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March 19, 2024

Devi Devta : उत्तराखंड में भी एक रामेश्वर, रामेश्वरम की तर्ज पर भगवान राम ने की थी शिव लिंग की स्थापना, यहीं ली थी शिक्षा…

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Devi Devta

नवीन समाचार, देहरादून, 11 जनवरी 2024 (Devi Devta)। आज पूरे देश-दुनिया में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अयोध्या में जन्म स्थान पर श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ खुल रहे मंदिर की चर्चा है। लेकिन आज हम आपको उत्तराखंड में स्थित भगवान राम के उस पौराणिक मंदिर की जानकारी देने जा रहे हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि भगवान राम ने स्वयं यहां रामेश्वरम की तर्ज पर शिव लिंग की स्थापना की थी। इसीलिये इस स्थान का नाम भी रामेश्वर है। कहते हैं कि यहीं भगवान राम ने अपने भाइयों के साथ गुरु वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की थी। देखें वीडिओ:

(Devi Devta) Video thumbnail: उत्तराखंड का रामेश्वर धाम: जहां भगवान राम ने रामेश्वरम की तर्ज पर स्वयं की थी शिवलिंग की स्थापना...रामेश्वर धाम उत्तराखंड में पिथौरागढ़ जनपद मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर पहले घाट-पनार के बीच रामगंगा और सरयू नदी के संगम पर स्थित है। कहते हैं कि इस स्थान पर सरयू व रामगंगा के अलावा पाताल भुवनेश्वर से निकली गुप्त गंगा का संगम भी होता है।

स्कन्द पुराण के मानस खंड में कूर्मांचल के रामेश्वर माहात्म्य में वर्णित है कि भगवान राम ने कैलाश मानसरोवर यात्रा के दौरान यहां शिवलिंग की स्थापना की थी। कहा गया है कि यहां स्थित शिव लिंग के पूजन से काशी विश्वनाथ के पूजन की अपेक्षा दस गुना अधिक पुण्य फल प्राप्त होता है। देखें वीडिओ:

कहा जाता है कि सेतुबंध रामेश्वर में जब भगवान श्री राम ने शिव लिंग की स्थापना करनी चाही तो उन्होंने श्री हनुमान जी को कैलाश पर्वत पर भेजकर शिवलिंग लाने के लिए कहा किन्तु शुभ मुहूर्त निकल जाने व हनुमान जी द्वारा शिवलिंग लाने पर देरी हो जाने पर श्री राम ने बालू से रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना की और बाद में अपनी नर लीला समाप्त करने से पूर्व स्वर्ग जाने से पहले 72 यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात यहां पर जन कल्याण के लिये शिवलिंग प्रतिष्ठित किया।

स्कन्दपुराण में इस बात का भी जिक्र है कि अयोध्या के राजकुमारों यानी राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न की शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा के लिये ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ का चयन किया गया। गुरु वशिष्ठ ने राजकुमारों की शिक्षा के लिये हिमालय की घाटियों का भ्रमण शुरू किया। तब उन्हें सरयू और रामगंगा के इस संगम पर भगवान विष्णु के चरण चिन्ह मिले। यहीं वशिष्ठ ने आश्रम की स्थापना की।

इस प्रकार भगवान राम और उनके भाइयों को शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा इसी संगम पर दी गयी। रामेश्वर से एक किलोमीटर दूर बौतड़ी ग्राम में महर्षि वशिष्ठ के आश्रम के खंडहर आज भी विद्यमान बताये जाते हैं। स्कंद पुराण के मानस खण्ड के 95वे अध्याय में इस स्थान का वर्णन मिलता है।

कहा जाता है कि कौशल देश यानी अयोध्या में जन्मे दशरथ के पुत्र अवतार पुरुष भगवान श्री राम चन्द्र ने सत्यलोक जाने की इच्छा से यहां पर शंकर का पूजन किया। शिव कृपा से उन्होंने सशरीर बैकुण्ठ धाम को प्रस्थान किया। उन्होंने यहां पर जगत कल्याण के लिए शिवलिंग स्थापित किया। रामेश्वर में एक शिला स्वर्गारोहण की दिव्य शिला भी कही जाती है।

कुछ दशक पूर्व तक कैलाश मानसरोवर यात्री यहां स्नान और पूजन करके ही आगे की यात्रा प्रारम्भ करते थे। मकर संक्रांति और महा शिव रात्रि के अवसर पर यहां भव्य मेले का आयोजन किया जाता है जहां स्थानीय जनता बढ़-चढ़कर भागीदारी करती है।

यह पिथौरागढ़, चम्पावत, अल्मोड़ा और गंगोलीहाट के लोगों का शमशान घाट भी है। परम्परानुसार यहां दाह करने पर अस्थियां अन्य तीर्थों हरिद्वार, काशी, प्रयाग आदि में नहीं पहुंचाई जाती है। यहां पर शिव की पूजा-अर्चना करने से मानव के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वह शिव लोक को प्राप्त करता है। साथ ही माना जाता है कि श्रद्धा पूर्वक यहां पूजन करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और भक्तों को अपना शुभ आशीष प्रदान करते हैं।

कहते हैं कि रामेश्वर आदिकाल से ही राजाओं के अधीन न रहने वाला क्षेत्र है। यहां के पुजारियों को दीप धृत चन्द राजा चित्तौड़गढ़ से लेकर यहां आये जिनके वंशज गिरी लोग यहां आये जिनके वंशज गिरी लोग यहां पूजा-अर्चना का कार्य देख रहे हैं। यहां राजा उद्योत चंद का शाके 1604 का एक विशाल ताम्र पत्र उत्कीर्ण है। जिसमें लिखा है कि राजा रुद्र चन्द ने यहां भक्तों के दर्शन के लिए व्यवस्था की थी। यहां सन 1789 ई. का राजा महेंद्र चन्द का भूमिदान सम्बन्धी शासनादेश भी उपलब्ध है जिसमें यहां पूजा, नित्यभोग और अखंड दीप सेवा का आदेश दिया गया है। 

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यह भी पढ़ें Devi Devta : कुमाऊं के लोक देवी-देवता

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 30 मार्च 2023। देवभूमि उत्तराखंड की दो में से से एक व पुरानी कमिश्नरी कुमाऊं अंचल की अपनी अनेक विशिष्टताएं हैं। उत्तर में उत्तुंग हिमाच्छादित नंदादेवी, नंदाकोट व त्रिशूल की सुरम्य पर्वत मालाएं, पूर्व में पशुपति नाथ व गोरखों की धरती नेपाल, पश्चिम में उत्तराखंड की दूसरी कमिश्नरी व चार धामों का गढ़ गढ़वाल तथा दक्षिण में मैदानी तराई-भाबर से घिरे इस अंचल में 50 हजार से पांच लाख साल पुराने शैलाश्रयों के आदिम मानव सभ्यता के अवशेष लखु उडियार व अन्य स्थानों पर मौजूद हैं।

