
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 30 मार्च 2023 (Devi Devta)। देवभूमि उत्तराखंड की दो में से से एक व पुरानी कमिश्नरी कुमाऊं अंचल की अपनी अनेक विशिष्टताएं हैं। उत्तर में उत्तुंग हिमाच्छादित नंदादेवी, नंदाकोट व त्रिशूल की सुरम्य पर्वत मालाएं, पूर्व में पशुपति नाथ व गोरखों की धरती नेपाल, पश्चिम में उत्तराखंड की दूसरी कमिश्नरी व चार धामों का गढ़ गढ़वाल तथा दक्षिण में मैदानी तराई-भाबर से घिरे इस अंचल में 50 हजार से पांच लाख साल पुराने शैलाश्रयों के आदिम मानव सभ्यता के अवशेष लखु उडियार व अन्य स्थानों पर मौजूद हैं।
‘कुमाऊं का इतिहास’ पुस्तक के लेख कुमाऊं केसरी पंडित बद्रीदत्त पांडे जी के अनुसार 2500 से 700ईसवी तक यहां कत्यूरों और 1200 से 1700 तक चंदों का राज रहा। अलबत्ता प्रसिद्ध घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन 850 से 1060 तक कत्यूरी राज मानते हैं। 1729 से 1743 तक रूहेलों के निरंतर आक्रमणों और 1790 से 1815 तक गोरखा के कुराज से कुमाऊं त्रस्त रहा। 1815 में सुगौली की संधि के बाद अंग्रेजों को कमोबेश यहां बुलाकर लाया गया, ताकि गोरखा राज से मुक्ति मिले।
1857 के गदर के दौरान कई अंग्रेज भी अपने परिवारों को सुरक्षित करने यहां पहुंचे तो विद्रोह के कई सेनानी भी यहां आए। बताते हैं कि पहले यहां बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आदि शंकराचार्च ने सातवीं शताब्दी में यहां हिंदू धर्म का पुनरुत्थान और कत्यूरों के सूर्यवंशी राज्य का अभिषेक किया।
हालांकि वैदिक काल से ही वेदों-पुराणों से लेकर महाकवि कालीदास की कालजयी रचनाओं में भी कुमाऊं की महिमा गायी गयी है। स्कंद पुराण का मानस खंड तो कुमाऊं को ही समर्पित है। वहीं कवि चन्दवरदाई के पृथ्वीराज रासो में भी कुमाऊं का जिक्र इस तरह आता है:
‘सवलष्प उत्तर सयल, कुमऊं गढ़ दुरंग।
राजतराज कुमोदमणि हय गय द्रिब्ब अभंग।’
कुमाऊं की अपनी संस्कृति, अपनी बोली-कुमाउनी, अपनी एक विशिष्ट जीवनचर्या व पहचान है। यहां कमोबेश हर ऊंचे शिखर पर देवी के थान यानी मंदिर), गाड़ (नदी) गधेरों (नालों) के किनारे शिवालय हैं, इसलिये इस भूमि का देवभूमि कहा जाता है। यहां के लोग वैदिक धर्म व हिंदू धर्म के साथ बहु-ईश्वरवाद को मानने वाले हैं।
(Devi Devta) यहां सत्य नारायण, श्रीराम चरित मानस और इसके खासकर सुंदर कांड के पाठ कमोबेश हर शुभ कार्य के अवसर पर किए जाते हैं। देवी पार्वती, भगवती, सरस्वती और लक्ष्मी सहित अनेकानेक देवियों के साथ ही ब्रह्मा, विष्णु व महेश त्रिदेवों का पूजन भी किया जाता है। किंतु साथ अपने अनेक स्थानीय देवी-देवताओं, अपने वीरों, पूर्वजों का स्मरण करने की एक अलग विशिष्ट-जागर विधा से पूजन करना कुमाऊं वासियों की विशिष्टता है।
यहां के लोक देवता सामाजिक न्याय प्रणाली के अंग और संकट मोचक के रूप में हैं। उनका जागर के माध्यम से आवाहन कर महिमा गायन किया जाता है, और उनसे अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जाता है। इनमें से कुछ देवी-देवताओं के बारे में कहा जाता है कि उनके साथ अन्याय, अत्याचार हुआ, तथा अल्प मृत्यु हुई। कालान्तर में न्याय, सुख, समृद्धि, शांति, खुशी के देवी-देवता बन गए।
