भाषा के काम सरकार के भरोसे नहीं हो सकते, समाज को आगे आना होगा: नरेंद्र सिंह नेगी
-अधीनस्थ चयन सेवा आयोग में स्थानीय भाषाओं को तरजीह दी जाए: धस्माना
-गढ़वाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए: शास्त्री
नवीन समाचार, देहरादून, 10 जनवरी 2022। विनसर प्रकाशन के रजत जयंती वर्ष के अवसर पर मातृभाषा गढ़वाली के लेखकों की आज राजधानी में एक गोष्ठी आयोजित की गयी। गोष्ठी में गढवाली में प्रकाशित प्राथमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम की पुस्तकों धगुलि, हंसुली, छुबकी, पैजनी और झुमकी के लेखकों तथा इन पुस्तकों में चित्रांकन करने वाले चित्रकारों ने प्रतिभाग किया। गोष्ठी में लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी द्वारा हिंदी एवं अंग्रेजी में प्रकाशित उत्तराखंड ईयर बुक 2022 जारी की गई।गोष्ठी में लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने कहा कि मातृभाषा गढ़वाली में पठन-पाठन से भाषा आगे बढ़ेगी। बच्चों को अपनी भाषा में पठन सामग्री उपलब्ध होगी तो वे अपनी भाषा के महत्वपूर्ण पक्षों को भी जान सकेंगे। इसके लिए गढ़वाली भाषा बोलने वाले समाज को आगे आना होगा। भाषा के काम सरकार के भरोसे नहीं हो सकते इसके लिए समाज को आगे आना होगा। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में निरंतर लिखे जाने की आवश्यकता है। लिखे जा रहे साहित्य का मानकीकरण आने वाले समय मे विद्वान करते रहेंगे अभी तो निरंतर कार्य किये जाने की आवश्यकता है।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए इतिहासकार डॉ योगेश धस्माना ने कहा कि अधीनस्थ चयन सेवा आयोग में स्थानीय भाषाओं को तरजीह देने से जहाँ परीक्षार्थी अपनी भाषा को पढ़ेंगे, वहीं भाषा रोजगार से भी जुड़ जाएगी। उन्होंने कहा कि जब भाषा रोजगार से जुड़ेगी तो उसकी उपयोगिता बढ़ जाती है और भाषा में आवश्यकतानुसार प्राण प्रतिष्ठा भी हो जाती है।
गोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री सेमवाल ने कहा कि भाषाएँ चुनाव जीतने का माध्यम नहीं हैं, इनका उपयोग सिर्फ के लिए न हो लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो रहा है। उत्तराखंड में भाषाओं को लेकर संजीदगी से कार्य किये जाने की आवश्यकता है, तभी भाषाएं दीर्घजीवी होंगी। उन्होंने कहा कि अपनी भाषाओं को बचाने की पहल अपने घर से करने की आवश्यकता है तभी भाषा जिंदा रह सकती है।
इस अवसर पर गढवाली साहित्यिकार गिरीश सुन्द्रियाल ने कहा कि मातृभाषा गढवाली का प्राथमिक कक्षाओं का पाठ्यक्रम बहुत ही बेहतरीन है लेकिन दुर्भाग्य से इसे अभी तक पूरे क्षेत्र में शुरू नहीं किया जा सका है। गोष्ठी में विचार व्यक्त करते हुए डॉ. जगदम्बा प्रसाद कोटनाला ने कहा कि भाषा को समृद्ध किये जाने के दृष्टि से लेखकों द्वारा निरंतर लेखन किया जाना चाहिए।
