चंपावत से मिला ‘कुमाऊं’ को अपना नाम और यह ही ‘कुमाऊं’ की मूल पहचान
Dr. Naveen Joshi @ Naveen Samachar provides an insightful article about the historical and mythological significance of Champawat. Learn about the district’s connection to the origin of Kumaon and the birthplace of Lord Vishnu’s ‘Kurma’ incarnation. Discover the places to visit in Champawat, including the renowned Gwel Devta Temple, the ancient Baleshwar Temple, the Vanasura Fort, and the sacred Meetha-Reetha Sahib.
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, 28 जून 2023 (Champawat, Kumaon Division, Kurmanchal, Mythological Significance, Historical Importance)। यूं चंपावत (Champawat) वर्तमान में कुमाऊं मंडल का एक जनपद और जनपद मुख्यालय है, लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि कुमाऊं का मूल ‘काली कुमाऊं’ यानी चंपावत ही है। यहीं काली नदी के जलागम क्षेत्र में ‘कर्नतेश्वर पर्वत’ को भगवान विष्णु ने ‘कूर्म’ अवतार का जन्म स्थान माना जाता है, और इसी कारण ही ‘कुमाऊं’ को अपने दोनों नाम ‘कुमाऊं’ और ‘कूर्मांचल’ मिले हैं।
Champawat-चंपावत की ऐतिहासिकता
लगभग 10वीं शताब्दी में स्थापित चंपावत की ऐतिहासिकता केवल यहीं तक सीमित नहीं, वरन यह भी सच है कि रामायण और महाभारत काल से भी चंपावत सीधे संबंधित रहा है। अल्मोड़ा आने से पूर्व चम्पावत आठवीं अठारहवीं शताब्दी तक कुमाऊं के चंद वंश के राजाओं की राजधानी रहा है, जहां से एक समय सम्पूर्ण पर्वतीय अंचल ही नहीं, अपितु मैदानों के कुछ भागों तक शासन किया जाता था।
Champawat-चंपावत कैसे पहुचें
पहाड़-मैदान में फैले और वर्ष 2010 में पिथौरागढ़ जिले से कट कर बने अपने नाम के जिले का मुख्यालय चंपावत, अपने प्रमुख कस्बे व रेल हेड टनकपुर से 75 किमी तथा नजदीकी हवाई अड्डे नैनी सैनी (पिथौरागढ़) से 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। चंपावती नदी के किनारे होने के कारण इस स्थान को चम्पावत नाम मिला बताया जाता है। समुद्र तल से 1615 मीटर की ऊँचाई पर स्थित चंपावत के नजदीकी मानेश्वर की चोटी से पंचाचूली सहित भव्य हिम श्रृंखलाओं की अत्यंत मनोहारी एवं नैसर्गिक छटा से परिपूर्ण है।
Champawat-चंपावत का पौराणिक महत्व
चंपावत के पौराणिक महत्व की बात करें तो जोशीमठ के गुरूपादुका नामक ग्रंथ के अनुसार नागों की बहन चम्पावती ने चम्पावत नगर की बालेश्वर मंदिर के पास प्रतिष्ठा की थी। वायु पुराण में चम्पावतपुरी नाम के स्थान का उल्लेख मिलता है जो नागवंशीय नौ राजाओं की राजधानी थी। वहीं स्कंद पुराण के केदार खंड में चंपावत को कुर्मांचल कहा गया है, जहां भगवान विष्णु ने ‘कूर्म’ यानी कछुए का अवतार लिया था। इसी से यहां का नाम ‘कूर्मांचल’ पड़ा, जिसका अपभ्रंश बाद में ‘कुमाऊं’ हो गया।
Champawat-महाभारत काल से संबंध
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग में भगवान राम ने रावण के भाई कुम्भकर्ण को मारकर उसके सिर को यहीं कुर्मांचल में फेंका था। वहीं चंपावत का संबंध द्वापर युग में पांडवों यानी महाभारत काल से भी है। माना जाता है कि 14 वर्षों के निर्वासन काल के दौरान पांडव यहां आये थे। चंपावत को द्वापर युग में हिडिम्बा राक्षसी से पैदा हुए महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच का निवास स्थान भी माना जाता है। यहां मौजूद ‘घटकू मंदिर’ को घटोत्कच से ही जोड़ा जाता है। चंपावत तथा इसके आस-पास बहुत से मंदिरों का निर्माण महाभारत काल में हुआ माना जाता है। यह स्थान ही कुमाऊं भर में सर्वाधिक पूजे जाने वाले न्यायकारी लोक देवता-ग्वेल, गोलू, गोरिल या गोरिया का जन्म स्थान है।
Champawat के दर्शनीय स्थल:
Champawat-ग्वारलचौड़ ग्वेल देवता मंदिर-चंपावत में ग्वेल देवता का पहला मंदिर
