उत्तराखंड में दोनों सीटों पर हारी भाजपा, अयोध्या के बाद बद्रीनाथ की जीत को भी भुनाएगी कांग्रेस?
-उत्तराखंड में दोनों विधानसभा उपचुनाव के परिणामों के बाद कांग्रेस को क्यों याद आये राम और महादेव ? जबकि बद्रीनाथ महादेव नहीं विष्णु मंदिर है…
डॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 13 जुलाई 2024 (Badrinath-Manglaur ki Rajnitik Jeet-Har ke mayne)। उत्तराखंड की दो सीटों पर हुए उप चुनाव के चुनाव परिणाम आ गये हैं और दोनों सीटों पर सत्तारूढ़ भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। हालांकि यह भी सच्चाई है कि भाजपा इन दोनों सीटों पर पिछला चुनाव भी नहीं जीती थी। यानी उसकी सीटों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी है। कॉंग्रेस बद्रीनाथ को लेकर महादेव यानी भगवान शिव के भी भाजपा को संदेश देने की बात कह रही है, जबकि बद्रीनाथ महादेव नहीं विष्णु मंदिर है।
लेकिन हार इसलिये भी बड़ी है कि उत्तराखंड में अभी हाल ही में हुए लोक सभा चुनाव में भाजपा पांचों सीटें जीती थी। खासकर बद्रीनाथ सीट पर जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा 8 हजार मतों से आगे रही थी और अब 5 हजार मतों से हार गयी है। यह सवाल इसलिये भी उठता है कि लोकसभा चुनाव के बाद इतनी जल्दी क्या हुआ कि भाजपा दोनों सीटों पर चुनाव हार गयी है, जबकि उत्तराखंड में अब तक हुए उपचुनावों में केवल एक बार को छोड़कर हमेशा सत्तारूढ़ पार्टी के प्रत्याशी ही चुनाव जीतते रहे हैं।
उत्तराखंड की दोनों सीटों पर सत्तारूढ़ भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। मंगलौर में भाजपा के प्रत्याशी शुरुआत में तीसरे स्थान पर रहने के बाद आधे के बाद के चरणों में अंतर को लगातार कम करते हुए 500 से कम मतों से दूसरे स्थान पर रहे हैं। जबकि बद्रीनाथ सीट पर 5000 से अधिक मतों के अंतर से दूसरे स्थान पर रहे हैं।
मंगलौर सीट पर भाजपा इतिहास बदलने, मिथक तोड़ने और पहली बार जीतने का दावा कर रही थी। इसके लिये उसने पूरे प्रयास भी किये थे, लेकिन फिर भी इस सीट पर भाजपा को शुरू से कमजोर आंका जा रहा था। इसलिये यहां भाजपा की हार कोई आश्चर्य या अनपेक्षित नहीं कही जा सकती।
लेकिन जिस तरह भाजपा बद्रीनाथ बड़े अंतर से हार गयी है, जहां से निवर्तमान विधायक राजेंद्र भंडारी हाल में लोक सभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र देकर भाजपा में आ गये थे और भाजपा ने उन्हें ही टिकट दिया था। दूसरी ओर कांग्रेस से लखपत बुटौला पहली बार चुनाव लड़ रहे थे, फिर भी उन्होंने जिस तरह बड़े अंतर से भाजपा प्रत्याशी के रूप में भंडारी को हरा दिया है, और एक तरह से कहें तो कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस में जाने के लिये सबक भी सिखा दिया है, तो इससे भाजपा के लिये भी खतरे की घंटी बजती नजर आ रही है।
इसलिये भी कि बद्रीनाथ उत्तराखंड के चार धामों में से एक है। आने वाले समय में कांग्रेस बद्रीनाथ के नवनिर्वाचित विधायक बुटौला को यूपी की फैजाबाद सीट से जीते अवधेश प्रसाद की तरह अपना मॉडल या मेडल बनाकर पेश करेगी तो आश्चर्य नहीं होगा। कांग्रेस कह सकती है कि जनता ने भाजपा को उसकी धार्मिक राजनीति पर जवाब दिया है। अयोध्या के बाद बद्रीनाथ में भी हरा दिया है। बल्कि उसने कहना भी शुरू कर दिया है कि राम ने अयोध्या में भाजपा को हराया और महादेव ने बद्रीनाथ में।
