महेश खान: यानी प्रकृति और जैव विविधता की खान
पहली नजर में दो हिंदू-मुस्लिम नामों का सम्मिश्रण लगने वाले महेश खान के नाम में ‘खान’ कोई जाति या धर्म सूचक शब्द नहीं है, लेकिन ‘खान’ शब्द को दूसरे अर्थों में प्रयोग करें तो यह स्थान प्रकृति के लिए भी प्रयोग किए जाने वाले महेश यानी शिव की धरती कहे जाने वाले कुमाऊं में वानस्पतिक एवं वन्य जीव-जंतुओं व पक्षियों की जैव विविधता की ‘खान’ ही है। वैसे शाब्दिक अर्थ की बात करें तो महेश खान के नाम में प्रयुक्त ‘खान’ शब्द का प्रयोग कुमाऊं में खासकर अंग्रेजी दौर के घोड़ा व पैदल मार्गों के पड़ावों के लिए होता है। नैनीताल के निकट बल्दियाखान, बेलुवाखान व अल्मोड़ा-झूलाघाट पैदल मार्ग पर पड़ने वाले चर्चाली खान और न्योली खान की तरह ही महेश खान काठगोदाम से मुक्तेश्वर होते हुए अल्मोड़ा जाने वाले पैदल मार्ग का एक पड़ाव रहा है।
समुद्र सतह से 2085 मीटर की ऊंचाई पर स्थित महेश खान नैनीताल से 21 और हल्द्वानी से 40 किमी की दूरी पर, भवाली के निकट, भवाली-रामगढ़ रोड से करीब पांच किमी अंदर घने वन में स्थित नितांत नीरव तथा हर मौसम में प्रकृति के बीच शांति तथा वन्य जीवन तलाशते सैलानियों के लिए बेहद उपयुक्त स्थान है। पक्षियों के दर्शन के लिए बेहद समृद्ध महेश खान को देश के पांच सबसे अच्छे जंगलों में से एक होने दर्जा हासिल है, तथा उत्तराखंड के वन विभाग ने इसे धनौल्टी, डोडीताल, बिन्सर, धौलछीना, छोटी हल्द्वानी, सिमतोला व गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान सहित उत्तराखंड के 25 ईको-पर्यटन गंतव्यों (ईको टूरिज्म डेस्टिनेशन) में शामिल किया है। यहां पक्षियों की पहचान तथा अन्य जानकारियां देने के लिए वन विभाग समय-समय पर प्रशिक्षण शिविर भी आयोजित करता रहता है। महेश खान के पास ‘टैगोर प्वाइंट’ एक बड़ा आकर्षण है, जहां गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी नोबेल पुरस्कार विजेता कृति ‘गीतांजलि’ की कुछ कविताएं लिखी थीं। इस कारण महेश खान विशेष रूप से बंगाली पर्यटकों के लिए एक हमेशा से प्रमुख आकर्षण और पसंदीदा जगह रहा है। महेश खान जाने के लिए भवाली या नैनीताल में वन विभाग के अधिकारियों से अनुमति लेकर ही मुख्य सड़क पर लगे जंजीर के गेट से आगे वन क्षेत्र में जाया जा सकता है। भवाली से आगे पक्की सड़क से हटकर अंदर वन मार्ग में आगे बढ़ते हुए रास्ते में बांज, बुरांस, अंयार, तिलौंज, खरसू, काफल, चीड़ व देवदार के वन लगातार घने होते चले जाते हैं। जंगली फर्न की अनेक किस्में भी यहां की समृद्ध जैव विविधता में चार-चांद लगाती हैं। जंगल में जगह-जगह गुलदार, तेंदुआ, भालू व जंगली सुअर जैसे हिंसक तथा सांभर, घुरल, कांकड़, साही सहित अनेकों अन्य वन्य जीवों की प्रजातियां भी अपनी मौजूदगी का रोमांचक अहसास कराती हुई चलती हैं, तो काला तीतर व पहाड़ी बुलबुल, पहाड़ का प्रिय घुघुती पक्षी, नीले रंग का फ्लाईकैचर, लाल रंग का ओरियल और कठफोड़वा की नौ प्रजातियों सहित पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां चहकते हुए मानो आपकी जासूसी करते हुए आश्वस्त भी करती जाती हैं कि सफर बेहद दिलचस्प रहने वाला है। यहां मानव निर्मित आधुनिक दुनिया के नाम पर अंग्रेजी दौर में 1911 में बना वन विभाग का इकलौता डाक बंगला है, जिसने हाल ही में अपनी स्थापना की शताब्दी मनाई है। छिटपुट मरम्मत कार्यों के अलावा आज भी यह अंग्रेजी दौर जैसा ही नजर आता है। वहीं आधुनिकता के नाम पर तीन-चार बांश के बने बंबू कॉटेज अभी कुछ वर्षों पूर्व बनाए गए हैं, जिनमें बिजली के बिना रात्रि में सौर ऊर्जा से बहुत सीमित रोशनी के साथ पूरी तरह ‘ईको-पर्यटन’ का रोमांचक आनंद उठाया जा सकता है। इस सबके बीच महेश खान परिवार तथा मित्रों के साथ पूरी तरह प्रकृति के साथ जीने का एक बेहतरीन पड़ाव साबित होता है। बरसात के मौसम में महेश खान में चीड़ व अन्य शंकुदार पेड़ों की नुकीली पत्तियां से झरती पानी की बूंदें मानव मन को खासा आनंदित करती हैं। गर्मियों में घने पेड़ों की छांव बेहद सुकून देती है, तो सर्दियों में बर्फवारी की संभावना के बीच राज्य वृक्ष बंुरांश से यहां के जंगल चटख लाल रंग में रंगकर प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा इसके लिए प्रयोग किए गए शब्द ‘जंगल की ज्वाला’ को साकार करते नजर आते हैं।