लगातार समृद्ध हो रही है ‘नंदा देवी महोत्सवों’ के प्रणेता नैनीताल में उत्तराखंड की कुलदेवी राज राजेश्वरी मां नंदा की ‘लोकजात’
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 11 सितंबर 2024 (Maata Nanda-Sunanda Devi Mahotsav in Nainital)। एक शताब्दी से अधिक पुराना, 122वें वर्ष में आयोजित हो रहा सरोवरनगरी का, उत्तराखंड के कुमाऊं व गढ़वाल मंडलों को एक सूत्र में पिरोने वाली माता नंदा देवी का महोत्सव लगातार समृद्ध हो रहा है। पिछली शताब्दी और इधर तेजी से आ रहे सांस्कृतिक शून्यता की ओर जाते दौर में भी यह महोत्सव न केवल अपनी पहचान कायम रखने में सफल रहा है, वरन इसने सर्वधर्म संभाव की मिशाल भी पेश की है।
पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी यह देता है, और उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों को भी एकाकार करता है। यहीं से प्रेरणा लेकर कुमाऊं के विभिन्न अंचलों में फैले मां नंदा के इस महापर्व ने देश के साथ विदेश में भी अपनी पहचान स्थापित कर ली है।
कौन हैं माता नंदा सुनंदा (Maata Nanda-Sunanda Devi Mahotsav in Nainital)
इस मौके पर मां नंदा सुनंदा के बारे में फैले भ्रम और किंवदंतियों को जान लेना आवश्यक है। विद्वानों के इस बारे में अलग-अलग मत हैं, लेकिन इन सभी को जोड़कर देखें तो हिमालय की नंदादेवी, नंदगिरि व नंदाकोट पर्वत श्रृंखलाओं की धरती देवभूमि को एक सूत्र में पिरोने वाली शक्तिस्वरूपा मां नंदा ही हैं। यहां सवाल उठता है कि नंदा महोत्सव के दौरान कदली वृक्ष से बनने वाली एक प्रतिमा तो मां नंदा की है, लेकिन दूसरी प्रतिमा पर जरूर प्रश्न उठता है कि यह मूर्ति किनकी है, सुनंदा, सुनयना अथवा गौरा पार्वती की।
एक दंतकथा के अनुसार मां नंदा को द्वापर युग में नंद यशोदा की पुत्री महामाया भी बताया जाता है जिसे दुष्ट कंश ने शिला पर पटक दिया था, लेकिन वह अष्टभुजाकार रूप में प्रकट हुई थीं। त्रेता युग में नवदुर्गा रूप में प्रकट हुई माता भी वह ही थी। यही नंद पुत्री महामाया नवदुर्गा कलियुग में चंद वंशीय राजा के घर नंदा रूप में प्रकट हुईं, और उनके जन्म के कुछ समय बाद ही सुनंदा प्रकट हुईं। राज्यद्रोही शडयंत्रकारियों ने उन्हें कुटिल नीति अपनाकर भैंसे से कुचलवा दिया था।
उन्होंने कदली वृक्ष की ओट में छिपने का प्रयास किया था लेकिन इस बीच एक बकरे ने केले के पत्ते खाकर उन्हें भैंसे के सामने कर दिया था। बाद में यही कन्याएं पुर्नजन्म लेते हुए नंदा-सुनंदा के रूप में अवतरित हुईं और राज्यद्रोहियों के विनाश का कारण बनीं। इसीलिए कहा जाता है कि सुनंदा अब भी चंदवंशीय राजपरिवार के किसी सदस्य के शरीर में प्रकट होती हैं। इस प्रकार दो प्रतिमाओं में एक नंदा और दूसरी सुनंदा हैं।
ऐसे हुई नंदा देवी महोत्सव की शुरुआत