जागर के बारे में विस्तार से यहां पढ़ें: आस्था के साथ ही सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहर भी हैं ‘जागर’
कुमाऊं के प्रमुख लोक देवता निम्न हैं:
नंदा देवीः
नंदा देवी समूचे उत्तराखंड यानी कुमाऊं और गढ़वाल मंडलों के साथ और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं। नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं। रुप मंडन ग्रंथ में नंदा भगवती-पार्वती को गौरी के छः अंगभूता देवियों में से एक तथा नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है।
वहीं भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं। जबकि शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है। शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं। अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं।
प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी यानी नंदाष्टमी के अवसर पर गरुण-बैजनाथ के निकट ‘कोट की माई’, अल्मोड़ा में ऐतिहासिक नंदादेवी मंदिर और नैनीताल के नयना देवी मंदिर में नंदा देवी का मेला आयोजित किया जाता है।
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गोलू:
गोलू कुमाऊं के सर्वप्रिय न्याय देवता हैं। लोक कथा के अनुसार गोलू के पिता राजा झालराई सात रानियां होने पर भी निःसंतान थे। संतान प्राप्ति की आस में राजा द्वारा काशी के सिद्ध बाबा से भैरव यज्ञ करवाया और सपने में उन्हें गौर भैरव ने दर्शन दिए और कहा, राजन आप आठवां विवाह करो। मैं उसी रानी के गर्भ से आपके पुत्र रूप में जन्म लूंगा।
इस प्रकार राजा ने आठवां विवाह कालिंका से रचाया। मगर इससे सातों रानियों में कालिंका को लेकर ईष्या उत्पन्न हो गई। तीनों रानियों ने ईष्या से शडयंत्र रचते हुए कालिंका को बताया कि ग्रहों के प्रकोप से बचने के लिए उसे सात दिनों तक पैदा होने वाले शिशु की सूरत नहीं देखनी होगी। यह सुनकर वंश की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए कालिंका तैयार हो गई।
प्रसव पीड़ा होते ही उसकी आंखों में काली पट्टी बांध दी गई, और नवजात शिशु को हटाकर उसकी जगह सिलबट्टा रख दिया गया। फिर रानियों ने उसे बताया कि उसने सिलबट्टे को जन्म दिया है। सातों रानियों ने नवजात शिशु को मारने के लिये पहले गौशाला में फेंककर यह सोचा की बालक जानवरों के पैर तले कुचलकर मर जाएगा।
मगर देखा कि गाय घुटने टेक कर शिशु के मुंह में अपना थन डाले हुए दूध पिला रही है। अनेक कोशिशों के बाद भी बालक नहीं मरा तो रानियों ने उसे संदूक में डालकर काली नदी में फेंक दिया। मगर ईश्वरीय चमत्कार से संदूक तैरता हुआ गोरी नदी के घाट तक पहुंच गया। जहां वह भाना नामक मछुवारे के जाल में फंस गया।
संदूक में मिले बालक को लेकर निःसंतान मछुवारा अत्यन्त प्रसन्न होकर उसे घर ले गया। गोरी घाट में मिलने के कारण उसने बालक का नाम गोरिया रख दिया। बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो उसने मछुवारे से घोड़ा लेने की जिद की। गरीब मछुवारे के लिए घोड़ा खरीद पाना मुश्किल था, उसने बालक की जिद पर उसे लकड़ी का घोड़ा बनाकर दे दिया।