‘कुमाऊं का इतिहास’ पुस्तक के लेख कुमाऊं केसरी पंडित बद्रीदत्त पांडे जी के अनुसार 2500 से 700ईसवी तक यहां कत्यूरों और 1200 से 1700 तक चंदों का राज रहा। अलबत्ता प्रसिद्ध घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन 850 से 1060 तक कत्यूरी राज मानते हैं। 1729 से 1743 तक रूहेलों के निरंतर आक्रमणों और 1790 से 1815 तक गोरखा के कुराज से कुमाऊं त्रस्त रहा। 1815 में सुगौली की संधि के बाद अंग्रेजों को कमोबेश यहां बुलाकर लाया गया, ताकि गोरखा राज से मुक्ति मिले।

1857 के गदर के दौरान कई अंग्रेज भी अपने परिवारों को सुरक्षित करने यहां पहुंचे तो विद्रोह के कई सेनानी भी यहां आए। बताते हैं कि पहले यहां बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आदि शंकराचार्च ने सातवीं शताब्दी में यहां हिंदू धर्म का पुनरुत्थान और कत्यूरों के सूर्यवंशी राज्य का अभिषेक किया।

हालांकि वैदिक काल से ही वेदों-पुराणों से लेकर महाकवि कालीदास की कालजयी रचनाओं में भी कुमाऊं की महिमा गायी गयी है। स्कंद पुराण का मानस खंड तो कुमाऊं को ही समर्पित है। वहीं कवि चन्दवरदाई के पृथ्वीराज रासो में भी कुमाऊं का जिक्र इस तरह आता है:

‘सवलष्प उत्तर सयल, कुमऊं गढ़ दुरंग।
राजतराज कुमोदमणि हय गय द्रिब्ब अभंग।’

कुमाऊं की अपनी संस्कृति, अपनी बोली-कुमाउनी, अपनी एक विशिष्ट जीवनचर्या व पहचान है। यहां कमोबेश हर ऊंचे शिखर पर देवी के थान यानी मंदिर), गाड़ (नदी) गधेरों (नालों) के किनारे शिवालय हैं, इसलिये इस भूमि का देवभूमि कहा जाता है। यहां के लोग वैदिक धर्म व हिंदू धर्म के साथ बहु-ईश्वरवाद को मानने वाले हैं।

(Devi Devta) यहां सत्य नारायण, श्रीराम चरित मानस और इसके खासकर सुंदर कांड के पाठ कमोबेश हर शुभ कार्य के अवसर पर किए जाते हैं। देवी पार्वती, भगवती, सरस्वती और लक्ष्मी सहित अनेकानेक देवियों के साथ ही ब्रह्मा, विष्णु व महेश त्रिदेवों का पूजन भी किया जाता है। किंतु साथ अपने अनेक स्थानीय देवी-देवताओं, अपने वीरों, पूर्वजों का स्मरण करने की एक अलग विशिष्ट-जागर विधा से पूजन करना कुमाऊं वासियों की विशिष्टता है।

यहां के लोक देवता सामाजिक न्याय प्रणाली के अंग और संकट मोचक के रूप में हैं। उनका जागर के माध्यम से आवाहन कर महिमा गायन किया जाता है, और उनसे अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जाता है। इनमें से कुछ देवी-देवताओं के बारे में कहा जाता है कि उनके साथ अन्याय, अत्याचार हुआ, तथा अल्प मृत्यु हुई। कालान्तर में न्याय, सुख, समृद्धि, शांति, खुशी के देवी-देवता बन गए।

जागर के बारे में विस्तार से यहां पढ़ें: आस्था के साथ ही सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहर भी हैं ‘जागर’

यह भी पढ़ें (Devi Devta) : पाषाण देवी शक्तिपीठ: जहां घी, दूध का भोग करती हैं सिंदूर सजीं मां वैष्णवी

(Devi Devta)डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 7 अप्रैल 2022। उत्तराखंड को देवभूमि इसीलिए कहा जाता है, कि यहां के कण-कण में देवों का वास है। बदरी, केदार सहित चार धामों और गंगा, यमुना की इसी धरती में शिव के धाम कैलाश का द्वार है, और यहीं शिवा यानी माता पार्वती का मायका हिमालय भी है। यहां के हर पुराने शहर और गांव देवी देवताऑ  के प्रसंगों से जुड़े हैं और वहां आज भी श्रद्धालु साक्षात दर्शन कर दिव्य अनुभूतियां प्राप्त करते हैं। देखें वीडिओ :

प्रदेश के कुमाऊं मंडल के मुख्यालय मां नयना की नगरी का शास्त्रों में त्रिऋषि  सरोवर के रूप में वृतांत मिलता है। यहीं नगर का प्राचीनतम बताया जाने वाला मां पाषाण देवी के एक विशाल शिला खंड पर नवदुर्गा स्वरूप में दर्शन होते हैं, जबकि मां के चरण नैनी झील में बताये जाते हैं। कहते हैं कि कई बार मां का वाहन शेर, पहाड़ों पर नहीं पाया जाता है, लेकिन यहां कुछ श्रद्धालुओं को दिन में भी घूमता दिख जाता है, और बिना किसी को नुकसान पहुंचाये अचानक आंखों से ओझल भी हो जाता है। यहां मां का क्षृंगार महाबली हनुमान की तरह सिंदूर से होता है, और उन्हें वैष्णवी स्वरूप में दुग्ध उत्पादों व फल फूलों का भोग लगाया जाता है।

माना जाता है कि पिता दक्ष प्रजापति द्वारा पति का अनादर करने पर माता पार्वती अग्रि में कूदकर सती हो गई थीं। उनके दग्ध शरीर को देवाधिदेव महादेव आकाश मार्ग से कैलाश की ओर लेकर चले। इस बीच माता के दग्ध अंग जहां जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गये। मां के नयनों के गिरने के कारण और सरोवर यानी ताल होने से यह स्थान नयना ताल तथा कालांतर में अपभ्रंस होता हुआ नैनीताल कहलाया।

इसी मान्यता के अनुसार मां के नयनों के नीर से नैनी सरोवर बना और दक्षिण पूर्वी अयारपाटा पहाड़ी पर हृदय सहित अन्य शरीर यानी ‘पाषाण’ गिरा, तथा मां पाषाण देवी के प्राकृतिक मंदिर की स्थापना अनादि काल में ही हो गई थी। बताते हैं कि 1841 में नगर की स्थापना से पूर्व से ही इस स्थान पर नजदीकी गांवों के लोग गायों और पशुओं के चारण के लिए आते थे, और धार्मिक मान्यता के कारण शाम होने से पहले वापस भी लौट जाते थे।

पहाड़ों में खासकर गायों के नई संतति देने पर नये दूध से देवों का अभिषेक करने की परंपरा है। ऐसे देवता ‘बौधांण देवता’ कहे जाते हैं। लेकिन नैनीताल संभवतया अकेला ऐसा स्थान होगा जहां नया दूध एवं घी, दही, मक्खन व छांस जैसे दुग्ध उत्पाद बौधांण देवता के बजाय बौधांण देवी के रूप में पाषाण देवी को चढ़ाये जाते थे, और आज भी ग्रामीण पाषाण देवी की इसी रूप में पूजा करते हैं।

