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December 8, 2024

महत्वपूर्ण: कुमाऊं विवि में सेमेस्टर प्रणाली से मिल सकती है छूट, हमने पहले ही जतायी थी सम्भावना..

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-शिक्षक एवं अनय अवस्थापना सुविधाएं पूरी करने तक के लिए मिल सकती है छूट
नवीन समाचार, नैनीताल, 17 अक्टूबर 2019। कुमाऊं विवि के कुलपति प्रो. केएस राणा ने सभी संबद्ध महाविद्यालयों के प्राचार्यों को पत्र भेजकर स्नातक स्तर पर वापस वार्षिक प्रणाली को लागू करने के लिए शिक्षकों व छात्र-प्रतिनिधियों से वार्ता कर एक सप्ताह के भीतर विवि को आख्या देने को कहा है। कुलपति प्रो. राणा ने बताया कि पहाड़ की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में सेमेस्टर प्रणाली के तहत छात्रों को पठन-पाठन में आ रही समस्याओं, शिक्षकों, प्रयोगशालाओं, पुस्तककों एवं अवस्थापना संबंधी कमियों को उन्होंने गत दिनों देहरादून में आयोजित कुलपतियों के सम्मेलन में उठाया था। वहीं उनके अनुरोध पर प्रमुख सचिव उच्च शिक्षा से कुलपति को इस संबंध में निर्णय लेने को अधिकृत कर दिया है। इसी कड़ी में कुलपति ने प्राचार्यों को पत्र लिखा है। कुलपति ने स्पष्ट किया है कि स्नातकोत्तर स्तर पर सेमेस्टर प्रणाली लागू रहेगी परंतु स्नातक स्तर पर मूलभूत अवस्थापना सुविधाएं बहाल होने तक सेमेस्टर प्रणाली में छूट दी जा सकती है। साथ ही यह भी ताकीद की गई है कि महाविद्यालयों को नैक से प्रत्यायन कराने के लिए सेमेस्टर प्रणाली जरूरी है, तथा वैश्विक शैक्षिक परिदृश्य में सेमेस्टर प्रणाली से छात्रों को वंचित रखना उनके भविष्य के लिए न्याय संगत नहीं होगा। इसलिए महाविद्यालय सेमेस्टर प्रणाली की जगह फिर से पुरानी वार्षिक प्रणाली लागू करने से पहले गंभीरता से सोच लें। बताया गया है कि वार्षिक प्रणाली के लिए पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए विवि में पाठ्य समतियों की बैठकें कराई जा रही हैं।

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नवीन समाचार, देहरादून,  24 जनवरी 2019। उत्तराखंड के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में स्नातक में सेमेस्टर प्रणाली खत्म हो सकती है। इसके लिए सरकार पहले प्रदेशभर के छात्रों से सुझाव लेगी।

उल्लेखनीय है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने देशभर के सभी विश्वविद्यालयों में सत्र 2016-17 से च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम (सीबीसीएस) लागू करने का आदेश दिया था। जिसके बाद कुमाऊं विश्वविद्यालय व गढ़वाल विवि सहित सभी केंद्रीय संस्थानों में सीबीसीएस लागू हो गया था। राज्यों के विश्वविद्यालयों में भी ग्रेजुएशन स्तर पर सीबीसीएस लागू किया गया, लेकिन इस सिस्टम पर सवाल उठने भी शुरू हो गए थे।अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद लंबे समय से स्नातक में सीबीसीएस सिस्टम का विरोध करती आ रही है। एबीवीपी का कहना है कि चूंकि हमारे विश्वविद्यालयों में ऐसे सिस्टम को लागू करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, इसलिए इसके लिए पहले संसाधन तैयार किए जाएं। बहरहाल, अब राज्य सरकार ने इस दिशा में काम शुरू किया है। उच्च शिक्षा राज्यमंत्री डॉ. धन सिंह रावत ने बताया कि इस सिस्टम को खत्म कराने के लिए पहले वेबसाइट के माध्यम से सभी राज्य के सभी छात्रों से सुझाव मांगे जाएंगे, इसके बाद आगे की प्रक्रिया शुरू की जाएगी।

