Rajya Aandolankari : आते-आते अटकी खुशी: राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का विधेयक फिर लटका…!

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नवीन समाचार, देहरादून, 9 सितंबर 2023 (Rajya Aandolankari)। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी एक बार फिर से मायूस हो सकते हैं। राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को राजकीय सेवा में आरक्षण दिये जाने के विधेयक को सर्वसम्मति से सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण मिलने का मामला एक बार फिर लंबे समय के लिये लटक सकता है। राज्य विधानसभा ने राज्य आंदोलनकारियों के आरक्षण के विधेयक को प्रवर समिति को भेज दिया है। 

Rajya Aandolankariअब राज्य की विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण प्रवर समिति का गठन करेंगी और प्रवर समिति इस विधेयक में शामिल प्रस्तावों, उन पर उठाये गये प्रश्नों और नये प्राविधानों की मांग पर विचार करेगी। प्रवर समिति 15 दिन में संशोधनों के साथ अपनी रिपोर्ट देगी। उसकी रिपोर्ट के आधार पर बिल को विधानसभा में रखा जायेगा। बताया गया है कि इसके लिए एक दिन का विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया में कम या अधिक समय लगने से इंकार नहीं किया जा सकता है।

गौरतलब है कि उत्तराखंड विधानसभा में बीते बुधवार को प्रदेश सरकार ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के चिन्हित आंदोलनकारियों व उनके आश्रितों को राजकीय सेवा में आरक्षण देने के लिए पेश किये गये विधेयक में ऐसे प्राविधान किये गये थे, जिनका लाभ सभी चिन्हित राज्य आंदोलनकारियों को नहीं, वरन केवल राज्य आंदोलन में घायल हुये या 7 दिन या इससे अधिक अवधि तक जेल में रहे आंदोलनकारियों को ही लोक सेवा आयोग की परिधि से बाहर समूह ग व घ के पदों की सीधी भर्ती में आयु सीमा और चयन प्रक्रिया में एक साल की छूट दिये जाने का प्राविधान किया गया है।

विधानसभा में आंदोलनकारियों व उनके आश्रितों के लिए आरक्षण विधेयक पर चर्चा के दौरान कांग्रेस विधायक भुवन कापड़ी, भाजपा विधायक विनोद चमोली व मुन्ना सिंह चौहान आदि सदस्यों ने इसके कुछ प्रावधानों पर सवाल उठाए। खासकर सदस्यों ने विधेयक में आंदोलन के दौरान घायलों और सात दिन अथवा इससे अधिक अवधि तक जेल में रहे आंदोलनकारियों को लोक सेवा आयोग की परिधि से बाहर समूह ग और घ के पदों पर सीधी भर्ती में आयु सीमा और चयन प्रक्रिया में एक साल की छूट के प्रावधान पर आपत्ति की।

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साथ ही विधेयक में निम्न संशोधन करने की मांग भी सदस्यों की ओर से रखी गयी:

1. विधेयक में ‘राज्य आंदोलन के दौरान घायलों व सात दिन अथवा इससे अधिक अवधि तक जेल में रहे आंदोलनकारियों’ की जगह ‘चिन्हित राज्य आंदोलनकारी’ होना चाहिए। यानी लाभ सभी चिन्हित राज्य आंदोलनकारियों को मिलने चाहिये। केवल घायलों व सात दिन अथवा इससे अधिक अवधि तक जेल में रहे आंदोलनकारियों को नहीं।

2. आंदोलनकारियों को लोक सेवा आयोग वाले समूह ग के पदों पर भी सीधी भर्ती में आयु सीमा और चयन प्रक्रिया में एक साल की छूट मिले।
3. लोक सेवा आयोग की सीधी भर्ती की परीक्षाओं में राज्य महिला क्षैतिज आरक्षण की तरह राज्य आंदोलनकारियों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण मिले।
इन संशोधनों की मांग के साथ पक्ष-विपक्ष के विधायकों की सर्वसम्मति से विधेयक को प्रवर समिति को भेजने का प्रस्ताव पास कर दिया गया।

Rajya Aandolankari विधेयक में हैं यह प्राविधान:

1-विधेयक में ‘राज्य आंदोलन के दौरान घायलों व सात दिन अथवा इससे अधिक अवधि तक जेल में रहे आंदोलनकारियों’ कोउनकी शैक्षिक योग्यता के अनुसार, नियुक्तियां देने का प्रावधान किया गया है। यदि ऐसे चिन्हित आंदोलनकारी की आयु 50 वर्ष से अधिक या शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम होने के कारण खुद नौकरी करने के लिए अनिच्छुक होंगे, तो उनके एक आश्रित को उत्तराखंड की राज्यधीन सेवाओं में नौकरी के लिए 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण दिया जाएगा।

2-सात दिन से कम अवधि के लिए जेल जाने वाले आंदोलनकारियों को उत्तराखंड की सरकारी सेवाओं में नौकरी के लिए 10 प्रतिशत का क्षैतिज आरक्षण दिया जाएगा। विधेयक सरकार को अधिसूचना के माध्यम से अधिनियम के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए नियम बनाने का अधिकार होगा। अधिनियम के तहत बनाए जाने वाले प्रत्येक नियम को राज्य विधानमंडल के समक्ष रखा जाएगा।

3-उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों का आरक्षण विधेयक 11 अगस्त 2004 से लागू समझा जाएगा। यह अधिनियम राजकीय सेवाओं में सीधी भर्ती के पदों के संबंध में लागू होगा। इससे उन राज्य आंदोलनकारियों को लाभ होगा, जो आंदोलनकारी कोटे से सरकारी विभागों में नौकरी कर रहे हैं। साथ ही उन आंदोलनकारियों को भी राहत मिलेगी, जिनका आयोगों के माध्यम से चयन हो गया था, लेकिन आरक्षण संबंधी शासनादेश के निरस्त होने के बाद उन्हें नियुक्ति नहीं मिल पाई थी।

4- चिन्हित आंदोलनकारियों से उत्तराखंड राज्य गठन के लिए आंदोलन के दौरान शहीद हुए, जेल गए, अथवा घायल हुए आंदोलनकारी या ऐसे आंदोलनकारी जिनका चिन्हीकरण जिलाधिकारी ने दस्तावेजों के सत्यापन के बाद किया है। जबकि आश्रित सदस्य का मतलब चिन्हित आंदोलनकारी की पत्नी या पति, आश्रित पुत्र व अविवाहित अथवा विधवा पुत्री रखा गया है।

पहले भी लटकता रहा है राज्य आंदोलनकारियों (Rajya Aandolankari) का विधेयक

नैनीताल। उल्लेखनीय है कि पूर्व में हरीश रावत सरकार में भी राज्य आंदोलनकारियें के लिए आरक्षण का विधेयक पारित कराकर राजभवन भेजा था, लेकिन वह सात साल तक राजभवन में लटका रहा और इसके बाद भी उसे राज्यपाल की मंजूरी नहीं मिल पाई थी। धामी सरकार के दौरान सात साल बाद यह बिल राजभवन से लौटा था।

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यह भी पढ़ें : धामी कैबिनेट के राज्य आंदोलनकारियों (Rajya Aandolankari) के लिए पारित प्रस्ताव से राज्य आंदोलनकारियों सहित आम लोगों को आरक्षण मं कितना और क्या पड़ेगा फर्क ?

नवीन समाचार, देहरादून, 2 सितंबर 2023 (Uttarakhand Aandolan)। उत्तराखंड के धामी मंत्रिमंडल ने राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को फिर से 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण मिलने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। आगे राज्य विधानसभा में इस बारे में विधेयक रखा जाएगा और विधेयक के पास हो जाने के बाद 2004 से यानी करीब 19 वर्ष पहले से आरक्षण की यह व्यवस्था लागू हो जाएगी।

जानें इस विधेयक के पारित होने से कितने राज्य आंदोलनकारियों को और क्या लाभ मिलेंगे और राज्य के आम लोग इस आरक्षण से कितने प्रभावित होंगे।

1-आंदोलनकारी कोटे से लगे कर्मियों की नौकरी बहाल होगी : नैनीताल उच्च न्यायालय से आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण देने वाले शासनादेश के रद्द होने के बाद राज्य में इस व्यवस्था के तहत सरकारी विभागों में नौकरी कर रहे करीब 1700 कर्मचारियों को बड़ी राहत मिलेगी। क्योंकि उच्च न्यायालय द्वारा राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण देने के तत्कालीन शासनादेश को रद्द किए जाने के बाद 2018 में प्रदेश सरकार ने इसकी अधिसूचना जारी कर दी थी। इससे आंदोलनकारी कोटे से नौकरी में लगे कर्मचारियों की नौकरी को संरक्षण देने वाला कोई नियम मौजूद नहीं रह गया था, और उनकी नौकरी पर तलवार लटकी हुई थी।

2-चिन्हित राज्य आंदोलनकारियों व उनके आश्रितों के लिए नौकरियों में आरक्षण का रास्ता खुलेगा : सबसे बड़ा फायदा राज्य के चिन्हित आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को होगा, जो वर्षों से इसके लिए संघर्ष कर रहे हैं।

3-करीब 300 अभ्यर्थियों की नौकरी मिलेगी : क्षैतिज आरक्षण का शासनादेश रद्द होने के बाद करीब 300 अभ्यर्थी, जिनका आंदोलनकारी कोटे से लोक सेवा आयोग और अधीनस्थ चयन आयोग से चयन हो चुका है। लेकिन नियम न होने की वजह से उन्हें नियुक्ति नहीं दी जा सकी है, अब उन्हें नौकरी मिल सकेगी।

4-लटके परीक्षा परिणाम घोषित हो सकेंगे : ऐसे अभ्यर्थी, जिनके प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम आरक्षण का शासनादेश रद्द होने के कारण जारी नहीं किए गए थे, अब इनके परिणाम जारी होने की उम्मीद है।

उल्लेखनीय है कि वर्तमान में राज्य में चिन्हित राज्य आंदोलनकारियों की संख्या करीब 13000 है। कानून बनने के बाद क्षैतिज आरक्षण का लाभ इन हजारों राज्य आंदोलनकारियों या उनके आश्रितों को मिलेगा। गौरतलब है कि इनके अलावा चिन्हित राज्य आंदोलनकारी की मान्यता लेने के लिए अभी राज्य के सभी 13 जिलों में करीब 6000 और दिल्ली में 300 आवेदन लंबित हैं। यदि यह चिन्हित होते हैं तो इन्हें व इनके आश्रितों को भी आरक्षण का लाभ मिल सकता है। 

क्षैतिज व ऊर्ध्व आरक्षण में अंतर (Difference between Horizontal and Verticle Reservation)

देश के संविधान में दो तरह के क्षैतिज व ऊर्ध्व आरक्षण की व्यवस्था है। राज्य आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण मिलेगा। ऐसे में समझना जरूरी है कि राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण कैसे मिलेगा। इससे किस वर्ग के पदों में कटौती होगी। इसे समझने के लिए जान लें कि देश में अनुसूचित जाति, जाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा तक ऊर्ध्व आधार पर आरक्षण मिलता है। यानी यदि कुल 100 पदों पर नियुक्तियां मिलती हैं तो अधिकतम 50 पदों पर इन वर्गों को भरा जाता है और शेष 50 पदों पर अनारक्षित वर्ग के लोगों की नियुक्तियां होती हैं।

जबकि महिलाओं, बुजुर्गों, ट्रांसजेंडर और विकलांगों को क्षैतिज आरक्षण मिलता है। अब इन्ही की तरह की तरह उत्तराखंड के राज्य आंदोलनकारियों व उनके आश्रितों को भी क्षैतिज आरक्षण फिर से बहाल होने जा रहा है। क्षैतिज आरक्षण एक तरह से ऊर्ध्व आरक्षण के अंतर्गत ही यानी उन्हीं पदों में से कटौती करके दिया जाता है। कानून के जानकारों के अनुसार यदि 10 फीसद आरक्षण की श्रेणी में आने वाले राज्य आंदोलनकारी अनुसूचित जाति, जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग या अनारक्षित वर्ग से होंगे, उन्हें अपने मूल वर्गों के कोटे के अंतर्गत की 10 फीसद आरक्षण प्राप्त होगा।

इसे ऐसे भी और अधिक समझ सकते हैं कि यदि पद पर 100 पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं तो इनमें से 10 पद अनुसूचित जाति के राज्य आंदोलनकारियों को मिल सकते हैं, इसी प्रकार यदि अनारक्षित वर्ग में 100 पद होंगे तो उनमें से 10 पद अनारक्षित वर्ग के राज्य आंदोलनकारियां या उनके आश्रितों से भरे जाएंगे।

राज्य आंदोलनकारियों (Rajya Aandolankari) को आरक्षण मिलने की अब तक की यात्रा:

– राज्य की पहली नित्यानंद स्वामी की अंतरिम सरकार में राज्य आंदोलन के शहीदों के आश्रितों को सीधे नौकरी देने का आदेश जारी किया था।
– 11 अगस्त 2004 को तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार ने घायलों और जेल गए राज्य आंदोलन में शामिल लोगों को सीधे सरकारी सेवा में लेने और चिन्हित राज्य आंदोलनकारियों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण देने का शासनादेश दिया जारी किया।
– निशंक सरकार चिन्हित राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के दायरे में लायी।

– नौ मई 2010 को करुणेश जोशी की याचिका पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने घायलों और जेल गए आंदोलनकारियों को सीधे नौकरी देने वाला शासनादेश निरस्त कर दिया।
– इस पर राज्य सरकार ने 20 मई 2010 को सेवा नियमावली बनायी। करुणेश जोशी ने इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर की।
– 7 मार्च 2018 को उच्च न्यायालय ने क्षैतिज आरक्षण के शासनादेश और सेवा नियमावली को भी निरस्त कर दिया।
– 2015 में हरीश रावत सरकार क्षैतिज आरक्षण का विधेयक लेकर आई, जो राजभवन में सात वर्ष तक लंबित रहा।
– इधर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के अनुरोध पर राज्यपाल ने विधेयक को वापस भेजा और अब धामी सरकार ने दोबारा से नया विधेयक बनाकर इसे राज्य मंत्रिमंडल से पारित कराया। आगे इस विधेयक को विधानसभा के सत्र में पारित कराया जाएगा, जिसके बाद यह कानून बन जाएगा।

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यह भी पढ़ें : सुबह का सुखद समाचार : उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों (Rajya Aandolankari) की सरकार कर सकती है मुराद पूरी..!