मान्यता है कि मां का चेहरा धुले पानी से समस्त त्वचा रोगों के साथ ही अतृप्त व बुरी आत्माऑ के प्रकोप भी समाप्त हो जाते हैं। बताते हैं कि नगर की स्थापना के बाद एक अंग्रेज अफसर इस स्थान से होता हुआ घोड़े पर निकला था, किंतु उसका घोड़ा यहां से लाख प्रयासों के बावजूद आगे नहीं बढ़ पाया। इस पर नाराज हो उसने मां की मूर्ति पर कालिख पोत दी थी। हालांकि बाद में उसे गलती का अहसास हुआ और स्थानीय महिलाऑ ने कालिख के स्थान पर मां का सिंदूर से क्षृंगार किया। इस प्रकार यहां देवी का सिंदूर से क्षृंगार किये जाने की अनूठी मान्यता है।

इस स्थान पर पाषाण देवी नवदुर्गा के रूप में पत्थर की शिला पर प्राकृतिक रूप से विराजमान हैं, जो स्पष्ट दिखाई देती हैं। मां के नवदुर्गा स्वरूप चेहरे के नीचे गले वाला भाग हालांकि अब ढक दिया गया है, लेकिन अभी हाल तक इसके नीचे गुफा बताई जाती है, जिसमें पानी चढ़ाने पर इस तरह ‘घट घट’ की आवाज आती थी, मानो मां पानी पी रही हों। कई बार झील का पानी मंदिर तक चढ़ आता था। इसके नीचे गुफा अब भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका अन्य द्वार हरिद्वार में खुलता है।

मंदिर की जिम्मेदारी शुरू से स्थानीय भट्ट परिवार के जिम्मे है। सर्वप्रथम चंद्रमणि भट्ट मंदिर के पुजारी थे, बाद में उनके पुत्र भैरव दत्त भट्ट और वर्तमान में उनके पौत्र जगदीश चंद्र भट्ट मंदिर के पुजारी हैं। इस मंदिर के सदस्य बारी बारी से मंदिर की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते हैं। नीचे की गुफा में केवल हरीश चंद्र भट्ट ही जा पाते हैं। गुफा में नागों की उपस्थिति बताई जाती है, जो कई बार श्रद्धालुऑ द्वारा अशुद्धता बरतने पर बाहर निकल आते हैं। मां को दुग्ध उत्पाद व फल फूल ही चढ़ते हैं, इस प्रकार यहां मां नवदुर्गा वैष्णवीस्वरूप में पूजी जाती हैं।

नगर को सर्वप्रथम खोजने वाले कुमाऊं के पहले कमिश्नर जीडब्ल्यू ट्रेल द्वारा वर्णित और नगर को 1941 में बसाने वाले अंग्रेज व्यापारी पीटर बैरन की बहुचर्चित पुस्तक ‘वंडरिंग इन हिमालया’ में वर्णित नगर का प्राचीनतम मंदिर भी इसी प्राकृतिक मंदिर को बताया जाता है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी सहित न जाने कितने श्रद्धालु होंगे जो अपने प्रत्येक कार्य के लिए आशीर्वाद लेने यहां निरंतर आते रहते हैं। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

कुमाऊं के प्रमुख लोक देवता निम्न हैं:

नंदा देवीः

नंदा देवी समूचे उत्तराखंड यानी कुमाऊं और गढ़वाल मंडलों के साथ और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं। नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं। रुप मंडन ग्रंथ में नंदा भगवती-पार्वती को गौरी के छः अंगभूता देवियों में से एक तथा नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है। वहीं भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं। जबकि शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है। शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं। अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं। प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी यानी नंदाष्टमी के अवसर पर गरुण-बैजनाथ के निकट ‘कोट की माई’, अल्मोड़ा में ऐतिहासिक नंदादेवी मंदिर और नैनीताल के नयना देवी मंदिर में नंदा देवी का मेला आयोजित किया जाता है।

यह भी पढ़ें : मां ‘नयना की नगरी’ में होती है राज राजेश्वरी मां नंदा की ‘लोक जात’
गोलू:

गोलू कुमाऊं के सर्वप्रिय न्याय देवता हैं। लोक कथा के अनुसार गोलू के पिता राजा झालराई सात रानियां होने पर भी निःसंतान थे। संतान प्राप्ति की आस में राजा द्वारा काशी के सिद्ध बाबा से भैरव यज्ञ करवाया और सपने में उन्हें गौर भैरव ने दर्शन दिए और कहा, राजन आप आठवां विवाह करो। मैं उसी रानी के गर्भ से आपके पुत्र रूप में जन्म लूंगा। इस प्रकार राजा ने आठवां विवाह कालिंका से रचाया। मगर इससे सातों रानियों में कालिंका को लेकर ईष्या उत्पन्न हो गई। तीनों रानियों ने ईष्या से शडयंत्र रचते हुए कालिंका को बताया कि ग्रहों के प्रकोप से बचने के लिए उसे सात दिनों तक पैदा होने वाले शिशु की सूरत नहीं देखनी होगी। यह सुनकर वंश की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए कालिंका तैयार हो गई।

प्रसव पीड़ा होते ही उसकी आंखों में काली पट्टी बांध दी गई, और नवजात शिशु को हटाकर उसकी जगह सिलबट्टा रख दिया गया। फिर रानियों ने उसे बताया कि उसने सिलबट्टे को जन्म दिया है। सातों रानियों ने नवजात शिशु को मारने के लिये पहले गौशाला में फेंककर यह सोचा की बालक जानवरों के पैर तले कुचलकर मर जाएगा। मगर देखा कि गाय घुटने टेक कर शिशु के मुंह में अपना थन डाले हुए दूध पिला रही है। अनेक कोशिशों के बाद भी बालक नहीं मरा तो रानियों ने उसे संदूक में डालकर काली नदी में फेंक दिया। मगर ईश्वरीय चमत्कार से संदूक तैरता हुआ गोरी नदी के घाट तक पहुंच गया। जहां वह भाना नामक मछुवारे के जाल में फंस गया।

संदूक में मिले बालक को लेकर निःसंतान मछुवारा अत्यन्त प्रसन्न होकर उसे घर ले गया। गोरी घाट में मिलने के कारण उसने बालक का नाम गोरिया रख दिया। बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो उसने मछुवारे से घोड़ा लेने की जिद की। गरीब मछुवारे के लिए घोड़ा खरीद पाना मुश्किल था, उसने बालक की जिद पर उसे लकड़ी का घोड़ा बनाकर दे दिया। बालक घोड़ा पाकर अति प्रसन्न हुआ। बालक जब घोड़े पर बैठा तो वह घोड़ा सरपट दौड़ने लगा। एक दिन काठ के घोड़े पर चढकर वह धोली धूमाकोट नामक स्थान पर जा पहुंचा, जहां सातों रानियां राजघाट से पानी भर रही थीं। वह रानियों से बोला पहले उसका घोड़ा पानी पियेगा, बाद में आप लोग पानी भरना।