बालक घोड़ा पाकर अति प्रसन्न हुआ। बालक जब घोड़े पर बैठा तो वह घोड़ा सरपट दौड़ने लगा। एक दिन काठ के घोड़े पर चढकर वह धोली धूमाकोट नामक स्थान पर जा पहुंचा, जहां सातों रानियां राजघाट से पानी भर रही थीं। वह रानियों से बोला पहले उसका घोड़ा पानी पियेगा, बाद में आप लोग पानी भरना।
यह सुनकर रानियां हंसने लगी और बोली, अरे मूर्ख ! कहीं कांठ का घोड़ा भी पानी पीता है। बालक बोला, जब स्त्री के गर्भ से सिलबट्टा पैदा हो सकता है तो काठ का घोड़ा पानी क्यों नहीं पी सकता। यह सुनकर सातों रानियां घबरा गईं। राजा को यह बात पता चली तो उसने बालक को बुलाकर सच्चाई जानना चाही। बालक ने सातों रानियों द्वारा उनकी माता कालिंका के साथ रचे गये षडयंत्र की कहानी सुना दी।
तब राजा झालराई ने उस बालक से अपना पुत्र होने का प्रमाण मागा। इस पर बालक गोरिया ने कहा कि यदि मैं माता कालिंका का पुत्र हूं तो इसी पल मेरे माता के वक्ष से दूध की धारा निकलकर मेरे मुंह में चली जाएगी, और ऐसा ही हुआ। राजा ने बालक को गले लगा लिया और राजपाठ सौंप दिया। इसके बाद वह राजा बनकर जगह-जगह न्याय सभाएं लगाकर प्रजा को न्याय दिलाते रहे।
गोलज्यू का मूल स्थान चम्पावत माना जाता है। लेकिन घोड़ाखाल, चितई व द्वाराहाट आदि में भी उनके मंदिर हैं। स्थानीय जनश्रुति के अनुसारउन्हें घोड़ाखाल में स्थापित करने का श्रेय महरागांव की एक महिला को माना जाता है। यह महिला वर्षो पूर्व अपने परिजनों द्वारा सतायी जाती रही। उसने अपने मायके चम्पावत जाकर गोलज्यू से न्याय हेतु साथ चलने की प्रार्थना की। गोलज्यू उसके साथ यहां पहुंचे।
मान्यता है कि सच्चे मन से मनौती मांगने जो भी घोड़ाखाल पहुंचते हैं, गोलज्यू उसकी मनौती पूर्ण करते हैं। न्याय के देवता के रूप में पूजे जाने वाले गोलज्यू पर आस्था रखने वाले उनके अनुयायी न्याय की आस लेकर मंदिर में अर्जियां टांग जाते हैं। जिसका प्रमाण मंदिर में टंगी हजारों अर्जियां हैं। न्याय की प्राप्ति होने पर वह घंटियां चढ़ाना नहीं भूलते। जिसके चलते घोड़ाखाल का गोलू मंदिर पर्यटकों के बीच घंटियों वाले मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हो चला है।
कलुवा:
ग्वेल देवता की कथा में जिस सिलबट्टे का जिक्र आता है, उसे ही कलुवा और राजा हलराय का पुत्र कहा जाता है। कहते हैं कि इनकी उत्पत्ति सिलबट्टे से हुई थी। गड़देवी के जागर में इनका जिक्र भी आता है। थान में इनके नाम पर खिचड़ी पकाई जाती है। इन्हें मुर्गे की बलि चढ़ती है।
हरू:
हरू ग्वेल देवता का मामा कहा जाता है। ये परोपकारी देवता हैं। सुख, संपदा, धन धान्य सूचक हैं। वे काली नाग देवी के ज्येष्ठ पुत्र थे। बाद में चम्पावत के राजा बने। किंतु एक दिन राज्य त्याग साधु हो गये। छिपलाकोट की रानी को वरण करने गये, जहां उन्हें कैद कर लिया गया। छोटे भाई सैम और भांजे ग्वेल देवता ने मुक्त कराया। इनके मंदिर भाटकोट आदि स्थानों में हैं।
सैम:
