विश्व व भारत में पत्रकारिता का इतिहास
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल। मानव सभ्यता करीब 150-200 करोड़ वर्ष पुरानी मानी जाती है। उत्तराखंड के कालागढ़ के निकट मिले करीब 150 करोड़ वर्ष पुराने ‘रामा पिथेकस काल’ (Ramapithecus age) के माने जाने वाले एक मानव जीवाश्म से भी इसकी पुष्टि होती है। लेकिन मानव में संचार के जरूरी मूलभूत ज्ञानेंद्रियों का विकास ईसा से करीब तीन लाख वर्ष पूर्व होने की बात कही जाती है। इस दौर में गुफाओं में रहने वाले हमारे प्राग ऐतिहासिक कालीन पूर्वजों में मस्तिष्क एवं केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (Central Nervous System) धीरे-धीरे विकसित होना प्रारंभ हुआ, और इसी के साथ उनकी बाद की पीढ़ियों में संचार के मूलभूत तत्व के रूप में देखने, सुनने, छूने, सूंघने एवं चखने की क्षमता युक्त ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ, जिससे वे अपने खतरे में होने या सुरक्षित होने, किसी से प्रेम अथवा घृणा करने तथा किन्ही स्थितियों के अनूकूल अथवा प्रतिकूल होने का पता लगाने की ‘संचार की प्राथमिक व मूलभूत आवश्यकताओं’ की पूर्ति कर पाये थे। इसके बाद ही मानव का स्वयं से संचार प्रारंभ हुआ था। इन इंद्रियों के विकसित होने के बाद ही मानव में कुछ समझ विकसित हुई और उसने स्वयं के लिये सुरक्षित ठिकानों-गुफाओं का सहारा लिया होगा। इस तरह से उस दौर के मानव को ‘स्वयं से साक्षात्कार के लिये’ पहला मीडिया यानी माध्यम मिला था। जो एक तरह से उस दौर के लिहाज से मानव को संचार के लिये प्राप्त हुआ एक ‘नया मीडिया’ ही था। आगे करीब 50 हजार वर्ष पूर्व न्यमोनिक चरण (Mnemonic Stage) में वे लोग बुद्धिमान कहे जाते थे, जो कुछ याद कर पाते थे। यह मनुष्य में याददास्त की क्षमता के जुड़ने का समय था। उस दौर में सामाजिक संचार प्रारंभ हो गया था लेकिन भाषाओं का जन्म नहीं हुआ था। आगे ईशा से करीब सात हजार वर्ष पूर्व मानव संचार के एक नये-चित्र बनाने के माध्यम (Pictographics) की योग्यता जुड़ी, जिसके साथ उसमें रचनात्मकता व कल्पनाशीलता का विकास भी हुआ। इसके बाद मानव गुफाओं में चित्र बनाकर अपनी भावनायें प्रदर्शित करने लगे। इस दौर में मनुष्य में धार्मिक भावनाओं का उद्भव भी हुआ। इस दौर के बनाये गुफा-शैलचित्र आज भी उत्तराखंड के लखुडियार सहित अनेक स्थानों पर मिलते हैं, जिन्हें करीब पांच हजार वर्ष पुराना आंका गया है। इसी दौर के करीब 5000 वर्ष पूर्व की हड़प्पा व मोहनजोदड़ो सभ्यता के दौर में भी मानव में लेखन कला के सबसे पुराने सबूत मिलते हैं, इस प्रकार लेखन कला को ईशा से तीन हजार वर्ष पूर्व होना माना जा सकता है। आगे ईशा से तीन हजार से दो हजार वर्ष पूर्व के दौर में शैलचित्र बनाने की मानव की विधा ‘बेहतर’ हुयी और सर्वप्रथम भावनाओं के लिये ‘प्रतीकों’ का उद्भव हुआ। इस काल को आइडियोग्राफिक काल (Ideographic Stage) भी कहते हैं। इस दौर में मानव ने सामाजिक समूहों में घर बनाकर रहना प्रारंभ कर दिया था। साथ ही उसमें सामाजिक कार्यक्रमों और नैतिक मूल्यों आदि का भी विकास हो चुका था। इस काल में चित्र प्रतीकों के रूप में छोटे हो गये थे। जैसे मनुष्य के लिय ‘λ’, घर के लिये ‘9’, बैल के लिये ‘∀’, दरवाजों के लिये ‘Δ’, ऊंट के लिये ‘7’ आदि चिन्हों का प्रयोग किया जाता था। आगे फोनेटिक काल में ‘क’ के लिये ‘४’, ‘न’ के लिये ‘⊥’ आदि चिन्हों का प्रयोग किया जाने लगा। आगे मानव सभ्यता के विकास के साथ अंतरवैयक्तिक संचार बढ़ने लगा। अब तक लोग एक-दूसरे से आमने-सामने ही बात करते थे, लेकिन अब वह दूर तक अपनी बात पहुंचाने के उपाय भी ढूंढने लगे और दूर संदेश भेजने के लिए ऐसे लोगों (Relay Runners) का प्रयोग किया जाने लगा जो बीते दौर के डाक विभाग के हरकारों की तरह एक से दूसरे स्थान पर संदेशों को ले जाते थे। इस तरीके से भी कई बार संदेश पहुंचाने में दिनों-महीनों का समय लग जाता था।
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यहां कानून से भी लंबे निकले सोशल मीडिया के हाथ…
यों हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में हुए उत्खनन से प्राप्त मृदभांडों के अनुसार भारत में 5000 वर्ष पूर्व यानी ईशा से 3000 वर्ष पूर्व लेखन का ज्ञान था, और भारत के चक्रवर्ती सम्राट अशोक (जन्म 304 ईशा पूर्व, शासन 272 ईशा पूर्व से 232 ईशा पूर्व में मृत्यु होने तक) के आज के बांग्लादेश, भारत, नेपाल, पाकिस्तान व अफगानिस्तान तक फैले राज्य में संस्कृत से मिलती-जुलती खरोष्ठी व ब्राह्मी लिपि तथा प्राचीन मगधी, यूनानी व अरामाई भाषाओं में लिखे 33 शिलालेख व अन्य अभिलेख प्राप्त होते हैं।
अलबत्ता, विश्व में पत्रकारिता का आरंभ ईशा से केवल दो से पांच शताब्दी पूर्व रोम से होना बताया जाता है। कहते हैं कि पांचवीं शताब्दी ईसवी पूर्व रोम में संवाद लेखक होते थे, जो हाथ से लिखकर खबरें पहुंचाते थे। आगे ईशा से 131-59 ईस्वी पूर्व रोम में ही सम्राट जूलियस सीजर को पहला दैनिक समाचार-पत्र निकालने का श्रेय दिया जाता है। उनके पहले समाचार पत्र का नाम था ‘Acta Diurna’ (एक्टा डाइएर्ना-यानी दिन की घटनाएं)। बताया जाता है कि यह वास्तव में पत्थर या धातु की पट्टी होता था, जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं, और इन में सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं। आगे ईसा के बाद दूसरी शताब्दी में मुद्रण तकनीक के आविष्कार को लेकर कुछ प्रमाण बताए जाते हैं। इस दौर में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में हाथ से ही लिखे हुए ‘सूचना-पत्र’ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। इसी दौरान कागज के निर्माण की कोशिशें भी चल रही थीं। चीन में सर्वप्रथम 100 वर्ष ईशा पूर्व कागज का निर्माण हुआ, लेकिन चीन ने सातवीं शताब्दी तक कागज के निर्माण की प्रक्रिया को गुप्त रखा। कहते हैं कि 751 ईसवी में चीनियों और अरबियों के बीच हुए युद्ध में कागज बनाना जानने वाले कुछ लोग बंदी बना लिए गए, जिन्हें कागज बनाने की विधि बताने के बाद ही छोड़ा गया। 400 ईसवी सन में भारत ने भी कागज बनाना सीख लिया था, जबकि यूरोप में कागज की जगह जानवरों के चमड़े का इस्तेमाल होता था। 1200 ईसवी में इसाइयों ने और 1250 में स्पेन, 1338 में फ्रांस, 1411 में जर्मनी के लोगों ने कागज बनाना सीखा। स्याही का निर्माण भी सर्वप्रथम चीनियों ने ही किया।
लकड़ी के ठप्पों से छपाई का काम भी सबसे पहले पांचवी-छठी शताब्दी में चीन में ही शुरू हुआ। इन ठप्पों का प्रयोग कपड़ो की रंगाई में होता था। 11वीं सदी में चीन में पत्थर के टाइप बनाए गए, ताकि अधिक प्रतियां छापी जा सके। 13वी-14वीं सदी में चीन ने अलग-अलग संकेत चिन्ह भी बनाए। इसके बाद धातु के टाइप बनाने की कोशिश हुई। कोरिया से चीन होकर धातु के टाइप यूरोप पहुंचे। धातु के टाइपों से पहली पुस्तक 1409 ईसवी में कोरिया में छापे जाने की बात कही जाती है, लेकिन प्रमाणिक तौर पर 1439 में जर्मनी के योहानेस गुटेनबर्ग ने धातु के ठप्पों से अक्षरों को छापने की मशीन का आविष्कार किया। उन्होंने इस मशीन से 1453 में प्रथम मुद्रित पुस्तक ‘कांस्टेंन मिसल’ तथा ‘गुटेनबर्ग बाइबल’ के नाम से प्रसिद्ध बाइबल भी छापी। इसके बाद ही किताबों और अखबारों का प्रकाशन संभव हो गया। अलबत्ता, यह मशीन सर्वसुलभ नहीं थी। प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद काफी समय तक किताबें और सरकारी दस्तावेज ही उनमें मुद्रित हुआ करते थे। 1500 ईसवी तक पूरे यूरोप में सैकड़ों छापेखाने खुल गए थे। नीदरलैंड से 1526 में न्यू जाइटुंग का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। तब इसे ‘समाचार पुस्तिका’ या ‘न्यूज बुक’ कहा जाता था। इसके बाद लगभग एक शताब्दी तक कोई दूसरी कोई समाचार पत्रिका प्रकाशित नहीं हुई। सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में जबकि पूरा यूरोप युद्धों को झेल रहा था, और सामंतवाद लगातार अपनी शक्ति खो रहा था, तथा अनेक विचारधाराएं उत्पन्न हो रहीं थी। इस दौर में लेखक अपने समकालीन लोगों में ग्रंथकार, घटना लेखक, सार लेखक, समाचार लेखक, समाचार प्रसारक, रोजनामचा नवीस, गजेटियर के नाम से जाने और सम्मान पाते थे। इस दौरान ‘आक्सफोर्ड गजट’ और फिर ‘लंदन गजट’ निकले जिनके बारे में कहा गया है, ‘बहुत सुंदर समाचारों से भरपूर और कोई टिप्पणी नहीं।’ यानी समाचारों को टिप्पणी युक्त न होना यानी समाचार ‘जैसा का तैसा छापना’ माना जाता था। 16वीं शताब्दी के अंत तक यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा होने के साथ धीमा भी था। आखिर 1605 में उसने छापे की मशीन खरीद कर ‘रिलेशन’ नाम का समाचार-पत्र छापना प्रारंभ किया, जिसे विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार पत्र माना जाता है। उल्लेखनीय है कि उस दौर में ‘न्यूज बुक या ‘समाचार पुस्तिका’ शब्द को प्रयोग होता था। लेकिन ‘न्यूज पेपर’ या ‘समाचार पत्र’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख वर्ष 1670 में मिलता है। वहीं दैनिक पत्रों के इतिहास में पहला अंग्रेजी दैनिक 11 मार्च 1709 को ‘डेली करंट’ प्रकाशित हुआ। लेकिन तब तक भी कागज आज की तरह का न था। कागज का आधुनिक रूप फ्रांस के निकोलस लुईस राबर्ट ने 1778 ई में बनाया।
भारत में पत्रकारिता का आरंभ
यों, जैसा कि हमने पहले भी पढ़ा है, हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में हुए उत्खनन से प्राप्त मृदभांडों के अनुसार भारत में 5000 वर्ष पूर्व यानी ईशा से 3000 वर्ष पूर्व लेखन का ज्ञान था, लेकिन छपाई का काम लगभग पांचवी-छठी शताब्दी में चीन के साथ ही प्रारंभ होना बताया जाता है। इसी दौरान यहां कागज का निर्माण भी होने लगा था। लेकिन समाचार पत्रों का इतिहास यूरोपीय लोगों के भारत में प्रवेश के साथ प्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम भारत में प्रिंटिग प्रेस लाने का श्रेय पुर्तगालियों को दिया जाता है, उनकी कोशिश अपने धर्म के प्रचार की थी, इसलिए वह अपनी प्रेस का इस्तेमाल धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन के लिए ही अधिक करते थे। 1557 ईसवी में गोवा के कुछ पादरियों ने भारत की पहली पुस्तक छापी। फिर 1662 में मुम्बई तथा 1679 में बिचुर में और प्रेसों की स्थापना हुई। वहीं अंग्रेजों ने भारत में छापे की पहली मशीन 1674 में बम्बई में स्थापित की, और 1684 ईसवी में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में प्रथम प्रिंटिग प्रेस (मुद्रणालय) की स्थापना की, और देश की पहली पुस्तक की छपाई की थी। भारत में पहला अखबार स्थापित करने का प्रयास ईस्ट इंडिया कंपनी के भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स ने किया। उन्होंने 1762 में कलकत्ता के कौंसिल हॉल व अन्य प्रमुख स्थानों पर एक नोटिस लगाया, जिसमें कहा गया था कि छापेखाने के अभाव में उन्हें लोगों को सूचित करने के लिए नोटिस का तरीका ठीक लगता है। व्यापार के लिए छापेखानों का अभाव खलता है। कोई व्यक्ति यदि छापेखाने का धंधा करना चाहते हैं तो बोल्ट उसका पूरा सहयोग करने को तैयार हैं। इस बीच वह इसी तरह सूचनाएं देते रहेंगे। जिज्ञासु व्यक्ति सुबह 10 से 12 बजे के बीच उनके घर पर आकर वहां से सूचना पत्रों की प्रतियां ले सकते हैं।
हिकी’ज बंगाल गजट: भारत का पहला समाचार पत्र
