महत्वपूर्ण: कुमाऊं विवि में सेमेस्टर प्रणाली से मिल सकती है छूट, हमने पहले ही जतायी थी सम्भावना..
नवीन समाचार, नैनीताल, 17 अक्टूबर 2019। कुमाऊं विवि के कुलपति प्रो. केएस राणा ने सभी संबद्ध महाविद्यालयों के प्राचार्यों को पत्र भेजकर स्नातक स्तर पर वापस वार्षिक प्रणाली को लागू करने के लिए शिक्षकों व छात्र-प्रतिनिधियों से वार्ता कर एक सप्ताह के भीतर विवि को आख्या देने को कहा है। कुलपति प्रो. राणा ने बताया कि पहाड़ की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में सेमेस्टर प्रणाली के तहत छात्रों को पठन-पाठन में आ रही समस्याओं, शिक्षकों, प्रयोगशालाओं, पुस्तककों एवं अवस्थापना संबंधी कमियों को उन्होंने गत दिनों देहरादून में आयोजित कुलपतियों के सम्मेलन में उठाया था। वहीं उनके अनुरोध पर प्रमुख सचिव उच्च शिक्षा से कुलपति को इस संबंध में निर्णय लेने को अधिकृत कर दिया है। इसी कड़ी में कुलपति ने प्राचार्यों को पत्र लिखा है। कुलपति ने स्पष्ट किया है कि स्नातकोत्तर स्तर पर सेमेस्टर प्रणाली लागू रहेगी परंतु स्नातक स्तर पर मूलभूत अवस्थापना सुविधाएं बहाल होने तक सेमेस्टर प्रणाली में छूट दी जा सकती है। साथ ही यह भी ताकीद की गई है कि महाविद्यालयों को नैक से प्रत्यायन कराने के लिए सेमेस्टर प्रणाली जरूरी है, तथा वैश्विक शैक्षिक परिदृश्य में सेमेस्टर प्रणाली से छात्रों को वंचित रखना उनके भविष्य के लिए न्याय संगत नहीं होगा। इसलिए महाविद्यालय सेमेस्टर प्रणाली की जगह फिर से पुरानी वार्षिक प्रणाली लागू करने से पहले गंभीरता से सोच लें। बताया गया है कि वार्षिक प्रणाली के लिए पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए विवि में पाठ्य समतियों की बैठकें कराई जा रही हैं।
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पूर्व समाचार : एबीवीपी ने किया राज्य सरकार के खिलाफ निर्णायक जंग का ऐलान, पर निशाना कहीं और…, सेमेस्टर प्रणाली को हटाने की है मांग
नवीन समाचार, नैनीताल, 16 अगस्त 2018। राष्ट्रवादी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने सेमेस्टर परीक्षा प्रणाली को हटाने की मांग के साथ राज्य सरकार के खिलाफ निर्णायक व चरणबद्ध आंदोलन का ऐलान कर दिया है। हालांकि असली निशाने पर यह प्रणाली लागू करने वाली देश की पूर्ववर्ती यूपीए सरकार बताई जा रही है। परिषद के प्रांत संपर्क प्रमुख निखिल बिष्ट ने बृहस्पतिवार को नैनीताल क्लब में पत्रकार वार्ता करते हुए बताया कि इस मुद्दे पर आगामी 17 अगस्त को हस्ताक्षर अभियान से निर्णायक आंदोलन की शुरुआत की जाएगी। 18 को पूरे प्रदेश के शिक्षण संस्थानों के माध्यम से उच्च शिक्षा मंत्री को सेमेस्टर प्रणाली हटाने के लिए ज्ञापन भेजे जाएंगे। इसी कड़ी में आगे 19 को जनप्रतिनिधियों का घेराव, 20 को कॉलेज परिसरों में सेमेस्टर प्रणाली को हटाने के लिए जागरूकता अभियान, 21 को पूरे प्रदेश में प्रदेश सरकार का पुतला दहन तथा 22 अगस्त को प्रदेश के सभी 22 संगठनात्मक जिलों में सरकार के खिलाफ आक्रोश रैली निकाली जाएगी।
