नवीन समाचार, हल्द्वानी, 25 मार्च 2022। आधुनिकता की अंधी दौड़ में जहां देश के युवा चाइनीज नूडल्स, मोमो, इटैलियन पिज्जा आदि की ओर भाग रहे हैं वहीं हल्द्वानी के लामाचौड़ निवासी एक युवा उद्यमी उमेश बिष्ट वक्त के साथ कदमताल करते हुए भी अपनी जड़ों को पकड़ने का सुखद प्रयास कर रहे हैं। हल्द्वानी के आम्रपाली कॉलेज से होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद महानगरों में कार्य करने के बाद कोरोना काल में वापस घर लौटे उमेश ने पहाड़ के परंपरागत अनाज मडुवे के बिस्किट, पिज्जा और केक बनाने की अनूठी पहल की है।
उमेश ने हल्द्वानी के गैस गोदाम रोड पर उमेश बिष्ट इंप्रेशन नाम से मंडुए से बेकरी के उत्पाद बनाने की अनूठी पहल की है। उनके प्रतिष्ठान में मडुवे के आधा-आधा दर्जन स्वादों के बिस्किट, पिज्जा और केक उपलब्ध हैं। खासकर उनके मंडुवे के केक खासे चर्चा में हैं। उमेश अपने मंडुवे के बने केक की खाशियत बताते हुए मंडुवे के उन गुणों को भी बताते हैं।
उमेश के अनुसार मंडुवा जहां अत्यधिक स्वास्थ्यवर्धक अनाज है, वहीं इसके बने केक आज के दौर में भोजन में कम कैलोरी लेने के इच्छुक व स्वास्थ्य के प्रति अधिक सचेत लोगों के लिए भी सर्वश्रेष्ठ विकल्प हैं। मंडुवे में गेहूं, सूजी व जौं की तरह ग्लूटन प्रोटीन भी नहीं होता है। उन्होंने बताया कि उनके पास मंडुवे के ‘सुगरफ्री’ और ‘ग्लूटन फ्री’ केक भी उपलब्ध हैं, और लोग इन्हें भी काफी पसंद कर रहे हैं। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
यह भी पढ़ें : नैनीताल का मधु ग्राम-आम ग्राम बन गया खास, कई संदेश
-गांव के 90 फीसद परिवार जुड़े हैं शहद उत्पादन ने, छह माह में 50 टन शहद का उत्पादन कर प्रति परिवार कमा लेते हैं दो से ढाई लाख, निर्यात किया जाता है शहद

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 15 सितंबर 2020। नैनीताल जनपद का ज्योली गांव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘वोकल फॉर लोकल’ का सर्वश्रेष्ठ अनुकरणीय प्रतिमान हो सकता है। करीब 100 परिवारों की आबादी वाले इस गांव के 50 फीसद परिवार सीधे एवं शेष 40 फीसद परिवार भी परोक्ष तौर पर मधु यानी शहद के उत्पादन से जुड़े हैं, और छह माह के मधु उत्पादन कार्य में मिलकर 50 टन तक शहद का उत्पादन कर लेते हैं और प्रति परिवार दो से ढाई लाख रुपए तक कमा रहे हैं।
उनका शहद स्थानीय स्तर पर सैलानियों एवं स्थानीय लोगों को आज के मिलावट के दौर में भी शुद्ध शहद उपलब्ध कराता है, साथ ही डीलरों के माध्यम से ही सही विदेशों को निर्यात भी होता है। इसीलिए इस ग्राम को ‘मधु ग्राम’ तक कहा जाने लगा है, हालांकि ग्रामीणों की उनके गांव को शासकीय दस्तावेजों में यह नाम दिये जाने की मांग अभी पूरी नहीं हुई है।
हल्द्वानी-नैनीताल राष्ट्रीय राजमार्ग पर मधु नगरी कहे जाने वाले ज्योलीकोट कश्बे से करीब पांच किमी दूर स्थित है ज्योली गांव। गांव के पूर्व प्रधान एवं वर्तमान में प्रधान पति शेखर भट्ट बताते हैं करीब 1995 के आसपास गांव के उमेश भट्ट, उमेश पांडे, प्रमोद पांडे, कंचन पांडे व उन्होंने दो से पांच बक्शों से व्यवसायिक तौर पर मौन पालन की शुरुआत की थी। जबकि वर्तमान में गांव में करीब 100 में से 50 परिवार सीधे तौर पर करीब ढाई से तीन हजार बक्शों के जरिये मौन पालन कर रहे हैं।