यहीं चंपावत में ग्वेल देवता का यह मंदिर स्थित है। हालांकि उत्तराखंड के न्याय देवता के रूप में ग्वेल देवता के अन्य मंदिर कुमाऊं मंडल में द्वाराहाट, चितई और घोड़ाखाल में भी अत्यधिक प्रसिद्ध है। लेकिन ग्वेल देवता का मूल यानी पहला मंदिर चंपावत में ही स्थित है, जिसके बारे में चितई व घोडाखाल की तरह अपेक्षित कम लोग जानते हैं। यहां हम ग्वेल देवता के जन्म से लेकर उनके जीवन की पूरी कहानी बताने जा रहे हैं। देखें वीडियोः
चम्पावतगड़ी में जन्मे गोरिल या गोलु देवता को न्याय का देवता माना जाता है। उनके जन्म स्थान चंपावत के ग्वारलचौड़ में उनका 600 वर्ष से अधिक पुराना मंदिर न्याय की आखिरी आश में आए लोगों को सच्चा न्याय प्रदान करता है। उनके दरबार से न्याय प्राप्त करने के लिए भक्त सादे कागज अथवा न्यायालय के स्टांप पेपर पर अपनी मन्नतें, शिकायतें या अर्जी लिख कर छोटी-बड़ी घंटियों के साथ मंदिर परिसर में पेड़ों या भवन के किसी हिस्से पर टांग देते हैं। इन मंदिरों में भक्तों द्वारा हजारों की संख्या में बांधी गई लाखों घंटियों से उन पर लोगों की आस्था का अंदाजा लगाया जा सकता है।
Champawat-बालेश्वर मंदिर
अपने आकर्षक मंदिरों और खूबसूरत उत्तर भारतीय वास्तुशिल्प के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध चंपावत में कुमाऊं में अंग्रेजों के राज्य से बहुत पहले काबिज और अपनी स्थापत्य कला के लिए मशहूर शहर के बीच स्थित कत्यूरी वंश के राजाओं द्वारा स्थापित तेरहवीं शताब्दी का बालेश्वर मंदिर तथा राजा का चबूतरा तत्कालीन शिल्प कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। 10वीं से 12वीं शताब्दी में निर्मित भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर का निर्माण चंद शासकों ने करवाया था।
माना जाता है चंद राजाओं के पहले यहां के राजा गुमदेश पट्टी के रावत हुआ करते थे, जिन्होंने दौनाकोट का किला बनवाया था जिसे कोतवाली चबूतरा कहते है। वर्ष 757 ईसवी से सत्ता पर काबिज हुए चंद राजा सोमचंद के आगमन के बाद इस किले नष्ट कर राज बुंगा का किला बनवाया गया, जो वर्तमान में तहसील दफ्तर है। इसके अलावा नागनाथ मंदिर कुमाउनी स्थापत्य कला का अनुकरणीय उदाहरण है।
वाणासुर का किला
यहीं द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पौत्र का अपहरण करने वाले वाणासुर दैत्य का वध किया था। लोहाघाट से करीब सात किमी की दूरी पर स्थित ‘कर्णकरायत’ नामक स्थान से लगभग डेढ़ किमी की पैदल दूरी पर समुद्र तल से 1859 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण व प्रसिद्ध वाणासुर के किले को आज भी देखा जा सकता है।
मीठा-रीठा साहिब
सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह के कदम भी यहां मुख्यालय से 72 किमी की दूरी पर लोदिया और रतिया नदियों के संगम पर स्थित ‘मीठा-रीठा साहिब’ नाम के स्थान पर पड़े हैं। कहते हैं कि गुरु गोविंद सिंह ने यहाँ बेहद कड़वे स्वाद वाले ‘रीठे के वृक्ष’ के नीचे विश्राम किया था, तब से उस वृक्ष के रीठे मीठे हो गये। यहां पर सिक्खों द्वारा भव्य गुरुद्वारा निर्मित किया गया है। प्रति वर्ष वैशाखी पर यहां पर बहुत विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। रीठा साहिब गुरुद्वारे के पास स्थित नागनाथ मंदिर और धीर नाथ मंदिर भी वास्तुकला के लिहाज से काफी खूबसूरत है।
Champawat-मायावती अद्वैत आश्रम व एबट माउंट
अंग्रेजी दौर में यह ‘ऐंग्लो इन्डियन कालोनी’ के रूप में विख्यात बताया जाता है। लोहाघाट से 9 किमी की दूरी पर स्वामी विवेकानंद से संबंधित मायावती अद्वैत आश्रम व 11 किलोमीटर की दूरी पर समुद्र सतह से 2001 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एबट माउंट गिरजाघर और चाय बागान तथा चंपावत से आगे बनलेख के समीप मौराड़ी नाम के गांव में स्थित शनिदेव मंदिर भी दर्शनीय है।
श्यामलाताल झील
मुख्यालय से 56 किमी की दूरी पर नीले रंग के पानी युक्त करीब डेढ़ वर्ग किमी में फैली खूबसूरत श्यामलाताल झील के तट पर स्थित स्वामी विवेकानंद का आश्रम भी देखने योग्य है। यहां लगने वाला झूला मेला भी काफी प्रसिद्ध है।
