस या भाजपा की सरकार जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय, औद्योगिक विकास को गिना सकते हैं। अगर पड़ोसी राज्य हिमाचल के साथ तुलना कर देखा जाए तो जमीनी स्तर पर राज्य गठन का यह सफर खाली चला गया प्रतीत सा होता है। शुरू के पांच साल को छोड़कर बाकी समय खाली जाने जैसा लग रहा है। उद्यानीकरण, फूलों की खेती एवं कृषि सेक्टर में यही बदलाव आया है कि हरेक साल बंजर होती उपजाऊ धरती का रकबा बढ़ रहा है। इससे दोगुने वेग से पलायन हो रहा है। अविभाजित यूपी में गांव से शहर का पलायन था, अब तो शहरों से महानगर और महानगरों ने बड़े महानगर या सात समुद्र पार का पलायन नजर आ रहा है। उद्योगों में काम करने वाले कामगारों की स्थिति प्रेमचंद के सवा सेर गेहूं की याद दिला रही है तो संविदा कार्मिकों की बढ़ती फौज और उनकी माली हालत चिंताजनक दिख रही है। किसी गांव में सड़क तब जा रही है, जब गांव वाले सड़क न बनने से पलायन कर चुके हैं, जिन गांवों में अभी भी बसासट है, वहां सड़क बनने के लिए 1980 का वन अधिनियम (लोगों के हक हकूकों का काला कानून) फन फैलाए बैठा है। स्कूल बहुत खुल गए हैं, मगर स्कूलों में बच्चे हैं ही नहीं। अभी तक सरकार यह भी तय नहीं कर पा रही है कि उसे दिखावे के कान्वेंट स्कूल चाहिए या फिर परंपरागत स्कूलों की संरचना को ठीक किया जाए। अब तक के सफर में विकास को राज्य गठन की उपलब्धियों के साथ देखा जाए तो रिटार्यड हुए मुख्यमंत्रियों की फौज सामने दिखती है। दोनों ही राष्ट्रीय दलों में सीएम बनाने या बाहर करने की होड़ सी रही है। इसी कारण 2000 से अब तक केवल एनडी तिवारी ही पांच साल सीएम रह सके हैं। इससे पहले नित्यानंद स्वामी के बदले भगत सिंह कोश्यारी को राज्य सौंपा गया तोबाद में बीसी खंडूड़ी को भी पहले काम न करने देकर डा. रमेश पोखरियाल निशंक को लाया गया और इनसे जी भरा तो खंडूड़ी की वापसी हुई। कुदरत का करिश्मा देखिए खंडूड़ी जरूरी होने के बावजूद चुनाव हार गए। इसके बाद कांग्रेस की वापसी हुई और विजय बहुगुणा जरूरी लगे तो केदारनाथ आपदा के बाद बहुगुणा की भी विदाई कर दी। अब हरदा जरूरी बने तो वे चुनाव में खंडूड़ी का रिकार्ड तोड़ते नजर आये। एक नहीं बल्कि दो जगह से चुनाव हार गए। चुनाव हारने का कारण जो भी रहा, इतना तो तय है कि ये नेता जन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाए। अब प्रचंड बहुमत के वाबजूद सीएम त्रिवेंद्र रावत अपने मंत्रिमंडल का ही विस्तार नहीं कर पा रहे हैं। दो पद अभी भी खाली हैं। नेताओं की फौज इन पदों को लेने के लिए लालायित है तो वे असंतोष के डर से जिम्मेदारी नहीं दे रहे हैं। इससे खुद उनके व अन्य मंत्रियों के पास काम का दबाव है तो नौकरशाह भी मस्त हैं। राज्य गठन के बाद अभी तक केवल भ्रष्टाचार की जांच के लिए आयोगों का गठन हुआ है, जबकि महिला विकास नीति, कृषि नीति, रोजगार नीति, पलायन रोकने की नीति, पहाड़ों में उद्योगों का फैलाव करने की नीति, शिक्षा की स्पष्ट नीति और सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं के कामों का मूल्यांकन करने के लिए प्रभावशाली नियामकों का गठन अभी तक नहीं किया गया है। इससे राज्य गठन के मुद्दे अभी भी हवा में तैर रहे हैं। स्थायी राजधानी का मामला तो कांग्रेस एवं भाजपा की सरकारों ने फुटबाल का खेल बना दिया है। जब एक राज्य अपनी स्थायी एवं पहचान से जुड़ी राजधानी का निर्माण नहीं कर सकता है तो उस राज्य के कल्याणकारी होने पर विास ही नहीं हो सकता है। यही विास यहां भी नहीं हो रहा है। मूल तौर पर राज्य का विरोध करने वालों को मलाई खाते देखा जा रहा है तो राज्य गठन के संघर्ष से बाहर इलाकों का विकास हो रहा है। एक आशावादी समाज राज्य से यह उम्मीद करता है कि व संविधान के मूल तत्वों में काम करेगा, जबकि इस राज्य में समानता का अधिकार कहीं दिख ही नहीं रहा है। स्कूल कालेजों या तमाम संस्थाओं की स्थापना तक में समग्र विकास की परिकल्पना नहीं दिख रही है। राज्य गठन में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षक एवं मीडिया की रही। यह विधान सभा के पटल में कई नेताओं के भाषणों का रिकार्ड भी है। जबकि शिक्षकों के मामलों को लेकर कहीं भी संवेदनशीलता का परिचय नहीं दिया गया है। तबादला कानून ने तो शिक्षकों को उपहास का पात्र बना दिया है। मीडिया को लेकर भी सरकार की नीतियां असहज करने वाली रही हैं। मीडिया को निष्पक्ष एवं निर्भीक बनाने के लिए कोई भी सरकार सार्थक पहल करने के बजाय सत्ता के लिए यूज एंड रो के सिद्धांत पर काम करती रही हैं। इससे पीत पत्रकारिता को बढ़ावा मिला है तो स्टिंगंकिंग पैदा होते और जेल जाते भी दिख रहे हैं। स्टिंग किंग पैदा करने की यह संस्कृति कल्याणकारी राज्य के बाधक ही नहीं विनाशक भी मानी जा रही है। इस राज्य से सबसे ज्यादा लाभ नौकरशाहों को मिला है। साठ साल या साठ साल के बाद बस नौकरशाहों की पौबार दिख रही है। विशेषज्ञता के मानक हरेक सरकार ने हाशिए पर रखे हैं। इससे विजन गायब हो रहे हैं और लोगों का विास जड़ता की ओर जा रहा है। विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। यह कम या अधिक हो सकता है, पर इस विकास के लिए इलाकाई सोच और समग्र विकास के मापदंडों का उल्लंघन समाज में सत्ता के प्रति आदर के बजाय आक्रोश का भाव पैदा करता है। यही आक्रोश सत्ता परिवर्तन का मुख्य कारक भी होता है। नए राज्य में अधिकतर विधायक वोट बैंक की राजनीति में इलाकाई सोच पर काम कर आगे बढ़ रहे हैं। इससे समग्र व समावेशी विकास की परिकल्पना ही बदल गई है। यह सबसे ज्यादा चिंता का विषय है। इससे ही गांव उजड़ रहे हैं और शहरों पर भारी दबाव बन रहा है। यह दबाव शहरों में भी गांव के जैसे हालात पैदा कर रहा है। इसके इतर गांव बिरादरी के मजबूत रिश्ते भी दरक रहे हैं। शहरी जीवन में बगल के घर में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर नहीं। यही इस राज्य के सत्ता प्रतिष्ठान क्या सोच कर आगे बढ़ रहे हैं, किसी को पता नहीं है। शायद यही इस राज्य की एक नियति बन गई है।

