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December 23, 2024

बड़ा समाचार : पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र को उच्च न्यायालय के सीबीआई जांच के आदेश पर सुप्रीम राहत

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Supreame Court

नवीन समाचार, नई दिल्ली, 4 जनवरी 2023। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पर लगे कथित भ्रष्टाचार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के सीबीआई जांच कराने के फैसले को पलट दिया है। इस पर रावत ने खुशी जताते हुए कहा है, माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मेरे विरुद्ध दिये गए निर्णय को पूरी तरह खारिज कर दिया है। यह भी पढ़ें : हल्द्वानी में अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई-आंदोलन, कितने सही-कितने गलत और जिम्मेदार कौन ?

उच्चतम न्यायालय ने यह तक कहा है कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय का निर्णय-प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है। उच्च न्यायालय नैनीताल के उस निर्णय से मेरी प्रतिष्ठा को जो हानि हुई है, उसके संदर्भ में कानूनी कार्यवाही के लिए मेरे द्वारा विधिक सलाह ली जा रही है। मैं उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का मैं स्वागत करता हूँ।’ यह भी पढ़ें : निजी चिकित्सालय में फिल्म गब्बर जैसी शर्मनाक हरकत, 7 माह के मृत बच्चे को गंभीर बताते हुए थमा दिया सवा दो लाख का बिल…

The Chief Minister of Uttarakhand, Shri Trivendra Singh Rawat.jpgबुधवार को सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की और उत्तराखंड उच्च न्यायालय के त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के आरोपों से संबंधित एक मामले में सीबीआई जांच करने के आदेश को रद्द कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि इस मामले में सीबीआई जांच का आदेश देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है। यह भी पढ़ें : नैनीताल में साहूकार की करतूत: 7 हजार देकर 27 हजार रुपए वसूले, गर्भवती महिला से की मारपीट…

इस मामले में सरकार की ओर से न्यायालय में उपस्थित एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड वंशजा शुक्ला ने बताया कि पहले हुई सुनवाई के दौरान दूसरे पक्षकार उमेश शर्मा के अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि वह मसले का हल निकालना चाहते हैं। उन्हें थोड़ा और समय दिया जाए। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने चार जनवरी को सुनवाई की अगली तारीख तय की थी। यह भी पढ़ें : पेंशनरों की अनिवार्य कटौती पर हाईकोर्ट से आया बड़ा निर्णय, कहा-अनिवार्य कटौती नहीं कर सकते, वर्ष में एक बार मौका दें….

गौरतलब है कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 27 अक्टूबर 2020 को उमेश कुमार शर्मा व अन्य मामले में पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सीबीआई जांच का आदेश दिया था। इसे सर्वोच्च न्यायालय ने बदल दिया। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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यह भी पढ़ें : एनआईओएस से डिप्लोमा करने वालों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश पर लगाई रोक

नवीन समाचार, नई दिल्ली, 15 दिसंबर 2022। उत्तराखंड में एनआईओएस यानी नेशनल इंस्टीट्यूट आफ ओपेन स्कूलिंग से 18 महीने का दूरस्थ शिक्षा माध्यम से डिप्लोमा करने वालों के सहायक शिक्षक भर्ती के आवेदनों पर फिलहाल विचार नहीं किया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति विक्रमनाथ की खंडपीठ ने इस संबंध में उच्च न्यायालय के गत 14 सितंबर इन डिप्लोमा धारकों के आवेदनों पर विचार करने के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी है। यह भी पढ़ें : ब्रेकिंग: प्राधिकरण ने नैनीताल में शुरू किया विरोध के बीच ध्वस्तीकरण अभियान….

इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली पांच लोगों की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार व अन्य पक्षकारों को नोटिस भी जारी किया है। आगे न्यायालय इस मामले पर 31 जनवरी को फिर सुनवाई करेगा। यह भी पढ़ें : चर्चा में हल्द्वानी का ‘इंजीनियर चायवाला’, दिलचस्प है कहानी…

उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में प्राथमिक स्कूलों के लिए सहायक शिक्षकों की 2020-2021 में निकाली गई 2648 रिक्तियों की भर्ती के मामले में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 14 सितंबर के आदेश में पूर्व में आये त्रिपुरा और पटना उच्च न्यायालय के आदेशों को आधार बनाते हुए आदेश दिया था कि एनआइओएस से 18 महीने का डिप्लोमा रखने वाले भी सहायक शिक्षक भर्ती में आवेदन के लिए योग्य माने जाएंगे। यह भी पढ़ें : आखिर यूट्यूबर-व्लॉगर सौरभ जोशी ने हल्द्वानी-उत्तराखंड को आक्रोशित करने वाले अपने बयान पर मांगी माफी, देखें वीडियो-क्या कहा ?