पंचेश्वर
चंपावत जनपद में नेपाल सीमा के समीप काली और सरयू नदियों के संगम पर स्थित पंचेश्वर स्थित भगवान शिव के मंदिर की भी बड़ी धार्मिक प्रसिद्धि है।
देवीधूरा स्थित बाराही देवी मंदिर
वहीं मुख्यालय से 45 व लोहाघाट से 58 किमी की दूरी पर समुद्रतल से 2500 मीटर की ऊँचाई पर देवीधूरा स्थित बाराही देवी के मंदिर में आज भी रक्षा बंधन के अवसर पर विश्व प्रसिद्ध पाषाण युद्ध-बग्वाल की अनूठी परंपरा का निर्वाह किया जाता है।
लोहाघाट (Champawat, Kumaon Division, Kurmanchal, Mythological Significance, Historical Importance)
मुख्यालय से 14 किमी दूर लोहावती नदी के तट पर 1706 मीटर की ऊंचाई पर लोहाघाट नाम का कस्बा अपनी प्राकृतिक सुंदरता और बसंत ऋतु में खिलने वाले उत्तराखंड के राज्य वृक्ष बुरास के फूलों के लिए भी प्रसिद्ध है। जागेश्वर की तरह देवदार के वनों से घिरे, लोहावती नदी के किनारे बसे लोहाघाट का नजारा किसी और ही दुनिया में या भगवान शिव के धामम में होने का अहसास दिलाता है। हाल में यहां लोहावती नदी पर पेड़ों के बीच बना कोलीढेक जलाशय स्थानीय लोगों एवं पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। देखें वीडियो:
पूर्णागिरि माता का मंदिर :
चंपावत मुख्यालय से करीब 92 व टनकपुर से ठुलीगाड़ तक करीब 19 किमी की दूरी वाहनों से तथा शेष चार किमी पैदल चढ़ाई चढ़ते हुए अन्नपूर्णा चोटी के शिखर पर लगभग तीन हजार फीट की ऊंचाई पर मां भगवती की 108 सिद्धपीठों में से एक पूर्णागिरि (पुण्यादेवी) शक्ति पीठ स्थापित है। कहते हैं कि यहां माता सती की नाभि गिरी थी।
यहां आदिगुरु गोरखनाथ की धूनी में सतयुग से लगातार प्रज्वलित बताई जाती है। यहां विश्वत संक्रांति से आरंभ होकर लगभग 40 दिन तक मेला चलता है। चैत्र नवरात्र (मार्च-अर्प्रैल) में विशाल तथा शेष पूरे वर्ष भर भी श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है। यहां घास पर गांठ लगाकर मनौतियां मांगने की परंपरा प्रचलित है।
पुराणों के अनुसार महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्मकुंड के निकट पांडवों द्वारा देवी भगवती की आराधना तथा बह्मदेव मंडी में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार यहां एक संतान विहीन सेठ को देवी ने स्वप्न में कहा कि मेरे दर्शन के बाद ही तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। सेठ ने मां पूर्णागिरि के दर्शन किए और कहा कि यदि उसे पुत्र प्राप्त हुआ तो वह देवी के लिए सोने का मंदिर बनवाएगा। मनौती पूरी होने पर सेठ ने लालच कर सोने के स्थान पर तांबे के मंदिर में सोने का पालिश लगाकर जब उसे देवी को अर्पित करने के लिए मंदिर की ओर आने लगा तो टुन्यास नामक स्थान पर पहुंचकर वह उक्त तांबे का मंदिर आगे नहीं ले जा सका तथा इस मंदिर को इसी स्थान पर रखना पडा। आज भी यह तांबे का मंदिर ‘झूठा मंदिर’ के नाम से जाना जाता है।
वहीं एक अन्य कथा के अनुसार एक साधु ने अनावश्यक रूप से मां पूर्णागिरि के उच्च शिखर पर पहुंचने की कोशिश की तो मां ने रुष्ट होकर पहले उसे शारदा नदी के उस पार फेंक दिया, और बाद में दया कर उस संत को सिद्ध बाबा के नाम से विख्यात कर आशीर्वाद दिया कि जो व्यक्ति मेरे दर्शन करेगा वह उसके बाद तुम्हारे दर्शन भी करने आएगा। जिससे उसकी मनौती पूर्ण होगी।
कुमाऊं के लोग आज भी सिद्धबाबा के नाम से मोटी रोटी बनाकर सिद्धबाबा को अर्पित करते हैं। शारदा नदी के दूसरी ओर नेपाल देश का प्रसिद्ध ब्रह्मा व विष्णु का ब्रह्मदेव मंदिर कंचनपुर में स्थित है।
प्रसिद्ध वन्याविद तथा आखेट प्रेमी जिम कार्बेट ने सन् 1927 में विश्राम कर अपनी यात्रा में पूर्णागिरि के प्रकाशपुंजों को स्वयं देखकर इस देवी शक्ति के चमत्कार का देशी व विदेशी अखबारों में उल्लेख कर इस पवित्र स्थल को काफी ख्याति प्रदान की।
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