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December 24, 2024

राजुला-मालूशाही और उत्तराखंड की रक्तहीन क्रांति की धरती, कुमाऊं की काशी-बागेश्वर

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पौराणिक काल से ऋषि-मुनियों की स्वयं देवाधिदेव महादेव को हिमालय पुत्री पार्वती के साथ धरती पर उतरने के लिए मजबूर करने वाले तप की स्थली बागेश्वर कूर्मांचल-कुमाऊं मंडल का एक प्रमुख धार्मिक एवं पर्यटन स्थल है। नीलेश्वर और भीलेश्वर नाम के दो पर्वतों की उपत्यका में सरयू, गोमती व विलुप्त मानी जाने वाली सरस्वती नदी की त्रिवेणी पर बसा यह स्थान शायद इसी कारण तीर्थराज और कुमाऊं की काशी के रूप में विख्यात है। कुमाऊं की प्रसिद्ध लोक गाथा-राजुला मालूशाही, कुमाऊं के प्रसिद्ध लोक त्योहार-घुघुतिया और कुमाऊं से गोरखा-अंग्रेजी राज की बेहद दमनकारी प्रथा-कुली बेगार को समाप्त करने को हुई उत्तराखंड की रक्तहीन क्रांति की भी यह भूमि रही है, जिसकी परंपरा आज भी यहां स्थित बागनाथ मंदिर व सरयू बगड़ में प्रति वर्ष होने वाले विश्व प्रसिद्ध उत्तरायणी मेले के रूप में जारी है।कुमाऊं के प्रथम कत्यूर राजवंश की शुरुआत यहीं से हुई मानी जाती है, जिनकी राजधानी कार्तिकेयपुर यहीं पास में बैजनाथ नाम के स्थान पर थी।

प्राचीन काल से ही एक धार्मिक स्थान के साथ ही इस स्थान की दानपुर, दारमा, व्यास व चौंदास क्षेत्रवासियों की बड़ी व्यापारिक मंडी और पिंडारी, कफनी व सुंदरढूंगा ग्लेशियरों के प्रवेश द्वार के रूप में इस स्थान की पहचान है। भीलेश्वर में मां चंडिका तथा नीलेश्वर में नीलेश्वर महादेव, मां उल्का, वेणीमाधव व लक्ष्मी नारायण सहित अनेक देवी देवताओं के प्राचीन मंदिर स्थित हैं। मौजूदा व्यवस्था में बागेश्वर 1955 तक ग्राम सभा के अंतर्गत था। 1955 में इसे टाउन एरिया, 1962 में नोटिफाइड एरिया व 1968 में नगरपालिका के रूप में पहचान मिली। 1997 से इसे अल्मोड़ा जिले से अलग होकर अपने नाम से बने जनपद के मुख्यालय का दर्जा हासिल है। बागेश्वर हिमालय पर सबसे करीब माने जाने वाले पिंडारी, सुंदरढूंगा व कफनी ग्लेशियरों का प्रवेश द्वार भी है। यहां से कुछ दूरी पर ताकुला बागेश्वर मार्ग पर झिरोली नाम के स्थान पर मैग्नेशियम के अयस्क की एवं कांडा-बनलेख क्षेत्र में खड़िया की खानें है।