कालीनारा के कहे जाने वाले सैम हरू के छोटे भाई यानी ग्वेल देवता के मामा भी थे। हरू की भांति सुख-समृद्धि के देवता हैं। हरू सैम के भी फाग गाए जाते हैं। ग्वेल की धूनी के जागरों में पूजे जाते हैं। जागेश्वर के निकट झांकर सैम व नैनी चौगर्खा आदि अनेक स्थानों पर इनके मंदिर हैं।
गड़ देवी:
गाड़-गधेरों में वास करने वाली महाशक्ति गड़ देवी काली मां दुर्गा का स्थानीय रूप है। गड़ देवी के कानों में बात डाली जाती है। उसके साथ परियां-आचरियां भी रहती हैं। इनकी भी जागर लगती है।
सिदुवा-विदुवा:
ये वीर और तांत्रिक थे। गड़ देवी के धरम-भाई माने जाते हैं। दैवीय आपदाओं से रक्षा करते हैं।
गंगनाथ:
कुमाऊं के कई लोक देवताओं का पड़ोसी देश नेपाल से भी संबंध मिलता है। गंगनाथ नेपाल के ही डोटी राज्य (यहां के लोग डोटियाल कहे जाते हैं) के राजा भवैचन्द का पुत्र यानी राजकुमार थे। उनके जन्म के साथ ही भविश्यवाणी हुई थी कि वे साधु हो जाएंगे। साथ ही उन्हें बचपन से स्वप्न में भाना नाम की सुंदरी बुलाती थी। कुछ-कुछ भगवान बुद्ध के बाल्यकाल की तरह उन्हें भी साधु होने से बचाने के लिये राजमहल से बाहर नहीं जाने दिया गया।
बावजूद वे घर से निकल गये और नाथ पंथ में दीक्षित हुए। आगे अल्मोड़ा के जोशीखोला निवासी राजा के दीवान (मंत्री) जोशी की बहु भाना से उनका मिलन हुआ। इस पर जोशियों ने भाना व गंगनाथ दोनों की हत्या कर दी। मृत्यु के तीसरे दिन से उन्होंने जोशी खोला में उत्पात मचा दिया। क्षमा याचना करने के बाद जोशियों ने उन्हें पूजना प्रारंभ किया।
मलैनाथ:
मलैनाथ ही डोटी के आभालिंग के पुत्र थे। मलैनाथ के फाग गए जाते है। नेपाल के सीमावर्ती बंगा, अस्कोट, देवचूला, पंचमई व डीडीहाट आदि स्थानों में मलैनाथ के मंदिर हैं।
भोलनाथ:
भोलनाथ चंद वंशीय राजा उदयचन्द के बड़े बेटे थे। निर्वासित थे। छोटे पुत्र ज्ञानचंद का राज्याभिषेक किया। एक बार भोलनाथ साधू वेश में अल्मोड़ा में पोखर किनारे ठहरे। ज्ञानचंद को जानकारी मिली। उसने गद्दी जाने के भय से छल से भोलनाथ और गर्भवती स्त्री की हत्या करवा दी। बाद में उनकी पूजा की जाने लगी।
कल बिष्ट:
कल बिष्ट अल्मोड़ा के निकट पाटिया गांव के कोट्यूडा कोट में रहने वाले केशव कोट्यूडी के पुत्र थे। राजपूत थे। बिनसर में गायें चराते थे। उच्चवर्गीय महिला से प्रेम हो गया, जिस पर उन्हें मार डाला गया। लोगों की मदद करते हैं। बिनसर के निकट डाना गोलू में मंदिर है। पाली पछाऊं क्षेत्र में पूजे जाते हैं।
गैराड गोलू देवता की चमत्कारी कहानी
श्री कलबिष्ट गोलू देव का जन्म 300 वर्ष पहले यानी 17 वीं शताब्दी अल्मोड़ा जिले के कोटयूड़ा गाँव में हुआ। इनका नाम कल्याण सिंह रखा गया और इन्हें कलबिष्ट भी कहते है। ये बिष्ट जाति के क्षत्रिय थे। इनके पिता का नाम राम सिंह और माता रमोती देवी थी। कहते है इनके पास 12 भैंसों के झुण्ड था, रोज पास के जंगल में चराने ले जाते थे और भैंसों से काफी लगाव था।
