विश्व व भारत में पत्रकारिता का इतिहास
मानव सभ्यता करीब 150-200 करोड़ वर्ष पुरानी मानी जाती है। उत्तराखंड के कालागढ़ के निकट मिले करीब 150 करोड़ वर्ष पुराने ‘रामा पिथेकस काल’ (Ramapithecus age) के माने जाने वाले एक मानव जीवाश्म से भी इसकी पुष्टि होती है। लेकिन मानव में संचार के जरूरी मूलभूत ज्ञानेंद्रियों का विकास ईसा से करीब तीन लाख वर्ष पूर्व होने की बात कही जाती है। इस दौर में गुफाओं में रहने वाले हमारे प्राग ऐतिहासिक कालीन पूर्वजों में मस्तिष्क एवं केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (Central Nervous System) धीरे-धीरे विकसित होना प्रारंभ हुआ, और इसी के साथ उनकी बाद की पीढ़ियों में संचार के मूलभूत तत्व के रूप में देखने, सुनने, छूने, सूंघने एवं चखने की क्षमता युक्त ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ, जिससे वे अपने खतरे में होने या सुरक्षित होने, किसी से प्रेम अथवा घृणा करने तथा किन्ही स्थितियों के अनूकूल अथवा प्रतिकूल होने का पता लगाने की ‘संचार की प्राथमिक व मूलभूत आवश्यकताओं’ की पूर्ति कर पाये थे। इसके बाद ही मानव का स्वयं से संचार प्रारंभ हुआ था। इन इंद्रियों के विकसित होने के बाद ही मानव में कुछ समझ विकसित हुई और उसने स्वयं के लिये सुरक्षित ठिकानों-गुफाओं का सहारा लिया होगा। इस तरह से उस दौर के मानव को ‘स्वयं से साक्षात्कार के लिये’ पहला मीडिया यानी माध्यम मिला था। जो एक तरह से उस दौर के लिहाज से मानव को संचार के लिये प्राप्त हुआ एक ‘नया मीडिया’ ही था। आगे करीब 50 हजार वर्ष पूर्व न्यमोनिक चरण (Mnemonic Stage) में वे लोग बुद्धिमान कहे जाते थे, जो कुछ याद कर पाते थे। यह मनुष्य में याददास्त की क्षमता के जुड़ने का समय था। उस दौर में सामाजिक संचार प्रारंभ हो गया था लेकिन भाषाओं का जन्म नहीं हुआ था। आगे ईशा से करीब सात हजार वर्ष पूर्व मानव संचार के एक नये-चित्र बनाने के माध्यम (Pictographics) की योग्यता जुड़ी, जिसके साथ उसमें रचनात्मकता व कल्पनाशीलता का विकास भी हुआ। इसके बाद मानव गुफाओं में चित्र बनाकर अपनी भावनायें प्रदर्शित करने लगे। इस दौर में मनुष्य में धार्मिक भावनाओं का उद्भव भी हुआ। इस दौर के बनाये गुफा-शैलचित्र आज भी उत्तराखंड के लखुडियार सहित अनेक स्थानों पर मिलते हैं, जिन्हें करीब पांच हजार वर्ष पुराना आंका गया है। इसी दौर के करीब 5000 वर्ष पूर्व की हड़प्पा व मोहनजोदड़ो सभ्यता के दौर में भी मानव में लेखन कला के सबसे पुराने सबूत मिलते हैं, इस प्रकार लेखन कला को ईशा से तीन हजार वर्ष पूर्व होना माना जा सकता है। आगे ईशा से तीन हजार से दो हजार वर्ष पूर्व के दौर में शैलचित्र बनाने की मानव की विधा ‘बेहतर’ हुयी और सर्वप्रथम भावनाओं के लिये ‘प्रतीकों’ का उद्भव हुआ। इस काल को आइडियोग्राफिक काल (Ideographic Stage) भी कहते हैं। इस दौर में मानव ने सामाजिक समूहों में घर बनाकर रहना प्रारंभ कर दिया था। साथ ही उसमें सामाजिक कार्यक्रमों और नैतिक मूल्यों आदि का भी विकास हो चुका था। इस काल में चित्र प्रतीकों के रूप में छोटे हो गये थे। जैसे मनुष्य के लिय ‘λ’, घर के लिये ‘9’, बैल के लिये ‘∀’, दरवाजों के लिये ‘Δ’, ऊंट के लिये ‘7’ आदि चिन्हों का प्रयोग किया जाता था। आगे फोनेटिक काल में ‘क’ के लिये ‘४’, ‘न’ के लिये ‘⊥’ आदि चिन्हों का प्रयोग किया जाने लगा। आगे मानव सभ्यता के विकास के साथ अंतरवैयक्तिक संचार बढ़ने लगा। अब तक लोग एक-दूसरे से आमने-सामने ही बात करते थे, लेकिन अब वह दूर तक अपनी बात पहुंचाने के उपाय भी ढूंढने लगे और दूर संदेश भेजने के लिए ऐसे लोगों (Relay Runners) का प्रयोग किया जाने लगा जो बीते दौर के डाक विभाग के हरकारों की तरह एक से दूसरे स्थान पर संदेशों को ले जाते थे। इस तरीके से भी कई बार संदेश पहुंचाने में दिनों-महीनों का समय लग जाता था।
यों हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में हुए उत्खनन से प्राप्त मृदभांडों के अनुसार भारत में 5000 वर्ष पूर्व यानी ईशा से 3000 वर्ष पूर्व लेखन का ज्ञान था, और भारत के चक्रवर्ती सम्राट अशोक (जन्म 304 ईशा पूर्व, शासन 272 ईशा पूर्व से 232 ईशा पूर्व में मृत्यु होने तक) के आज के बांग्लादेश, भारत, नेपाल, पाकिस्तान व अफगानिस्तान तक फैले राज्य में संस्कृत से मिलती-जुलती खरोष्ठी व ब्राह्मी लिपि तथा प्राचीन मगधी, यूनानी व अरामाई भाषाओं में लिखे 33 शिलालेख व अन्य अभिलेख प्राप्त होते हैं।

अलबत्ता, विश्व में पत्रकारिता का आरंभ ईशा से केवल दो से पांच शताब्दी पूर्व रोम से होना बताया जाता है। कहते हैं कि पांचवीं शताब्दी ईसवी पूर्व रोम में संवाद लेखक होते थे, जो हाथ से लिखकर खबरें पहुंचाते थे। आगे ईशा से 131-59 ईस्वी पूर्व रोम में ही सम्राट जूलियस सीजर को पहला दैनिक समाचार-पत्र निकालने का श्रेय दिया जाता है। उनके पहले समाचार पत्र का नाम था ‘Acta Diurna’ (एक्टा डाइएर्ना-यानी दिन की घटनाएं)। बताया जाता है कि यह वास्तव में पत्थर या धातु की पट्टी होता था, जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं, और इन में सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं। आगे ईसा के बाद दूसरी शताब्दी में मुद्रण तकनीक के आविष्कार को लेकर कुछ प्रमाण बताए जाते हैं। इस दौर में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में हाथ से ही लिखे हुए ‘सूचना-पत्र’ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। इसी दौरान कागज के निर्माण की कोशिशें भी चल रही थीं। चीन में सर्वप्रथम 100 वर्ष ईशा पूर्व कागज का निर्माण हुआ, लेकिन चीन ने सातवीं शताब्दी तक कागज के निर्माण की प्रक्रिया को गुप्त रखा। कहते हैं कि 751 ईसवी में चीनियों और अरबियों के बीच हुए युद्ध में कागज बनाना जानने वाले कुछ लोग बंदी बना लिए गए, जिन्हें कागज बनाने की विधि बताने के बाद ही छोड़ा गया। 400 ईसवी सन में भारत ने भी कागज बनाना सीख लिया था, जबकि यूरोप में कागज की जगह जानवरों के चमड़े का इस्तेमाल होता था। 1200 ईसवी में इसाइयों ने और 1250 में स्पेन, 1338 में फ्रांस, 1411 में जर्मनी के लोगों ने कागज बनाना सीखा। स्याही का निर्माण भी सर्वप्रथम चीनियों ने ही किया।