यह सुनकर रानियां हंसने लगी और बोली, अरे मूर्ख ! कहीं कांठ का घोड़ा भी पानी पीता है। बालक बोला, जब स्त्री के गर्भ से सिलबट्टा पैदा हो सकता है तो काठ का घोड़ा पानी क्यों नहीं पी सकता। यह सुनकर सातों रानियां घबरा गईं। राजा को यह बात पता चली तो उसने बालक को बुलाकर सच्चाई जानना चाही। बालक ने सातों रानियों द्वारा उनकी माता कालिंका के साथ रचे गये षडयंत्र की कहानी सुना दी। तब राजा झालराई ने उस बालक से अपना पुत्र होने का प्रमाण मागा। इस पर बालक गोरिया ने कहा कि यदि मैं माता कालिंका का पुत्र हूं तो इसी पल मेरे माता के वक्ष से दूध की धारा निकलकर मेरे मुंह में चली जाएगी, और ऐसा ही हुआ। राजा ने बालक को गले लगा लिया और राजपाठ सौंप दिया। इसके बाद वह राजा बनकर जगह-जगह न्याय सभाएं लगाकर प्रजा को न्याय दिलाते रहे।

गोलज्यू का मूल स्थान चम्पावत माना जाता है। लेकिन घोड़ाखाल, चितई व द्वाराहाट आदि में भी उनके मंदिर हैं। स्थानीय जनश्रुति के अनुसारउन्हें घोड़ाखाल में स्थापित करने का श्रेय महरागांव की एक महिला को माना जाता है। यह महिला वर्षो पूर्व अपने परिजनों द्वारा सतायी जाती रही। उसने अपने मायके चम्पावत जाकर गोलज्यू से न्याय हेतु साथ चलने की प्रार्थना की। गोलज्यू उसके साथ यहां पहुंचे। मान्यता है कि सच्चे मन से मनौती मांगने जो भी घोड़ाखाल पहुंचते हैं, गोलज्यू उसकी मनौती पूर्ण करते हैं। न्याय के देवता के रूप में पूजे जाने वाले गोलज्यू पर आस्था रखने वाले उनके अनुयायी न्याय की आस लेकर मंदिर में अर्जियां टांग जाते हैं। जिसका प्रमाण मंदिर में टंगी हजारों अर्जियां हैं। न्याय की प्राप्ति होने पर वह घंटियां चढ़ाना नहीं भूलते। जिसके चलते घोड़ाखाल का गोलू मंदिर पर्यटकों के बीच घंटियों वाले मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हो चला है।

यह भी पढ़ें : घोडाखाल: यहां अर्जियां पढ़कर ग्वल देवता करते हैं न्याय

ग्वल देव के दरबार में न्यायालयों से थके हारे लोग लगाते हैं न्याय की गुहार

ग्वेल, ग्वल, गोलज्यू कुछ भी कह लीजिऐ, यह कुमाऊं के सर्वमान्य न्याय देवता के नाम हैं, जो आज भी न्यायालयों में पूरी उम्र न्याय की आश में ऐड़िया रगड़ने को मजबूर लोगों को चुटकियों में न्याय दिलाने के लिए प्रसिद्ध हैं। इस हेतु उनके दरबार में न्याय की आस में लोग बकायदा सादे कागजों के साथ ही स्टांप पेपरों पर भी अर्जियां लगाते हैं। यह भी मान्यता है कि यहां अर्जियां लगाने से श्रद्धालुओं को नौकरी, विवाह, संपत्ति आदि की रुकावटें भी दूर होती हैं।

ग्वल देव कुमाऊं के राजकुमार थे। उनका राजमहल आज भी चंपावत में बताया जाता है। अपने जन्म से ही सौतेली माताओं के षडयन्त्र के कारण कई विषम परिस्थितियों में घिरे राजकुमार अपने न्याय कौशल से ही राजभवन लौट पाऐ थे। इसी कारण उन्हें न्याय देव के रूप में कुमाऊं के जन जन द्वारा ईष्ट देव के रूप में अटूट आस्था के साथ पूजा जाता है। चंपावत, द्वाराहाट, चितई व नैनीताल के निकट घोड़ाखाल नामक स्थान पर उनके मन्दिर स्थित हैं, जहां प्रवासी कुमाउंनियों के साथ ही अन्य प्रदेशों के लोग भी लगातार आते रहते हैं, और खास पर्वों पर मन्दिरों में भक्तों का मेला लगता है। उनके मन्दिरों को कमोबेश देश, राज्य में चल रही राजस्व व्यवस्था की तरह ही न्यायिक अधिकार बताऐ जाते हैं। श्रद्धालुओं को इसका लाभ भी मिलता है। घोड़ाखाल एवं चितई आदि मन्दिरों में बंधी असंख्य घंटियां बताती हैं कि कितने लोगों को यहां से न्याय मिला और मनमांगी मुराद पूरी हुई।

युगलों के विवाह का पंजीकरण भी होता है यहां 

जिस प्रकार युगल वैवाहिक बंधन में बंधने के लिए परगना मजिस्ट्रेट के न्यायालय में विवाह पंजीकृत कराते हैं, उसी तर्ज पर ग्वल देव के मन्दिरों में भी विवाह का पंजीकरण किया जाता है। इस हेतु बकायदा स्टांप पेपर पर वर एवं वधु पक्ष के गिने चुने और कभी कभार प्रेमी युगल भी मन्दिर पहुंचते हैं, और स्टांप पेपर पर विवाह बंधन में बंधने का शपथ पत्र देते हैं। जिसके बाद ही यहां सादे विवाह आयोजन की इजाजत होती है।

लेकिन घंटों का गला पकड़ लिया गया…

मन्दिरों के घंटे घड़ियालों की मधुर ध्वनि किसे अच्छी नहीं लगती। इसे पर्यावरण के शुद्धीकरण में भी उपयोगी माना जाता है। लेकिन लगता है कि घोड़ाखाल मन्दिर प्रबंधन इसका अपवाद है। मनमांगी मुरादें पूरी होने पर श्रद्धालु ग्वल देव के मन्दिरों में घंटियां चढ़ाते हैं। छोटी घंटियों की असंख्य संख्या को देखते हुऐ पूर्व में घोड़ाखाल मन्दिर प्रबंधन ने छोटी घंटियों को गलाकर बड़ी घंटियों में बदल दिया था। मन्दिर में सवा टन भारी घंटियां तक मौजूद हैं। लेकिन इधर मन्दिर प्रबंधन लगता है घंटियों की मधुर ध्वनि से परेशान है। शायद इसी लिए घंटियों को इस तरह बांध दिया गया है कि श्रद्धालु चाहकर भी इसे नहीं बजा पाते। मन्दिर के पुजारी भी नि:संकोच स्वीकार करते हैं कि घंटियों की अधिक ध्वनि के कारण उन्हें बांध दिया गया है।

कलुवा:

ग्वेल देवता की कथा में जिस सिलबट्टे का जिक्र आता है, उसे ही कलुवा और राजा हलराय का पुत्र कहा जाता है। कहते हैं कि इनकी उत्पत्ति सिलबट्टे से हुई थी। गड़देवी के जागर में इनका जिक्र भी आता है। थान में इनके नाम पर खिचड़ी पकाई जाती है। इन्हें मुर्गे की बलि चढ़ती है।

हरू:

