उत्तराखंड में भू-कानून: विकास की कहानी और चुनौतियां
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 28 सितंबर 2024 (Uttarakhand men Bhoo Kanoon ka Poora Itihas)। उत्तराखंड राज्य की स्थापना के साथ ही भूमि खरीद-फरोख्त का मुद्दा चर्चाओं में रहा है। पहली बार एनडी तिवारी की सरकार ने 2003 में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था सुधार अधिनियम में संशोधन कर बाहरी व्यक्तियों के लिए आवासीय उपयोग हेतु भूमि खरीद पर प्रतिबंध लगाया। इसके बाद खंडूड़ी सरकार ने इसे और सख्त बनाया, जिससे आवासीय भूमि की खरीद की सीमा 500 वर्गमीटर से घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दी गई।
तिवारी सरकार के दौरान उद्योग के लिए भूमि का उपयोग और कानून में बदलाव
तिवारी सरकार के दौरान औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए कुछ भूमि खरीद में लचीलापन रखा गया था। हालांकि, आवासीय उपयोग के लिए भूमि का अनियोजित विकास होने लगा, जिसके विरोध में खंडूड़ी सरकार ने भू-कानून में और सख्ती की। त्रिवेंद्र सरकार ने 2017-18 में उद्योगों के लिए भूमि खरीदने की अधिकतम सीमा खत्म कर दी और कृषि भूमि के भू-उपयोग को भी आसान बनाया।
धामी सरकार की पहल और समिति का गठन
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2022 में भू-कानून की मांग को ध्यान में रखते हुए एक समिति का गठन किया। समिति ने 23 संस्तुतियां पेश कीं, जिससे सरकार ने कृषि और उद्यानिकी के लिए भूमि खरीद की अनुमति देने से पहले खरीदार और विक्रेता का सत्यापन करना अनिवार्य किया। वर्तमान में बाहरी व्यक्तियों को बिना अनुमति 250 वर्गमीटर तक जमीन खरीदने की अनुमति है, जबकि स्थायी निवासियों के लिए कोई सीमा नहीं है।
हिमाचल प्रदेश का सख्त भू-कानून
हिमाचल प्रदेश में जमीन खरीदने के लिए विशेष प्रावधान हैं। टेनेंसी एक्ट के तहत बाहरी व्यक्ति को बिना राज्य सरकार की अनुमति के जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है। इसके तहत कृषि भूमि केवल उन लोगों को दी जाती है जो किसान हैं और लंबे समय से वहां रह रहे हैं।
उत्तराखंड में भू-कानून के बदलावों का उद्देश्य राज्य के विकास को सुगम बनाना है, लेकिन यह संतुलन बनाने की चुनौती भी पेश करता है। निवेशकों को भूमि उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ-साथ स्थानीय निवासियों के अधिकारों की रक्षा करना आवश्यक है। हिमाचल प्रदेश का उदाहरण उत्तराखंड के लिए एक संदर्भ प्रदान करता है, जहां सख्त भू-कानूनों के माध्यम से बाहरी निवेश पर नियंत्रण रखा गया है।
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डॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 25 दिसंबर 2023। हिमालयी राज्य उत्तराखंड में पूरे देश से इतर अलग विरोधाभास की वजह से गर्म ‘मूल निवास’ के मुद्दे के साथ ‘भूकानून’ की मांग भी लंबी, पर्वतीय राज्य की अवधारणा से जुड़ी एवं महत्वपूर्ण है।
राज्य में एक सशक्त भूकानून न होने की वजह से हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड अकेला राज्य है जहां राज्य के बाहर के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद सकते हैं। इन्हीं दो मुद्दों पर उत्तराखंड में बीती 24 दिसंबर 2023 को राजधानी देहरादून में महारैली आयोजित हुई है।
गौरतलब है कि राज्य के कुल क्षेत्रफल 56.72 लाख हेक्टेअर का 63.41 प्रतिशत यानी अधिकांश क्षेत्र वन और बंजर भूमि के अंतर्गत आता है। जबकि कृषि योग्य भूमि मात्र 7.41 लाख हेक्टेयर यानी लगभग 14 प्रतिशत तक सीमित है। इसके बावजूद राज्य में सशक्त भू कानून नहीं होने की वजह से राज्य की जमीन को राज्य से बाहर के लोग बड़े पैमाने पर खरीद रहे हैं और राज्य के संसाधनों पर हावी हो रहे हैं।