लिहाजा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को उनके आवेदनों पर भी विचार करने का आदेश दिया था। उच्च न्यायालय के इस फैसले को दो वर्ष का नियमित डिप्लोमा करने वालों ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। इस पर याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता यूके उनियाल और धनंजय गर्ग ने उच्च न्यायालय के आदेश का विरोध करते हुए कहा कि उत्तराखंड सर्विस रूल में एनआइओएस से 18 महीने का ओडीएल डिप्लोमा लेने वालों को नियुक्ति के लिए मान्यता नहीं है। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड में बच्चे निशाने पर, सोशल मीडिया पर डाले जा रहे हैं बच्चों के अश्लील वीडियो

सर्वोच्च न्यायालय ने बहस सुनने के बाद उत्तराखंड राज्य, नेशनल काउंसिल फार टीचर्स एजूकेशन व अन्य प्रतिपक्षियों को नोटिस जारी किया, और उच्च न्यायालय के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : उत्तराखंड सरकार का राजद्रोह व सीबीआई जांच मामले में यूटर्न, पीछे पूर्व सीएम की नाराजगी !

नवीन समाचार, देहरादून, 19 नवंबर 2022। उत्तराखंड सरकार ने राजद्रोह मामले में यूटर्न ले लिया है। गत दिवस सरकार ने इस मामले में उच्च न्यायालय में दायर एसएलपी यानी विशेष अनुमति याचिका वापस लेने का फैसला लिया था, लेकिन इस बारे में हुए विवाद के बाद सरका ने अपना फैसला बदल लिया है, और एसएलपी वापस न लेने का फैसला कर लिया है। यह भी पढ़ें : आज नैनीताल पहुंचे विराट-अनुष्का, जानें यहां क्या किया….

इस बारे में उप सचिव अखिलेश मिश्रा की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में राज्य सरकार के अधिवक्ता को लिखे पत्र में कहा है कि गत 26 सितंबर को इस याचिका को वापस लिए जाने का निर्णय लिया गया था किंतु अब 26 सितंबर के पत्र को जनहित में निरस्त करने का निर्णय लिया गया है। इसलिए अधिवक्ता को इस याचिका पर पूर्व की यथास्थिति के अनुसार अग्रेत्तर आवश्यक कार्यवाही करने को कहा गया है। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड: कल 12 की मौत के बाद अब एक और बड़ी दुर्घटना, आधा दर्जन लोग हताहत

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2020 में उत्तराखंड सरकार ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में एसएली दायर की थी, जिसमें उच्च न्यायालय ने तत्कालीन पत्रकार व अब खानपुर से निर्दलीय विधायक उमेश कुमार व अन्य से राजद्रोह का मामला हटाने और तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से जुड़े एक मामले में सीबीआई जांच के आदेश दिए गए थे। बताया गया है कि हालांकि रावत निजी तौर पर इस मामले में एसएलपी दायर कर चुके थे, किंतु उस दौरान उनके सीएम ओने के कारण उत्तराखंड सरकार ने भी एसएलपी लगाई थी। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड: सरकारी विद्यालय में भारी मात्रा में जिलेटिन की छड़ों सहित विष्फोटक सामग्री मिली, हड़कंप, बम निरोधक दस्ता बुलाया गया

इधर सितंबर माह में राज्य सरकार ने अपनी एसएलपी सर्वोच्च न्यायालय से वापस लेने का फैसला लिया था। बताया जा रहा है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत इससे नाराज थे। उन्होंने इस पर केंद्रीय नेतृत्व से भी मुलाकात की थी। इस प्रकार उनकी नाराजगी के बाद धामी सरकार ने अब यूटर्न लेकर एसएलपी को वापस न लेने का यह फैसला लिया है। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : सिखों के विवाह अधिनियम पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश के बाद सर्वोच्च न्यायालय में दायर हुई याचिका..

