डॉ.नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 1 मार्च 2024 (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand) । आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2023-24 में जहां उत्तराखंड की काफी उज्जवल तस्वीर सामने आयी है, वहीं इस रिपोर्ट में एक ऐसा चिंताजनक पक्ष भी सामने आया है, जिस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड में विकास दर राष्ट्रीय औसत से अधिक, प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हुई, बेरोजगारी-गरीबी घाटी, पर पहाड़-मैदान में बड़ा अंतर, जानें आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2023-24 की खास बातें
रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में बीते दस वर्षों में करीब 17 लाख लोग गांवों को छोड़कर शहरों में जा बसे हैं। इस पलायन के कारण शहरों पर आबादी का दबाव बढ़ रहा है, ओर शहरों में उपलब्ध सुविधाओं पर बढ़ी आबाद का भारी दबाव बढ़ गया है, वहीं गांव खाली हो रहे हैं।
प्रदेश के 1053 गांव खाली हो चुके हैं (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश के 17793 गांवों में से 1053 यानी करीब छह फीसद गांव खाली हो चुके हैं। इन्हें घोस्ट विपेज या ‘भुतहा गांव’ कहा जा रहा है। इनमें से अधिकांश पौड़ी और अल्मोड़ा में हैं। इसमें कुमाऊं व गढ़वाल यानी दोनों मंडलों के पांच-पांच हजार से अधिक गांव बताये गये हैं।
रिपोर्ट के अनुसार कुल मिलाकर करीब एक करोड़ की आबादी वाले इस राज्य की पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाली 60 लाख की आबादी में से 32 लाख लोगों का पलायन हो चुका है। प्रदेश के अधिकांश बड़े राजनेताओं ने भी अपने लिये मैदानी क्षेत्रों की सीटें तलाश ली हैं, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पूज्य भूमिया, ऐड़ी, गोलज्यू, छुरमल, ऐड़ी, अजिटियां, नारायण व कोटगाड़ी सहित कई देवताओं ने भी पहाड़ों से मैदानों में पलायन कर दिया है। इनके मंदिर तराई-भाबर के क्षेत्रों में भी बना लिये गये हैं।
बताया जाता है कि पलायन की गति 1980 के दशक से बढ़ी है। उस दौर में शहरों की ओर निकले लोग अब वृद्ध होने की स्थिति में स्वयं को पहाड़ की बजाय मैदानों में ही सुरक्षित मान रहे हैं, और वे हर साल पहाड़ आने से बचने के लिये अपने ग्राम व ईष्ट देवी-देवताओं को भी साथ मैदानों की ओर ले गये हैं।
सीमांत क्षेत्र भी हो रहे खाली (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
प्रदेश के खाली-भुतहा हुये गांवों में खासतौर पर नेपाल और तिब्बत सीमा से लगे गांवों से अधिक पलायन हुआ है, और हजारों एकड़ भूमि बंजर हो गई है। खासकर सीमांत क्षेत्रों उत्तरकाशी से लेकर चंपावत तक नेपाल-तिब्बत (चीन) से जुड़ी सीमा भी मानव विहीन होने की स्थिति में पहुंच गई है। कई सौ साल पहले मुगल और दूसरे राजाओं के उत्पीड़न से नेपाल सहित भारत के विभिन्न हिस्सों से लोगों ने कुमाऊं और गढ़वाल की शांत वादियों में बसेरा बनाया था। लेकिन आजादी के बाद सरकारें इन गांवों तक बुनियादी सुविधाएं देने में नाकाम रही हैं। इस कारण यह स्थितियां उत्पन्न हुई हैं।
नाबार्ड के 2018 के स्टेट फोकस पेपर में भी सामने आया कड़वा सच (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