राज्य आंदोलन में इन आंदोलनकारियों ने दी थी शहादत

अजबपुर कलां, 22 वर्षीय, ग्रीश कुमार भंडारी, दून के राजेश लखेड़ा, सतेंद्र सिंह चौहान सेलाकुई, सूर्यप्रकाश शर्मा निवासी मुनि की रेती, 21 वर्षीय रवींद्र रावत निवासी नेहरू कॉलोनी, अशोक कुमार निवासी ऊखीमठ चमोली, उपचार के दौरान मौत। 18 आंदोलनकारी बंदूक की गोली से जख्मी हुए। उस रात दिल्ली जा रही सात आंदोलनकारी महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म, जबकि 17 के साथ अभद्रता व छेड़खानी की गई।

राज्य आंदोलन में कुमाऊं के शहीद

मसूरी काण्ड के शहीद

मसूरी काण्ड के शहीद

खटीमा काण्ड के शहीद
खटीमा काण्ड के शहीद

नैनीताल। एक सितम्बर 1994 का दिन राज्य आंदोलन का पहला शहीदी दिवस साबित हुआ। इस दिन खटीमा में शांतिपूर्वक आंदोलन कर रहे आंदोलनकारियों पर यूपी पुलिस द्वारा चलाई गई गोलियों से भगवान सिंह सिरौला, प्रताप सिंह, सलीम अहमद, गोपीचन्द, धर्मानन्द भट्ट, परमजीत सिंह, रामपाल शहीद हुए, वहीं दो अक्टूबर 1994 को रामपुर तिराहा व मुजफ्फरनगर के काले कांडों के विरोध में अगले दिन यानी तीन अक्टूबर को हो रहे प्रदर्शन के दौरान नैनीताल में एक 33 वर्षीय होटलकर्मी प्रताप सिंह शहीद हुए।

 

चिपको से रहा है उत्तराखण्ड की महिलाओं के आन्दोलन का इतिहास

गौरा देवी

महिलाएं उत्तराखंड की दैनिक काम-काज से लेकर हर क्षेत्र में धूरी हैं। कदाचित वह पुरुषों के नौकरी हेतु पलायन के बाद पूरे पहाड़ का बोझ अपने ऊपर ढोती हैं। विश्व विख्यात चि‍पको आंदोलन और शराब विरोधी आंदोलनों से उनका आन्दोलनों का इतिहास रहा है। वनों को बचाने हेतु रैणी गांव की एक साधारण परंतु असाधारण साहस वाली महिला ‘गौरा देवी ने 21 मार्च 1974 को अपने गांव के पुरुषों की अनपुस्थिति में जिस सूझबूझ व साहस का परि‍चय दिया, वह चिपको आंदोलन के रूप में इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित होने के साथ ही अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया। जब उन्होंने व विभाग के कर्मचारि‍यों ने पेड़ों को काटने का वि‍रोध किया और न मानने पर वो तकरीबन 30 अन्य महिलाओं के साथ पेड़ों पर चि‍पक गई जिससे पेड़ काटने वालों को उल्टे पैर वापस जाना पड़ा। इस घटना के बाद 1975 में गोपेश्‍वर व 1978 में बद्रीनाथ समेत अनेक क्षेत्रों में महिलाओं ने वि‍रोध कर जंगलों को काटने से बचाया।

टिंचरी माई
टिंचरी माई

वहीं उत्तराखंड में शराब के खिलाफ 1962 से आंदोलन की शुरू हुयी। इसके फलस्वरूप 1970 में टि‍हरी तथा पौड़ी में शराब बंद की गई। बाद में 1977 में मोरारजी देसांई की सरकार ने जब शराब पर प्रतिबंध लगया तो शराब माफियाओं द्वारा एक नए तरीके को ईजाद किया और दवाईयों की शीशी में शराब पहुंचाई जाने लगी। 1983 तक आते-आते यहां के युवा व बच्चे भी दवाइयों की शीशियों में शराब पीते देखे गए। जहां सड़क, बिजली, पानी नहीं पहुंचा वहां भी शराब बड़ी सुगमता से पहुंचने लगी। ऐसी स्थिति में महिलाओं ने शराब वि‍रोधी आंदोलन के साथ ही ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन की शुरुआत की। ऐसे में एक माई ने एक शराब व्यापारी की दुकान में टिंचर (स्प्रिट) पिये एक आदमी को दयनीय एवं वीभत्स अवस्था में देखा तो आहत होकर उस शराब की दुकान में आग लगा दी और खुद को कमिश्नर के हवाले कर दिया। उसने कहा ‘मैं हमेशा ऐसा ही कदम उठाऊंगी।’ तब से उन्हें टिंचरी माई के नाम से जाना जाने लगा।

 