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 15 सितंबर 2022। भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है, जिसमें राज्य सरकारों को आनंद विवाह अधिनियम, 1909 के तहत सिख विवाह के पंजीकरण के लिए नियम बनाने का निर्देश देने की मांग की गई है। बताया गया है कि याचिकाकर्ता ने नियम बनाने की मांग करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की थी। इस पर उच्च न्यायालय द्वारा गत 23 मार्च 2021 को उत्तराखंड राज्य के मुख्य सचिव को इस प्रस्ताव को मंत्रिमंडल के समक्ष रखने के लिए उचित कदम उठाने और मंत्रिमंडल की मंजूरी के बाद मामले को अंतिम रूप से निपटाने तथा इसे राजपत्र में प्रकाशित करने और विधान सभा के समक्ष रखने के लिए कदम उठाने के निर्देश दिए थे।

याचिका में कहा गया है कि विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने पहले ही आनंद विवाह अधिनियम, 1909 के तहत सिख विवाह के पंजीकरण के लिए नियम तैयार कर लिए हैं, लेकिन अभी भी विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने आनंद विवाह की धारा 6 के तहत इन नियमों को अधिसूचित नहीं किया है। इस मामले में याचिकाकर्ता अधिवक्ता अमनजोत सिंह चड्ढा द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि, ‘भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र होने के नाते अपने नागरिकों की धार्मिक प्रथाओं को बनाए रखना और उनका सम्मान करना है। आनंद विवाह अधिनियम, 1909 को एक सदी से भी अधिक समय पहले इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा अधिनियमित किया गया था। आनंद कारज के नाम से जाने जाने वाले सिखों के बीच विवाह समारोह को कानूनी मंजूरी और किसी भी संदेह को दूर करने के लिए, उनकी वैधता के रूप में डाला जा सकता है।

याचिकाकर्ता ने याचिका में कहा है कि, ‘यह प्रतिवादी द्वारा निष्क्रियता और कानून के तहत प्रदान किए गए बुनियादी कार्यों को करने के लिए उनकी सुस्ती का एक उत्कृष्ट मामला है। यह भी कहा गया था कि ‘निष्क्रियता के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकारों द्वारा इस अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए नियम बनाने में, समाज के एक बड़े वर्ग को केन्द्रीय अधिनियम के लाभ से वंचित किया जा रहा है।

यह बताया गया कि उत्तराखंड राज्य के अलावा, कई अन्य राज्य और केंद्र शासित प्रदेश भी प्रतिनिधित्व के बावजूद नियमों को अधिसूचित करने में विफल रहे हैं। ‘प्रतिवादी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में केंद्रीय अधिनियम के लागू न होने और आनंद विवाह के पंजीकरण और प्रमाणीकरण के लिए कोई अन्य ढांचा नहीं होने से पीड़ित, याचिकाकर्ता ने इस न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। याचिका में कहा गया है कि याचिकाकर्ता ने याचिका में अनुरोध किया है कि न्याय के हित में देश में आनंद विवाह अधिनियम 1909 के तहत नियमों को यथाशीघ्र अधिसूचित करने का आदेश देते हुए परमादेश की प्रकृति में रिट, आदेश या निर्देश जारी किया जाए।

याचिका में भारत संघ, उत्तराखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु, झारखंड, उत्तर प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मणिपुर और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, लेह और लद्दाख, चंडीगढ़, लक्षद्वीप, दमन और दीव, पांडिचेरी और अंडमान और निकोबार उत्तरदाताओं के रूप में यह याचिका बार काउंसिल ऑफ उत्तराखंड में नामांकित अधिवक्ता अमनजोत सिंह चड्ढा ने दायर की है। इसे अधिवक्ता सनप्रीत सिंह अजमानी और यक्ष शर्मा द्वारा तैयार किया गया था और अधिवक्ता ऑन-रिकॉर्ड, मंजू जेटली के माध्यम से दायर किया गया था। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : पटाखों पर आया सुप्रीम कोर्ट का नया निर्णय, सुरक्षित पटाखे जलाने पर कोई मनाही नहीं…

नवीन समाचार, नैनीताल, 1 नवंबर 2021। देश में शादी-व्याह से लेकर नए वर्ष तक अनेक मौकों पर आतिशबाजी होती है, लेकिन खासकर दीपावली पर पटाखे-आतिशबाजी जलाने को लेकर हमेशा बहस चलती है। अब दीपावली के ठीक पहले सर्वोच्च न्यायालय से पटाखे-आतिशबाजी जलाने को लेकर निर्णय आया है लेकिन देश भर की मीडिया में इस पर समाचार नहीं है।