गढवाली कवियित्री बीना बेंजवाल ने कहा कि प्राथमिक कक्षाओं के लिए तैयार किया गया गढवाली भाषा का पाठ्यक्रम एनसीईआरटी और एससीईआरटी के मानकों पर खरी हैं और पुस्तकों की पाठ्य सामग्री बहुत ही उत्तम है। इस गोष्ठी में इस पाठ्यक्रम को तैयार करने वाले लेखकों और चित्रकारों को विनसर प्रकाशन द्वारा सम्मान राशि प्रदान की गयी। गोष्ठी का संचालन गणेश खुगशाल गणी ने किया। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
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- हिमालयी राज्यों की भाषाओं को है अधिक खतरा
- यूनेस्को ने उत्तराखण्ड की ‘रांग्पो’ को भेद्य तथा ‘दारमा’ व ‘ब्योंग्सी’ को निश्चित व ‘वांगनी’ को अति गम्भीर खतरे में माना
डॉ. नवीन जोशी, नैनीताल। भाषाओं को न केवल संवाद का माध्यम वरन संस्कृतियों का संवाहक भी माना जाता है। किसी देश की शक्ति उसकी भाषा की प्राचीनता के साथ ही उसके बोलने वाले लोगों की संख्या से भी आंकी जाती है, लेकिन `ग्लोबलाइजेशन´ के वर्तमान दौर में दुनिया भर की भाषाऐं स्वयं को खोकर अन्य में समाती जा रही हैं। इसमें भी भारत के लिए अधिक चिंताजनक बात यह है कि गंगा जैसी सदानीरा नदियों के साथ ही संस्कृतियों के उदगम स्थल कहे जाने वाले हिमालयी राज्यों में भाषाएँ सर्वाधिक तेजी से असुरक्षित होती जा रही हैं. देश का `भाल´ उत्तराखंड भी इसमें अपवाद नहीं है।
बात उत्तराखंड से ही शुरू की जाए तो यहाँ यह पक्ष भी उजागर होता हैं कि भले यह प्रदेश अपने संवाद के प्रमुख माध्यम कुमाउनीं व गढ़वाली को `बोलियों´ से ऊपर `भाषा´ मानने तक को भले तैयार न हो, किन्तु सात समुन्दर पार संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन यानी ‘यूनेस्को’ ने इन भाषाओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। यूनेस्को ने राज्य की कुमाउनीं, गढ़वाली के साथ ही रांग्पो भाषाओं को `वलनरेबले´ यानी भेद्य श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन भाषाओं पर ख़त्म होने का सर्वाधिक खतरा है। इसके पीछे संभवतया यह कारण प्रमुख हो कि इन भाषाओं के बोलने वाले इन्हें छोड़कर अन्य भाषाओं के प्रति अधिक आसानी से आकर्षित हो सकते हैं. इनके साथ ही राज्य की दारमा व ब्योंग्सी भाषाओं को `निश्चित खतरे´ तथा वांगनी को `अति गम्भीर खतरे´ वाली भाषाओं की श्रेणी में रखा गया है।
यूनेस्को द्वारा अपनी वेबसाइट पर ताजा अपडेट की गई जानकारी के अनुसार कुमाउनीं भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जाती है। इस भाषा को बोलने वाले लोग उत्तराखण्ड के अलाव उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल में भी हैं। यानी यनेस्को के सवेक्षण के दौरान इन क्षेत्रों के लोगों ने भी स्वयं को कुमाउनीं भाषा भाषी बताया है। मालूम हो कि कुमाउनी चन्द शासनकाल में राजभाषा रही है। इसकी शब्द सामर्थ्य दुनिया की समृध्हतम भ्हषाओं से भी अधिक है. उदाहरनार्थ अंगरेजी में केवल शब्द के लिए हिंदी में बू, खुसबू व बदबू आदि शब्द हैं तो कुमाउनी में अलग-अलग ‘बू’ के लिए किडैनी, हन्तरैनी, स्योंतैनी, बॉस, चुरैनी जैसे दर्जनों शब्द मौजूद है।