जबकि यहां के मूल निवासी और भूमिधर भूमिहीन हो रहे हैं और कई जगह अपनी जमीनों पर काबिज बाहरी लोगों के ‘केयर टेकर’ होकर रह गये हैं। इसका प्रभाव पर्वतीय राज्य की संस्कृति, परंपरा, अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान पर भी पड़ रहा है। ऐसे में आइये भूकानून के इस महत्वपूर्ण विषय को पूरे विस्तार एवं ऐतिहासिक संदर्भों के साथ समझते हैं।
वर्ष 1815-16 में उत्तराखंड में ब्रिटिश हुकूमत का पदार्पण हुआ। इस दौरान खेती पर लिया जाने वाला टैक्स अंग्रेज सरकार की आय का बड़ा स्रोत होता था। लेकिन पहाड़ों में 10-12 प्रतिशत भूमि ही कृषि योग्य थी। ऐसे में इस दौरान पहाड़ों पर खेती का विस्तार हुआ और प्रति व्यक्ति जमीन के साथ-साथ आबादी भी बढ़ी। साथ ही इस दौरान वर्ष 1840 से 1846, 1870, 1905-1906 तथा 1924 तक कई चरणों में जमीनों के बंदोबस्त यानी लैंड सेटलमेंट हुए।
जबकि आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में जेडएएलआर एक्ट कहे जाने वाले यूपी जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम-1950 के बाद कूजा एक्ट कहे जाने वाले कुमाऊं और उत्तराखंड जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम 1960 के तहत तत्कालीन उत्तर प्रदेश के आज के उत्तराखंड कहे जाने वाले पर्वतीय भूभाग के लिये नये भूकानून आये और आजादी के बाद से अब तक राज्य में एकमात्र भूमि बंदोबस्त 1960 से 1964 के बीच हुआ।
लिहाजा इसके बाद के करीब 60 सालों में कितनी कृषि योग्य भूमि का इस्तेमाल गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए किया गया है, इसके सही आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। नब्बे के दशक में चले ऐतिहासिक उत्तराखंड राज्य आंदोलन में पृथक राज्य के साथ ही पहाड़वासियों की जमीनें एवं उनकी सांस्कृतिक पहचान बचाए रखने के लिए उत्तर पूर्व के राज्यों की तरह उत्तराखंड में भी संविधान के अनुच्छेद 371 के प्रावधानों की मांग की जाने लगी थी।
भाजपा के तत्कालीन सांसद मनोहर कांत ध्यानी ने राज्य सभा में भी यह मांग उठाई थी। जबकि राज्य गठन के बाद भी मांग उठी कि, जम्मू-कमीर और उत्तर पूर्व के राज्यों की तरह उत्तराखंड को विशेष राज्य का दर्जा न सही, कम से कम पड़ोसी राज्य हिमांचल की तरह का सशक्त भूकानून मिलना ही चाहिये। ताकि अन्य हिमालयी राज्यों की तरह उत्तराखंड की जमीनें और संस्कृति सुरक्षित रह सके।
लेकिन इस हिमालयी राज्य को न तो उत्तर पूर्व की तरह धारा 371 के अंतर्गत संवैधानिक दर्जा मिला, और विशेष राज्य का दर्जा भी कुछ समय के लिये मिला भी तो उससे राज्य में कुछ हद तक औद्योगिक विकास होने के साथ राज्य की जमीनों की बलि ही चढ़ी।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राज्य की पहली निर्वाचित नारायण दत्त तिवारी और फिर भुवन चंद्र खंडूड़ी के नेतृत्व वाली सरकारों ने हिमाचल प्रदेश के काश्तकारी एवं भूमि सुधार अधिनियम-1972 की धारा 118 की तर्ज पर उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 तथा अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश-2001 और इसके संशोधन अधिनियम-2008 में संशोधन कर इसे कुछ हद तक सशक्त बना दिया था।
राज्य में बाहरी लोगों द्वारा भूमि खरीद सीमित करने के लिए वर्ष 2003 में तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार ने उत्तर प्रदेश के कानून में संशोधन किया और राज्य का अपना भूमि कानून अस्तित्व में आया। इस संशोधन में व्यवस्था थी कि जो बाहरी व्यक्ति धारा 129 के तहत राज्य में जमीन का खातेदार न हो, वह राज्य में 500 वर्ग मीटर की सीमा तक कृषि भूमि की खरीद कर सकता है।