Supreme Court order on Firecrackersइसका कारण शायद यह कि सर्वोच्च न्यायालय ने पटाखे जलाने को लेकर न केवल स्थिति बल्कि साफ कर दिया है कि देश में पटाखे जलाने को लेकर कोई मनाही नहीं है। अलबत्ता, आदेश में शासन-प्रशासन पर जिम्मेदारी आयद की गई है कि वह प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे न उपलब्ध होने दें। ऐसा होने पर राज्यों के मुख्य सचिव भी जिम्मेदार माने जाएंगे।

इस 29 नवंबर को दीपावली से ठीक पहले सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति एमआर शाह व एएस बोपन्ना की पीठ ने अर्जुन गोपाल एवं अन्य की केंद्र सरकार के विरुद्ध दायर याचिका पर जारी आदेश के बिंदु संख्या 8 में साफ किया है कि ‘पटाखे जलाने पर कोई मनाही नहीं है। केवल उन पटाखों पर मनाही है, जो खासकर बुजुर्गों एवं बच्चों एवं नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हैं’।

इसके अलावा आदेश के बिंदु संख्या 9 में साफ किया गया है कि ‘बेरियम सॉल्ट के प्रयोग से बने पटाखों को जलाने पर मनाही है।’ साथ ही आदेश में देश के सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के कहा गया है कि लोगों के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह पटाखों के उत्पादन, विपणन व प्रयोग होने पर संबंधित राज्य के मुख्य सचिव व गृह सचिव, पुलिस कमिश्नर, डीएसपी व थाना प्रभारी जिम्मेदार होंगे। आदेश में इस बारे में उचित प्रचार-प्रसार करने को भी कहा गया है। मामले की अगली सुनवाई 30 नवंबर को होगी।

इस बारे में उत्तराखंड उच्च न्यायालय के अधिवक्ता सुयश पंत एवं नितिन कार्की ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के अनुसार केवल बेरियम सॉल्ट का प्रयोग वाले पटाखों पर प्रतिबंध है। ऐसे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह पटाखों को प्रदेश के बाजारों में ना बिकने देने की जिम्मेदारी प्रदेश के मुख्य सचिव से लेकर थाना प्रभारियों की है। बाजार में जो पटाखे उपलब्ध हैं, वह हरित या सुरक्षित श्रेणी के हैं।उन्हें लोग जला सकते हैं। उन्हें जलाने पर कोई मनाही नहीं है। (डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : SC के आदेश के बाद 30 वर्षों से अवैध कब्जेदार पूर्व सभासद ने खाली किया नगर पालिका का आवास, 11 लाख से अधिक किराया भी चुकाया

डॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 11 सितंबर 2021। नैनीताल नगर पालिका ने मल्लीताल गोपाला सदन के एक करीब 30 वर्ष पुराने अवैध कब्जेदार से बड़ी जंग जीत ली है। देश की सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचे एक अवैध कब्जेदार सभासद मसरूर अहमद खान को, जो खुद अधिवक्ता भी हैं, ने पालिका के आवास पर अपना अवैध खाली ही खाली नहीं कर दिया है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर 11 लाख 13 हजार रुपए से अधिक का अवैध कब्जे की अवधि का किराया भी नगर पालिका में चुका दिया है। इसके बाद नगर पालिका के होंसले जहां बुलंद हैं, वहीं नगर पालिका के आवासों पर काबिज सैकड़ों अवैध कब्जेदारों में हड़कंप मचना तय है। अब उन पर भी न केवल अवैध कब्जा खाली करने, वरन उन पर भी अवैध कब्जे की अवधि का किराया भी चुकाने की दुधारी तलवार लटक गई है।

देखें याचिका यहाँ क्लिक करके 

बताया गया है कि 1990 के दौर में तत्कालीन नगर पालिका अध्यक्ष राम सिंह रावत ने मल्लीताल गोपाला सदन में पालिका आवासों का निर्माण करवाया था। इसी दौर में पालिका में सभासद रहे व वर्तमान में उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में कार्यरत व्यक्ति भी, 6 जून 1990 से एक आवास में काबिज हो गए थे। नगर पालिका की ओर से बाद में यह अवैध कब्जा खाली कराने का प्रयास हुआ तो मामला उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया। दिसंबर 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में आवास को तीन माह के भीतर खाली करने और 3000 रुपए प्रतिमाह की दर से 11 लाख रुपए बतौर किराया जमा करने के आदेश दिए थे। इसके बाद भी करीब डेढ़ वर्ष से अधिक समय के बाद अब आवास खाली किया गया है।  आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : केवल एक अवैध कब्जेदार के लिए है सुप्रीम कोर्ट का पालिका आवास खाली करने का ताज़ा आदेश !