गैर ही रहा गैरसैंण

देश में उत्तराखण्ड ऐसा अभागा प्रदेश है, जिसकी स्थायी राजधानी राज्य बनने के 17 साल बाद भी तय नहीं हो पाई है। वर्ष 1994 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उत्तराखंड राज्य गठन हेतु रमा शंकर कौशिक समिति का गठन किया गया और इस समिति ने उत्तराखंड राज्य का समर्थन करते हुए 5 मई 1994 को कुमाऊँ एवं गढ़वाल के मध्य स्थित गैरसैंण (चंद्रनगर) नामक स्थान पर राजधानी बनाने की संस्तुति दी। उस समिति की रिपोर्ट के मुताबिक गैरसैंण को 60.21 फीसदी अंक मिले थे, जबकि नैनीताल को 3.40, देहरादून को 2.88, रामनगर-कालागढ़ को 9.95, श्रीनगर गढ़वाल को 3.40, अल्मोड़ा को 2.09, नरेंद्रनगर को 0.79, हल्द्वानी को 1.05, काशीपुर को 1.31, बैजनाथ-ग्वालदम को 0.79, हरिद्वार को 0.52, गौचर को 0.26, पौड़ी को 0.26, रानीखेत-द्वाराहाट को 0.52 फीसद अंक मिलने के साथ ही किसी केंद्रीय स्थल को 7.25 फीसद अन्य को 0.79 प्रतिशत ने अपनी सहमति दी थी। गैरसैंण के साथ ही केंद्रीय स्थल के नाम पर राजधानी बनाने के पक्षधर लोग 68.85 फीसद थे। कौशिक समिति की संस्तुति पर 24 अगस्त 1994 को उत्तर प्रदेश विधानसभा ने उत्तराखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया। आगे उत्तराखंड की नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी प्रथम सरकार ने राजधानी गैरसैण (चंद्रनगर) के नाम पर एक राजनैतिक षडयंत्र के तहत दीक्षित आयोग नाम की एक समिति गठित कर हमारे ऊपर थोप दिया और दीक्षित आयोग ने 11 बार अपना कार्यकाल बढ़ने के बाद वही रिपोर्ट दी जिसकी वहां की जनता को पहले ही आशंका थी।

राष्ट्रीय सहारा

असल में दीक्षित आयोग का गठन ही गैरसैण को राजधानी न बनाने के लिए किया गया था। इसके साथ ही राष्ट्रीय दलों ने गैरसैण का विरोध शुरू किया। गैरसैंण के विरोध में वे लोग हैं, जो न आन्दोलन में थे और न उनकी कही आन्दोलन में भूमिका रही थी। राज्य के लिए 42 लोगों की शहादत और राजधानी गैरसैण (चंद्रनगर) के लिए बाबा मोहन उत्तराखंडी 38 दिनों तक आमरण अनशन करने के बाद बाबा मोहन उत्तराखंडी शहीद हुए थे। और छात्र कठैत ने भी शहादत दी थी। गैरसैंण केवल स्थान हीं नहीं अपितु उत्तराखण्ड में लोकशाही के प्रतीक का भी केन्द्र बिंदु है, जबकि राज्य के एक कोने पर स्थित देहरादून उत्तराखण्डियों के लिए लखनऊ से बदतर साबित हो रहा है।

क्यों गैरसैंण  : पंकज सिंह महर

बहुत दिनों से गैरसैण को राजधानी बनाने वाले युवा लोगों का उत्साह देख रहा था, और इसको ना चाहने वाले लोगों के कुतर्क भी। कुतर्कों से दुख तो हुआ लेकिन पहले तो सोचा कि छोड़ो भैंस के आगे बीन बजाने से क्या होगा। लेकिन जब हमारे युवा-उत्तराखंड के तथाकथित उत्तराखंड प्रेमी लोग अपने कुतर्कों को इस इंटरनैट युग में इधर उधर फैलाने लगे और उनके पीछे पीछे कुछ लोग “हम तुम्हारे साथ हैं” की तरह पर हुवां-हुवां चिल्लाने लगे तो लगा कि मुझे भी अपनी भावनायें व्यक्त कर ही देनी चाहिये।