लेकिन इस सीमा से अधिक जमीन खरीदने पर राज्य सरकार से क्रेता को विशेष अनुमति लेनी होगी। तब उत्तराखंड में कृषि के लिए केवल 13 प्रतिशत जमीन वर्गित थी और इसका बड़ा हिस्सा बंजर और जंगलों में बदल चुका था और राज्य गठन के बाद से 4 वर्षों में लगभग 1 लाख हेक्टेअर कृषि योग्य जमीन कृषि से बाहर हो गई थी।
लेकिन वर्ष 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी की सरकार ने इस कानून में संशोधन कर भूमि खरीद की सीमा घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दी। इस कानून में व्यवस्था थी कि 12 सितम्बर 2003 तक जिन लोगों के पास राज्य में जमीन है, वे 12 एकड़ तक कृषि योग्य जमीन खरीद सकते हैं। लेकिन जिनके पास जमीन नहीं है, वे आवासीय उद्देश्य के लिए भी इस तारीख के बाद 250 वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन नहीं खरीद सकते हैं।
जबकि 2018 में भाजपा की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने जेडएएलआर एक्ट में संशोधन कर, उद्योग स्थापित करने के उद्देश्य से पहाड़ में जमीन खरीदने की अधिकतम सीमा और किसान होने की बाध्यता ही खत्म कर दी। साथ ही, कृषि भूमि का भू उपयोग बदलना आसान कर दिया। पहले पर्वतीय और फिर मैदानी क्षेत्र भी इसमें शामिल किए गए।
अलबत्ता यह व्यवस्था भी की गई कि खरीदी गई भूमि का इस्तेमाल यदि निर्धारित उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता या कोई जमीन किसी अन्य को बेची जाती है तो वह राज्य सरकार में निहित हो जाएगी।कारण यह था कि तब उत्तराखंड में 2018 में आयोजित निवेशक सम्मेलन में 1.25 लाख करोड़ के पूंजी निवेश प्रस्तावों के एमओयू हुये थे।
इससे त्रिवेंद्र सरकार इतनी गदगद हुई कि उसको जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 के पीछे छिपी जमींदारी के विनाश और काश्तकार की भूमि बचाने की भावना शायद नजर नहीं आई और उन्होंने उद्योगों के नाम पर पैतृक राज्य उत्तर प्रदेश से विरासत में मिले ऐतिहासिक कानून को ही दांव पर लगा दिया।
त्रिवेंद्र सरकार ने 2018 में उत्तराखंड में लागू उत्तर-प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950, अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश 2001 में संशोधन कर इस कानून में धारा 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म कर दी। इसके साथ ही 143 (क) जोड़ कर कृषकों की जमीनों को अकृषक घोषित करना तथा बाहरी लोगों के लिये उद्योगों के नाम पर कृषि भूमि खरीद कर उसका भूउपयोग परिवर्तन करना आसान कर दिया।
इस तरह इस संशोधन के तहत विधेयक में यह प्रावधान किया गया था कि औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या फिर उससे कोई भूमि क्रय करे तो इस भूमि को अकृषि करवाने के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ेगी। जबकि औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदे जाने पर उसका भू उपयोग स्वतः बदल जाएगा और वह-अकृषि या गैर कृषि हो जाएगी।
जबकि इस अधिनियम में धारा 154 (2) जोड़कर पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि खरीद की सीमा को औद्योगिक प्रयोजन के लिए पूरी तरह खत्म कर दिया गया। इसका फायदा उठाकर बाहरी लोगों ने राज्य में निवेश के नाम पर बेतहाशा जमीनें खरीद डालीं, लेकिन इन जमीनों पर आज तक उद्योगों की फसल खड़ी नहीं हुई, लेकिन राज्य की बड़े पैमाने पर कृषि भूमि बंजर जरूर हो गयीं।
जबकि इधर, राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार ने राज्य में उद्योगों के लिये ‘सिंगल विंडो’ की व्यवस्था लागू की है। इसके तहत खरीदी गई कृषि भूमि को गैर कृषि घोषित करने के बाद वह राज्य सरकार में निहित नहीं की जा सकती है। यानी राज्य का भूकानून सरकार दर सरकार कमजोर होता चला गया है।