इसके अलावा यूनेस्को ने गढ़वाली भाषा बोलने वालों की संख्या 22 लाख 67 हजार 314 आंकी गई है। `भेद्य´ श्रेणी में ही प्रदेश के चमोली जनपद में आठ हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा रॉग्पो को भी रखा गया है, देश की कुल 82 भाषाऐं भी इस श्रेणी में हैं। इसके अतिरिक्त देश की 62 भाषाएँ `डेफिनिटली इनडेंजर्ड´ यानी `निश्चित खतरे´ की श्रेणी में रखी गई हैं, जिनमें उत्तराखण्ड की अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जिलों तथा नेपाल के दार्चूला जिले में बोली जाने वाली `दारमा´ एवं महाकाली नदी घाटी क्षेत्रा में बोली जाने वाली भाषा `ब्योंसी´ को रखा गया है, जिसके बोलने वालो की संख्या क्रमश: 1,761 व 1,734 बताई गई है। इससे आगे की श्रेणी `अति गम्भीर´ में भी देश की 41 भाषाओं के साथ गढ़वाल मण्डल की `वांगनी´ को रखा गया है, जिसे बोलने वालों की संख्या 12 हजार आंकी गई है। अन्तिम श्रेणी `विलुप्त´ हो चुकी भाषाओं की है। इसमें देश की पांच भाषाऐं पूर्वोत्तर की अहोम, अण्डरो व सेंगमाई के साथ उत्तराखण्ड की तोहचा व रंगकास भी शामिल हैं।
खास बात यह है कि देश की जिन कुल 196 भाषाओं को इन विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है, उनमें दक्षिण भारत की तकरीबन केवल एक दर्जन भाषाओं के अतिरिक्त कुछ उड़ीसा तथा शेष तकरीबन 85 फीसद पूर्वोत्तर के सात राज्यों सहित उत्तराखण्ड, हिमांचल, जम्मू व कश्मीर तथा सिक्किम आदि हिमालयी राज्यों की हैं। यानी हिमालयी राज्यों से ही अधिकांश भाषाऐं खतरे की जद में जाती जा रही हैं। विशेशज्ञों की मानें तो अभी हाल तक इन्हीं राज्यों ने अपनी मूल भाषाओं को सम्भाल कर रखा था, किन्तु बीते दशक में यही भाषाओं के संक्रमणकाल में सर्वाधिक प्रभावित हुऐ और अपनी भाषाओं को बचाऐ न रख सके, जबकि अन्य राज्यों में भाषाओं का किसी एक भाषा में सिमटना पहले ही हो चुका था।
श्रीलंका सबसे भाग्यशाली
भाषाओं के खतरे में न जाने के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वाधिक परिवर्तन भारत में ही हुऐ हैं। यहां 196 भाषाओं पर खतरे की छाया पड़ी है, जबकि श्रीलंका स्वयं की भाषाओं को बचाने में सर्वाधिक भाग्यशाली रहा है। यहां की केवल एक भाषा इस जद में है। जबकि पड़ोसी देशों पाकिस्तान की 27 व नेपाल की 71 भाषाऐं विभिन्न श्रेणियों में खतरे में है। उधर अपनी भाषा को सर्वाधिक महत्व देने के लिए पहचाने जाने वाले जापान की केवल आठ भाषाऐं ही इस श्रेणी में हैं। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
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पहाड़ि राज्योंकि भाषाओं पारि अलोप हुंणक सबूं है ज्यादे छू खत्र