श्री कलबिष्ट जी बहुत साहसी, बलशाली व मददकारी पुरुष थे। इनकी बहादुरी के चर्चे दूर दूर तक फैला हुआ था। इनका शरीर स्वस्थ व तंदुरुस्त था। इनके पास हाथी के समान बल था। यही बात राजा को पता चली। राजा ने मलयुद्ध का आयोजन कराया और कलबिष्ट जी को बुलाया गया। कलबिष्ट जी ने राजा सबसे बहादुर पहलवान जय सिंह को उस कुश्ती के दंगल में पटकनी दे दी और इनकी चारो तरफ जय जयकार होने लगी। राजा गोलू देवता के बल और शरीर का कायल हो गया। इधर राजा का दीवान नौ लखिया पाण्डे गोलू देवता से ईर्ष्या करने लग गया।
ये बात उन दिनों की जब राजा विलासिता पूर्ण जीवन जिया करते थे और दरबारी सामन्त हुआ करते थे। जिन्हें जमीन का मालिक बना दिया जाता था। जनता पर राजा से ज्यादा सामन्तो की हुकूमत चलती थी। ये सामन्त राजा के चाटूकार हुआ करते थे और जनता से कर वसूलते और अत्याचार और उत्पीड़न करते थे। ऐसा ही चाटूकार सामन्त नौ लखिया पाण्डे था। जिससे जनता बेहद परेशान थी और राजा इस बात से अनभिज्ञ था।
जनता में नौ लखिया पाण्डे का इतना भय था वो राजा के पास अपनी शिकायत नही कर पाते थे। एक दिन यही बात उत्पीड़ित जनता ने श्री कलबिष्ट जी को बताया और इनका दिल जनता के दुःख से पिघल गया और राजा के पास जाने की ठानी। यही बात नौ लखिया पाण्डे के कानों तक पहुच गई।
नौ लखिया पाण्डे ने वफ़ादार नौकर लच्छम सिंह के साथ मिलकर श्री कलबिष्ट जी मारने का षड्यंत्र रच डाली। एक रात लच्छम सिंह ने श्री कलबिष्ट जी के भैंस के एक पैर में कील ठोक कर आ गया और प्रातःकाल उनके पास गया और कहा – मेरे बच्चों के लिए दूध नही है और कुछ दिनों के लिए एक दूध देनी वाली भैंस चाहिए। कलबिष्ट जी ने कहा जो भैंस चाहिए वो ले जाओ। वह उसी भैंस पास गया और बोला यह भैंस तो पैर लचका रही है।
कलबिष्ट ने भैंस का पैर देखा, वहाँ कील चुभी थी। वह झुककर अपने दांतों से कील निकाल रहे थे तभी लच्छम सिंह ने कुल्हाड़ी से उनका सर धड़ से अलग कर दिया और भाग गया। उनकी यह दशा देखकर सारी भैंसे विलाप करने लगी और सबने प्राण त्याग कर पत्थर का रूप ले लिया। कलबिष्ट जी का धड़ भी पत्थर बन गया और उनका सर चार मील दुर कपड़खान के पास जा गिरा, जहाँ रोड किनारे उनका पहला छोटा सा मंदिर है। जहाँ इनका धड़ है वहाँ गैराड़ गोलू देव यानी श्री कलबिष्ट डाना गोलू देव मंदिर है।
मरणोपरांत भूताषण आकर इन्होंने अत्याचारी नौ लखिया पाण्डे और लच्छम सिंह नाष किया और जो सामन्त जनता को उत्पीड़ित करते थे उनका भी नाश किया। तब से क्षेत्रीय जनता इनको मानने लगी और पूजने लगी। यहाँ उनके दर्शन के लिए भक्तों की भीड़ लगी रहती है।
आज भी गोलू देवता अपने भक्तों के साथ न्याय करते हैं और उन्हें हर मुसीबत से बचाते हैं।
आप यहाँ आएंगे तो मंदिर के रास्ते में या मंदिर के चारो तरफ बड़े बड़े पत्थर दिखाई देंगे वो भैंसों ने पत्थर रूप धारण किया था वह पत्थर है। मंदिर में उनका धड़ वाला पत्थर भी, जहाँ लोग उन्हें पूजते हैं।
चौमू, बधाण, नौलदानू:
ये पशुओं के देवता हैं। चौमू रियुणी व द्वारसों क्षेत्र में पूजे जाते हैं। गाय-भैसों की नयी संतति होने पर 5वें, 7वें या 11वें दिन बधांण देवता के रूप में नये दूध व अन्य दुग्ध उत्पादों से पूजे जाते हैं। इन्हें चढ़ाने के बाद ही पशुओं का दूध देवताओं को चढ़ाने के योग्य माना जाता है। नौलदानू का किसी दुधैल पेड़ की जड़ में वास माना जाता है।
