स्मृति शेष Smriti Shesh : राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त पूर्व प्रधानाध्यापिका हंसा बिष्ट का देहांत, इस अवसर पर पढ़ें उनकी कहानी-मर्यादा
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार July 14, 2023 0
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नवीन समाचार, नैनीताल, 14 जुलाई 2023। (Smriti Shesh) राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त पूर्व प्रधानाध्यापिका हंसा बिष्ट का बुधवार रात्रि 72 वर्ष की आयु में देहांत हो गया है। रात्रि दो बजकर 20 मिनट पर उन्होंने मैक्स अस्पताल वैशाली गाजियाबाद में अंतिम सांस ली। यहां से उनकी पार्थिव देह को उनके खुर्पाताल स्थित आवास लाया जा गया और यहां पहुंचते ही थोड़ी देर में उनकी अंतिम यात्रा रानीबाग के लिए रवाना हो गई।
उल्लेखनीय है कि आजीवन अविवाहित रहीं सुश्री बिष्ट को जूनियर हाईस्कूल में प्रधानाध्यापिका रहते 2007 में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुआ था। दिव्यांग होते हुए भी वह पंडित गोविंद बल्लभ पंत जयंती समारोह सहित विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों-गतिविधियों में सक्रिय रहती थीं। कवि-लेखक के रूप में भी उनकी पहचान रही। दिवंगत हंसा बिष्ट के भाई प्रसिद्ध उद्घोषक हेमंत बिष्ट भी राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं। सांसद अजय भट्ट, सांसद प्रतिनिधि गोपाल रावत सहित कई सामाजिक, राजनीतिक हस्तियों ने उनके निधन पर दुःख जताया है।
स्वर्गीय हंसा बिष्ट की कहानी-मर्यादा
हम अक्सर आमा (दादी) से यही सुनते-‘‘आपण खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूसा हर चीज में मर्यादाक् पालन करण चौंछ। मर्यादा में रै बेरन करि हर काम सही हुंछ।’’ (अपना खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा हर चीज में मर्यादा का पालन करना चाहिए। मर्यादा में रहते हुए किया गया हर कार्य सही होता है।) वास्तव में पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर बच्चे ऐसे कपड़े पहन रहे हैं जो आधा शरीर भी नहीं ढकते।
ऐसा भोजन पसन्द करते हैं जो हमारे परिवेश में किसी प्रकार भी सही नहीं बैठता। ऐसा रहन-सहन पसन्द करते हैं जो भारतीय नहीं कहा जा सकता। आमा लोगों की बातें सुनकर बच्चे परेशान होकर सोचते कि आखिर हम आजकल के बच्चे ऐसा क्या कर रहे हैं जिससे मर्यादा भंग हो रही है।
एक दिन हमने ईजा (माँ) से पूछा, ‘‘ईजा मर्यादा पालन कसिक करि जाँछू।’’ (माँ मर्यादा का पालन कैसे किया जाता है।) हमारे हर प्रश्न का उत्तर देने के लिए ईजा के पास एक कहानी होती थी। उसी के माध्यम से वह हमें अपनी बात बड़ी आसानी से समझाती।
पुराने समय की बात है। राजा का दरबार लगा था। जहाँ फरियादियों को न्याय मिल रहा था। जनता की सुख-सुविधा की व्यवस्था के लिए चर्चा हो रही थी। याचकों (माँगने वालों) को धन व वस्त्र दिए जा रहे थे। कोई खाली हाथ नहीं जा रहा था। तभी माधव नाम का एक साधारण व्यक्ति दरबार में उपस्थित होकर बोला-महाराज मुझे आपकी सहायता के रूप में थोड़े धन की आवश्यकता है।
राजा ने कहा, ‘‘यदि तुम याचकों की पंक्ति में सम्मिलित होते तो तुम्हें भी उनके साथ-साथ धन मिल जाता और यदि याचक बनकर धन नहीं लेना चाहते हो तो सभा के सम्मुख किसी भी प्रकार की कला का प्रदर्शन करो। तुम्हें धन दिया जाएगा। राजा की बात सुनकर राघव वहाँ से चला गया।’’ दूसरे दिन लोगों ने देखा कि जंगल के पास वाले टीले में कोई साधु महाराज शान्त मुद्रा में ध्यान मग्न बैठे हैं।