नवीन समाचार, देहरादून, 3 फरवरी 2023। उत्तराखंड में सरकारी नौकरियों में राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण बहाल हो सकता है। सरकार इसके लिए अध्यादेश लाने जा रही है। आगामी 10 फरवरी की मंत्रिमंडल की बैठक में इसका प्रस्ताव आ सकता है। सूत्रों के अनुसार इस महत्वपूर्ण विषष पर विचार करने के लिए गठित वन मंत्री सुबोध उनियाल की अध्यक्षता में गठित मंत्रिमंडलीय उप समिति ने आरक्षण बहाली का निर्णय ले लिया है। यह भी पढ़ें : हन्द्वानी में ठगों ने बैंक से ही कर डाली लाखों रुपए की धोखाधड़ी, दबोचे गए, एसएसपी ने की पुलिस टीम के लिए ईनाम की घोषणा…यह भी पढ़ें : हन्द्वानी में ठगों ने बैंक से ही कर डाली लाखों रुपए की धोखाधड़ी, दबोचे गए, एसएसपी ने की पुलिस टीम के लिए ईनाम की घोषणा…

उल्लेखनीय है कि राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में क्षैतिज आरक्षण पर विचार करने के लिए उत्तराखंड सरकार ने वन मंत्री सुबोध उनियाल की अध्यक्षता में मंत्रिमंडलीय उप समिति गठित की थी। उप समिति की बृहस्पतिवार को विधानसभा में बैठक हुई, जिसमें सबसे पहले राज्य आंदोलनकारियों के प्रत्यावेदनों को सुना गया। सूत्रों के अनुसार मंत्रिमंडलीय उप समिति की ओर से आरक्षण बहाली का निर्णय ले लिया गया है। बताया गया है कि आगामी कैबिनेट में इसका प्रस्ताव आ सकता है। यह भी पढ़ें : प्रशासनिक कार्यवाही: शहर में दुकानों से 12.5 कुंतल प्रतिबंधित प्लास्टिक जब्त, कई अवैध निर्माण ध्वस्त…

उल्लेखनीय है कि पूर्ववर्ती एनडी तिवारी सरकार ने वर्ष 2004 में राज्य आंदोलनकारियों को विशेष श्रेणी में मानते हुए सरकारी नौकरियों में दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण देने का शासनादेश जारी किया था। इसका लाभ लोक सेवा आयोग के दायरे में आने वाली नौकरियों एवं राज्याधीन सेवाओं में दिया गया। इसी शासनादेश के आधार पर सैकड़ों आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियां मिलीं। लेकिन त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने इस शासनादेश को रद्द कर दिया था। यह भी पढ़ें : धर्म नगरी में लव जिहाद ! शादी के 9 साल बाद पत्नी पर धर्म परिवर्तन का दबाव बना रहा पति गिरफ्तार, आरोपित से हिंदू-मुस्लिम दो नामों से आधार कार्ड बरामद..

इधर धामी सरकार ने वर्ष 2022 में इसका विधेयक पारित करके राज्यपाल को भेजा, लेकिन राजभवन ने इसे आपत्ति लगाकर लौटा दिया था। वरिष्ठ आंदोलनकारी रवींद्र जुगरान के अनुसार इस पर यह आपत्ति लगाई गई थी कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लघंन है। जुगरान ने कहा कि क्षैतिज आरक्षण राज्य का विषय है। सरकारों ने आंदोलनकारियों को विशेष श्रेणी मानते हुए इस आरक्षण को देना जारी रखा, जो संविधान सम्मत है। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

पूर्व समाचार : राज्य आंदोलनकारियों पर हाईकोर्ट के फैसले के बाद अधिवक्ताओं ने किया बड़ा एलान

-उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ को किया पुर्नजीवित, राज्य आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने तक लगातार लड़ने का लिया संकल्प

नवीन समाचार, नैनीताल, 3 दिसंबर 2018। सोमवार को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के उत्तराखंड आंदोलन से संबंधित मामले में विपरीत निर्णय आने के बाद उत्तराखंड उच्च न्यायालय के अधिवक्ता भी आहत हुए हैं। अधिवक्ताओं ने ऐसे फैसले आने के आने के बाद पूर्व सांसद डा. महेंद्र पाल की अध्यक्षता एवं रविंद्र बिष्ट के संचालन में बैठक की, और राज्य आंदोलनकारियों को सहायता दिलाने के लिए ‘उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ उत्तराखंड’ को पुर्नर्जीवित कर दिया। बैठक में उच्च न्यायालय की ओर से खासकर खटीमा, मसूरी व मुजफ्फरनगर के आंदोलनकारियों पर हुए अत्याचार तथा उत्तराखंड आंदोलनकारियों को मिले सम्मान पर उत्तराखंड के विपरीत निर्णय पर विचार किया गया। वक्ताओं ने कहा कि राज्य आंदोलनकारियों को मिला सम्मान ‘अवार्ड’ नहीं ‘रिवार्ड’ यानी पुरस्कार नहीं ईनाम है।

कहा कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत विधिक आंदोलन था। संविधान के 19 बी के तहत आंदोलनकारियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ था, जिस कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मानव अधिकारों का हनन मानते हुए राज्य आंदोलनकारियों के पक्ष में ‘रिवार्ड’ घोषित किया था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी सही ठहराया, किंतु कुछ बिंदु समाप्त किये। किंतु उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने आतंकवादी व आंदोलनकारी में कोई फर्क नहीं माना इसलिए आंदोलनकारी अब सर्वोच्च न्यायालय की शरण में हैं, और सर्वोच्च न्यायालय में प्रक्रिया जारी है।

रमन शाह बने अध्यक्ष, मनोज पंत महासचिव

नैनीताल। बैठक में आंदोलन के दौरान कोटद्वार अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष रमन कुमार शाह को संघ का अध्यक्ष, देहरादून के अधिवक्ता मनोज पंत को महासचिव मनोनीत किया गया। साथ ही आगे सभी 13 जिलों में अधिवक्ताओं से विचार विमर्श करके वृहद कार्यकारिणी बनाने तथा राज्य आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने तक संघर्ष जारी रखने का निर्णय लिया गया।

इसके अतिरिक्त सुरेंद्र पुंडीर, राम सिंह संबल, महेश परिहार, दीवान बिष्ट, राम सिंह बसेड़ा, जगमोहन नेगी सहित 30 उपाध्यक्ष, तथा रवींद्र बिष्ट, रघुवीर कठैत, चंद्रमोहन बर्थवाल, गंगा सिंह नेगी, दुर्गा सिंह मेहता, बीएस पाल, अजय पंत, ध्यान सिंह नेगी, विनोद तिवारी, हयात बिष्ट, जय बिष्ट, शार्दुल नेगी, मनोज चौहान, भुवनेश जोशी, राजेंद्र टम्टा व सुनील चंद्रा को सचिव तथा त्रिभुवन फर्त्याल व प्रभाकर जोशी आदि को उपसचिव एवं प्रख्यात राज्य आंदोलनकारी स्वर्गीय निर्मल जोशी की पत्नी वरिष्ठ अधिवक्ता पुष्पा जोशी व बार काउंसिल के पूर्व सदस्य डीके शर्मा, वीबीएस नेगी व अवतार सिंह रावत सहित 10 वरिष्ठ अधिवक्ताओं को विशेष आमंत्रित सदस्य बनाया गया है।

यह भी पढ़ें : राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण का लाभ पुनः बहाल करने को राज्य सरकार ने बनाई उप समिति

नवीन समाचार, देहरादून, 21 दिसंबर 2022। उत्तराखंड में राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण का लाभ बहाल करने के लिए राज्य की धामी सरकार ने एक बार फिर प्रयास शुरू कर दिए हैं। इसी कड़ी में राज्य के कबीना मंत्री सुबोध उनियाल की अध्यक्षता में एक उप समिति का गठन कर लिया गया है। यह कमेटी राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण का लाभ देने के लिए सभी पहलुओं की पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट मंत्रिमंडल को देगी। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने हल्द्वानी में रेलवे की भूमि पर अतिक्रमणकारियों को एक सप्ताह में नोटिस देकर 

उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय की रोक के बाद उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को अगस्त 2013 से सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है। मार्च 2018 में उच्च न्यायालय ने आंदोलनकारियों को मिल रहे आरक्षण का लाभ से संबंधित शासनादेश, नोटिफिकेशन और सर्कुलर को भी खारिज कर दिया था। इसके बाद दिसंबर 2015 में तत्कालीन हरीश रावत सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का लाभ देने के लिए विधानसभा में विधेयक पारित कर राजभवन को भेजा था, लेकिन पिछले सात साल से यह विधेयक भी राजभवन में लंबित पड़ा रहा। यह भी पढ़ें : बड़ा समाचार: उत्तराखंड उच्च न्यायालय से प्लास्टिक कूड़े और राज्य के सैकड़ों उद्योगों को बंद किए

इधर 22 सितंबर 2022 को मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर धामी की पहल पर इस विधेयक को जरूरी संशोधन करने के लिए राजभवन से वापस मंगाया गया। सरकार विधेयक के संशोधित ड्राफ्ट पर न्याय विभाग का परामर्श भी ले चुकी है। इधर मंगलवार को हुई राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में इस पर चर्चा के बाद एक उप समिति गठित करने का निर्णय लिया गया। कबीना मंत्री सुबोध उनियाल सब कमेटी के अध्यक्ष और दो अन्य कैबिनेट मंत्री चंदन राम दास व सौरभ बहुगुणा इसके सदस्य होंगे। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड में अब सचिवालय प्रशासन और परिवहन विभाग में सिपाही के पद सीधी भर्ती से भरे जाने सहित धामी 

गौरतलब है कि उत्तराखंड में लगभग 12 हजार चिह्नित राज्य आंदोलनकारी हैं। जबकि आंदोलनकारी कोटे से प्रदेश में लगभग 1700 व्यक्ति सरकारी नौकरियों में हैं। वर्ष 2004 में एनडी तिवारी सरकार ने सात दिन से अधिक जेल में रहने वाले अथवा घायल आंदोलनकारियों को जिलाधिकारियों के माध्यम से सीधी नौकरियां दी थीं। वहीं सात दिन से कम जेल में रहने वाले अथवा चिह्नित आंदोलनकारियों को 10 फीसदी आरक्षण का लाभ दिया गया था। बाद में डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ सरकार में राज्य आंदोलनकारियों को पेंशन की सुविधा और बीसी खंडूड़ी के कार्यकाल में आंदोलनकारियों के आश्रितों को भी आरक्षण का लाभ दिया गया था। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों को न्याय मिलने की अब कोई उम्मीद नहीं बची

‘रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा होगी और उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों को न्याय जरूर मिलेगा.’ उत्तराखंड की जनता को आश्वासन देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने यह बयान दिया था। लेकिन इस बयान की व्यावहारिकता जाँचने के लिए जब न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 22 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है।

उत्तराखंड की सभी सरकारें, राज्य आंदोलनकारी परिषद् के सभी पदाधिकारी और आंदोलनकारियों के तमाम छोटे-बड़े मोर्चे समय-समय पर शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की बातें करते रहे हैं। लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना था, वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहीं। नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक-एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गए। बेहद गिने-चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगी।

सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह भी है कि जिन लोगों पर शहीद आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की जिम्मेदारी थी, उनमें से किसी को यह खबर तक नहीं है कि आंदोलनकारियों से जुड़े मुकदमों का आखिर हो क्या रहा है। उत्तराखंड आंदोलनकारी परिषद् के तमाम पदाधिकारी, सत्ता पक्ष और विपक्ष के तमाम नेता और इन मामलों के लिए नियुक्त किये गए वकीलों तक को यह जानकारी नहीं है कि आंदोलनकारियों के कितने मामले अभी लंबित हैं, ये किन न्यायालयों में हैं, किन धाराओं के तहत दर्ज हैं और इनमें कुल कितने आरोपित या पीड़ित हैं। इन न्यायिक मामलों की वर्तमान स्थिति को एक-एक कर समझने से पहले संक्षेप में उत्तराखंड आंदोलन की उन घटनाओं को समझते हैं जिनमे दर्जनों आंदोलनकारी शहीद हुए थे और जिन घटनाओं के चलते ये मामले दर्ज किये गए।

उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास में साल 1994 सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। यही वह साल था जब पृथक राज्य की मांग एक व्यापक जनांदोलन में तब्दील हुई और इसी साल इस आंदोलन को कुचलने के लिए कई नरसंहारों को भी अंजाम दिया गया। ‘उत्तराखंड महिला मंच’ से जुड़ी राज्य आंदोलनकारी निर्मला बिष्ट बताती हैं, ‘1994 में उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया था। इस फैसले का पूरे उत्तराखंड में विरोध हुआ और यह जल्द ही एक आंदोलन में बदल गया। ‘आरक्षण का एक इलाज, पृथक राज्य-पृथक राज्य’ का नारा दिया गया और दशकों पुरानी यह मांग इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य बन गई।’

1994 में जैसे-जैसे उत्तराखंड आंदोलन में जनता की भागीदारी बढती गई, वैसे-वैसे तब की उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार के इसे दबाने के प्रयास भी बढ़ते चले गए। अगस्त के महीने में पौड़ी, उत्तरकाशी, नैनीताल, ऋषिकेश, कर्णप्रयाग, उखीमठ और पिथौरागढ़ में दर्जनों लाठीचार्ज हुए जिनमें सैकड़ों आंदोलनकारी घायल हुए। सितंबर आते-आते यह पुलिसिया दमन बेहद बर्बर हो गया और आंदोलनकारियों पर सिर्फ लाठीचार्ज ही नहीं बल्कि फायरिंग तक की जाने लगी। सितंबर की शुरूआत में ही खटीमा और मसूरी में दो गोलीकांड हुए जिनमें एक दर्जन से ज्यादा आंदोलनकारी पुलिस की गोलियों का शिकार हो गये।

इन घटनाओं के ठीक एक महीने बाद वह दिन आया जिसे आज तक उत्तराखंड में ‘काला दिवस’ के रूप में जाना जाता है। यह दिन था दो अक्टूबर 1994। उत्तराखंड के हजारों आंदोलनकारी इस दिन पृथक राज्य की शांतिपूर्ण मांग के लिए दिल्ली जा रहे थे। लेकिन एक अक्टूबर की रात को ही इन आंदोलनकारियों की सैकड़ों गाड़ियों को मुज़फ्फरनगर के रामपुर तिराहे के पास रोक लिया गया। यहां आंदोलनकारियों को पुलिस के सबसे बर्बर रवैये का शिकार होना पड़ा। पुलिस ने कई आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार किया और कई लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी। दो अक्टूबर को हुए इस ‘रामपुर तिराहा कांड’ को देश में पुलिसिया बर्बरता की सबसे क्रूर घटनाओं में से एक माना जाता है।

रामपुर तिराहा कांड के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दाखिल हुई जिनमें उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर हुए अत्याचार की सीबीआई से जांच करवाने की मांग की गई थी। न्यायालय ने इस मांग को स्वीकार किया और जल्द ही सीबीआई को यह जांच सौंप दी गई। सीबीआई की जांच के दौरान ही नौ फ़रवरी 1996 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक और फैसला दिया जिसे उत्तराखंड आंदोलनकारियों के मामलों में अब तक का सबसे ऐतिहासिक फैसला माना जाता है।

इस फैसले में न्यायालय ने सरकार को आदेश दिए कि उत्तराखंड आंदोलन में शहीद हुए लोगों के परिजनों और बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं को दस लाख रूपये, उत्पीड़न का शिकार हुई महिलाओं को पांच लाख रूपये, आंशिक विकलांग हुए आंदोलनकारियों को ढाई लाख रूपये, गैरकानूनी तौर से जेलों में बंद किये गए आंदोलनकारियों को 50 हजार रूपये और घायल हुए आंदोलनकारियों को 25-25 हजार रूपये का मुआवजा दिया जाए। उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद कई आंदोलनकारियों को मुआवजा दिया भी गया लेकिन 13 मई 1999 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी।