-कब्जेदार मसरूर को 1990 से 11 लाख रुपये किराया भरकर खाली करना होगा पालिका आवास, अन्य पर फिलहाल परेशानी नहीं 
-सर्वोच्च न्यायालय ने कब्जेदार की विशेष अपील ठुकराई, पालिका की ओर से आवंटन संबंधी कोई प्रपत्र प्रस्तुत नहीं कर पाये
नवीन समाचार, नैनीताल, 5 दिसंबर 2018। सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे व न्यायमूर्ति इंदु मलहोत्रा की पीठ ने नगर पालिका नैनीताल के वेभरली कंपाउंड-गोपाला सदन में क्वार्टर संख्या 6 में जून 1990 से काबिज मसरूर अहमद खान की याचिका को खारिज करते हुए तीन माह के भीतर आवास खाली करने के आदेश दिये हैं। साथ ही पालिका आवास का जून 1990 से आवास खाली करने तक का प्रति माह 3000 रुपये की दर से यानी करीब 11 लाख रुपये भी जमा करने को कहा है। यह आदेश खान द्वारा पालिका की ओर से आवंटन संबंधी कोई प्रपत्र न्यायालय में प्रस्तुत न करने के बाद सुनाया गया। न्यायालय ने उन्हें पूरी तरह से अवैध कब्जेदार माना।

हालांकि याचिका में खान ने कहा था कि 1990 में नगर पालिका ने गोपाला सदन के अपने आवास संख्या 6 एवं 7 की नीलामी के लिये विज्ञापन दिया था। खान ने आवास संख्या 6 के लिए सर्वाधिक बोली लगाई और जून 1990 से इस आवास में रहने लगे। आगे 18 जुलाई 2001 को पालिका बोर्ड ने इस आवास की सेल डीड उनके पक्ष में करने की जगह इसके साथ ही अन्य आवासों के लिए भी नीलामी करने का प्रस्ताव पारित किया। इस पर खान ने अपने पक्ष में सेल डीड करने का प्रार्थना पत्र दिया। इस पर 21 जुलाई 2006 को आयुक्त नैनीताल ने पालिका को खान के पक्ष में सेल डीड करने के आदेश दिये, किंतु पालिका इसके खिलाफ उत्तराखंड उच्च न्यायालय चली गयी। इसके बाद से यह मामला उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा था। लेकिन इधर सर्वोच्च न्यायालय में वे इस संबंध में आवंटन संबंधी कोई पत्र प्रस्तुत नहीं कर पाये, जिस पर न्यायालय ने उन्हें अवैध कब्जेदार माना और बीती तीन दिसंबर को खान की याचिका को निस्तारित करते हुए आवास खाली करने और किराया चुकाने का आदेश सुनाया।

पालिका आवासों के अन्य कब्जेदारों को है फिलहाल गैरजरूरी संशय

नैनीताल। उल्लेखनीय है कि नगर पालिका के नगर में करीब 547 आवास बताये गये हैं, इनमें से करीब आधे वर्तमान नगर पालिका कर्मी हैं, जबकि अन्य 250 से अधिक आवास सेवानिवृत्त कर्मियों तथा कई उनके द्वारा भी आगे हस्तांतरित कर दिये गये हैं। पिछले विधानसभा चुनाव से पूर्व से ही इन आवासों का मामला काफी चर्चा में रहा। पिछली सरकार इन आवासों के संबंध में शासनादेश भी लायी, जिसमें स्थानीय राजस्व दरों के हिसाब से आवासों को उनके कब्जेदारों को आवंटित करने के आदेश दिये। इस शासनादेश को कुछ पालिका कर्मियों के द्वारा उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी, तब से यह मामला उच्च न्यायालय में लंबित है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय का आदेश फिलहाल एक ही अवैध कब्जेदार के लिए आया हुआ लगता है। वहीं पूछे जाने पर नगर पालिका के अधिशासी अधिकारी रोहिताश शर्मा ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का अध्ययन किया जा रहा है, एवं आदेश का पूर्णतया पालन सुनिश्चित कराया जाएगा। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : हाईकोर्ट के अधिवक्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से की अब तक की सबसे बड़ी मांग, उप राष्ट्रपति एवं अटॉर्नी जनरल के वक्तव्यों को बनाया आधार..