पूर्व समाचार : एबीवीपी ने किया राज्य सरकार के खिलाफ निर्णायक जंग का ऐलान, पर निशाना कहीं और…, सेमेस्टर प्रणाली को हटाने की है मांग

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पत्रकार वार्ता करते अभाविप नेता।

नवीन समाचार, नैनीताल, 16 अगस्त 2018। राष्ट्रवादी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने सेमेस्टर परीक्षा प्रणाली को हटाने की मांग के साथ राज्य सरकार के खिलाफ निर्णायक व चरणबद्ध आंदोलन का ऐलान कर दिया है। हालांकि असली निशाने पर यह प्रणाली लागू करने वाली देश की पूर्ववर्ती यूपीए सरकार बताई जा रही है। परिषद के प्रांत संपर्क प्रमुख निखिल बिष्ट ने बृहस्पतिवार को नैनीताल क्लब में पत्रकार वार्ता करते हुए बताया कि इस मुद्दे पर आगामी 17 अगस्त को हस्ताक्षर अभियान से निर्णायक आंदोलन की शुरुआत की जाएगी। 18 को पूरे प्रदेश के शिक्षण संस्थानों के माध्यम से उच्च शिक्षा मंत्री को सेमेस्टर प्रणाली हटाने के लिए ज्ञापन भेजे जाएंगे। इसी कड़ी में आगे 19 को जनप्रतिनिधियों का घेराव, 20 को कॉलेज परिसरों में सेमेस्टर प्रणाली को हटाने के लिए जागरूकता अभियान, 21 को पूरे प्रदेश में प्रदेश सरकार का पुतला दहन तथा 22 अगस्त को प्रदेश के सभी 22 संगठनात्मक जिलों में सरकार के खिलाफ आक्रोश रैली निकाली जाएगी।
निखिल ने दावा किया कि हरियाणा, मध्य प्रदेश व यूपी सहित कई राज्यों में इस प्रणाली को हटा दिया गया है, अथवा हटाने की प्रक्रिया चल रही है। अमेरिका से ली गयी इस प्रणाली के लिए भारत में न हीं संसाधन उपलब्ध हैं न स्थितियां ही हैं। यहां वार्षिक प्रणाली के परिणाम ही ठीक से घोषित नहीं हो पाते हैं, अब वर्ष में दो बार परीक्षाओं से छात्र-छात्राओं का सर्वांगींण विकास रुक गया है। वे वर्ष भर परीक्षाओं की ही तैयारी में लगे रहने को मजबूर हो गये हैं, अन्य गतिविधियों के लिए उन्हें समय नहीं मिल पाता है। पत्रकार वार्ता में नगर प्रमुख मोहित साह, विभाग संयोजक मोहित रौतेला, प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य पूनम बवाड़ी, डीएसबी परिसर अध्यक्ष विशाल वर्मा, हरीश राणा, नवीन भट्ट व छात्र संघ अध्यक्ष अभिषेक राठौर आदि मौजूद रहे।