अब बात करते हैं रामपुर तिराहा कांड से जुड़े उन आपराधिक मामलों की जिनकी जांच सीबीआई को सौंपी गई थी। इन मामलों में एक पक्ष की पैरवी करने वाले मुज़फ्फरनगर के अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘सबसे पहले इन मामलों की सुनवाई देहरादून की सीबीआई अदालत में होना तय हुई थी। लेकिन आरोपित पुलिसकर्मियों ने प्रार्थनापत्र देते हुए कहा कि देहरादून में उन्हें जान का खतरा हो सकता है लिहाजा यह सुनवाई देहरादून से बाहर की जाए। तब उच्च न्यायालय ने इन मामलों की सुनवाई मुरादाबाद की सीबीआई अदालत में करने के आदेश दिए।’

मुरादाबाद में इन मामलों की सुनवाई अभी शुरू ही हुई थी कि छह जनवरी 1999 को अदालत से लौटते हुए पुलिस कांस्टेबल सुभाष गिरी की हत्या कर दी गई। सुभाष गिरी भी रामपुर तिराहा कांड में आरोपित थे लेकिन वे सीबीआई के गवाह बन चुके थे और माना जाता है कि उनकी गवाही कई बड़े अधिकारियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकती थी। सीबीआई के इस मुख्य गवाह की हत्या ने रामपुर तिराहा कांड के पीड़ितों के मन में अपनी सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए। इसके बाद से इस मामले से जुड़े पीड़ित और गवाह सुदूर पहाड़ों से मुरादाबाद आने में और भी हिचकने लगे।

यह लापरवाही आरोपितों के पक्ष में गई और कई मामलों में आरोप ही तय नहीं हो सके। कुछ अन्य मामले इसलिए भी बंद हो गए क्योंकि सीबीआई तय समय सीमा के भीतर इन मामलों में आरोपपत्र ही दाखिल नहीं कर सकी थी।

दूसरी तरफ सीबीआई की लापरवाही के चलते भी रामपुर तिराहा कांड के कई आरोपित आरोपमुक्त हो गए। अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘रामपुर तिराहा कांड के अधिकतर मामले आरोप तय होने के स्तर पर ही ख़ारिज हो गए थे। सीबीआई ने अधिकतर मामलों में आरोपित अधिकारियों पर अभियोग चलाने के लिए आवश्यक अनुमति ही नहीं ली थी। यह लापरवाही आरोपितों के पक्ष में गई और कई मामलों में आरोप ही तय नहीं हो सके। कुछ अन्य मामले इसलिए भी बंद हो गए क्योंकि सीबीआई तय समय सीमा के भीतर इन मामलों में आरोपपत्र ही दाखिल नहीं कर सकी थी। और कुछ इसलिए कि इन सालों के दौरान मुख्य आरोपितों की मौत हो गई थी।’

आज स्थिति यह है कि रामपुर तिराहा कांड से संबंधित अब सिर्फ चार मामले ही बाकी रह गए हैं। ये चारों मामले मुज़फ्फरनगर जिला न्यायालय में लंबित हैं। इन मामलों के मुरादाबाद से मुज़फ्फरनगर आने के बारे में सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘ऐसा सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों पर हुआ। एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिए थे कि मामलों की सुनवाई वहीं की जाएगी जहां अपराध हुआ हो। लिहाजा बचे हुए मामलों को मुरादाबाद से मुज़फ्फरनगर ट्रांसफर कर दिया गया।’ मुज़फ्फरनगर में लंबित इन चार मामलों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है:

महिलाओं के साथ हुए अपराधों से संबंधित मामले
रामपुर तिराहा कांड में महिलाओं पर हुए अत्याचारों के लिए कुल दो मामले दाखिल हुए थे। ये दोनों ही मामले आज भी लंबित हैं। इनमें पहला है- ‘सीबीआई बनाम मिलाप सिंह व अन्य।’ इस मामले में पीएसी के दो कांस्टेबल आरोपित हैं जिनपर आईपीसी की धारा 120बी, 354, 323, 376, 392 और 509 के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। सीबीआई द्वारा इस मामले में दाखिल किए गए आरोपपत्र के अनुसार मिलाप सिंह और वीरेंद्र प्रताप नाम के पीएसी के जवानों ने कमला खंडूरी (बदला हुआ नाम) के साथ बलात्कार किया, उनसे मारपीट की और उनकी नकदी व गहने लूट लिए। आरोप पत्र में यह भी जिक्र है कि जांच के दौरान फोटो दिखाए जाने पर कमला खंडूरी ने दोनों आरोपितों को पहचान लिया है।

इस मामले की वर्तमान स्थिति यह है कि पिछले 22 सालों में इसमें सिर्फ दो ही गवाहों के बयान दर्ज हो सके हैं। कमला खंडूरी कहती हैं, ‘मुज़फ्फरनगर जाने का ख़याल तक मुझे डरा देता है। लेकिन फिर भी किसी तरह हिम्मत जुटाकर मैं तीन बार गवाही के लिए वहां जा चुकी हूं। लेकिन कभी वहां हड़ताल हो जाती है तो कभी किसी और कारण से गवाही नहीं हो पाती।’ वे आगे बताती हैं, ‘कुछ साल पहले मेरे ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था। उस हमले में मेरा कंधा भी टूट गया था। लेकिन इसके बाद भी सरकार ने कभी हमारी सुरक्षा की चिंता नहीं की। इस राज्य की लड़ाई में हमने जो कुछ खोया है उसके लिए कोई सम्मान देना तो दूर, किसी भी मुख्यमंत्री ने कभी भी हमारा हाल तक जानने की कोशिश नहीं की।’ बीते 22 सालों में कमला खंडूरी ने जो अनुभव किया है, उसके चलते उनकी यह उम्मीद समाप्त हो चुकी है कि उन्हें अब कभी न्याय मिल सकेगा। वे कहती हैं, ‘अब मैं गवाही के लिए भी नहीं जाना चाहती। वहां जाकर सिर्फ बुरी यादें ही ताजा होती हैं। 22 साल में जब कुछ नहीं हुआ तो अब शायद किसी को सजा होगी भी नहीं।’

रामपुर तिराहा कांड में महिलाओं के साथ हुए अपराधों से जुड़ा दूसरा और आखिरी मामला है- ‘सीबीआई बनाम राधा मोहन द्विवेदी व अन्य।’ यह मामला सबसे ज्यादा गंभीर है लेकिन फिर भी इसकी वर्तमान स्थिति सबसे बुरी है। यह मामला 16 आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार और शारीरिक शोषण जैसे जघन्य अपराध पुलिस हिरासत में रहने के दौरान हुए अपराधों का है। सीबीआई द्वारा दाखिल किये गए आरोपपत्र के अनुसार इनमें से तीन महिलाओं के साथ बलात्कार या सामूहिक बलात्कार जैसे अपराध किए गए और 13 महिलाओं का शारीरिक शोषण किया गया, उनके कपड़े फाड़े गए और उनके साथ लूटपाट भी की गई। इस मामले में कुल 27 पुलिसकर्मियों को आरोपित बनाया गया है जिनपर आईपीसी की धारा 120बी, 376, 354, 392, 323 और 509 के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। 

आरोप पत्र के अनुसार तत्कालीन एसओ राधा मोहन द्विवेदी ने एक अक्टूबर 1994 की रात कुल 345 लोगों को हिरासत में लिया था। इनमें 298 पुरुष और 47 महिलाएं शामिल थीं। सीबीआई के आरोप पत्र में जिक्र है कि ‘गिरफ्तार की गई महिलाओं में से तीन महिलाओं के साथ पुलिस हिरासत में रहते हुए ही बलात्कार किये जाने और 13 महिलाओं के शारीरिक शोषण किये जाने की बात सामने आई है।’ इस मामले की वर्तमान स्थिति यह है कि बीते दस सालों से तो यह पूरी तरह से बंद पड़ा है। साल 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई पर अस्थायी रोक लगा दी थी। दस साल बीत चुकने के बाद यह ‘अस्थायी’ रोक अभी भी बरकरार है।

इस मामले की 16 पीड़िताओं में से एक, मधु भंडारी (बदला हुआ नाम) कहती हैं, ‘मुझे यह भी नहीं मालूम कि उन पुलिसवालों को सजा देने के लिए कोई मुकदमा चल भी रहा है या नहीं। मुझे आज तक कभी किसी कोर्ट में बयानों के लिए नहीं बुलाया गया। राज्य बनने पर हमें उम्मीद जगी थी कि अब हमें न्याय जरूर मिलेगा, लेकिन तब से आज तक हमें अपमान के अलावा कुछ नहीं मिला।’ मधु आगे कहती हैं, ‘राज्य बनने के कुछ समय बाद हम लोग मुख्यमंत्री से मिलने देहरादून गए थे। वहां हमारे बारे में कहा गया – ‘ये आ गयी मुज़फ्फरनगर कांड वाली, दस लाख वाली।’ उस दिन के बाद से मैं कभी किसी मुख्यमंत्री के पास नहीं गई। आज भी वो शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं।’

इन मामलों की निगरानी के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा नियुक्त किये गए विशेष अधिवक्ता केपी शर्मा कहते हैं, ‘ये दोनों ही सीबीआई के केस हैं इसलिए हम इन मामलों में चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। वैसे हमने सीबीआई को लिखा है कि राधा मोहन द्विवेदी वाला केस, जो पिछले दस साल से लटका पड़ा है, उसकी सुनवाई उच्च न्यायालय से आर्डर लेकर जल्दी ही शुरू करवाई जाए। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय तो समुद्र की तरह है। वहां जो केस एक बार खो जाता है उसका मिलना फिर बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन हम कोशिश कर रहे हैं।

रामपुर तिराहा कांड से जुड़े अन्य मामले
महिलाओं के साथ हुए अपराध के दो मामलों के अलावा दो और मामले हैं जो आज भी मुज़फ्फरनगर की अदालतों में लंबित हैं। ये दोनों मामले मजिस्ट्रेट कोर्ट में चल रहे हैं। इनमें पहला है- ‘सीबीआई बनाम एसपी मिश्रा व अन्य।’ आईपीसी की धारा 120बी और 201 के तहत चल रहे इस मामले में कुछ पुलिसकर्मियों पर आरोप है कि उन्होंने आपराधिक षड्यंत्र रचा और आंदोलनकारी शहीदों की लाशों को रामपुर तिराहे से कुछ दूरी पर गंगनहर में फेंक दिया था। इस मामले में बचाव पक्ष की पैरवी कर रहे अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा अपनी डायरी खंगालते हुए बताते हैं, ‘इस मामले में अभी आरोप भी तय नहीं हुए हैं। फिलहाल तो उस कोर्ट में कोई जज ही नहीं है जहां ये मामला लंबित है। जज आएंगे तो फिर आरोप तय होने के लिए बहस होगी।’

मजिस्ट्रेट कोर्ट में लंबित दूसरा मामला है- ‘सीबीआई बनाम बृज किशोर व अन्य।’ आईपीसी की धारा 218, 211, 182 और 120बी के अंतर्गत चल रहे इस मुकदमे में पुलिसकर्मियों पर झूठी बरामदगी दिखाने (जैसे कि हथियार, पेट्रोल आदि) के आरोप हैं। रामपुर तिराहा कांड से जुड़े कुल चार लंबित मामलों में यही सबसे ‘तेजी’ से चलता दिखता है। इस मामले में बीते 22 सालों में कुल 13 लोगों की गवाही हो चुकी है।

क्या रामपुर तिराहा कांड के आरोपित जानबूझकर इन सभी मामलों में देरी करवा रहे हैं ताकि वे सजा पाने से बच सकें ? इस सवाल के जवाब में बचाव पक्ष के वकील सुरेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘आप पिछले 22 साल का कोर्ट रिकॉर्ड जांच लीजिये। इन 22 सालों में मुश्किल से दो या तीन बार ही बचाव पक्ष ने तारीख आगे टालने की प्रार्थना की होगी। जबकि अभियोजन पक्ष (सीबीआई) लगभग हर दूसरी तारीख पर केस आगे टालने का ही आवेदन करता आया है।’ वे आगे कहते हैं, ‘इसका मुख्य कारण यह है कि मुज़फ्फरनगर में सीबीआई के वकील नहीं हैं। इसलिए इन मामलों की पैरवी के लिए उसके वकील दिल्ली से आते हैं। लिहाजा उनकी यही कोशिश रहती है कि उनका पैरोकार ही यहां आकर अगली तारीख ले जाए।’

इन मामलों में देरी का एक कारण यह भी है मुज़फ्फरनगर में अलग से कोई सीबीआई अदालत नहीं है। ऐसी अदालतें प्रदेश के कुछ सीमित जिलों में ही होती हैं। लिहाजा इन मामलों की सुनवाई के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय किसी एक जज को नियुक्त करता है। लेकिन जैसे ही उस जज का ट्रांसफर होता है ये मामले फिर से तब तक के लिए लटक जाते हैं जब तक सीबीआई दोबारा इलाहाबाद तो इसी वजह से ‘सीबीआई बनाम मिलाप सिंह’ वाला मामला लंबित पड़ा था। कुछ दिन पहले ही उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई के लिए मुज़फ्फरनगर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (द्वितीय) को इसकी सुनवाई के लिए नियुक्त किया है।

रामपुर तिराहा कांड से संबंधित मामलों का सबसे दुखद पहलू यह है कि जो चार मामले आज न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें एक भी ऐसा नहीं है जिसमें शहीदों के हत्यारों को सजा हो सके। वे सभी मामले काफी समय पहले ही ख़ारिज हो चुके जिनमें आरोपित पुलिसकर्मियों और अधिकारियों पर आंदोलनकारियों की हत्या करने, गैर इरादतन हत्या करने या उनकी हत्या का प्रयास करने के आरोप लगाए गए थे। रामपुर तिराहा कांड में शहीद हुए सत्येन्द्र चैहान के भाई आशुतोष बताते हैं, ‘मुझे नहीं पता कोर्ट में क्या हुआ। मुझे सीबीआई ने 1994-95 के दौरान ही सिर्फ एक बार अपने भाई के कपड़ों की पहचान करने के लिए बुलाया था। उसके बाद से कभी किसी ने यह नहीं बताया कि उसकी हत्या के लिए कोई मुकदमा चला भी या नहीं और अगर चला तो उसका क्या हुआ।’

उत्तराखंड आंदोलन में सक्रियता से जुडी रही डॉ. उमा भट्ट बताती हैं, ‘इसमें कुछ दोष हमारा भी रहा कि हम न्यायालयों में लड़ाई को मजबूती से नहीं लड़ पाए। राज्य बनने के बाद भी हमने यह मुहिम चलाई थी कि शहीदों को न्याय मिलना और दोषियों को सजा होना, हमारे लिए राज्य निर्माण से भी बड़ा उद्देश्य था। हमने न्यायालयों से ख़ारिज होने वाले शुरूआती मामलों पर पुनर्विचार करवाने के भी प्रयास किये, लेकिन यह काम लगातार नहीं कर सके।’

डॉक्टर उमा भट्ट जैसे बेहद कम ही लोग हैं जो यह स्वीकार करते हैं कि रामपुर तिराहा कांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की लड़ाई में उनकी भी कुछ भूमिका होनी थी। बाकी राज्य बनने के बाद तरह-तरह की रेवड़ियां लूटने के फेर में इस लड़ाई को भूल गये। जनता ने भी इसमें उनका साथ दिया जिससे इस लड़ाई के लिए जरूरी दबाव कभी बन ही नहीं सका। नतीजा यह कि उत्तराखंड को बनाने के लिए जिन्होंने बड़ी कुर्बानियां दीं उनकी लड़ाई लड़ने वाला तो दूर अब कोई उनके बारे में सोचने वाला भी नहीं। (पत्रकार राहुल कोटियाल की रपट ‘सत्याग्रहडाॅटस्क्राॅलडाॅटइन’ से साभार)