नाबार्ड के 24 जनवरी 2018 को जारी फोकस पेपर में भी राज्य की स्थिति को लेकर काफी भयावह तथ्य सामने आये। इस रिपोर्ट में उत्तराखंड के 968 गांव पूरी तरह खाली होकर भुतहा गांव यानी घोस्ट विलेज बन गये हैं, वहीं राज्य गठन के बाद के इन वर्षो में एक लाख हेक्टेयर कृषि भूमि भी बंजर हो गयी है। रिपोर्ट में कहा गया था कि पर्वतीय क्षेत्र की छोटी जोतों को समय रहते नहीं बचाया गया तो सरकारी प्रयास धरे के धरे रह जाएंगे। समाधान के तौर पर नाबार्ड ने आने वाले वित्त वर्ष के लिए उत्तराखंड के किसानों को 20301.87 करोड़ ऋण देने की सिफारिश की गयी थी।
सड़कें पलायन हो जाने के बाद बनीं, बचे-खुचों को भी शहर ले जा रहीं (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
उत्तराखंड में केंद्र के साथ अब राज्य सरकार भी हर गांव तक सड़क पहुंचाने के मिशन पर है, और अधिकांश गांवों में सड़क पहुंच भी चुकी है, लेकिन यह सच्चाई है कि सड़कें देर से बनी हैं। तब बनी हैं, जब तक अधिकांश लोग समस्याओं के आगे थक-हार कर पलायन कर चुके हैं। और जो लोगों गांवों में बचे हैं, वे भी नौकरी, सड़कें, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी समस्याओं को बरकरार देखकर इन सड़कों का इस्तेमाल कर गांव छोड़ गए। इस प्रकार गांवों तक पहुंची सड़कें भी लोगों को गांव वापस लौटाने की जगह उन्हें बाहर ले जाने का माध्यम बन रही हैं।
जहां सबसे पहले सड़क आयी, वहीं सबसे अधिक पलायन (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड के पौड़ी व अल्मोड़ा जिलों में जनसंख्या 2001 के मुकाबले घटी है, और इन जिलों के नैनीडांडा और सल्ट ब्लॉकों से सर्वाधिक पलायन हुआ है। यह संयोग है अथवा कुछ और कि इन्हीं दो ब्लॉकों में प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों के लिहाज से सबसे पहले सड़क आयीं। यानी सड़कें विकास को गांवों में लाने का माध्यम बनने की जगह ग्रामीणों को पलायन कर शहर ले जाने का माध्यम भी अधिक बनी हैं।
60 फीसद से अधिक ग्रामीणों ने छोड़ी खेती (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
कभी 60 फीसद से अधिक ग्रामीण रोजगार देने वाली पहाड़ की खेती जंगली जानवरों के प्रकोप, घर के पुरुषों के पलायन से हल जोतने वाले हाथों के अभाव जैसे कारणों से बंजर हो चुकी है, फलस्वरूप खाली हो चुके गांवों में लेंटाना (कुरी) घास की झाड़ियां और बंजर हो चुके उपजाऊ खेत ही देखने को मिलते हैं। सशस्त्र सुरक्षा बल के आंकड़ों के अनुसार अब लोग खेती के लिए नेपाली मजदूरों को भूमि सौंपने लगे है। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
128 नेपाली परिवार दोहरी नागरिकता लेकर पहाड़ी किसान बन चुके हैं। वहीं कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2001 में 7,69,944 हेक्टेयर कृषि भूमि में से खेती घटकर 2014-15 तक मात्र 7,01,030 हेक्टेयर में सिमट गयी है। ग्रामीण अब कृषि की जगह मनरेगा से रोजगार प्राप्त करते हुए मजदूर बन गये हैं। सरकार की खाद्य सुरक्षा योजना के अनुसार एक से तीन रुपये की कीमत पर राशन मिल जाने से भी उनमें मेहनत करने की भावना खत्म हो रही है। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
वहीं पलायन कर दूर देश में रह रहे प्रवासी उत्तराखंडियों की भूमिका दूर बैठकर ‘नराई’ लगाने या दूर से ही ‘उपदेश’ देने तक ही सीमित हो गयी है। किसी में वहां के ‘सुख’ छोड़कर पहाड़ आने, अपनी मेहनत से दूसरों के बजाय अपना घर सजाने-संवारने का साहस नहीं है। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
पहाड़ के पलायन पर एक कविता (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
मैंने देखा है अपने आँगन में
तेरे दादा और परदादा को भी,
तुतलाते, अलमस्त बचपन बिताते,
तख्ती पे घोटा घिसते, कलम बनाते…
मुस्कराते, गुनगुनाते और खिलखिलाते,
फिर जब ‘अ से अनार’ सीखते थे तेरे बूबू..