-देहरादून में सर्वाेच्च न्यायालय की उत्तर भारतीय राज्यों की बेंच का दावा
-गत दिवस उप राष्ट्रपति वेंकया नायडू एवं अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के देश में चार अपीलीय बेंच स्थापित करने के वक्तव्यों के बाद उठाई उत्तरी भारत के लिए बेंच की मांग
नवीन समाचार, नैनीताल, 28 अगस्त 2019। उत्तराखंड उच्च न्यायालय के हाईकोर्ट बार एसोसिएशन व बार काउंसिल से जुड़े वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने देहरादून में उत्तरी भारत के राज्यों की सर्वोच्च न्यायालय की अपीली कोर्ट-बेंच (कोर्ट ऑफ अपील) स्थापित करने की मांग की है। उनका यह दावा गत दिवस उप राष्ट्रपति वेंकया नायडू एवं अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के देश में चार अपीलीय बेंच स्थापित करने के वक्तव्यों के आलोक में आया है। इस संबंध में उच्च न्यायालय की बार एसोसिएशन राज्य एवं केंद्र सरकार तथा उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय को प्रेषित कर सकते हैं।

बुधवार को हाईकोर्ट बार एसोसिएशन सभागार में आयोजित पत्रकार वार्ता में उत्तराखंड बार काउंसिल व हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एवं बार काउंसिल के वर्तमान सदस्य व पूर्व सांसद डा. महेंद्र पाल की अगुवाई में बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एमसी पंत व सैयद नदीम मून आदि ने यह मांग उठाई। उन्होंने बताया कि गत 11 अगस्त को देश के उप राष्ट्रपति वेंकया नायडू ने अपनी पुस्तक ‘लिसनिंग, लर्निंग एवं रीडिंग’ के विमोचन कार्यक्रम में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ को नई दिल्ली में यथावत रखते हुए देश के चार बड़े शहरों में चार अपीलीय बंेच (कोर्ट ऑफ अपील) स्थापित करने की बात कही थी। इसके चार दिन बाद देश के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में उप राष्ट्रपति वेंकया नायडू की बात का समर्थन किया। बताया कि पूर्व में ‘लॉ कमीशन’ भी ‘नेशनल कोर्ट ऑफ अपील’ की संस्तुति कर चुका है।

राज्य के वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने भी उनकी बात का समर्थन करते हुए कहा कि चार में से तीन अपीलीय बेंच देश के तीन ‘चार्टर्ड हाइकोर्ट’ कहे जाने वाले मुंबई, कोलकाता व चेन्नई में स्थापित हो सकते हैं, जबकि चौथे के लिए कहा गया है कि यह सर्वोच्च न्यायालय के पास कहीं स्थापित किया जा सकता है। उन्होंने इस चौथे अपीलीय कोर्ट पर उत्तराखंड का दावा करते हुए कहा कि देहरादून दिल्ली से करीब भी है, और सभी उत्तर भारतीय राज्यों से सुगम दूरी पर है। यहां उत्तर भारतीय राज्यों एवं पर्वतीय राज्यों की अपीलीय कोर्ट स्थापित किया जाना सभी के हित में होगा। इस मौके पर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन की वरिष्ठ उपाध्यक्ष श्रुति जोशी तिवारी, भुवनेश जोशी, योगेश पचौलिया व कमलेश तिवारी सहित कई अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता मौजूद रहे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : सर्वोच्च न्यायालय ने लगाई हाईकोर्ट के नजूल भूमि संबंधी आदेश पर रोक

नई दिल्ली, 10 अक्तूबर 2018। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के नजूल भूमि के संबंध में दिए गए निर्णय पर रोक लगाते हुए स्थगनादेश जारी कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता सुनीता की अपील पर यह स्थगनादेश जारी करते हुए सरकार से जवाब मांगा है।