पहले हाई कोर्ट ने ही 23 साल बाद राज्य आंदोलन के शहीदों-महिलाओं के लिए जगाई थी उम्मीदें

-कोर्ट ने मामले को गंभीरता से लेते हुए जनहित याचिका के रूप में किया स्वीकार
-राज्य आंदोलनकारियों और महिलाओं के साथ हुई बर्बरता के मामले में सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सरकार से चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने के आदेश पारित
नैनीताल, 8 अक्तूबर 2018। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान दो अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा कांड में पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिलने व फायरिंग के आरोपितों पर कार्रवाई नहीं होने के मामले का हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया है। कोर्ट ने 23 साल बाद कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए इसे जनहित याचिका के रूप में स्वीकार सूचीबद्ध किया है। इससे शहीद, घायल आंदोलकारियों के साथ ही अस्मत लुटा चुकी महिलाओं को न्याय की उम्मीद जगी है।

मामले की सुनवाई करते हुए कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजीव शर्मा व न्यायमूर्ति मनोज कुमार तिवारी की खंडपीठ ने राज्य आंदोलन के दौरान एक अक्टूबर 1994 की रात राज्य आंदोलनकारियों और महिलाओं के साथ हुई बर्बरता के मामले में सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सरकार से चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने के आदेश पारित किए हैं। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव गृह को याचिका में पक्षकार बनाते हुए पूछा है इस मामले के जिम्मेदार पुलिस व प्रशासनिक अफसरों पर क्या कार्रवाई हुई और तमाम अदालतों में रामपुर तिराहा कांड से संबंधित मुकदमों की स्थिति क्या है।

उल्लेखनीय है कि रामपुर तिराहा पर पुलिस ने दिल्‍ली जा रहे उत्‍तराखंड राज्‍य आंदोलनकारियों पर कहर ढाया था। इलाहाबाद हाई कोर्ट में राज्य आंदोलन के दौरान खटीमा, मसूरी, मुजफ्फरनगर कांड के मामले में पांच-अलग जनहित याचिकाएं दायर की गईं तो सीबीआइ को जांच के आदेश दिए गए। सीबीआइ ने पांच आरोप पत्र सीबीआइ मजिस्ट्रेट मुजफ्फरनगर, दो सीबीआइ जज मुजफ्फरनगर तथा पांच सीबीआइ देहरादून में दाखिल किए। इसमें आरोपी तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह, आइजी नसीम, डीआइजी बुआ सिंह तथा दो दर्जन अन्य पुलिस अफसर शामिल थे।

छह अप्रैल 1996 को देहरादून में सीबीआइ ने पांच केस दर्ज किए। इसमें डीएम अनंत कुमार सिंह, एसपी राजपाल सिंह, एएसपी एनके मिश्रा, सीओ जगदीश सिंह व सीओ का गनर सुभाष गिरी के खिलाफ धारा-304, 307, 324 व 326 के तहत केस दर्ज किया गया। सीबीआइ देहरादून ने 22 अप्रैल 1996 को इस मुकदमे में हत्या की धारा जोड़ दी। छह मई को पांचों आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद निजी मुचलके में रिहा कर दिया गया। राज्य आंदोलन में खटीमा, मसूरी, मुजफ्फरनगर व अन्य स्थानों पर 35 आंदोलनकारियों ने शहादत दी थी।

अब तक यह है मामले की स्थिति

मामले में आरोपी डीएम अनंत कुमार सिंह ने 2003 में नैनीताल हाई कोर्ट में रिट दायर की थी। 22 जुलाई को जस्टिस पीसी वर्मा व जस्टिस एमएम घिल्डियाल की कोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए सीबीआइ दून के हत्या की धारा जोड़ने संबंधी आदेश को निरस्त कर दिया। इस आदेश के खिलाफ आंदोलनकारियों ने पुनर्विचार याचिका दायर की। 22 अगस्त 2003 को डबल बेंच ने ही आदेश को रिकॉल कर लिया, साथ ही मामले को दूसरी बेंच के लिए स्थानांतरित कर दिया। 28 सितंबर 2004 में जस्टिस राजेश टंडन व जस्टिस इरशाद हुसैन की खंडपीठ ने अनंत कुमार सिंह की याचिका खारिज कर दी।

इधर, सीबीआइ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के केस ट्रांसफर से संबंधित दस मामलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। साल 2005 में सीबीआइ की अपीलें खारिज कर दी। इसके बाद उत्तराखंड आंदोलनकारी मंच के अधिवक्ता रमन साह की ओर से हाई कोर्ट में प्रार्थना पत्र दाखिल किया गया। जस्टिस लोकपाल सिंह की कोर्ट ने जिला जज देहरादून को इस मामले की जांच रिपोर्ट मांगी, जबकि जस्टिस मनोज तिवारी की कोर्ट ने जांच रिपोर्ट में आपत्ति दाखिल करने के निर्देश दिए। याचिकाकर्ता रमन साह का कहना है कि जो मुकदमा 1996 में इलाहाबाद हाई कोर्ट से ट्रांसफर नहीं हुआ, उसकी सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं हो सकती। यहां यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस मामले में हाजिर माफी गवाह तत्कालीन सीओ के गनर सुभाष गिरि की 1996 में हत्या कर दी गई। मामले में सीबीसीआइडी ने फाइनल रिपोर्ट लगा दी।

बड़ा समाचार : राज्य आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण पर राज्य सरकार ने सभी दरवाजे किये बंद !

हाईकोर्ट के आदेश का दिया हवाला, जबकि सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है मामला
नवीन समाचार, देहरादून, 14 दिसंबर 2018। सर्वोच्च न्यायालय से जगी उम्मीद के बीच उत्तराखंड सरकार ने राज्य निर्माण आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण नहीं देने का आदेश देकर बड़ा झटका दे दिया है। इस फैसले से आंदोलनकारी आरक्षण से संबंधित पूर्व में जारी सभी आदेश, नियम और अधिसूचनाएं निरस्त हो गई हैं। अपर मुख्य सचिव-कार्मिक राधा रतूड़ी की ओर से सभी विभागों के साथ ही लोक सेवा आयेाग को भी हाईकोर्ट और सरकार के फैसले की जानकारी दे दी गई है। राज्य सरकार ने इस आदेश के लिए उच्च न्यायालय के फैसले को आधार बताया है, जबकि मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी चल रहा है। इस फैसले के बाद पहले ही उच्च न्यायालय में कमजोर पैरवी केरोपों में घिरी राज्य सरकार का राज्य आंदोलनकारियों के निशाने पर आना तय माना जा रहा है।

उल्लेखनीय है कि एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गत 7 मार्च 2018 को आरक्षण के मामले में आदेश दिया था। जबकि इधर पांच दिसंबर को जारी आदेश में अपर मुख्य सचिव ने आदेश में लिखा है कि हाईकोर्ट के इस आदेश के क्रम में राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण देने संबंधित राज्य सरकार के सभी परिपत्र, नियम और अधिसूचनाएं निरस्त हो गई हैं। लिहाजा सभी विभाग अपने स्तर पर भी कार्रवाई सुनिश्चित करें। सूत्रों के अनुसार इस फैसले से विभागों को अपनी भर्ती नियमावलियों को संशोधित करना पड़ेगा।

राजभवन में दो वर्ष से लटका था राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का विधेयक
उल्लेखनीय है कि राज्य निर्माण आंदोलनकारियों के लिए वर्ष 2004 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था की थी। लेकिन वर्ष 2013 में हाईकोर्ट ने क्षैतिज आरक्षण की इस व्यवस्था पर रोक लगा दी। इधर 2016 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए गैरसैंण में आयोजित विधानसभा सत्र में विधेयक पारित किया था। विधेयक को मंजूरी के लिए राजभवन भेजा गया था, लेकिन तब से इस विधेयक को मंजूरी नहीं मिली।

पूर्व समाचार: क्षैतिज आरक्षण चाह रहे राज्य आंदोलनकारियों के लिए सुप्रीम कोर्ट से आयी उम्मीद की खबर

    • राज्य आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण की याचिका मंजूर
    • सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य सचिव, सचिव गृह व जिलाधिकारियों को भेजा नोटिस जवाब देने के लिए एक माह का समय, अगली सुनवाई 26 को

नई दिल्ली 31 अक्टूबर 2018। उत्तराखंड के राज्य आंदोलनकारियों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण से संबंधित विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर ली है। वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। न्यायालय ने प्रदेश के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह व सभी जनपदों के जिलाधिकारियों के साथ ही उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी मंच को नोटिस जारी कर अगले 30 दिन में जबाव दाखिल करने के लिए कहा है। याचिका दाखिल करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह ने बताया कि उच्चतम न्यायालय ने सरकारी सेवा करने वाले राज्य आंदोलनकारी कोटे के सभी कर्मचारियों की सूची भी तलब की है। इस मामले की अगली सुनवाई अब 26 नवंबर को होगी।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य आंदोलनकारियों को दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के लाभ से संबंधित एसएलपी को स्वीकार किये जाने का राज्य आंदोलनकारी मंच ने स्वागत किया है। मंच के प्रदेश अध्यक्ष जगमोहन सिंह नेगी ने कहा कि मंच से जुड़े राज्य आंदोलनकारी इस मामले की उचित पैरवी करने के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता रमन शाह के साथ उपस्थित रहेंगे।

याद हो कि राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी सेवाओं में दस प्रतिशत आरक्षण का लाभ दिये जाने का प्रावधान था। लेकिन कुछ समय पहले एक याचिका पर सुनवाई करते हुए नैनीताल उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों को मिलने वाले दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के लाभ को निरस्त कर दिया था। राज्य आंदोलनकारी की मांग पर विस में इस संदर्भ में बिल पेश किया गया लेकिन यह बिल पिछले लंबे समय से लंबित है। राज्य आंदोलनकारी बार-बार बिल को पास करने की मांग कर रहे थे। लेकिन राज्य सरकार ने उनकी एक नहीं सुनी। इस पर राज्य आंदोलनकारियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

यह भी पढ़ें : राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का जिक्र ही नहीं था शुरुआती याचिका में

नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों के मामले में शुक्रवार को उत्तराखंड उच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की खंडपीठ में एक राय नहीं बनी। ऐसे में इस संबंध में आये दोनों पक्षों को समझना भी एक दिलचस्प कहानी है। खास बात यह भी है कि यह मामला शुरू से राज्य आंदोलनकारियों को मिलने वाले आरक्षण से संबंधित कहा जा रहा है, जबकि खास बात यह है कि मामले में आरक्षण पर सुनवाई ही कई वर्षो के बाद हुई है।

इस मामले की शुरुआत 11 अगस्त 2004 को आये उत्तराखंड सरकार के शासनादेश संख्या 1269 से हुई। जिसके आधार पर कम से कम सात दिन जेल में रहे राज्य आंदोलनकारियों को उनकी योग्यता के अनुसार समूह ‘ग’ व ‘घ’ में सीधी भर्ती से नियुक्तियां दी गयीं। खास बात यह भी थी कि इस शासनादेश में कहीं भी राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का जिक्र नहीं था, अलबत्ता इसके साथ ही एक अन्य शासनादेश संख्या 1270 भी जारी हुआ था जिसमें उत्तराखंड राज्य के अंतर्गत सभी सेवाओं में राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देने का प्राविधान किया गया था।

बहरहाल, हल्द्वानी निवासी एक राज्य आंदोलनकारी करुणेश जोशी ने नौकरी की मांग करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। बताया गया है कि करुणेश के पास सरकारी के बजाय निजी चिकित्सक का राज्य आंदोलन के दौरान घायल होने का प्रमाण पत्र था। इसी आधार पर उसे इस शासनादेश का लाभ नहीं मिला था। उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की एकल पीठ ने शासनादेश संख्या 1269 के बाबत राज्य सरकार की कोई नियमावली न होने की बात कहते हुए इस शासनादेश को असंवैधानिक करार देते हुए करुणोश की याचिका को खारिज कर दिया।

इस पर राज्य सरकार ने वर्ष 2010 में सेवायोजन नियमावली बनाते हुए उसमें शासनादेश संख्या 1269 के प्राविधानों को यथावत रख लिया। इस पर करुणोश ने पुन: उच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर कर अब नियमावली होने का तर्क देते हुए उसे शासनादेश संख्या 1269 के तहत नियुक्ति देने की मांग की। इस बार न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की खंड ने याचिका के साथ ही शासनादेश संख्या 1269 को भी खारिज के साथ ही कर दिया, साथ ही मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर इस मामले को जनहित याचिका के रूप में लेने एवं राज्य सरकार की नियमावली की वैधानिकता की जांच करने की संस्तुति की।

इस पर 26 अगस्त 2013 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बारिन घोष एवं न्यायमूर्ति एसके गुप्ता की खंडपीठ ने याचिका को स्वीकार करते हुए राज्य आंदोलनकारियों के लिए अंग्रेजी के ‘राउडी’ यानी अराजक तत्व शब्द का प्रयोग किया, साथ ही आगे से राज्य आंदोलनकारियों का आरक्षण देने पर रोक लगा दी। इस बीच एक अप्रैल 2014 को एक अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण देने पर भी रोक लगा दी।

राज्य आंदोलनकारी एवं अधिवक्ता रमन साह ने वर्ष 2015 में इस शब्द पर आपत्ति जताते हुए और इस शब्द को हटाने और आरक्षण पर आये स्थगनादेश को निरस्त करने की मांग की। उनका कहना था कि राज्य आंदोलनकारी कभी भी अराजक नहीं हुए, उन्होंने सरकारी संपत्तियों को नुकसान भी नही पहुंचाया। इस बीच खंड पीठ में अलग-अलग न्यायाधीशगण आते रहे। आखिर न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया व न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की खंडपीठ ने ‘‘राउडी’ शब्द को हटा दिया, अलबत्ता आरक्षण पर स्थगनादेश और मामले पर सुनवाई जारी रही। साह का कहना था कि राज्य आंदोलनकारी ‘पीड़ित’ हैं। उन्होंने राज्य के लिए अनेक शहादतें और माताओं-बहनों के साथ अमानवीय कृत्य झेले हैं।

लिहाजा उन्हें संविधान की धारा 16 (4) के तहत तथा इंदिरा सावनी मामले में संविधान पीठ के फैसले का उल्लंघन न करते हुए, यानी अधिकतम 50 फीसद आरक्षण के दायरे में ही जातिगत आरक्षण के इतर, संविधान के अनुच्छेद 47 के तहत बाढ़, भूस्खलन व दंगा प्रभावित आदि कमजोर वगरे को मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर मिलने वाले आरक्षण की तर्ज पर सामान्य वर्ग के अंतर्गत ही क्षैतिज आधार पर सामाजिक आरक्षण दिया जाना चाहिए। उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने गत 18 मार्च को सुनवाई पूरी कर इस पर फैसला सुरक्षित रख लिया था और शुक्रवार को फैसला सुनाया।

फैसले में खंडपीठ के दोनों न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी ने शासनादेश संख्या 1269 की वैधता के संबंध में अलग-अलग फैसले देते हुए मामले को बड़ी पीठ को संदर्भित करने की संस्तुति की। आगे संविधान विशेषज्ञों के अनुसार मामले में मुख्य न्यायाधीश की ओर से इन दो न्यायाधीशों को छोड़कर अन्य तीन अथवा अधिक न्यायाशीशों की खंडपीठ गठित कर मामले की सुनवाई किया जाना तय माना जा रहा है।

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नवीन समाचार, देहरादून, 8 नवंबर 2022। उत्तराखंड सरकार राज्य में महिलाओं को आरक्षण के साथ राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण का लाभ दिलाने के लिए विधानसभा के आगामी सत्र में नया संशोधित विधेयक ला सकती है। राज्य की अवधारणा व पहचान से जुड़े इस विषय पर संशोधित विधेयक का प्रारूप तैयार करने के लिए होमवर्क शुरू हो गया है। माना जा रहा है कि राज्य आंदोलनकारियों को ‘राज्य सेनानी’ का दर्जा दिया जा सकता है, जिससे उन्हें पूर्व में दी गई सुविधाएं देने में कानूनी अड़चनों से बचने में मदद मिलेगी। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड: आपराधिक राजधानी बनते जा रहे जिले में अब ओवरलोड लकड़ी भरे ट्रक ने चेकिंग कर रहे पुलिस कर्मी को कुचला

उल्लेखनीय है कि 2013 में उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण देने पर रोक लगा दी थी और 2015 में तत्कालीन हरीश रावत सरकार ने विधानसभा से क्षैतिज आरक्षण बहाल कराने के लिए विधेयक पारित कराकर राजभवन भेज दिया था। इस बीच उच्च न्यायालय की रोक के बाद 2018 में सरकार ने उस अधिसूचना को रद्द कर दिया था, जिसमें राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण का प्रावधान था। यह भी पढ़ें : महज इतने के लिए की गई पुलिस कर्मी की पत्नी की हत्या ! इससे ज्यादा के तो पुलिस टीम को मिल गए ईनाम !