इसे और मंगलौर के उपचुनाव को भी अगर समालोचना के दृष्टिकोण से देखें तो इस चुनाव परिणाम में धार्मिक कोण जरूर दिखाई देता है। मानना पड़ेगा कि मुस्लिम मतदाता एकमुश्त कांग्रेस के पक्ष में जुट रहे हैं। ऐसा होता अब तक भी पूरे देश में देखा जा रहा था। अब मंगलौर ने इस पर एक और मुहर लगा दी है।
भाजपा यूसीसी व तीन तलाक जैसे कानूनों के जरिये मुस्लिम महिलाओं की भलाई करने और उनके वोट मिलने का दावा कर रही थी लेकिन जिस तरह मंगलौर की खासकर मुस्लिम जनता व उनमें भी सर्वाधिक महिलाओं ने लंबी-लंबी लाइनों में लगकर 70 प्रतिशत के करीब मतदान किया और चुनाव परिणाम जिस तरह कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में आया है, उससे साफ हो गया है कि मुस्लिम पुरुषों से तो उम्मीद ही न करिये, मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा के पक्ष में मतदान नहीं किया है, उल्टे भाजपा की मुस्लिम मतों को लेने की कोशिश को देखते हुए हिंदू मतदाता भी उससे छिटक गये हैं।
भाजपा अपने मतों का अंतर जितना कम कर पायी हैं, उसके लिये मतदान के दिन एक बूथ पर हुई हिंसा को भी बताया जा रहा है, जिसके बाद हिंदू मतदाता भाजपा के पक्ष में लामबंद हुए। अन्यथा हार-जीत का अंतर अधिक बड़ा हो सकता था। गौरतलब है कि हाल में हुए लोक सभा चुनाव में भाजपा हरिद्वार लोक सभा सीट पर मंगलौर में सर्वाधिक मतों के अंतर से पीछे रही थी। यह भी कहना होगा कि पूर्व में मंगलौर में चौथे स्थान पर रहने वाली भाजपा इस बार केवल 442 मतों के अंतर से हारी है।
गौरतलब है कि अभी हाल में हुए लोक सभा चुनाव में भाजपा राज्य की सभी पांचों लोक सभा सीटें हार गयी थी। इस चुनाव के लिये कांग्रेस को प्रत्याशी तक नहीं मिल रहे थे। ऐसा इसलिये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 400 पार का नारा कहीं चला या नहीं, लेकिन उत्तराखंड में चुनाव से पहले ही चलने लगा था। इसमें कहना अतिशयोक्ति नहीं मोदी के 400 पार के नारे से कांग्रेस के बड़े नेता ही डर गये थे और अपनी हार तय मानकर उन्होंने चुनाव लड़ने से ही इंकार कर दिया था। और चुनाव भी वह एकजुट होकर और पूरी ताकत लगाकर नहीं लड़े। यदि पार्टी के बड़े नेता चुनाव लड़े होते तो चुनाव परिणाम कुछ और होता।
लेकिन लोक सभा चुनाव का परिणाम जैसा पूरे देश में आया उससे पूरे देश के साथ उत्तराखंड के कांग्रेस नेताओं में भी यह उम्मीद व विश्वास बन गया है कि वह मोदी से भी जीत सकते हैं। भाजपा की राष्ट्रवाद की राजनीति का असर धीमा पड़ रहा है। खासकर भाजपा के पक्ष में रहने वाले हिंदू फिर से निहित स्वार्थ और जातिवाद की राजनीति में बंट रहे हैं। ऐसे में मोदी मैजिक के भरोसे रहने वाले उत्तराखंड में उपचुनाव के ऐसे नतीजे आये हैं। यह चुनाव परिणाम वास्तव में राज्य के सरकार व पार्टी के नेतृत्व का लिटमस टेस्ट माना जा सकता है।
इससे पता चलता है कि राज्य की जनता राज्य की सरकार से खुश नहीं है। कारण जनता तो दूर भाजपा कार्यकर्ताओं के कार्य नहीं हो रहे हैं। जनता से सीधे जुड़े कार्यों में भ्रष्टाचार जारी है। बिजली का नया कनेक्शन लेना हो या पानी का, अधिक रुपये लिये जा रहे हैं। फिर भी सरकार की ओर से दिया जाने वाला बिजली का तार नहीं दिया जा रहा है। छोटी-मोटी ठेकेदारी करने वाले भाजपा नेताओं के बिलों का भुगतान बिना रिश्वत दिये नहीं हो रहा है।
कारण, अधिकारी भी सीधे स्वयं को मंत्रियों व मुख्यमंत्री तक से मिला बता रहे है। ऐसे में भाजपा का बूथों, शक्ति केंद्रों के बाद पन्ना प्रमुख तक बताया जाने वाला संगठन केवल पन्नों तक ही या सीधे कहें तो सोशल मीडिया पर फोटो डालने तक सीमित रह गया है, धरातल पर कार्य नहीं कर रहा है।