धीरे-धीरे वहाँ लोगों की भीड़ लगने लगी। दर्शनार्थी महात्मा जी के आगे फल-मेवा, मिष्ठान्न आदि समर्पित करते, लेकिन उन्हें इन वस्तुओं से क्या लेना-देना। वे तो ईश्वर में ध्यान लगाए थे। आते-जाते लोगों द्वारा राजा के महल तक भी साधु बाबा की ख्याति पहुँच गयी। राजा अपने मंत्री के साथ सेवकों को लेकर दर्शन हेतु चल पड़े। राजा के सेवकों ने महात्मा जी के चरणों में सोने-चाँदी व धन से भरा थाल रखा, लेकिन उन्होंने उस थाल को देखना तो दूर अपनी आँखें भी नहीं खोली। राजा, मंत्री व सेवक थाल लेकर वापस लौट आए।
दूसरे दिन माधव पुनः दरबार में पहुँच कर कुछ धन की माँग करने लगा। राजा ने माधव को पहचान लिया और बोला-कल जब तुम साधु वेश में थे तुम्हें इतनी धन सम्पदा समर्पित की लेकिन तुमने उसे स्वीकार नहीं किया। आज फिर थोड़े से धन के लिए सहायता क्यों माँग रहे हो। माधव ने कहा-महाराज मैंने साधुवेश में धन स्वीकार इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं साधुवेश में ठगी नहीं करना चाहता था। मैंने साधुवेश की मर्यादा का पालन किया।
आज में अपनी कला का मूल्य लेने आया हूँ। मैंने साधुवेश धारण कर कला का ऐसा प्रदर्शन किया कि एक राजा होकर आप भी दर्शन हेतु उपस्थित हो गए। ईजा द्वारा सुनाई गयी कहानी से हम समझ गए कि व्यक्ति की सही वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन उसे मर्यादित रखते हैं उसी के अुनरूप उसका व्यक्तित्व भी होता है।
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-उत्तराखंड के गठन के लिए किया था कौशिक समिति का गठन, नैनीताल में किया था अपनी पार्टी का पहला सम्मेलन
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 10 अक्तूबर 2022। समाजवादी नेता और उत्तराखंड के संयुक्त उत्तर प्रदेश में रहते मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव का सोमवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। उनके निधन पर जहां देश भर में शोक व्यक्त किया जा रहा है, वहीं उत्तराखंड इस मौके पर खामोश नजर आ रहा है। यहां के राजनेताओं की भी किसी तरह की प्रतिक्रियाएं नहीं आ रही हैं।
मुलायम सिंह के उत्तराखंड से जुड़े संदर्भों की बात करें तो दो बातें प्रमुख रूप से उभर कर आती हैं। पहला, उनके मुख्यमंत्री रहते ही उत्तराखंड ने ऐसा बुरा दौर देखा, जैसा शायद अंग्रेजी दौर में भी नहीं देखा, या शायद कुख्यात गोरखा राज में देखा हो। उस दौर में राज्य के हल्द्वानी सहित खासकर मैदानी शहरों में समाजवादी नेता ने जैसा तांडव मचाया, उसकी बुरी छवियां अब भी लोगों के मनमानस से धूमिल नहीं हुई हैं।
यही दौर था जब पहले से अपनी कठिन भौगोलिक परिस्थितियों व दुर्गमता से परेशान पहाड़ के लोग मंडल कमीशन के आने व अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसद आरक्षण लागू होने के साथ, यदि इसे सकारात्मक तौर पर देखें तो अपने भविष्य के प्रति चिंतित हुए और मन में दशकों से दबी अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के प्रति सुदूर गांव-गांव व गली-गली तक मुखर व आंदोलित हुए। मुलायम ने राज्य के दूरस्थ पवर्तीय क्षेत्रों तक पुलिस के साथ ही विद्यालयों में शिक्षकों के रूप में अपनी यादव जाति के लोगों को भेजकर इस आक्रोश को और बढ़ाने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
उत्तराखंड आंदोलन देश का सबसे बड़ा गांधीवादी आंदोलन बना, और जब उत्तराखंडियों ने अपनी ताकत दिखाने के लिए दो अक्टूबर 1994 को दिल्ली कूच किया तो मुलायम ने गोरखा राज से भी बड़ा दमन चक्र चलाया, जिसमें न जाने कितने उत्तराखंडी आंदोलनकारी शहीद हुए और माताओं-बहनों को अमानवीय पाशविक यातनाएं झेलनी पड़ीं। फलस्वरूप अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की जयंती का दिन हमेशा के लिए उत्तराखंड के लिए ‘काला दिन’ बन गया। इस दौरान मुलायम का वह बयान भी चर्चा में रहा, जिसमें उन्होंने उत्तराखंड वासियों के लिए कहा था, ‘मैं उनकी परवाह क्यों करूं, कौन सा उन्होंने मुझे वोट दिया था…’