इधर, सीएम धामी के अनुरोध पर सात साल बाद राजभवन ने इस विधेयक की वापस लौटा दिया था। अब सरकार इसकी कमियों को दूर कर संशोधित विधेयक लाने की तैयारी है। विधेयक के संबंध में कार्मिक और गृह विभाग अध्ययन में जुटा है। न्यायिक परामर्श के बाद अब सरकार संशोधित विधेयक लाने जा रही है। मुख्यमंत्री के सचिव शैलेश बगौली ने इसकी पुष्टि की है। यह भी पढ़ें : श्रीराम सेवक सभा में अध्यक्ष व महासचिव पद पर लगातार दूसरी बार मनोज साह व जगदीश बवाड़ी को जिम्मेदारी

अब तक राज्य आंदोलनकारियों के लिए यह-यह हुआ:
– वर्ष 2000 में शहीदों के परिवारों के एक-एक परिजन को सरकारी नौकरी दी गई।
– 2004 में सात दिन जेल गए या गंभीर रूप से घायलों को योग्यता अनुसार सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण व घायलों को 3000 रुपये प्रतिमाह पेंशन दी गई।
– 2011 में सक्रिय आंदोलनकारियों के एक आश्रित को सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण की सुविधा दी गई।
– 2012 में राज्य आंदोलन में घायलों की पेंशन को बढ़ाकर 5000 रुपये की गई।
– 2015 में सक्रिय राज्य आंदोलनकारियों के लिए भी 3100 रुपये पेंशन शुरू की गई।
– 2022 सक्रिय राज्य आंदोलनकारियों की सम्मान पेंशन 3100 रुपये से बढ़ाकर 4500 रुपये व राज्य आंदोलन में घायलों को दी जाने वाली पेंशन को 5000 से 6000 रुपये किया गया। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य स्थापना दिवस से ठीक पहले राज्य आंदोलनकारियों ने लिया राज्य के लिए एक और लड़ाई लड़ने का संकल्प

नवीन समाचार, नैनीताल, 1 नवंबर 2022। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों ने राज्य स्थापना से ठीक पहले जिला मुख्यालय में बड़ी बैठक आयोजित की। बैठक में कहा गया कि उन्होंने एक लड़ाई राज्य प्राप्त करने के लिए लड़ी थी। लेकिन राज्य बनने के बाद जिस तरह के हालात हो गए हैं। पर्वतीय राज्य की अवधारणा समाप्त हो रही है। यह भी पढ़ें : पूर्व मुख्यमंत्री के सलाहकार की पत्नी की कंपनी में 200 करोड़ रुपए किए गए काले से सफेद !

समस्त योजनाएं एवं संस्थान मैदानी क्षेत्र के लिए बन रहे हैं और पहाड़ों से आम लोगों के साथ ही नेताओं व संस्थाओं का पलायन हो रहा है, ऐसे में राज्य आंदोलनकारियों को राज्य में नेताओं व नौकरशाहों के गठजोड़ को तोड़ने तथा भूकानून, पहाड़ के किसानों की समस्याओं, पलायन, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के लिए एक और लड़ाई लड़ने की आवश्यकता है। यह भी पढ़ें : देश की दूसरी सबसे पुरानी नगर पालिका को मिले नए ईओ, बताईं प्राथमिकताएं…

मंगलवार को नैनीताल क्लब में उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी क्रांतिकारी मोर्चा के बैनर के नीचे वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी दीवान सिंह कनवाल की अध्यक्षता एवं पान सिंह सिजवाली के संचालन में बड़ी संख्या में राज्य आंदोलनकारी जुटे। इस दौरान अधिकांश राज्य आंदोलनकारियों ने कहा कि वह अपनी जगह राज्य के हितों के प्रति चिंतित हैं। खासकर राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों से संसाधनों के अभाव में एवं नेताओं व नौकरशाहों के गठजोड़ के हितों के लिए हो रहे पलायन से पर्वतीय राज्य की अवधारणा धूमिल हो गयी है। यह भी पढ़ें : दीपावली के बाद परीक्षा के दिन भी शिक्षक नहीं पहुंचे शिक्षक, बैरंग लौटे बच्चे, अब गिरी गाज…

अब राज्य गठन के समय एकमात्र स्थायी संस्थान उच्च न्यायालय को भी पहाड़ से मैदान की ओर ले जाने की कुचेष्टा हो रही है। राज्य के आधे से अधिक विधायक दो-तीन मैदानी शहरों में रह रहे हैं। पहाड़ की चिंता किसी को नहीं है। ऐसे में एक और लड़ाई की आवश्यकता है। यह भी पढ़ें : सुबह-सुबह शराब के नशे में धुत मिले डॉक्टर साहब, वीडियो वायरल हुआ तो नौकरी से बर्खास्त

इस दौरान राज्य आंदोलनकारियों को राज्य सेनानी घोषित करने, 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण तुरंत बहाल करने, मृतक आश्रित चिन्हित राज्य आंदोलनकारियों की विधवाओं को पेंशन परिचय पत्र दिए जाने, सख्त भूकानून, पलायन को रोकने, गैरसेंण को स्थायी राजघानी घोषित करने, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली योजना में 75 फीसद अनुदान देने व सभी राज्य आंदोलनकारियों को समान रूप से 15 हजार रुपए मासिक पेंशन देने के प्रस्ताव पारित हुए। यह भी पढ़ें : पूरे दिन सुनवाई के बाद HC से हल्द्वानी की रेलवे भूमि के अतिक्रमण पर आई बड़ी खबर, अतिक्रमणकारियों का संशोधन प्रार्थना पत्र निरस्त

बैठक में हुकुम सिंह कुंवर, डॉ. रमेश पांडे, मनोज जोशी, मुकेश जोशी, मोहन पाठक, रईश अहमद, कंचन चंदोला, कुंदन नेगी, मनमोहन कनवाल, शाकिर अली, लक्ष्मी नारायण लोहनी, हरेंद्र बिष्ट, नवीन जोशी, मुनीर आलम, वीरेद्र जोशी, प्रदीप अनेरिया, विनोद घड़ियाल, सैयद नदीम, डॉ. नवीन जोशी सहित दर्जनों राज्य आंदोलनकारी मौजूद रहे। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य स्थापना दिवस पर नैनी झील में सेलिंग रिगाटा व पहाड़ी फूड फेस्टिवल भी होंगे

उत्तराखंड के 22वें स्थापना दिवस पर नैनी झील में होगा सेलिंग रिगाटा, फ्लैट्स  में फूड फेस्टिवल - Uttarakhand Foundation Day 2022 Sailing rigata to be  held in Nainital lake and food ...नवीन समाचार, नैनीताल, 31 अक्तूबर 2022। उत्तराखंड के 22वें स्थापना दिवस के अवसर पर नैनीताल की नैनी झील में सेलिंग रिगाटा यानी पाल नौकायन एवं फूड फेस्टिवल सहित कई कार्यक्रम आयोजित किये जाएंगे। इससे दो दिन पूर्व सात नवंबर से जिले भर में वृहद स्तर पर सफाई अभियान चलाया जाएगा। इस दौरान विद्यालयों के सीनियर छात्रों के साथ ही एनसीसी, एनएसएस के कैडेट भी शामिल रहेंगे। इस दौरान उत्तराखंड राज्य आंदोलन के शहीदों को श्रद्धांजलि भी अर्पित की जाएगी। यह भी पढ़ें : नैनीताल: 2 पिकअप में ठूंस कर ले जाये जा रहे 11 गौवंशीय पशु मुक्त कराए, तीन पशु तश्कर गिरफ्तार

सोमवार को कलेक्ट्रेट सभागार में आयोजित बैठक में डीएम धीराज गर्ब्याल ने विभिन्न विभागों के अधिकारियों के साथ बैठक कर स्थापना दिवस के आयोजनों की तैयारियों को अंतिम रूप दिया। बैठक में निर्णय लिया गया कि पूर्व वर्षो की तरह इस बार भी नैनी झील में सेलिंग रिगाटा एवं फ्लैट्स मैदान पर होटल एसोसिएशन के सहयोग से फूड फेस्टिवल का आयोजन किया जाएगा। जिसमें पहाड़ी उत्पादों से बने भोजन भी प्रमुखता से परोसे जाएंगे। यह भी पढ़ें : नैनीताल : पैराग्लाइडिंग के दौरान साल का तीसरा हादसा, गई एक सैलानी की जान

साथ ही इस दौरान सरकारी विभागों और स्वयं सहायता समूह के उत्पादों और सरकारी योजनाओं की जानकारी देने के लिए स्टाल भी लगाए जाएंगे। बैठक में एडीएम शिवचरण द्विवेदी, एसडीएम राहुल शाह, योगेश मेहरा, सीएमओ डॉ भागीरथी जोशी, जिला पर्यटन अधिकारी बिजेंद्र पांडे, नितिन गरखाल, सीएम साह, होटल एसोसिएशन के अध्यक्ष दिग्विजय बिष्ट, वेद साह सहित तमाम अधिकारी व कर्मचारी मौजूद रहे। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य आंदोलनकारियों को फिर से नौकरियों में आरक्षण दिलाने की कोशिश में सरकार

नवीन समाचार, खटीमा, 27 अक्टूबर 2022। उत्तराखंड सरकार ने उच्च न्यायालय की रोक के बाद भी राज्य आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण देने के रास्ते तलाशने का काम शुरू हो गया है। सरकार ने न्याय विभाग से कानूनी राय लेने के लिए फाइल आगे बढ़ा दी है। यह भी पढ़ें : शादी के बाद भी मिलते रहे प्रेमी-प्रेमिका, आज मिले तो रंगे हाथों पकड़े गए और हो गया तमाशा…

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2004 में तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार ने सबसे पहले आंदोलनकारियों को पांच वर्ष के लिए नौकरियों में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण का लाभ दिया था। बाद में 5 वर्ष की अवधि का विस्तार कर दिया गया था। इसके तहत सात दिन से अधिक जेल में रहने वाले आंदोलनकारियों व उनके आश्रितों को जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में गठित कमेटी को सीधे नौकरी देने का अधिकार था। यह भी पढ़ें : पुलिस ने ब्यूटी पार्लर में सेक्स रैकेट चलने की सूचना पर मारा छापा, माजरा निकला कुछ और फिर हंगामे के बाद हुआ मामले का सुखद पटाक्षेप…

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अगस्त 2013 में राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण पर रोक लगा दी थी। इस पर वर्ष 2015 में हरीश रावत सरकार ने आरक्षण का लाभ देने के लिए सदन में विधेयक पारित कराया था। तब से यह राजभवन में लंबित पड़ा था। जबकि वर्ष 2018 में आरक्षण का शासनादेश, सर्कुलर और अधिसूचना तीनों को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था। इधर, सितंबर, 2022 में धामी सरकार ने रावत सरकार के आरक्षण विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस मांगा है। सरकार का दावा है कि विधेयक की खामियों को दूर कर वे फिर से आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण का लाभ दिलाएंगे। यह भी पढ़ें : बच्चा होने पर नाबालिग निकली विवाहिता, शादी के डेढ़ साल बाद 19 वर्षीय पति गिरफ्तार…

इधर, सूत्रों के अनुसार कार्मिक विभाग ने वर्ष 2004 से 2018 के दौरान की पूरी रिपोर्ट उच्चस्तर को सौंप दी है। इसके साथ ही न्याय विभाग से फिर से परामर्श मांगा है। कार्मिक विभाग के सचिव शैलेश बागची ने कहा कि, सरकार सभी विकल्पों पर विचार कर रही है। इसी क्रम में न्याय विभाग से परामर्श मांगा गया है। राजभवन से अध्यादेश वापस मंगाने के बाद क्या-क्या कदम उठाए जा सकते हैं, इसी पर अभी विचार-विमर्श चल रहा है। आरक्षण का लाभ मिलने और हाईकोर्ट के आदेश के बाद इसके खत्म होने के बीच की पूरी रिपोर्ट तैयार कर ली गई है। यह भी पढ़ें : प्रेमिका की अन्यत्र तय हुई शादी तो प्रेमी ने खुद की कनपटी पर मार ली गोली….