हरू ग्वेल देवता का मामा कहा जाता है। ये परोपकारी देवता हैं। सुख, संपदा, धन धान्य सूचक हैं। वे काली नाग देवी के ज्येष्ठ पुत्र थे। बाद में चम्पावत के राजा बने। किंतु एक दिन राज्य त्याग साधु हो गये। छिपलाकोट की रानी को वरण करने गये, जहां उन्हें कैद कर लिया गया। छोटे भाई सैम और भांजे ग्वेल देवता ने मुक्त कराया। इनके मंदिर भाटकोट आदि स्थानों में हैं।

सैम:

कालीनारा के कहे जाने वाले सैम हरू के छोटे भाई यानी ग्वेल देवता के मामा भी थे। हरू की भांति सुख-समृद्धि के देवता हैं। हरू सैम के भी फाग गाए जाते हैं। ग्वेल की धूनी के जागरों में पूजे जाते हैं। जागेश्वर के निकट झांकर सैम व नैनी चौगर्खा आदि अनेक स्थानों पर इनके मंदिर हैं।

गड़ देवी:

गाड़-गधेरों में वास करने वाली महाशक्ति गड़ देवी काली मां दुर्गा का स्थानीय रूप है। गड़ देवी के कानों में बात डाली जाती है। उसके साथ परियां-आचरियां भी रहती हैं। इनकी भी जागर लगती है।

सिदुवा-विदुवा:

ये वीर और तांत्रिक थे। गड़ देवी के धरम-भाई माने जाते हैं। दैवीय आपदाओं से रक्षा करते हैं।

गंगनाथ:

कुमाऊं के कई लोक देवताओं का पड़ोसी देश नेपाल से भी संबंध मिलता है। गंगनाथ नेपाल के ही डोटी राज्य (यहां के लोग डोटियाल कहे जाते हैं) के राजा भवैचन्द का पुत्र यानी राजकुमार थे। उनके जन्म के साथ ही भविश्यवाणी हुई थी कि वे साधु हो जाएंगे। साथ ही उन्हें बचपन से स्वप्न में भाना नाम की सुंदरी बुलाती थी। कुछ-कुछ भगवान बुद्ध के बाल्यकाल की तरह उन्हें भी साधु होने से बचाने के लिये राजमहल से बाहर नहीं जाने दिया गया। बावजूद वे घर से निकल गये और नाथ पंथ में दीक्षित हुए। आगे अल्मोड़ा के जोशीखोला निवासी राजा के दीवान (मंत्री) जोशी की बहु भाना से उनका मिलन हुआ। इस पर जोशियों ने भाना व गंगनाथ दोनों की हत्या कर दी। मृत्यु के तीसरे दिन से उन्होंने जोशी खोला में उत्पात मचा दिया। क्षमा याचना करने के बाद जोशियों ने उन्हें पूजना प्रारंभ किया।

मलैनाथ:

मलैनाथ ही डोटी के आभालिंग के पुत्र थे। मलैनाथ के फाग गए जाते है। नेपाल के सीमावर्ती बंगा, अस्कोट, देवचूला, पंचमई व डीडीहाट आदि स्थानों में मलैनाथ के मंदिर हैं।

भोलनाथ:

भोलनाथ चंद वंशीय राजा उदयचन्द के बड़े बेटे थे। निर्वासित थे। छोटे पुत्र ज्ञानचंद का राज्याभिषेक किया। एक बार भोलनाथ साधू वेश में अल्मोड़ा में पोखर किनारे ठहरे। ज्ञानचंद को जानकारी मिली। उसने गद्दी जाने के भय से छल से भोलनाथ और गर्भवती स्त्री की हत्या करवा दी। बाद में उनकी पूजा की जाने लगी।

कल बिष्ट:

कल बिष्ट अल्मोड़ा के निकट पाटिया गांव के कोट्यूडा कोट में रहने वाले केशव कोट्यूडी के पुत्र थे। राजपूत थे। बिनसर में गायें चराते थे। उच्चवर्गीय महिला से प्रेम हो गया, जिस पर उन्हें मार डाला गया। लोगों की मदद करते हैं। बिनसर के निकट डाना गोलू में मंदिर है। पाली पछाऊं क्षेत्र में पूजे जाते हैं।

🙏गैराड गोलू देवता की चमत्कारी कहानी🙏

श्री कलबिष्ट गोलू देव का जन्म 300 वर्ष पहले यानी 17 वीं शताब्दी अल्मोड़ा जिले के कोटयूड़ा गाँव में हुआ। इनका नाम कल्याण सिंह रखा गया और इन्हें कलबिष्ट भी कहते है। ये बिष्ट  जाति के क्षत्रिय थे। इनके पिता का नाम राम सिंह और माता रमोती देवी थी। कहते है इनके पास 12 भैंसों के झुण्ड था, रोज पास के जंगल में चराने ले जाते थे और भैंसों से काफी लगाव था।

श्री कलबिष्ट जी बहुत साहसी, बलशाली व मददकारी पुरुष थे। इनकी बहादुरी के चर्चे दूर दूर तक फैला हुआ था। इनका शरीर स्वस्थ व तंदुरुस्त था। इनके पास हाथी के समान बल था। यही बात राजा को पता चली। राजा ने मलयुद्ध का आयोजन कराया और कलबिष्ट जी को बुलाया गया। कलबिष्ट जी ने राजा सबसे बहादुर पहलवान जय सिंह को उस कुश्ती के दंगल में पटकनी दे दी और इनकी चारो तरफ जय जयकार होने लगी। राजा गोलू देवता के बल और शरीर का कायल हो गया। इधर राजा का दीवान नौ लखिया पाण्डे गोलू देवता से ईर्ष्या करने लग गया।

ये बात उन दिनों की जब राजा विलासिता पूर्ण जीवन जिया करते थे और दरबारी सामन्त हुआ करते थे। जिन्हें जमीन का मालिक बना दिया जाता था। जनता पर राजा से ज्यादा सामन्तो की हुकूमत चलती थी। ये सामन्त राजा के चाटूकार हुआ करते थे और जनता से कर वसूलते और अत्याचार और उत्पीड़न करते थे। ऐसा ही चाटूकार सामन्त नौ लखिया पाण्डे था। जिससे जनता बेहद परेशान थी और राजा इस बात से अनभिज्ञ था। जनता में नौ लखिया पाण्डे का इतना भय था वो राजा के पास अपनी शिकायत नही कर पाते थे। एक दिन यही बात उत्पीड़ित जनता ने श्री कलबिष्ट जी को बताया और इनका दिल जनता के दुःख से पिघल गया और राजा के पास जाने की ठानी। यही बात नौ लखिया पाण्डे के कानों तक पहुच गई।