हाईकोर्ट ने पूर्व में अपने आदेश में उत्तराखंड सरकार की 2009 की नजूल नीति के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया था, जिसके तहत अवैध कब्जेदारों के पक्ष में नजूल भूमि को फ्री होल्ड करने की व्यवस्था थी। हाईकोर्ट ने सरकार की इस नीति को असंवैधानिक व गैर कानूनी मानते हुए सरकार पर पांच लाख का जुर्माना भी लगाया था। यह जुर्माना राष्ट्रीय विधि विवि के खाते में जमा होना था। कोर्ट ने कहा था कि नजूल भूमि सार्वजनिक संपत्ति है, इसको सरकार किसी अतिक्रमणकारी के पक्ष में फ्री होल्ड नहीं कर सकती और यह भूमि सार्वजनिक उपयोग की है। रुद्रपुर के पूर्व सभासद रामबाबू व उत्तराखंड हाईकोर्ट के अधिवक्ता रवि जोशी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर सरकार की एक मार्च 2009 की नजूल नीति के विभिन्न उपबंधों को चुनौती दी थी। याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया था कि राज्य सरकार नजूल भूमि को अवैध रूप से कब्जा कर रहे लोगों के पक्ष में फ्री होल्ड कर रही है जो कि असंवैधानिक, नियमविरूद्घ व मनमानीपूर्ण है। हाईकोर्ट ने भी इस पर संज्ञान लेते हुए मामले को ‘इन दि मैटर ऑफ रिफ्रेंस ऑफ नजूल पॉलिसी फॉर डिस्पोजिंग एंड मैनेजमेंट नजूल लैंड के नाम से जनहित याचिका के रूप में लिया था।

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नैनीताल, 1 अक्टूबर 2018। उत्तराखंड की नौकरशाही की कार्यप्रणाली का एक अजब मामला प्रकाश में आया है। उत्तराखंड उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद सहायक अभियोजन अधिकारी पद पर चयनित अभ्यर्थी पिछले नौ वर्षों से नियुक्ति के लिए भटक रहे हैं। मामला शासन स्तर पर लटका हुआ है। इधर उन्होंने पुनः मुख्यमंत्री को अपनी नियुक्ति के बाबत अनुस्मारक भेजा है।
विदित हो कि उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के द्वारा 19 सितंबर 2009 को जारी विज्ञापन के जरिये सहायक अभियोजन अधिकारी के 71 पदों के लिए 31 अक्टूबर 2010 को प्रारंभिक स्क्रीनिंग परीक्षा आयोजित की गयी, और 4 व 5 जून 2011 को आयोजित साक्षात्कारों के आधार पर 18 फरवरी 2012 को 71 अभ्यर्थियों का गृह विभाग उत्तराखंड शासन के अंतर्गत श्रेष्ठता के क्रम में चयन परिणाम घोषित कर दिया गया। इस परिणाम के विरुद्ध रवि मोहन एवं अन्य अभ्यर्थियों ने उच्च न्यायालय में पूर्व में 38 पदों के लिये विज्ञप्ति जारी करने का हवाला देते हुए याचिका दायर की। इस पर उच्च न्यायालय ने 10 मई 2012 को पूर्व के 38 पदों पर ही नियुक्ति करने एवं 25 फीसद अतिरिक्त पद प्रतीक्षा सूची में रखने एवं शेष पदों के लिए अलग से चयन प्रक्रिया करने के आदेश दिये। इस पर उत्तराखंड लोक सेवा आयोग ने 28 जून 2012 को 37 पदों पर चयनित अभ्यर्थियों की पुनरीक्षित सूची जारी कर दी। इन 37 में से 6 अभ्यर्थियों ने अपना योगदान नहीं दिया, यानी यह पद रिक्त रह गये। इस बीच उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ नियुक्ति से छूट गये अन्य चयनित 34 पदों के लिये चयनित अभ्यर्थियों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा। बावजूद शेष रिक्त पद 25 फीसद अतिरिक्त प्रतीक्षा सूची से अब तक नहीं भरे गये हैं। इस संबंध में 25 फीसद की प्रतीक्षा सूची में शामिल भानु प्रताप सिंह, ललित कुमार व तनवीर आलम तभी से अपनी नियुक्ति के लिए शासन में प्रयास जारी रखे हुए हैं, बावजूद उनकी नियुक्ति चयन के 6 वर्षों के बाद भी लटकी हुई है।

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