भारत में पत्रकारिता का विधिवत् प्रारम्भ जेम्स आगस्ट्स हिकी ने 29 जनवरी 1780 में कलकत्ता से ‘हिकी’ज बंगाल गजट’ के नाम से अखबार निकाल कर, पत्रकारिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की। इसे ही देश का सबसे पहला समाचार पत्र कहा जाता है। ‘हिकी’ज बंगाल गजट’ ‘दि ऑरिजिनल कैलकटा जनरल एड्वरटाइजर’ भी कहलाता था। दो पृष्ठों के तीन कालम में दोनों ओर से छपने वाले इस अखबार के पृष्ठ 12 इंच लंबे और 8 इंच चौड़े थे। इसमें हिक्की का विशेष स्तंभ ‘ए पोयट्स’ कार्नर होता था। अखबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों के व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। हिकी ने इसके एक अंक में गवर्नर की पत्नी पर आक्षेप किया तो उसे चार महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुर्माना लगा दिया गया। लेकिन हिकी ने शासकों की आलोचना करने से परहेज नहीं किया, और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुर्माना लगाया गया, और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अखबार बंद हो गया। हिकी’ज बंगाल गजट के बारे में हिकी ने कहा था-“यह राजनीतिक और आर्थिक विषयों का साप्ताहिक है और इसका सम्बन्ध हर दल से है, मगर यह किसी दल के प्रभाव में नहीं आएगा।’ स्वयं के बारे में हिक्की की धारणा थी-‘मुझे अखबार छापने का विशेष चाव नहीं है, न मुझमें इसकी योग्यता है। कठिन परिश्रम करना मेरे स्वभाव में नहीं है, तब भी मुझे अपने शरीर को कष्ट देना स्वीकार है। ताकि मैं मन और आत्मा की स्वाधीनता प्राप्त कर सकूं।‘
पत्रकारिता की आवाज दबाने की कोशिश-इंडिया गजट
ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों को हिकी’ज बंगाल गजट पसंद न था, और उन्होंने इसके खिलाफ 1780 में ही ‘इंडिया गजट’ का प्रकाशन शुरू किया। इस पत्र में अक्सर हिकी‘ज गजट से लगाए जाने वाले आक्षेपों के जवाब दिए जाते थे। इस प्रकार सरकार की ओर से पत्रकारिता की आवाज को दबाने की नींव भी पड़ गई। करीब 50 वर्षों तक प्रकाशित हुए इस कमोबेश सरकारी अखबार में ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यावसायिक गतिविधियों के समाचार दिए जाते थे। इसी कारण यह अखबार इतनी लंबी अवधि तक भी चला।
कलकत्ता में बंदरगाह होने, यहां अंग्रेजो का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र होने और पश्चिम बंगाल से ही आजादी के ज्यादातर आंदोलन संचालित होने की वजह से कोलकाता शुरुआत में भारतीय पत्रकारिता का अगुवा रहा। 18वीं शताब्दी के अंत तक बंगाल से कलकत्ता कोरियर, एशियाटिक मिरर, ओरिएंटल स्टार तथा मुंबई से बंबई हेराल्ड अखबार 1790 में प्रकाशित हुए, और चेन्नई से मद्रास कोरियर आदि समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे। इन समाचार पत्रों की विशेषता यह थी कि इनमें परस्पर प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग था। मद्रास सरकार ने समाचार पत्रों पर अंकुश लगाने के लिए कड़े फैसले भी लिए। मुबंई और मद्रास से शुरू हुए पत्रों की उग्रता हिक्की की तुलना में कम थी। हालांकि वे भी कंपनी शासन के पक्षधर नहीं थे। मई 1799 में सर वेलेजली ने सबसे पहले प्रेस एक्ट बनाया जो कि भारतीय पत्रकारिता जगत का पहला कानून था। इस दौर में अखबारों को शुरू करने में तो काफी कठिनाइयां आती ही थीं, अंग्रेज सरकार भी अखबारों के बहुत खिलाफ थी।
आगे 1818 में ब्रिटिश व्यापारी ‘जेम्स सिल्क बकिंघम’ ने ‘कलकत्ता जनरल’ का सम्पादन किया। बकिंघम ही वह पहला प्रकाशक था, जिसने प्रेस को जनता के प्रतिबिम्ब के स्वरूप में प्रस्तुत किया। प्रेस का आधुनिक रूप जेम्स सिल्क बकिंघम का ही दिया हुआ है। इसने अपने संपादकीय में लिखा था, ‘संपादक के कार्य सरकार को उसकी भूलें बताकर कर्तव्य की ओर प्रेरित करना है, और इस आशय से कुछ अरुचिकर सत्य कहना अनिवार्य है।’ इस पत्र ने अपने पाठकों को ‘संपादक के नाम पत्र’ के अंतर्गत उनके विचार छापने के लिए भेजने को भी कहा था। दो वर्ष में उस समय के सभी एंग्लोइंडियन पत्रों को प्रचार-प्रसार में पीछे छोड़ दिया था। केवल दो वर्ष में इसकी प्रसार संख्या एक हजार से अधिक थी, और मूल्य एक रुपया था। 1823 में पहला प्रेस अधिनियम लाने वाले स्थानापन्न अंग्रेज गवर्नर जनरल जॉन एडम के आदेश पर बकिंघम को गिरफ्तार कर तत्काल भारत से निर्वासित कर इंग्लेंड वापस भेज दिया गया, किंतु इंग्लेंड जाकर भी उसने ‘ओरिएंटल हेराल्ड’ निकालकर भारतीय समस्याओं और कंपनी के हाथों में भारत का शासन बनाए रखने के विरुद्ध लगातार अभियान चलाए रखा। हिक्की तथा बर्किघम का पत्रकारिता के इतिहास में महत्पूर्ण स्थान है। कलकत्ता जनरल के दूसरे संपादक सैंडी आरनॉट, व बंगाल जर्नल के संपादक बिलियम डुएन सहित अनेकों संपादकों को भी इसी तरह भारत से निर्वासित कर वापस इंग्लेंड भेजा गया।
भारत में भारतीय भाषाई पत्रकारिता
भारत में भारतीय भाषाई पत्रकारिता की शुरुआत सन 1810 में मौलवी इकराम अली ने फारसी मिश्रित उर्दू में ‘हिंदुस्तानी’ नामक पत्रिका से होने और साथ ही उर्दू-फारसी के कुछ और पत्र-पत्रिकाओं के प्रचार के प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं।
लेकिन भारतीय भाषाई पत्रकारिता की असली कहानी राष्ट्रीय आंदोलन की कहानी भी है, क्योंकि उस दौर में भारतीय भाषाएँ, अंग्रेजी ही नहीं-अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का प्रतीका और देश के जन-जन तक अपनी बात पहुंचाते हुए जनता को अंग्रेजों की कारगुजारियों से अवगत कराने का कारगर हथियार भी थी। इसकी शुरुआत बंगाल से हुई, और इसका श्रेय ब्रह्म समाज के संस्थापक और सती प्रणाली जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राजा राममोहन राय को दिया जाता है, और उन्हें भारतीय भाषायी प्रेस का प्रवर्तक भी कहा जाता है। जिन्होंने सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ते हुए भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की। राममोहन राय ने कई पत्र शुरू किये। जिसमें अहम हैं-वर्ष 1816 में संपादक गंगा किशोर (कहीं गंगाधर भी) भट्टाचार्य के सहयोग से प्रकाशित ‘बंगाल गजट’। बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है। इसके अलावा राजा राममोहन राय ने 1821 में भारतीय भाषा (बंगाली) में पहले साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) का 1819 में, ‘समाचार चंद्रिका’ का मार्च 1822 में और अप्रैल 1822 में फारसी भाषा में ‘मिरातुल’ अखबार’ एवं अंग्रेजी भाषा में ‘ब्राह्मनिकल मैगजीन’ व‘ बंगला हेराल्ड’ तथा 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय ने द्वारकानाथ टैगोर एवं प्रसन्न कुमार टैगोर के साथ साप्ताहिक समाचार पत्र ‘बंगदूत’ निकाला। बंगदूत एक अनोखा पत्र था, इसमें बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था। 1823 में जॉन एडम द्वारा लाये गए प्रथम प्रेस अधिनियम के बाद मिरातुल अखबार को इसी वर्ष बंद होना पड़ा। हालांकि इसी वर्ष लॉर्ड विलियम बेंटिक के आने पर प्रेस कानून में कुछ लचीलापन आया। बेंटिक ने कहा कि वे समाचार पत्रों को मित्र और सुशासन में सहायक मानते हैं। आगे 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय ने द्वारकानाथ टैगोर एवं प्रसन्न कुमार टैगोर के साथ नीलरतन हालदार के संपादकत्व में बंगला, फारसी, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में ‘बंगदूत’ का प्रकाशन कर अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के उत्थान में भी सहयोग दिया। ‘बंगदूत’ हर रविवार को निकलता था। इसका अंग्रेजी संस्करण ‘हिंदू हेराल्ड’ के नाम से प्रकाशित होता था। इसका हिंदी प्रखंड निकालना भी बड़ा कदम माना गया, इससे गैर हिंदी क्षेत्रों व संपादकों के लिए हिंदी में पत्र निकालने की परंपरा भी शुरू हुई। ‘बंगदूत’ के बंद होने के बाद 15 सालों तक हिंदी में कोई पत्र न निकला। बम्बई से 1831 में गुजराती भाषा में ‘जामे जमशेद’ तथा 1851 में ‘रास्त गोफ्तार’ एवं ‘अखबारे सौदागार’ का प्रकाशन हुआ। संवाद कौमुदी और मिरात उल अखबार भारत में स्पष्ट प्रगतिशील राष्ट्रीय और जनतांत्रिक प्रवृति के सबसे पहले प्रकाशन थे। ये समाज सुधार के प्रचार और धार्मिक-दार्शनिक समस्याओं पर आलोचनात्मक वाद-विवाद के मुख्य पत्र थे। राजा राममोहन राय ने अपने इन सभी पत्रों के प्रकाशन के पीछे मूल भावना व्यक्त करते हुए कहा था, ‘मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबंध उपस्थित करूं, जो उनके अनुभव को बढ़ावें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हो। मैं अपनी शक्ति भर शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचित कराना चाहता हूं, ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायो से अवगत हो सके, जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी करायी जा सके।’
इस बीच 1818 में श्रीरामपुर से बैपटिस्ट पादरी जोशुआ मार्शमैन के संपादन में ‘दिग्दर्शन’ नाम का पत्र निकाला जो अंग्रेजी व बंगला मिश्रित पत्र था, और भारतीय भाषा में पहला मासिक समाचार-पत्र भी था। मूलतः स्कूली पाठ्यक्रम के लिए निकले इस अनियमित पत्र के 16 अंक अंग्रेजी व बंगला में तथा तीन अंक हिंदी में निकले। इसे हिंदी का पहला समाचार पत्र साबित करने की कोशिशें भी हुईं, लेकिन इस मान्यता को स्वीकार्यता नहीं मिली। यदि ऐसा होता तो हिंदी समाचार पत्रों का इतिहास कुछ और पीछे चला जाता।
मार्शमैन ने 23 मई 1818 से ‘समाचार दर्पण’ नाम से बंगला में एक अन्य पत्र भी निकाला।1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक बंबई में देशी प्रेस के प्रणेता फरदून जी मर्जबान ने 1822 में ‘बांबे समाचार’ (मुंबईना समाचार) शुरु किया जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना और आज भी छप रहा गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। इस दौरान समाचार पत्र कई भाषाओं में भी छपते थे। 1822 में ही सदासुख के संपादकत्व में ‘जाने जहांनुमा’ नाम का फारसी पत्र प्रारंभ हुआ। इस पत्र की भाषा उर्दू मानी जाती है, और इसे उर्दू का पहला पत्र कहा जाता है। कई पत्र अनेक भाषाओं में छपते थे। 1846 में कलकत्ता से प्रकाशित इंडियन सन पांच भाषाओं हिंदी, फारसी, बंगला,अंग्रेजी व उर्दूं में छपना प्रारंभ हुआ था, और इसके हिंदी खंड का नाम मार्तंण्ड था। आगे कलकत्ता से ही बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ के 21 जून 1834 के अंक से ‘प्रजामित्र’ नामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने की सूचना मिलती है। लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसके प्रकाशन को संदिग्ध माना है।
हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन
हालांकि 1816 में राजा राममोहन राय के बंगाल गजट के साथ भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत हो गई थी, लेकिन हिंदी पत्रकारिता का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन अमूमन पहले हिंदी समाचार पत्र-उदंत मार्तंण के 1826 में प्रकाशन के बाद शुरू होता है। अलबत्ता, इस पर भी भाषा विज्ञानी एकमत नहीं हैं। सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास किया था। उसके बाद ‘विशाल भारत’ के नवंबर 1930 के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल ने इस प्रश्न पर विचार किया, किन्तु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे। आगे गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया- प्रथम चरण – 1845 से 1877 द्वितीय चरण – 1877 से 1890 तृतीय चरण – 1890 से बाद तक वहीं डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ में इस प्रकार काल विभाजन किया- आरंभिक युग – 1826 से 1867 उत्थान एवं अभिवृद्धि – प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग एवं द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग विकास युग – प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग, द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग सामयिक पत्रकारिता 1935-1945 उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं, 1867 में ‘कविवचन सुधा’, 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए। वहीं काशी नागरी प्रचारणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ के त्रयोदय भाग के तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है- प्रथम उत्थान – 1826 से 1867 द्वितीय उत्थान – 1868 से 1920 आधुनिक उत्थान – 1920 के बाद ‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है- बीज वपन काल, ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव, राष्ट्रीय जागरण काल तथा लोकतंत्र और प्रेस डा. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है- भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय – (1826 से 1867) राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति – दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (1867-1900) बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर – इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युग में भी विभक्त किया। वहीं डा. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन इस प्रकार किया है- उदय काल – (1826 से 1867) भारतेंदु युग – (1867 से 1900) तिलक या द्विवेदी युग – (1900 से 1920) गांधी युग – (1920 से 1947) स्वातंत्रोत्तर युग – (1947 से अब तक) डा. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है – हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867 हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900 हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947 स्वातंत्रोत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक, उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग से किया है। इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है। किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युग का नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर। इनमें एकरूपता का अभाव है। तथापि मोटे तौर पर इसे इस तरह वर्गीकृत किया जा सकता है।
हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव – (1826-1867)
उदंत मार्तण्ड: हालांकि 1816 में राजा राममोहन राय के बंगाल गजट के साथ भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत हो गई थी, लेकिन हिंदी पत्रकारिता की तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर शुरुआत 30 मई 1826 से कोलकाता से कानपुर निवासी पं. युगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रकाशित हिन्दी के प्रथम साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ के साथ ही मानी जाती है। श्री शुक्ल पहले सरकारी नौकरी में थे, लेकिन उन्होंने उसे छोड़कर समाचार पत्र का प्रकाशन करना उचित समझा। हालांकि हिन्दी में समाचार पत्र का प्रकाशन करना एक मुस्किल काम था, क्योंकि उस दौरान इस भाषा के लेखन में पारंगत लोग उन्हें नहीं मिल पा रहे थे। उन्होंने अपने प्रवेशांक में लिखा था कि ‘यह उदन्त मार्तण्ड’ हिन्दुस्तानियों के हित में पहले-पहल प्रकाशित है, जो आज तक किसी ने नहीं चलाया। अंग्रेजी, पारसी और बंगला में समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों को जानने वालों को ही होता है और सब लोग पराए सुख से सुखी होते हैं। इससे हिन्दुस्तानी लोग समाचार पढ़े और समझ लें, पराई अपेक्षा न करें और अपनी भाषा की उपज न छोड़ें।’ उदंत मार्तण्ड पत्र में ब्रज और खड़ीबोली दोनों के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता था जिसे इस पत्र के संचालक ‘मध्यदेशीय भाषा’ कहते थे। पुस्तकाकार (20 अंगुल लंबा व 15 अंगुल चौड़ा, 12 गुणा 8 इंच के आकार) में छपता था और हर मंगलवार को निकलता था। इसमें सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति, सरकारी विज्ञप्ति, जनता के विज्ञापन, पानी के जहाजों की समय सारणी, कलकत्ता के बाजार भाव, तथा देख-दुनिया की खबरें प्रमुखता से छपती थीं। इसका मूल्य प्रति अंक आठ आने और मासिक दो रुपये था। क्योंकि इस अखबार को सरकार विज्ञापन देने में उपेक्षा पूर्ण रवैया अपनाती थी, इसे डाक सुविधा भी नहीं दी गई। यह आर्थिक संकट, सरकारी सहयोग के अभाव और बंगाल में हिन्दी के जानकारों और ग्राहकों की कमी, कम्पनी सरकार के प्रतिबन्धों से अधिक नहीं लड़ पाया। इसके कुल 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए थे कि आर्थिक संकट और आखिरकार ठीक 18 महीने के पश्चात सन् 1827 में इसे बंद करना पड़ा। अलबत्ता, इस अखबार ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने का काम तो कर ही दिया। उन्होंने अपने अंतिम पृष्ठ में लिखा-
‘आज दिवस को उग चुक्यो मार्तण्ड उदन्त।अस्तांचल को जात है दिनकर अब दिन अंत।’
आगे 1850 में पं. शुक्ल ने सामदण्ड मार्तण्ड या साम्यदंड मार्तण्ड नाम का एक अन्य पत्र भी प्रकाशित किया।
गिल क्राइस्ट नाम के अंग्रेज की भी कलकत्ता में हिंदी का श्रीगणेश करने वाले विद्वानों में गिनती की जाती हैं। बताया जाता है कि 1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, जो 1850 में 28 और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अखबारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से लेकर दो-तीन साल तक जीवित रहे। उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे, और उसके साथ समाज-सुधार की भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचार वालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी-भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो ?
हिंदी पत्रकारिता को हिंदी पट्टी में आने में इसके बाद भी करीब 28 वर्ष लग गए। जनवरी 1845 में राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिंद’ ने पंडित गोविंद रघुनाथ धत्ते के संपादकत्व में हिंदी पत्र ‘बनारस अखबार’ का प्रकाशन शुरू किया, जो हिंदी प्रदेश का पहला हिंदी समाचार पत्र था। शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे, और अपने पत्र में उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। बावजूद बनारस अखबार देवनागरी लिपि में छपता था, किंतु इसमें उर्दू भाषा का प्रयोग होता था। लेकिन राजा के शिष्य भारतेंदु हरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी, और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया।
एक खास बात यह भी है कि 1921 तक बनारस अखबार को ही हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता था। मॉडर्न रिव्यू और प्रवासी पत्रों के उप संपादक ब्रजेंद्र नाथ बंद्योपाध्याय को बंगला समाचार पत्रों को खोजते हुए राधाकांत देव पुस्तकालय में उद्दंत मार्तण्ड की प्रतियां मिलीं, तब जाकर हिंदी समाचार पत्रों का इतिहास 1845 से खिसककर 1826 तक पहुंचा। बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ के 21 जून 1834 के अंक से ‘प्रजामित्र’ नामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने की सूचना भी मिलती है। लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसके प्रकाशन को संदिग्ध माना है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। उन्होंने मात्र 15 वर्ष की अवस्था से ही साहित्य सेवा प्रारंभ कर दी थी, और 1868 में वह मात्र 18 वर्ष की ही आयु में ही न केवल पत्रकार वरन ‘कवि वचन सुधा’ नामक पत्रिका के मुख्य सम्पादक हो गए थे, जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। आगे 20 वर्ष की अवस्था में ही वह ‘ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट’ बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। 1873 में 23 वर्ष की आयु में अंग्रेजी में ‘हरिश्चंद मैगजीन’, हिंदी में ‘हरिश्चंद पत्रिका’ और 1874 में महिलाओं की शिक्षा के लिए ‘बालवोधिनी’ नामक तीन और पत्रिकाओ के मुख्य सम्पादक के रूप में हिंदी की सेवा शुरू की। इस विलक्षण व्यक्तित्व ने मात्र 17 साल के लेखक जीवन में हिंदी के एक ऐसे स्वरुप को विकसित किया जिसे आज पूरा भारत स्वीकार करता है। भारतेन्दु के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण हीं 1857 से 1900 तक के काल को हिंदी का भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है। उनकी मृत्यु मात्र 35 वर्ष की आयु में 6 जनवरी 1885 को हो गयी थी। हिंदी के बारे में उनका कहना था-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
इसी दौरान 1854 में हिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्र ‘सुधा वर्षण’ और 1868 में देश का पहला सांध्य समाचार पत्र ‘मद्रास मेल’ शुरू हुआ। इसके साथ ही हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी ‘भारतमित्र’ (1878) ‘सार सुधानिधि’ (1879) और ‘उचितवक्ता’ (1880) आदि के साथ लगातार आगे बढ़ता रहा। इस बीच 1887 में कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह ने पं. मदन मोहन मालवीय जी कि संपादकत्व में ‘हिन्दोस्थान’ नाम समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया था। बाद में मालवीय जी ने स्वयं ‘अभ्युदय’ नामक पत्रिका निकाली। बालमुकुन्द गुप्त, अमृतलाल चक्रवर्ती, गोपाल राम गहमरी आदि भी इस युग के प्रमुख संपादक थे।
भारतीय पत्रकारिता में प्रखर राष्ट्रवाद का आगमन का काल (1867-1900)
1854 में श्यामसुंदर सेन के संपादकत्व में प्रकाशित पहले हिंदी दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण’ के साथ भारतीय पत्रकारिता में प्रखर राष्ट्रवाद का श्रीगणेश भी हुआ। रविवार के अतिरिक्त हर दिन प्रकाशित होने वाले और लगभग 14 वर्षों तक प्रकाशित हुए इस दैनिक समाचार पत्र ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर का अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने का आह्वान करने वाला फरमान भी छाप दिया, जिस पर सेन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा चला और इस पत्र को अंग्रेजों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा।
इसके बाद देश के पहले गदर की पृष्ठभूमि में आए दो पत्र ‘पयामे आजादी‘ और ‘युगांतर’ ने हिंदी पत्रकारिता की दिशा को उग्र राष्ट्रवाद में बदल दिया। ऐसे पत्रों के आलोक में ही जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी ने एक जगह लिखा है, ‘जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का संबंध है भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नही समाचार पत्रों से शुरु हुआ।’ इस कड़ी में निम्न पत्र प्रमुख रहे।
पयामे आजादी स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी नेता अजीमुल्ला खां ने 8 फरवरी 1857 को दिल्ली से ‘पयामे आजादी’ पत्र प्रारंभ किया। अल्पकाल तक जीवित रहे इस पत्र की प्रखर व तेजस्वी वाणी से अंग्रेज सरकार इससे इतनी आतंकित हुई कि जिस किसी के पास भी इस पत्र की कॉपी पायी जाती, उसे गद्दार और विद्रोही समझ कर गोली से उड़ा दिया जाता, या अन्य को सरकारी यातनायें झेलनी पड़ती थी। इसकी प्रतियां जब्त कर ली गयी फिर भी इसने जन-जागृति फैलाना जारी रखा।