राज्य में विकास के दावे किये जा रहे हैं परंतु विकास का मॉडल पहाड़ की जरूरतों के अनुसार नहीं वरन दिल्ली या गुजरात जैसा अपनाया जा रहा है। इससे घर-घर नल तो लग गये हैं, परंतु नलों में पानी नहीं आ रहा। सड़कें सीधे 90 अंश के कोण पर काटकर चौड़ी की जा रही हैं और भूस्खलन का कारण बन रही हैं। नदियों में चुगान के नाम पर होने वाला खनन निजी हाथों में दिया जा रहा है और इससे हल्द्वानी में गौला नदी का रुख अंतर्राष्टीय स्टेडियम की ओर होने और पुलों के कमजोर पड़ने जैसी स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं।
मंगलौर विधान सभा का राजनीतिक इतिहास (Badrinath-Manglaur ki Rajnitik Jeet-Har ke mayne)
उल्लेखनीय है कि मंगलौर विधान सभा का राजनीतिक इतिहास ऐसा रहा है कि राज्य गठन के बाद अस्तित्व में आई मंगलौर विधानसभा पहले लक्सर विधानसभा का हिस्सा हुआ करती थी। यहां हमेशा से मुस्लिम उम्मीदवार ही विधान सभा पहुंचता रहा है। और भाजपा का प्रत्याशी यहां चौथे स्थान पर भी रहता रहा है। वर्ष 2002 से 2022 तक के विधानसभा चुनाव में यहां से कभी भाजपा नहीं जीत पाई है। राज्य गठन के बाद वर्ष 2002 और 2007 में हुए विधानसभा चुनावों में बसपा से काजी निजामुद्दीन ने लगातार दो बार जीत दर्ज की थी। पहली बार उन्होंने लोकदल के प्रत्याशी और दूसरी बार कांग्रेस के हाजी सरवत करीम अंसारी को हराया था। भाजपा दोनों बार चौथे स्थान पर रही थी।
इसके बाद वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में दोनों नेताओं यानी सरवत करीम अंसारी और काजी निजामुद्दीन ने पाला बदल लिया था। बसपा से दो बार विधायक रहे काजी निजामुद्दीन ने कांग्रेस का दामन थाम लिया था जबकि हाजी सरवत करीम अंसारी बसपा में शामिल हो गए थे। बसपा के सरवत करीम अंसारी ने पिछला विधानसभा चुनाव यहां से जीता था, और अब उनके पुत्र यहां से अपने पिता की मौत के साथ सहानुभूति के साथ चुनाव मैदान में थे। इस तरह भाजपा के पक्ष में जीत की संभावना का कोई समीकरण पहले से ही नहीं था। केवल इसके कि राज्य में हुए सभी उपचुनावों में हमेशा सत्तारूढ़ दल का प्रत्याशी जीतता है।
अलबत्ता इस बार चुनावी संघर्ष इसलिये थोड़ा सा दिलचस्प हो गया था कि यहां भाजपा-कांग्रेस दोनों ने दलबदलू नेताओं को अपना प्रत्याशी बनाया था। इस बार सपा सहित ‘इंडिया’ के सभी दल कांग्रेस के पक्ष में लामबंद थे, उनके प्रत्याशी मैदान में वोट काटने के लिये नहीं थे। बसपा का जनाधार प्रदेश में पहले से ही लगातार सिकुड़ रहा है। फिर भी उनके प्रत्याशी इस बार तीसरे स्थान पर रहते हुए 20 हजार से कुछ कम मत लाये हैं।
बद्रीनाथ का राजनीतिक इतिहास (Badrinath-Manglaur ki Rajnitik Jeet-Har ke mayne)
जबकि बद्रीनाथ विधानसभा के चुनावी इतिहास की बात करें तो चमोली जनपद की यह सीट तत्कालीन कांग्रेस विधायक राजेंद्र भंडारी के गत दिनों लोक सभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी और अपनी विधायकी से त्यागपत्र देने से खाली हुई थी। इसके बाद उपचुनाव की घोषणा होने पर भाजपा ने भंडारी को अपना प्रत्याशी घोषित किया। यानी मंगलौर की तरह बद्रीनाथ में भी भाजपा ने हाल में लोक सभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी से आये नेताओं को टिकट दिये। भंडारी का बद्रीनाथ सीट पर बरसों से अच्छा प्रभाव रहा है।