निखिल ने दावा किया कि हरियाणा, मध्य प्रदेश व यूपी सहित कई राज्यों में इस प्रणाली को हटा दिया गया है, अथवा हटाने की प्रक्रिया चल रही है। अमेरिका से ली गयी इस प्रणाली के लिए भारत में न हीं संसाधन उपलब्ध हैं न स्थितियां ही हैं। यहां वार्षिक प्रणाली के परिणाम ही ठीक से घोषित नहीं हो पाते हैं, अब वर्ष में दो बार परीक्षाओं से छात्र-छात्राओं का सर्वांगींण विकास रुक गया है। वे वर्ष भर परीक्षाओं की ही तैयारी में लगे रहने को मजबूर हो गये हैं, अन्य गतिविधियों के लिए उन्हें समय नहीं मिल पाता है। पत्रकार वार्ता में नगर प्रमुख मोहित साह, विभाग संयोजक मोहित रौतेला, प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य पूनम बवाड़ी, डीएसबी परिसर अध्यक्ष विशाल वर्मा, हरीश राणा, नवीन भट्ट व छात्र संघ अध्यक्ष अभिषेक राठौर आदि मौजूद रहे।
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‘शैक्षिक दखल’ पत्रिका के पहले अंक के आखिर में लिखे संपादक श्री दिनेश कर्नाटक जी के आलेख-‘और अंत में’ को पढ़ते हुए मन में आए प्रश्नों को यहां उकेरने की कोशिश कर रहा हूं। पत्रिका के अंतिम संपादकीय लेख ‘और अंत में’ के अंत में लेखक लिखते हैं-‘बच्चे परीक्षा पढ़ने के लिए पढ़ने के बजाय जीवन को जानने और समझने के लिए पढ़ेंगे, तभी जाकर शिक्षा सही मायने में लोकतांत्रिक होगी। तभी शिक्षा भयमुक्त हो पाएगी और विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे।’ मुझे इस कल्पना के यहां तक साकार होने की उम्मीद तो है कि विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे, लेकिन इसके आगे क्या होगा, इस पर संदेह है। इस लेख की प्रेरक हिंदी फिल्म ‘थ्री इडियट’ लगती है, पर क्या ‘थ्री इडियट’ के नायक ‘रड़छोड़ दास चांचड़’ फिल्मी परदे से बाहर कहीं नजर आते हैं। ऐसी कल्पना के लिए मौजूदा व्यवस्था और विद्यालयों के स्वरूप के साथ ही शिक्षकों में पठन-पाठन के प्रति वैसी प्रतिबद्धता भी नजर नहीं आती। वरन, मौजूदा व्यवस्था लोकतांत्रिक ही नहीं अति लोकतांत्रिक या अति प्रजातांत्रिक जैसी स्थिति तक पहुंच गई लगती है, जहां खासकर सरकारी विद्यालयों में सब कुछ होता है, बस पढ़ाई नहीं होती या तमाम गणनाओं और ‘डाक’ तैयार करने व आंकड़ों को इस से उस प्रारूप में परिवर्तित करने के बाद पढ़ाई के लिए समय ही नहीं होता। पाठशालाऐं, पाकशालाऐं बन गई हैं, सो शिक्षकों पर दाल, चावल के साथ ही महंगी हो चली गैस के कारण लकड़ियां बीनने तक का दायित्व-बोझ भी है।
लेख में ‘जॉन होल्ट’ को उद्धृत कर कहा गया है, ‘(शायद पुराने/हमारे दौर की शिक्षा व्यवस्था से बाहर निकलने के बाद) बच्चे जब बंधनों से छूटते हैं, बार-बार बात काटते हैं….’ यह बात मुझे लेख पढ़ते हुऐ बार-बार प्रश्न उठाने को मजबूर करती हुई स्वयं पर सही साबित होती हुई महसूस हुई। शायद यह मेरा बार-बार बात काटना ही हो, खोजी/सच का अन्वेषण करने की प्रवृत्ति न हो। जॉन होल्ट से कम परिचित हूं, इसलिए जानना भी चाहता हूं कि वह कहां (क्या भारत) की शिक्षा व्यवस्था पर यह टिप्पणी कर रहे हैं ? वहीं लेख में विजय, सुशील व धौनी आदि के नाम गिनाए गए हैं, मुझे लगता है वह नई नहीं, पुरानी व्यवस्था से ही निकली हुई शख्शियतें हैं।