इस पत्र के प्रकाशक एवं मुद्रक नवाब बहादुरशाह जफ़र के पौत्र केदार बख़्त थे। पहले यह यह समाचार पत्र उर्दू में निकाला गया और बाद में हिन्दी में भी इसका प्रकाशन हुआ। पयामे आज़ादी में अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध सामग्री होती थी, पत्र ने दिल्ली की जनता में स्वतंत्रता की अग्नि को फैलाया। पयामे आजादी के अंक में स्वतंत्रता संग्राम की अगवानी करने वाले मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के फरमान व आजादी का झण्डा गीत प्रकाशित करने को जुर्म करार देते हुए संपादक को फांसी पर लटका दिया गया। इसी पत्र में भारत का तत्कालीन राष्ट्रीय गीत भी छपा था, जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्नलिखित थीं-
“हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा।।
आज शहीदों ने तुझको, अहले वतन ललकारा।
तोड़ो ग़ुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा।।”
अमृत बाजार पत्रिका वर्ष 1868 में बंगाल के छोटे से गांव अमृत बाजार से हेमेन्द्र कुमार घोष, शिशिर कुमार घोष और मोतीलाल घोष के संयुक्त प्रयास से एक बांग्ला साप्ताहिक पत्र ‘अमृत बाजार पत्रिका’ शुरू हुआ। बाद में यह कलकत्ता से बांग्ला और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में छपने लगी। आगे 1891 में 1878 के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से बचने के लिये इसे पूर्णतः अंग्रेजी साप्ताहिक बना दिया गया। यह अत्याधिक लोकप्रिय राष्ट्रवादी पत्र रहा, इसने वृहद राष्ट्रीय विचारों का प्रचार किया। सरकारी नीतियों की कटु आलोचना के कारण इस पत्र का दमन भी हुआ। इसके कई संपादकों को जेल की भी सजा भुगतनी पड़ी। जब ब्रिटिश सरकार ने धोखे से कश्मीर मे राजा प्रताप सिंह को गद्दी से हटा दिया और कश्मीर को अपने कब्जे में लेना चाहा तो इस पत्रिका ने इतना तीव्र विरोध किया कि सरकार को राजा प्रताप सिंह को राज्य लौटाना पड़ा।
युगांतर इंग्लेंड में जन्मे और महर्षि अरविंद के छोटे वारींद्र घोष द्वारा वर्ष 1906 में भूपेंद्र नाथ दत्त के साथ मिलकर प्रकाशित किया गया पत्र ‘युगांतर’ वास्तव में युगांतरकारी पत्र था। कहते हैं कि इस पत्र का संपादक कौन है, यह कोई जान नही पाता था। अनेक लोगों ने समय-समय पर अपने आपको इस पत्र का संपादक घोषित किया और जेल गये। अंग्रेज सरकार ने दमनकारी कानून बनाकर पत्र को बंद किया गया। युगांतर का जन्म वारींद्र द्वारा पूर्व में स्थापित संस्था-अनुशीलन समिति के तहत हुआ था, जिसका उद्देश्य बताया गया था-खून के बदले खून। बाद में वारींद्र को एक अंग्रेज किंग्सफोर्ड की हत्या के आरोप में पहले फंासी और बाद में उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी। चीफ जस्टिस सर लारेंस जैनिकसन ने इस पत्र की विचारधारा के बारे में लिखा था, ‘इसकी हर एक पंक्ति से अंग्रेजों के विरुद्ध द्वेष टपकता है। प्रत्येक शब्द में क्रांति के लिये उत्तेजना झलकती है।’ इस पत्र के एक अंक में तो बम बनाने की विधि भी बतायी गई थी। जबकि तीन वर्ष चले इस पत्र केे 1909 में छपे अंतिम अंक में इसका मूल्य बताया गया था-‘फिरंगदि कांचा माथा’’ यानी फिरंगियों का तुरंत कटा हुआ सिर’।
‘पत्रकारों के पैरों के छालों से इतिहास लिखा जाता है’ महादेवी वर्मा के द्वारा कहे गए वाक्य का एक-एक शब्द स्वतंत्रता आन्दोलन में पत्रकारों की भूमिका को स्पष्ट करता जान पड़ता है। वहीं अकबर इलाहाबादी ने ‘खीचैं न कमानों को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो’ कहकर सारे देश में एक ऐसी लहर पैदा की कि हर कोने से समाचार पत्र व पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो गया। तब पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन व संपादन करना काटों की सेंज से कम नहीं था। ‘स्वराज्य’ के संपादक पद के लिए छपा यह विज्ञापन इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है-
‘‘चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन-दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी और प्रत्येक संपादकीय के लिए दस साल जेल।’’
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक 19वीं सदी के आखिरी दो दशकों में भारतीय पत्रकारिता पर प्रखर राष्ट्रवादी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का प्रभाव देखा जाता है। 1 जनवरी 1881 से लोकमान्य तिलक ने विष्णु शास्त्री चिपलणकर के साथ मिलकर मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ साप्ताहिक पत्र निकाले। तिलक और उनके साथियों ने केसरी के प्रकाशन की उदघोषणा में कहा था, ‘हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम हर विषय पर निष्पक्ष ढंग से तथा हमारे दृष्टिकोण से जो सत्य होगा उसका विवेचन करेंगे। निःसंदेह आज भारत में ब्रिटिश शान में चाटुकारिता की प्रवृति बढ़ रही है। सभी ईमानदार लोग यह स्वीकार करेंगे कि यह प्रवृति अवांछनीय तथा जनता के हितों के विरुद्ध है। इस प्रस्तावित समाचार पत्र (केसरी) में जो लेख छपेंगे वे इनके नाम के ही अनुरूप होंगे।’ केसरी और मराठा ने महाराष्ट्र में जनचेतना फैलाई तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में स्वर्णिम योगदान दिया। उन्होंने भारतीय जनता को दीन-हीन व दब्बू पक्ष की प्रवृति से उठ कर साहसी निडर व देश के प्रति समर्पित होने का पाठ पढ़ाया। तिलक के पत्रों में एक ही बात प्रमुखता से उभर कर आती थी-‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ कहा जाता है कि वर्ष 1896 में महाराष्ट्र में भारी अकाल पड़ा, तथा बंबई में प्लेग की महामारी फैली। इस कारण हजारों लोगों की मौत हुई। अंग्रेज सरकार ने लोगों के उपचार के बजाय स्थिति संभालने के नाम पर सेना बुलायी, और घर-घर लोगों की तलाशी लेनी शुरू कर दी, जिससे जनता में क्रोध पैदा हो गया। तिलक ने इस पर केसरी के माध्यम से सरकार की कड़ी आलोचना की। केसरी में उनके लिखे लेख के कारण उन्हें 18 महीने कारावास की सजा दी गयी।
हिन्दी पत्रकारिता के विकास (उत्थान) का काल-(1900-1947)
इस युग में पत्रकारिता का उद्देश्य जनता में राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत करना रहा। 1900 का वर्ष हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इसी वर्ष नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से बंगाली बाबू चिन्तामणि घोष द्वारा प्रकाशित ‘सरस्वती’ पत्रिका अपने समय की युगान्तरकारी पत्रिका रही है। अपनी छपाई, सफाई, कागज और चित्रों के कारण यह शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई। इसके सम्पादक मण्डल में बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिका प्रसाद खत्री, जगन्नाथ दास रत्नाकर, किशोरी दास गोस्वामी तथा प्रसिद्ध हिंदी लेखक बाबू श्यामसुन्दर दास थे। आगे 1903 में इसके सम्पादन का भार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को मिला, और यहां से यानी 1903 से 1920 तक के दौर को द्विवेदी युग भी कहा जाता है। सरस्वती के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य हिंदी-प्रेमियों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भंडार की पुष्टि, वृद्धि और पूर्ति करना था। हिन्दी के भाषाई स्तर पर विकास के इस दौर में कोलकाता से ‘भारतमित्र’, प्रयाग सेे ‘हिन्दी प्रदीप’ व कानपुर से ‘ब्राह्मण’ जैसे पत्रों ने हिन्दी पत्रकारिता की एक नई परंपरा स्थापित की। उस समय जब विश्व में कहीं लड़ाई होती थी तो उसका सीधा प्रभाव समाचार पत्रों पर पड़ता था। युद्ध के दौरान ‘राजस्थान समाचार’ को दैनिक पत्र का दर्जा प्राप्त हो गया, परन्तु जब युद्ध बंद हो गया तो वह दैनिक भी बंद हो गया। ‘भारतमित्र’ का भी दो बार दैनिक के रूप में प्रकाशन हुआ था परन्तु वह अल्प अवधि तक ही जीवित रह सका। कानपुर से महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’, काशी का ‘आज’, प्रयाग का ‘अभ्युदय’ दिल्ली से स्वामी श्रद्धानन्द का ‘अर्जुन’ और फिर उनके पुत्र पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति का ‘वीर अर्जुन’ ऐसे पत्र थे, जो निश्चित उद्देश्यों और विचारों को लेकर प्रकाशित किए गए थे। स्वाधीनता के समय तक दिल्ली में बचे दैनिक पत्रों में ‘वीर अर्जुन’ सबसे पुराना था।
गणेश शंकर विद्यार्थी
हिंदी पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी को आजादी के आंदोलन के दौरान कलम और वाणी दोनों से महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों के साथ ही क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करने, आंदोलनकारियों को वैचारिक ताकत देने के साथ ही पत्रकारिता को निष्पक्ष और समाजोपयोगी तेवर देने वाले पत्रकारों में सबसे अग्रणी के साथ ही देश का पहला शहीद पत्रकार भी माना जाता है। कानपुर में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों के दौरान निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च 1931 वे अताताइयों के हाथों साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। उन्होंने अपनी कलम से देश में सुधार की क्रांति उत्पन्न की थी, और अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘सरस्वती’ से पत्रकारिता की शुरुआत की और आगे ‘प्रभा’ और अक्टूबर 1913 में ‘प्रताप’ (साप्ताहिक) के संपादक बने।1910 ई. तक अध्यापकी के दौरान से उन्होंने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता (कलकत्ता) में लेखन की शुरुवात कर दी थी। 1911 में वे सरस्वती में पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। कुछ समय बाद ‘सरस्वती’ छोड़कर ‘अभ्युदय’ में सहायक संपादक हुए। यहाँ सितंबर, 1913 तक रहे। दो महीने बाद ही 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला। इसी समय से उनका राजनीतिक, सामाजिक और प्रौढ़ साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ। लोकमान्य तिलक , महात्मा गांधी और एनीं बेसेंट के ‘होमरूल’ आंदोलन से जुड़े। कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर ‘प्रताप’ में लेख लिखने पर वे 5 बार जेल गए और ‘प्रताप’ से कई बार जमानत माँगी गई। बावजूद ‘प्रताप’ को उन्होंने 7 वर्ष के भीतर ही 1920 में दैनिक कर दिया और ‘प्रभा’ नाम की एक साहित्यिक तथा राजनीतिक मासिक पत्रिका भी अपने प्रेस से निकाली। ‘प्रताप’ किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा। उसमें देशी राज्यों की प्रजा के कष्टों पर विशेष सतर्क रहते थे। ‘चिट्ठी पत्री’ स्तंभ ‘प्रताप’ की निजी विशेषता थी। उन्होंने अनेक नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि बनने की प्रेरणा तथा ट्रेनिंग दी। वे प्रताप में सुरुचि और भाषा की सरलता पर विशेष ध्यान देते थे। फलत: सरल, मुहावरेदार और लचीलापन लिए हुए चुस्त हिंद की एक नई शैली का इन्होंने प्रवर्तन किया। कई उपनामों से भी ये प्रताप तथा अन्य पत्रों में लेख लिखा करते थे।