क्वे लै बोलि-भाषा खालि आपस में बुलांण-चुलांण, आपंण मनैकि बात दुसरों तक पुजूणैकि साधनै न हुनि, बल्कि उकें बुलांणी पुर समुदायक युग-युगों बटी चली ऊंणी इतिहास और वीकि संस्कृतिक सबूंहै विश्वसनीय श्रोत लै हैं। सो, जब एक बोलि या भा्ष खतम हैं, वीक दगाड़ उकें बोलणी पुर समुदायक हुत्तै ज्ञान-विज्ञान लै खतम है जां। और य भौतै ठुल नुकसान हुं। दुनी में जतू लै भाषा हुनीं, उन सबूंकी के न के अलग विशेषता हैं। एक भाषा में मूल रूप में निकली भावोंक क्वे दुसरि भाषा में भावानुवाद त करी जै सकूं, पर उं मूल भावना कें जस्सै क तस्सै न धरी जै सकन। यै दगड़ै भाषाक खतम हुंणैल नुकसान केवल संस्कृतिकै नैं, आर्थिक लै हुं। आज भाषाओंक सबूंहै बाकि नुकसान ग्लोबलाइजेशन यानी भूमंडलीकरण और यैक फलस्वरूप ग्लोबल विलेज यानी विश्व ग्राम यानी सारि दुणियांक एक गौं में तब्दील हुंणाक और सही शब्दों में कई जाओ तो शहरीकरणाक कारण हुंणौ।
मानव सभ्यताक आज तकाक इतिहास में सबूं है ज्यादे गतिल हुंणी बदलावाक यो बखत में ‘ग्लोबल विलेज’ शब्द कें ‘ग्लोबल सिटी’ में बदली जांणैकि लै जरूरत महसूस हुंणै। किलैकि गौंन बटी शहरों में आई लोग एकमही जानीं, और आपंणि मूल बोलि-भा्ष में बुलांण पैली-पैली ह्याव समझनी, तिर्îूनी, और ढील-ढीलै उनैरि दुहैरि पीढ़ी उकैं भलीकै भुलि जानीं। यो प्रक्रिया में हिंदीक संस्कृति शब्द बटी ‘संस्कृतिकरण’ होते हुये ‘सैंस्क्रिटाइजेशन’ तक पुजी शब्द लै ठुलि भूमिका निभूं। समाज में ठुल देखीणीं वर्ग जो भा्ष में बुलां, जस पैरूं, जि करूं, समाजक ना्न, खुद कें तिर्îाई महसूस करणीं लोग लै उस्सै करण लागनीं। यै ‘सैंस्क्रिटाइजेशन’ भै। लेकिन आपंणि भाषाओंकि फिकर करी जाओ तो भाषा वैज्ञानिक कूंनी कि गौंन है शहरों में भाषाओंक संरक्षण और लै भलि भैं है सकूं। लेकिन हुंण न देखींणय। शहरी लोगों में एकभाषी संस्कृति बणणै, जबकि बहुभाषी बंणि बेर उं कई बार औरों है भल काम निकाई सकनीं, और बहु-भाषाओंक मददैल आर्थिक लाभ लै प्राप्त करि सकनीं।
देश में भाषाओंक सबूं है पैली सर्वे सन 1898 बटी 1928 जांलै आयरलैंडाक भाषा विद्वान जॉर्ज अब्राहम गियर्सनैल करौ। उनार बाद 1961 में देश में पैलि फ्यार भाषा आधारित जनगणना करी गे, जमंे पत्त चलौ कि देश में कुल 1652 मातृभाषा छन। लेकिन अघिल जब 1971 में 10 हजार है ज्यादे लोगों द्वारा बलाइणीं भाषाओंक नई सर्वे करी गो, तो उमें केवल 182 भाषाई ऐ सकीं, और सन द्वि हजार में यैसि भाषाओंकि संख्या केवल 122 बची रै सकी। यै है अलावा ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे’ में 1971 में कम-ज्यादे बुलांणी, हर तरीकाक कुल 780 भाषा रै ग्याछी। यानी 1961 बटी 10 सालों में 872 भाषा अलोप है ग्याछी। और इथां दुनी बटी हालाक 30 सालों में करीब ढाई हजार भाषा अलोप है ग्येईं।