ये लोग छह माह में यूपी के बरेली, बदायूं से लेकर राजस्थान होते हुए हल्द्वानी-रामनगर व चोरगलिया के ग्रामीण एवं जंगली क्षेत्रों में सरसों, लाही, लीची, यूकेलिप्टस, शीशम, करी पत्ता, सूर्यमुखी आदि के बगीचों व वनों के पास अपनी मधुमक्खियों को ले जाकर मौन उत्पादन करते हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनुशासन का अनुपम उदाहरण होती हैं मधुमक्खियां
नैनीताल। जी हां, मधुमक्खियां लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनुशासन का अनुपम उदाहरण होती हैं। वे न केवल मधु एवं मोम का उत्पादन करती हैं, वरन फल एवं खाद्यान्न उत्पादन की मात्रा एवं गुणवत्ता में भी वृद्धि करने में सहायक होती हैं। हालांकि पहाड़ में परंपरागत तौर पर घरों में सदियों से मौन उत्पादन किया जाता रहा है, किंतु मौन पालकों की मानें तो पुराने दौर की भारतीय प्रजाति की मधुमक्खियां व्यवसायिक तौर पर मधु उत्पादन के लिए लाभदायक साबित नहीं होती हैं। इस लिहाज से यह भी मिथक ही है कि पहाड़ पर मधु उत्पादन की बेहतर संभावनाएं हैं, क्योंकि मौन पालकों के अनुसार पहाड़ भले फूलों के लिए जाने जाते हैं, किंतु यहां के फूलों में मधु उत्पादन कम होता है।
यहां तक कि राज्य वृक्ष बुरांश के शहद से भरपूर बताये जाने वाले फूलों से भी मधु मक्खियां शहद नहीं बना पाती हैं। इन्हीं कारणों से ज्योलीगांव के मौन पालकों को पहाड़ों की जगह यूपी से लेकर राजस्थान तक प्रवास करना पड़ता है। फिर भी ऐसी विषम परिस्थितियों के बावजूद पहाड़ से मौन उत्पादन का कार्य कर रहे हैं और दूर देश जाकर भी अपने गांव लौटते हैं और सुविधाविहीन होने के बावजूद स्वरोजगार का संदेश देते हैं। यह बड़ी बात है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
यह भी पढ़ें : नैनीताल की महिलाओं के लिए पहाड़ी ‘सिल पिसी नूण’ बना रोजगार का जरिया…
-‘सिल पिसी नूंण’ बना ब्रांड, 300 महिलाएं प्रतिवर्ष करती हैं 27 से अधिक स्वादों के नमक का उत्पादन
-शीघ्र 52 प्रकार के स्वादों के नमक बोतल बंद पैकिंग में होंगे उपलब्ध, उत्तराखंड की 30 हजार महिलाओं को इस लघु उद्योग से जोड़ने के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही हिमालयन फ्लेवर्स स्वयं सेवी संस्था
नवीन समाचार, नैनीताल, 03 सितंबर 2020। सुप्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार ने अपनी कविता ‘ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो’ में लिखा, ‘कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’। दुश्यंत की इस कविता को चरितार्थ कर दिखाया है नैनीताल जनपद की ग्रामीण महिलाओं ने। जनपद की ‘हिमालयन फ्लेवर्स’ स्वयं सेवी संस्था के लिए कार्य करने वाली यह महिलाएं प्रतिवर्ष पर्वतीय औषधीय गुणों युक्त जड़ी-बूटियों व मसालों से तैयार 27 स्वादों के करीब 10 टन नमक ‘सिल पिसी नूंण’ का प्रतिवर्ष उत्पादन करती हैं। उनके नमक का ऐसा स्वाद है कि यह देश ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों तक भी पहुंचता है और फिर भी मांग पूरी नहीं हो पा रही हैं।