इसी बीच 1900 में जीए नटेशन ने मद्रास से ‘इंडियन रिव्यू’ और 1907 में कलकत्ता से रामानन्द चटर्जी ने ‘मॉडर्न रिव्यू’ का प्रकाशन शुरू किया। मॉडर्न रिव्यू उस दौर में देश का सबसे अधिक विख्यात अंग्रेजी मासिक सिद्ध हुआ। इसने इंडियन नेशनल कांग्रेस में प्रायः दक्षिणपंथियों का समर्थन किया। 1913 में बीजी हार्नीमन के संपादकत्व में फिरोजशाह मेहता ने ‘बांबे क्रानिकल’, 1918 में ‘सर्वेंटस आफ इंडिया सोसाइटी’ ने श्रीनिवास शास्त्री के संपादकत्व में अपना मुखपत्र ‘सर्वेंट आफ इंडिया’ निकालना शुरू किया। इसने उदारवादी राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देश की समस्याओं का विश्लेषण और समाधान प्रस्तुत किया। 1939 में इसका प्रकाशन बंद हो गया। 1923 के बाद धीरे-धीरे समाजवादी व साम्यवादी विचार भारत में फैलने लगे। वर्कर्स एंड प्लेसंट पार्टी आफ इंडिया का मुखपत्र ‘मराठी साप्ताहिक क्रांति’, मर्ट कांसपिरेसी केस के एमजी देसाई और लेस्टर हचिंसन के संपादकत्व में मार्क्सवाद के प्रचार और राष्ट्रीय स्वतंत्रता एवं किसान-मजदूरों के स्वतंत्र राजनीतिक आर्थिक संघर्षों को समर्थन प्रदान करने के उद्देश्य से अंग्रेजी साप्ताहिक ‘स्पार्क’ और ‘न्यू स्पार्क’ प्रकाशित हुए। इस बीच 1919 में ही पंडित मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद से अंग्रेजी दैनिक-इंडीपेंडेंस का प्रकाशन शुरू किया। वहीं 1922 में स्वराज पार्टी ने दल के कार्यक्रमों के प्रचार के लिये दिल्ली से केएम पन्नीकर के संपादकत्व में अंग्रेजी दैनिक हिन्दुस्तान टाइम्स का प्रकाशन शुरू किया। इसी दौरान लाला लाजपत राय के प्रयासों से लाहौर से अंग्रेजी राष्ट्रवादी दैनिक ‘प्यूपल’ का प्रकाशन शुरू किया गया।1930 और 1939 के बीच मजदूरों किसानों के आंदोलनों का विस्तार हुआ और उनकी ताकत बढ़ी। कांग्रेस से विकसित हुए समाजवादी-साम्यवादी विचारों के तहत स्थापित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने आधिकारिक पत्र के रूप में ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ का प्रकाशन किया। इसी तरह कम्युनिस्टों के प्रमुख पत्र ‘नेशनल फ्रंट’ और ‘प्युपल्स वार’ नाम से अंग्रेजी सप्ताहिक पत्र प्रकाशित हुए। वहीं एमएन रॉय के विचार अधिकारिक साम्यवाद से भिन्न थे। उन्होंने अपना अलग दल कायम किया, जिसका मुखपत्र ‘इंडीपेंडेंट इंडिया’ था। इसी दौर में 1936 में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के साथ इसका हिन्दी संस्करण ‘हिन्दुस्तान’ भी प्रकाशित हुआ। आगे मार्च 1947 में ‘नवभारत’, ‘विश्वमित्र’ और एक दैनिक पत्र ‘नेताजी’ के नाम से प्रकाशित हुआ था।
महात्मा गांधी युग (1920-1947)
1920 के दौर में भारतीय राजनीति में राजनीतिक चाणक्य के रूप में महात्मा गांधी का उदय हुआ, जिसके साथ हिंदी पत्रकारिता की उग्रता कुछ कम हुई तो समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी कलम चलने लगी। गांधी ने सर्वप्रथम 4 जून 1903 में दक्षिण अफ्रीका से ‘इंडियन ओपिनियन’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया, जिसके सभी अंक से अंग्रेजी, हिन्दी, तथा गुजराती भाषा में छः कॉलम प्रकाशित होते थे। आगे उन्होंने 1919 में अंग्रेजी में ‘यंग इंडिया’ और जुलाई 1919 से हिन्दी-गुजराती में ‘नवजीवन’ का प्रकाशन आरंभ किया, और इनके माध्यम से अपने राजनीतिक दर्शन कार्यक्रम और नीतियों का प्रचार किया। इन पत्रों में हर सप्ताह महात्मा गांधी के विचार प्रकाशित होते थे। लेकिन जल्द ही ब्रिटिश शासन द्वारा पारित कानूनों के कारण और जनमत के अभाव में ये पत्र बंद हो गये। आगे 1933 में गांधी ने समाज के उपेक्षित व अस्पृक्ष्य वर्ग को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए अंग्रेजी में ‘हरिजन’ और हिन्दी में ‘हरिजन सेवक’ तथा गुजराती में ‘हरिबन्धु’ का प्रकाशन किया तथा ये पत्र स्वतंत्रता तक छपते रहे।
स्वतंत्रता आंदोलनों में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका
बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। कानपुर से 1920 में प्रकाशित ‘वर्तमान’ ने असहयोग आन्दोलन को अपना व्यापक समर्थन दिया था। पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक पत्र ‘अभ्युदय’ उग्र विचारधारा का पक्षधर था। अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मदन मोहन मालवीय व पंडित जवाहरलाल नेहरू के लेख प्रकाशित हुए।
जिसके परिणामस्वरूप इन पत्रों को प्रतिबंध व जुर्माने का सामना करना पड़ा। इस दौर में शिवप्रसाद गुप्त, गणेशशंकर विद्यार्थी, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराम विष्णु पराड़कर आदि स्वनामधन्य पत्रकार इसी युग के हैं, जिन्होंने 5 सितंबर 1920 को ‘आज’ समाचार पत्र प्रारंभ किया था। कर्मवीर, प्रताप, हरिजन, नवजीवन, इंडियन ओपीनियन आदि दर्जनों पत्र पत्रिकाओं ने उस युग में स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई उर्जा प्रदान की। गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’, सज्जाद जहीर एवं शिवदान सिंह चौहान के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाला ‘नया हिन्दुस्तान’ राजाराम शास्त्री का ‘क्रांति’ व यशपाल का ‘विप्लव’ अपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी तेवर वाले पत्र थे। इन पत्रों में क्रांतिकारी युगांतकारी लेखन ने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी थी। अपने संपादकीय, लेखों, कविताओं के जरिए इन पत्रों ने सरकार की नीतियों की लगातार भर्त्सना की। ‘नया हिन्दुस्तान’ और ‘विप्लव’ के जब्तशुदा प्रतिबंधित अंकों को देखने से इनकी वैश्विक दृष्टि का पता चलता है। फासीवाद के उदय और बढ़ते साम्राज्यवाद व पूंजीवाद पर चिंता इन पत्रों में साफ देखी जा सकती है।
गोरखपुर से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ को जीवंतपर्यंत अपने उग्र विचारों और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण समय-समय पर अंग्रेजी सरकार के कोप का शिकार होना पड़ा। खासकर विजयांक विशेषांक को। इस दौरान ही प्रकाशित आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा संपादित ‘चांद’ के फांसी अंक की चर्चा भी जरूरी है। काकोरी के अभियुक्तों को फांसी के लगभग एक साल बाद, इलाहाबाद से प्रकाशित चांद का फांसी अंक क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमूल्य निधि है। यह अंक क्रांतिकारियों की गाथाओं से भरा हुआ है। सरकार ने अंक की जनता में जबर्दस्त प्रतिक्रिया और समर्थन देख इसको फौरन जब्त कर लिया और रातों-रात इसके सारे अंक गायब कर दिये। अंग्रेज हुकूमत एक तरफ क्रांतिकारी पत्र-पत्रिकाओं को जब्त करती रही, तो दूसरी तरफ इनके संपादक इन्हें बिना रुके पूरी निर्भिकता से निकालते रहे। सरकारी दमन इनके हौसलों पर जरा भी रोक नहीं लगा सका। पत्र-पत्रिकाओं के जरिए उनका यह प्रतिरोध आजादी मिलने तक जारी रहा।
स्वाधीनता संघर्ष के दौर के भारतीय क्रांतिकारी पत्रः
इन पत्रों के अलावा भी भारत के स्वाधीनता संघर्ष में पत्र-पत्रिकाओं की अहम भूमिका रही है। आजादी के आंदोलन में भाग ले रहा हर आम-ओ-खास कलम की ताकत से भिज्ञ था। राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदन मोहन मालवीय व डा. भीमराव अम्बेडकर जैसे आला दर्जे के नेता सीधे तौर पर पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े हुए थे और नियमित लिख रहे थे। इसका असर देश के सुदूर गांवों में रहने वाले देशवासियों पर पड़ रहा था। अंग्रेजी सरकार को इस बात का अहसास था, लिहाजा उसने शुरू से ही प्रेस के दमन की नीति अपनाई। पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकले हिंदी के पहले समाचार पत्र ‘उदंत्त मार्तण्ड’ के साथ ही समाचार सुधावर्षण, अभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, युद्धवीर, क्रांतिवीर, स्वदेश, नया हिन्दुस्तान, कल्याण, हिंदी प्रदीप, ब्राह्मण, बुन्देलखंड केसरी, मतवाला सरस्वती, विप्लव, अलंकार, चाँद, हंस, प्रताप, सैनिक, क्रांति, बलिदान, वालिंटियर आदि जनवादी पत्रिकाओं ने आहिस्ता-आहिस्ता लोगों में सोये हुए वतनपरस्ती के जज्बे को जगाया और क्रांति का आह्नान किया। नतीजतन उन्हें सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। दमन, नियंत्रण के दुश्चक्र से गुजरते हुए उन्हें कई प्रेस अधिनियमों का सामना करना पड़ा। ‘वर्तमान पत्र’ में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखा ‘राजनीतिक भूकम्प’ शीर्षक लेख, ‘अभ्युदय’ का भगत सिंह विशेषांक, किसान विशेषांक, ‘नया हिन्दुस्तान’ के साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और फॉसीवादी विरोधी लेख, ‘स्वदेश’ का विजय अंक, ‘चांद’ का अछूत अंक, फांसी अंक, ‘बलिदान’ का नववर्षांक, ‘क्रांति’ के 1939 के सितम्बर, अक्टूबर अंक, ‘विप्लव’ का चंद्रशेखर अंक अपने क्रांतिकारी तेवर और राजनीतिक चेतना फैलाने के इल्जाम में अंग्रेजी सरकार की टेढ़ी निगाह के शिकार हुए और उन्हें जब्ती, प्रतिबंध, जुर्माना का सामना करना पड़ा। संपादकों को कारावास भुगतना पड़ा।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में एक से अधिक भाषा वाले भाषाई पत्र
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में हिन्दू-मुसलमान दोनों सांप्रदायिकता के खतरे को समझते थे। उन्हें पता था कि साम्प्रदायिकता साम्राज्यवादियों का एक कारगर हथियार है। पत्रकारिता के माध्यम से भी साम्प्रदायिक वैमनस्य के खिलाफ लड़ाई तेज की गयी थी। भाषाई पृथकतावाद के खतरे को देखते हुए एक से अधिक भाषाओं में पत्र निकाले जाते थे। जिसमें द्विभाषी पत्रों की संख्या अधिक थी।
हिन्दी और उर्दू पत्र
मजहरुल सरुर, भरतपुर 1850, पयामे आजादी, दिल्ली 1857, ज्ञान प्रदायिनी, लाहौर 1866, जबलपुर समाचार, प्रयाग 1868, सरिश्ते तालीम, लखनऊ 1883, राजपूताना गजट, अजमेर 1884, बुंदेलखंड अखबार, ललितपुर 1870, सर्वहित कारक, आगरा 1865, खैरख्वाहे हिन्द, मिर्जापुर 1865, जगत समाचार, प्रयाग 1868, जगत आशना, आगरा 1873, हिन्दुस्तानी, लखनऊ 1883, परचा धर्मसभा, फर्रुखाबाद 1889। इनके अलावा समाचार सुधा वर्षण, हिन्दी और बांग्ला, कलकत्ता 1854, हिन्दी प्रकाश, हिन्दी, उर्दू व गुरुमुखी, अमृतसर 1873, मर्यादा परिपाटी समाचार, संस्कृत व हिन्दी, आगरा 1873 भी बहुभाषी पत्र थे, जबकि 1846 में कलकत्ता से प्रकाशित ‘इंडियन सन’ व ‘हिन्दू हेरोल्ड’ पांच भाषाओं हिन्दी फारसी अंग्रेजी बांगला और उर्दू में, 1870 में नागपुर से हिन्दी, उर्दू व मराठी में नागपुर गजट प्रकाशित होते थे। राजा राम मोहन राय का ‘बंगदूत’ भी बांग्ला, फारसी, हिन्दी व अंग्रेजी भाषाओं में छपता था।
गुजराती बंबई में देशी प्रेस के प्रणेता फरदून जी मर्जबान ने 1822 में गुजराती में ‘बांबे समाचार’ (मुंबईना समाचार) शुरु किया जो आज भी दैनिक पत्र के रुप में निकलता है। 1851 में बंबई में गुजराती के दो और पत्रों ‘रस्त गोफ्तार’ और ‘अखबारे सौदागर’ की स्थापना हुई। दादा भाई नौरोजी ने रस्त गोफ्तार का संपादन किया। यह गुजराती भाषा का प्रभावशाली पत्र था। 1831 में बंबई से पीएम मोतीबाला ने गुजराती पत्र ‘जामे जमशेद’ शुरु किया।
मराठी सूर्याजी कृष्णजी के संपादन में 1840 में मराठी का पहला पत्र ‘मुंबई समाचार’ शुरु हुआ। 1842 में कृष्णजी तिम्बकजी रानाडे ने पूना से ज्ञान प्रकाश पत्र प्रकाशित किया। 1879-80 में बुरहारनपुर से मराठी साप्ताहिक पत्र ‘सुबोध सिंधु’ का प्रकाशन लक्ष्मण अनन्त प्रयागी द्वारा शुरू किया गया। यह भी कहा जाता है कि मध्य भारत में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का विकास मराठी पत्रों के सहारे ही हुआ था।
1947 के बाद का आधुनिक हिंदी युग-
अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आजादी के बाद आया। 1947 में देश को आजादी मिल गई। ऐसे में राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र को गुलामी से आजाद कराने के लिए निकले अनेकों समाचार पत्रों के उद्देश्य पूरे भी हो गए, और पत्रकारिता उद्योग में तब्दील होने लगी। वहीं लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ। औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई, जिससे पत्रों का संगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ, तथा रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अब तक के वर्षों की हिन्दी पत्रकारिता की विकास यात्रा को आधुनिक युग में रखा जाता है। इस युग में पत्रकारिता के विषय क्षेत्र का विस्तार और नए आयामों का उद्भव हुआ। आधुनिक दौर में ही अखबारों में प्रबंधन और विज्ञापन के बड़ते प्रभाव का असर भी विकृतियों के रूप में बढ़ता जा रहा है। खोजी पत्रकारिता का समावेश भी तेजी से अखबारों को अपनी चपेट में ले रहा है। ज्यादातर अखबार इंटरनेट पर भी अपने सारे संस्करण उपलब्ध करा रहे हैं।
एक शताब्दी से अधिक पुराने समाचार पत्र
1 बाम्बे समाचार, गुजराती दैनिक, बंबई 1822 2 क्राइस्ट चर्च स्कूल (बंबई शिक्षा समिति की पत्रिका) द्विभाषी वार्षिक पत्र, बंबई 1825 3 जाम-ए-जमशेद, गुजराती दैनिक, बंबई 1832 4 टाइम्स आफ इंडिया अंग्रेजी दैनिक, बंबई 1838 5 कैलकटा रिव्यू, अंग्रेजी त्रैमासिक कलकत्ता 1844 6 तिरुनेलवेलि डायोसेजन मैगजीन, तमिल मासिक तिरुनेलवेलि 1849 7 एक्जामिनर, अंग्रेजी साप्ताहिक, बंबई 1850 8 गार्जियन, अंग्रेजी पाक्षिक, मद्रास 1851 9 ए इंडियन, पुर्तगाली साप्ताहिक, मारगांव 1861 10 बेलगाम समाचार, 10 मराठी साप्ताहिक बेलगाम 1863 11 न्यू मेन्स ब्रैड्शा, अंग्रेजी मासिक कलकत्ता 1865 12 पायनीयर, अंग्रेजी दैनिक, लखनऊ 1865 13 अमृत बाजार पत्रिका, अंग्रेजी दैनिक कलकत्ता 1868 14 सत्य शोधक, मराठी साप्ताहिक, रत्नगिरी 1871 15 बिहार हैरॉल्ड, अंग्रेजी साप्ताहिक, पटना 1874 16 स्टेट्समैन, (द) अंग्रेजी दैनिक, कलकत्ता 1875 17 हिन्दू, अंग्रेजी दैनिक, मद्रास 1878 18 प्रबोध चंद्रिका, मराठी साप्ताहिक, जलगांव 1880 19 केसरी, मराठी दैनिक पुणे 1881 20 आर्य गजट, उर्दू साप्ताहिक, दिल्ली 1884 21 दीपिका, मलयालम दैनिक, कोट्टायम 1887 22 न्यू लीडर,अंग्रेजी साप्ताहिक, मद्रास 1887 23 कैपिटल, अंग्रेजी साप्ताहिक, कलकत्ता 1888 19वीं शताब्दी में प्रकाशित भारतीय समाचार पत्र
समाचार पत्र संस्थापक/सम्पादक भाषा प्रकाशन स्थान वर्ष
अमृत बाजार पत्रिका मोतीलाल घोष बंगला कलकत्ता 1868 अमृत बाजार पत्रिका मोतीलाल घोष अंग्रेजी कलकत्ता 1878 सोम प्रकाश ईश्वरचन्द्र विद्यासागर बंगला कलकत्ता 1859 बंगवासी जोगिन्दर नाथ बोस बंगला कलकत्ता 1881 संजीवनी के.के. मित्रा बंगला कलकत्ता हिन्दू वीर राघवाचारी अंग्रेजी मद्रास 1878 केसरी बाल गंगाधर तिलक मराठी बम्बई 1881 मराठा बाल गंगाधर तिलक अंग्रेजी हिन्दू एम.जी. रानाडे अंग्रेजी बम्बई 1881 नेटिव ओपीनियन वी.एन. मांडलिक अंग्रेजी बम्बई 1864 बंगाली सुरेन्द्रनाथ बनर्जी अंग्रेजी कलकत्ता 1879 भारत मित्र बालमुकुन्द गुप्त हिन्दी हिन्दुस्तान मदन मोहन मालवीय हिन्दी हिन्द-ए-स्थान रामपाल सिंह हिन्दी कालाकांकर (उत्तर प्रदेश) बम्बई दर्पण बाल शास्त्री मराठी बम्बई 1832 कविवचन सुधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी उत्तर प्रदेश 1867 हरिश्चन्द्र मैगजीन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी उत्तर प्रदेश 1872 हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड सच्चिदानन्द सिन्हा अंग्रेजी 1899 ज्ञान प्रदायिनी नवीन चन्द्र राय हिन्दी 1866 हिन्दी प्रदीप बालकृष्ण भट्ट हिन्दी उत्तर प्रदेश 1877 इंडियन रिव्यू जी.ए. नटेशन अंग्रेजी मद्रास मॉडर्न रिव्यू रामानन्द चटर्जी अंग्रेजी कलकत्ता यंग इंडिया महात्मा गाँधी अंग्रेजी अहमदाबाद 8 अक्टूबर, 1919 नव जीवन महात्मा गाँधी हिन्दी, गुजराती अहमदाबाद 7 अक्टूबर, 1919 हरिजन महात्मा गाँधी हिन्दी, गुजराती पूना 11 फरवरी, 1933 इनडिपेंडेस मोतीलाल नेहरू अंग्रेजी 1919 आज शिवप्रसाद गुप्त हिन्दी हिन्दुस्तान टाइम्स के.एम.पणिक्कर अंग्रेजी दिल्ली 1920 नेशनल हेराल्ड जवाहरलाल नेहरू अंग्रेजी दिल्ली अगस्त, 1938 उदंत मार्तंड जुगल किशोर हिन्दी कानपुर 1826 द ट्रिब्यून दयाल सिंह मजीठिया अंग्रेजी चण्डीगढ़ 1877 अल हिलाल अबुल कलाम आजाद उर्दू कलकत्ता 1912 अल बिलाग अबुल कलाम आजाद उर्दू कलकत्ता 1913 कामरेड मौलाना मुहम्मद अली अंग्रेजी हमदर्द मौलाना मुहम्मद अली उर्दू प्रताप पत्र गणेश शंकर विद्यार्थी हिन्दी कानपुर 1910 गदर गदर पार्टी द्वारा उर्दू/गुरुमुखी सॉन फ्रांसिस्को 1913 गदर गदर पार्टी द्वारा पंजाबी 1914 हिन्दू पैट्रियाट हरिश्चन्द्र मुखर्जी अंग्रेजी 1855 मद्रास स्टैंडर्ड, कॉमन वील, न्यू इंडिया,एनी बेसेंट अंग्रेजी 1914 सोशलिस्ट एस.ए.डांगे अंग्रेजी 1922
अंग्रेजी दौर में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और प्रेस की स्वतंत्रता में तत्कालीन पत्रकारिता की भूमिका
हिक्की भारत के प्रथम पत्रकार थे जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिये ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया। उनके समाचार पत्र की शुरूआत विद्रोह की घोषणा से हुई। उत्तरी अमेरिका निवासी विलियम हुआनी ने हिक्की की परंपरा को समृद्ध किया। 1765 में प्रकाशित ‘बंगाल जनरल’ जो सरकार समर्थक था, 1791 में हुमानी के संपादक बन जाने के बाद सरकार की आलोचना करने लगा। हुआनी की आक्रामक मुद्रा से आतंकित होकर सरकार ने उसे भारत से निष्कासित कर दिया। जेम्स बकिंघम को प्रेस की स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता था। उन्होंने 2 अक्टूबर 1818 को कलकत्ता से अंग्रजी का ‘कैलकटा जनरल’ प्रकाशित किया, जो सरकारी नीतियों का निर्भीक आलोचक था। पंडित अंबिका प्रसाद ने लिखा कि इस पत्र की स्वतंत्रता व उदारता पहले किसी पत्र में नही देखी गयी। कैलकटा जनरल ने उस समय के एंग्लोइंडियन पत्रों को प्रचार-प्रसार में पीछे छोड़ दिया था। एक रूपये मूल्य के इस अखबार का दो वर्ष में सदस्य संख्या एक हजार से अधिक हो गयी थी। 1823 में बकिंघम को देश निकाला दे दिया गया। हालांकि इंगलैंड जाकर उसने आरियंटल हेराल्ड निकाला, जिसमें वह भारतीय समस्याओं और कंपनी के हाथों में भारत का शासन बनाये रखने के खिलाफ लगातार अभियान चलाता रहा। 1861 के इंडियन कांउसिल एक्ट के बाद समाज के उपरी तबकों में उभरी राजनीतिक चेतना से भारतीय व गैरभारतीय दोनों भाषा के पत्रों की संख्या बढ़ी। 1861 में बंबई में टाइम्स आफ इंडिया की, 1865 में इलाहाबाद में पायनियर, 1868 में मद्रास मेल, 1875 में कलकत्ता स्टेटसमैन और 1876 में लाहौर में सिविल ऐंड मिलटरी गजट की स्थापना हुई। ये सभी अंग्रेजी दैनिक ब्रिटिश शासनकाल में जारी रहे। टाइम्स आफ इंडिया ने प्रायः ब्रिटिश सरकार की नीतियों का समर्थन किया। पायनियर ने भूस्वामी और महाजनी तत्वों के पक्ष में तो मद्रास मेल यूरोपीय वाणिज्य समुदाय का पक्षधर था। स्टेटसमैन ने सरकार और भारतीय राष्ट्रवादियों, दोनों की ही आलोचना की थी। सिविल एण्ड मिलिटरी गजट ब्रिटिश दाकियानूसी विचारों का पत्र था। स्टेटसमैन, टाइम्स आफ इंडिया, सिविल एंड मिलिटरी गजट, पायनियर और मद्रास मेल जैसे प्रसिद्ध पत्र अंग्रेजी सरकार और शासन की नीतियों एवं कार्यक्रम का समर्थन करते थे। अमृत बाजार पत्रिका, बांबे क्रानिकल, बांबे सेंटिनल, हिन्दुस्तान टाइम्स, हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड, फ्री प्रेस जनरल, नेशनल हेराल्ड व नेशनल काल अंग्रेजी में छपने वाले प्रतिष्ठित राष्ट्रवादी दैनिक और साप्ताहिक पत्र थे। हिन्दू लीडर, इंडियन सोशल रिफार्मर व माडर्न रिव्यू उदारपंथी राष्ट्रीयता की भावना को अभिव्यक्ति देते थे। इंडियन नेशनल कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों को राष्ट्रीय पत्रों ने पूर्ण और उदारपंथी पत्रों ने आलोचनात्मक समर्थन दिया था। डान मुस्लिम लीग के विचारों का पोषक था। देश के विद्यार्थी संगठनों के अपने पत्र थे, जैसे-स्टूडेंट और साथी। भारत के राष्ट्रीय नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने 1874 में बंगाली (अंग्रेजी) पत्र का प्रकाशन व संपादन किया। इसमें छपे एक लेख के लिये उन पर न्यायालय की अवज्ञा का अभियोग लगाया गया, और दो महीने के कारावास की सजा मिली। बंगाली ने भारतीय राजनीतिक विचारधारा के उदारवादी दल के विचारों का प्रचार किया था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की राय पर दयाल सिंह मजीठिया ने 1877 में लाहौर में अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून की स्थापना की। पंजाब की उदारवादी राष्ट्रीय विचारधारा का यह प्रभावशाली पत्र था। लार्ड लिटन के प्रशासन काल में कुछ सरकारी कामों के चलते जनता की भावनाओं को चोट पहुंची, जिससे राजनीतिक असंतोष बढ़ा और अखबारों की संख्या में वृद्धि हुई। 1878 में मद्रास में वीर राघवाचारी और अन्य देशभक्त भारतीयों ने अंग्रेजी सप्ताहिक ‘हिन्दू’ की स्थापना की। 1889 से यह दैनिक हुआ। हिन्दू का दृष्टिकोण उदारवादी था। लेकिन इसने इंडियन नेशनल कांग्रेस की राजनीति की आलोचना के साथ ही उसका समर्थन भी किया। इससे राष्ट्रीय चेतना का समाज सुधार के क्षेत्र में भी प्रसार हुआ। बंबई में 1890 में ‘इंडियन सोशल रिफार्मर’ अंग्रेजी साप्ताहिक की स्थापना हुई, जिसका मुख्य लक्ष्य समाज सुधार था। 1899 में सच्चिदानंद सिन्हा ने अंग्रेजी मासिक ‘हिन्दुस्तान रिव्यू’ की स्थापना की। इस पत्र का राजनैतिक और वैचारिक ष्टिकोण उदारवादी था।
भारत में प्रेस की स्वतंत्रता में बाधा पैदा करने वाले अधिनियम
समाचार पत्रों के सरकार विरोधी रवैयों के साथ ही सरकार की ओर से उन्हें दबाने के प्रयास भी शुरू हो गए थे। 29 जनवरी 1780 को भारतीय पत्रकारिता के आदिजनक जेम्स ऑगस्टस हिकी द्वारा हिकी’ज बंगाल गजट के रूप में देश में भारतीय पत्रकारिता की नींव पड़ने के साथ ही ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उसका प्रतिवाद करने के लिए ‘इंडिया गजट’ समाचार पत्र के प्रकाशन से मीडिया का गला घोंटने का कुत्सित प्रयास प्रारंभ कर दिया गया था, तथा ‘हिकी गजट’ को विद्रोह के चलते सर्वप्रथम प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। स्वयं हिकी को एक साल की कैद और दो हजार रूपए जुर्माने की सजा हुई। तो भी भारतीय पत्रकारिता में गवर्नर जनरल वेलेजली का नाम प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने वालों में सबसे पहले आता है। देश में पहला प्रेस अधिनियम गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेज़ली के शासनकाल में 1799 में सामने आया। वेलेजली के द्वारा समाचार पत्रों पर ‘पत्रेक्षण अधिनियम’ और जॉन एडम्स द्वारा 1823 में ‘अनुज्ञप्ति नियम’ प्रतिबंध लागू किये गये। इनके कारण राजा राममोहन राय का मिरातुल अखबार बन्द हो गया। कालांतर में 1857 में गैंगिंक एक्ट, 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1908 में न्यूज पेपर्स एक्ट (इन्साइटमेंट अफैंसेज), 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट, 1930 में इंडियन प्रेस आर्डिनेंस, 1931 में दि इंडियन प्रेस एक्ट (इमरजेंसी पावर्स) जैसे दमनकारी कानून अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने के उद्देश्य से लागू किए गये। अंग्रेजी सरकार इन काले कानूनों का सहारा लेकर किसी भी पत्र-पत्रिका पर जब चाहे प्रतिबंध या जुर्माना लगा देती थी। आपत्तिजनक लेख वाले पत्र-पत्रिकाओं को जब्त कर लिया जाता। लेखक, संपादकों को कारावास भुगतना पड़ता व पत्रों को दोबारा शुरू करने के लिए जमानत की भारी भरकम रकम जमा करनी पड़ती थी। इसके बावजूद समाचार पत्र संपादकों के तेवर उग्र से उग्रतर होते चले गए। आजादी के आन्दोलन में जो भूमिका उन्होंने खुद तय की थी, उस पर उनका भरोसा और भी ज्यादा मजबूत होता चला गया। जेल, जब्ती व जुर्माने के डर से उनके हौसले पस्त नहीं हुये।