नौ लखिया पाण्डे ने वफ़ादार नौकर लच्छम सिंह के साथ मिलकर श्री कलबिष्ट जी मारने का षड्यंत्र रच डाली। एक रात लच्छम सिंह ने श्री कलबिष्ट जी के भैंस के एक पैर में कील ठोक कर आ गया और प्रातःकाल उनके पास गया और कहा – मेरे बच्चों के लिए दूध नही है और कुछ दिनों के लिए एक दूध देनी वाली भैंस चाहिए। कलबिष्ट जी ने कहा जो भैंस चाहिए वो ले जाओ। वह उसी भैंस पास गया और बोला यह भैंस तो पैर लचका रही है। कलबिष्ट ने भैंस का पैर देखा, वहाँ कील चुभी थी। वह झुककर अपने दांतों से कील निकाल रहे थे तभी लच्छम सिंह ने कुल्हाड़ी से उनका सर धड़ से अलग कर दिया और भाग गया। उनकी यह दशा देखकर सारी भैंसे विलाप करने लगी और सबने प्राण त्याग कर पत्थर का रूप ले लिया। कलबिष्ट जी का धड़ भी पत्थर बन गया और उनका सर चार मील दुर कपड़खान के पास जा गिरा, जहाँ रोड किनारे उनका पहला छोटा सा मंदिर है। जहाँ इनका धड़ है वहाँ गैराड़ गोलू देव यानी श्री कलबिष्ट डाना गोलू देव मंदिर है।

मरणोपरांत भूताषण आकर इन्होंने अत्याचारी नौ लखिया पाण्डे और लच्छम सिंह नाष किया और जो सामन्त जनता को उत्पीड़ित करते थे उनका भी नाष किया। तब से क्षेत्रीय जनता इनको मानने लगी और पूजने लगी। यहाँ उनके दर्शन के लिए भक्तों की भीड़ लगी रहती है। आज भी गोलू देवता अपने भक्तों के साथ न्याय करते हैं और उन्हें हर मुसीबत से बचाते हैं।
आप यहाँ आएंगे तो मंदिर के रास्ते में या मंदिर के चारो तरफ बड़े बड़े पत्थर दिखाई देंगे वो भैंसों ने पत्थर रूप धारण किया था वह पत्थर है। मंदिर में उनका धड़ वाला पत्थर भी, जहाँ लोग उन्हें पूजते हैं।

चौमू, बधाण, नौलदानू:

ये पशुओं के देवता हैं। चौमू रियुणी व द्वारसों क्षेत्र में पूजे जाते हैं। गाय-भैसों की नयी संतति होने पर 5वें, 7वें या 11वें दिन बधांण देवता के रूप में नये दूध व अन्य दुग्ध उत्पादों से पूजे जाते हैं। इन्हें चढ़ाने के बाद ही पशुओं का दूध देवताओं को चढ़ाने के योग्य माना जाता है। नौलदानू का किसी दुधैल पेड़ की जड़ में वास माना जाता है।

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भागलिंग, हुंस्कर, बालचिन, कालचिन, छुरमल, बजैण:

ये भी नेपाल से आये देवता हैं। पिथौरागढ़ जिले सीमान्त डूंगरा, डांगटी, तामाकोट व जोहार क्षेत्रों के साथ नेपाल के डोटी में भी पूजे जाते हैं। बालचिन हुंस्कर के पुत्र थे। कालचिन कालिंग के पुत्र थे। छुरमल कालचिन के पुत्र थे। इनके मंदिर बजैण भनार में हैं।

नारसिंह:

नारसिंह भगवान विष्णु के नृसिंह के स्थानीय स्वरूप हैं। आदि व्याधि, संकट दूर करने वाले जोगी देवता माने जाते हैं। जागरों में इनका जिक्र आता है। पत्र-पुष्प से प्रसन्न हो जाते हैं। कत्यूर राजवंश की कथा व जागर में भी, खासकर कत्यूरों की राजधानी जोशीमठ से कर्तिकेयपुर यानी बैजनाथ आने में भी इनका जिक्र आता है।

भूमिया:

कुमाऊं के हर गांव में भूमिया का ग्राम देवता के रूप में मंदिर होता है। हर फसल कटने के बाद नये अनाज से प्रसाद बनाकर भूमिया देवता पूजे जाते हैं।

देवी:

कुमाऊं में अनेक स्थानों, खासकर चोटियों पर दुर्गा, भगवती आदि के थान कहे जाने वाले मंदिर मिलते हैं। इनमें समय-समय पर भंडारे होते हैं। कत्यूरी वंश की ऐतिहासिक वीरांगना जियारानी भी देवी के रूप में रानीबाग चित्रशिला पर हर मकर संक्रांति (उत्तरायणी) पर जागरों के द्वारा पूजी जाती है।

काली, हाटकाली:

देवी दुर्गा की स्वरूप कालिका बलि लेने वाली देवी हैं। देवीधुरा, गंगोलीहाट व कोटगाड़ी आदि में इनके मंदिर हैं।

एड़ी:

कहते हैं कि इनके पैर पीछे की ओर होते हैं। पर्वत शिखरों में रहते हैं। इनके साथ बकरी, परियां, हाथी व कुत्ते आदि चलते हैं।

मसाण, खबीस और रूनिया:

ये श्मशान के भूत यानी अतृप्त आत्माएं हैं। कमजोर व्यक्तियों पर चिपटते हैं। बलि द्वारा संतुष्ट होते हैं। पीर फकीर के रूप में भी आने लगे हैं।

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विडम्बना तराई और भाबर में स्थापित हो गए पहाड़ के देवी-देवता