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भागलिंग, हुंस्कर, बालचिन, कालचिन, छुरमल, बजैण:
ये भी नेपाल से आये देवता हैं। पिथौरागढ़ जिले सीमान्त डूंगरा, डांगटी, तामाकोट व जोहार क्षेत्रों के साथ नेपाल के डोटी में भी पूजे जाते हैं। बालचिन हुंस्कर के पुत्र थे। कालचिन कालिंग के पुत्र थे। छुरमल कालचिन के पुत्र थे। इनके मंदिर बजैण भनार में हैं।
नारसिंह:
नारसिंह भगवान विष्णु के नृसिंह के स्थानीय स्वरूप हैं। आदि व्याधि, संकट दूर करने वाले जोगी देवता माने जाते हैं। जागरों में इनका जिक्र आता है। पत्र-पुष्प से प्रसन्न हो जाते हैं। कत्यूर राजवंश की कथा व जागर में भी, खासकर कत्यूरों की राजधानी जोशीमठ से कर्तिकेयपुर यानी बैजनाथ आने में भी इनका जिक्र आता है।
भूमिया:
कुमाऊं के हर गांव में भूमिया का ग्राम देवता के रूप में मंदिर होता है। हर फसल कटने के बाद नये अनाज से प्रसाद बनाकर भूमिया देवता पूजे जाते हैं।
देवी:
कुमाऊं में अनेक स्थानों, खासकर चोटियों पर दुर्गा, भगवती आदि के थान कहे जाने वाले मंदिर मिलते हैं। इनमें समय-समय पर भंडारे होते हैं। कत्यूरी वंश की ऐतिहासिक वीरांगना जियारानी भी देवी के रूप में रानीबाग चित्रशिला पर हर मकर संक्रांति (उत्तरायणी) पर जागरों के द्वारा पूजी जाती है।
काली, हाटकाली:
देवी दुर्गा की स्वरूप कालिका बलि लेने वाली देवी हैं। देवीधुरा, गंगोलीहाट व कोटगाड़ी आदि में इनके मंदिर हैं।
एड़ी:
कहते हैं कि इनके पैर पीछे की ओर होते हैं। पर्वत शिखरों में रहते हैं। इनके साथ बकरी, परियां, हाथी व कुत्ते आदि चलते हैं।
मसाण, खबीस और रूनिया:
ये श्मशान के भूत यानी अतृप्त आत्माएं हैं। कमजोर व्यक्तियों पर चिपटते हैं। बलि द्वारा संतुष्ट होते हैं। पीर फकीर के रूप में भी आने लगे हैं।
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विडम्बना तराई और भाबर में स्थापित हो गए पहाड़ के देवी-देवता (Devi Devta)
गणेश पाठक, हल्द्वानी। अरबों खरबों खर्च करने के बाद भी पहाड़ से पलायन की रफ्तार थम नहीं पा रही है। इस पलायन में केवल मनुष्य की शामिल नहीं है, बल्कि देवी-देवता भी पहाड़ छोड़कर तराई में बस गये हैं। पहाड़ों के तमाम छोटे-बड़े मंदिर और मकान खंडहरों में तब्दील हो गये हैं, जबकि तराई और भाबर में भूमिया, ऐड़ी, गोलज्यू, कोटगाड़ी समेत कई देवताओं के मंदिर बन गये हैं।
पलायन करके तराई में आए लोग पहले देवी देवताओं की पूजा अर्चना करने के लिए साल भर में एक बार घर जाते थे, लेकिन अब इस पर भी विराम लग गया है। राज्य गठन के बाद पलायन की रफ्तार तेज हुई है। पिथौरागढ़ से लेकर चंपावत तक नेपाल-तिब्बत (चीन) से जुड़ी सरहद मानव विहीन होने की स्थिति में पहुंच गई है और यह इलाका एक बार फिर इतिहास दोहराने की स्थिति में आ गया है।