कभी वह तो कभी उनकी पत्नी बद्रीनाथ के चमोली जनपद के जिला पंचायत अध्यक्ष भी रहे हैं। बद्रीनाथ में 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 991 मतों के अंतर से जीती थी, तब कांग्रेस के अनुसुइया प्रसाद मैखुरी ने भाजपा के केदार सिंह फोनिया को हराया था। लेकिन 2007 में फोनिया ने अपनी मैखुरी को हराकर अपनी हार का बदला ले लिया। 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा-कांग्रेस दोनों दलों ने अपने प्रत्याशी बदले। इस चुनाव में राजेंद्र भंडारी ने भाजपा के प्रेम बल्लभ भट्ट को हराया।
वहीं 2017 के चुनाव में भाजपा के टिकट पर वर्तमान भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने कांग्रेस के राजेंद्र भंडारी को हरा दिया। लेकिन 2022 के चुनाव में भंडारी ने भट्ट को चुनाव हरा दिया था। यह भी दिलचस्प है कि यहां हमेशा भाजपा-कांग्रेस एक-दूसरे के विरुद्ध ब्राह्मण या क्षत्रिय जाति के समीकरण के अनुसार प्रत्याशी उतारते हैं। यानी यदि भाजपा ब्राह्मण प्रत्याशी उतारती है तो कांग्रेस क्षत्रिय प्रत्याशी देती है, और यदि भाजपा क्षत्रिय प्रत्याशी उतारती है तो कांग्रेस ब्राह्मण प्रत्याशी। और दोनों ही जातियों के प्रत्याशी यहां एक-एक कर जीतते रहते हैं।
लेकिन इस बार पहली बार दोनों पार्टियों से क्षत्रिय प्रत्याशी मैदान में थे। यह भी दिलचस्प है कि बद्रीनाथ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट का गृह क्षेत्र भी है। वह यहां से विधायक भी रहे हैं। पिछले चुनाव में हारने के बावजूद उन्हें पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष और हाल में राज्य सभा का सांसद भी बनाया और अब जबकि उनके घर से भाजपा प्रत्याशी हारा है तो इससे महेंद्र भट्ट की क्षमता का आंकलन भी लगता है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व जरूर करेगा। (Badrinath-Manglaur ki Rajnitik Jeet-Har ke mayne, Badrinath, Manglaur, By Election)
भंडारी की हार के पीछे उनके द्वारा कांग्रेस विधायक रहते हुए ब्राह्मणों के लिये की गयी कुछ आपत्तिजनक टिप्पणियां भी कारण बताई जा रही हैं, जिन्हें कांग्रेस ने इस बार उनके विरुद्ध भुनाया। वहीं भंडारी के चुनाव जीतते ही धामी मंत्रिमंडल में शामिल होने की बात भी चर्चा में रही, बताया जा रहा है कि इस कारण आसपास के भाजपा विधायक भी उनका कद बढ़ने से सशंकित रहे। स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता भी उन्हें नहीं पचा पाये और जनता भी उनके लगातार दल-बदल से नाखुश रही।
उत्तराखंड में उपचुनावों का इतिहास (Badrinath-Manglaur ki Rajnitik Jeet-Har ke mayne)
अब उत्तराखंड में विधानसभाओं के अब तक हुए उपचुनाव की बात करें तो यह गणित हमेशा से सत्ताधारी दल के पक्ष में झुका रहा है। अब तक हुए 15 में से 14 उपचुनावों में सत्ता पक्ष को जीत मिली है। उत्तराखंड में विधानसभा का पहला उपचुनाव 2002 में रामनगर सीट पर हुआ, जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता। (Badrinath-Manglaur ki Rajnitik Jeet-Har ke mayne, Badrinath, Manglaur, By Election, Chunav)
इसी प्रथम विधानसभा में द्वाराहाट से उक्रांद के विधायक विपिन त्रिपाठी के निधन के बाद हुए उपचुनाव में त्रिपाठी के पुत्र पुष्पेश त्रिपाठी उक्रांद के टिकट पर निर्वाचित हुए। यह इकलौता उदाहरण है जब सत्तारूढ़ दल का प्रत्याशी उत्तराखंड के इतिहास में चुनाव हारा। जबकि इसके बाद प्रदेश में 13 सीटों पर समय-समय पर उपचुनाव हो चुके हैं, जिसमें हर बार हमेशा की तरह सत्ताधारी दल को सफलता मिली है, हालांकि लोकसभा उप चुनावों में विपक्ष को भी जीत मिली है। (Badrinath-Manglaur ki Rajnitik Jeet-Har ke mayne, Badrinath, Manglaur, By Election, Chunav)
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