गणेश पाठक/एसएनबी, हल्द्वानी। अरबों खरबों खर्च करने के बाद भी पहाड़ से पलायन की रफ्तार थम नहीं पा रही है। इस पलायन में केवल मनुष्य की शामिल नहीं है, बल्कि देवी-देवता भी पहाड़ छोड़कर तराई में बस गये हैं। पहाड़ों के तमाम छोटे-बड़े मंदिर और मकान खंडहरों में तब्दील हो गये हैं, जबकि तराई और भाबर में भूमिया, ऐड़ी, गोलज्यू, कोटगाड़ी समेत कई देवताओं के मंदिर बन गये हैं। पलायन करके तराई में आए लोग पहले देवी देवताओं की पूजा अर्चना करने के लिए साल भर में एक बार घर जाते थे, लेकिन अब इस पर भी विराम लग गया है। राज्य गठन के बाद पलायन की रफ्तार तेज हुई है। पिथौरागढ़ से लेकर चंपावत तक नेपाल-तिब्बत (चीन) से जुड़ी सरहद मानव विहीन होने की स्थिति में पहुंच गई है और यह इलाका एक बार फिर इतिहास दोहराने की स्थिति में आ गया है। कई सौ साल पहले मुगल और दूसरे राजाओं के उत्पीड़न से नेपाल समेत भारत के विभिन्न हिस्सों से लोगों ने कुमाऊं और गढ़वाल की शांत वादियों में बसेरा बनाया था। धीरे-धीरे कुमाऊं और गढ़वाल में हिमालय की तलहटी तक के इलाके आवाद हो गये थे, लेकिन आजादी के बाद सरकारें इन गांवों तक बुनियादी सुविधाएं देने में नाकाम रहीं और पलायन ने गति पकड़ी। इससे पहाड़ खाली हो गये। सरकारी रिकाडरे में खाली हो चुके गांवों की संख्या महज 1065 है, जबकि वास्तविकता यह है कि अकेले कुमाऊं में पांच हजार से अधिक गांव वीरान हो गये हैं। खासतौर पर नेपाल और तिब्बत सीमा से लगे गांवों से अधिक पलायन हुआ है। लगातार पलायन से पहाड़ों की हजारों एकड़ भूमि बंजर हो गई है। पलायन की इस रफ्तार से देवी-देवताओं पर भी असर पड़ा है। शुरूआत में लोग साल दो साल या कुछ समय बाद घर जाते और देवी देवताओं की पूजा करते थे। इससे नई पीढ़ी का पहाड़ के प्रति भावनात्मक लगाव बना रहता था, लेकिन अब यह लगाव भी टूटने लगा है। इसकी वजह से हजारों की संख्या में देवी देवताओं का पहाड़ से पलायन हो गया है। अकेले तराई और भावर में तीन से चार हजार तक विभिन्न नामों के देवी देवताओं के मंदिर बन गये हैं। किसी दौर में पहाड़ों में ये मंदिर तीन-चार पत्थरों से बने होते थे, लेकिन अब तराई और भावर में इनका आकार बदल गया है। यहां स्थापित किये गए देवी देवताओं में भूमिया, छुरमल, ऐड़ी, अजिटियां, नारायण, गोलज्यू के साथ ही न्याय की देवी के रूप में विख्यात कोटगाड़ी देवी के नाम शामिल हैं। इन देवी-देवताओं के पलायन का कारण लोगों को साल दो साल में अपने मूल गांव जाने में होने वाली कंिठनाई है। दरअसल राज्य गठन के बाद पलायन को रोकने के लिए खास नीति न बनने से पिछले दस साल में पलायन का स्तर काफी बढ़ गया है। हल्द्वानी में कपकोट के मल्ला दानपुर क्षेत्र से लेकर पिथौरागढ़ के कुटी, गुंजी जैसे सरहदी गांवों के लोगों ने अपने गांव छोड़ दिये हैं। पहाड़ छोड़कर तराई एवं भावर या दूसरे इलाकों में बसने वाले लोगों में फौजी, शिक्षक, व्यापारी, वकील, बैंककर्मी, आईएएस समेत विभिन्न कैडरों के लोग शामिल हैं। पलायन के कारण खाली हुए गांवों में हजारों एकड़ कृषि भूमि बंजर पड़ गई है। इसी तरह से विकास के नाम पर खर्च हुए अरबों रुपये का यहां कोई नामोनिशान नहीं है। नहरें बंद हैं। पेयजल लाइनों के पाइप उखड़ चुके हैं और सड़कों की स्थिति भी बदहाल है। किसी गांव में दो-चार परिवार हैं तो किसी में कोई नहीं रहता। किसी दौर में इन गांवों में हजारों लोग रहा करते थे। स्कूल और कालेजों की स्थिति भी दयनीय बन गई है। कई प्राथमिक स्कूलों में एक बच्चा भी नहीं है तो किसी इंटर कालेज में दस छात्र भी नहीं पढ़ रहे हैं।

यह भी पढ़ें : न्याय देवता के चितई ग्वेलज्यू मंदिर के मामले में हाईकोर्ट ने निर्णय लेने से किया इंकार, निचली अदालत को भेजा अधिकार का मामला..

नवीन समाचार, नैनीताल, 19 नवम्बर 2020। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने प्रदेश में न्याय के देवता के रूप में प्रसिद्ध ग्वेलज्यू के चितई अल्मोड़ा स्थित मंदिर के प्रबंधन को लेकर जनहित याचिका व पुनर्विचार याचिका में खुद कोई निर्णय लेने से इंकार करते हुए सिविल न्यायालय अल्मोड़ा को मामले में उपासना से संबंधित अधिकार के साक्ष्य के आधार पर छह माह के भीतर निर्धारित करने के आदेश दिए हैं। कोर्ट ने साफ कहा है कि दीवानी अधिकारों के लिए साक्ष्य की जरूरत होती है और जनहित याचिका में सबूत नहीं देखे जा सकते हैं। सिविल कोर्ट से यह भी कहा है कि हाईकोर्ट के मंदिर से संबंधित आदेशों से प्रभावित हुए बिना मामला निस्तारित करे। साथ ही पक्षकारों से अपने दावे से संबंधित प्रार्थना पत्र सिविल कोर्ट में दाखिल करने के निर्देश भी दिए हैं। इसके साथ ही छह माह तक मंदिर की व्यवस्थाओं के लिए अल्मोड़ा के जिलाधिकारी को अस्थायी कमेटी बनाने के निर्देश भी दिए हैं। कमेटी में जिलाधिकारी के साथ ही पुजारियों के प्रतिनिधि शामिल होंगे।उल्लेखनीय है कि नैनीताल निवासी अधिवक्ता दीपक रूवाली ने उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि चितई के ग्वेलज्यू मंदिर में हर साल आने वाले लाखों के चढ़ावे के सही प्रबंधन के लिए मंदिर का ट्रस्ट बनाने की मांग की थी, जबकि अल्मोड़ा की संध्या पंत ने पुराने दस्तावेजों के साथ पुनर्विचार याचिका दायर कर कहा था उनके पूर्वजों ने मंदिर बनाया था। इस पर न्यायालय ने मामले में सुनवाई करते हुए पर्यटन सचिव की ओर से बनाई गई मंदिर प्रबंधन कमेटी से संबंधित आदेश को रिकॉल और जिलाधिकारी की अध्यक्षता में बनी कमेटी द्वारा लिए गए प्रशासनिक आदेशों को निरस्त कर दिया था।

चितई के न्यायदेव ग्वेलज्यू मंदिर पर तीन सप्ताह में जवाब दाखिल करने के निर्देश

-जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए मंदिर के चढ़ावे व मंदिर समिति के कानूनी स्वरूप पर सरकार से जवाब तलब
नैनीताल, 7 सितंबर 2018। उत्तराखंड की कार्यवाहक मुख्य न्यायधीश राजीव शर्मा एवं न्यायमूर्ति मनोज कुमार तिवारी की खंडपीठ ने अल्मोडा स्थित चितई गोल्ज्यू मंदिर के चढावे का सदुपयोग करने और मंदिर समिति को कानूनी स्वरूप दिए जाने के मामले में दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद सरकार को तीन सप्ताह में जवाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं।मामले के अनुसार अधिवक्ता दीपक रूबाली ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि चितई का गोल्ज्यू मंदिर पर्वतीय क्षेत्र के लिए एक आस्था का स्तम्भ है। लेकिन पिछले कई वर्षों से इस मंदिर में श्रद्धालुओं द्वारा चढाये गए धन का उचित उपयोग मंदिर के रखरखाव आदि पर नहीं हो रहा है। बल्कि इसका संचालन कुछ व्यक्तियों द्वारा निजी लाभ के लिए ही किया जा रहा है। मंदिर के पास जो चढ़ावा आता है, उसका उपयोग निजी आय की तरह होता है और जो धनराशि यहां विवाह आदि कार्यों से एकत्रित होती है उसका वितरण केवल कुछ लोगों तक ही सीमित रहता है।याचिका में कहा गया है कि पिछले माह हाईकोर्ट ने यह आदेश पारित किया है कि उत्तराखंड के मंदिरों के संचालन के लिए ट्रस्ट एवं जन समितियों का गठन हो ताकि इसमें पारदर्शिता रखी जा सके। याचिका में कहा गया है कि 2011 में मंदिर समिति गठित हुई जिसमें एक ही परिवार के सदस्य हैं, इसलिए इस समिति का कोई विधिक अस्तित्व नहीं है। लिहाजा याची की ओर से प्रार्थना की गई है कि मंदिर के आय-व्यय में पूर्ण पारदर्शिंता तथा मंदिर में हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए। सुनवाई के बाद खंडपीठ ने सरकार को तीन सप्ताह में जवाब दाखिल करने के निर्देश दिए।