वे कहते हैं कि गैरसैण क्यों? मैं कहता हूँ ‘ उत्तराखंड क्यों’ फिर ‘भारत क्यों’। अग्रेजों के जमाने में भी ऐसे कुछ लोग रायबहादुर का खिताब लेकर अंग्रेजों के जूते चाटते थे और कहते थे कि हमें आजादी क्यों चाहिये। लेकिन एक आम आदमी के लिये आजादी अस्मिता का सवाल था, खुली हवा में सांस लेना वही समझ सकता है जिसने बदबूदार, सीलन युक्त कोठरी में दिन बितायें हैं। जिन लोगों ने ना पहाड़ के उस दर्द को देखा है जो धीरे धीरे पहाड़ को उजाड़ रहा है और ना आज की उसकी वास्तविकता से वाकिफ हैं वो तो कहेंगे ही गैरसैण क्यों। यदि ए.सी. चैम्बर में बैठकर इंटरनैट पर धकापेल करने से ही उत्तराखंड का विकास होना होता तो उत्तराखंड आज सबसे अच्छा राज्य होता। उत्तरप्रदेश के वे अधिकारी क्या बुरे थे जो लखनऊ में बैठकर पहाड़ के भाग्य का फैसला करते थे। ऐसे लोगों के लिये पहाड़ केवल साल में एक बार छुट्टी बिताने के लिये जाने वाला स्थान है, और फिर अपने लेटेस्ट कैमरे से फोटो खींच कर इंटरनैट पर साझा करके अपने को तीसमारखां समझने का माध्यम भी ।

पहाड़ का आदमी आज पहाड़ से क्यों भागने को मजबूर है, इसीलिये क्योंकि पहाड़ को पहाड़ के ऐसे नैनिहालों ने बिसरा दिया है। दिल्ली, मुम्बई, लंदन, कनाडा, दुबई में बैठकर पहाड़ी गीत गाना, पहाड़ी नाइट आयोजित करना और हो हो करते हुए हँसते हुए पहाड़ की दुर्दशा का दुखड़ा रोना, यह सब बहुत आसान है। कठिन है तो पहाड़ में बैठकर एक आम पहाड़ी के दर्द को महसूस कर उसके लिये चुपचाप कुछ करते जाना।

लेकिन जब तक पहाड़ के लिये कुछ करने के नाम पर अपने नाम को आगे करने, कोई संस्था बनाकर उसके लिये चंदा उगाहने और पहाड़ के हालात बदलने के नाम पर साल में एक दो बार पहाड़ के प्रायोजित टूर करने की प्रवृति सामने रहेगी तब तक पहाड़ का भला होने वाला नहीं। गैरसैण के नाम पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले कितने लोग उत्तराखंड के मानचित्र पर गैरसैंण को पहचान सकते हैं। उनमें से कितने लोगों को उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति की सही सही जानकारी है। लेकिन नहीं उन्हें बिना जाने समझे सिर्फ विरोध करना है तो करेंगे।

आज राजधानी बदलने से पहाड़ के बुनियादी विकास की नींव पड़ेगी। उन अधिकारियों, नेताओं को भी उन्ही सब असुविधाओं से दो चार होना पड़ेगा जिन्हेंएक आम उत्तराखंडी हर दिन झेलता है। यह लोकतंत्र है कोई राजशाही तो नहीं कि प्रजा परेशान और राजा महान। यदि उत्तराखंड भूकंप प्रभावित क्षेत्र है तो क्या, राजधानी भी ऐसे ही जगह में हो तो क्या बुरा है। आप राजधानी को ऐसे क्षेत्र से निकालकर अलग बनाना चाहते हैं ताकि जनता मरे और आप राहत कार्यों का हवाई सर्वेक्षण करने पहुंच जायें। नीरो ऐसे ही तो बंशी बजा रहा था जब रोम जल रहा था।

सुदूर क्षेत्र में बैठे एक आम उत्तराखंडी को किसी भी काम के लिये राजधानी जाने के लिये कितना समय लगता है उससे आपको क्या मतलब। आपके पास जहाज है, गाड़ी है पहुंच जाइए देहरादून, हल्द्वानी या नैनीताल। आपको इससे क्या कि एक पहाड़ी को 2 मील दूर से हर रोज पीने का पानी लाना पड़ता है। आप कहेंगे इसकी क्या जरूरत है मिनरल वाटर क्यों नहीं खरीद लेता। पढ़ाई के लिये पांच मील दूर स्कूल जाना होता है जिसमें साल के आधे से ज्यादा दिन पढ़ाई नहीं होती। आप कहेंगे घर बैठे ई-लर्निंग क्यों नहीं कर लेता। अस्पताल जाने के लिये 15 मील चलना पड़ता है। मेडिकल इंस्योरेंस नहीं है क्या?