मैं तब भी थी, मैं आज भी हूँ,
मैं बाखली हूँ….
खेले हैं मैंने होली के रंग, तेरे पुरखों के संग ,
ना जाने कितनी दिवालियों में सजी हूँ,
सुनी है मैंने वो “काले-कव्वा काले” की पुकार
जब घूघूते की माला ले के दौड़ते थे तेरे बौज्यू…
मैं तब भी थी, मैं आज भी हूँ,
मैं बाखली हूँ…
गवाह हूँ मैं कितनी डोलियों की याद नहीं,
कितनी बेटियों की विदाई में बहे आंसू मेरे
कितनी बहुओं की द्वारपूजा की साक्षी हूँ..
जब चाँद सी सजके आई थी तेरी ईजा…
मैं तब भी थी ,मैं आज भी हूँ,
मैं बाखली हूँ…
फिर तेरे नामकरण की वो दावत
कितनी लम्बी पंगतों को जिमाया मैंने…
तेरा बचपन, तेरी शिक्षा,तेरा संघर्ष,
कितना फूला था मेरा सीना ,जब आया तू
पहली बार मेरे आँगन में ‘ठुल स्यैप’ बनके
मैं तब भी थी, मैं आज भी हूं..
मैं बाखली हूँ…
पर शायद मेरा आँगन छोटा हो गया ,
तेरे सपनो के लम्बे सफर के लिए..
तुझे पूरा हक है, जीने का नई जिंदगी।
शायद समय की दौड़ में, मैं ही पिछड़ गई हूँ…
याद है वो भी जब आखिरी बार कांपते हाथों से
सांकल चड़ाई थी तूने….
मैं तब भी थी, मैं आज भी हूँ,
मैं बाखली हूँ…
पर अब शायद और ना झेल पाऊं वक्त की मार,
अकेलेपन ने हिला दिया है मेरी बुनियादों को..
अब तो दरवाजों पे लगे तालों पे भी जंक आ गया
पर मेरा रिश्ता तुझसे आज भी वही है।
लेके खड़ी मीठी यादें, ढेरों आशीर्वाद…
मैं तब भी थी, मैं आज भी हूँ,
मैं बाखली हूँ…
पलायन की दुखती रग (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
पहाड़ दूर से बहुत सुंदर लगते हैं। करीब जाइए तो उनकी हकीकत समझ में आती है। अपनी आंखों के सैलानीपन से बाहर आकर आप देखेंगे तो पाएंगे कि पहाड़ की जिंदगी कितने तरह के इम्तिहान लेती है। यह बदकिस्मती नहीं, विकास की बदनीयती है कि इन दिनों पहाड़ के संकट और बढ़ गए हैं। पहाड़ आज की तारीख में बेदखली, विस्थापन और सन्नाटे का नाम है। घरों पर ताले पड़े हुए हैं, दिलों में उदासी है, थके हुए पांव राहत नाम के किसी बुलावे की उम्मीद में पहाड़ों से उतरते हैं। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
आज पलायन उत्तराखंड के लिए एक गम्भीर प्रश्न बन गया है। हमें पलायन को रोकने के लिए कारणों का निवारण करना होगा। उच्च शिक्षा की बात करें तो देहरादून के अलावा उंगलियों में गिनने लायक ही अच्छे शिक्षा संस्थान हैं। कृषि योग्य भूमि का कम होना और साथ में परम्परागत अनाज को उसका उचित स्थान न मिलना भी पलायन का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। उत्तराखंड के उन किसानों पर किसी का ध्यान नहीं जाता जो कभी जौ, बाजरा, कोदा, झंगोरा उगाते थे। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
और उस खेती का सही लागत मूल्य न मिलने के कारण उन्होंने इसे उगाना ही छोड़ दिया। सरकार चाहे तो यहां के परम्परागत अनाज का सही लागत मूल्य जारी कर पलायन रोकने के लिए एक अच्छा कदम उठा सकती है। वर्ष 2011 की जनगणना में कहा गया था कि 2001 में पहाड़ी इलाकों में 53 प्रतिशत लोग थे। लेकिन 2011 में इन पहाड़ी इलाकों मात्र 48 प्रतिशत ही लोग रह गए। एनएसएसओ का 70वां सव्रे बताता है कि उत्तराखंड में कृषि उपज की कीमत राष्ट्रीय औसत से 3.4 गुना कम है। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