पौराणिक महत्वः

स्कन्द पुराण के मानस खंड के अनुसार बागेश्वर को आठवीं सदी के आस-पास तथा यहां स्थित बागनाथ मंदिर को तेरहवीं शताब्दी का तथा आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार वर्ष 1602 में महाराजा लक्ष्मीचन्द द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार किए जाने का वृतांत मिलता है। यहां बहने वाली सदानीरा सरयू नदी के धरती पर उतरने की कहानी भी गंगा नदी के उद्गम की कहानी से भी अधिक रोचक है। पौराणिक मान्यता के अनुसार भागीरथ द्वारा गंगा को धरती पर अवतरित करने के दौर में ही ब्रह्मर्षि वशिष्ठ भी देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को हिमालय के सरमूल नाम के स्थान से धरती पर लेकर आ रहे थे तो यहीं ब्रह्मकपाली नाम के स्थान पर मार्कंडेय ऋषि के तपस्या में लीन होने के कारण सरयू नदी यहां से आगे नहीं बढ़ पाईं, और यहां पर काफी जल भराव होने से जल प्रलय की स्थिति बन गयी। ऐसे में ब्रह्मर्षि ने महादेव से मदद मांगी। इस पर महादेव को स्वयं बाघ तथा माता पार्वती को गाय का रूप धारण कर मार्कंडेय ऋषि की तपस्या को भंग करने के लिए धरती पर आना पड़ा। बाघ से बचने की कोशिश में कातर स्वर में रम्भा रही गाय को बचाने के लिए मार्कंडेय ऋषि अपनी तपस्या से विरत हुए, और भेद खुलने पर उन्होंने ही महादेव को बाघ यानी ब्याघ्र के रूप में यहीं ब्याघ्रेश्वर में रहने का वचन ले लिया, जिसका अपभ्रंश अब बागेश्वर कहलाता है। यहां बहने वाली पवित्र सरयू नदी को विष्णु की मानस पुत्री और दूसरी धारा गोमती को ऋषि अम्बरीष के आश्रम में पालित नन्दनी गाय के सींगों के प्रहार से उत्पन्न हुई बताया जाता है, जिनका यहां भौतिक संगम होता है, जबकि लुप्त मानी जाने वाली आस्था की प्रतीक सरस्वती का भी मानस मिलन माना जाता है। बागेश्वर से आगे पिथौरागढ़ के घाट तक यह नदी सरयू, उससे आगे टनकपुर तक रामगंगा, टनकपुर से आगे शारदा तथा अयोध्या में इसे पुनः सरयू नाम से जाना जाता है, जिससे इसके धार्मिक महत्व को समझा जा सकता है।

ऐतिहासिक महत्वः

कुमाऊं में कत्यूरी शासनकाल के दौर में बागेश्वर का जिक्र कुमाऊं की प्रसिद्ध प्रेम लोकगाथा-राजुला मालूशाही में आता है। कथा के अनुसार यहां राजुला और मालूशाही दोनों का जन्म उनके माता-पिता द्वारा बागेश्वर में बागनाथ की तपस्या के फलस्वरूप ही हुआ था। उस दौर में यह स्थान क्षेत्र की विशाल मंडी के रूप में विख्यात था। मालूशाही कत्यूरी राजा दुलाशाही का पुत्र बताया जाता है।