अभी सिर्फ मिल रहा है पेंशन का लाभ
राज्य आंदोलनकारियों को अभी केवल तीन श्रेणियों में पेंशन का लाभ मिल रहा है। पूरी तरह से असहाय हो चुके आंदोलनकारियों को 20,000, सात दिन या इससे अधिक जेल में रहे व घायल आंदोलनकारियों को 6000 जबकि सक्रिय आंदोलनकारियों को 4500 रुपये पेंशन मिल रही है। (डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : सुबह का सुखद समाचार : 26 लोग राज्य आंदोलनकारी घोषित

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 21 मई 2022। बागेश्वर के 26 लोग राज्य आंदेलनकारी घोषित किए गए हैं। उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण आदेश देते हुए बागेश्वर जिले के 26 लोगों को राज्य आंदोलनकारी का दर्जा दे दिया है, और बागेश्वर को जिलाधिकारी को उन्हें राज्य आंदोलनकारी का दर्जा देने के आदेश जारी करने को कहा है।

शुक्रवार को यह आदेश बागेश्वर निवासी भगवान सिंह माजिला एवं अन्य 25 लोगों की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति शरद कुमार शर्मा की एकलपीठ ने जारी किया। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि चिह्नीकरण के बावजूद उन्हें राज्य आंदोलनकारी का दर्जा नहीं दिया जा रहा है। उन्होंने राज्य आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी और वे राज्य आनोदलनकारी होने के लिए सभी मानक पूरा करते हैं।

याचिका में यह भी कहा गया कि डीएम की अगुआई में गठित कमेटी की ओर से उनका चिह्नीकरण भी किया गया था। चिह्नीकरण के बाद जिला प्रशासन ने यह सूची शासन को भेज दी। उसके बाद भी राज्य आंदोलनकारी का दर्जा नहीं दिया गया न ही कोई सुविधा दी जा रही है। सभी पक्षों की दलील सुनने के बाद एकलपीठ ने डीएम बागेश्वर को याचिकाकर्ताओं को राज्य आंदोलनकारी घोषित करने के आदेश जारी करने के निर्देश दिए हैं। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : मुख्यमंत्री से मिलेगा राज्य आंदोलनकारियों का प्रतिनिधिमंडल…

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 15 अप्रैल 2022। जनपद नैनीताल के उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी संगठन की क्षेत्रीय बैठक शुक्रवार को मुख्यालय के निकट बजून में आयोजित हुई। जिला अध्यक्ष गणेश बिष्ट की अध्यक्षता में हुई बैठक में वक्ताओं ने राज्य के मुद्दों पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि राज्य आंदोलनकारियों व राज्यवासियो के हक-हकूकों को सुनिश्चित करने के लिए शीघ्र ही एक प्रतिनिधिमंडल प्रदेश के मुख्यमंत्री से मुलाकात करेगा।

वक्ताओं न इस बात पर चिंता व्यक्त की कि राज्य बने 22 वर्ष हो जाने के बावजूद राजधानी गैरसैण का मुद्दा अद्यतन लंबित है। साथ ही मूल निवास, पलायन, जल-जंगल-जमीन के मसलों का हल भी नहीं हुआ है। अध्यक्ष बिष्ट ने वास्तविक आंदोलनकारिओ के चिन्हीकरण के मुद्दे को शीघ्र हल किये जाने तथा सभी आंदोलनकारियों को एक समान पेंशन, चिन्हित राज्य कर्मचारियों को भी पेंशन स्वीकृत करने, मुजफ्फरनगर कांड के दोषी अधिकारियो को दंडित करने, राज्य के नौनिहालों को बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य, दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए दीर्घकालीन योजनाओं का निर्माण कर उनका ईमानदारी से क्रियान्वयन किए जाने की भी आवश्यकता जताई।

उन्होंने इस बात पर दुःख व्यक्त किया कि अक्टूबर माह में आई दैवीय आपदा से टूटी सडको का निर्माण छः माह बाद भी नहीं हो पाया है। बैठक मैं राज्य आंदोलनकारी कमलेश पांडे, पान सिंह सिजवाली, एचआर बहुगुणा, नवीन जोशी, दीवान सिंह कनवाल, मनमोहन कनवाल, रमेश पंत, लीला बोरा व हरेंद्र बिष्ट आदि राज्य आंदोलनकारी उपस्थित रहे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य सरकार की देरी से राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण की उम्मीदों पर झटका ! नौकरी पाए राज्य आंदोलनकारियों की नौकरी पर भी संकट !!

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 6 अप्रैल 2022। राज्य सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों को लोक सेवा आयोग की परिधि से बाहर की सरकारी सेवाओं में 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देने के मुद्दे पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय में संशोधन हेतु प्रार्थना पत्र देने में देरी कर दी है। सरकार की इस गलती से नौकरी पाए राज्य आंदोलनकारियों की नौकरी पर तलवार लटक गई है, जबकि नौकरी पाने की उम्मीद रखने वाले राज्य आंदोलनकारियों की उम्मीदों पर तुषारापात होता नजर आ रहा है।

उच्च न्यायालय की कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजय कुमार मिश्रा व न्यायमूर्ति आरसी खुल्बे की खंडपीठ ने सरकार के राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी सेवाओं में 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देने के प्रार्थना पत्र को इस आधार पर निरस्त कर दिया है आदेश को 1403 दिन होने के बाद सरकार ‘मोडिफिकेशन एप्लिकेशन’ पेश कर रही है। जबकि इसे आदेश होने के 30 दिन के भीतर पेश किया जाना था। पीठ ने कहा कि सरकार ने यह प्रार्थना पत्र ‘लिमिटेशन एक्ट’ की परिधि से बाहर जाकर पेश किया है और सरकार ने देर से प्रार्थना पत्र दाखिल करने का कोई ठोस कारण भी नहीं बताया है।

उल्लेखनीय है कि 2004 में तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार राज्य आंदोलनकारियों को लोक सेवा आयोग से भरे जाने वाले पदों एवं लोक सेवा आयोग की परिधि के बाहर के पदों में 10 फीसद आरक्षण दिए जाने के लिए अलग-अलग दो शासनादेश लाई थी। शासनादेश जारी होने के बाद राज्य आंदोलनकारियों को दस फीसदी क्षैतिज आरक्षण दिया गया। 2011 में उच्च न्यायालय ने इस शासनादेश पर रोक लगा दी। बाद में उच्च न्यायालय ने इस मामले को जनहित याचिका में बदल करके 2015 में इस पर सुनवाई की। खंडपीठ में शामिल दो न्यायाधीशों ने आरक्षण दिए जाने व नहीं दिए जाने को लेकर अपने अलग-अलग निर्णय दिए।

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने अपने निर्णय में कहा कि सरकारी सेवाओं में दस फीसद क्षैतिज आरक्षण देने को नियम विरुद्ध बताया, जबकि न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी ने अपने निर्णय में आरक्षण को संवैधानिक माना। इस पर यह मामला सुनवाई हेतु अन्य पीठ को भेजा गया। उसने भी आरक्षण को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया कि सरकारी सेवा के लिए नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त है। इसलिए आरक्षण दिया जाना संविधान के अनुच्छेद 16 के विरुद्ध व असवैधानिक है।

इधर, सरकार ने बुधवार को राज्य लोक सेवा आयोग की परिधि से बाहर वाले शासनादेश में शामिल प्रावधान के संशोधन को प्रार्थना पत्र पेश किया था, जिसको न्यायालय ने निरस्त कर दिया। इस प्रार्थना पत्र का विरोध करते हुए राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता रमन साह ने न्यायालय को बताया कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में एसएलपी यानी विशेष अनुमति याचिका विचाराधीन है।

दूसरी ओर 2015 में कांग्रेस सरकार ने विधान सभा में विधेयक पास कर राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद आरक्षण देने का विधेयक पास किया और इस विधेयक को राज्यपाल के हस्ताक्षरों के लिये भेजा लेकिन राजभवन से यह विधेयक वापस नहीं आया। अभी तक आयोग की परिधि से बाहर 730 लोगो को नौकरी दी गयी है, जो अब खतरे में है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य आंदोलनकारियों ने चिन्हीकरण की समस्याओं को लेकर किया प्रदर्शन

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 28 दिसंबर 2021। राज्य आंदोलनकारियों ने चिन्हीकरण की प्रक्रिया में आ रही दिक्कतों का समाधान करने की मांग को लेकर मंगलवार को उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी मंच के बैनर तले मुख्यालय स्थित जिलाधिकारी कार्यालय के बाहर धरना-प्रदर्शन किया एवं ज्ञापन सोंपा।

राज्य आंदोलनकारी प्रभात ध्यानी की अगुवाई में हुई प्रदर्शन में कहा गया कि उत्तराखंड सरकार द्वारा राज्य आंदोलनकारियों के चिह्निनीकरण के लिए थाने या अभिसूचना इकाइयों की रिपोर्ट व दस्तावेजों को आधार बनाया गया है लेकिन स्थानीय थाना, कोतवाली व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कार्यालय में वर्ष 1994 से लेकर 1997 तक के दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। बताया जा रहा है कि उस समय के दस्तावेजों को नष्ट कर दिया गया है। ऐसे में सत्यापन होना कठिन है।

धरना-प्रदर्शन में पूर्व विधायक डॉ. नारायण सिंह जंतवाल पूरन मेहरा, किशन पाठक, हरेंद्र बिष्ट, केएल आर्य, देवी दत्त पांडे, जगदीश पांडे, दिपुली देवी, कृष्णा नंद जोशी, देवेंद्र मेहरा व गणेश लाल आदि लोग मौजूद रहे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : जो वादा किया वो निभाया: राज्य आंदोलनकारियों की पेंशन में बढ़ोत्तरी के लिए शासनादेश जारी…

नवीन समाचार, देहरादून, 17 दिसंबर 2021। उत्तराखंड की धामी सरकार ने अपना एक और वादा निभाया है। राज्य स्थापना दिवस पर देहरादून स्थित पुलिस लाइन में आयोजित कार्यक्रम में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य आंदोलनकारियों की पेंशन बढ़ाने की घोषणा की थी। अब सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों को उनकी पेंशन की धनराशि में बढ़ोतरी करने का शासनादेश जारी कर नए साल का तोहफा दिया है। आंदोलनकारियों की पेंशन 1000 से 1400 रुपये तक बढ़ाई गई है।

शुक्रवार को अपर सचिव रिद्धिम अग्रवाल ने इस संबंध आदेश जारी किए। आदेश में प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को कहा गया है कि वित्त विभाग की सहमति पर उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान सात दिन जेल गए या आंदोलन के दौरान घायल हुए आंदोलनकारियों की पेंशन पांच हजार से बढ़ाकर छह हजार रुपये प्रति माह और अन्य आंदोलनकारियों की पेंशन 3100 में 1400 रुपये की बढ़ोतरी कर 4500 रुपए की गई है।

इससे सात दिन जेल गए एवं घायल आंदोलनकारियों की संख्या 344 तथा अन्य 6821 सहित सात हजार से अधिक राज्य आंदोलनकारियों को लाभ मिलेगा। मुख्यमंत्री धामी की घोषणा के बाद उत्तराखंड शासन ने पेंशन बढ़ाने का शासनादेश जारी कर दिया है। उल्लेखनीय है कि राज्य आंदोलनकारी लंबे समय से पेंशन बढ़ाने की मांग कर रहे थे। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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-यूपी के मुजफ्फरनगर सहित प्रदेश भर से विचार मंथन में पहुंचे राज्य आंदोलनकारी, हुआ अभिनंदन

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 31 अक्टूबर 2021। मुजफ्फरनगर सहित प्रदेश भर से पहुंचे राज्य आंदोलनकारियों ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान मुजफ्फरनगर में 43 राज्य आंदोलनकारियों की हत्या और सात राज्य आंदोलनकारी महिलाओं से दुराचार की घटना के दोषियों को सजा दिलाने के लिए ‘उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ’ के बैनर तले सभी आंदोलनकारी संगठनों ने सभी विचाराधीन मामलों की पैरवी पूरी ताकत से कर इस संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाने का संकल्प जताया। कहा कि सभी आंदोलनकारी संघ इसमें मदद करेंगे।

यह भी कहा गया कि मुजफ्फरनगर बार एसोसिएशन भी वहां विचाराधीन 12 मुकदमों में मदद करेंगे। इस दौरान खास तौर पर मुजफ्फरनगर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कलिराम, महासचिव अरुण कुमार शर्मा आदि पदाधिकारियों का स्मृति चिन्ह भेंट कर अभिनंदन किया गया, साथ ही रामपुर तिराहा में शहीद स्मारक व आवास गृह के लिए जमीन देने वाले श्री शर्मा के लिए भी अभिनंदन स्मृति चिन्ह भिजवाया गया।

मुख्यालय स्थित नैनीताल क्लब में ‘उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ’ द्वारा आयोजित ‘संवैधानिक विचार मंथन’ में यूपी के मुजफ्फरनगर सहित प्रदेश भर से राज्य आंदोलनकारी पहुंचे।

पूर्व सांसद डॉ. महेंद्र पाल की अध्यक्षता में आयोजित विचार मंथन में चिन्हित राज्य आंदोलकारी समिति के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र रावत, राज्य निर्माण सेनानी मोर्चा के अध्यक्ष महेंद्र रावत, राज्य आंदोलकारी मंच देहरादून के अध्यक्ष जगमोहन नेगी, पूर्व महाधिवक्ता वीबीएस नेगी, राजीव लोचन साह, उमेश जोशी, हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अवतार सिंह रावत, मोहन पाठक एवं आयोजक संस्था के अध्यक्ष रमन कुमार शाह, सैयद नदीम मून, रवींद्र बिष्ट, अतुल बंसल, भगवत नेगी, आनंद पांडे, डॉ. रमेश पांडे, पान सिंह रौतेला व प्रभाकर जोशी आदि ने अपने क्षेत्रों में हुए राज्य आंदोलन की यादों का स्मरण किया, तथा अब तक भी राज्य आंदोलनकारी शहीदों के हत्यारों को सजा न मिलने पर राज्य की सरकारों के प्रति नाराजगी जताई।

साथ ही कहा कि मुजफ्फरनगर कांड के शहीदों के हत्यारों को सजा दिलाकर इस दिशा में शुरुआत की जा सकती है। कहा कि इस मामले में इतने सबूत मौजूद हैं कि दोषियों को आजीवन कारावास अथवा फांसी की सजा होनी तय है।

अलबत्ता इस दौरान कई वक्ता राजनीतिक रंग में भी नजर आए और राज्य की चुनिंदा सरकारों पर निशाना साधते और अन्य को छोटे-छोटे श्रेय देते भी नजर आए, जबकि सभी ने माना कि इन मामलों में केवल तीन गवाहों की गवाही के अलावा कुछ भी ठोस नहीं हो पाया है। यह भी कहा कि राज्य सरकारें राज्य आंदोलनकारियों को केवल एक बार नौकरियों में मिलने वाली रियायत को आरक्षण से इतर करके बचा नहीं सके। यह भी माना कि यह मामले सीबीआई से संबंधित है, और सरकार इन मामलों में पक्षकार नहीं है।

अलबत्ता कहा कि सरकार को खुद पहल कर मजबूत पैरवी करनी चाहिए थी। संचालन हाईकोर्ट बार के पूर्व सचिव पूरन सिंह रावत ने किया। इस मौके पर रवींद्र बिष्ट, मुन्नी तिवारी, लीला बोरा, शीला रजवार, पुष्कर नयाल, सरिता आर्य व प्रो. रवि प्रताप सिंह सहित बड़ी संख्या में राज्य आंदोलनकारी मौजूद रहे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य स्थापना दिवस पर राज्य के अवधारणात्मक विकास पर चर्चा करेंगे राज्य आंदोलनकारी

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 30 अक्टूबर 2021। राज्य निर्माण के 21 वर्ष पूरे होने को हैं, और इस दौरान राज्य आंदोलनकारी एक बार फिर सक्रिय हैं। अब राज्य आंदोलनकारियों ने राज्य के विकास व नव निर्माण की रूपरेखा बनाने की बात कही है।

इस हेतु आगामी नौ नवंबर को राज्य स्थापना दिवस के दिन राज्य आंदोलनकारियों का एक शिविर आयोजित किया जाएगा। जिसमें राज्य की अवधारणा के साथ ही आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण को लेकर चर्चा की जाएगी।

शनिवार को उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी क्रांतिकारी मोर्चा से जुड़े आंदोलनकारियों ने नैनीताल क्लब में पत्रकार वार्ता करते हुए यह बात कही। जिलाध्यक्ष गणेश बिष्ट ने कहा कि 21 वर्ष गुजरने के बाद भी उत्तराखंड विकास की राह ताक रहा है। आज भी प्रदेश में स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार की बुरी हालत है।