लकड़ी के ठप्पों से छपाई का काम भी सबसे पहले पांचवी-छठी शताब्दी में चीन में ही शुरू हुआ। इन ठप्पों का प्रयोग कपड़ो की रंगाई में होता था। 11वीं सदी में चीन में पत्थर के टाइप बनाए गए, ताकि अधिक प्रतियां छापी जा सके। 13वी-14वीं सदी में चीन ने अलग-अलग संकेत चिन्ह भी बनाए। इसके बाद धातु के टाइप बनाने की कोशिश हुई। कोरिया से चीन होकर धातु के टाइप यूरोप पहुंचे। धातु के टाइपों से पहली पुस्तक 1409 ईसवी में कोरिया में छापे जाने की बात कही जाती है, लेकिन प्रमाणिक तौर पर 1439 में जर्मनी के योहानेस गुटेनबर्ग ने धातु के ठप्पों से अक्षरों को छापने की मशीन का आविष्कार किया। उन्होंने इस मशीन से 1453 में प्रथम मुद्रित पुस्तक ‘कांस्टेंन मिसल’ तथा ‘गुटेनबर्ग बाइबल’ के नाम से प्रसिद्ध बाइबल भी छापी। इसके बाद ही किताबों और अखबारों का प्रकाशन संभव हो गया। अलबत्ता, यह मशीन सर्वसुलभ नहीं थी। प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद काफी समय तक किताबें और सरकारी दस्तावेज ही उनमें मुद्रित हुआ करते थे। 1500 ईसवी तक पूरे यूरोप में सैकड़ों छापेखाने खुल गए थे। नीदरलैंड से 1526 में न्यू जाइटुंग का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। तब इसे ‘समाचार पुस्तिका’ या ‘न्यूज बुक’ कहा जाता था। इसके बाद लगभग एक शताब्दी तक कोई दूसरी कोई समाचार पत्रिका प्रकाशित नहीं हुई। सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में जबकि पूरा यूरोप युद्धों को झेल रहा था, और सामंतवाद लगातार अपनी शक्ति खो रहा था, तथा अनेक विचारधाराएं उत्पन्न हो रहीं थी। इस दौर में लेखक अपने समकालीन लोगों में ग्रंथकार, घटना लेखक, सार लेखक, समाचार लेखक, समाचार प्रसारक, रोजनामचा नवीस, गजेटियर के नाम से जाने और सम्मान पाते थे। इस दौरान ‘आक्सफोर्ड गजट’ और फिर ‘लंदन गजट’ निकले जिनके बारे में कहा गया है, ‘बहुत सुंदर समाचारों से भरपूर और कोई टिप्पणी नहीं।’ यानी समाचारों को टिप्पणी युक्त न होना यानी समाचार ‘जैसा का तैसा छापना’ माना जाता था। 16वीं शताब्दी के अंत तक यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा होने के साथ धीमा भी था। आखिर 1605 में उसने छापे की मशीन खरीद कर ‘रिलेशन’ नाम का समाचार-पत्र छापना प्रारंभ किया, जिसे विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार पत्र माना जाता है। उल्लेखनीय है कि उस दौर में ‘न्यूज बुक या ‘समाचार पुस्तिका’ शब्द को प्रयोग होता था। लेकिन ‘न्यूज पेपर’ या ‘समाचार पत्र’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख वर्ष 1670 में मिलता है। वहीं दैनिक पत्रों के इतिहास में पहला अंग्रेजी दैनिक 11 मार्च 1709 को ‘डेली करंट’ प्रकाशित हुआ। लेकिन तब तक भी कागज आज की तरह का न था। कागज का आधुनिक रूप फ्रांस के निकोलस लुईस राबर्ट ने 1778 ई में बनाया।
भारत में पत्रकारिता का आरंभ
यों, जैसा कि हमने पहले भी पढ़ा है, हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में हुए उत्खनन से प्राप्त मृदभांडों के अनुसार भारत में 5000 वर्ष पूर्व यानी ईशा से 3000 वर्ष पूर्व लेखन का ज्ञान था, लेकिन छपाई का काम लगभग पांचवी-छठी शताब्दी में चीन के साथ ही प्रारंभ होना बताया जाता है। इसी दौरान यहां कागज का निर्माण भी होने लगा था। लेकिन समाचार पत्रों का इतिहास यूरोपीय लोगों के भारत में प्रवेश के साथ प्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम भारत में प्रिंटिग प्रेस लाने का श्रेय पुर्तगालियों को दिया जाता है, उनकी कोशिश अपने धर्म के प्रचार की थी, इसलिए वह अपनी प्रेस का इस्तेमाल धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन के लिए ही अधिक करते थे। 1557 ईसवी में गोवा के कुछ पादरियों ने भारत की पहली पुस्तक छापी। फिर 1662 में मुम्बई तथा 1679 में बिचुर में और प्रेसों की स्थापना हुई। वहीं अंग्रेजों ने भारत में छापे की पहली मशीन 1674 में बम्बई में स्थापित की, और 1684 ईसवी में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में प्रथम प्रिंटिग प्रेस (मुद्रणालय) की स्थापना की, और देश की पहली पुस्तक की छपाई की थी। भारत में पहला अखबार स्थापित करने का प्रयास ईस्ट इंडिया कंपनी के भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स ने किया। उन्होंने 1762 में कलकत्ता के कौंसिल हॉल व अन्य प्रमुख स्थानों पर एक नोटिस लगाया, जिसमें कहा गया था कि छापेखाने के अभाव में उन्हें लोगों को सूचित करने के लिए नोटिस का तरीका ठीक लगता है। व्यापार के लिए छापेखानों का अभाव खलता है। कोई व्यक्ति यदि छापेखाने का धंधा करना चाहते हैं तो बोल्ट उसका पूरा सहयोग करने को तैयार हैं। इस बीच वह इसी तरह सूचनाएं देते रहेंगे। जिज्ञासु व्यक्ति सुबह 10 से 12 बजे के बीच उनके घर पर आकर वहां से सूचना पत्रों की प्रतियां ले सकते हैं।
हिकी’ज बंगाल गजट: भारत का पहला समाचार पत्र

भारत में पत्रकारिता का विधिवत् प्रारम्भ जेम्स आगस्ट्स हिकी ने 29 जनवरी 1780 में कलकत्ता से ‘हिकी’ज बंगाल गजट’ के नाम से अखबार निकाल कर, पत्रकारिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की। इसे ही देश का सबसे पहला समाचार पत्र कहा जाता है। ‘हिकी’ज बंगाल गजट’ ‘दि ऑरिजिनल कैलकटा जनरल एड्वरटाइजर’ भी कहलाता था। दो पृष्ठों के तीन कालम में दोनों ओर से छपने वाले इस अखबार के पृष्ठ 12 इंच लंबे और 8 इंच चौड़े थे। इसमें हिक्की का विशेष स्तंभ ‘ए पोयट्स’ कार्नर होता था। अखबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों के व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। हिकी ने इसके एक अंक में गवर्नर की पत्नी पर आक्षेप किया तो उसे चार महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुर्माना लगा दिया गया। लेकिन हिकी ने शासकों की आलोचना करने से परहेज नहीं किया, और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुर्माना लगाया गया, और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अखबार बंद हो गया। हिकी’ज बंगाल गजट के बारे में हिकी ने कहा था-“यह राजनीतिक और आर्थिक विषयों का साप्ताहिक है और इसका सम्बन्ध हर दल से है, मगर यह किसी दल के प्रभाव में नहीं आएगा।’ स्वयं के बारे में हिक्की की धारणा थी-‘मुझे अखबार छापने का विशेष चाव नहीं है, न मुझमें इसकी योग्यता है। कठिन परिश्रम करना मेरे स्वभाव में नहीं है, तब भी मुझे अपने शरीर को कष्ट देना स्वीकार है। ताकि मैं मन और आत्मा की स्वाधीनता प्राप्त कर सकूं।‘
पत्रकारिता की आवाज दबाने की कोशिश-इंडिया गजट
ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों को हिकी’ज बंगाल गजट पसंद न था, और उन्होंने इसके खिलाफ 1780 में ही ‘इंडिया गजट’ का प्रकाशन शुरू किया। इस पत्र में अक्सर हिकी‘ज गजट से लगाए जाने वाले आक्षेपों के जवाब दिए जाते थे। इस प्रकार सरकार की ओर से पत्रकारिता की आवाज को दबाने की नींव भी पड़ गई। करीब 50 वर्षों तक प्रकाशित हुए इस कमोबेश सरकारी अखबार में ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यावसायिक गतिविधियों के समाचार दिए जाते थे। इसी कारण यह अखबार इतनी लंबी अवधि तक भी चला।