दरअसल, बाजार आधारित यो व्यवस्था कें लागूं कि अंग्रेजी या हिंदी जैसि एकाध ठुलि भाषाओंलै पुरि दुनियौक काम चलि सकूं, सो नानि-नानि भाषाओंकि जरूरतै न्है। यं लोग एक भाषाक फैद बतूनीं कि दुनी में एकै ठुलि भाषा होली, और सब उ भाषा कें जांणला, त दुनी में क्वे लै हर बात समझि सकल। सो, उं कमजोर भाषाओं में तिरयूंण और उना्र भा्ल शब्दों कें आपंणि भाषाओं में शामिल करि बेर आपंणि भाषा कें मजबूत करंणा्क फेर में छन। पर यो गलत धारणा छू। दुनी में कुदरत, पेड़-पौध, जनावर, मैंस अलग-अलग और किसम-किसमाक छन। उनर रूंण-खां्ण, लुकुण पैरंणा्क दगाड़ शरीरैकि लंबाइ, ढांच और खासकर जिबण, और जिबण बटी बलांण लै अलग-अलग छू, त उनैरि बांणि, बोलि-भाषा लै क्वे खट्टि-क्वे मिट्ठि अलग हुनेर भै। तबै दुनी में ‘कोश-कोश में पांणि और चार कोश में बांणि’ बदईं कई जनेर भै। सो नानि-ठुलि किसम-किसमैकि सब भाषाओंक आपंण अलग-अलग महत्व छू, और उनार बिना दुणियैकि कल्पना लै न करी जै सकनि।
इथां भूमंडलीकरण, उदारीकरण और संचार तकनीक में हई क्रांतिक दौर में जस खत्र प्रकृति और पर्यावरण पारि छू उस्सै खत्र मानव सभ्यताक इतिहासाक सबूं है ठुल गवाह कईणीं बोलि-भाषाओं पारि लै छू। संयुक्त राष्ट्रैकि पैलि ‘स्टेट ऑफ द इंडीजीनस पीपुल्स रिपोर्ट-द्वि हजार एका’क मुताबिक दुनी भर में करीब 6,900 भाषा छी, जनूं में बटी करीब 2,500 या तो अलोप है ग्येईं, या इनूं पारि अलोप हुंणक खत्र छू। जबकि करीब 900 अलोप हुंणाक कगार पारि छन। इथां भाषाओंक बिमार हुंण और मरणक यो खत्र और तेज हैगो। करीब 15 साल पैली संयुक्त राष्ट्रैल जतू भाषान कैं बीमार बताछी, वी मुकाबल में आज बिमार भाषाओंकि संख्या करीब तिगुणि हैगे। इथां, संयुक्त राष्ट्राक शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन, यानी यूनेस्को’क भाषा एटलसाक मुताबिक जो देशोंकि भाषन पारि अलोप हुंणक बांकि खत्र छू, उनूमें भारतक नाम सबूं है मलि छू। भारत में 196 भा्ष या तो अलोप है ग्येईं या अलोप हुंणा्क कगार पर छन।
यो एटलस में हमा्र उत्तराखंडैकि कुमाउनी, गढ़वाली और रांग्पो भाषा ‘वलनरेबल’ यानी अलोप हुणांक ठुल खत्र वाली भाषाओंक दगाड़ धरी जै रयीं। किलैकि इन भाषाओंक बोलंणी वा्ल लोग इनन कें छोड़ि बेर दुसरि भाषाओंक उज्याणि जांणईं। इना्र दगाड़ै यो एटलस में उत्तराखण्डैकि दारमा और ब्यौंग्सी भाषाओं कें ‘निश्चित खत्र’ और वांगनी कें ‘अति गंभीर खत्र’ वालि भाषाओंक दगाड़ धरि राखौ। उनार मुताबिक कुमाउनी भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जैं। यो भा्ष कें बोलंणी लोग उत्तराखंडा्क अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम और पड़ोसि देश नेपाल में लै छन। यानी यूनेस्कोक सर्वे करंण बखत यां रूंणी कएक लोगोंल लै आपंणि भाषा कुमाउनी बतै हुनैलि। यैक अलावा गढ़वालि बोलंणी लोगोंकि संख्या 22 लाख 67 हजार 314 बताई जै रै। वैं ‘वलनरेबल’ भाषाओंकि सूची में देशैकि कुल 82 भाषा छन, जनूंमें चमोलि