उत्तरायणी मेलाः

वहीं कुमाऊं के प्रसिद्ध लोक पर्व घुघुतिया-उत्तरैंणी (उत्तरायणी) की शुरुआत बागेश्वर से ही मानी जाती है। चंद शासनकाल के दौर से यहां हर वर्ष सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण में जाने के दिन यानी मकर संक्रांति को यहां एक से डेढ़ माह तक विश्व प्रसिद्ध उत्तरायणी का मेला (माघ मेला) लगता है। घुघुतिया-उत्तरैंणी पर कुमाऊं में घर-घर में ‘घुघुते’ कहे जाने वाले स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें बनाने का विधान भी बागेश्वर और सरयू नदी से जुड़ा हुआ है। पूरे कुमाऊं को सरयू नदी के आर-पार के हिस्सों में बंटा माना जाता है। पूरे कुमाऊं में सरयू नदी के एक ओर पहले दिन और दूसरी ओर दूसरे दिन घुघुते बनाए जाते हैं।
पुराने दौर में यहां उत्तरायणी मेले में माघ की सर्द रातों में रात-रात भर हुड़के की थाप पर खासकर दानपुर व नाकुरी पट्टी के साथ ही काली कुमाऊं, रीठागाड़, व कत्यूर क्षेत्रों के हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष ग्रामीण युवक-युवतियां झोड़े, चांचरी, बैर-भगनौल, छपेली जैसे लोक नृत्यों नाचते-झूमते रहते थे। नुमाइश खेत में दारमा घाटी के लोग अपने गीत गाते थे, आज के दौर के सरयू बगड़ को उस दौर में ‘दारमा पड़ाव’ व वर्तमान स्वास्थ्य केंद्र ‘भोटिया पड़ाव’ कहा जाता था। धार्मिक और आर्थिक रुप से समृद्ध यह मेला स्थानीयों के साथ ही भारत, तिब्बत और नेपाल की व्यापारिक गतिविधियों का भी प्रमुख केंद्र था। यहां तिब्बती व्यापारी ऊन का बना सामान, चँवर, नमक व जानवरों की खालें, भोटिया व जौहारी गलीचे, दन, चुटके, ऊनी कंबल व जड़ी बूटियाँ तथा नेपाल के शिलाजीत, कस्तूरी तथा शेर व बाघ की खालें, दानपुर की बांश-रिंगाल की चटाइयां, नाकुरी के डाले-सूपे, खरही के तांबे के बर्तन, काली कुमाऊं के लोहे की भदेले (कढ़ाइयां), गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था। गुड़ की भेली व तंबाकू से लेकर मिश्री और चूड़ी-चरेऊ से लेकर टिकुली बिंदी तथा दानपुर के संतरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों के साथ ही खेती के औजारों की भी खरीद फरोख्त होती थी। बताया जाता है कि कुछ दशक पूर्व तक पंजाब के करनाल, ब्यावर, लुधियाना और अमृतसर के व्यापारी यहां ऊन का कच्चा सामान खरीदने आते थे ।

स्वतंत्रता आंदोलन में योगदानः

आगे अंग्रेजों के साथ स्वतंत्रता संग्राम के दौर में भी बागेश्वर का महत्वपूर्ण स्थान रहा। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में सरयू बगड़ में खद्दर का कुर्ता-पायजामा व सफेद टोपी पहने और हाथों में तिरंगा राष्ट्र ध्वज थामे लोगों के झुंड के झुंड उमड़ पड़ते थे, और गांव-गांव तक स्वतंत्रता की भावना का प्रसार करते थे। यहीं से कुमाऊं में सदियों से चली आ रही ‘कुली बेगार’ की कुप्रथा के खिलाफ निर्णायक आंदोलन हुआ। अंग्रेजी दौर में ‘मैनुअल आफ गवर्नमेंट आडर्स’ के तहत प्रजा को शासकों, अंग्रेजों और उनके सामानों को अपने कंधों पर गुलामों की तरह ढोना पड़ता था। वर्ष 1920 में महात्मा गांधी द्वारा किए गए ‘असहयोग आंदोलन’ के आह्वान पर कुमाऊं के लोगों ने भी ‘कुली बेगार’ न देने का ऐलान किया था, और आगे 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के दिन ही कुमाऊं के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी-कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे, हरगोविंद पंत, बैरिस्टर मुकुंदी लाल व विक्टर मोहन जोशी आदि की अगुवाई में हजारों लोगों ने हाथों में सरयू नदी का जल लेकर आगे से ‘कुली बेगार’ न देने की शपथ ली तथा संबंधित दस्तावेजों को सरयू नदी के जल में हमेशा के लिए प्रवाहित कर दिया था। आज भी बागेश्वर में उत्तरायणी पर आंदोलन की वह प्रथा बागेश्वर मंदिर व ‘सरयू बगड़’ (बगड़ मतलब नदी का चौड़ा पाट या मैदान) में राजनीतिक दलों की हलचल का केंद्र के रूप में जारी है, जहां राजनीतिक दल आज से हर वर्ष उत्तरायणी त्योहार का उपयोग अपनी आवाज बुलंद करने के लिए करते हैं।

Kashil Dev | कपकोट और काशिल देव।

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Kapkot | कपकोट में काशिल देव मंदिर का विहंगम दृश्य।