जब पहाड़ से निकले लोग ही बड़े शहरों में जाकर पहाड़ के असली दुख दर्दों को भूल जाते हैं और सिर्फ फैशन के लिये उत्तराखंड प्रेम की दुहाई देते हैं और खुद को पहाड़ी कहलाने में शर्म महसूस करते हैं तो उन देहरादून में बैठे शहरों में पले बड़े अधिकारियों का क्या दोष। “गैरसैण क्यों “यह सवाल ही एक बहुत बड़ा तमाचा है उन लोगों पर जिन्होंने पहले उत्तराखंड का सपना देखा और अब राजधानी परिवर्तन की जिद पाले बैठे हैं। यह तमाचा है हर उस पहाड़ में रहने वाले उत्तराखंडी पर जो आज भी अपने दैनिक सुख सुविधाओं के लिये जूझ रहा है। पहाड़ में शराब घर घर पहुंच गयी है, ऐसा कहने वाले लोग बहुत मिलेंगे, लेकिन उसका समाधान क्या है यह कोई नहीं बतायेगा। इसके जिम्मेवार भी वही लोग हैं जो पूछते हैं गैरसैण क्यों?
हाँ तो कुछ तथाकथित उत्तराखंड प्रेमी कह रहे हैं कि यह केवल भावनात्मक मुद्दा है। कह रहे हैं आप लोग पागल हो जो केवल भावनाओं के वशीभूत होकर काम करते हो। हमें देखो हमने अपनी भावनाओं को काबू में किया इसलिये आज सब कुछ छोड़छाड़कर दिल्ली, मुम्बई, लंदन, दुबई ना जाने कहाँ कहाँ बैठे हैं। ऐसे ही लोग होते हैं जो भावनाओं की परवाह नहीं करते और अपने माँ-बाप और कम पढे लिखे भाई-बहनों को पहाड़ की कठिन भूमि में छोड़कर उड़ंछू हो जाते हैं। लेकिन यही लोग यह भी कहते हैं हम उत्तराखंड के नाम को बेचेंगे, लोगों को भावनात्मक रूप से मजबूर करेंगे कि वह हमसे जुडें और बदले में हम नाम, दाम कमायेंगे। यदि गैरसैंण की रट लगाने वाले पगले लोग भावनात्मक मुद्दे पर उछ्ल रहे हैं तो आप क्या कर रहे हैं आप भी तो लोगों को भावनात्मक रूप से मजबूर कर रहे हैं। आप उत्तराखंड के नाम पर ग्रुप बना रहे हैं, एन जी ओ बना रहे हैं, ट्र्स्ट बना रहे हैं, साहित्य लिख रहे हैं, कविता कहानी लिख रहे हैं..क्यों भला। खुद ही ना जाने क्या क्या अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, संचालक, प्रवर्तक बन बैठे हैं, क्यों? व्हाई…क्यों आप लोगों को उत्तराखंड के नाम पर भावनात्मक रूप से भड़का रहे हैं। आप भावनात्मक रूप से करें तो ठीक और हम करें तो गलत. क़्यों? व्हाई…..

लेकिन इसे केवल भावनात्मक मुद्दा बताने वाले उस अधजल गगरी की तरह हैं जो छलकती रहती है। कहते हैं ना A Little Knowledge is a Dangerous Thing ठीक वही बात है। या तो ये कुछ ना जानते होते, तो चुप रहते और केवल अपनी परेशानियों का हल ढूंढने के लिये ही सही गैरसैण को राजधानी बनाने की बात कहते। एक आम उत्तराखंडी इसीलिये ही तो जुड़ा है इस आन्दोलन से। या फिर यह जानकार ही होते, पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी वर्ग की तरह। उत्तराखंड का यही वर्ग तो है जो गैरसैण को समर्थन दे रहा है। प्रेमियों को शायद यह भी नहीं मालूम कि यह राजनीतिक मुद्दा है ही नहीं क्योंकि इस पर किसी भी पार्टी ने अपना मत साफ नहीं किया है। इसको उत्तराखंड के बुद्धिजीवी वर्ग ने समर्थन दिया है और दे रहे हैं। यदि हमारे प्रेमी लोग जानते हों तो कौशिक समिति की रिपोर्ट में 60 % लोगों ने गैरसैण को सीधे और 8% ने केन्द्रीय स्थान के बहाने गैरसैण को ही चुना था। अब कौशिक समिति क्या थी किससे इसने बात की थी वह मैं यहाँ नही बताने जा रहा। यह लोग तो चार किताबें पढ़ लिये और अच्छी अंग्रेजी लिखना सीख गये यह तो कहेंगे ही व्हाई गैरसैण… पद्म श्री शेखर पाठक हों या गैरसैण के लिये शहादत देने वाले बाबा उत्तराखंडी या बुद्धिजीवी वर्ग के अन्य लोग, सभी दिलो जान से गैरसैण के लिये समर्थन में..व्हाई मेरे भाई। क्योंकि यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है इसके पीछे वैज्ञानिक, सामाजिक , आर्थिक, भौगोलिक आधार हैं।