राज्य आंदोलनकारी मोहन पाठक ने कहा कि राज्य की अवधारणा को पूरा करने में राज्य की किसी सरकार ने कोई कार्य नहीं किया है। आगामी नौ नवंबर को आयोजित शिविर में आगामी रूपरेखा पर मंथन किया जाएगा।

इस दौरान जिला उपाध्यक्ष महेश जोशी, महामंत्री हरेंद्र बिष्ट, मुनीर आलम, कैलाश तिवारी, हरगोविंद रावत, लीला बोरा, दीवान कनवाल, तारा बिष्ट, पान सिंह रौतेला, शाकिर अली, लक्ष्मी नारायण लोहनी व रईस भाई आदि राज्य आंदोलनकारी मौजूद रहे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : मुजफ्फरनगर कांड को बताया जलियावाला बाग हत्याकांड, लिया उत्तराखंडियों के हत्यारों-बलात्कारियों को सजा दिलाने का संकल्प

-43 राज्य आंदोलनकारी शहीदों की हत्या और सात राज्य आंदोलनकारी महिलाओं से दुराचार के आरोपितों को सजा दिलाने का ऐलान

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 29 अक्टूबर 2021। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता संघ ने मुजफ्फरनगर कांड को देश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ घटित जलियावाल बाग हत्याकांड सरीखा बताया है। कहा कि जैसे जलियावाला बाग कांड में स्वतंत्रता संग्राम के लिए लोग शहीद हुए थे वैसे ही उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान मुजफ्फरनगर में 43 राज्य आंदोलनकारियों की हत्या और सात राज्य आंदोलनकारी महिलाओं से दुराचार की घटना हुई थी। देखें विडियो :

इसके आरोपितों को संवैधानिक तरीके से सजा दिलाने का ऐलान करते हुए कहा कि जलियावाला बाग और मुजफ्फरनगर कांड की घटनाएं हर तरह से समान हैं। अलबत्ता, दोनों कांडों के बीच अंतर यह है कि जलियावाला बाग कांड के दौरान भारतीय संविधान अस्तित्व में नहीं था और मुजफ्फरनगर कांड के सदस्य भारतीय संविधान अस्तित्व में था।

आगामी 31 अक्टूबर को मुख्यालय में उत्तराखंड सहित अन्य क्षेत्रों से राज्य आंदोलनकारियों के बड़े ‘संवैधानिक विचार मंथन शिविर’ के आयोजन का ऐलान करते हुए संघ के अध्यक्ष रमन कुमार शाह ने शुक्रवार को आयोजित पत्रकार वार्ता में कहा कि एक अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए आंदोलनन विधि सम्मत था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी इसे विधि सम्मत तथा राज्य आंदोलनकारियों के साथ हुए मुजफ्फरनगर कांड को उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन माना है, और तत्कालीन सरकार को राज्य आंदोलनकारियों को हर्जाना देने के आदेश दिए थे।

इसी आदेश के तहत उत्तराखंड सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों को नौकरियों में रियायत दी थी, न कि आरक्षण। उन्होंने मुजफ्फरनगर कांड के मामले को भी मानवाधिकार आयोग द्वारा संज्ञान में लेने की मांग करते हुए केंद्र सरकार से 26 वर्ष पुराने इस कांड के दोषियों को सजा दिलाने के लिए सीबीआई को पुनः सक्रिय किए जाने की मांग भी उठाई।

कहा कि आरोपितों के खिलाफ इतने सबूत हैं कि उन्हें सजा मिलनी तय है। क्योंकि पिछले 26 वर्षों में सीबीआई केवल 3 गवाहों की गवाही करा पाई है, और आरोपितों की फाइलें भी खो गई बताई जा रही हैं। सीबीआई इन फाइलों को खोजे। पत्रकार वार्ता में पूर्व सांसद डॉ. महेंद्र पाल, सैयद नदीम मून, रवींद्र बिष्ट, अतुल बंसल, भगवत नेगी, आनंद पांडे व प्रभाकर जोशी आदि अधिवक्ता सदस्य मौजूद रहे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य आंदोलनकारियों की पेंशन कोषागार के हेड में भेजे जाने की मांग..

नवीन समाचार, नैनीताल, 26 अक्टूबर 2021। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों की पेंशन कोषागार के हेड में भेजे जाने की मांग की है। डीएम नैनीताल को भेजे गए ज्ञापन में राज्य आंदोलनकारियों का कहना है कि अभी पेंशन जिलों में जिलाधिकारियों के पास दो-दो माह में आती है। इसमें विलंब भी हो जाता है।

इसलिए उन्होंने इसे कोषागार के माध्यम से अन्य पेंशनों की तरह भेजे जाने की मांग की है। उनका कहना है कि शासन ने उत्तरकाशी जनपद को इस संबंध में अपना मंतव्य देने को भी कहा है। इस संबंध में डीएम ने अनुरोध किया गया है कि यहां से भी आंदोलनकारियों की पेंशन कोषागार में भिजवाने के लिए पहल करें। ज्ञापन में पूरन मेहरा, हेम चंद्र पाठक, कंचन चंदोला, योगेश तिवाड़ी व चंदन बिष्ट आदि के हस्ताक्षर हैं। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : सरकारी नौकरी पाये उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों की नौकरी पर एक बार फिर छाया संकट…

-उत्तराखंड हाईकोर्ट के असंवैधानिक बताने के आदेश का पालन करने के लिए अपर सचिव ने विभागाध्यक्षों को पत्र लिखा
नवीन समाचार, देहरादून, 30 जून 2021। उत्तराखंड में क्षैतिज आरक्षण के आधार पर राज्य सरकार के विभिन्न सरकारी विभागों में नौकरी पाने वाले राज्य आंदोलनकारियों की नौकरी पर फिर संकट छाने लगा है। अपर सचिव रिद्धिम अग्रवाल ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के इन नौकरियों को असंवैधानिक बताने वाले आदेश का हवाला देते हुए राज्याधीन सेवाओं में राज्य आंदोलनकारियों के क्षैतिज आरक्षण के संबंध में पारित आदेश का पालन करने के निर्देश दिये हैं। उन्होंने इस संबंध में सभी विभागाध्यक्षों को पत्र भेज कर इस मामले में अद्यतन स्थिति से शासन को अवगत कराने के भी निर्देश दिये हैं।

उल्लेखनीय है कि इस मामले में याचिकाकर्ता प्रशांत तड़ियाल ने वर्ष 2011 में उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर कहा था कि राज्य आंदोलनकारी श्रेणी के अंतर्गत राजकीय सेवा में जो कर्मचारी कार्यरत हैं, उनकी नियुक्तियां असंवैधानिक हैं, इसलिए इन्हें निरस्त किया जाए। उच्च न्यायालय ने पांच दिसम्बर 2018 को इस मामले में अपना आदेश सुनाते हुए राज्य आंदोलनकारियों की पूर्व में की गयी नियुक्तियों को असंवैधानिक मानते हुए निरस्त करने के आदेश जारी कर दिये थे।

उच्च न्यायालय के आदेश पर अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी ने इसी तिथि यानी पांच दिसम्बर 2018 को हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव, सचिव, मंडलायुक्त, विभागाध्यक्षों व जिलाधिकारियों को राज्याधीन सेवाओं में राज्य आंदोलनकारियों के क्षैतिज आरक्षण के संबंध में पारित आदेश के क्रियान्वयन के लिए पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि राज्य आंदोलनकारियों के संबंध में जारी सभी परिपत्र और नियमों, अधिसूचनाओं के अनुसरण में सरकार द्वारा नियुक्तियां करने के सभी परिणामी आदेश निरस्त माने जाएंगे।

लिहाजा सभी विभागाध्यक्ष उच्च न्यायालय के आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करें। हालांकि उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध राज्य सरकार व ऊधमसिंह नगर की एक याचिकाकर्ता ने उच्चतम न्यायालय में एसएलपी यानी पुर्नविचार याचिका दाखिल की है, जिस पर करीब दो वर्ष में अभी तक कोई निर्णय नहीं हुआ है। इस बीच हाल ही में याचिकाकर्ता प्रशांत तड़ियाल ने फिर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और बताया कि सरकार ने न्यायालय के आदेश का पालन नहीं किया है, जिस पर सरकार को अपना जवाव दाखिल करना है।

इस मामले में अपर सचिव रिद्धिम अग्रवाल ने गत 23 जून को सभी विभागाध्यक्षों को पत्र लिख इस मामले में कार्यवाही करते हुए अद्यतन वस्तुस्थिति यथाशीघ्र गृह विभाग को उपलब्ध कराने के निर्देश जारी किये हैं। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य आंदोलनकारियों ने सीएम को याद दिलाईं अपनी लंबित मांगें

नवीन समाचार, नैनीताल, 02 अक्टूबर 2020। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों की संस्था चिन्हित राज्य आंदोलनकारी संयुक्त समिति ने रविवार को प्रदेश के मुख्यमंत्री को ज्ञापन भेजकर अपनी 11 लंबित मांगें याद दिलाईं। ज्ञापन में मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को शीघ्र सजा देने, अब तक चिन्हित नहीं हुए राज्य आंदोलनकारियों को चिन्हित करने, गैरसेंण को शीघ्र स्थायी राजधानी घोषित करने, चिन्हित राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद आरक्षण, 10 हजार रुपए मासिक पेंशन, राज्य सेनानी का दर्जा, पारिवारिक पेंशन, स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं उपलब्ध कराने, रोजगार, शिक्षा व अन्य सरकारी योजनाओं में आंदोलनकारियों को प्राथमिकता तथा पूर्व की भांति उत्तराखंड परिवहन की बसों में राज्य आंदोलनकारियों के सह यात्री को भी तथा राज्य के बाहरी क्षेत्र में भी राज्य की सीमा की तरह लाभ देने एवं उत्तराखंड से पलायन को रोकने के लिए रोजगार की व्यवस्था करने की मांगें की गई हैं। ज्ञापन में समिति के केंद्रीय उपाध्यक्ष रईस भाई, जिला अध्यक्ष सुंदर सिंह नेगी व जिला अध्यक्ष-महिला लीला बोरा के हस्ताक्षर हैं। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य आंदोलनकारियों का मामला 23 वर्ष के बाद सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के लिए स्वीकार..

-राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता रमन साह की याचिका में की गई है सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति के बिना मामले की फाइलें मुजफ्फरनगर स्थानांतरित किये जाने,
नवीन समाचार, नैनीताल, 23 सितंबर 2019। उत्तराखंड राज्य आंदोलन की फाइलें उत्तराखंड से मुजफ्फरनगर-यूपी को स्थानांतरित किये जाने का मामला उत्तराखंड उच्च न्यायालय की विशेष अनुमति से 23 वर्षों की समय सीमा के बाद सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया है। राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता रमन साह की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकार कर ली गयी है, और शीघ्र सुनवाई प्रारंभ होने की उम्मीद है। उल्लेखनीय है कि राज्य आंदोलनकारियों को राज्य सरकार की नौकरियों में 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण दिये जाने के बाद का मामला भी

श्री साह की निजी याचिका पर ही सर्वोच्च न्यायालय में है। याचिकाकर्ता श्री साह ने बताया कि गत दिनों राज्य आंदोलन की फाइलें आरोपितों के प्रभाव में उत्तराखंड से मुजफ्फरनगर-यूपी को स्थानांतरित कर दी गयी थीं। इसकी प्रमाणित प्रतियां मांगे जाने पर भी उपलब्ध नहीं कराई गईं। ऐसे में उच्च न्यायालय के माध्यम से सत्यापित प्रतियां मांगी गईं। इस पर जिला जज देहरादून की रिपोर्ट में बताया गया कि यह फाइलें सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर मुजफ्फरनगर स्थानांतरित कर दी गई हैं।

आंदोलनकारियों की ओर से आपत्ति की गई कि सर्वोच्च न्यायालय का कोई ऐसा आदेश नहीं है। इस पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने आंदोलनकारियों को 23 वर्ष की लंबी समयसीमा बीत जाने के बावजूद मामले में सर्वोच्च न्यायालय जाने की इजाजत दी गई। लिहाजा उच्च न्यायालय के इजाजत से मामले में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गयी है।

बताया कि याचिका में सीबीआई कोर्ट देहरादून के 22 अप्रैल 1996 के आदेश की प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराने, सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति के बिना उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों के मामले की फाइलें आरोपितों के प्रभाव में उत्तराखंड से मुजफ्फरनगर-यूपी को स्थानांतरित किये जाने के पूरे मामले की सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्ति न्यायाधीश के नेतृत्व में समिति गठित कर जांच कराने, सीबीआई के गवाह सुभाष गिरि की 1996 में दिल्ली-मुंबई रेलगाड़ी में गाजियाबाद रेलवे स्टेशन पर हुई हत्या की भी एसआईटी के माध्यम से जांच करवाने की मांग की गयी है। कहा है कि सीबीआई ने अपने गवाह की हत्या होने पर भी कोई कार्रवाई नहीं की, ना ही इस बारे में न्यायालय को अवगत कराया। मामले का मुकदमा जीआरपी गाजियाबाद में हत्या के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दर्ज है। उन्होंने राज्य आंदोलन के 25 वर्ष पूरे होने के मौके पर इन मामलों में आंदोलनकारियों के पक्ष में फैसला आने और दोषियों को सजा मिलने की उम्मीद जताई है।

उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड राज्य के बहुचर्चित व राज्य के इतिहास में बदनुमा दाग माने जाने वाले मुजफ्फरनगर कांड के मामले की मुजफ्फरनगर स्थानांतरित हुई फाइलों में मुजफ्फरनगर के तत्कालीन जिलाधिकारी अनन्त कुमार सहित कई अन्य आरोपी हैं। वहीं राज्य आंदोलनकारी इस कांड में पीड़ित के रूप में न्याय मांग रहे हैं। उनका कहना है कि वे अपने कानूनी-संवैधानिक अधिकारों के तहत धारा 3 के तहत अलग राज्य की मांग 19बी के अंतर्गत अहिंसक तरीके से कर रहे थे। आंदोलन के दौरान वे कभी भी अराजक नहीं हुए, उन्होंने सरकारी संपत्तियों को नुकसान भी नही पहुंचाया। इसलिए उच्च न्यायालय पूर्व में राज्य आंदोलनकारियों के लिए प्रयुक्त ‘राउडी’ यानी ‘अराजक तत्व’ शब्द को हटा चुकी है। राज्य आंदोलनकारी वास्तव में ‘पीड़ित’ हैं। उन्होंने राज्य के लिए 28 शहादतें और 7 माताओं-बहनों के साथ अमानवीय कृत्य झेले तथा 21 हजार लोग जेलों में बंद हुए। गुलाम भारत के जलियावाला बाग हत्याकांड में जिस तरह विदेशी शासकों ने किया, वैसा ही उनके साथ मुजफ्फरनगर में किया गया। लिहाजा उन्हें संविधान की धारा 16 (4) के तहत तथा इंदिरा सावनी मामले में संविधान पीठ के फैसले का उल्लंघन न करते हुए, यानी अधिकतम 50 फीसद आरक्षण के दायरे में ही जातिगत आरक्षण के इतर, संविधान के अनुच्छेद 47 के तहत बाढ़, भूस्खलन व दंगा प्रभावित आदि कमजोर वर्गों को मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर मिलने वाले आरक्षण की तर्ज पर सामान्य वर्ग के अंतर्गत ही क्षैतिज आधार पर सामाजिक आरक्षण दिया जाना चाहिए। इसी आधार पर उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेकर सुना और माना कि धारा 71 के तहत उत्तराखंडियों के मानवाधिकारों का हनन हुआ है, लिहाजा ‘मानवाधिकारों के हनन’ के लिए ‘क्षतिपूर्ति’ के रूप में 1996 में 10 लाख रुपए दिये, जो बाद में तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. नारायण दत्त तिवारी ने राज्य आंदोलनकारियों को दिये। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने जांच के बाद क्षतिपूर्ति दिये जाने के आदेश दिये था। राज्य आंदोलनकारियों ने कभी धारा 15 के तहत आरक्षण की मांग नहीं की थी। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : :: ब्रेकिंग ::मुजफ्फरनगर कांड की फाइलें गायब ! हाई कोर्ट ने किया जवाब तलब