जिल्ल में आठ हजार लोगों द्वारा बुलाई जांणी रॉग्पो लै छू। यैक अलावा देशैकि 62 भाषान कें ‘डेफिनेटली इंनडेंजर्ड’ यानी निश्चित खत्र वालि श्रेणी में धरी जैरौ। यो श्रेणी में उत्तराखंडा्क अल्माड़ व पिथौरागढ़ जिलोंक अलावा नेपालाक दार्चूला जिल्ल में 1,761 लोगों द्वारा बोली जांणी ‘दारमा’ और महाकालिकि घाटी वाल इला्क में 1,734 लोगों द्वारा बोली जांणी ‘ब्योंसी’ कें लै धरी जैरौ। वैं करीब 12 हजार लोगों द्वारा बुलाई जांणी गढ़वालैकि ‘वांगनी’ कें ‘अति गंभीर’ भाषाओंकि श्रेणी में धरि राखौ, जबकि आखिरी श्रेणी अलोप है चुकी भाषाओंकि छू, जमें देशाक पूर्वोत्तराक पहाड़ि राज्योंकि अहोम, अण्डरो व सेंगमाई तथा उत्तराखंडैकि ‘तोहचा’ व ‘रंगकास’ भाषा शामिल छन। खास बात यो लै छु कि देशैकि जो 196 भाषाओं कें यो खत्र वालि सूचिन में धरी जैरौ, उनूमें दक्षिण भारतैकि केवल एक दर्जन भाषांेक अलावा मणीं उड़ीसा और बाकि करीब 85 परसेंट पूवोत्तराक सात पहाड़ि तथा उत्तराखंड, हिमांचल, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम जास हिमालयी पहाड़ि राज्योंकि छन। सो साबित है जां कि पहाड़ि राज्योंकि भाषाओं पारि सबूं है बाकि खत्र छू।
वै अंतर देखी जाओ तो भाषाओं पारि खत्राक मामल में श्रीलंका भारत है भौतै भाग्यशाली छू। यांकि केवल एक भाषा ई खत्र में छू, जबकि भारतीय उपमहाद्वीपाक दुसार देश पाकिस्तानैकि 27 और नेपालैकि 71 भाषा खत्र में छन। वैं आपंणि भाषा में सबूंहै ज्यादे महत्व दिंणी जापानैकि केवल आठै भाषा यो श्रेणी में छन। जबकि भाषाओंक अलोप हुंणाक मामल में भारता्क बाद अमेरिका नंबर द्वि पारि छू। वां 192 भाषा अलोप हुंणा्क धार में छन, या अलोप है चुकि ग्येईं। यैक अलावा दुनी में 199 यैसि भाषा छन, जनूंकें बुलांणी 10 या इनूंहै लै कम लोग बचि रईं, जबकि 397 भाषान कें केवल 50 लोग बुलानीं। इनार अलावा पांच साल पैली 46 भाषाओं कें बुलाणी केवल एक आदिम बचि रौ छी, आ्ब पत्त न्हें कि इनूंमें बटी कतूकन में आब यं एक मैंस लै ‘हो कूंणी-धात लगूंणी’ बचि रईं। इनूंमें बटी एक भाषा हमा्र देशा्क अंडमान निकोबार द्वीप में एक आदिवासी कबिलाक लोगों द्वारा बलाई जांणी ‘बो’ नामैकि भाषा लै छी। भाषा वैज्ञानिकोंक अनुसार करीब 65 हजार साल पुराणि यो ‘प्री नियोलोथिक’ बखतैकि बो भाषा कें बुलांणी 85 सालाक बोआ नामा्क आखिरी आदिम लै हालाक सालों में हिट दि गो, और वीक दगाड़ यो भाषा लै नसि गे। ‘बो’ भाषा इतू खास छी कि यै है पुराणि क्वे लै भाषाक इतिहास दुनी में मौजूद न्हें, हालांकि यो जरूर कई जां कि दुनी में भाषाओंक इतिहास करीब 70 हजार साल पुरांण छू। जबकि आजाक आधुनिक तरिकैल लेखी जांणी लिपि वालि भाषाओंक इतिहास केवल चार बटी छह हजार सालै पुरांणै छू। बो भाषाक बा्र में दिल्लीक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालयैकि चा्ड़-प्वाथन पारि अध्ययन करणी प्रोफेसर डा. अवनिता अब्बीलैल बता कि उनूंल यो भाषाक आखिरी बुलांणी बोआ नामाक बुजुर्ग कें चाड़-पोथीलन दगाड़ भौतै आरामैल बात करंण देखौ। यो बातैल समझी जै सकूं कि क्वे भाषाक अलोप हुंण क्वे आदिमाक मरंण जसै दुखदायी हूं। मैंसै की भें क्वे भाषा मरि जैं त उ लै मरी मैसैकि ई भें कब्बै वापस न ऐ सकनि। बशर्ते वीक बिं कैं और समाई बेर धरी न जाओ त।