लेकिन मुलायम सिंह यादव का उत्तराखंड के प्रति एक दूसरा चेहरा तब सामने आया, जब उन्होंने उत्तर प्रदेश के उत्तरी हिस्से को अलग करके उसकी एक अलग राज्य के रूप में स्थापना के लिए 4 जनवरी, 1994 को अपने नगर-विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में एक छह सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति में डॉ. रघुनंदन सिंह टोलिया भी एक सदस्य थे।
‘कौशिक समिति’ के नाम से जानी गयी इस समिति की पहली बैठक 12 जनवरी 1994 को लखनऊ में आयोजित की गई जिसमें तय किया गया कि प्रस्तावित उत्तराखंड राज्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए समिति सभी क्षेत्रीय विधायकों, विधान परिषद् सदस्यों, लोक सभा सदस्यों, उत्तराखंड में स्थित तीनों विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, शोध संस्थानों के विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, मान्यता प्राप्त राजनैतिक दलों के जिला अध्यक्षों, महिला संगठनों, अनुसूचित जाति-जनजाति संगठनों, प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, कृषि वैज्ञानिकों तथा आम जनता से प्रस्तावित राज्य के सम्बन्ध में सुझाव आमंत्रित करने के लिए अल्मोड़ा (कुमाऊँ) और पौड़ी (गढ़वाल) में दो-दो दिन के सेमीनार आयोजित कराएगी।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानों के मुख्य रूप से अंग्रेजी और कुछ पारिभाषिक हिंदी में दिये गए व्याख्यानों के बाद 30 अप्रेल 1994 को जमा की गई अपनी रिपोर्ट में कौशिक समिति ने अनेक अन्य सिफारिशों के अलावा कहा, ‘‘सभी प्रतिभागियों का मानना था कि पृथक् राज्य की माँग उत्तराखंड क्षेत्र की जटिल भौगोलिक स्थिति तथा भिन्न पारिस्थितिकी को देखते हुए पर्यावरणसम्मत विकास के दृष्टिकोण से की जा रही है।
इसी तर्कसम्मत आधार पर देश की राजनैतिक परिस्थितियों में यह पहला अवसर है जब एक राज्य अपनी ही सीमाओं के अंतर्गत एक और राज्य के गठन की माँग कर रहा है। इसमें क्षेत्रवाद और पृथकतावाद जैसी कोई भी बात नहीं है। क्षेत्र के विकास के लिए अलग उप-योजना बनाए जाने से भी समस्या का समाधान नहीं हो पाया है, क्षेत्रीय विषमताओं की स्थिति बनी हुई है। विपुल प्राकृतिक संपदाओं के बीच भी उत्तराखंड के लोग गरीब हैं, इसलिए अब उन्हें अपने संसाधनों का उचित उपयोग कर क्षेत्रीय विकास में भागीदारी का अवसर दिया जाना चाहिए।’’
मई 1994 में कौशिक समिति ने उत्तराखंड पृथक राज्य पर अपनी राय प्रस्तुत की व उत्तराखण्ड राज्य में 8 जनपदों व 3 मंडलो की स्थापना की सिफारिश की थी। 21 जून 1994 को मुलायम यादव सरकार ने कौशिक समिति की सिफारिश स्वीकार की थी। कौशिक समिति की रिपोर्ट के बाद भी हालांकि अनेक छोटे-बड़े आंदोलन होते रहे और इसी क्रम में 9 नवम्बर 2000 को देहरादून में राजधानी स्थापित करने के बाद ‘उत्तरांचल’ के रूप में जिस नए राज्य की नींव पड़ी, माना जाता है कि इसकी परिकल्पना का पूरा सपना 68 पृष्ठों में छपी कौशिक समिति की इसी रिपोर्ट में है।
मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी की बुनियाद रखने के बाद पार्टी का पहला सम्मेलन उत्तराखंड के नैनीताल में रखा था। अपने पुत्रों के लिए बहुएं उन्होंने उत्तराखंड से चुनीं। लेकिन इस सब के बावजूद भी राज्य बनने के दो दशक के बाद भी सपा की साइकिल उत्तराखंड के पहाड़ों पर नहीं चढ़ पाई। यूपी की बसपा को तो यहां कुछ सीटें मिलती रही हैं, लेकिन सपा को जीत सिर्फ एक सीट पर एक बार ही नसीब हो पाई। वह जीत भी विधानसभा चुनाव में ना होकर लोकसभा में मिली थी।
इसके पीछे मुलायम सिंह यादव के उत्तराखंड आंदोलन के दौरान किए गए जो कृत्य थे, जो उत्तराखंड आंदोलन के दौर में देखने को मिले थे। आज उनकी मृत्यु पर उनके उन कृत्यों को सकारात्मक तौर पर देखें तो उनकी वजह से ही उत्तराखंड के लोग अलग राज्य लेने के संकल्प को मजबूत कर पाए और निर्णायक संघर्ष की राह पर आगे बढ़े थे और उन्होंने राज्य प्राप्ति की अपनी मंजिल को प्राप्त किया था। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