कलकत्ता में बंदरगाह होने, यहां अंग्रेजो का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र होने और पश्चिम बंगाल से ही आजादी के ज्यादातर आंदोलन संचालित होने की वजह से कोलकाता शुरुआत में भारतीय पत्रकारिता का अगुवा रहा। 18वीं शताब्दी के अंत तक बंगाल से कलकत्ता कोरियर, एशियाटिक मिरर, ओरिएंटल स्टार तथा मुंबई से बंबई हेराल्ड अखबार 1790 में प्रकाशित हुए, और चेन्नई से मद्रास कोरियर आदि समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे। इन समाचार पत्रों की विशेषता यह थी कि इनमें परस्पर प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग था। मद्रास सरकार ने समाचार पत्रों पर अंकुश लगाने के लिए कड़े फैसले भी लिए। मुबंई और मद्रास से शुरू हुए पत्रों की उग्रता हिक्की की तुलना में कम थी। हालांकि वे भी कंपनी शासन के पक्षधर नहीं थे। मई 1799 में सर वेलेजली ने सबसे पहले प्रेस एक्ट बनाया जो कि भारतीय पत्रकारिता जगत का पहला कानून था। इस दौर में अखबारों को शुरू करने में तो काफी कठिनाइयां आती ही थीं, अंग्रेज सरकार भी अखबारों के बहुत खिलाफ थी।
आगे 1818 में ब्रिटिश व्यापारी ‘जेम्स सिल्क बकिंघम’ ने ‘कलकत्ता जनरल’ का सम्पादन किया। बकिंघम ही वह पहला प्रकाशक था, जिसने प्रेस को जनता के प्रतिबिम्ब के स्वरूप में प्रस्तुत किया। प्रेस का आधुनिक रूप जेम्स सिल्क बकिंघम का ही दिया हुआ है। इसने अपने संपादकीय में लिखा था, ‘संपादक के कार्य सरकार को उसकी भूलें बताकर कर्तव्य की ओर प्रेरित करना है, और इस आशय से कुछ अरुचिकर सत्य कहना अनिवार्य है।’ इस पत्र ने अपने पाठकों को ‘संपादक के नाम पत्र’ के अंतर्गत उनके विचार छापने के लिए भेजने को भी कहा था। दो वर्ष में उस समय के सभी एंग्लोइंडियन पत्रों को प्रचार-प्रसार में पीछे छोड़ दिया था। केवल दो वर्ष में इसकी प्रसार संख्या एक हजार से अधिक थी, और मूल्य एक रुपया था। 1823 में पहला प्रेस अधिनियम लाने वाले स्थानापन्न अंग्रेज गवर्नर जनरल जॉन एडम के आदेश पर बकिंघम को गिरफ्तार कर तत्काल भारत से निर्वासित कर इंग्लेंड वापस भेज दिया गया, किंतु इंग्लेंड जाकर भी उसने ‘ओरिएंटल हेराल्ड’ निकालकर भारतीय समस्याओं और कंपनी के हाथों में भारत का शासन बनाए रखने के विरुद्ध लगातार अभियान चलाए रखा। हिक्की तथा बर्किघम का पत्रकारिता के इतिहास में महत्पूर्ण स्थान है। कलकत्ता जनरल के दूसरे संपादक सैंडी आरनॉट, व बंगाल जर्नल के संपादक बिलियम डुएन सहित अनेकों संपादकों को भी इसी तरह भारत से निर्वासित कर वापस इंग्लेंड भेजा गया।
भारत में भारतीय भाषाई पत्रकारिता
लेकिन भारतीय भाषाई पत्रकारिता की असली कहानी राष्ट्रीय आंदोलन की कहानी भी है, क्योंकि उस दौर में भारतीय भाषाएँ, अंग्रेजी ही नहीं-अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का प्रतीका और देश के जन-जन तक अपनी बात पहुंचाते हुए जनता को अंग्रेजों की कारगुजारियों से अवगत कराने का कारगर हथियार भी थी। इसकी शुरुआत बंगाल से हुई, और इसका श्रेय ब्रह्म समाज के संस्थापक और सती प्रणाली जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राजा राममोहन राय को दिया जाता है, और उन्हें भारतीय भाषायी प्रेस का प्रवर्तक भी कहा जाता है। जिन्होंने सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ते हुए भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की। राममोहन राय ने कई पत्र शुरू किये। जिसमें अहम हैं-वर्ष 1816 में संपादक गंगा किशोर (कहीं गंगाधर भी) भट्टाचार्य के सहयोग से प्रकाशित ‘बंगाल गजट’। बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है। इसके अलावा राजा राममोहन राय ने 1821 में भारतीय भाषा (बंगाली) में पहले साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) का 1819 में, ‘समाचार चंद्रिका’ का मार्च 1822 में और अप्रैल 1822 में फारसी भाषा में ‘मिरातुल’ अखबार’ एवं अंग्रेजी भाषा में ‘ब्राह्मनिकल मैगजीन’ व‘ बंगला हेराल्ड’ तथा 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय ने द्वारकानाथ टैगोर एवं प्रसन्न कुमार टैगोर के साथ साप्ताहिक समाचार पत्र ‘बंगदूत’ निकाला। बंगदूत एक अनोखा पत्र था, इसमें बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था। 1823 में जॉन एडम द्वारा लाये गए प्रथम प्रेस अधिनियम के बाद मिरातुल अखबार को इसी वर्ष बंद होना पड़ा। हालांकि इसी वर्ष लॉर्ड विलियम बेंटिक के आने पर प्रेस कानून में कुछ लचीलापन आया। बेंटिक ने कहा कि वे समाचार पत्रों को मित्र और सुशासन में सहायक मानते हैं। आगे 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय ने द्वारकानाथ टैगोर एवं प्रसन्न कुमार टैगोर के साथ नीलरतन हालदार के संपादकत्व में बंगला, फारसी, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में ‘बंगदूत’ का प्रकाशन कर अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के उत्थान में भी सहयोग दिया। ‘बंगदूत’ हर रविवार को निकलता था। इसका अंग्रेजी संस्करण ‘हिंदू हेराल्ड’ के नाम से प्रकाशित होता था। इसका हिंदी प्रखंड निकालना भी बड़ा कदम माना गया, इससे गैर हिंदी क्षेत्रों व संपादकों के लिए हिंदी में पत्र निकालने की परंपरा भी शुरू हुई। ‘बंगदूत’ के बंद होने के बाद 15 सालों तक हिंदी में कोई पत्र न निकला। बम्बई से 1831 में गुजराती भाषा में ‘जामे जमशेद’ तथा 1851 में ‘रास्त गोफ्तार’ एवं ‘अखबारे सौदागार’ का प्रकाशन हुआ। संवाद कौमुदी और मिरात उल अखबार भारत में स्पष्ट प्रगतिशील राष्ट्रीय और जनतांत्रिक प्रवृति के सबसे पहले प्रकाशन थे। ये समाज सुधार के प्रचार और धार्मिक-दार्शनिक समस्याओं पर आलोचनात्मक वाद-विवाद के मुख्य पत्र थे। राजा राममोहन राय ने अपने इन सभी पत्रों के प्रकाशन के पीछे मूल भावना व्यक्त करते हुए कहा था, ‘मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबंध उपस्थित करूं, जो उनके अनुभव को बढ़ावें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हो। मैं अपनी शक्ति भर शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचित कराना चाहता हूं, ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायो से अवगत हो सके, जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी करायी जा सके।’
मार्शमैन ने 23 मई 1818 से ‘समाचार दर्पण’ नाम से बंगला में एक अन्य पत्र भी निकाला।1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक बंबई में देशी प्रेस के प्रणेता फरदून जी मर्जबान ने 1822 में ‘बांबे समाचार’ (मुंबईना समाचार) शुरु किया जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना और आज भी छप रहा गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। इस दौरान समाचार पत्र कई भाषाओं में भी छपते थे। 1822 में ही सदासुख के संपादकत्व में ‘जाने जहांनुमा’ नाम का फारसी पत्र प्रारंभ हुआ। इस पत्र की भाषा उर्दू मानी जाती है, और इसे उर्दू का पहला पत्र कहा जाता है। कई पत्र अनेक भाषाओं में छपते थे। 1846 में कलकत्ता से प्रकाशित इंडियन सन पांच भाषाओं हिंदी, फारसी, बंगला,अंग्रेजी व उर्दूं में छपना प्रारंभ हुआ था, और इसके हिंदी खंड का नाम मार्तंण्ड था। आगे कलकत्ता से ही बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ के 21 जून 1834 के अंक से ‘प्रजामित्र’ नामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने की सूचना मिलती है। लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसके प्रकाशन को संदिग्ध माना है।
हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन
हालांकि 1816 में राजा राममोहन राय के बंगाल गजट के साथ भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत हो गई थी, लेकिन हिंदी पत्रकारिता का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन अमूमन पहले हिंदी समाचार पत्र-उदंत मार्तंण के 1826 में प्रकाशन के बाद शुरू होता है। अलबत्ता, इस पर भी भाषा विज्ञानी एकमत नहीं हैं। सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास किया था। उसके बाद ‘विशाल भारत’ के नवंबर 1930 के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल ने इस प्रश्न पर विचार किया, किन्तु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे। आगे गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया- प्रथम चरण – 1845 से 1877 द्वितीय चरण – 1877 से 1890 तृतीय चरण – 1890 से बाद तक वहीं डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ में इस प्रकार काल विभाजन किया- आरंभिक युग – 1826 से 1867 उत्थान एवं अभिवृद्धि – प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग एवं द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग विकास युग – प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग, द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग सामयिक पत्रकारिता 1935-1945 उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं, 1867 में ‘कविवचन सुधा’, 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए। वहीं काशी नागरी प्रचारणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ के त्रयोदय भाग के तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है- प्रथम उत्थान – 1826 से 1867 द्वितीय उत्थान – 1868 से 1920 आधुनिक उत्थान – 1920 के बाद ‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है- बीज वपन काल, ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव, राष्ट्रीय जागरण काल तथा लोकतंत्र और प्रेस डा. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है- भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय – (1826 से 1867) राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति – दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (1867-1900) बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर – इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युग में भी विभक्त किया। वहीं डा. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन इस प्रकार किया है- उदय काल – (1826 से 1867) भारतेंदु युग – (1867 से 1900) तिलक या द्विवेदी युग – (1900 से 1920) गांधी युग – (1920 से 1947) स्वातंत्रोत्तर युग – (1947 से अब तक) डा. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है – हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867 हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900 हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947 स्वातंत्रोत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक, उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग से किया है। इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है। किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युग का नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर। इनमें एकरूपता का अभाव है। तथापि मोटे तौर पर इसे इस तरह वर्गीकृत किया जा सकता है।
हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव – (1826-1867)
भारतेंदु हरिश्चंद्र

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। उन्होंने मात्र 15 वर्ष की अवस्था से ही साहित्य सेवा प्रारंभ कर दी थी, और 1868 में वह मात्र 18 वर्ष की ही आयु में ही न केवल पत्रकार वरन ‘कवि वचन सुधा’ नामक पत्रिका के मुख्य सम्पादक हो गए थे, जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। आगे 20 वर्ष की अवस्था में ही वह ‘ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट’ बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। 1873 में 23 वर्ष की आयु में अंग्रेजी में ‘हरिश्चंद मैगजीन’, हिंदी में ‘हरिश्चंद पत्रिका’ और 1874 में महिलाओं की शिक्षा के लिए ‘बालवोधिनी’ नामक तीन और पत्रिकाओ के मुख्य सम्पादक के रूप में हिंदी की सेवा शुरू की। इस विलक्षण व्यक्तित्व ने मात्र 17 साल के लेखक जीवन में हिंदी के एक ऐसे स्वरुप को विकसित किया जिसे आज पूरा भारत स्वीकार करता है। भारतेन्दु के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण हीं 1857 से 1900 तक के काल को हिंदी का भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है। उनकी मृत्यु मात्र 35 वर्ष की आयु में 6 जनवरी 1885 को हो गयी थी। हिंदी के बारे में उनका कहना था-
भारतीय पत्रकारिता में प्रखर राष्ट्रवाद का आगमन का काल (1867-1900)

1854 में श्यामसुंदर सेन के संपादकत्व में प्रकाशित पहले हिंदी दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण’ के साथ भारतीय पत्रकारिता में प्रखर राष्ट्रवाद का श्रीगणेश भी हुआ। रविवार के अतिरिक्त हर दिन प्रकाशित होने वाले और लगभग 14 वर्षों तक प्रकाशित हुए इस दैनिक समाचार पत्र ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर का अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने का आह्वान करने वाला फरमान भी छाप दिया, जिस पर सेन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा चला और इस पत्र को अंग्रेजों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा।
इस पत्र के प्रकाशक एवं मुद्रक नवाब बहादुरशाह जफ़र के पौत्र केदार बख़्त थे। पहले यह यह समाचार पत्र उर्दू में निकाला गया और बाद में हिन्दी में भी इसका प्रकाशन हुआ। पयामे आज़ादी में अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध सामग्री होती थी, पत्र ने दिल्ली की जनता में स्वतंत्रता की अग्नि को फैलाया। पयामे आजादी के अंक में स्वतंत्रता संग्राम की अगवानी करने वाले मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के फरमान व आजादी का झण्डा गीत प्रकाशित करने को जुर्म करार देते हुए संपादक को फांसी पर लटका दिया गया। इसी पत्र में भारत का तत्कालीन राष्ट्रीय गीत भी छपा था, जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्नलिखित थीं-
“हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा।।
आज शहीदों ने तुझको, अहले वतन ललकारा।
तोड़ो ग़ुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा।।”
‘‘चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन-दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी और प्रत्येक संपादकीय के लिए दस साल जेल।’’
हिन्दी पत्रकारिता के विकास (उत्थान) का काल-(1900-1947)
गणेश शंकर विद्यार्थी


1920 के दौर में भारतीय राजनीति में राजनीतिक चाणक्य के रूप में महात्मा गांधी का उदय हुआ, जिसके साथ हिंदी पत्रकारिता की उग्रता कुछ कम हुई तो समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी कलम चलने लगी। गांधी ने सर्वप्रथम 4 जून 1903 में दक्षिण अफ्रीका से ‘इंडियन ओपिनियन’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया, जिसके सभी अंक से अंग्रेजी, हिन्दी, तथा गुजराती भाषा में छः कॉलम प्रकाशित होते थे। आगे उन्होंने 1919 में अंग्रेजी में ‘यंग इंडिया’ और जुलाई 1919 से हिन्दी-गुजराती में ‘नवजीवन’ का प्रकाशन आरंभ किया, और इनके माध्यम से अपने राजनीतिक दर्शन कार्यक्रम और नीतियों का प्रचार किया। इन पत्रों में हर सप्ताह महात्मा गांधी के विचार प्रकाशित होते थे। लेकिन जल्द ही ब्रिटिश शासन द्वारा पारित कानूनों के कारण और जनमत के अभाव में ये पत्र बंद हो गये। आगे 1933 में गांधी ने समाज के उपेक्षित व अस्पृक्ष्य वर्ग को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए अंग्रेजी में ‘हरिजन’ और हिन्दी में ‘हरिजन सेवक’ तथा गुजराती में ‘हरिबन्धु’ का प्रकाशन किया तथा ये पत्र स्वतंत्रता तक छपते रहे।
स्वतंत्रता आंदोलनों में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका
बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। कानपुर से 1920 में प्रकाशित ‘वर्तमान’ ने असहयोग आन्दोलन को अपना व्यापक समर्थन दिया था। पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक पत्र ‘अभ्युदय’ उग्र विचारधारा का पक्षधर था। अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मदन मोहन मालवीय व पंडित जवाहरलाल नेहरू के लेख प्रकाशित हुए।

जिसके परिणामस्वरूप इन पत्रों को प्रतिबंध व जुर्माने का सामना करना पड़ा। इस दौर में शिवप्रसाद गुप्त, गणेशशंकर विद्यार्थी, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराम विष्णु पराड़कर आदि स्वनामधन्य पत्रकार इसी युग के हैं, जिन्होंने 5 सितंबर 1920 को ‘आज’ समाचार पत्र प्रारंभ किया था। कर्मवीर, प्रताप, हरिजन, नवजीवन, इंडियन ओपीनियन आदि दर्जनों पत्र पत्रिकाओं ने उस युग में स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई उर्जा प्रदान की। गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’, सज्जाद जहीर एवं शिवदान सिंह चौहान के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाला ‘नया हिन्दुस्तान’ राजाराम शास्त्री का ‘क्रांति’ व यशपाल का ‘विप्लव’ अपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी तेवर वाले पत्र थे। इन पत्रों में क्रांतिकारी युगांतकारी लेखन ने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी थी। अपने संपादकीय, लेखों, कविताओं के जरिए इन पत्रों ने सरकार की नीतियों की लगातार भर्त्सना की। ‘नया हिन्दुस्तान’ और ‘विप्लव’ के जब्तशुदा प्रतिबंधित अंकों को देखने से इनकी वैश्विक दृष्टि का पता चलता है। फासीवाद के उदय और बढ़ते साम्राज्यवाद व पूंजीवाद पर चिंता इन पत्रों में साफ देखी जा सकती है।

गोरखपुर से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ को जीवंतपर्यंत अपने उग्र विचारों और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण समय-समय पर अंग्रेजी सरकार के कोप का शिकार होना पड़ा। खासकर विजयांक विशेषांक को। इस दौरान ही प्रकाशित आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा संपादित ‘चांद’ के फांसी अंक की चर्चा भी जरूरी है। काकोरी के अभियुक्तों को फांसी के लगभग एक साल बाद, इलाहाबाद से प्रकाशित चांद का फांसी अंक क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमूल्य निधि है। यह अंक क्रांतिकारियों की गाथाओं से भरा हुआ है। सरकार ने अंक की जनता में जबर्दस्त प्रतिक्रिया और समर्थन देख इसको फौरन जब्त कर लिया और रातों-रात इसके सारे अंक गायब कर दिये। अंग्रेज हुकूमत एक तरफ क्रांतिकारी पत्र-पत्रिकाओं को जब्त करती रही, तो दूसरी तरफ इनके संपादक इन्हें बिना रुके पूरी निर्भिकता से निकालते रहे। सरकारी दमन इनके हौसलों पर जरा भी रोक नहीं लगा सका। पत्र-पत्रिकाओं के जरिए उनका यह प्रतिरोध आजादी मिलने तक जारी रहा।
स्वाधीनता संघर्ष के दौर के भारतीय क्रांतिकारी पत्रः
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में एक से अधिक भाषा वाले भाषाई पत्र
हिन्दी और उर्दू पत्र
1947 के बाद का आधुनिक हिंदी युग-


अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आजादी के बाद आया। 1947 में देश को आजादी मिल गई। ऐसे में राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र को गुलामी से आजाद कराने के लिए निकले अनेकों समाचार पत्रों के उद्देश्य पूरे भी हो गए, और पत्रकारिता उद्योग में तब्दील होने लगी। वहीं लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ। औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई, जिससे पत्रों का संगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ, तथा रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अब तक के वर्षों की हिन्दी पत्रकारिता की विकास यात्रा को आधुनिक युग में रखा जाता है। इस युग में पत्रकारिता के विषय क्षेत्र का विस्तार और नए आयामों का उद्भव हुआ। आधुनिक दौर में ही अखबारों में प्रबंधन और विज्ञापन के बड़ते प्रभाव का असर भी विकृतियों के रूप में बढ़ता जा रहा है। खोजी पत्रकारिता का समावेश भी तेजी से अखबारों को अपनी चपेट में ले रहा है। ज्यादातर अखबार इंटरनेट पर भी अपने सारे संस्करण उपलब्ध करा रहे हैं।
एक शताब्दी से अधिक पुराने समाचार पत्र
समाचार पत्र संस्थापक/सम्पादक भाषा प्रकाशन स्थान वर्ष