उत्तराखंड में औसत कृषि उपज कीमत 10,752 रुपये प्रति परिवार थी। जबकि कृषि उपज कीमत का राष्ट्रीय औसत 36,696 रुपये। अगर पड़ोसी राज्य हिमाचल की बात की जाए तो खेतिहर परिवार की आय हिमाचल से लगभग आधी है। उत्तराखंड में एक खेतिहर परिवार की औसत मासिक आय 4,701 रुपये थी। जबकि हिमाचल में खेतिहर परिवार की औसत मासिक आय 8,777 रुपये थी। कृषि प्रधान देश होने के नाते कई सीखें विरासत में हमें मिलीं, पर हम उनका सही से प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
हमारे खेत छोटे हैं, बिखरे पड़े हैं और जहां गांवों में पलायन हो चुका है वहां खेत बंजर और खाली पड़े हैं। पाली हाउस तकनीक से ज्यादा-से-ज्यादा सब्जियां उगाने पर ध्यान दिया जा सकता है। हिमाचल हमारे लिए एक उदाहरण है कि कैसे वहां कृषि को फलों की तरफ मोड़कर समृद्धि हासिल की गई। 2001 से 2011 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों की 5.1 प्रतिशत आबादी घटी है। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
पहले कुल जनसंख्या का ज्यादातर अनुपात गांवों में रहता था, लेकिन पलायन की वजह से गांव के गांव खाली हो गए हैं। ग्रामीण आबादी शहरी क्षेत्र की तरफ सिमट रही है। स्वास्य की समस्या से पहाड़ जूझ रहा है। डॉक्टर तो हैं नहीं साथ ही पैरामेडिकल और फाम्रेसी स्टाफ की भी बेहद कमी है। 108 एंबुलेंस हमारे लिए जीवनदायनी जरूर साबित हुई पर पीपीपी मॉडल का यह खेल बहुत से सवाल भी छोड़ता है। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
तीर्थ स्थल गौरवान्वित महसूस कराते हैं, मगर यह पूरा सिस्टम इतना अव्यवस्थित है कि इससे अच्छा रोजगार नहीं जुटाया जा सका है। युवा पीढ़ी शिक्षा और रोजगार के लिए दूसरे शहरों में जाती है और वहीं की होकर रह जाती है। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड के 17793 गांवों में से 1053 गांव पूरी तरह से वीरान हो चुके हैं। अन्य 405 गांवों में लगभग 10 से कम लोग निवास कर रहे हैं। 2013 में आई भीषण प्राकृतिक आपदा के बाद से गांवों से पलायन का ग्राफ बढ़ गया है। (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
सरकार की योजना जुलाई अंत तक पर्वतीय क्षेत्रों में डक्टरों की तैनाती सुनिचित करने के लिए उत्तराखंड में 2700 डक्टर लाने की है। इसके लिए तमिलनाडु, उड़ीसा व महाराष्ट्र आदि राज्यों से डॉक्टर लेने की तैयारी चल रही है। इसके साथ ही पर्यटन के लिए 13 नये क्षेत्र खोले जा रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि बहुत ही कम युवा आज की तारीख में गांवों की तरफ रुख कर रहे हैं? (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand)
राज्य सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जिसके तहत यहां का युवा पहाड़ के विकास के लिए काम करे। आज उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में कठिन जिंदगी से मुक्ति की जिंदगी को पलायन का नाम दिया जाता है। यदि इसी प्रकार पलायन बढ़ता गया तो गांवों में इंसान नहीं जानवर देखने को मिलेंगे। पलायन को लेकर जो भी परिभाषाएं गढ़ी जाती हों, लेकिन हकीकत में इसी कठिन जीवन से मुक्ति का नाम है पलायन। ♦♦♦ आशीष रावत (Report on Migration & Ghost Villages Uttarakhand, Migration in Uttarakhand, Ghost Villages of Uttarakhand, Palayan,
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