काशिल देव राजा रत कपकोटी के पूज्य माने जाते हैं। पूर्वजों के अनुसार  राजा रत कपकोटी मुगलों के अत्याचार से क्षुब्ध होकर नेपाल चले गए थे। कुछ समय तक वहां रहने के बाद वे कपकोट आ गए और अपने साथ अपने कुल देवता काशिल देव को भी लाये। उस समय कुमाऊँ में भी गोरखाओं का अत्याचार था, अतः राजा रत कपकोटी, कपकोट घाटी के एक ऊंची चोटी पर बस गए और वहां अपना राजकाज चलाने लगे।

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काशिल देव मंदिर – कपकोट
राजा रत कपकोटी के द्वारा भगवान काशिल देव को अपने साथ लाये जाने पर नेपालवासियों का मानना था कि अब उनके क्षेत्र में अप्रिय घटनाएं होने लगी हैं और वे काशिल देव को लाने कपकोट आ गए और राजा रत कपकोटी को सारी बातें बताई , परन्तु राजा ने उन्हें काशिल देव के शक्तिरूपी पत्थर की मूर्ति को नेपाल ले जाने की अनुमति नहीं दी। इस पर नेपालवासियों ने उस मूर्ति को रात में चोरी करके ले जाने की सोची और वे एक रात उस मूर्ति को उठाकर ले जाने लगे। ज्यूँ-ज्यूँ वे उस पत्थर की शिला को आगे ले जाते रहे उतना ही उसका भार बढ़ने लगा। कपकोट के छेती नामक स्थान पर उन्होंने विश्राम किया।  विश्राम के पश्चात जैसे ही वे जाने को तैयार हुए वे इस शिला को उठा नहीं सके। अब उन्होंने सोचा की खाली हाथ जाने से अच्छा है वे शिला का छोटा सा टुकड़ा तोड़कर नेपाल ले जाएँ। उन्होंने हाथ वाला हिस्सा क्षतिग्रस्त किया और अपने साथ ले गए।  तभी राजा के सपने में काशिल देव आये और उन्होंने यह घटना बताई।  राजा से सुबह देखा तो मूर्ति सच में वहां नहीं थी। स्वप्न में बताये स्थान पर राजा को वह शिला खंडित अवस्था में मिल गई।  राजा ने  पुनः इस शिला को मंदिर पर ले जाकर स्थापित किया।
कहा जाता है कि राजा रत कपकोटी की एक छोटी बेटी थी। जिसका नाम ‘बाली कुसुम’ था। वे हर रोज अपनी बिटिया को पालने में झुला-झूलाकर सुलाते हुए कहते थे “ह्वली-ह्वली त्वीकेँ वैशाली राजाक व्यवूल”. (भावार्थ : डलिया हिलाते हुए- सो जा बिटिया सो जा, तेरा विवाह में वैशाली राजा से करूंगा। )
एक दिन वैशाली राजा आखेट के लिए वहां से गुजर रहे थे।  राजा रत कपकोटी अपनी बिटिया बाली कुसुम को झुलाते हुये यही कह रहे थे –

“ह्वली-ह्वली त्वीकेँ वैशाली राजाक व्यवूल” । राजा वैशाली अचंभित हुए और वे घर के आंगन तक आ गए। अन्दर से राजा रत कपकोटी अपनी बिटिया को झुलाते हुए और कहने लगे   “ह्वली-ह्वली त्वीकेँ वैशाली राजाक व्यवूल”। राजा वैशाली घर की सीढ़ी तक आ गये और जोर से बोले – एक जुवान या द्वी जुवान ? रत कपकोटी आश्चर्य में पड़ गए और उनके मुंह से निकल पड़ा “एक जुवान” अर्थात उन्होंने वैशाली राजा की चुनौती को स्वीकार कर लिया है।  अपनी जुवान के आधार पर उन्हें अपनी बिटिया बाली कुसुम का विवाह चिरपटकोट के राजा वैशाली से करनी होगी।