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एक पुराना आलेख : अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली
Barack Obama Manmohan Singh 0नवीन जोशी, नैनीताल, रविवार, 10 अक्टूबर 2010।  हाल में आयी एक खबर में कहा गया है ‘विश्व बैंक ने भारत को अधिक से अधिक बच्चों को शिक्षा सुविधाएं मुहैया कराने के लिए एक अरब पांच करोड़ डॉलर यानी 5,250 करोड़ रुपये से अधिक के ऋण की मंजूरी दे दी है। यह ऋण सरकार द्वारा चलाए जा रहे सर्व शिक्षा अभियान की सहायता के लिए दिया जाएगा।’ यह शिक्षा के क्षेत्र में विश्व बैंक का अब तक का सबसे बड़ा निवेश तो है ही, साथ ही यह कार्यक्रम विश्व में अपनी तरह का सबसे बड़ा कार्यक्रम है।
इसके इतर दूसरी ओर  इससे भी बड़ी परन्तु दब गयी खबर यह है कि भारत सरकार देश भर के स्कूलों में परंपरागत आंकिक परीक्षा प्रणाली को ख़त्म करना चाहती है, वरन देश के कई राज्यों की मनाही के बावजूद सी.बी.एस.ई. में इस की जगह ‘ग्रेडिंग प्रणाली’ लागू कर दी गयी है 
तीसरे कोण पर जाएँ तो अमेरिका भारतीय पेशेवरों से परेशान है. कुछ दशक पहले नौकरी करने अमेरिका गए भारतीय अब वहां नौकरियां देने लगे हैं अमेरिका की जनसँख्या के महज एक फीसद से कुछ अधिक भारतीयों ने अमेरिका की ‘सिलिकोन सिटी’ के 15 फीसद से अधिक हिस्सेदारी अपने नाम कर ली है। उसे भारतीय युवाओं की दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा तो चाहिए, पर नौकरों के रूप में, नौकरी देने वाले बुद्धिमानों के रूप में नहीं
आश्चर्य नहीं इस स्थिति के उपचार को अमेरिका ने अपने यहाँ आने भारतीयों के लिए H 1 B व L1 बीजा के शुल्क में इतनी बढ़ोत्तरी कर ली है अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की गत दिनों हुई भारत यात्रा में भी यह मुख्य मुद्दा रहा 
अब एक और कोण, 1991 में भारत के रिजर्व बैंक में विदेशी मुद्रा भण्डार इस हद तक कम हो जाने दिया गया कि सरकार दो सप्ताह के आयात के बिल चुकाने में भी सक्षम नहीं थी। यही मौका था जब अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान संकट मोचक का छद्म वेश धारण करके सामने आये । देश आर्थिक संकट से तो जूझ रहा था पर विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय मुद्राकोष को पता था कि भारत कंगाल नहीं हुआ है, और वह इस स्थिति का फायदा उठा सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सुझाव पर भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने भण्डार में रखा हुआ 48 टन सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा एकत्र की।  उदारवाद के मोहपाश में बंधे तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी सरकार और अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। यही वह समय था जब सरकार हर सलाह के लिये विश्व बैंक – आईएमएफ की ओर ताक रही थी। हर नीति और भविष्य के विकास की रूपरेखा वाशिंगटन में तैयार होने लगी थी। याद कर लें, वाशिंगटन केवल अमेरिका की राजधानी नहीं है बल्कि यह विश्व बैंक का मुख्यालय भी है।  
अब वापस इस तथ्य को साथ लेकर लौटते हैं कि आज “1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह” भारत के प्रधानमंत्री हैं उन्होंने देश भर में ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने का खाका खींच लिया है, वरन सी.बी.एस.ई. में (तत्कालीन निदेशक विनीत जोशी की काफी हद तक अनिच्छा के बावजूद, जैसा उन्होंने नैनीताल के बिड़ला विद्या मंदिर में हुई वार्ता में बताया) इसे लागू भी कर दिया है इसके पीछे कारण प्रचारित किया जा रहा है कि आंकिक परीक्षा प्रणाली में बच्चों पर काफी मानसिक दबाव व तनाव रहता है, जिस कारण हर वर्ष कई बच्चे आत्महत्या तक कर बैठते हैं (यह नजर अंदाज करते हुए कि “survival of the fittest” का अंग्रेज़ी सिद्धांत भी कहता है कि पीढ़ियों को बेहतर बनाने के लिए कमजोर अंगों का टूटकर गिर जाना ही बेहतर होता है जो खुद को युवा कहने वाले जीवन की प्रारम्भिक छोटी-मोटी परीक्षाओं से घबराकर श्रृष्टि के सबसे बड़े उपहार “जीवन की डोर” को तोड़ने से गुरेज नहीं करते, उन्हें बचाने के लिए क्या आने वाली मजबूत पीढ़ियों की कुर्बानी दी जानी चाहिए