अपनी पुस्तक कल्चरल हिस्ट्री आफ उत्तराखंड के हवाले से प्रख्यात इतिहासकार प्रो. अजय रावत बताते हैं कि सातवीं शताब्दी में बद्रीनाथ के बामणी गांव से नंदा देवी महोत्सव की शुरूआत हुई, जो फूलों की घाटी के घांघरिया से होते हुए गढ़वाल पहुंची। तब गढ़वाल 52 गणपतियों (सूबों) में बंटा हुआ था। उनमें चांदपुर गढ़ी के शासक कनक पाल सबसे शक्तिशाली थे। उन्होंने ही सबसे पहले गढ़वाल में नंदा देवी महोत्सव शुरू किया।
प्रो. रावत बताते हैं कि आज भी बामणी गांव में मां नंदा का महोत्सव धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इधर गढ़वाल से लाये जाने के बाद से कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जनपद में गरुड़-बैजनाथ के पास स्थित कोट भ्रामरी मंदिर और कपकोट के पास पोथिंग एवं चंद राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा में 1673 के बाद से माता नंदा देवी की नंदाष्टमी पर वार्षिक पूजा की जाने लगी, और यहां इस दौरान परंपरागत तरीके से मेले-कौतिक भी लगने लगे।
अल्मोड़ा में प्रारंभ में यह आयोजन चंद वंशीय राजाओं की अल्मोड़ा शाखा द्वारा होता था, किंतु 1938 में इस वंश के अंतिम राजा आनंद चंद के कोई पुत्र न होने के कारण तब से यह आयोजन इस वंश की काशीपुर शाखा द्वारा आयोजित किया जाता है, जिसका प्रतिनिधित्व वर्तमान में नैनीताल के पूर्व सांसद केसी सिंह ‘बाबा’ करते हैं। इधर नैनीताल नगर में अंग्रेजों के आगमन के बाद उनके भवनों के निर्माण के लिए अल्मोड़ा से आए मोती राम शाह माता ने नैनीताल में भी नंदा देवी की पूजा की शुरुवात की। कहते हैं कि यहाँ वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास नगर की आराध्य देवी माता नयना का मंदिर प्राचीन काल से था।
वहीं, इतिहासकार डा. मदन चन्द्र भट्ट के अनुसार सघन वनाच्छादित तृषि (त्रिऋषि) सरोवर के पार्श्व में नैना देवी मंदिर की स्थापना चौदहवी शताब्दी के अंत में युद्ध में कत्यूरी सम्राट धामदेव की माता जिया रानी ने अपनी विजय को चिर स्थायी करने के लिए की थी, और नंदा अष्टमी पर मेले का प्रारम्भ भी किया था।
कुमाऊं के लोकगायकों द्वारा चित्रशिला घाट रानीबाग में उत्तरायणी मेले के दौरान के अद्भुद जिया रानी के शोर्य एवं वीरता का उल्लेख करते हुए गाये जाने वाले जागर गीतों में भी नैनीताल में नयना देवी के मंदिर की स्थापना का जिक्र इन शब्दों में आता है- ‘उती को बसना को आयो, यो नैनीताल, नैनीताल, नैनीदेवी थापना करी छ।’ इससे लगता है कि जिया रानी ने नैनीताल में नैना देवी की स्थापना की थी।
1880 में यह मंदिर नगर के विनाशकारी भूस्खलन की चपेट में आकर दब गया, जिसे बाद में वर्तमान नयना देवी मंदिर के स्थान पर स्थापित किया गया। यहां मूर्ति को स्थापित करने वाले मोती राम शाह ने ही 1903 में अल्मोड़ा से लाकर नैनीताल में नंदा महोत्सव की शुरुआत की। शुरुआत में यह आयोजन मंदिर समिति द्वारा ही आयोजित होता था।
जबकि 1926 से यह आयोजन नगर की सबसे पुरानी धार्मिक सामाजिक संस्था श्रीराम सेवक सभा को दे दिया गया, जो तभी से लगातार दो विश्व युद्धों एवं इधर 2020 व 2021 में कोरोना काल देश में सब कुछ रुक जाने के दौरान भी बिना रुके सफलता से और नए आयाम स्थापित करते हुए यह आयोजन कर रही है। ऐसे बनीं माता नंदा-सुनंदा :