यह भी पढ़ें : (Smriti Shesh) राजू श्रीवास्तव : अपना जन्मदिन मनाने आए थे नैनीताल, जताई थीं यहीं रहने की इच्छा

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 21 सितंबर 2022। घरेलू व साफ-सुथरी पर उपहास की जगह परिहास करते हुए गहरी चोट करने कॉमेडी के बादशाह, गजोधर भैया के नाम से प्रसिद्ध कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव का बुधवार सुबह देहावसान हो गया। उनके निधन का समाचार सुन नैनीताल में भी उनके चाहने वालों में दुःख का माहौल है।
नगर के पत्रकार भी राजू श्रीवास्तव से करीब डेढ़ वर्ष पूर्व हुई मुलाकात को याद कर रहे हैं, जब वह 25 दिसंबर को अपना जन्मदिन मनाने नैनीताल जनपद के जिम कॉर्बेट पार्क आए थे और यहां से 29 दिसंबर 2020 को पत्नी व अन्य परिवार जनों के साथ नैनीताल आए थे। यहां नितांत निजी-व्यक्तिगत व पारिवारिक दौरे पर पहुंचे राजू सर्दी के दिनों में मफलर व टोपी पहने हुए थे, फिर भी स्थानीय लोगों ने उन्हें पहचान लिया था। राजू ने पत्रकारों से चलते-चलते बात भी की थी और बताया था कि वह पहले भी नैनीताल आ चुके हैं। उन्हें नैनीताल बहुत पसंद है। उनकी इच्छा है कि वह यहीं रहें। इस दौरान उन्होंने पत्रकारों से वार्ता करते हुए रामनगर में बर्फ पड़ने की बात कहते हुए उन्हें भी हंसाने की कोशिश की थी।
विदित हो कि पिछले माह 10 अगस्त को जिम में व्यायाम करते हुए राजू श्रीवास्तव को हृदयाघात हुआ था। तभी से उनका उपचार चल रहा था। 41 दिनों तक चले जीवन-मृत्यु के संघर्ष के बीच बुधवार को चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
यह भी पढ़ें : (Smriti Shesh) नैनीताल-पहाड़ों से 64 वर्ष पुराना रिश्ता था लता दीदी का, एक उत्तराखंडी गीत भी गाया था….
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 6 फरवरी 2022। स्वर कोकिला लता मंगेशकर का रविवार को 92 वर्ष की आयु में देहावसान हो गया। पहाड़ी पगडंडियों जैसी बलखाती मखमली आवाज की मल्लिका लता की सुमधुर आवाज पहाडी गीतों पर कुछ अधिक ही फबती थी।
नैनीताल में सबसे पहले 1958 में फिल्माई गई पहली फिल्म ‘मधुमती’ के सुप्रसिद्ध गीत ‘चढ़ गयो पापी बिछुवा’ व ‘आ जा रे परदेशी’ सहित कई गीतों को लता की आवाज पहाड़ी धुनों पर चार चंाद लगा देती थी। इस तरह देखें तो नैनीताल व पहाड़ों से लता मंगेशकर का 64 वर्ष पुराना रिश्ता था, और यहां के लोग तब से उनकी सुरमई आवाज के दीवाने थे। राम तेरी गंगा मैली के सुप्रसिद्ध गीत ‘हुस्न पहाड़ों का’ से भी लता ने अपनी सुरमई आवाज से पहाड़ों की खूबसूरती को जीवंत कर दिया था।
नगर के वयोवृद्ध रंगकर्मी सुरेश गुरुरानी ने बताया कि लता मंगेशकर का गाया गीत ‘ना कोई उमंग हैं, ना कोई तरंग है मेरी जिंदगी है क्या, एक कटी हुई पतंग है’ नैनीताल के बोट हाउस क्लब में आशा पारेख पर फिल्माया गया था। इसके अलावा भी कम ही लोग जानते होंगे कि लता मंगेशकर ने उत्तराखंड की लोकभाषा गढ़वाली में भी एक गीत गाया था। इस गीत के बोल थे, ‘मन भरमैगै’। सुनें लता मंगेशकर का एकमात्र उत्तराखंडी गीत:
यह गीत मूल रूप से गढ़वाली फिल्म रैबार फिल्म के लिए तैयार किया गया था। जिसके निर्माता किशन पटेल व निर्देशक सोनू पंवार थे। बाद में इस गीत को दुबारा नए कलाकारों व नई टीम के साथ रीशूट किया गया। देवी प्रसाद सेमवाल द्वारा लिखे गए इस गीत को बीना रावत व शिवेंद्र रावत पर फिल्माया गया है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
यह भी पढ़ें : (Smriti Shesh) आज 95 वर्ष के होते उत्तराखंड के लाल सुंदर लाल बहुगुणा…..