यह भी कहा जाता है कि फ़्रांस के एक अखबार ने चुनाव से पहले ही वर्ष २००० में सिंह के देश का अगला वित्त मंत्री बनाने की भविष्यवाणी कर दी थी….(यानी जिस दल की भी सरकार बनती, ‘मनमोहन’ नाम के मोहरे को अमेरिका और विश्व बैंक भारत का वित्त मंत्री बना देते)
कोई आश्चर्य नहीं, यहाँ “दो और लो (Give and Take)” के बहुत सामान्य से नियम का ही पालन किया जा रहा है  अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान कर्ज एवं अनुदान दे रहे हैं, इसलिये स्वाभाविक है कि शर्ते भी उन्हीं की चलेंगी। लिहाजा हमारे प्रधानमंत्री जी पर अमेरिका का भारी दबाव है, “तुम्हारी (दुनियां की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति वाली) युवा ब्रिगेड ने हमारे लोगों के लिए बेरोजगारी की  समस्या खड़ी कर दी है, विश्व बेंक के 1.05 अरब डॉलर पकड़ो, और इन्हें यहाँ आने से रोको, भेजो भी तो हमारे इशारों पर काम करने वाले कामगार….हमारी छाती पर मूंग दलने वाले होशियार नहीं…समझे….”, और प्रधानमंत्री जी ठीक सोनिया जी के सामने शिर झुकाने की अभ्यस्त मुद्रा में ‘यस सर’ कहते है, और विश्व बैंक के दबाव में ग्रेडिंग प्रणाली लागू कर रहे हैं
उनके इस कदम से देश के युवाओं में बचपन से एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिद्वंद्विता की भावना और “self motivation” की प्रेरणा दम तोड़ने जा रही है देश की आने वाली पीढियां पंगु होने जा रही हैं अब उन्हें कक्षा में प्रथम आने, अधिक प्रतिशतता के अंक लाने और यहाँ तक कि पास होने की भी कोई चिंता नहीं रही शिक्षकों के हाथ से छड़ी पहले ही छीन चुकी सरकार ने अब अभिभावकों के लिए भी गुंजाइस नहीं छोडी कि वह बच्चों को न पढ़ने, पास न होने या अच्छी परसेंटेज न आने पर डपटें भी
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1990 के आसपास की बात है। जो भी प्रतिभावान बच्चे अच्छे Engineering, Medical, Law, Accounts या अन्य किसी भी Field से अपनी पढ़ाई पूरी करते, विदेशी कम्पनियाँ तुरन्त Toppers को भर्ती करके विदेश ले जाती। ये दौर बहुत ज्यादा Competition का दौर था।
प्रतिभा पलायन (Brain Drain) एक राष्ट्रीय समस्या और ज्वलंत मुद्दा बन चुका था। TV, अख़बारों, रेडियो, सभाओं, संगोष्ठी और Debates में छाया हुआ मुद्दा।
राष्ट्र में रहकर युवा भले ही राष्ट्र की सेवा ना कर पा रहे थे, किन्तु भारत की विश्वगुरु की पहचान फिर से ज़िन्दा हो रही थी। संसार स्तब्ध था, और धीरे-धीरे विश्व के सभी सम्मानित संस्थानों पर भारतीय युवा Doctors, Engineers, Professors, Scientists, CEO आदि-आदि के रूप में कब्जा जमाते जा रहे थे।
आपके जितने भी जानकार विदेशों में हैं, उनमें से ज़्यादातर की Graduation 1990 से 2005 के बीच पूरी हुई होगी। आप खुद देख लीजिये।
तभी विश्व ने भारत के साथ छल किया। UNO के माध्यम से पैसे फेंककर भारत में No Detention Policy लागू करवाई और Universalisation of Elementary Education के नाम पर भारतीय शिक्षा की बुनियादी जड़ों को काट दिया।
युवाओं को भटकाने के लिए अमेरिकी और यूरोपीय कम्पनियों ने Facebook, Whatsapp, Twitter और ना जाने कितने जंजाल युवाओं के गले में डाल दिये।
Social Media या Shopping के अलावा आप अपने Computer पर किसी भी विकसित देश की कोई भी उपयोगी जानकारी, knowledge, Information वाली website नहीं खोल सकते। चाहें तो आप चेक कर लीजिये।
वो लोग आपसे Medical, Engineering, Architecture में हो रही advancement share नहीं करना चाहते। बस आपको Social Media पर फँसाकर, आपका ध्यान भटकाकर आपको पढ़ाई में पीछे छोड़ना चाहते थे, और उन्होंने बड़े ही शातिराना ढंग से आपको पीछे छोड़ दिया।
कहाँ गया प्रतिभा-पलायन का मुद्दा ? जब प्रतिभा ही नहीं बची तो प्रतिभा-पलायन कैसा ? 
युवा सतर्क हो जायें, Internet को छोड़कर किताबों की तरफ लौटें।
उज्ज्वल भविष्य आपका इंतजार कर रहा है। व्रत का मतलब समझें। संकल्प का मतलब समझें। खाना छोड़ना व्रत नहीं है, Internet या Mobile छोड़ना भी व्रत हो सकता है। दिन में दस घण्टे किताब पढ़ना भी संकल्प हो सकता है।
ये सन्देश किसी अज्ञात लेखक ने लिखा है। मुझे पढ़कर काफी अच्छा लगा और इसलिए मैं आप तक भेज रहा हूँ। आप भी पढ़िये और अच्छा लगे तो आगे भेजिये। बुराई स्वतः फैलती है और अच्छाई प्रयास के द्वारा।
👍जयहिन्द👍