तो अब आते हैं कि क्या गैरसैण केवल कुछ पगलाये लोगों का भावनात्मक मुद्दा ही है या इसके पीछे कोई अन्य कारण भी है। लेकिन पहले मैं कुछ खाये,पीये अघाये लोगों यह बता दूँ कि उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन भी कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं था। इसकी संकल्पना को बनने, पकने और आन्दोलन का रूप लेने में पर्याप्त समय लगा। यह केवल एक राज्य के भौगोलिक धरातल को कम कर अपने लिये जमीन छांट लेने की लड़ाई नहीं थी बल्कि हिमालय के समाजों की अलग भौगोलिक परिवेश में जीने वाले लोगों की परेशानियों को समझने में सक्षम सरकार की स्थापना करने की लड़ाई थी। हिमाचल हो या मेघालय सभी हिमालयी समाजों ने अपने अपने हिस्से के राज्य हमसे पहले प्राप्त कर लिये।

अब चुंकि व्हाई गैरसैण कहने वाले उत्तराखंड प्रेमी लोग पढ़े-लिखे हैं और अंग्रेजी बोलना बेहतर समझते हैं तो उनके लिये कुछ अंग्रेजी सन्दर्भ देने की कोशिश कर रहा हूँ। जीन-जैकस रूसो एक दार्शनिक हुआ करते थे।

रूसे साहब मानते थे कि विज्ञान व कला के विस्तार से नैतिक गुणों का ह्रास होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, और इंसान स्वभावत: अच्छे ही होते हैं लेकिन घटनायें या दुर्घटनायें या परिस्थितियां उन्हें बुरा बना देती हैं, ऐसे ही लोग समाज-निर्माण करते हैं। उन्होने यह भी कहा कि

एक संगठित राज्य एक मानव शरीर की तरह है, जिस तरह शरीर के प्रत्येक हिस्से का अपना एक कार्य होता है उसी तरह राज्य के अलग अलग हिस्से अलग अलग कार्य करते हैं और एक अच्छे राज्य के लिये भी इसके सभी भागों का सुचारु रूप से कार्य करना आवश्यक है। उन्होने यह भी कहा कि यदि राजनैतिक सत्ता , जन भावनाओं के अनुसार काम नहीं करती तो राज्य में विवाद होना अवश्यम्भावी है।

ऐसे ही एक भूगोलवेत्ता थे कार्ल रिटर जिन्होने राज्य के जैविक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत को फ्रेडरिक रैटजल, हॉसहॉफ़र और रुडोल्फ जैसे कई लोगों ने माना और आगे बढ़ाया।

राज्य के जैविक विकास के सिद्धांत के अनुसार जिस प्रकार शरीर कोशिकाओं का बना होता है वैसे ही राज्य का हर स्थान मानव शरीर की एक कोशिका की तरह काम करता है। यही कोशिकायें समान इच्छा शक्ति, समान आकांक्षा, समान गुण-धर्म वाले लोगों के आवास में बदल जाती हैं और राज्य के गुण-धर्म को प्रभावित करती हैं। तो एक राज्य का गुण-धर्म उनमें स्थित स्थानों और उन स्थानों में रहने वाले व्यक्तियों की भावना का प्रतिरूप होता है। डार्विन नें लगभग यही सिद्धांत जीव-विकास के लिये प्रतिपादित किया था।

अमरीकी भूगोलविज्ञानी स्टीलसी ने माना की किसी भी राज्य में एक ऐसा ऊर्जा केन्द्र होता है जो राज्य को जीवित रखता है। स्टीलसी नें एक नाभिस्थल की संकल्पना की और कहा किसी भी राज्य के भविष्य का निर्धारण उसके नाभि-स्थल (महत्वपूर्ण स्थल) से होता है। हाँलाकि स्टीलसी ने स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि यह नाभिस्थल ही राजधानी का स्थान है लेकिन कई विद्वानों नाभि-स्थल को राजधानी के रूप में प्रतिपादित किया।