कई सौ साल पहले मुगल और दूसरे राजाओं के उत्पीड़न से नेपाल समेत भारत के विभिन्न हिस्सों से लोगों ने कुमाऊं और गढ़वाल की शांत वादियों में बसेरा बनाया था। धीरे-धीरे कुमाऊं और गढ़वाल में हिमालय की तलहटी तक के इलाके आवाद हो गये थे, लेकिन आजादी के बाद सरकारें इन गांवों तक बुनियादी सुविधाएं देने में नाकाम रहीं और पलायन ने गति पकड़ी। इससे पहाड़ खाली हो गये। (Devi Devta, Folk deities of Kumaon, Devata, Devi, Devatva)
सरकारी रिकॉर्डों में खाली हो चुके गांवों की संख्या महज 1065 है, जबकि वास्तविकता यह है कि अकेले कुमाऊं में पांच हजार से अधिक गांव वीरान हो गये हैं। खासतौर पर नेपाल और तिब्बत सीमा से लगे गांवों से अधिक पलायन हुआ है। लगातार पलायन से पहाड़ों की हजारों एकड़ भूमि बंजर हो गई है। पलायन की इस रफ्तार से देवी-देवताओं पर भी असर पड़ा है। (Devi Devta, Folk deities of Kumaon, Devata, Devi, Devatva)
शुरूआत में लोग साल दो साल या कुछ समय बाद घर जाते और देवी देवताओं की पूजा करते थे। इससे नई पीढ़ी का पहाड़ के प्रति भावनात्मक लगाव बना रहता था, लेकिन अब यह लगाव भी टूटने लगा है। इसकी वजह से हजारों की संख्या में देवी देवताओं का पहाड़ से पलायन हो गया है। अकेले तराई और भावर में तीन से चार हजार तक विभिन्न नामों के देवी देवताओं के मंदिर बन गये हैं। (Devi Devta, Folk deities of Kumaon, Devata, Devi, Devatva)
किसी दौर में पहाड़ों में ये मंदिर तीन-चार पत्थरों से बने होते थे, लेकिन अब तराई और भावर में इनका आकार बदल गया है। यहां स्थापित किये गए देवी देवताओं में भूमिया, छुरमल, ऐड़ी, अजिटियां, नारायण, गोलज्यू के साथ ही न्याय की देवी के रूप में विख्यात कोटगाड़ी देवी के नाम शामिल हैं। इन देवी-देवताओं के पलायन का कारण लोगों को साल दो साल में अपने मूल गांव जाने में होने वाली कठिनाई है। (Devi Devta, Folk deities of Kumaon, Devata, Devi, Devatva)
दरअसल राज्य गठन के बाद पलायन को रोकने के लिए खास नीति न बनने से पिछले दस साल में पलायन का स्तर काफी बढ़ गया है। हल्द्वानी में कपकोट के मल्ला दानपुर क्षेत्र से लेकर पिथौरागढ़ के कुटी, गुंजी जैसे सरहदी गांवों के लोगों ने अपने गांव छोड़ दिये हैं। पहाड़ छोड़कर तराई एवं भावर या दूसरे इलाकों में बसने वाले लोगों में फौजी, शिक्षक, व्यापारी, वकील, बैंककर्मी, आईएएस समेत विभिन्न कैडरों के लोग शामिल हैं। (Devi Devta, Folk deities of Kumaon, Devata, Devi, Devatva)
पलायन के कारण खाली हुए गांवों में हजारों एकड़ कृषि भूमि बंजर पड़ गई है। इसी तरह से विकास के नाम पर खर्च हुए अरबों रुपये का यहां कोई नामोनिशान नहीं है। नहरें बंद हैं। पेयजल लाइनों के पाइप उखड़ चुके हैं और सड़कों की स्थिति भी बदहाल है। किसी गांव में दो-चार परिवार हैं तो किसी में कोई नहीं रहता। (Devi Devta, Folk deities of Kumaon, Devata, Devi, Devatva)
किसी दौर में इन गांवों में हजारों लोग रहा करते थे। स्कूल और कालेजों की स्थिति भी दयनीय बन गई है। कई प्राथमिक स्कूलों में एक बच्चा भी नहीं है तो किसी इंटर कालेज में दस छात्र भी नहीं पढ़ रहे हैं। (Devi Devta, Folk deities of Kumaon, Devata, Devi, Devatva)
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