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मंदिर परिसर।

अभी बाली कुसुम पालने में ही थी। वे इस समय अपने वचनानुसार बेटी को उन्हें नहीं सौंप सकते थे। राजा रत कपकोटी ने निवेदन किया कि उनकी पुत्री बाली कुसुम अभी छोटी है। थोड़ा बड़ी होने पर वे उसका विवाह राजा वैशाली से करेंगे। राजा वैशाली मान गए। वे वापस चले गए। कुछ दिनों बाद पुनः कपकोट आकर वे राजा से उनके वचन याद दिलाते हैं।  रत कपकोटी कहते हैं उनकी बेटी अभी छोटी है जैसे ही बड़ी होगी वे बेटी का हाथ उन्हें अवश्य देंगे।  कुछ महीनों तक यही सिलसिला जारी रहा।

राजा वैशाली काफी बूढ़े थे। एक दिन उनकी मौत हो गई। राजा रत कपकोटी को उनकी मौत का समाचार मिला तो वे असमंजस में पड़ गए। उस समय पूरे भारत में सती प्रथा थी यानि पति की मौत के बाद पत्नी को भी सती होना पड़ता था। राजा रत कपकोटी अपने वचन दे चुके थे। अपनी जुवान से वे पीछे नहीं हट सकते थे।  राजा वैशाली की अर्थी खिरौ  (सरयू और खीर गंगा का संगम स्थल) तक पहुँचने वाली थी। रत कपकोटी ने बेटी बाली कुसुम को डलिया समेत उठाया और उसे सती होने के लिए चल पड़े। बाली कुसुम रास्ते में अपने पिता से पूछती है – पिता जी आज आप मुझे कहाँ ले जा रहे हैं ? राजा रत कपकोटी टाल मटोल करते रहे।  बाली कुसुम पुनः पूछती है – “ पिता जी आप मुझे इतनी जल्दीबाजी में कहाँ ले जा रहे हैं ? ” राजा के आंखों में आंसू थे।  वे रोते बिलखते आगे बढ़ते रहे। देवी के रूप में जन्मी बाली कुसुम तो समझ चुकी थी। पुनः वह यही सवाल करती है। राजा उसे पूरी बात बताते हैं।  पिता की बात सुन बाली कुसुम उन्हें सती न करने को कहती है। राजा अपने दिए वचनों से पीछे नहीं हटना चाहते थे। जैसे ही राजा शमशान घाट के पास पहुंचते हैं, बाली कुसुम उन्हें श्राप देती है – “तुम्हारे सिरहाने का पानी पैनाण (पैरों नीचे)  चले जाए। घर में गाय ब्याई तो सब नर बछड़े ही हों। पकी फ़सल में ओले पड़ जायें।” कुछ इस तरह से बहुत से श्राप उसने राजा को दे दिए और वह उस डलिया से परी बन उड़कर आकाश की तरफ उड़ गई।  राजा ने डलिया को राजा वैशाली की चिता में डालकर अपने वचनों को पूर्ण किया।

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मंदिर से कपकोट का दृश्य।

अब बाली कुसुम के श्राप का असर पड़ने लगा था। श्राप से कपकोट गांव के सिरहाने से निकलने वाला पानी गांव के पैनाण (अंतिम छोर) छेती में निकल गया। वहां से कुछ मीटर आगे बहने के बाद यह पानीसरयू में समा जाता है। तब से आज तक यह पानी कपकोट के लोगों के काम नहीं आ पाया है। बहुत से बुजुर्ग लोग आज भी इस पानी को नहीं पीते हैं। आज भी यहां के लोग इन श्रापों के दुष्परिणामों को महसूस करते हैं।