यहीं से प्रेरणा लेकर अब कुमाऊं के कई अन्य स्थानों पर भी नंदा महोत्सव के आयोजन होने लगे हैं। इसलिए नैनीताल को नंदा महोत्सवों का प्रणेता भी कहा जाता है और चूंकि वास्तव में यहां राजा नहीं बल्कि प्रजा यानी जनता इस आयोजन को करती है, इसलिये इसे गढ़वाल मंडल में होने वाली माता नंदा की राजजात की तर्ज पर मां नंदा की ‘लोकजात’ भी कहा जाता है।
मां नयना की नगरी में होती है मां नंदा की ‘लोक जात’, वर्ष दर वर्ष लगातार समृद्ध हो रहा है नंदा देवी महोत्सव (Maata Nanda-Sunanda Devi Mahotsav in Nainital)
-यहां राज परिवार का नहीं होता आयोजन में दखल, जनता ने ही की शुरुआत, जनता ही बढ़चढ़ कर करती है प्रतिभाग
डॉ. नवीन जोशी, नैनीताल। प्रदेश में चल रही मां नंदा की ‘राज जात’ से इतर मां नयना की नगरी नैनीताल में माता नंदा-सुनंदा की ‘लोक जात’ का आयोजन किया जाता है। 12 वर्षों के अंतराल में आयोजित होने वाली ‘लोक जात’ के इतर सरोवरनगरी में 121 वर्षों से हर वर्ष अनवरत, प्रथम व द्वितीय दो विश्व युद्ध होने के बावजूद बिना किसी व्यवधान के न केवल यह महोत्सव जारी है, वरन हर वर्ष समृद्ध भी होता जा रहा है।
बिना राज परिवार द्वारा शुरू किए जनता द्वारा ही शुरू किए गए और जनता की ही सक्रिय भागेदारी से आयोजित होने वाले इस महोत्सव को आयोजक भी मां नंदा की ‘लोक जात’ मानते हैं। महोत्सव में दो कदली वृक्ष काटकर प्रयोग किये जाते हैं तो इनके बदले २१ फलदार वृक्ष रोपने की परंपरा वर्ष १९९८ से पर्यावरण मित्र वाईएस रावत के सुझाव पर चल रही है। वर्ष 2005 से मेले में फोल्डर स्वरूप से स्मारिका छपने लगी। वर्ष 2007 से तल्लीताल दर्शन घर पार्क से मां नंदा के साथ नैनी सरोवर की आरती की एक नई परंपरा भी जुड़ी है, जो प्रकृति से मेले के जुड़ाव का एक और आयाम है।
वर्ष 2011 से मेले की अपनी वेबसाइट के जरिऐ देश दुनिया तक सीधी पहुंच भी बन गई है। मेला आयोजक संस्था ने मेले में परंपरागत होने वाली बलि प्रथा को अपनी ओर से सीमित करने की अनुकरणीय पहल भी की है। मेला स्थानीय लोक कला के विविध आयामों, लोक गीतों, नृत्यों, संगीत की समृद्ध परंपरा का संवाहक बनने के साथ संरक्षण व विकास में भी योगदान दे रहा है। वर्ष 2012 में पशु बलि की जगह नारियल चढ़ाने की परंपरा में भी बदलाव किया गया है।
इधर इस वर्ष 2023 में आयोजकों के द्वारा महोत्सव में कुमाऊं के पारंपरिक लोक नृत्य झोड़ा, चांचरी, छपेली एवं मांगलिक गीतों को भी शामिल करने की नयी पहल करने की बात कही है। साथ ही इस वर्ष जिला प्रशासन की ओर से पूरे महोत्सव को डॉक्यूमेंटेड यानी अभिलेखित किया जा रहा है और इस महोत्सव की पूरी प्रक्रिया पर डॉक्यूमेंट्री का निर्माण किया जा रहा है।
बताया गया है कि इस आधार पर नैनीताल के नंदा देवी महोत्सव को यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र संघ के शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन की विश्व धरोहरों की सूची में शामिल किये जाने का प्रयास किया जायेगा, जिसमें वर्तमान में उत्तराखंड के केवल दो स्थान नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क एवं फूलों की घाटी शामिल हैं।