अमृत बाजार पत्रिका मोतीलाल घोष बंगला कलकत्ता 1868 अमृत बाजार पत्रिका मोतीलाल घोष अंग्रेजी कलकत्ता 1878 सोम प्रकाश ईश्वरचन्द्र विद्यासागर बंगला कलकत्ता 1859 बंगवासी जोगिन्दर नाथ बोस बंगला कलकत्ता 1881 संजीवनी के.के. मित्रा बंगला कलकत्ता हिन्दू वीर राघवाचारी अंग्रेजी मद्रास 1878 केसरी बाल गंगाधर तिलक मराठी बम्बई 1881 मराठा बाल गंगाधर तिलक अंग्रेजी हिन्दू एम.जी. रानाडे अंग्रेजी बम्बई 1881 नेटिव ओपीनियन वी.एन. मांडलिक अंग्रेजी बम्बई 1864 बंगाली सुरेन्द्रनाथ बनर्जी अंग्रेजी कलकत्ता 1879 भारत मित्र बालमुकुन्द गुप्त हिन्दी हिन्दुस्तान मदन मोहन मालवीय हिन्दी हिन्द-ए-स्थान रामपाल सिंह हिन्दी कालाकांकर (उत्तर प्रदेश) बम्बई दर्पण बाल शास्त्री मराठी बम्बई 1832 कविवचन सुधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी उत्तर प्रदेश 1867 हरिश्चन्द्र मैगजीन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी उत्तर प्रदेश 1872 हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड सच्चिदानन्द सिन्हा अंग्रेजी 1899 ज्ञान प्रदायिनी नवीन चन्द्र राय हिन्दी 1866 हिन्दी प्रदीप बालकृष्ण भट्ट हिन्दी उत्तर प्रदेश 1877 इंडियन रिव्यू जी.ए. नटेशन अंग्रेजी मद्रास मॉडर्न रिव्यू रामानन्द चटर्जी अंग्रेजी कलकत्ता यंग इंडिया महात्मा गाँधी अंग्रेजी अहमदाबाद 8 अक्टूबर, 1919 नव जीवन महात्मा गाँधी हिन्दी, गुजराती अहमदाबाद 7 अक्टूबर, 1919 हरिजन महात्मा गाँधी हिन्दी, गुजराती पूना 11 फरवरी, 1933 इनडिपेंडेस मोतीलाल नेहरू अंग्रेजी 1919 आज शिवप्रसाद गुप्त हिन्दी हिन्दुस्तान टाइम्स के.एम.पणिक्कर अंग्रेजी दिल्ली 1920 नेशनल हेराल्ड जवाहरलाल नेहरू अंग्रेजी दिल्ली अगस्त, 1938 उदंत मार्तंड जुगल किशोर हिन्दी कानपुर 1826 द ट्रिब्यून दयाल सिंह मजीठिया अंग्रेजी चण्डीगढ़ 1877 अल हिलाल अबुल कलाम आजाद उर्दू कलकत्ता 1912 अल बिलाग अबुल कलाम आजाद उर्दू कलकत्ता 1913 कामरेड मौलाना मुहम्मद अली अंग्रेजी हमदर्द मौलाना मुहम्मद अली उर्दू प्रताप पत्र गणेश शंकर विद्यार्थी हिन्दी कानपुर 1910 गदर गदर पार्टी द्वारा उर्दू/गुरुमुखी सॉन फ्रांसिस्को 1913 गदर गदर पार्टी द्वारा पंजाबी 1914 हिन्दू पैट्रियाट हरिश्चन्द्र मुखर्जी अंग्रेजी 1855 मद्रास स्टैंडर्ड, कॉमन वील, न्यू इंडिया,एनी बेसेंट अंग्रेजी 1914 सोशलिस्ट एस.ए.डांगे अंग्रेजी 1922
अंग्रेजी दौर में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और प्रेस की स्वतंत्रता में तत्कालीन पत्रकारिता की भूमिका
भारत में प्रेस की स्वतंत्रता में बाधा पैदा करने वाले अधिनियम
समाचार पत्रों के सरकार विरोधी रवैयों के साथ ही सरकार की ओर से उन्हें दबाने के प्रयास भी शुरू हो गए थे। 29 जनवरी 1780 को भारतीय पत्रकारिता के आदिजनक जेम्स ऑगस्टस हिकी द्वारा हिकी’ज बंगाल गजट के रूप में देश में भारतीय पत्रकारिता की नींव पड़ने के साथ ही ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उसका प्रतिवाद करने के लिए ‘इंडिया गजट’ समाचार पत्र के प्रकाशन से मीडिया का गला घोंटने का कुत्सित प्रयास प्रारंभ कर दिया गया था, तथा ‘हिकी गजट’ को विद्रोह के चलते सर्वप्रथम प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। स्वयं हिकी को एक साल की कैद और दो हजार रूपए जुर्माने की सजा हुई। तो भी भारतीय पत्रकारिता में गवर्नर जनरल वेलेजली का नाम प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने वालों में सबसे पहले आता है। देश में पहला प्रेस अधिनियम गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेज़ली के शासनकाल में 1799 में सामने आया। वेलेजली के द्वारा समाचार पत्रों पर ‘पत्रेक्षण अधिनियम’ और जॉन एडम्स द्वारा 1823 में ‘अनुज्ञप्ति नियम’ प्रतिबंध लागू किये गये। इनके कारण राजा राममोहन राय का मिरातुल अखबार बन्द हो गया। कालांतर में 1857 में गैंगिंक एक्ट, 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1908 में न्यूज पेपर्स एक्ट (इन्साइटमेंट अफैंसेज), 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट, 1930 में इंडियन प्रेस आर्डिनेंस, 1931 में दि इंडियन प्रेस एक्ट (इमरजेंसी पावर्स) जैसे दमनकारी कानून अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने के उद्देश्य से लागू किए गये। अंग्रेजी सरकार इन काले कानूनों का सहारा लेकर किसी भी पत्र-पत्रिका पर जब चाहे प्रतिबंध या जुर्माना लगा देती थी। आपत्तिजनक लेख वाले पत्र-पत्रिकाओं को जब्त कर लिया जाता। लेखक, संपादकों को कारावास भुगतना पड़ता व पत्रों को दोबारा शुरू करने के लिए जमानत की भारी भरकम रकम जमा करनी पड़ती थी। इसके बावजूद समाचार पत्र संपादकों के तेवर उग्र से उग्रतर होते चले गए। आजादी के आन्दोलन में जो भूमिका उन्होंने खुद तय की थी, उस पर उनका भरोसा और भी ज्यादा मजबूत होता चला गया। जेल, जब्ती व जुर्माने के डर से उनके हौसले पस्त नहीं हुये।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट
समाचार पत्र अधिनियम
अन्य अधिनियम
प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण
लॉर्ड विलियम बैंटिक प्रथम गवर्नर-जनरल था, जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया। कार्यवाहक गर्वनर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ़ ने समाचार पत्रों को 1823 के प्रतिबन्ध को हटाकर मुक्ति दिलवाई। यही कारण है कि उसे ‘समाचार पत्रों का मुक्तिदाता’ भी कहा जाता है। लॉर्ड मैकाले ने भी प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया। 1857–1858 के विद्रोह के बाद भारत में समाचार पत्रों को भाषाई आधार के बजाय प्रजातीय आधार पर विभाजित किया गया। अंग्रेज़ी समाचार पत्रों एवं भारतीय समाचार पत्रों के दृष्टिकोण में अंतर होता था। जहाँ अंग्रेज़ी समाचार पत्रों को भारतीय समाचार पत्रों की अपेक्षा ढेर सारी सुविधाये उपलब्ध थीं, वही भारतीय समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा था।
अंग्रेजों द्वारा सम्पादित समाचार पत्र
स्थान | वर्ष | |
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टाइम्स ऑफ़ इंडिया | बम्बई | 1861 ई. |
स्टेट्समैन | कलकत्ता | 1878 ई. |
इंग्लिश मैन | कलकत्ता | – |
फ़्रेण्ड ऑफ़ इंडिया | कलकत्ता | – |
मद्रास मेल | मद्रास | 1868 ई. |
पायनियर | इलाहाबाद | 1876 ई. |
सिविल एण्ड मिलिटरी गजट | लाहौर | – |
एक शताब्दी से अधिक पुराने समाचार पत्र
19वीं शताब्दी में प्रकाशित भारतीय समाचार पत्र
समाचार पत्र | संस्थापक/सम्पादक | भाषा | प्रकाशन स्थान | वर्ष |
---|---|---|---|---|
अमृत बाज़ार पत्रिका | मोतीलाल घोष | बंगला | कलकत्ता | 1868 ई. |
अमृत बाज़ार पत्रिका | मोतीलाल घोष | अंग्रेज़ी | कलकत्ता | 1878 ई. |
सोम प्रकाश | ईश्वरचन्द्र विद्यासागर | बंगला | कलकत्ता | 1859 ई. |
बंगवासी | जोगिन्दर नाथ बोस | बंगला | कलकत्ता | 1881 ई. |
संजीवनी | के.के. मित्रा | बंगला | कलकत्ता | |
हिन्दू | वीर राघवाचारी | अंग्रेज़ी | मद्रास | 1878 ई. |
केसरी | बाल गंगाधर तिलक | मराठी | बम्बई | 1881 ई. |
मराठा | बाल गंगाधर तिलक | अंग्रेज़ी | – | – |
हिन्दू | एम.जी. रानाडे | अंग्रेज़ी | बम्बई | 1881 ई. |
नेटिव ओपीनियन | वी.एन. मांडलिक | अंग्रेज़ी | बम्बई | 1864 ई. |
बंगाली | सुरेन्द्रनाथ बनर्जी | अंग्रेज़ी | कलकत्ता | 1879 ई. |