1857 ई. के संग्राम के बाद भारतीय समाचार पत्रों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और अब वे अधिक मुखर होकर सरकार के आलोचक बन गये। इसी समय बड़े भयानक अकाल से लगभग 60 लाख लोग काल के ग्रास बन गये थे, वहीं दूसरी ओर जनवरी, 1877 में दिल्ली में हुए ‘दिल्ली दरबार‘ पर अंग्रेज़ सरकार ने बहुत ज़्यादा फिजूलख़र्ची की। परिणामस्वरूप लॉर्ड लिटन की साम्राज्यवादी प्रवृति के ख़िलाफ़ भारतीय अख़बारों ने आग उगलना शुरू कर दिया। लिंटन ने 1878 ई. में ‘देशी भाषा समाचार पत्र अधिनियम’ द्वारा भारतीय समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता नष्ट कर दी।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट
‘वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट’ तत्कालीन लोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी समाचार पत्र ‘सोम प्रकाश’ को लक्ष्य बनाकर लाया गया था। दूसरे शब्दों में यह अधिनियम मात्र ‘सोम प्रकाश’ पर लागू हो सका। लिटन के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से बचने के लिए ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ (समाचार पत्र), जो बंगला भाषा की थी, अंग्रेज़ी साप्ताहिक में परिवर्तित हो गयी। सोम प्रकाश, भारत मिहिर, ढाका प्रकाश, सहचर आदि के ख़िलाफ़ मुकदमें चलाये गये। इस अधिनियम के तहत समाचार पत्रों को न्यायलय में अपील का कोई अधिकार नहीं था। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट को ‘मुंह बन्द करने वाला अधिनियम’ भी कहा गया है। इस घृणित अधिनियम को लॉर्ड रिपन ने 1882 ई. में रद्द कर दिया।
समाचार पत्र अधिनियम
लॉर्ड कर्ज़न द्वारा ‘बंगाल विभाजन’ के कारण देश में उत्पन्न अशान्ति तथा ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस‘ में चरमपंथियों के बढ़ते प्रभाव के कारण अख़बारों के द्वारा सरकार की आलोचना का अनुपात बढ़ने लगा। अतः सरकार ने इस स्थिति से निपटने के लिए 1908 ई. का समाचार पत्र अधिनियम लागू किया। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि जिस अख़बार के लेख में हिंसा व हत्या को प्रेरणा मिलेगी, उसके छापाखाने व सम्पत्ति को जब्त कर लिया जायेगा। अधिनियम में दी गई नई व्यवस्था के अन्तर्गत 15 दिन के भीतर उच्च न्यायालय में अपील की सुविधा दी गई। इस अधिनियम द्वारा नौ समाचार पत्रों के विरुद्व मुकदमें चलाये गये एवं सात के मुद्रणालय को जब्त करने का आदेश दिया गया।
1910 ई. के ‘भारतीय समाचार पत्र अधिनियम’ में यह व्यवस्था थी कि समाचार पत्र के प्रकाशक को कम से कम 500 रुपये और अधिक से अधिक 2000 रुपये पंजीकरण जमानत के रूप में स्थानीय सरकार को देना होगा, इसके बाद भी सरकार को पंजीकरण समाप्त करने एवं जमानत जब्त करने का अधिकार होगा तथा दोबारा पंजीकरण के लिए सरकार को 1000 रुपये से 10000 रुपये तक की जमानत लेने का अधिकार होगा। इसके बाद भी यदि समाचार पत्र सरकार की नज़र में किसी आपत्तिजनक साम्रगी को प्रकाशित करता है तो सरकार के पास उसके पंजीकरण को समाप्त करने एवं अख़बार की समस्त प्रतियाँ जब्त करने का अधिकार होगा। अधिनियम के शिकार समाचार पत्र दो महीने के अन्दर स्पेशल ट्रिब्यूनल के पास अपील कर सकते थे।
अन्य अधिनियम
प्रथम विश्व युद्ध के समय ‘भारत सुरक्षा अधिनियम’ पास कर राजनीतिक आंदोलन एवं स्वतन्त्र आलोचना पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 1921 ई. सर तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता में एक ‘प्रेस इन्क्वायरी कमेटी’ नियुक्त की गई। समिति के ही सुझावों पर 1908 और 1910 ई. के अधिनियमों को समाप्त किया गया। 1931 ई. में ‘इंडियन प्रेस इमरजेंसी एक्ट’ लागू हुआ। इस अधिनियम द्वारा 1910 ई. के प्रेस अधिनियम को पुनः लागू कर दिया गया। इस समय गांधी जी द्वारा चलाये गये सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रचार को दबाने के लिए इस अधिनियम को विस्तृत कर ‘क्रिमिनल अमैंडमेंट एक्ट’ अथवा ‘आपराधिक संशोधित अधिनियम’ लागू किया गया। मार्च, 1947 में भारत सरकार ने ‘प्रेस इन्क्वायरी कमेटी’ की स्थापना समाचार पत्रों से जुड़े हुए क़ानून की समीक्षा के लिए किया।
भारत में समाचार पत्रों एवं प्रेस के इतिहास के विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ एक ओर लॉर्ड वेलेज़ली, लॉर्ड मिण्टो, लॉर्ड एडम्स, लॉर्ड कैनिंग तथालॉर्ड लिटन जैसे प्रशासकों ने प्रेस की स्वतंत्रता का दमन किया, वहीं दूसरी ओर लॉर्ड बैंटिक, लॉर्ड हेस्टिंग्स, चार्ल्स मेटकॉफ़, लॉर्ड मैकाले एवं लॉर्ड रिपनजैसे लोगों ने प्रेस की आज़ादी का समर्थन किया। ‘हिन्दू पैट्रियाट’ के सम्पादक ‘क्रिस्टोदास पाल’ को ‘भारतीय पत्रकारिता का ‘राजकुमार’ कहा गया है।
प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण
लॉर्ड विलियम बैंटिक प्रथम गवर्नर-जनरल था, जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया। कार्यवाहक गर्वनर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ़ ने समाचार पत्रों को 1823 के प्रतिबन्ध को हटाकर मुक्ति दिलवाई। यही कारण है कि उसे ‘समाचार पत्रों का मुक्तिदाता’ भी कहा जाता है। लॉर्ड मैकाले ने भी प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया। 1857–1858 के विद्रोह के बाद भारत में समाचार पत्रों को भाषाई आधार के बजाय प्रजातीय आधार पर विभाजित किया गया। अंग्रेज़ी समाचार पत्रों एवं भारतीय समाचार पत्रों के दृष्टिकोण में अंतर होता था। जहाँ अंग्रेज़ी समाचार पत्रों को भारतीय समाचार पत्रों की अपेक्षा ढेर सारी सुविधाये उपलब्ध थीं, वही भारतीय समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा था।
अंग्रेजों द्वारा सम्पादित समाचार पत्र
स्थान | वर्ष | |
---|---|---|
टाइम्स ऑफ़ इंडिया | बम्बई | 1861 ई. |
स्टेट्समैन | कलकत्ता | 1878 ई. |
इंग्लिश मैन | कलकत्ता | – |
फ़्रेण्ड ऑफ़ इंडिया | कलकत्ता | – |
मद्रास मेल | मद्रास | 1868 ई. |
पायनियर | इलाहाबाद | 1876 ई. |
सिविल एण्ड मिलिटरी गजट | लाहौर | – |
एक शताब्दी से अधिक पुराने समाचार पत्र
1 बाम्बे समाचार, गुजराती दैनिक, बंबई 1822
2 क्राइस्ट चर्च स्कूल (बंबई शिक्षा समिति की पत्रिका) 1825
द्विभाषी वार्षिक पत्र, बंबई
3 जाम-ए-जमशेद, गुजराती दैनिक, बंबई 1832
4 टाइम्स आफ इंडिया अंग्रेजी दैनिक, बंबई 1838
5 कैलकटा रिव्यू, अंग्रेजी त्रैमासिक कलकत्ता 1844
6 तिरुनेलवेलि डायोसेजन मैगजीन, तमिल मासिक तिरुनेलवेलि 1849
7 एक्जा़मिनर, अंग्रेज़ी साप्ताहिक, बंबई 1850
8 गार्जियन, अंग्रेज़ी पाक्षिक, मद्रास 1851
9 ए इंडियन, पुर्तगाली साप्ताहिक, मारगांव 1861
10 बेलगाम समाचार, 10 मराठी साप्ताहिक बेलगाम 1863
11 न्यू मेन्स ब्रैड्शा, अंग्रेज़ी मासिक कलकत्ता 1865
12 पायनीयर, अंग्रेज़ी दैनिक, लखनऊ 1865
13 अमृत बाजार पत्रिका, अंग्रेज़ी दैनिक कलकत्ता 1868
14 सत्य शोधक, मराठी साप्ताहिक, रत्नगिरी 1871
15 बिहार हैरॉल्ड, अंग्रेज़ी साप्ताहिक, पटना 1874
16 स्टेट्समैन, (द) अंग्रेज़ी दैनिक, कलकत्ता 1875
17 हिन्दू, अंग्रेज़ी दैनिक, मद्रास 1878
18 प्रबोध चंद्रिका, मराठी साप्ताहिक, जलगांव 1880
19 केसरी, मराठी दैनिक पुणे 1881
20 आर्य गजट, उर्दू साप्ताहिक, दिल्ली 1884
21 दीपिका, मलयालम दैनिक, कोट्टायम 1887
22 न्यू लीडर,अंग्रेजी साप्ताहिक, मद्रास 1887
23 कैपिटल, अंग्रेजी साप्ताहिक, कलकत्ता 1888
19वीं शताब्दी में प्रकाशित भारतीय समाचार पत्र
समाचार पत्र | संस्थापक/सम्पादक | भाषा | प्रकाशन स्थान | वर्ष |
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अमृत बाज़ार पत्रिका | मोतीलाल घोष | बंगला | कलकत्ता | 1868 ई. |
अमृत बाज़ार पत्रिका | मोतीलाल घोष | अंग्रेज़ी | कलकत्ता | 1878 ई. |
सोम प्रकाश | ईश्वरचन्द्र विद्यासागर | बंगला | कलकत्ता | 1859 ई. |
बंगवासी | जोगिन्दर नाथ बोस | बंगला | कलकत्ता | 1881 ई. |
संजीवनी | के.के. मित्रा | बंगला | कलकत्ता | |
हिन्दू | वीर राघवाचारी | अंग्रेज़ी | मद्रास | 1878 ई. |
केसरी | बाल गंगाधर तिलक | मराठी | बम्बई | 1881 ई. |
मराठा | बाल गंगाधर तिलक | अंग्रेज़ी | – | – |
हिन्दू | एम.जी. रानाडे | अंग्रेज़ी | बम्बई | 1881 ई. |
नेटिव ओपीनियन | वी.एन. मांडलिक | अंग्रेज़ी | बम्बई | 1864 ई. |
बंगाली | सुरेन्द्रनाथ बनर्जी | अंग्रेज़ी | कलकत्ता | 1879 ई. |
भारत मित्र | बालमुकुन्द गुप्त | हिन्दी | – | – |
हिन्दुस्तान | मदन मोहन मालवीय | हिन्दी | – | – |
हिन्द-ए-स्थान | रामपाल सिंह | हिन्दी | कालाकांकर (उत्तर प्रदेश) | – |
बम्बई दर्पण | बाल शास्त्री | मराठी | बम्बई | 1832 ई. |
कविवचन सुधा | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | हिन्दी | उत्तर प्रदेश | 1867 ई. |
हरिश्चन्द्र मैगजीन | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | हिन्दी | उत्तर प्रदेश | 1872 ई. |
हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड | सच्चिदानन्द सिन्हा | अंग्रेज़ी | – | 1899 ई. |
ज्ञान प्रदायिनी | नवीन चन्द्र राय | हिन्दी | – | 1866 ई. |
हिन्दी प्रदीप | बालकृष्ण भट्ट | हिन्दी | उत्तर प्रदेश | 1877 ई. |
इंडियन रिव्यू | जी.ए. नटेशन | अंग्रेज़ी | मद्रास | – |
मॉडर्न रिव्यू | रामानन्द चटर्जी | अंग्रेज़ी | कलकत्ता | – |
यंग इंडिया | महात्मा गाँधी | अंग्रेज़ी | अहमदाबाद | 8 अक्टूबर, 1919 ई. |
नव जीवन | महात्मा गाँधी | हिन्दी, गुजराती | अहमदाबाद | 7 अक्टूबर, 1919 ई. |
हरिजन | महात्मा गाँधी | हिन्दी, गुजराती | पूना | 11 फ़रवरी, 1933 ई. |
इनडिपेंडेस | मोतीलाल नेहरू | अंग्रेज़ी | – | 1919 ई. |
आज | शिवप्रसाद गुप्त | हिन्दी | – | – |
हिन्दुस्तान टाइम्स | के.एम.पणिक्कर | अंग्रेज़ी | दिल्ली | 1920 ई. |
नेशनल हेराल्ड | जवाहरलाल नेहरू | अंग्रेज़ी | दिल्ली | अगस्त, 1938 ई. |
उदंत मार्तंड | जुगल किशोर | हिन्दी (प्रथम) | कानपुर | 1826 ई. |
द ट्रिब्यून | सर दयाल सिंह मजीठिया | अंग्रेज़ी | चण्डीगढ़ | 1877 ई. |
अल हिलाल | अबुल कलाम आज़ाद | उर्दू | कलकत्ता | 1912 ई. |
अल बिलाग | अबुल कलाम आज़ाद | उर्दू | कलकत्ता | 1913 ई. |
कामरेड | मौलाना मुहम्मद अली | अंग्रेज़ी | – | – |
हमदर्द | मौलाना मुहम्मद अली | उर्दू | – | – |
प्रताप पत्र | गणेश शंकर विद्यार्थी | हिन्दी | कानपुर | 1910 ई. |
गदर | ग़दर पार्टी द्वारा | उर्दू/गुरुमुखी | सॉन फ़्रांसिस्को | 1913 ई. |
गदर | गदर पार्टी द्वारा | पंजाबी | – | 1914 ई. |
हिन्दू पैट्रियाट | हरिश्चन्द्र मुखर्जी | अंग्रेज़ी | – | 1855 ई. |
मद्रास स्टैंडर्ड, कॉमन वील, न्यू इंडिया | एनी बेसेंट | अंग्रेज़ी | – | 1914 ई. |
सोशलिस्ट | एस.ए.डांगे | अंग्रेज़ी | – | 1922 ई. |