अलबत्ता, धामी सरकार ने जहां एक ओर कानून में ढील दी, वहीं भू-सुधार के लिए पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की। इस समिति में श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के सदस्य अजेंद्र अजय, पूर्व आईएएस अधिकारी अरुण ढौंडियाल व डीएस गर्ब्याल तथा प्रदेश के तत्कालीन राजस्व सचिव दीपेंद्र कुमार चौधरी समिति के सदस्य थे। इस समिति ने वर्ष 2022 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। जिसमें सख्त भू कानून लाने के लिए 80 पृष्ठ में तैयार कर अपनी 23 संस्तुतियां सरकार को दी थीं।
रिपोर्ट में समिति ने वर्तमान में प्रदेश में प्रचलित उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 यथा संशोधित तथ यथा प्रवृत्त में जन भावनाओं के अनुरूप हिमाचल प्रदेश की तरह कई प्रावधान किये।
जैसे कृषि अथवा औद्यानिक तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्योगों और 4-5 सितारा होटल, रिसॉर्ट, मल्टी स्पेशियलिटी हॉस्पिटल, वोकेशनल, प्रोफेशनल इंस्टिट्यूट आदि के लिये कृषि भूमि क्रय करने की अनुमति जिलाधिकारी की जगह शासन से ही देने का प्रावधान करने तथा पर्वतीय एवं मैदानी क्षेत्रों में औद्योगिक प्रयोजनों, आयुष, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा, उद्यान एवं विभिन्न प्रसंस्करण, पर्यटन, कृषि के लिए 12.05 एकड़ से ज्यादा भूमि देने की जगह हिमाचल प्रदेश की भांति न्यूनतम भूमि आवश्यकता के आधार पर देने जैसे प्रावधान किये गये थे।
साथ ही भू-कानून में सुधार हेतु हिमाचल की तर्ज पर उद्योगों को उनकी जरूरत के हिसाब से भूमि उपलब्ध कराने तथा अन्य प्रायोजनों के लिए तय सीमा से अधिक भूमि केवल लीज पर देने तथा स्थानीय लोगों का भूमि पर मालिकाना हक बनाये रखने की भी संस्तुतियां की गयी थीं।
इसके बाद उम्मीद की जा रही थी कि इस समितिं की संस्तुतियों के बाद राज्य में वर्ष 2018 में संशोधन से भूमि क्रय संबंधी अधिनियम में जोड़ी गई उपधारा 143-क और धारा 154 (2) समाप्त की जा सकती है। उद्योगों को जमीन आवंटित करने का अधिकार जिलाधिकारियों को देने के फैसले तथा उद्योगों को जमीन खरीद में दी गई छूट को भी निरस्त किया जा सकता है, तथा उद्योगों के नाम पर ली गई जमीनों का उपयोग बदलने पर जमीन सरकारी कब्जे में ली जा सकती है।
लेकिन इस रिपोर्ट के आधार पर एक वर्ष के बाद भी भूकानून में कोई बदलाव नहीं किये, अलबत्ता इधर राज्य में हुए वैश्विक निवेश सम्मेलन में हुए करीब साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये के समझौतों को पूरा करने की चुनौती के बीच धामी सरकार हरकत में आयी है। (Uttarakhand men Bhoo Kanoon ka Poora Itihas, Uttarakhand News, Bhoo Kanoon, Uttarakhand Bhoo Kanoon, Land Reforms)
सरकार ने 24 दिसंबर 2023 को देहरादून में भूकानून एवं मूल निवास के मुद्दों को लेकर आयोजित हुई ‘मूल निवास स्वाभिमान महारैली’ से दो दिन पहले 22 दिसंबर को सुभाष कुमार की अध्यक्षता वाली भूमि कानून समिति द्वारा सरकार को उपलब्ध कराई गई रिपोर्ट के विस्तृत परीक्षण के लिए अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी की अध्यक्षता में 5 सदस्यीय प्रारूप समिति का गठन कर दिया है। (Uttarakhand men Bhoo Kanoon ka Poora Itihas, Uttarakhand News, Bhoo Kanoon, Uttarakhand Bhoo Kanoon, Land Reforms)
यह समिति विशेषज्ञों और अधिकारियों से भूमि व्यवस्था अधिनियम में आवश्यक बदलाव के लिए सुझाव लेगी और इन सुझावों को राज्य सरकार को उपलब्ध कराएगी। लिहाजा इन स्थितियों में राज्य में भूमि की बेरोकटोक एवं अनियंत्रित बिक्री को रोकने के लिए सशक्त भूकानून की प्रबल आवश्यकता वक्त की जरूरत है। (Uttarakhand men Bhoo Kanoon ka Poora Itihas, Uttarakhand News, Bhoo Kanoon, Uttarakhand Bhoo Kanoon, Land Reforms)
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