यह भी पढ़ें : आधुनिक शिक्षा व्यवस्था पर मेरा एक ‘खतरनाक और पुराना विचार’

शैक्षिक दखल’ पत्रिका के पहले अंक के आखिर में लिखे संपादक श्री दिनेश कर्नाटक जी के आलेख-‘और अंत में’ को पढ़ते हुए मन में आए प्रश्नों को यहां उकेरने की कोशिश कर रहा हूं। पत्रिका के अंतिम संपादकीय लेख ‘और अंत में’ के अंत में लेखक लिखते हैं-‘बच्चे परीक्षा पढ़ने के लिए पढ़ने के बजाय जीवन को जानने और समझने के लिए पढ़ेंगे, तभी जाकर शिक्षा सही मायने में लोकतांत्रिक होगी। तभी शिक्षा भयमुक्त हो पाएगी और विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे।’ मुझे इस कल्पना के यहां तक साकार होने की उम्मीद तो है कि विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे, लेकिन इसके आगे क्या होगा, इस पर संदेह है। इस लेख की प्रेरक हिंदी फिल्म ‘थ्री इडियट’ लगती है, पर क्या ‘थ्री इडियट’ के नायक ‘रड़छोड़ दास चांचड़’ फिल्मी परदे से बाहर कहीं नजर आते हैं। ऐसी कल्पना के लिए मौजूदा व्यवस्था और विद्यालयों के स्वरूप के साथ ही शिक्षकों में पठन-पाठन के प्रति वैसी प्रतिबद्धता भी नजर नहीं आती। वरन, मौजूदा व्यवस्था लोकतांत्रिक ही नहीं अति लोकतांत्रिक या अति प्रजातांत्रिक जैसी स्थिति तक पहुंच गई लगती है, जहां खासकर सरकारी विद्यालयों में सब कुछ होता है, बस पढ़ाई नहीं होती या तमाम गणनाओं और ‘डाक’ तैयार करने व आंकड़ों को इस से उस प्रारूप में परिवर्तित करने के बाद पढ़ाई के लिए समय ही नहीं होता। पाठशालाऐं, पाकशालाऐं बन गई हैं, सो शिक्षकों पर दाल, चावल के साथ ही महंगी हो चली गैस के कारण लकड़ियां बीनने तक का दायित्व-बोझ भी है। 

लेख में ‘जॉन होल्ट’ को उद्धृत कर कहा गया है, ‘(शायद पुराने/हमारे दौर की शिक्षा व्यवस्था से बाहर निकलने के बाद) बच्चे जब बंधनों से छूटते हैं, बार-बार बात काटते हैं….’ यह बात मुझे लेख पढ़ते हुऐ बार-बार प्रश्न उठाने को मजबूर करती हुई स्वयं पर सही साबित होती हुई महसूस हुई। शायद यह मेरा बार-बार बात काटना ही हो, खोजी/सच का अन्वेषण करने की प्रवृत्ति न हो। जॉन होल्ट से कम परिचित हूं, इसलिए जानना भी चाहता हूं कि वह कहां (क्या भारत) की शिक्षा व्यवस्था पर यह टिप्पणी कर रहे हैं ? वहीं लेख में विजय, सुशील व धौनी आदि के नाम गिनाए गए हैं, मुझे लगता है वह नई नहीं, पुरानी व्यवस्था से ही निकली हुई शख्शियतें हैं।