पत्रकारिता अंग्रेजी के ‘जर्नलिज्म’ का अनुवाद है। ‘जर्नलिज्म’ शब्द में फ्रेंच शब्द ‘जर्नी’ या ‘जर्नल’ यानी दैनिक शब्द समाहित है। जिसका तात्पर्य होता है, दिन-प्रतिदिन किए जाने वाले कार्य। पहले के समय में सरकारी कार्यों का दैनिक लेखा-जोखा, बैठकों की कार्यवाही और क्रियाकलापों को जर्नल में रखा जाता था, वहीं से पत्रकारिता यानी ‘जर्नलिज्म’ शब्द का उद्भव हुआ। 16वीं और 18 वीं सदी में पीरियोडिकल के स्थान पर डियूरलन और ‘जर्नल’ शब्दों का प्रयोग हुआ। बाद में इसे ‘जर्नलिज्म’ कहा जाने लगा। पत्रकारिता का शब्द तो नया है, लेकिन विभिन्न माध्यमों द्वारा पौराणिक काल से ही पत्रकारिता की जाती रही है। जैसा कि विदित है मनुष्य का स्वभाव ही जिज्ञासु प्रवृत्ति का होता है। और इसी जिज्ञासा के चलते आरम्भ में ही उसने विभिन्न खोजों को भी अंजाम दिया। पत्रकारिता के उदभव और विकास के लिए इसी प्रवृत्ति को प्रमुख कारण भी माना गया है।
प्रमुख प्रकाशन समूह और उनकी पत्रिकाएं :
नाम | नगर | भाषा | नाम | नगर | भाषा |
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जनसत्ता | कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, चंडीगढ़ | हिन्दी | नवभारत टाइम्स | मुम्बई, दिल्ली | हिन्दी |
हिन्दुस्तान | दिल्ली, पटना, लखनऊ, वाराणसी | हिन्दी | पंजाब केसरी | दिल्ली, जालंधर | हिन्दी |
विश्वामित्र | मुम्बई, कानपुर, कोलकाता, पटना | हिन्दी | वीर अर्जुन | दिल्ली | हिन्दी |
राष्ट्रीय सहारा | दिल्ली, लखनऊ, गोरखपुर, देहरादून, पटना, कानपुर, वाराणसी | हिन्दी | अमर उजाला | आगरा, बरेली, मेरठ | हिन्दी |
दैनिक जागरण | कानपुर, बनारस, पटना, लखनऊ, मेरठ | हिन्दी | अमृत प्रभात | इलाहबाद, लखनऊ | हिन्दी |
दैनिक आज | वाराणसी, पटना, गोरखपुर | हिन्दी | राजस्थान पत्रिका | जयपुर, बंगलोर | हिन्दी |
नई दुनिया | दिल्ली, इन्दौर, भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, रायपुर, बिलासपुर | हिन्दी | दैनिक भास्कर | भोपाल | हिन्दी |
हिन्दुस्तान टाइम्स | दिल्ली, पटना | अंग्रेज़ी | हिन्दू | चैन्नई, कोयम्बटूर, दिल्ली | अंग्रेज़ी |
टाइम्स ऑफ इण्डिया | दिल्ली, पटना, मुम्बई, अहमदाबाद | अंग्रेज़ी | इंडियन एक्सप्रेस | दिल्ली, मुम्बई, लखनऊ | अंग्रेज़ी |
द हितवाद | नागपुर | अंग्रेज़ी | फाइनेंशियल एक्सप्रेस | मुम्बई, दिल्ली | अंग्रेज़ी |
पायनियर | लखनऊ, कानपुर | अंग्रेज़ी | इकोनॉमिक टाइम्स | मुम्बई | अंग्रेज़ी |
स्टेट्समैन | नई दिल्ली, कोलकाता | अंग्रेज़ी | स्वतंत्र भारत | लखनऊ | अंग्रेज़ी |
अमृत बाज़ार पत्रिका | कोलकाता | अंग्रेज़ी | असम ट्रिब्यून | गुवाहाटी | अंग्रेज़ी |
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भारतीय प्रेस परिषद्
भारतीय प्रेस परिषद (Press Council of India) एक संविघिक स्वायत्तशासी संगठन है जो प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने व उसे बनाए रखने, जन अभिरूचि का उच्च मानक सुनिश्चित करने से और नागरिकों के अघिकारों व दायित्वों के प्रति उचित भावना उत्पन्न करने का दायित्व निबाहता है। सर्वप्रथम इसकी स्थापना 4 जुलाई, सन् 1966 को हुई थी। अध्यक्ष परिषद का प्रमुख होता है जिसे राज्यसभा के सभापति, लोकसभा अघ्यक्ष और प्रेस परिषद के सदस्यों में चुना गया एक व्यक्ति मिलकर नामजद करते हैं। परिषद के अघिकांश सदस्य पत्रकार बिरादरी से होते हैं लेकिन इनमें से तीन सदस्य विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, बार कांउसिल आफ इंडिया और साहित्य अकादमी से जुड़े होते हैं तथा पांच सदस्य राज्यसभा व लोकसभा से नामजद किए जाते हैं – राज्य सभा से दो और लोकसभा से तीन। प्रेस परिषद, प्रेस से प्राप्त या प्रेस के विरूद्ध प्राप्त शिकायतों पर विचार करती है। परिषद को सरकार सहित किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकती है या भर्त्सना कर सकती है या निंदा कर सकती है या किसी सम्पादक या पत्रकार के आचरण को गलत ठहरा सकती है। परिषद के निर्णय को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। काफी मात्रा में सरकार से घन प्राप्त करने के बावजूद इस परिषद को काम करने की पूरी स्वतंत्रता है तथा इसके संविघिक दायित्वों के निर्वहन पर सरकार का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है।
इतिहास
सन् 1954 में प्रथम प्रेस आयोग ने प्रेस परिषद् की स्थापना की अनुशंशा की। पहली बार 4 जुलाई, 1966 को स्थापित सन् 1 जनवरी, 1976 को आन्तरिक आपातकाल के समय भंग 1978 में नया प्रेस परिषद अधिनियम लागू 1979 में नए सिरे से स्थापित
प्रेस परिषद् अधिनियम, 1978
प्रेस परिषद् की शक्तियाँ निम्नानुसार अधिनियम की धारा 14 और 15 में दी गई हैं । अधिनियम में दिया गया है कि परिषद, अधिनियम में अंतर्गत अपने कार्य करने के उद्देश्य से, पंजीकृत समाचारत्रों और समाचार एजेंसियों से निर्दिषट दरों पर उद्ग्रहण शुल्क ले सकती है। इसके अतिरिक्त, केन्द्रीय सरकार, द्वारा परिषद् को अपने कार्य करने के लिये, इसे धन, जैसाकि केन्द्रीय सरकार आवश्यक समझे, देने का व्यादेश दिया गया है।
परिषद् की शक्तियाँ
- परिनिंदा करने की शक्ति: जहाँ परिषद् को, उससे किए गए परिवाद के प्राप्त होने पर या अन्यथा, यह विश्वास करने का कारण हो कि किसी समाचारपत्र या समाचार एजेंसी ने पत्रकारिक सदाचार या लोक-रूचि के स्तर का अतिवर्तन किया है या किसी सम्पादक या श्रमजीवी पत्रकार ने कोई वृत्तिक अवचार किया है, वहां परिषद् सम्बद्ध समाचारत्र या समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात उस रीति से जाँच कर सकेगी जो इस अधिनियम के अधीन बनाए गये विनियमों द्वारा उपबन्धित हो और यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करना आवश्यक है तो वह ऐसे कारणों से जो लेखवद्ध किये जायेंगे, यथास्थिति उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकेगी, उसकी भर्त्सना कर सकेगी या उसकी परिनिंदा कर सकेगी या उस संपादक या पत्रकार के आचरण का अनुमोदन कर सकेगी, परंतु यदि अध्यक्ष की राम में जाँच करने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है तो परिषद् किसी परिवाद का संज्ञान नहीं कर सकेगी।
- यदि परिषद् की यह राय है कि लोकहित् में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो वह किसी समाचारपत्र से यह अपेक्षा कर सकेगी कि वह समाचारपत्र या समाचार एजेंसी, संपादक या उसमें कार्य करने वाले पत्रकार के विरूद्ध इस धारा के अधीन किसी जाँच से संबंधित किन्हीं विशि¬टयों को, जिनके अंतर्गत उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार का नाम भी है उसमें ऐसी नीति से जैसा परिषद् ठीक समझे प्रकाशित करे।
- उपधारा 1, की किसी भी बात से यह नहीं समझा जायेगा कि वह परिषद् को किसी ऐसे मामले में जाँच करने की शक्ति प्रदान करती है जिसके बारे में कोई कार्रवाई किसी न्यायालय में लम्बित हो।
- यथास्थिति उपधारा 1, या उपधारा 2, के अधीन परिषद् का विनिश्चय अंतिम होगा और उसे किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जायेगा।
परिषद् की साधारण शक्तियाँ
इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों के पालन या कोई जाँच करने के प्रयोजन के लिए परिषद् को निम्नलिखित बातों के बारे में संपूर्ण भारत में वे ही शक्तियाँ होंगी जो वाद का विचारण करते समय 1908 का 5, सिविल न्यायालय में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन निहित हैं, अर्थात-
- व्यक्तियों को समन करना और हाजिर कराना तथा उनकी शपथ पर परीक्षा करना,
- दस्तावेजों का प्रकटीकरण और उनका निरीक्षण,
- साक्ष्य का शपथ कर लिया जाना,
- किसी न्यायालय का कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपियों की अध्यपेक्षा करना,
- साक्षियों का दस्तावेज की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना,
- कोई अन्य विषय जो विहित जाए।
- उपधारा 1, की कोई बात किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को उस समाचारपत्र द्वारा प्रकाशित या उस समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार द्वारा प्राप्त रिपोर्ट किये गये किसी समाचार या सूचना का स्रोत प्रकट करने के लिए विवश करने वाली नहीं समझी जायेगी।
- परिषद् द्वारा की गयी प्रत्येक जाँच भारतीय दंड संहिता की धारा 193 और 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही समझी जायेगी।
- यदि परिषद् अपने उद्देश्यों को क्रियान्वित करने के प्रयोजन के लिए या अधिानियम के अधीन अपने कृत्यों का पालन करने के लिए आवश्यक समझती है तो वह अपने किसी विनिश्चय में या रिपोर्ट में किसी प्राधिकरण के, जिसके अन्तर्गत सरकार भी है, आचरण के संबंध में ऐसा मत प्रकट कर सकेगी जो वह ठीक समझे। शिक्षाविदों की विशि¬ट मंडली द्वारा संवारा गया है। उच्चतम न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश न्यायामूर्ति श्री जे. आर. मधोलकर, पहले अध्यक्ष थे जिन्होंने 16 नवंबर, 1966 से 1 मार्च, 1968 तक परिषद् की अध्यक्षता की। इसके पश्चात न्यायामूर्ति श्री एन. राजगोपाला अय्यनगर 4 मई, 1968 से 1 जनवरी, 1976 तक, न्यायामूर्ति श्री एन. एन. ग्रोवर 3 अप्रैल, 1979 से 9 अक्टूबर, 1985 तक, न्यायामूर्ति श्री एन. एन. सेन 10 अक्टूबर, 1985 से 18 जनवरी, 1989 तक और न्यायामूर्ति श्री आर. एस. सरकारिया 19 जनवरी, 1989 से 24 जुलाई, 1995 तक और श्री पी. बी. सार्वेत 24 जुलाई, 1995 से अब तक परिषद् के अध्यक्ष रहे हैं। ये उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे। इन सभी ने परिषद् के दर्शन और कार्यों में गहन वचनवद्धता के साथ, परिषद् का मार्गदर्शन किया। परिषद् इनसे निर्देश पाकर, इनके ज्ञान और बुद्धि से अत्यधिक लाभान्वित हुई।
‘दुश्मन’ कोई और होने के बावजूद कौन ‘अपने’ लड़ रहे थे गौरी से ? क्या गौरी को मृत्यु से 5 घंटे पूर्व हो गया था खतरे का अहसास !
वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश (55)की बीती 5 सितम्बर की शाम की गयी हत्या निंदनीय है। इस पर गहरा हार्दिक कष्ट व दुःख है। इस बात के लिये भी कि एक विचारधारा विशेष के लोगों ने गौरी को उनकी मृत्यु के बाद केवल बामपंथी विचारधारा की पत्रकार के रूप में सीमित करने की कोशिश की है। जबकि पत्रकारिता किसी विचारधारा में नहीं बंधती। किसी विचारधारा में बंधा व्यक्ति पत्रकार हो ही नहीं सकता। वह केवल उस विचारधारा का झंडाबरदार ही हो सकता है। ऐसे लोगों ने भले स्वयं गौरी के जीते जी उनकी प्रोफाइल भी जीवन में कभी देखी न हो, वे उनकी मृत्यु पर आंसू बहाकर अपनी विचारधारा का प्रसार करने के लिए उपयोग कर रहे हैं, और मीडिया की ‘मीडिया ट्रायल’ की बीमारी को सोशल मीडिया तक ले आये हैं। स्वयं घोषणा कर दी है कि गौरी की हत्या दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों ने की है। उनका बस चले तो वे सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही सीसीटीवी में नजर आ रहा हेलमेट व काला जैकेट पहने गौरी का हत्यारा बता दें। जबकि उनके भाई ने मौत के पीछे नक्सलियों के होने की भी आशंका जताई है, और कर्नाटक सरकार काफी लंबे समय से चल रहे उनके घर के पारिवारिक विवाद के कोण पर भी जांच कर रही है….
पिछले 5 वर्षों में हुई पत्रकारों की हत्याएंवैसे यह भी एक प्रश्न है कि पिछले पाँच सालों (2013-2017) में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले क्षैत्र के 21 पत्रकारों की हत्या हुई, परन्तु इनकी मौत पर ऐसा कोई हो-हल्ला नहीं हुआ, ना ही गौरी की तरह बड़े पत्रकारों ने ट्वीट हीं किये … आखिर क्यों ?