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July 27, 2024

Ghrit Sankranti : स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का 1 लोकपर्व घी-त्यार, घृत संक्रांति, ओलगिया…

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आज घी न खाया तो अगले जन्म में बनना पड़ेगा कुछ ऐसा, ऐसी है धारणा

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 17 अगस्त 2023 (Ghrit Sankranti)।प्रकृति एवं पर्यावरण से प्रेम व उसके संरक्षण के साथ ही अभावों में भी हर मौके को उत्साहपूर्वक त्योहारों के साथ ऋतु व कृर्षि पर्वों के साथ मनाना देवभूमि उत्तराखंड की हमेशा से पहचान रही है। यही त्योहारधर्मिता उत्तराखंड के कमोबेश सही लोक पर्वों में दृष्टिगोचर होती है। यहां प्रचलित हिंदू विक्रमी संवत की हर माह की पहली तिथि-एक पैट या एक गते को संक्रांति पर्व (चैत्र एवं श्रावण संक्रांति को हरेला तथा मकर संक्रांति को घुघुतिया-उत्तरायणी) त्योहार की तरह मनाए जाते हैं। इसी कड़ी में भाद्रपद मास की संक्रान्ति यहां घी-त्यार या घृत-संक्रांति (Ghrit Sankranti) एवं ओलगिया के रुप में मनाई जाती है। 

Ghrit Sankranti घी त्यार क्यों मनाया जाता है ? उत्तराखंड का पहाड़ी त्यौहार घी सक्रान्त ||  देखिए क्या है महत्व - YouTubeघी-त्यार यानी घी-त्यौहार हरेला की तरह मूलतः एक ऋतु एवं कृषि पर्व ही है, लेकिन इसमें मानव सभ्यता, खास कर घर के पारिवारिक सदस्यों व उनमें भी बच्चों को पोषक तत्वों की भरपूर मात्रा देकर उन्हें पुष्ट बनाने का भाव है। हरेला जहां चैत्र एवं श्रावण संक्रांति के मौकों पर मनाया जाता है, और बीजों को बोने और वर्षा ऋतु के आगमन का प्रतीक त्यौहार है।

वहीं घी-त्यार बीजों के नई फसलों में बालियों के रूप में फलीभूत हो जाने-लहलहाने पर उत्साहपूर्वक मनाया जाने वाला लोक पर्व है। इस पर्व तक फसलों के साथ ही पहाड़ों में अखरोट, सेब, माल्टा, नारंगी आदि ऋतु फलों के साथ ही ककड़ी (खीरा), लौकी व तुरई आदि बेलों पर लगने वाली सब्जियां भी तैयार होने लगती हैं।

बरसात के दिन होने की वजह से पशुओं के लिए पर्याप्त मात्रा में हरी घास के चारे की भी इफरात रहती है। गौशाला में गाय-भेंस खूब दूध दे रहे होते हैं। घर में दूध, दही, घी-मक्खन भी भरपूर होता है। वहीं दूसरी ओर बदलते बारिश के मौसम में संक्रामक रोगों की आशंका भी सिर उठा रही होती है, ऐसे में पहाड़ के लोग फसलों के पकने और घर में भरपूर पशुधन की उपलब्धता से आनंदित हो घी-त्यार या घी-संक्रांति मनाते हैं। अखरोट की नई फसल के फलों को तो इसी दिन से खाना शुरू करने की परंपरा है।

घी-त्यार (Ghrit Sankranti) के दिन खास तौर पर पहाड़ी दाल मांश यानी उरद को भिगो और पीस कर तैयार की गई पिट्ठी को कचौड़ियों की तरह भरकर बनाई जाने वाली बेड़ू रोटी गाय के शुद्ध घी के साथ डुबोकर खाई जाती हैं। साथ ही पिनालू (अरबी) की नई अधखुली कोपलों (गाबे) की मूली आदि मिलाकर बनी सब्जी भी इस मौके पर बनाने की परंपरा है। कोमल और बंद पत्तियों की सब्जी भी इस दिन विशेष रुप से बनाई जाती है। इस अवसर पर किसी न किसी रुप में घी खाना अनिवार्य माना जाता है, इसलिए लगड़ (पूरी), पुवे, हलवा आदि भी प्रसाद स्वरूप शुद्ध घी से ही तैयार किए जाते हैं।

ऐसी भी मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन (Ghrit Sankranti) घी नहीं खाता, वह अगले जन्म में गनेल (घोंघा) बन जाता है। शायद इसलिए कि इस भय से लोग घी खाने के लिए प्रेरित हों ओर स्वस्थ व मजबूत बनें। इस दिन गाय के घी को प्रसाद स्वरुप सिर पर रखा जाता है और छोटे बच्चों की तालू (सिर के मध्य) में भी मला जाता है। माना जाता है कि भोजन के साथ ही सिर पर घी मलने से बच्चे शरीर के साथ ही मस्तिष्क से भी मजबूत बनते हैं।

Ghrit Sankranti : ओलगी संक्रांति के रूप में समाज के हर वर्ग को जोड़ता भी है यह त्योहार

घी संक्रांति को घृत संक्रान्ति और सिंह संक्रान्ति के साथ ही ओलगी या ओलगिया संकरात भी कहा जाता है। ओलगी संक्रांति को चंद राजवंश की परंपराओं से भी जोड़ा जाता है। कहते हैं कि चंद शासनकाल में इस दिन शिल्प कला से जुड़े दस्तकार, लोहार व बढ़ई आदि लोग अपनी कारीगरी तथा दस्तकारी की कृषि व गृह कार्यों में उपयोगी हल, दनेले, कुदाल व दराती जैसे उपकरणों के साथ ही बर्तन तथा बिंणाई जैसे छोटे वाद्य यंत्र व अन्य कलायुक्त वस्तुओं तथा अन्य लोग मौसमी साग-सब्जियां, फल-फूल, दही-दूध व मिष्ठान्न तथा पकवान अन्य उत्तमोत्तम वस्तुएं राज दरबार में भेंट-उपहार स्वरूप ले जाते थे तथा राज दरबार से धन धान्य आदि पुरस्कार स्वरूप प्राप्त करते थे।

इस तरह खेती और पशुपालन से जुड़े लोगों के साथ ही शिल्प कार्यों से जुड़े गैर काश्तकार भी इस त्योहार के जरिए आपस में जुड़ते थे। इस भेंट देने की प्रथा को ओलगी कहा जाता है। इसी कारण इस संक्रांति को ओलगिया संक्रांति भी कहते हैं। इस प्रकार इस पर्व में समाज के हर वर्ग को विशेष महत्व और सम्मान देने का प्रेरणादायी भाव भी स्पष्टतया नजर आता था। आगे राजशाही खत्म होने के बाद राज सत्ता की जगह गांव के पधानों, थोकदारों आदि ने ले ली, और धीरे-धीरे यह प्रथा उस रूप में तो समाप्त हो गई, लेकिन नाम अभी भी प्रयोग किया जाता है।

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