भारत मित्र | बालमुकुन्द गुप्त | हिन्दी | – | – |
हिन्दुस्तान | मदन मोहन मालवीय | हिन्दी | – | – |
हिन्द-ए-स्थान | रामपाल सिंह | हिन्दी | कालाकांकर (उत्तर प्रदेश) | – |
बम्बई दर्पण | बाल शास्त्री | मराठी | बम्बई | 1832 ई. |
कविवचन सुधा | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | हिन्दी | उत्तर प्रदेश | 1867 ई. |
हरिश्चन्द्र मैगजीन | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | हिन्दी | उत्तर प्रदेश | 1872 ई. |
हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड | सच्चिदानन्द सिन्हा | अंग्रेज़ी | – | 1899 ई. |
ज्ञान प्रदायिनी | नवीन चन्द्र राय | हिन्दी | – | 1866 ई. |
हिन्दी प्रदीप | बालकृष्ण भट्ट | हिन्दी | उत्तर प्रदेश | 1877 ई. |
इंडियन रिव्यू | जी.ए. नटेशन | अंग्रेज़ी | मद्रास | – |
मॉडर्न रिव्यू | रामानन्द चटर्जी | अंग्रेज़ी | कलकत्ता | – |
यंग इंडिया | महात्मा गाँधी | अंग्रेज़ी | अहमदाबाद | 8 अक्टूबर, 1919 ई. |
नव जीवन | महात्मा गाँधी | हिन्दी, गुजराती | अहमदाबाद | 7 अक्टूबर, 1919 ई. |
हरिजन | महात्मा गाँधी | हिन्दी, गुजराती | पूना | 11 फ़रवरी, 1933 ई. |
इनडिपेंडेस | मोतीलाल नेहरू | अंग्रेज़ी | – | 1919 ई. |
आज | शिवप्रसाद गुप्त | हिन्दी | – | – |
हिन्दुस्तान टाइम्स | के.एम.पणिक्कर | अंग्रेज़ी | दिल्ली | 1920 ई. |
नेशनल हेराल्ड | जवाहरलाल नेहरू | अंग्रेज़ी | दिल्ली | अगस्त, 1938 ई. |
उदंत मार्तंड | जुगल किशोर | हिन्दी (प्रथम) | कानपुर | 1826 ई. |
द ट्रिब्यून | सर दयाल सिंह मजीठिया | अंग्रेज़ी | चण्डीगढ़ | 1877 ई. |
अल हिलाल | अबुल कलाम आज़ाद | उर्दू | कलकत्ता | 1912 ई. |
अल बिलाग | अबुल कलाम आज़ाद | उर्दू | कलकत्ता | 1913 ई. |
कामरेड | मौलाना मुहम्मद अली | अंग्रेज़ी | – | – |
हमदर्द | मौलाना मुहम्मद अली | उर्दू | – | – |
प्रताप पत्र | गणेश शंकर विद्यार्थी | हिन्दी | कानपुर | 1910 ई. |
गदर | ग़दर पार्टी द्वारा | उर्दू/गुरुमुखी | सॉन फ़्रांसिस्को | 1913 ई. |
गदर | गदर पार्टी द्वारा | पंजाबी | – | 1914 ई. |
हिन्दू पैट्रियाट | हरिश्चन्द्र मुखर्जी | अंग्रेज़ी | – | 1855 ई. |
मद्रास स्टैंडर्ड, कॉमन वील, न्यू इंडिया | एनी बेसेंट | अंग्रेज़ी | – | 1914 ई. |
सोशलिस्ट | एस.ए.डांगे | अंग्रेज़ी | – | 1922 ई. |
प्रिंट पत्रकारिता: समाचार पत्र और प्रकाशन समूह
प्रमुख प्रकाशन समूह और उनकी पत्रिकाएं :
नाम | नगर | भाषा | नाम | नगर | भाषा |
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जनसत्ता | कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, चंडीगढ़ | हिन्दी | नवभारत टाइम्स | मुम्बई, दिल्ली | हिन्दी |
हिन्दुस्तान | दिल्ली, पटना, लखनऊ, वाराणसी | हिन्दी | पंजाब केसरी | दिल्ली, जालंधर | हिन्दी |
विश्वामित्र | मुम्बई, कानपुर, कोलकाता, पटना | हिन्दी | वीर अर्जुन | दिल्ली | हिन्दी |
राष्ट्रीय सहारा | दिल्ली, लखनऊ, गोरखपुर, देहरादून, पटना, कानपुर, वाराणसी | हिन्दी | अमर उजाला | आगरा, बरेली, मेरठ | हिन्दी |
दैनिक जागरण | कानपुर, बनारस, पटना, लखनऊ, मेरठ | हिन्दी | अमृत प्रभात | इलाहबाद, लखनऊ | हिन्दी |
दैनिक आज | वाराणसी, पटना, गोरखपुर | हिन्दी | राजस्थान पत्रिका | जयपुर, बंगलोर | हिन्दी |
नई दुनिया | दिल्ली, इन्दौर, भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, रायपुर, बिलासपुर | हिन्दी | दैनिक भास्कर | भोपाल | हिन्दी |
हिन्दुस्तान टाइम्स | दिल्ली, पटना | अंग्रेज़ी | हिन्दू | चैन्नई, कोयम्बटूर, दिल्ली | अंग्रेज़ी |
टाइम्स ऑफ इण्डिया | दिल्ली, पटना, मुम्बई, अहमदाबाद | अंग्रेज़ी | इंडियन एक्सप्रेस | दिल्ली, मुम्बई, लखनऊ | अंग्रेज़ी |
द हितवाद | नागपुर | अंग्रेज़ी | फाइनेंशियल एक्सप्रेस | मुम्बई, दिल्ली | अंग्रेज़ी |
पायनियर | लखनऊ, कानपुर | अंग्रेज़ी | इकोनॉमिक टाइम्स | मुम्बई | अंग्रेज़ी |
स्टेट्समैन | नई दिल्ली, कोलकाता | अंग्रेज़ी | स्वतंत्र भारत | लखनऊ | अंग्रेज़ी |
अमृत बाज़ार पत्रिका | कोलकाता | अंग्रेज़ी | असम ट्रिब्यून | गुवाहाटी | अंग्रेज़ी |
ट्रिब्यून | अम्बाला, चण्डीगढ़ | अंग्रेज़ी | द टेलीग्राफ | कोलकाता | अंग्रेज़ी |
पैट्रियट | दिल्ली | अंग्रेज़ी | नॉर्दन इण्डिया | लखनऊ, इलाहबाद | अंग्रेज़ी |
डक्कन क्रॉनिकल | बंगलौर | अंग्रेज़ी | डक्कन हेरोल्ड | बंगलौर | अंग्रेज़ी |
ब्लिट्ज | मुम्बई | मराठी | सामना | मुम्बई | मराठी |
हिंदुस्तान स्टैण्डर्ड | कोलकाता | बांग्ला | नूतन असमिया | गुवाहाटी | असमिया |
अकाली पत्रिका | जालंधर | पंजाबी | मथरुभूमि | कोझीकोट | मलयालम |
मातृभूमि, समाज, प्रजातंत्र | कटक | उड़िया | तेज | दिल्ली | उर्दू |
दिनावन्दी | मदुरै, कोयम्बटूर | तमिल | दिनामलर | चैन्नई, मदुरै | तमिल |
मलयालम मनोरमा | तिरुवनंतपुरम | मलयालम | प्रभात ख़बर | रांची, जमशेदपुर, कोलकाता, देवघर | हिन्दी |
हरिभूमि | हरियाणा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश | हिन्दी |
भारतीय प्रेस परिषद्
भारतीय प्रेस परिषद (Press Council of India) एक संविघिक स्वायत्तशासी संगठन है जो प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने व उसे बनाए रखने, जन अभिरूचि का उच्च मानक सुनिश्चित करने से और नागरिकों के अघिकारों व दायित्वों के प्रति उचित भावना उत्पन्न करने का दायित्व निबाहता है। सर्वप्रथम इसकी स्थापना 4 जुलाई, सन् 1966 को हुई थी। अध्यक्ष परिषद का प्रमुख होता है जिसे राज्यसभा के सभापति, लोकसभा अघ्यक्ष और प्रेस परिषद के सदस्यों में चुना गया एक व्यक्ति मिलकर नामजद करते हैं। परिषद के अघिकांश सदस्य पत्रकार बिरादरी से होते हैं लेकिन इनमें से तीन सदस्य विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, बार कांउसिल आफ इंडिया और साहित्य अकादमी से जुड़े होते हैं तथा पांच सदस्य राज्यसभा व लोकसभा से नामजद किए जाते हैं – राज्य सभा से दो और लोकसभा से तीन। प्रेस परिषद, प्रेस से प्राप्त या प्रेस के विरूद्ध प्राप्त शिकायतों पर विचार करती है। परिषद को सरकार सहित किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकती है या भर्त्सना कर सकती है या निंदा कर सकती है या किसी सम्पादक या पत्रकार के आचरण को गलत ठहरा सकती है। परिषद के निर्णय को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। काफी मात्रा में सरकार से घन प्राप्त करने के बावजूद इस परिषद को काम करने की पूरी स्वतंत्रता है तथा इसके संविघिक दायित्वों के निर्वहन पर सरकार का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है।
इतिहास
सन् 1954 में प्रथम प्रेस आयोग ने प्रेस परिषद् की स्थापना की अनुशंशा की। पहली बार 4 जुलाई, 1966 को स्थापित सन् 1 जनवरी, 1976 को आन्तरिक आपातकाल के समय भंग 1978 में नया प्रेस परिषद अधिनियम लागू 1979 में नए सिरे से स्थापित