लेख में बच्चे को फेल कर देने की प्रणाली को ‘पुराना और खतरनाक विचार’ कहा गया है। यहां सवाल उठता है कि पिछली आधी शताब्दी में हमने जो चर्तुदिक प्रगति की है, क्या वह इसी ‘खतरनाक विचार’ की वजह से नहीं है ? क्या इसी ‘खतरनाक विचार’ से हम पूर्व में अपनी गुरुकुलों की पुरातन शिक्षा व्यवस्था से ‘विश्व गुरु’ नहीं थे, और हालिया (मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा) व्यवस्था से भी हमने विश्व और खासकर आज के विश्व नायक देश ‘अमेरिका’ में अपनी प्रतिभा का डंका नहीं बजाया है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा यूं दूसरों की मांद में घुसकर ‘उन’ की छाती पर चढ़कर मूंग दलना ‘उन्हें’ रास नहीं आ रहा और उन्होंने विश्व बैंक की थैलियां दिखाकर विश्व बैंक के ही पुराने कारिंदे-हमारे प्रधानमंत्री जी के जरिए इसे ‘पुराना और खतरनाक विचार’ करार दे दिया। सीबीएसई बोर्ड के वरिष्ठतम अधिकारी ने स्वयं मुझसे अनौपचारिक वार्ता में कहा था कि वह स्वयं नई व्यवस्था और खासकर पास-फेल के बजाय ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने से असहमत हैं। उन्होंने इसे तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की ‘सनक’ कहने से भी गुरेज नहीं किया था। बहरहाल, इस नई व्यवस्था से क्या होगा, इस पर अभी कयास ही लगाए जा सकते हैं, इसका असर देखने में अभी समय लगेगा। 

बहरहाल, मैं दुआ करूंगा कि मैं गलत होऊं। हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ियां इस नई प्रणाली से भी भारत का अपना पुराना ‘विश्व गुरु’ का सम्मान बरकरार रखें, आपकी बात सही साबित हो। विद्यालय में जैसे शैक्षिक माहौल की बात (कल्पना)  लेख में की गई है, वह सफल हो, विद्यार्थियों के मन से फेल होने के डर या दर्द के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना ही दम न तोड़ दे। लेकिन मैं ‘नए’ विचारवान लोगों से स्वयं के लिए ‘पुराने व खतरनाक’ तथा यहां तक कि ‘जंगल के कानून’ की वकालत करने वाले की ‘गाली’ खाना भी पसंद करूंगा कि भविष्य के लिए मजबूत से मजबूत पीढ़ियां तैयार करने के लिए कमजोर कड़ियों का फेल हो जाना ही नहीं टूट जाना, यहां तक कि ‘शहीद हो जाना’ भी जरूरी है। बाल्यकाल से ही हमारे बच्चे कठिन चुनौतियों के अभ्यस्त होंगे तो आगे जीवन की कठिनतर होती जा रही विभीषिकाओं को ही सहज तरीके से सामना कर पाएंगे। 

वरना दुनिया जिस तरह चल रही है, वैसे में विद्यालयों को ‘आनंदालय’ बनाना तो संभव है (विद्यालयों को तो वहां पढ़ाना-लिखाना बंद करके बेहद आसान तरीके से भी आनंदालय बनाया जा सकता है), पर बिल्कुल भी संदेह नहीं कि उनसे बाहर निकलकर दुनिया कतई आनंदालय नहीं होने वाली है। बस आखिर में एक बात और, इस लेख और इस नए विचार को पढ़कर यह सवाल भी उठता है कि क्या हमें हमारे शास्त्रों में लिखा ‘सुखार्थी वा त्यजेत विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्’ भी भूल जाना चाहिए ? या कि हम ‘पश्चिमी हवाओं’ के प्रभाव तथा बदलाव और विकास की अंधी दौड़ में अपने पुरातन व सनातन कहे जाने वाले विचारों को भी एक ‘पुराना व खतरनाक विचार’ ठहराने से गुरेज नहीं करेंगे ? 

(‘शैक्षिक दखल’ पत्रिका के दूसरे अंक में प्रकाशित आलेख)

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