हर वर्ष बैसाख महीने के तीन गत्ते को कपकोट वासियों द्वारा यहां की गांव कुशलता की कामना के लिए काशिल देव मंदिर में पूजा की जाती है। इस मौके पर गांव की विवाहित बेटियां अनिवार्य रूप से भगवान काशिल देव और बाली कुसुम के मंदिर में आकर मनौती मांगते हैं। वे मंदिर में काशिल बूबू के दर्शन कर बाली कुसुम को चूड़ियां, बिंदी इत्यादि चढ़ाते हैं। आज भी मंदिर में बाली कुसुम को फ्रॉक चढ़ाने की परंपरा है।

(नोट- यह जानकारी श्री गणेश उपाध्याय, कुमारी रीता कपकोटी के आलेख एवं वरिष्ठ महिला सरूली कपकोटी, स्वर्गीय गोविंद सिंह कपकोटी उर्फ गोरिला जी से सुनी कहानी के आधार लिखी गई है। – साभार : विनोद सिंह गड़िया www.eKumaon.com)

बैजनाथ: जहां हुआ था शिव-पार्वती का विवाह

बागेश्वर से 26 किमी की दूरी पर कत्यूर घाटी में गोमती नदी के तट पर समुद्र सतह से 1130 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बैजनाथ मंदिर समूह की पहचान आठवी शदी में कुमाऊं के प्रथम राजवंश कत्यूर शासकों की राजधानी-कार्तिकेयपुर के रूप में रही है। यहां मिले शिलालेखों में इसका स्पष्ट जिक्र मिलता है। यहां गोमती नदी के किनारे स्थित केदारेश्वर, लक्ष्मीनारायण, तथा ब्राह्मणी देवी सहित 17 मंदिरों की स्थापना का काल नौवीं से 12वीं शताब्दी के मध्य कत्यूरी राजाओं द्वारा कराया गया। पौराणिक मान्यता के अनुसार यहीं महादेव शिव एवं हिमालय पुत्री पार्वती का विवाह हुआ था। पास ही में गौरी उडियार नाम के स्थान के बारे में कहा जाता है कि शिव जब गौरा को ब्याह कर कैलाश पर्वत की ओर ले जा रहे थे, तो यहां उन्होंने विश्राम के लिए गौरा को डोली से जमीन पर उतारा था। परिसर का नागर शैली में निर्मित मुख्य मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, जिसमें शिव और पार्वती एक साथ विराजमान हैं। इसका शिखर भाग ध्वस्त हो गया था, जिसके बाद इसे धातु की चादरों से आच्छादित किया गया है। बैजनाथ मंदिर समूह से पश्चिम दिशा में तल्लीहाट गांव में 1214 शक यानी वर्ष 1292 में उड़ीसा के मंदिरों के सामान नजर आने वाला लक्ष्मी नारायण मंदिर स्थित है। मंदिर में रेखाशैली में निर्मित गर्भगृह तथा पीछे पिरामिड के आकार की छत युक्त मंडप है। पास में एक अन्य राक्षस देवल मंदिर को रक्षक देव का मंदिर भी कहा जाता है। चारदीवारी के भीतर स्थित आमलक युक्त शिखर वाले इस मंदिर में रेखा प्रकार का गर्भगृह तथा पीछे की ओर पिरामिड शैली का मंडप है। वहीं गांव से थोडी दूरी पर सत्यनारायण मंदिर स्थित है, जिसे पूर्व में भगवान विष्णु का विशाल मंदिर बताया जाता है।