प्रेस परिषद् अधिनियम, 1978
प्रेस परिषद् की शक्तियाँ निम्नानुसार अधिनियम की धारा 14 और 15 में दी गई हैं । अधिनियम में दिया गया है कि परिषद, अधिनियम में अंतर्गत अपने कार्य करने के उद्देश्य से, पंजीकृत समाचारत्रों और समाचार एजेंसियों से निर्दिषट दरों पर उद्ग्रहण शुल्क ले सकती है। इसके अतिरिक्त, केन्द्रीय सरकार, द्वारा परिषद् को अपने कार्य करने के लिये, इसे धन, जैसाकि केन्द्रीय सरकार आवश्यक समझे, देने का व्यादेश दिया गया है।
परिषद् की शक्तियाँ
- परिनिंदा करने की शक्ति: जहाँ परिषद् को, उससे किए गए परिवाद के प्राप्त होने पर या अन्यथा, यह विश्वास करने का कारण हो कि किसी समाचारपत्र या समाचार एजेंसी ने पत्रकारिक सदाचार या लोक-रूचि के स्तर का अतिवर्तन किया है या किसी सम्पादक या श्रमजीवी पत्रकार ने कोई वृत्तिक अवचार किया है, वहां परिषद् सम्बद्ध समाचारत्र या समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात उस रीति से जाँच कर सकेगी जो इस अधिनियम के अधीन बनाए गये विनियमों द्वारा उपबन्धित हो और यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करना आवश्यक है तो वह ऐसे कारणों से जो लेखवद्ध किये जायेंगे, यथास्थिति उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकेगी, उसकी भर्त्सना कर सकेगी या उसकी परिनिंदा कर सकेगी या उस संपादक या पत्रकार के आचरण का अनुमोदन कर सकेगी, परंतु यदि अध्यक्ष की राम में जाँच करने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है तो परिषद् किसी परिवाद का संज्ञान नहीं कर सकेगी।
- यदि परिषद् की यह राय है कि लोकहित् में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो वह किसी समाचारपत्र से यह अपेक्षा कर सकेगी कि वह समाचारपत्र या समाचार एजेंसी, संपादक या उसमें कार्य करने वाले पत्रकार के विरूद्ध इस धारा के अधीन किसी जाँच से संबंधित किन्हीं विशि¬टयों को, जिनके अंतर्गत उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार का नाम भी है उसमें ऐसी नीति से जैसा परिषद् ठीक समझे प्रकाशित करे।
- उपधारा 1, की किसी भी बात से यह नहीं समझा जायेगा कि वह परिषद् को किसी ऐसे मामले में जाँच करने की शक्ति प्रदान करती है जिसके बारे में कोई कार्रवाई किसी न्यायालय में लम्बित हो।
- यथास्थिति उपधारा 1, या उपधारा 2, के अधीन परिषद् का विनिश्चय अंतिम होगा और उसे किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जायेगा।
परिषद् की साधारण शक्तियाँ
इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों के पालन या कोई जाँच करने के प्रयोजन के लिए परिषद् को निम्नलिखित बातों के बारे में संपूर्ण भारत में वे ही शक्तियाँ होंगी जो वाद का विचारण करते समय 1908 का 5, सिविल न्यायालय में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन निहित हैं, अर्थात-
- व्यक्तियों को समन करना और हाजिर कराना तथा उनकी शपथ पर परीक्षा करना,
- दस्तावेजों का प्रकटीकरण और उनका निरीक्षण,
- साक्ष्य का शपथ कर लिया जाना,
- किसी न्यायालय का कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपियों की अध्यपेक्षा करना,
- साक्षियों का दस्तावेज की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना,
- कोई अन्य विषय जो विहित जाए।
- उपधारा 1, की कोई बात किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को उस समाचारपत्र द्वारा प्रकाशित या उस समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार द्वारा प्राप्त रिपोर्ट किये गये किसी समाचार या सूचना का स्रोत प्रकट करने के लिए विवश करने वाली नहीं समझी जायेगी।
- परिषद् द्वारा की गयी प्रत्येक जाँच भारतीय दंड संहिता की धारा 193 और 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही समझी जायेगी।
- यदि परिषद् अपने उद्देश्यों को क्रियान्वित करने के प्रयोजन के लिए या अधिानियम के अधीन अपने कृत्यों का पालन करने के लिए आवश्यक समझती है तो वह अपने किसी विनिश्चय में या रिपोर्ट में किसी प्राधिकरण के, जिसके अन्तर्गत सरकार भी है, आचरण के संबंध में ऐसा मत प्रकट कर सकेगी जो वह ठीक समझे। शिक्षाविदों की विशि¬ट मंडली द्वारा संवारा गया है। उच्चतम न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश न्यायामूर्ति श्री जे. आर. मधोलकर, पहले अध्यक्ष थे जिन्होंने 16 नवंबर, 1966 से 1 मार्च, 1968 तक परिषद् की अध्यक्षता की। इसके पश्चात न्यायामूर्ति श्री एन. राजगोपाला अय्यनगर 4 मई, 1968 से 1 जनवरी, 1976 तक, न्यायामूर्ति श्री एन. एन. ग्रोवर 3 अप्रैल, 1979 से 9 अक्टूबर, 1985 तक, न्यायामूर्ति श्री एन. एन. सेन 10 अक्टूबर, 1985 से 18 जनवरी, 1989 तक और न्यायामूर्ति श्री आर. एस. सरकारिया 19 जनवरी, 1989 से 24 जुलाई, 1995 तक और श्री पी. बी. सार्वेत 24 जुलाई, 1995 से अब तक परिषद् के अध्यक्ष रहे हैं। ये उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे। इन सभी ने परिषद् के दर्शन और कार्यों में गहन वचनवद्धता के साथ, परिषद् का मार्गदर्शन किया। परिषद् इनसे निर्देश पाकर, इनके ज्ञान और बुद्धि से अत्यधिक लाभान्वित हुई।

वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश (55)की बीती 5 सितम्बर की शाम की गयी हत्या निंदनीय है। इस पर गहरा हार्दिक कष्ट व दुःख है। इस बात के लिये भी कि एक विचारधारा विशेष के लोगों ने गौरी को उनकी मृत्यु के बाद केवल बामपंथी विचारधारा की पत्रकार के रूप में सीमित करने की कोशिश की है। जबकि पत्रकारिता किसी विचारधारा में नहीं बंधती। किसी विचारधारा में बंधा व्यक्ति पत्रकार हो ही नहीं सकता। वह केवल उस विचारधारा का झंडाबरदार ही हो सकता है। ऐसे लोगों ने भले स्वयं गौरी के जीते जी उनकी प्रोफाइल भी जीवन में कभी देखी न हो, वे उनकी मृत्यु पर आंसू बहाकर अपनी विचारधारा का प्रसार करने के लिए उपयोग कर रहे हैं, और मीडिया की ‘मीडिया ट्रायल’ की बीमारी को सोशल मीडिया तक ले आये हैं। स्वयं घोषणा कर दी है कि गौरी की हत्या दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों ने की है। उनका बस चले तो वे सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही सीसीटीवी में नजर आ रहा हेलमेट व काला जैकेट पहने गौरी का हत्यारा बता दें। जबकि उनके भाई ने मौत के पीछे नक्सलियों के होने की भी आशंका जताई है, और कर्नाटक सरकार काफी लंबे समय से चल रहे उनके घर के पारिवारिक विवाद के कोण पर भी जांच कर रही है….

वैसे यह भी एक प्रश्न है कि पिछले पाँच सालों (2013-2017) में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले क्षैत्र के 21 पत्रकारों की हत्या हुई, परन्तु इनकी मौत पर ऐसा कोई हो-हल्ला नहीं हुआ, ना ही गौरी की तरह बड़े पत्रकारों ने ट्वीट हीं किये … आखिर क्यों ?