यह भी पढ़ें : 21 दिन की निराहार साधना व 12 घंटे के महायज्ञ से आस्था में सराबोर हुआ ग्वेलज्यू दरबार
नवीन समाचार, नैनीताल, 24 अप्रैल 2019। मंगलवार 2 अप्रैल से जनपद के धारी तहसील के दूरस्थ गांव पुटगांव में आध्यात्म के केंद्र के केंद्र के रूप में उभर रहे कुमाऊं के न्याय देवता श्री ग्वेलज्यू के दरबार में शुरू हुई 21 दिन की निराहार कठोर साधना के उपरांत 12 घंटे लगातार माँ पीतांबरा के महायज्ञ व हवन की पूर्णाहुति पूर्ण भक्ति भाव के साथ संपन्न हो गयी है। उल्लेखनीय है कि यहां माता पीताम्बरा व माता बगलामुखी के अनन्य भक्त सत्य साधक ब्रजेन्द्र पाण्डे ‘गुरु जी’ के द्वारा बीती 2 अप्रैल से 21 दिन की निराहार कठोर साधना 23 अप्रैल तक की गयी, और इसके उपरांत लगातार 12 घंटों तक महायज्ञ व हवन के उपरान्त बुधवार को विशाल भंडारे का साथ आयोजन किया गया। उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व भी गुरुजी द्वारा अक्टूबर 2018 में इसी ग्वेलज्यू दरबार पुटगांव में लगातार 36 दिन की निराहार साधना के बाद 12 घंटों का महायज्ञ किया गया था। मंदिर समिति के अध्यक्ष पंकज कुलौरा ने इस अवसर पर कहा कि पुटगांव एक बड़ा आध्यात्मिक केंद्र है। यहां माथा टेकने से कई लोगों का कष्ट दूर हुआ है और गुरुजी द्वारा चलाये गये नशामुक्ति अभियान से क्षेत्र के कई युवाओं ने शराब, मांस-मीट का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया है। साथ ही पुटगांव एक नया पर्यटक स्थल भी बनने जा रहा है जिससे यहाँ के नौजवानों को रोजगार भी मिल सकेगा। इस अवसर पर पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गोबिंद सिंह कुंजवाल, पूर्व दर्जा राज्य मंत्री ललित पंत, पुलिस इंस्पेक्टर नित्यानंद पंत, पूर्व सीएम हरीश रावत के भाई जगदीश रावत, प्रकाश जैन, समाजसेवी हेमंत बोरा, रमाकांत पंत, अनिल मुनगली, बची सिंह कुलौरा, गणेश कुलौरा, यशवंत सिंह, जीवन सिंह, हरीश कुलौरा, कमलेश, बब्ब्लू सिंह, कमल कुलौरा, मदन दानी, प्रीतम अलचोनी, मोहन जोशी, भद्रकाली मंदिर समिति के अध्यक्ष योगेश पंत, धीरज पंत, हेमवती नंदन दुर्गापाल, रमेश कुन्याल, सर्वेश गंगवार, जीवन गोस्वामी, हरेंद्र पडियार, शंकर सिंह, भीम सिह, हरीश गंगोला व ज्योतिषी नरेद्र साह सहित सैकड़ों भक्तजनों ने अपना योगदान व सहयोग दिया।

यह भी पढ़ें : गोल्ज्यू धाम पुटगांव में 36 दिवसीय साधना में लीन हुए सत्य साधक गुरुजी

लोक मंगल की कामना को लेकर गुरु जी ने शुरू की मां बगलामुखी जी की साधनापुटगांव-भीमताल, 10 अक्टूबर 2018। जय मां पीतांबरी साधना एवं दिव्य योग ट्रस्ट के संस्थापक माता बगुलामुखी व माता पीताम्बरी के अनन्य भक्त सत्य साधक विजेंद्र पांडे ‘गुरुजी’ नैनीताल जनपद के ओखलकांडा ब्लॉक अंतर्गत पदमपुरी से बबियाड रोड पर 17 किलोमीटर आगे ऐतिहासिक प्राचीन गोल्ज्यू मंदिर पुटगांव में मंदिर के भव्य नवनिर्माण के बाद प्रदेश की उन्नति के लिए लोक मंगल की कामना को लेकर मां बगलामुखी जी की 36 दिवसीय निराहार कठोर साधना में लीन हो गए हैं।नवरात्रि के प्रथम दिवस गुरु जी की लोकमंगल के पावन उद्देश्य को लेकर शुरू हुई साधना आगामी 15 नवंबर को पूर्ण होगी। 15 नवंबर को मंदिर प्रांगण में दिव्य हवन यज्ञ का आयोजन किया जाएगा।बताते चलें कि सत्य साधक गुरुजी इससे पूर्व उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, नेपाल, भूटान व राजस्थान सहित देश विदेश के कई शक्तिपीठों में लोक कल्याण की कामना को लेकर कठोर साधना कर चुके हैं। इसके अलावा वर्षभर नियमित रूप से गुरु जी के निर्देशन में हवन यज्ञ का कार्यक्रम जारी रहता है। गुरुजी का मानना है कि साधना व हवन यज्ञ के आयोजन से पर्यावरण संरक्षण के साथ ही तमाम नकारात्मक शक्तियों का दमन होता है। तथा साथ ही देवीय आपदाओं भूकंप और सूखा, अकाल, भूस्खलन व महामारी आदि पर भी अंकुश लगता है। आगे यज्ञ एवं विशाल भंडारे तथा श्री ग्वेलज्यू देव की पूजा प्रथम भोग तथा भण्डारा 18 अक्टूबर यानी नवमी को किया जाएगा। आज गोल्ज्यू धाम में गुरु जी की साधना शुरू होने के दौरान जय मां पीतांबरी साधना एवं दिव्य योग ट्रस्ट के राष्ट्रीय महामंत्री हेमंत बोरा, उत्तराखंड सरकार के पूर्व दर्जा राज्यमंत्री ललित पंत, मंदिर समिति के अध्यक्ष पंकज कुलौरा, मुख्य संरक्षक गिरिजाशंकर मुनगली, संरक्षक पुनीत मुनगली, उपाध्यक्ष दिग्विजय बिष्ट, सचिव बची सिंह कुलौरा, कोषाध्यक्ष अनिल मुनगली तथा विनोद जोशी, हरेंद्र पडियार, अनिल मुख्य संरक्षक गिरिजाशंकर मुनगली, संरक्षक पुनीत मुनगली, उपाध्यक्ष दिग्विजय बिष्ट, सचिव बची सिंह कुलौरा, कोषाध्यक्ष अनिल मुनगली, विनोद जोशी, हरेंद्र पडियार, कमल समेत भारी संख्या में ग्रामीण मौजूद रहे।

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