‘बो’ भाषाकी भें 1974 में ‘आइसले ऑफ मैन’ नामैकि जा्ग में नेड मैडरले नामाक आखिरी बुलांणी मैंसैकि मौताक दगाड़ ‘मैक्स’ नामैकि एक दुसरि भाषा लै खतम है ग्येछी। इसीकै 2008 में अलास्का में मैरी स्मिथ जॉन्सैकि मौता्क दगा्ड़ ‘इयाक’ नामैकि एक तिसरि भाषा लै अलोप लै ग्येछी। भारत में लै यैसि भौत भाषा छन, जनूं पारि आजि यस्सै खत्र ऊंणी हैरौ। इनूमें दर्मिया, जाद, राजी, चिनाली, गहरी, जंघूघ, स्पिति, कांधी या मलानी और रौंगपो कैं धरी जैरौ, जनूंमें बै राजी और रौंगपो हमार उत्तराखंडैकि भाषा छन। इनूंकैं बुलांणी आब ज्यादे है ज्यादे पांच हजार और कम है कम द्वि-तीन सौ लोगै बचि रईं। दर्मिया, जाद और राजी तिब्बती-बर्मी मूलैकि भाषा छन, जो उत्तराखंडा्क दगाड़ हिमांचल प्रदेशाक कुछ इलाकों में बुलाई जानीं, जबकि चिनौली और गहरी कें बुलांणी द्वि-ढाई हजार लोगै बचि रईं।
‘पीपुल्स लिंग्युस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’क एक दुसार अध्ययना्क मुताबिक भारत में भाषाओंक मामल में सबूंहै समृद्ध राज्य अरुणांचल प्रदेश छू, जां 90 है ज्यादे बोलि-भाषा बोली जानीं। यैक बाद महाराष्ट्र, गुजरातक और फिर उड़ीसाक नंबर उं। महाराष्ट्र में 50 और गुजरात-उड़ीसा में करीब 47 बोलि बोली जानीं। इनार अलावा भारत में करीब 400 बोलि-भाषा आदिवासी समाजों, घुमंतू और गैर अधिसूचित समुदायों द्वारा बलाई जानीं। और सबूं है बांकि खत्र इनूं पारि ई छू। उत्तराखंड जसी भौगोलिक और प्राकृतिक स्थितियों वा्ल देशा्क पूर्वोत्तर राज्यों के 130 बोलि-भा्षों पारि खत्र छू। जबकि ज्यादे भाषाओं वा्ल लै यै राज्य छन, जांक लोग देश में औसतन सबूं है बांकि भा्ष बुलानी। यांक असम में 55, मेघालय में 31, मणिपुर में 28, नागालेंड में 17 और त्रिपुरा में 10 भा्षन पारि अलोप हुंणक खत्र छू। यो तथ्यन कें देखि बेर देशाक भाषा वैज्ञानिक लै मानणईं कि भारत में तटीय और पहाड़ी-हिमालयी या शहरन हुं बांकि पलायन हुंणी इलाकोंक भाषा ई सबूं है तेजील खतम है ग्येईं, और हुंणईं।
जड़ बटी हो लोक भाषाकि सज-समाव
बोलि-भाषा क्वे लै समाज, इला्क, देश-प्रदेश और वांक लोगूंक न केवल विचार, बोल-चाल कें एक-दुसरा्क सामंणि प्रकट करणैंकि माध्यम हैं, बल्कि यै है बांकि उ संस्कृति, पछ्यांण, अस्मिता कें इतिहास बटी आजैकि पीढ़ी अैर आजैकि पीढ़ी बअी अधिलैकि पीढ़ी कें सोंपणैकि माध्यम लै हैं। बोलि-भा्ष बदलें त मैंस लै बदइ जां। यो वास्ते संस्कृत और प्राकृत भा्षना्क जमा्न बै लै भा्षनक रूप बिगड़ण और एक भा्षक दुसैरि भा्ष