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला @ नवीन समाचार, देहरादून, 9 जनवरी 2022। पद्म विभूषण सुंदर लाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी 1927 को टिहरी गढ़वाल के मरोड़ा गांव में हुआ था. 13 साल की उम्र में उनके राजनीतिक करियर शुरुआत हुई. दरअसल, राजनीति में आने के लिए उनके दोस्त श्रीदेव सुमन ने उनको प्रेरित किया था. सुमन गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांतों के पक्के अनुयायी थे. सुंदरलाल ने उनसे सीखा कि कैसे अहिंसा के मार्ग से समस्याओं का समाधान करना है.
18 साल की उम्र में वह पढ़ने के लिए लाहौर गए. 23 साल की उम्र में उनका विवाह विमला देवी के साथ हुआ.1956 में उनकी शादी होने के बाद राजनीतिक जीवन से उन्होंने संन्यास ले लिया. उसके बाद उन्होंने गांव में रहने का फैसला किया और पहाड़ियों में एक आश्रम खोला. उन्होंने टिहरी के आसपास के इलाके में शराब के खिलाफ मोर्चा खोला. पर्यावरण सुरक्षा के लिए 1970 में शुरू हुआ आंदोलन पूरे भारत में फैलने लगा. चिपको आंदोलन उसी का एक हिस्सा था. गढ़वाल हिमालय में पेड़ों के काटने को लेकर शांतिपूर्ण आंदोलन बढ़ रहे थे.
26 मार्च, 1974 को चमोली जिला की ग्रामीण महिलाएं उस समय पेड़ से चिपककर खड़ी हो गईं, जब ठेकेदार के आदमी पेड़ काटने के लिए आए. यह विरोध प्रदर्शन तुरंत पूरे देश में फैल गए. 1980 की शुरुआत में बहुगुणा ने हिमालय की 5000 किलोमीटर की यात्रा की. उन्होंने यात्रा के दौरान गांवों का दौरा किया और लोगों के बीच पर्यावरण सुरक्षा का संदेश फैलाया. उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भेंट की और इंदिरा गांधी से 15 सालों तक के लिए पेड़ों के काटने पर रोक लगाने का आग्रह किया. इसके बाद पेड़ों के काटने पर 15 साल के लिए रोक लगा दी गई.
1960 के दशक में उन्होंने अपना ध्यान वन और पेड़ की सुरक्षा पर केंद्रित किया. बहुगुणा ने टिहरी बांध के खिलाफ आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाई थी. उन्होंने कई बार भूख हड़ताल की. तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के शासनकाल के दौरान उन्होंने डेढ़ महीने तक भूख हड़ताल की थी. सालों तक शांतिपूर्ण प्रदर्शन के बाद 2004 में बांध पर फिर से काम शुरू किया गया. उनका कहना है कि इससे सिर्फ धनी किसानों को फायदा होगा और टिहरी के जंगल में बर्बाद हो जाएंगे. उन्होंने कहा कि भले ही बांध भूकंप का सामना कर लेगा, लेकिन यह पहाड़ियां नहीं कर पाएंगे. उन्होंने कहा कि पहले से ही पहाड़ियों में दरारें पड़ गई हैं. अगर बांध टूटा तो 12 घंटे के अंदर बुलंदशहर तक का इलाका उसमें डूब जाएगा.
संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 को ‘अक्षय विकास के लिए बुनियादी विज्ञान का अंतरराष्ट्रीय वर्ष’ (इंटरनेशनल ईयर ऑफ बेसिस साइंसेज फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट) घोषित किया है। अक्षय विकास का मूल मंत्र है पारिस्थितिक विकास। जब इसकी बात चलती है, तो पृथ्वी के भविष्य को संवारने की प्रेरणा देते हुए सुंदरलाल बहुगुणा का पारिस्थितिक योग कर्मी व्यक्तित्व हमारे मस्तिष्क पटल पर उभर आता है। यदि जीवन को ऑक्सीजन की नैसर्गिक आपूर्ति करने वाले वनों के इस प्रहरी ने कोरोना की विषैली लहर में ऑक्सीजन की कमी से अपने जीवन की आहुति न दी होती, तो आज वह अपने जीवन के 95 वसंत पूर्ण कर लेते।
सुंदरलाल बहुगुणा एक ऐसे दार्शनिक हुए, जिन्होंने वनों को ही एक नया आधार दिया है। उनके दर्शन शास्त्र ने पारिस्थितिक पिरामिड के शिखर पर बैठे मानव को उसके अस्तित्व के आधार के दर्शन कराए हैं।पृथ्वी पर जीवन को उसके मूल से जोड़नेवाले बहुगुणा जी ने एक ऐसा दर्शन शास्त्र रचा है, जो स्वयं में कालजयी सिद्ध होगा। उस दर्शन शास्त्र के बिना मानव की जीवन-शून्यता अवश्यंभावी है। इसे प्रकृति के विकास क्रम का लक्ष्य कहें या लाखों अन्य जीव-जंतुओं से चहकती-महकती प्रकृति का अबलापन कि आज संपूर्ण प्रकृति पर मानव का आधिपत्य है। मानव अस्तित्व प्रकृति से है, यह एक सनातन सत्य है। लेकिन इस सत्य पर भारी है एक अर्धसत्य, कि संपूर्ण प्रकृति पर मानव का नियंत्रण है।
सुंदरलाल जी का नाम सदैव चिपको आंदोलन से जोड़ा जाता है। यह सत्य है कि अगर चिपको आंदोलन को उनका नेतृत्व न मिलता, तो मांग पूरी होने के साथ आंदोलन मर गया होता। लेकिन चिपको आंदोलन अमर है। बहुगुणा जी ने चिपको आंदोलन को एक दर्शन में रूपांतरित कर दिया। और यह दर्शन संसार में घर कर गया। इस दर्शन के मूल में वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से सूर्यदेव पृथ्वी पर उतर आते हैं अपनी प्रकाश ऊर्जा को जीव ऊर्जा में रूपांतरित करने के लिए, पृथ्वी पर जीवन प्रवाह स्थापित करने के लिए। यही प्रकाश संश्लेषण है।चिपको आंदोलन से विश्व भर के संवेदनशील लोग जुड़ गए, वैज्ञानिकों से लेकर प्रकृति प्रेमियों, योजनाकारों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं तक ने चिपको आंदोलन को समर्थन दिया और सरकार ने वन कटान पर प्रतिबंध भी लगा दया।
इसके पीछे बहुगुणा जी की ओजस्विता और पर्यावरण दार्शनिकता ही थी, जो जनमानस के मन में अंकुरित होने लगी थी। बहुगुणा जी की सादगी का प्रमाण यह कि उन्होंने कभी चिपको आंदोलन के नेतृत्व का श्रेय नहीं लिया। उन्होंने विनम्रतापूर्वक खुद को चिपको आंदोलन का एक संदेशवाहक बताते हुए कहा कि इस आंदोलन का नेतृत्व तो पहाड़ की महिलाएं कर रही हैं।बहुगुणा जी के दर्शन से जीवन के यश का झरना फूटता है उनके इस कथन से ‘जीवन की जय, मृत्यु का क्षय।’ जीवन की जय में उनका केंद्रबिंदु मानव ही नहीं, बल्कि जैव मंडल के सभी जीव-जंतु हैं। मानव जाति का अस्तित्व अन्य सभी जीवों के अस्तित्व पर टिका है। बहुगुणा जी की सोच मानव-केंद्रित नहीं, प्रकृति-केंद्रित है। यही सोच 1987 की ब्रंटलैंड रिपोर्ट ‘हमारा साझा भविष्य’ में समाहित हुई है, जहां से टिकाऊ विकास जैसी अवधारणा आर्थिक विकास की धुरी बनी।
बहुगुणा जी ने हिमालय में बड़े बांध के विरोध में आंदोलन छेड़ा था और उन्हें पर्यावरण, पारिस्थितिकी, समाज और संस्कृति के लिए एक बड़ा खतरा बताया था। भागीरथी पर जब एशिया के सबसे ऊंचे बांध का निर्माण आरंभ हुआ, तो उन्होंने 84 दिन लंबे अपने उपवास और वैज्ञानिक तर्कों के जरिये टिहरी बांध के खतरों के प्रति आगाह किया। उन्होंने नदियों के अविरल बहने की महत्ता भी समझाई। उनके विचारों की छाप दुनिया भर में पड़ी और टिहरी बांध निर्माण पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध भी लगा, पर योजनाकारों, ठेकेदारों, इंजीनियरों और राजनेताओं के गठजोड़ से भागीरथी पर 260.5 मीटर ऊंचा बांध बनकर खड़ा हो गया और बांध के पीछे समुद्र-सी एक झील भी अस्तित्व में आ गई। और उसी के साथ शुरू हुई बहुआयामी संकटों की एक अटूट शृंखला। बहुगुणा जी की दूरदृष्टि देखिए कि विकसित देशों ने बड़े बांधों को बहुआयामी संकटों का कारण मानते हुए तिरस्कृत कर दिया है।
अगर हमारी सरकारें बहुगुणा जी की दार्शनिकता को अपनातीं, तो पर्यावरण और पारिस्थितिकीय संकट पराकाष्ठा पर न पहुंच जाते। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान देने वाले बहुगुणा जी पर्यावरण विनाश और प्रदूषण से भी देश को स्वतंत्र कराने के लिए आंदोलन करते रहे। पारिस्थितिक दर्शन शास्त्र सुंदरलाल बहुगुणा की एक अनमोल सार्वभौमिक विरासत है, जिसमें सभी संकटों का हल छिपा है। उस संकट का भी, जिसके हल के लिए 2021 में ग्लासगो में विभिन्न राष्ट्राध्यक्ष और वैज्ञानिक दो सप्ताह तक मंथन करते रहे। देश के पर्यावरण को संरक्षित करने में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले विश्व विख्यात पर्यावरणविद्, पद्म विभूषण सुंदरलाल बहुगुणा की आज 95वीं जयंती है. उत्तराखंड के विभूषण सुंदरलाल बहुगुणा की जयंती पर उन्हें याद करते उन्हें नमन किया है.
