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March 19, 2024

गौरा-महेश को बेटी-जवांई के रूप में विवाह-बंधन में बांधने का पर्व: सातूं-आठूं (गंवरा या गमरा)

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Gamara1डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 29 अगस्त 2021। प्रकृति में रची-बसी देवभूमि के अधिकांश लोकपर्व-त्योहार प्रकृति के साथ देवी-देवताओं के साथ आध्यात्मिक तौर पर अत्यधिक गहरे जुड़े हुए हैं। सातूं-आठूं, गंवरा या गमरा लोक पर्व को देखिये। इस पर्व पर यहां की पर्वत पुत्रियां महादेवी गौरा से बेटी का और देवों के देव जगत्पिता महादेव का उनसे विवाह कराकर वह उनसे जवांई यानी दामाद का रिश्ता बना लेती हैं। यहां बकायदा वर्षाकालीन भाद्रपद मास में अमुक्ताभरण सप्तमी को सातूं, और दूर्बाष्टमी को आठूं का लोकपर्व मना कर (गंवरा या गमरा) गौरा-पार्वती और महेश (भगवान शिव) के विवाह की रस्में निभाई जाती हैं, और बेटी व दामाद के रूप में उनकी पूजा-अर्चना भी की जाती है। इस मौके पर बिरुड़े कहे जाने वाले भीगे चने व अन्य दालों के प्रसाद के साथ बिरुड़ाष्टमी भी मनाई जाती है।

उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में अल्मोड़ा जनपद के चौगर्खा क्षेत्र से लेकर पिथौरागढ़ जनपद के गनाई-गंगोली व सोरघाटी तक और बागेश्वर के नाकुरी अंचल तथा चंपावत के काली-कुमाऊं सहित पड़ोसी देश नेपाल के अनेक स्थानों पर भाद्रपद मास में सातूं-आठूं का उत्सव हर वर्ष बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।Gamara भाद्रपद मास में सातूं-आठूं कृष्ण पक्ष में होगा अथवा शुक्ल पक्ष में, इसका निर्धारण पंचांग से अगस्त्योदय के अनुसार किया जाता है। इस प्रकार यदि यह पर्व कृष्ण पक्ष में निर्धारित हुआ तो कृष्ण जन्माष्टमी के साथ और यदि शुक्ल पक्ष में हुआ तो नंदाष्टमी के साथ मनाया जाता है।

इस अवसर पर विवाहिता महिलाएं उपवास रखती हैं और सातूं को बांए हाथ में पीले धागे युक्त डोर और अष्टमी को गले में दूब घास के साथ अभिमंत्रित लाल रंग के दुबड़े कहे जाने वाले खास धागे धारण कर अखंड सौभाग्य और सुख-समृद्धि की कामनाओं के साथ गौरा महेश की गाथा गाते हुए उपासना करती हैं। कुंवारी युवतियों के द्वारा केवल गले में दुबड़े ही पहने जाते हैं। कहा जाता है कि पुरा काल में महिलाओं के पास गले में बांधने के लिए धागे के दुबड़े नहीं होते थे, तब अपार प्रसार की प्रतीक दूब घास की ही माला बनाकर गले में बांधी जाती थी। इसलिए भी इसे दुबड़े और इस दिन को दूर्बाष्टमी कहते हैं।

त्योहार के विधि-विधान में मां गौरा की पूजा-अर्चना कर हिमालय के परिवेश से जुड़ी इस मौसम में होने वाले नींबू, कच्चे नारंगी, माल्टा, सेब आदि के साथ ही ककड़ी (खीरा) सहित हर तरह की वनस्पतियों और फूलों का भी प्रयोग होता है। पंचमी के दिन पांच तरह के अनाज-पंचधान्य भिगोए जाते हैं। सातूं यानी सप्तमी के दिन धान की सूखी पराल या बंसा घास, तिल और दूब आदि से तैयार गौरा-महेश की प्रतिमाएं विशेष अलंकरणों से सुशोभित कर स्थापित की जाती हैं। महेश्वर और गौरा की शिव पार्वती के रुप में विवाह रस्में संपन्न की जाती हैं। महिलाएं मंगल गीत गाकर मां गौरा और महेश्वर की पुत्री और दामाद के रूप में आराधना करती हैं। विशेष पूजा अर्चना के बाद रात्रि जागरण कर लोक संस्कृति आधारित गीत गाए जाते हैं। आगे आठूं यानी अष्टमी के दिन में भी यह सिलसिला चलता रहता है। गांव में किसी एक खुले स्थान पर एकत्र होकर हर घर से लाए गए अनाज, धतूरे और फल-फूलों से गौरा महेश यानी शिव-पार्वती की पूजा की जाती है, और उनकी गाथा गाई जाती है।

महिलाएं शिव-पार्वती की ओर से आम मनुष्यों की तरह पहाड़ी जीवन जीते हुए पेड़ पौधों से अपने पिता के घर (अपने मायके) का पता पूछते हुए गाती है- ‘‘बाटा में की निमुवा डाली म्यर मैत जान्या बाटो कां होलो’’ यानी रास्ते के नींबू के पेड़, बता कि मेरे मायके का रास्ता कौन सा है, और उन्हें प्रकृति से उत्तर भी मिलता है-‘‘दैनु बाटा जालो देव केदार, बों बाटा त्यार मैत जालो’’ यानी दांया रास्ता केदारनाथ की ओर जाता है, और बांया रास्ता तुम्हारे मायके की ओर जाता है। झोड़ा चांचरी और खेल के जरिए भी विशेष गायन होता है। देव डंगरिये भक्तों को पिठ्यां (रोली) अक्षत लगाकर आशीर्वाद देते है। एक चादर में पूजा में प्रयुक्त किए गए फल-फूलों को आसमान में उछाला जाता है। वापस गिरते हुए फल-फूलों को अपने आंचल में लेने की महिलाओं में प्रसाद स्वरूप स्वरूप ग्रहण करने की होड़ रहती है। आखिर में गौरा-महेश की मूर्तियों की शोभा यात्रा ढोल दमाऊं आदि वाद्य-यंत्रों के साथ गांव-नगर के भ्रमण पर निकाली जाती है तथा पास के जलधारों और नौलों आदि में मूर्तियों का विसर्जन कर दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इस पर्व की अब भी अत्यधिक धूम रहती है, जबकि नगरीय क्षेत्रों में अब इस त्योहार की मंचीय प्रस्तुतियां होने लगी हैं। सांस्कृतिक दल लोक-नृत्यों की प्रस्तुतियां देते हैं। कई जगह सप्तमी के दिन से शुरू होने वाला यह पर्व पूरे एक सप्ताह तक भी चलता है।

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