‘सिल पिसी नूंण’ अब एक तरह से उत्तराखंड का ब्रांड बन चुका है। इसे एफएसएसआई का फूड लाइसेंस प्राप्त है। इसका पेटेंट और ‘जियो टैगिंग’ भी होने जा रहा है, तथा शीघ्र ही ‘सिल पिसी नूंण’ करीब 52 स्वादों में और नये ‘बोतल बंद’ स्वरूप में भी आने जा रहा है। बताया जा रहा है कि इस कार्य से राज्य की 30 हजार महिलाओं को उनके घर पर रोजगार मिल सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘वोकल फॉर लोकल’ की मुहिम शुरू की है। लेकिन जनपद की ‘हिमालयन फ्लेवर्स’ स्वयं सेवी संस्था ने वर्ष 2013 में कमोबेश आज की कोरोना जैसी ही बेहद विषम परिस्थितियों में जनपद मुख्यालय से करीब 40 किमी दूर भवाली-अल्मोड़ा राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 109 पर काकड़ीघाट के पास कुमाऊं मंडल विकास निगम के निष्प्रयोज्य पड़े
टीआईसी यानी टूरिस्ट इन्फॉर्मेशन सेंटर से इसकी शुरुआत कर दी थी। हुआ यह था कि इस वर्ष आई बड़ी प्राकृतिक आपदा में इस राजमार्ग का बड़ा हिस्सा काकड़ीघाट से पहले कोसी नदी में समा गया था। इससे इस मार्ग पर कई महीनों तक आवागमन बंद रहा था। इस पर संस्था के अध्यक्ष सौरभ पंत के नये विचार से चार-पांच महिलाओं से परंपरागत तौर पर पहाड़ में हर घर में सिल-बट्टे पर पीसे जाने वाले नूंण यानी नमक बनाने की शुरुआत की गई थी, जिसका विस्तार अब संस्था के कोषाध्यक्ष योगेंद्र सिंह द्वारा प्रशिक्षित 300 महिलाओं के द्वारा करीब 52 स्वादों के नमक तैयार करने तक हो चुका है।
नमक के परीक्षण व अन्य जिम्मेदारियां संभालने वाले संस्था के सचिव संदीप पांडे बताते हैं, पंतनगर विश्वविद्यालय में कराये गये परीक्षण में ‘सिल पिसी नूंण’ बाजार के सामान्य नमक के मुकाबले पौष्टिकता में बेहतर सिद्ध हुआ है। आगे संस्था का उद्देश्य राज्य की 30 हजार महिलाओं को ‘सिल पिसी नूंण’ का प्रशिक्षण देकर इसे उत्तराखंड के ब्रांड के रूप में प्रसिद्धि दिलाने का है। उनका मानना है कि इससे राज्य की अनपढ़ व ग्रामीण महिलाओं को रोजगार मिलने के साथ उनकी जीवनशैली बदल जाएगी। सरकार के स्तर पर उनका कहना है कि इस कार्य के लिए उनकी पीठ जरूर थपथपाई गई है, लेकिन किसी तरह की आर्थिक सहायता नहीं मिली है। वे कहते हैं, सरकार को समझना पड़ेगा कि छोटे समूहों को प्रेरित करके ही उत्तराखंड में मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना एवं ‘आत्मनिर्भर भारत’ योजनाएं सफल हो सकती हैं।
औषधीय गुणों से भी युक्त होता है ‘सिल पिसी नूंण’
नैनीताल। किसी भी पर्वतीय राज्य के हर घर में परंपरागत तौर पर पत्थर के सिल-बट्टे पर पिसा हुआ नमक ही प्रयोग किया जाता है। इसकी खासियत यह भी है कि खास तरह के पत्थर की तीसरी परत से बनने वाले सिल (शिला या पत्थर का अपभंश) में नमक या मसाले अधिकतम 30 डिग्री सेल्सियस तापमान पर पिसते हैं, जबकि चक्की, मशीन या मिक्सी आदि में मसाले पीसने में 70 डिग्री तक का तापमान उत्पन्न हो जाता है। इससे मसाले अपना स्वाद व गुण खो देते हैं। खासकर नमक नमी व 40 डिग्री की गर्मी में अपने अवयवों को छोड़ देता है। इसीलिए पहाड़ी घराट या हाथ की चक्की में पिसने वाला आटा भी पौष्टिकता के लिहाज से मशीनी चक्की या मिल के आटे से कहीं अधिक बेहतर होता है। ‘सिल पिसी नूंण’ काले व सफेद नमक से तैयार होने वाले तिमूर, काला जीरा, यारसा गंबू-कीड़ा जड़ी, लहसुन, मिर्च, हरा धनिया, पुदीना, दैंण, राई, भांग, अलसी सहित अन्य फ्लेवर्स यानी स्वादों में उपलब्ध हैं, जो तीन माह से लेकर तीन वर्ष तक चलते हैं। इनमें से प्रचुर मात्रा में कार्बोहाइडेड युक्त काला जीरा व तिमूर आदि के नमक मधुमेह तथा उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों में भी औषधीय लाभ प्रदान करते हैं। इसलिए लोग दूर-दूर से इन्हें खरीदने आने के साथ कोरियर से भी मंगाते हैं।