अब यदि उत्तराखंड राज्य हिमालय समाज को एक अलग परिप्रेक्ष्य में रखकर उसका योजनाबद्ध विकास करने के लिये बना है और इसका मूल गुण-धर्म पहाड़ी है तो इसकी राजधानी पहाड़ में होनी चाहिये ना कि मैदानी इलाके में, और यह स्थान नाभि की तरह राज्य के मध्य भाग के आसपास होना चाहिये। इस स्थिति में गैरसैण एक उपयुक्त स्थान बैठता है।
कुछ लोगों का कहना है कि यदि गैरसैण में राजधानी बनेगी तो इसमें बहुत खर्चा होगा। तो इसमें बुराई क्या है? यदि पहाड़ के विकास के लिये खर्चा हो रहा तो अच्छा ही तो है। क्या आप चाहते हैं कि यह खर्चा केवल देहरादून जैसे बड़े शहरों तक ही सीमित रह जाये। कुछ कहते हैं कि उत्तराखंड में भ्रष्टाचार है इसलिये अधिकतर पैसा भ्रष्ट लोग खा जायेंगे। तो यह तो देहरादून पर होने वाले खर्चे के लिये भी सही है, वहाँ भी तो लोग पैसा खायेंगे तो ना करें कुछ भी खर्चा। अरे भ्रष्टाचार तो सारे भारत में हैं तो क्या सारे नये निर्माण रोक दिये जाने चाहिये। भ्रष्टाचार एक समस्या है हमें उसके भी समाधान की जरूरत है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जब तक वह समस्या हल नहीं हो जाती तब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। कई लोगों ने कहा है कि सरकारी योजनाओं का केवल 10 से 15 प्रतिशत ही इसके सही हकदार के पास पहुँचता है और यह केवल उत्तराखंड के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिये सत्य है। एक और जहाँ हमें इसके खिलाफ लड़ना है वहीं विकास को जारी रखना जरूरी है नहीं तो जो दस या पन्द्रह पैसा पहुंच रहा है वह भी नहीं पहुँचेगा।

अब आते हैं कुछ और विद्वानों के उदाहरणों पर। कई लोगों ने राजधानियों पर शोध किया और अपनी पुस्तकें प्रकाशित की। डेविड गौर्डन, थामस हॉल जैसे विद्वानों ने 19 वीं व बीसवीं सदी की युरोप की राजधानियों का अध्ययन किया। इसके अलावा सर पीटर हॉल ने 7 प्रकार की राजधानियों को चिन्हित किया। कई विद्वानों के अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि राजधानी ही राज्य की दशा व दिशा को निर्धारित करती है। यूरोप के अधिकाश देशों की राजधानियाँ उसके नाभि स्थल में स्थित रही हैं। जिन देशों में ऐसा नहीं है उनमे से अधिकांश देश एक से अधिक राजधानियों का भार ढो रहे हैं। विद्वानों का यह भी मानना है कि सोवियत संघ के विघटन व जर्मनी के एकीकरण दोनों उदाहरण यह साबित करते हैं राजधानियाँ देश के भविष्य को प्रभावित करती हैं और यह करती रही हैं।

तो यह रही वैज्ञानिक व अध्ययन आधारित सोच जो यह बताती है कि गैरसैण या उसके आसपास की जगह राजधानी के लिये उपयुक्त है ।

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार
‘नवीन समाचार’ विश्व प्रसिद्ध पर्यटन नगरी नैनीताल से ‘मन कही’ के रूप में जनवरी 2010 से इंटरननेट-वेब मीडिया पर सक्रिय, उत्तराखंड का सबसे पुराना ऑनलाइन पत्रकारिता में सक्रिय समूह है। यह उत्तराखंड शासन से मान्यता प्राप्त, अलेक्सा रैंकिंग के अनुसार उत्तराखंड के समाचार पोर्टलों में अग्रणी, गूगल सर्च पर उत्तराखंड के सर्वश्रेष्ठ, भरोसेमंद समाचार पोर्टल के रूप में अग्रणी, समाचारों को नवीन दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने वाला ऑनलाइन समाचार पोर्टल भी है।
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