सुंदर लाल बहुगुणा ने अपने जीवनकाल में सदियों पुरानी प्रकृति के साथ रहने की रीति को जिंदा रखा. उनकी सादगी और दया भाव भुलाए नहीं जा सकते हैं. टिहरी से करीब 1,800 किलोमीटर दूर स्थित गढ़चिरौली में उनकी उपस्थिति ने इस आंदोलन में जोश भर दिया था। चिपको आंदोलन को लेकर जब उनसे एक साक्षात्कार में पूछा गया था कि पेड़ों को बचाने के लिए आपके मन में यह नवोन्मेषी विचार कैसे आया, तो उन्होंने जो कुछ कहा उसमें उनके जीवन का सार नजर आता है। उन्होंने काव्यात्मक जवाब देते हुए कहा, क्या है जंगल का उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार हैं जीने के आधार। इसका अर्थ है कि वनों ने हमें शुद्ध मिट्टी, पानी और हवा दी है, जो कि जीवन के लिए आवश्यक हैं। उन्होंने बताया था कि चिपको आंदोलन मूलतः पहाड़ की महिलाओं का शुरू किया आंदोलन था। ये महिलाएं नारा लगाती थीं, लाठी गोली खाएंगे, अपने पेड़ बचाएंगे।
1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की. उन्होंने इसे यह कहकर लेेने से इंकार कर दिया कि जब तक पेड़ कटते रहेंगे मैं यह सम्मान नहीं ले सकता. हालांकि उनके काम को देखते हुये उन्हें प्रतिष्ठित जमनालाल पुरस्कार, शेर-ए-कश्मीर, राइट लाइवलीवुड पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, आईआईटी से मानद डाक्टरेट, पहल सम्मान, गांधी सेवा सम्मान, सांसदों के फोरम ने सत्यपाल मित्तल अवार्ड और भारत सरकार ने पदविभूषण से सम्मानित किया. इन पुरस्कारों के तो वे हकदार थे ही, लेकिन सबसे संतोष की बात यह है कि हमारी पीढ़ी के लोगों ने उनके सान्निध्य में हिमालय और पर्यावरण की हिफाजत की जिम्मेदारियों को उठाने वाले एक समाज को बनते-खड़े होते देखा है. यही कारण है कि उन्हें पर्यावरण का ‘गांधी’ भी कहा जाता है.