नवीन समाचार, नैनीताल, 1 मई 2018। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य के बहुचर्चित व राज्य के इतिहास में बदनुमा दाग माने जाने वाले मुजफ्फरनगर कांड के मामले में दुबारा से सुनवाई करते हुए जिला जज देहरादून से दो सप्ताह में रिपोर्ट मांगी है। साथ ही सरकार व सीबीआई को नोटिस जारी किया है। मामले में मुजफ्फरनगर कांड की सभी फाइल गायब किये जाने का आरोप लगाया गया है। उल्लेखनीय है कि इन फाइलों में मुजफ्फरनगर के तत्कालीन जिलाधिकारी अनन्त कुमार सहित कई अन्य आरोपी थे।

मंगलवार को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में मुजफ्फरनगर कांड के मामले में दुबारा से सुनवाई न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की एकलपीठ में हुई, और अगली सुनवाई दो सप्ताह के बाद की नियत की गयी। मामले के अनुसार राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता रमन कुमार साह ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर कहा है कि राज्यआंदोलनकारियों को दस प्रतिशत आरक्षण देने वाली जनहित याचिका के निरस्त होने के कारण उन्होंने इस फैसले को सर्र्वाेच्च न्यायालय में चुनौती देने के लिए राज्य आंदोलनकारियों से सम्बन्धित दस्तावेजों को इकठ्ठा करने के लिए विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट देहरादून के कार्यालय से मुजफ्फर कांड से सम्बंधित दस्तावेज मांगे, परन्तु उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इस सम्बन्ध में कोई पत्रावली यहाँ उपलब्ध नही है। इसे लेकर उन्होंने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने इसकी जाँच सीबीआई से कराने और संबंधित पत्रावलियां उन्हें उपलब्ध कराने और फाइल गायब कराने वाले सभी लोगो के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने की प्राथर्ना की है।

सीबीआई ने खोला अनंत कुमार सिंह का काला चिट्ठा
याची ने अपनी याचिका में यह भी कहा है कि सन 1996 में उत्तराखंड को पृथक राज्य बनाने के लिए राज्य आंदोलन किया गया था। इस दौरान मुजफ्फरनगर में राज्य के लोगों के साथ पुलिस ने मारपीट, लूट, हत्या व बलात्कार किया। सीबीआई ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस कांड में 28 लोगो की मौत, 7 गैंग रेप 17 महिलाओ के साथ छेड़छाड़ हुई। सारी घटना मुजफ्फरनगर के तत्कालीन जिलाधिकारी अनंत कुमार के आदेश पर हुई। सीबीआई ने 22 अप्रैल 1996 को सिंह को आईपीसी की धारा 302, 307, 324, 326/34 के तहत दोषी पाया। जिसको सिंह ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने 22 जुलाई 2003 को निचली अदालत के आदेश को निरस्त कर याचिका को निस्तारित कर दिया। इस आदेश पर पुनर्विचार याचिका सरकार व राज्य आंदोलनकारियों द्वारा दायर की गयी, जिस पर सुनवाई करते हुए उसी खंडपीठ ने अपने आदेश की वापस लेकर मामले को सुनने के लिए अन्य बेंच को भेज दिया। खंडपीठ ने 22 मई 2004 को सिंह की याचिका को खारिज कर दिया। तब से यह मामला निचली अदालत में लम्बित है इधर 17 फरवरी 2018 को याची ने 22 अप्रैल 1996 के आदेश को लेने के लिए निचली अदालत में आवेदन किया तो ऑफिस ने इस केस का रिकार्ड नहीं होने की जानकारी दी गई। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण पर फिर बंधी उम्मीद मामला नई दलीलों के साथ फिर हाईकोर्ट पहुंचा, पुनर्विचार याचिका दाखिल

नैनीताल। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने का मामला नयी दलीलों के साथ फिर उत्तराखंड उच्च न्यायालय में पहुंच गया है। इस मामले में उच्च न्यायालय के अधिवक्ता रमन शाह ने उच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। मामले पर सुनवाई अगले सप्ताह होने की उम्मीद है।

अधिवक्ता रमन साह ने याचिका में राज्य आंदोलनकारियों को पीड़ित बताते हए राहत और पुनर्वास नीति का हकदार बताया गया है। साथ ही कहा है कि अब तक मुजफ्फरनगर कांड में महिलाओं से दुष्कर्म, छेड़छाड़ तथा हत्या के मामलों के आरोपियों को सजा नहीं मिली है। यहां बता दें कि राज्य आंदोलनकारियों को दस फीसद क्षैतिज आरक्षण के मामले में खंडपीठ के दो न्यायाधीशों द्वारा अलग-अलग राय दी गई। जिसके बाद मामला मुख्य न्यायाधीश द्वारा तीसरी बेंच को रेफर किया गया, जिसने आरक्षण को असंवैधानिक घोषित करने के पक्ष में राय दी, जिसके बाद आरक्षण का फैसला असंवैधानिक हो गया। वहीं इसके बाद प्रदेश के काबीना मंत्री डा. धन सिंह रावत ने उच्च न्यायालय की डबल बेंच में चुनौती देने की बात कही थी, हालांकि उच्च न्यायालय के अधिवक्ताओं का मानना है कि तीन न्यायाधीशों के द्वारा मामला सुन लिए जाने के बाद डबल बेंच में जाने की बात कहना बचकाना है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

पूर्व आलेख (7 मार्च 2018) : हाईकोर्ट ने असंवैधानिक ठहराया राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण

  • राज्य सरकार का संबंधित शासनादेश व नियमावली भी अवैधानिक हुई
  • उच्च न्यायालय की संस्तुति पर दायर हुई संबंधित जनहित याचिका खारिज

नैनीताल। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देने को संविधान सम्मत नहीं ठहराया है। उल्लेखनीय है कि इस मामले में पूर्व में खंडपीठ के दो न्यायाधीशों की राय परस्पर विपरीत आई थी। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण न देने सम्बंधित आदेश दिए थे, जबकि गत दिनों सेवानिवृत्त हो गये न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी ने राज्य आन्दोलन कारियों के पक्ष में निर्णय दिया था। खंडपीठ के न्यायाधीशों के परस्पर विरोधी मत होने के कारण मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति केएम जोसफ ने मामले को न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की तीसरी बेंच को सुनने के लिए सौंपा था। बुधवार को न्यायमूर्ति धूलिया की एकलपीठ ने मामले में अपना फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति धूलिया के आदेश को सही ठहराया, और राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद आरक्षण देने से सम्बंधित सरकार के शासनादेश को गलत व संविधान की धारा 16 (4) की भावना के खिलाफ माना, तथा उच्च न्यायालय की संस्तुति पर ही ‘इन द मेटर ऑफ अपोइन्टमेंट एक्टिविस्ट’ द्वारा दायर जनहित याचिका को खारिज कर दिया। इस प्रकार उत्तराखंड सरकार के इस संबंध में जारी 11 अगस्त 2004 के शासनादेश एवं वर्ष 2010 में आयी नियमावली भी असंवैधानिक घोषित हो गयी है।

उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी लंबे समय से प्रदेश की सरकारी नौकरियों में 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देने की मांग कर रहे हैं। सरकार ने पूर्व में राज्य आंदोलनकारियों की मांग को देखते हुए 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था कर दी थी। मामले के अनुसार पूर्व में राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण देने के संबंध में हल्द्वानी निवासी करुणेश जोशी की याचिका को न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की एकलपीठ ने खारिज कर दिया था, एकलपीठ के इस आदेश की खंडपीठ में चुनौती दी गयी। खंडपीठ ने याचिका को जनहित याचिका में तब्दील कर दिया। तब से अब तक यह मामला उच्च न्यायालय की कई बेंचों में चलता आ रहा था। यहां तक कि वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को दुबारा सुनने के लिए हाई कोर्ट को रेफर कर दिया था। पूर्व में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने अपने निर्णय में राज्य आंदोलन कारियों को 10 प्रतिशत आरक्षण न देने और न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी ने राज्य आंदोलन कारियों को आरक्षण देने का आदेश दिया था। इसके बाद मुख्य न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की तीसरी एकलपीठ को मामला सुनने को दिया। जिसने बुधवार को अपना फैसला सुना दिया है।

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राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का जिक्र ही नहीं था शुरुआती याचिका में

नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देने के मामले के बुधवार को उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है। ऐसे में इस संबंध में आये दोनों पक्षों को समझना भी एक दिलचस्प कहानी है। खास बात यह भी है कि यह मामला शुरू से राज्य आंदोलनकारियों को मिलने वाले आरक्षण से संबंधित कहा जा रहा है, जबकि खास बात यह है कि मामले में आरक्षण पर सुनवाई ही कई वर्षो के बाद हुई।

इस मामले की शुरुआत 11 अगस्त 2004 को आये तत्कालीन एनडी तिवारी की अगुवाई वाली सरकार के शासनादेश संख्या 1269 से हुई। जिसके आधार पर राज्य आन्दोलन के दौरान सात दिन से अधिक जेल में रहे राज्य आंदोलनकारियों को उनकी योग्यता के अनुसार समूह ‘ग’ व ‘घ’ में सीधी भर्ती से नियुक्तियां दी गयीं (इस पर सरकार पर अपने चुनिन्दा लोगों को उपकृत करने के आरोप भी लगे, क्योंकि इस कसौटी पर खरे कई राज्य आन्दोलनकारियों को नौकरी नहीं मिली, और खास बात यह भी थी कि इस शासनादेश में कहीं भी राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण का जिक्र नहीं था) अलबत्ता आगे इसके साथ ही एक अन्य शासनादेश संख्या 1270 भी जारी हुआ था जिसमें उत्तराखंड राज्य के अंतर्गत सभी सेवाओं में राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देने का प्राविधान किया गया था। बहरहाल, हल्द्वानी निवासी एक राज्य आंदोलनकारी करुणेश जोशी ने नौकरी की मांग करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। बताया गया है कि करुणेश के पास सरकार के बजाय निजी चिकित्सक का राज्य आंदोलन के दौरान घायल होने का प्रमाण पत्र था। इसी आधार पर उसे इस शासनादेश का लाभ नहीं मिला था। उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की एकल पीठ ने शासनादेश संख्या 1269 के बाबत राज्य सरकार की कोई नियमावली न होने की बात कहते हुए इस शासनादेश को असंवैधानिक करार देते हुए करुणेश की याचिका को खारिज कर दिया। इस पर राज्य सरकार ने वर्ष 2010 में सेवायोजन नियमावली बनाते हुए उसमें शासनादेश संख्या 1269 के प्राविधानों को यथावत रख लिया। इस पर करुणेश ने पुनः उच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर कर अब नियमावली होने का तर्क देते हुए उसे शासनादेश संख्या 1269 के तहत नियुक्ति देने की मांग की। इस बार न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की पीठ ने याचिका के साथ ही शासनादेश संख्या 1269 को भी खारिज कर दिया। साथ ही मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर इस मामले को जनहित याचिका के रूप में लेने एवं राज्य सरकार की नियमावली की वैधानिकता की जांच करने की संस्तुति की। इस बीच 26 अगस्त 2013 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बारिन घोष एवं न्यायमूर्ति एसके गुप्ता की खंडपीठ ने याचिका को स्वीकार करते हुए राज्य आंदोलनकारियों के लिए अंग्रेजी के ‘राउडी’ यानी ‘अराजक तत्व’ शब्द का प्रयोग किया गया। आगे एक अप्रैल 2014 को एक अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय ने राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण देने पर भी रोक लगा दी। राज्य आंदोलनकारी एवं अधिवक्ता रमन साह ने वर्ष 2015 में इस शब्द ‘राउडी’ पर आपत्ति जताते हुए और इस शब्द को हटाने और आरक्षण पर आये स्थगनादेश को निरस्त करने की मांग की। उनका कहना था कि राज्य आंदोलनकारी कभी भी अराजक नहीं हुए, उन्होंने सरकारी संपत्तियों को नुकसान भी नही पहुंचाया। साह का कहना था कि राज्य आंदोलनकारी ‘पीड़ित’ हैं। उन्होंने राज्य के लिए अनेक शहादतें और माताओं-बहनों के साथ अमानवीय कृत्य झेले हैं। लिहाजा उन्हें संविधान की धारा 16 (4) के तहत तथा इंदिरा सावनी मामले में संविधान पीठ के फैसले का उल्लंघन न करते हुए, यानी अधिकतम 50 फीसद आरक्षण के दायरे में ही जातिगत आरक्षण के इतर, संविधान के अनुच्छेद 47 के तहत बाढ़, भूस्खलन व दंगा प्रभावित आदि कमजोर वर्गों को मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर मिलने वाले आरक्षण की तर्ज पर सामान्य वर्ग के अंतर्गत ही क्षैतिज आधार पर सामाजिक आरक्षण दिया जाना चाहिए। इस बीच खंडपीठ में अलग-अलग न्यायाधीशगण आते रहे। आखिर न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया व न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की खंडपीठ ने ‘राउडी’ शब्द को हटा दिया, अलबत्ता आरक्षण पर स्थगनादेश और मामले पर सुनवाई जारी रही। इसके अलावा जनहित याचिका में भवाली निवासी अधिवक्ता महेश चन्द पंत का कहना था कि अगर सरकार आरक्षण देती है तो उत्तराखंड के राज्य आंदोलन में भाग लेने वाले सभी लोगों को आरक्षण दे, अन्यथा किसी को भी आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। उत्तराखंड को पृथक राज्य बनाने के लिए वर्ष 1952 से लड़ाई चल रही थी, इसमें सभी ने भाग लिया था केवल वे ही लोग नही थे जो जेल गए थे या जो शहीद हो गए थे। इधर उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने गत 18 मार्च 2017 को सुनवाई पूरी कर इस पर फैसला सुनाया था। फैसले में खंडपीठ के दोनों न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी ने शासनादेश संख्या 1269 की वैधता के संबंध में अलग-अलग फैसले देते हुए मामले को बड़ी पीठ को संदर्भित करने की संस्तुति की।

सर्वोच्च न्यायालय तक जाएंगे
नैनीताल। बुधवार को उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद राज्य आंदोलनकारियों की ओर से मामले में राज्य आंदोलनकारियों का पक्ष रख रहे वरिष्ठ अधिवक्ता रमन साह ने कहा कि मामले को उच्च न्यायालय की संविधान पीठ से सुने जाने का अनुरोध किया जाएगा, तथा सर्वोच्च न्यायालय जाने का विकल्प भी खुला है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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