लेख में बच्चे को फेल कर देने की प्रणाली को ‘पुराना और खतरनाक विचार’ कहा गया है। यहां सवाल उठता है कि पिछली आधी शताब्दी में हमने जो चर्तुदिक प्रगति की है, क्या वह इसी ‘खतरनाक विचार’ की वजह से नहीं है ? क्या इसी ‘खतरनाक विचार’ से हम पूर्व में अपनी गुरुकुलों की पुरातन शिक्षा व्यवस्था से ‘विश्व गुरु’ नहीं थे, और हालिया (मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा) व्यवस्था से भी हमने विश्व और खासकर आज के विश्व नायक देश ‘अमेरिका’ में अपनी प्रतिभा का डंका नहीं बजाया है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा यूं दूसरों की मांद में घुसकर ‘उन’ की छाती पर चढ़कर मूंग दलना ‘उन्हें’ रास नहीं आ रहा और उन्होंने विश्व बैंक की थैलियां दिखाकर विश्व बैंक के ही पुराने कारिंदे-हमारे प्रधानमंत्री जी के जरिए इसे ‘पुराना और खतरनाक विचार’ करार दे दिया। सीबीएसई बोर्ड के वरिष्ठतम अधिकारी ने स्वयं मुझसे अनौपचारिक वार्ता में कहा था कि वह स्वयं नई व्यवस्था और खासकर पास-फेल के बजाय ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने से असहमत हैं। उन्होंने इसे तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की ‘सनक’ कहने से भी गुरेज नहीं किया था। बहरहाल, इस नई व्यवस्था से क्या होगा, इस पर अभी कयास ही लगाए जा सकते हैं, इसका असर देखने में अभी समय लगेगा।
बहरहाल, मैं दुआ करूंगा कि मैं गलत होऊं। हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ियां इस नई प्रणाली से भी भारत का अपना पुराना ‘विश्व गुरु’ का सम्मान बरकरार रखें, आपकी बात सही साबित हो। विद्यालय में जैसे शैक्षिक माहौल की बात (कल्पना) लेख में की गई है, वह सफल हो, विद्यार्थियों के मन से फेल होने के डर या दर्द के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना ही दम न तोड़ दे। लेकिन मैं ‘नए’ विचारवान लोगों से स्वयं के लिए ‘पुराने व खतरनाक’ तथा यहां तक कि ‘जंगल के कानून’ की वकालत करने वाले की ‘गाली’ खाना भी पसंद करूंगा कि भविष्य के लिए मजबूत से मजबूत पीढ़ियां तैयार करने के लिए कमजोर कड़ियों का फेल हो जाना ही नहीं टूट जाना, यहां तक कि ‘शहीद हो जाना’ भी जरूरी है। बाल्यकाल से ही हमारे बच्चे कठिन चुनौतियों के अभ्यस्त होंगे तो आगे जीवन की कठिनतर होती जा रही विभीषिकाओं को ही सहज तरीके से सामना कर पाएंगे।
वरना दुनिया जिस तरह चल रही है, वैसे में विद्यालयों को ‘आनंदालय’ बनाना तो संभव है (विद्यालयों को तो वहां पढ़ाना-लिखाना बंद करके बेहद आसान तरीके से भी आनंदालय बनाया जा सकता है), पर बिल्कुल भी संदेह नहीं कि उनसे बाहर निकलकर दुनिया कतई आनंदालय नहीं होने वाली है। बस आखिर में एक बात और, इस लेख और इस नए विचार को पढ़कर यह सवाल भी उठता है कि क्या हमें हमारे शास्त्रों में लिखा ‘सुखार्थी वा त्यजेत विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्’ भी भूल जाना चाहिए ? या कि हम ‘पश्चिमी हवाओं’ के प्रभाव तथा बदलाव और विकास की अंधी दौड़ में अपने पुरातन व सनातन कहे जाने वाले विचारों को भी एक ‘पुराना व खतरनाक विचार’ ठहराने से गुरेज नहीं करेंगे ?
(‘शैक्षिक दखल’ पत्रिका के दूसरे अंक में प्रकाशित आलेख)