सुंदरलाल बहुगुणा जी अवॉर्ड और सम्मानों से कहीं ऊपर थे उत्तराखंड सरकार ने पर्यावरणविद स्वर्गीय सुंदर लाल बहुगुणा की स्मृति में प्रकृति एवं पर्यावरण पुरस्कार के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी गई है दिल्ली के मुख्यमंत्री ने सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न जाने-माने पर्यावरणविद् सुंदर लाल बहुगुणा को मरणोपरांत मांग की है. गौरतलब है कि, स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा ले चुके स्व. सुंदरलाल बहुगुणा का कद अपने जीवनकाल में ही पर्यावरण क्षेत्र में किये गए कामों की बदौलत एक खासे ऊंचे मकाम पर पहुंच चुका था। जीवनपर्यंत गांधीवादी विचारधारा को प्रफुल्लित करते रहे बहुगुणा जैसे विराट व्यक्तित्व में भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक दिलचस्पी न होना स्वभाविक बात थी। वैसे भी शुरुआती दिनों में स्व. बहुगुणा काँग्रेस से जुड़े रहे थे। हालांकि बाद में वह काँग्रेस से विरक्त होकर स्वतन्त्र रूप से पर्यावरण के क्षेत्र में कार्यरत रहे।
मृत्यु से ढाई महीने बाद भी उनकी मिलने वाली पेंशन पत्नी को स्थानांतरित नहीं हो पाई है। इस शर्मनाक वाकये का खुलासा स्वर्गीय बहुगुणा के बेटे राजीवनयन बहुगुणा ने अपनी एफबी वॉल पर किया था। उत्तराखंड के जाने माने पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा की स्मृति में उत्तराखंड में सुंदर लाल बहुगुणा प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। राज्यपाल ने इसके लिए स्वीकृति प्रदान कर दी है। इसके अंतर्गत प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में किये गये महत्वपूर्ण योगदान, उसके प्रभाव, पर्यावरण की सुरक्षा एवं उसके समग्र सुधार के सम्बन्ध में किये गये उत्कृष्ट, सराहनीय कार्यों के लिए वर्ष 2023 से प्रति वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस 05 जून के अवसर पर विभिन्न श्रेणियों में पुरस्कार प्रदान किये जायेंगे। (लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
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-प्रताप भैया की 11वीं पुण्यतिथि पर आयोजित हुआ विद्यालय में एवं ऑनलाइन कार्यक्रम

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 23 अगस्त 2021। भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल व आचार्य नरेंद्र देव शिक्षा निधि के संस्थापक एवं पूर्ववर्ती संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे समाजवादी विचारक प्रताप भैया की 11वीं पुण्यतिथि पर कई कार्यक्रम हुए। भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में प्रधानाचार्य विशन सिंह मेहता ने उनकी मूर्ति के सम्मुख दीप प्रज्वलित कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किये।

उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर विद्यालय के साथ ऑनलाइन कार्यक्रम भी आयोजित हुआ, जिसमें उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का संदेश भी सुनाया गया। जिसमें श्री कोश्यारी ने कहा कि प्रताप भैय्या महान समाजवादी विचारक व जनता के नेता रहे। उन्होंने हमेशा अपने जीवन में डॉ.लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव के विचारों और सिद्धांतों को आत्मसात कर शिक्षा व समाज सेवा के माध्यम से मानव उत्थान का कार्य किया। पूर्व न्यायमूर्ति व मानव अधिकार आयोग के भारत सरकार के सदस्य पीसी पंत ने कहा कि भैयाजी एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे उन्होंने निस्वार्थ भावना से कार्य कर समाज उत्थान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विद्यालय के पूर्व छात्र संगठन द्वारा भैया जी को स्मरण कर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई। संगठन के अध्यक्ष डा. मनोज बिष्ट ने कहा कि भैया जी ने शिक्षा क्षेत्र के विकास हेतु अनेकों उल्लेखनीय कार्य किये, साथ ही वे अपने सामाजिक कार्यों के बल पर बेहद गरीब तबके के भी भैया जी रहे। संगठन ने सभी सदस्यों ने भैया जी के दिखाये गये मार्ग पर चलने का संकल्प लिया तथा विद्यालय को सभी प्रकार से सहयोग देकर उसके प्रत्येक क्षेत्र में विकास एवं उन्नति तथा भैया जी कल्पना के अनुरूप विद्यालय को प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान के रूप में विकसित करने में पूर्ण सहयोग देने का भरोसा दिया। श्रद्धांजलि देने वालों में संगठन के उपाध्यक्ष मनोज अधिकारी, सचिव डा. महेंद्र राणा, उपसचिव डा. लक्ष्मण सिंह रौतेला, कोषाध्यक्ष कुंदन बिष्ट, कार्यकारिणी सदस्य वीरेंद्र साह, अश्वनी साह, मनीष जोशी, दीपक पांडे, राजेंद्र अधिकारी सहित विद्यालय के अन्य पूर्व छात्र शामिल रहे।
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डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार
‘नवीन समाचार’ विश्व प्रसिद्ध पर्यटन नगरी नैनीताल से ‘मन कही’ के रूप में जनवरी 2010 से इंटरननेट-वेब मीडिया पर सक्रिय, उत्तराखंड का सबसे पुराना ऑनलाइन पत्रकारिता में सक्रिय समूह है। यह उत्तराखंड शासन से मान्यता प्राप्त, अलेक्सा रैंकिंग के अनुसार उत्तराखंड के समाचार पोर्टलों में अग्रणी, गूगल सर्च पर उत्तराखंड के सर्वश्रेष्ठ, भरोसेमंद समाचार पोर्टल के रूप में अग्रणी, समाचारों को नवीन दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने वाला ऑनलाइन समाचार पोर्टल भी है।