कें हटै बेर आपूं वीक जा्ग स्थापित है जांणा्क बिरखांत इतिहास में लै मिलनीं। यानी भा्षनक बदलंण एक चलते रूंणी बात छू। ये कें भा्षक विस्तार-विकासै कई जै सकूं। पर उ बखत क्वे लै भाषा्क कि मैंसा्क तें लै महत्वपूर्ण हूं, जब उ आखिरी सांस गिणूं। आज ‘ग्लोबलाइजेशना्क’ जमा्न में भाषाओंक मरणैकि, दुसैरि कमजोर भाषाओं कें ज्यूनै निगइ जांणैकि रफ्तार कुछ ज्यादे’ई हैगे। देश में आज उ इंग्लिश सबूंहै मजबूत भाषा छू, जैक बुलाणियोंल हमूं पारि 1815 बटी 1947 तलक 132 साल राज करौ, और हमा्र स्वतंत्रता संग्राम सेनानियोंल आपंणि ज्यान दी बेर उनूं कें देश बै भजा, पर उ कें न भजै सक्यां।
जसिक हनुमाना्क ह्यि में सीता-राम बैठी छी, उसी हमा्र ह्यिया्क क्वाठ में इंग्लिश पांजी रै। उ हमैरि हिंदी’ई नैं दुनियैकि तमाम भाषाओं कें ज्यूनै न्यवणैकि कोशिश करणै। वैं आबादीक मामल में चीनैकि ‘मंदारिना्’क बाद दुणियैकि दुसैरि नंबरैकि भाषा हिंदी लै टीवी-सिनेमाक दगा्ड़ ‘बजारै’कि ताकत हासिल करि बेर ‘हिंग्लिशा्क’ रूप में देशैकि और भा्षनैकि तें यस्सै अन्या्र गड्ढ (ब्लेक होल) साबित हुंणै, जमै देशैकि कएक भाषा हराते-बिलाते जांणईं। यै वास्ते महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुष’ जा्स ना्र ‘हिंदी’क मुकाबल हुं ठा्ण हुंणईं, त दक्षिण भारता्क कन्नड़, तेलगू, तमिल और पूर्वी भारता्क असमी, बंगाली व पश्चिमी भारता्क गुजराति, राजस्थानी दगाड़ सबूं है बांकि पर्वतीय क्षेत्रोंक कश्मीरी, कुमाउनी, गढ़वाली जसि भा्ष डरान है रईं। किलैकि पहाड़ी इलाकों बै सबूं है तेज गतिल पलायना्क हुंणौ, और पलायना्क दगा्ड़ केवल जवानी और पांणि’ई नै वांकि बांणी यानी बोलि-भाषा लै तलि मैदानूं और हिंदीक उज्याणि बगड़ै।
तो बखत ऐगो, जब आपंण ‘दुदबोलि’ कें बचूणैकि तें पुर जोरैल कोशिश करी जाओ। यो कोशिश जड़ बटी हुंण चैं, यानी घर बटी, दूद बटी, नांनछनां बटी, इस्कूल बटी आपंणि दुदबोलि कुमाउनी या गढ़वालि कें पढ़ूणेकि शुरुआत करैणि पड़लि। उत्तराखंड सरकार यो दिशा में, पाठ्यक्रम में कुमाउनी-गढ़वालि कें लगूंणैकि कोशिश करणै। पर यो कोशिश तब सफल होलि, जब हम लै घर बटी यो कोशिश में आपंण जोर लै लगूंल। ना्नतिनों कें और भा्षना्क दगा्ड़ आपंणि दुदबोलि लै पढ़ूंल। यो कच्चि उमर में जब हमा्र पहाड़ि ना्नतिन हिंदी, अंग्रेजी कि पढ़ाई जाओ त चीनी-जापानी कें समझि सकनीं त आपंण खून-दूद में शामिल कुमाउनी या गढ़वालि कें न समझि सकला। याद धरंण पड़ौल, हमैरि भा्ष ज्यूनि रौली, तबै हमा्र तिथि-बार, तीज-त्यार, रीति-रिवाज, ख्या्ल-म्या्ल, संस्कृति-पछ्यांण लै ज्यून रौल। जसी देशा्क और राज्योंक लोगूं कें चाहे हिंदी, अंग्रेजी में बणांण में लै पछ्यांणी जै सकूं। उना्र जिबा्ड़ बटी आफी उनैरि दुदबोलिकि ‘टोन’ ऐ जैं। हमूं बै लै हमैरि पछ्यांण-शिनाख्ता्क चिनांण-निसांण रूंणै चैनीं। बस यैकि शुरुआत हमूंकैं जड़ै बटि करंणि पड़ैलि।