पोथिंग का भगवती माता मंदिर

बागेश्वर जनपद मुख्यालय से करीब 38 किमी आगे कपकोट क्षेत्र में लगभग 6000 फीट की ऊंचाई पर उत्तराखंड की कुलदेवी माता नंदा भगवती का भव्य मंदिर पोथिंग नाम के गांव में स्थित है। क्षेत्र में माता भगवती के अत्यधिक मान्यता है। पूरे पहाड़ की तरह इस क्षेत्र के भी अधिंकांश युवा भारतीय सेना में कार्यरत हैं, लेकिन कहा जाता है कि माता भगवती की कृपा से क्षेत्र का कोई भी युवा अब तक सेना में शहीद नहीं होने पाया है। यहाँ प्रति वर्ष भाद्रपद माह यानी अगस्त-सितम्बर माह में प्रसिद्ध मेला लगता है, जिसमें देश-दुनिया में रहने वाले प्रवासी व क्षेत्रवासी पहुंचते हैं। पास में कुंड और सुकुंड नामक झीलें है, बताया जाता है कि इनका निर्माण भीमताल की तरह बलशाली भीम के द्वारा अज्ञातवास के दौरान महाभारत काल में गदा के प्रहार से किया गया था। कहते हैं स्वयं देवी-देवता यहां स्नान करने के लिए आते हैं। कुंड में यदि पेड़ों की सूखी पत्तियां गिर जाती है तो यहां रहने वाले पक्षी इन्हें अपनी चोंच द्वारा बाहर निकाल देते हैं। पास ही चिरपतकोट की पहाड़ी पर स्थित श्री गुरु गुसाईं देवता का तथा पोखरी में अन्य मंदिर भी स्थानीय लोगों की धार्मिक आस्था के केंद्र हैं, जबकि दूर नजर आने वाले कैरूथल व पांडुथल नाम के पर्वत यहां कौरवों और पांडवों के प्रवास की ऐतिहासिक कहानी को बयां करते हैं। पास ही तोली गांव के शिखर पर बखुड़ीखोड़ नाम की करीब 2100 मीटर ऊंची चोटी पर तलहटी में बहने वाली नदी जैसे गोल पत्थर (गंगलोड़े यानी नदी के पत्थरों) आश्चर्य चकित करते हैं। लोक मान्यता है कि पांडुथल-कैरूथल के बीच पांडवों और कौरवों ने एक-दूसरे पर इन गंगलोड़ों से भी युद्ध किया था, जिसके फलस्वरूप यह पत्थर यहां मिलते हैं। पास ही में तोपनथल का बड़ा चौरस स्थान है, जिसके बारे में बताया जाता है कि अंग्रेजों ने सीमावर्ती क्षेत्र होने के मद्देनजर सामरिक दृष्टिकोण से यहां हैलीपैड बनाने की योजना बनाई थी, लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद योजना परवान नहीं चढ़ पाई।

पिंडारी, कफनी और सुंदरढूंगा ग्लेशियर

Pindari Glacier
पिंडारी ग्लेशियर

पिंडारी ग्लेशियर उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के बागेश्वर जिले में समुद्र तल से 3627 मीटर (11657 फीट) की ऊंचाई पर नंदा देवी और नंदा कोट की हिमाच्छादित चोटियों के बीच स्थित है। हिमालय के अन्य सभी ग्लेशियरों की तुलना में सबसे आसान पहुंच के कारण पर्वतारोहियों और ट्रेकरों की पहली पसंद पिंडारी ग्लेशियर अपनी खूबसूरती से भी मना को लुभाने वाला है। 3.2 किमी लंबे और 1.5 किमी चौड़े इस ग्लेशियर का जीरो पॉइंट समुद्र तल से 3660 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहीं से पिंडर नदी निकलती है, जो बाद में कर्णप्रयाग से होते हुए अलकनंदा नदी में जाकर मिलती है। पिंडारी ग्लेशियर के बांई ओर समुद्र तल से जिसकी ऊंचाई 3860 मीटर की ऊंचाई पर कफनी ग्लेशियर स्थित है, जिसके लिए द्वाली नाम के पड़ाव से रास्ता अलग होता है। पिंडारी ग्लेशियर जाने के लिए बागेश्वर से कपकोट की ओर 48 किमी आगे सौंग, लोहारखेत तक सड़क जाती है, जहां से धाकुड़ी टॉप तक खड़ी चढ़ाई, वहां से उतार के पैदल मार्ग से इस ट्रेक के आखिरी खाती गांव, द्वाली व फुरकिया होते हुए पिंडारी ग्लेशियर के आखिरी पड़ाव जीरो प्वाइंट पहुंचा जाता है।

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