यहीं से प्रेरणा लेकर कुमाऊं के विभिन्न अंचलों में फैले मां नंदा के इस महापर्व ने देश के साथ विदेश में भी अपनी पहचान स्थापित कर ली है। शायद इसी लिए यहां का महोत्सव जहां प्रदेश के अन्य नगरों के लिए प्रेरणादायी साबित हुआ है।
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-कभी चांदी से बनाई जाती थीं मूर्तियां, 50 के दशक में मूर्तियों के चेहरे की मुस्कुराहट आज भी की जाती है याद
-1903 से लगातार बीच में दो विश्व युद्धों के दौरान भी जारी रहते हुऐ 119 वर्षों से यहां जारी है महोत्सव
डॉ. नवीन जोशी, नैनीताल। माता नयना की नगरी नैनीताल में माता नंदा-सुनंदा की मूर्तियां पूरे प्रदेश में सबसे सुंदर तरीके से बनती हैं। इसका कारण यहां मूर्ति निर्माण में कलापक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाना है। साथ ही यहां आयोजक संस्था हमेशा बेहतरी के लिये बदलावों को स्वीकार करने को तैयार रहती है। इसी कारण बीते कुछ वर्षों से नंदा-सुनंदा की मूर्तियां पूरी तरह ईको-फ्रेडली यानी पर्यावरण-मित्र पदार्थों से तैयार की जाती हैं। जबकि यहां एक दौर में चांदी की मूर्तियां बनाए जाने का इतिहास भी रहा है।
उल्लेखनीय है कि नैनीताल को अल्मोड़ा के साथ ही प्रदेश के अनेक स्थानों पर आयोजित होने वाले नंदादेवी महोत्सवों का प्रणेता कहा जाता है। यहां 1903 से लगातार बीच में दो विश्व युद्धों के दौरान भी जारी रहते हुऐ 119 वर्षों से महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इधर राज्य के अनेक नगरों में यह आयोजन होने लगे हैं, बावजूद नैनीताल की मां नंदा-सुनंदा की मूर्तियां अल्मोड़ा सहित अन्य सभी नगरों से सुंदर होती हैं।
पूर्व में यहां भी परंपरागत मूर्तियां ही बनती थीं। 1945 के दौरान से यहां बदलाव आने लगे, 1950 में शारदा संघ के संस्थापक कलाप्रेमी बाबू चंद्र लाल साह व कला मंदिर फोटोशॉप के स्वामी मूलचंद की जुगलबंदी के बाद यहां मूर्तियां सुंदर बनाई जाने लगीं। 1955-56 तक नंदा देवी की मूर्तियों का निर्माण चांदी से होता था। लेकिन बाद में वापस परंपरागत परंतु अधिक सुंदर मूर्तियां बनने लगीं। वरिष्ठ कलाकार चंद्र लाल साह 1971 तक मूर्तियों का निर्माण करते रहे, और इस दौरान माता के चेहरे पर दिखने वाली मुस्कुराहट को लोग अब भी याद करते हैं।
बाद में स्थानीय कलाकारों ने मूर्तियों को सजीव रूप देकर व लगातार सुधार किया, जिसके परिणाम स्वरूप नैनीताल की नंदा सुनंदा की मूर्तियां, महाराष्ट्र के गणपति बप्पा जैसी ही जीवंत व सुंदर बनती हैं। खास बात यह भी कि मूर्तियों के निर्माण में पूरी तरह कदली वृक्ष के तने, पाती, कपड़ा, रुई व प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग किया जाता है। बीते करीब एक दशक से थर्मोकोल का सीमित प्रयोग भी बंद कर दिया गया है, जिसके बाद महोत्सव पूरी तरह ‘ईको फ्रेंडली’ भी हो गया है। ((Maata Nanda-Sunanda Devi Mahotsav in Nainital, Uttarakhanc Culture, Nanda Devi, Nainital News, The Lokjaat of Uttarakhand’s Kuldevi)
