फिर प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन पर आया कुमाऊँ का साफ-सफाई का संदेश देने वाला बड़ा लोक पर्व ‘खतडु़वा’, साथ ही आज ‘विश्वकर्मा पूजा’ भी….

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Khatduva Lok Parv
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-विज्ञान व आधुनिक बौद्धिकता की कसौटी पर भी खरा उतरता है यह लोक पर्व, साफ-सफाई, पशुओं व परिवेश को बरसात के जल जनित रोगों के संक्रमण से मुक्त करने का भी देता है संदेश

Khatduva Lok Parvडॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 17 सितंबर 2023। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों, खासकर कुमाऊं अंचल में चौमांस-चार्तुमास यानी बरसात के बाद सर्दियों की शुरुआत एवं पशुओं की स्वच्छता व स्वस्थता के प्रतीक के लिए हर वर्ष आश्विन माह की पहली तिथि यानी संक्रांति के अवसर पर मनाया जाने वाला लोक पर्व ‘खतडु़वा’ ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत तरीके से एवं शहरी क्षेत्रों में औपचारिकता की तरह से मनाया जाता है। 

अन्य परंपरागत लोक पर्वों की तरह इस त्योहार पर भी जो कुछ किया जाता है, वह भी विज्ञान व आधुनिक बौद्धिकता की कसौटी पर खरा उतरता है, और घरेलू पशुओं व परिवेश की साफ-सफाई तथा उन्हें बरसात के जल जनित रोगों के संक्रमण से मुक्त करने का संदेश भी देता है।

इस वर्ष भी खतड़ुवा व विश्वकर्मा पूजा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्म दिन 17 सितंबर को पड़े हैं, और तीनों ही अवसर साफ-सफाई के प्रतीक हैं। मोदी जहां ‘स्वच्छ भारत अभियान’ छेड़े हुए हैं, वहीं हर वर्ष आश्विन (असौज) माह की संक्रांति यानी प्रथम गते मनाये जाने वाले खतड़ुवा के दिन से चातुर्मास के बाद साफ-सफाई शुरू की जाती है।

जबकि आश्विन (असौज) माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी की तिथि को मनायी जाने वाली विश्वकर्मा पूजा या विश्वकर्मा जयंती के दिन मशीनों-उपकरणों की सफाई की जाती है। उल्लेखनीय है कि खतड़ुवा व विश्वकर्मा पूजा सामान्यता हिंदी महीनों के हिसाब से कभी 16 तो कभी 17 सितंबर को पड़ते हैं। वर्ष 2017, 18, 19 व 2021 में भी यह तीनों एक दिन पड़े थे, और अक्सर साथ पड़ते हैं।

आइये इस वर्षों पुरानी लोक परंपरा-लोक पर्व के आज से साफ-सफाई शुरू करने के संकल्प को आज ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्म दिन पर उनके साफ-सफाई के संदेश से जोड़ते हुए अपने घरों-परिवेश की सफाई के लिये निकलें, और देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा जी का भी स्मरण करें।

खतडु़वा लोक पर्व के अवसर पर ग्रामीण क्षेत्रों में लोग अपने पालतू दुधारू गौवंशीय पशुओं तथा उनके स्थानों की साफ-सफाई करते हैं, तथा झाड़-झंखाड़ आदि को खतडु़वा के रूप में जलाकर पशुओं की रक्षा व स्वस्थ रहने की प्रार्थना करते हैं। उन्हें भरपूर मात्रा में हरी घास खिलाने के साथ ही उनके रास्ते में भी हरी घास की कालीन सी बिछाने की भी परंपरा है। उनके शरीर पर तेल भी चुपड़ा जाता है। इस दौरान लोग गीत गाते हैं : “औन्सो ल्यूला, बेटुलो ल्युला,
गरगिलो ल्यूलो,
गाड़ गधेरान बे ल्यूलो
त्यार गुसे बची रो, तू बची रे।
एक गोरु बैटी गोठ भरी जो।
एक गुसैं बटी भितर भरी जो।”

इस दौरान गांवों में बच्चे ‘गाय की जीत-खतड़ुवे की हार, 

“भैलो खतड़वा भैलो।
गाई की जीत खतड़वा की हार।
खतड़वा नैहगो धारों धार।।
गाई बैठो स्यो। खतड़ु पड़ गो भ्यो।।” के नारे भी लगाते हैं। लाल रंग के चुवे अथवा भांग के एक डंडे के शिरे पर बिच्छू घास बांध कर उसे मशाल का स्वरूप दिया जाता है। उसे गोठ में बंधे पशुओं के ऊपर से घुमाकर उनकी नजर, बलाएं (आधुनिक अर्थों में उन पर हुआ किसी भी तरह का संक्रमण) उतारी जाती हैं,
एवं ककड़ियों (पहाड़ी खीरा) को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।

ककड़ियों के बीजों को माथे पर तिलक के रूप में भी लगाया जाता है। ककड़ियों का प्रसाद शायद इसलिए लिया जाता है, क्योंकि इस मौसम में पहाड़ों पर यही फल के रूप में सर्व सुलभ होता है।

परंपरागत तौर पर माना जाता है कि इस दिन से पहाड़ों पर एक खतड़ा यानी लिहाफ ओढ़ने लायक ठंड हो जाती है। जलते हुए खतड़ुवे को इस उम्मीद के साथ कूदकर फाँदा जाता है, कि इसके बाद सर्दियों में ठंड नहीं लगेगी। साथ ही बरसात के मौसम में प्रकृति में एवं खासकर घरेलू पशुओं के स्थान में बढ़ जाने वाले विषाणुओं को भगाने के लिए उनके स्थान (गोठ) तथा बाहर झाड़ियों को जलाकर भी साफ-सफाई की जाती है ताकि इससे उठने वाले धुंवे से नुकसानदेह कीट-पतंगे, विषाणुओं को मारने का प्रबंध स्वतः हो जाए। शहरों में अब झाड़ियों अथवा कागज से खतडु़वे का पुतला बनाकर उसे आग के हवाले किया जाता है।

और इस तरह इस लोक पर्व में भी मौसम बदलाव के दौरान मनाए जाने वाले होली, दीपावली तथा बैशाखी जैसे भारतीय त्योहारों की तरह आग जलाकर मौसमी बदलावों का संक्रमण दूर करने की समानता भी छुपी हुई है।

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ख़तडुवे के बारे में ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए धन्यवाद. अगली बार कृपया खतडूवे से सम्बंधित कुमाऊं गढवाल की भ्रांति का भी सत्योत्घाटन कीजिएगा. सभी को जानने की आवश्यकता है कि यह केवल मौसम के बदलने का त्यौहार है ना कि आपसी जय-पराजय का. 🙂

Sushil Kumar Joshi :

‘भैल्लो खतडु‌वा भैल्लो’ और सजाई हुई लकड़ियाँ फूलों से फिर पीटना जली हुई आग को, बचपन याद आ गया अब तो बस तस्वीरें नजर आती हैं वो चौराहे ना जाने कहाँ खो गये। याद दिलाने के लिये आभार।

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