यह भी पढ़ें : नैनीताल आएं तो जरूर ले जाएं यहाँ के प्रसिद्ध काष्ठ उत्पाद
-सरोवरनगरी की पहचान हैं चीड़ के ठींठों व ड्रिफ्टवुड से बने कलात्मक उत्पाद
नवीन जोशी नैनीताल। सरोवरनगरी आने वाले सैलानी नगर की यादगार के रूप में जो कुछ अनूठी वस्तुएं ले जाते हैं, उनमें नगर की बनी मोमबत्तियों के साथ काष्ठ उत्पादों का खास महत्व है। नगर में लंबे दौर से कलाकारों चीड़ के ठींठों और नदियों में बहकर आने वाली लकड़ियों (ड्रिफ्टवुड) को अपनी कलाकारी से खूबसूरत उत्पादों में बदलकर न केवल अलग पहचान बनाई है, वरन इसे अपनी आजीविका आजीविका भी बनाया हुआ है। लेकिन हाल के वर्षों में नैनीताल की यह कला किसी भी तरह के सरकारी संरक्षण के अभाव के साथ ही दुकानें लगाने से रोके जाने के चलते दम तोड़ती जा रही है। इसलिए यदि आप नैनीताल आएं, तो जरूर नगर की पहचान, इन काष्ठ कला के उत्पादों को जरूर अपने साथ लेकर जाएं।
सरोवरनगरी में अब माल रोड व फ्लै्स मैदान के किनारे गुरुद्वारे के पास केवल पांच-छः की संख्या में ही बची काष्ठकला उत्पादों की दुकानें सभी सैलानियों का ध्यान आकर्षित करती हैं। इन दुकानों पर कारीगर दिन भर अपने लकड़ी से बने उत्पादों को कुछ न कुछ वार्निश अथवा रंगों से रंगते हुए नजर आ जाते हैं। यह कारीगर मुख्यतः पहाड़ी व अंग्रेजी चीड़ तथा देवदार के पेड़ों से मिलने वाले ठींठों के साथ ही नदियों में लंबी दूरी से बहने के कारण घिसते-घिसते किसी पक्षी या जानवर जैसा कुछ आकर्षक स्वरूप हासिल करने वाली ड्रिफ्टवुड कही जाने वाली लकड़ियों के साथ जंगली फर्न, रामबांश, सूखे फूलों आदि बेकार नजर आने वाली वस्तुओं से खूबसूरत उत्पाद तैयार करते हैं। यह उत्पाद आकार के अनुसार 50 रुपए से लेकर एक-डेड़ हजार रुपए में तक बिककर बड़े-बड़े घरों के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाते हैं। सामान्यतया नैनीताल आने वाला हर सैलानी स्वयं के साथ ही अपने रिश्तेदारों व पड़ोसियों के लिए भी नैनीताल की याद के रूप में ऐसे उत्पादों को ले जाते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में काफी मेहनत मांगने वाली यह कला लगातार सिमटती जा रही है। अब इस कला की नगर में गिनी-चुनी, विजय कुमार व राजू, पवन कुमार, भवानी दत्त जोशी तथा रतन सिहं व मनोहर आदि की दुकानें ही बची हैं, और एक-एक कर लोग यह काम छोड़ रहे हैं। जबकि एक दौर था जब नगर ही नहीं नगर के आसपास ज्योलीकोट से लेकर सरियाताल तक अनेक कलाकारों के घर इस काष्ठ कला से ही चलते थे। काष्ठ कलाकार विजय कुमार व राजू बताते हैं, इन उत्पादों के लिए पहले जंगलों व नदियों की खाक छाननी पड़ती है, तथा उन्हें कोई आकर्षक गुलदस्ते, छोटी टेबल अथवा पशु-पक्षी जैसा स्वरूप दिया जाता है। किसी ही कारीगर के पास अपनी दुकान नहीं है, ऐसे में वह खुले में दुकानें लगाते हैं, तथा उनकी कला को किसी सरकारी संरक्षण की जगह अक्सर नगर पालिका व जिला प्रशासन के अतिक्रमणविरोधी अभियानों के नाम पर हटा दिया जाता है। नगर में कई बार अन्य कलाकार भी चीड़ की निश्प्रयोज्य छाल (बगेट) एवं अन्य जंगली उत्पादों से खूबसूरत उत्पाद तैयार कर लाते हैं, लेकिन किसी तरह के संरक्षण के अभाव में वह भी आखिर घर बैठने को ही मजबूर हो जाते हैं। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।