हर वर्ष मूर्तियां समान आकार की बनें इस हेतु भी खास ध्यान रखा जाता है। गत वर्षों की मूर्ति के कपड़े को देखकर भी मूर्ति बनाई जाती है। बेहतर स्वरूप के लिये मां के चेहरे में कपड़े के भीतर परिवर्तन किया गया है। साथ ही मां के चेहरे को मुस्कुराहट लिए हुए बनाने की कोशिश की गई है, इससे मां की सुंदरता देखते ही बन रही है। ((Maata Nanda-Sunanda Devi Mahotsav in Nainital, Uttarakhanc Culture, Nanda Devi, Nainital News, The Lokjaat of Uttarakhand’s Kuldevi)
यह भी पढ़ें : यहां मां नंदा के महोत्सव में चढ़ती हैं, और प्रसाद में मिलती हैं 500 ग्राम वजनी पूड़ियां (Maata Nanda-Sunanda Devi Mahotsav in Nainital)
डॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 15 सितंबर 2021। आदि शक्ति स्वरूपा मां नंदा भगवती का महोत्सव प्रदेश में कई स्थानों पर मनाया जा रहा है। आज हम आपको माता नंदा भगवती के शक्तिपीठ पोथिंग लिए चलते हैं। यहां हर तीसरे वर्ष इस अवसर पर आठौं पूजा आयोजित की जाती है। बागेश्वर जनपद के कपकोट विकासखंड के पोथिंग गांव में इस मौके पर सुबह से ही माता भगवती के मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहता है। उत्तराखंड के विभिन्न जनपदों से लोग हजारों की संख्या में मां के धाम में पहुंचते हैं, और सुख-समृद्धि और कुशलता की कामना करते हैं, और माता को घंटे-घड़ियाल, भकोरे, चुनरी, निशाण, ढोल-नगाड़े अर्पित करते हैं।
इस मौके पर गांव की विवाहित बेटियां भी अपने मायके की आराध्य मां नंदा के धाम में आकर पूजा-अर्चना करती हैं। शाम को डिकर सेवाने की पवित्र और भावपूर्ण रस्म अदा की जाती है। इस दौरान श्रद्धालु मां नंदा माई को नम आंखों से विदाई देते हैं। इसके बाद माता के मंदिर में बनने वाली करीब 500 ग्राम वजनी पूड़ियां माता को चढ़ाई जाती हैं, और ये ही श्रद्धालुओं को प्रसाद स्वरूप वितरित की जाती हैं। इन मोटी वजनी पूड़ियों को लेने के लिए यहां श्रद्धालुओं में सबसे खास उत्साह रहता है। ((Maata Nanda-Sunanda Devi Mahotsav in Nainital, Uttarakhanc Culture, Nanda Devi, Nainital News, The Lokjaat of Uttarakhand’s Kuldevi)
इससे पहले मंदिर में सप्तमी की पूरी रात्रि श्रद्धालु माता के मंदिर के प्रांगण में पारम्परिक लोकनृत्य गीत झोड़ा-चांचरी गाकर अपना और दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। खासकर महिलाएं इस मौके पर पारम्परिक कुमाउनी परिधानों में बढ़-चढ़कर अपनी सहभागिता करती हैं। इस दौरान ग्रामीण मेला भी लगता है, और ग्रामीण इसमें खरीददारी करते हैं। ((Maata Nanda-Sunanda Devi Mahotsav in Nainital, Uttarakhanc Culture, Nanda Devi, Nainital News, The Lokjaat of Uttarakhand’s Kuldevi)
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