सुखद संभावना: उत्तराखंड के जंगलों में अब जहां आग लगेगी, वहीं होगी बादलों से बारिश..
-क्लाउड सीडिंग के जरिये कृत्रिम बारिश से वनाग्नि रोकने की संभावनाओं पर सऊदी अरब से चल रही है बात
-तमिलनाडु व कर्नाटक पहले कर चुके हैं प्रयोग, अगले साल उत्तराखंड में शुरू हो सकता है प्रयोग
नवीन समाचार, देहरादून, 4 जून 2019। वनाग्नि से पर्यावरण व जैव विविधता को बड़े पैमाने पर हो रहे नुकसान को रोकने के लिए कुछ नयी संभावनाओं की तलाश चल रही है। इसमें क्लाउड सीडिंग बड़ी संभावनाओं के रूप में दिख रहा है। वनाग्नि प्रभावित क्षेत्रों में बादल ले जाकर कृत्रिम बारिश कराके जंगलों को आग से बचाया जा सकता है। तमिलनाडु व कर्नाटक इसका प्रयोग कर चुके हैं और इस पर तब एक दिन की बारिश का खर्च 18 लाख रुपये आया था। प्रमुख वन संरक्षक जयराज ने बताया कि सऊदी अरब के साथ इसकी बात चल रही है। वहां क्लाउड सीडिंग (कृत्रिम बारिश) का प्रयोग सफल रहा है। वन विभाग इस पर बात कर रहा है। इसमें आने वाले खर्च पर बात चल रही है। जयराज ने बताया कि खर्च को लेकर यदि बात बन गयी तो अगले फायर सीजन में इसका प्रयोग किया जाएगा। क्लाउड सीडिंग एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें बादलों को एक खास इलाके में ले जाया जाता है और उसके बाद केमिकल डालकर बारिश करायी जाती है। वैज्ञानिकों ने क्लाउड सीडिंग या मेघ बीजन का एक यह तरीका इजाद किया है। जिससे कृत्रिम वष की जा सकती है। कृत्रिम वष ड्रोन तकनीक के माध्यम से कर सकते हैं। यह ड्रोन किसी भी इलाके के ऊपर सिल्वर आयोडाइड की मदद से आसमान में बर्फ के क्रिस्टल बनाता है जिससे कृत्रिम बारिश होती है। इस तकनीकि का उपयोग केवल वष कराने के लिए ही नहीं किया जाता है, बल्कि इसका प्रयोग ओलावृष्टि रोकने और धुंध हटाने में भी किया जाता है। आस्ट्रेलिया और पूर्वी यूरोप में यह काफी सफल रहा है। आस्ट्रेलिया और पूर्वी यूरोप में ओलावृष्टि काफी अधिक मात्रा में होती है, इसीलिए वहां इस तकनीकि का उपयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है। इससे यहां फसलों व फलों को होने वाले नुकसान को रोकने में काफी हद तक मदद मिली। इस तकनीकि से हवाई अड्डों के आस-पास छाई धुंध को हटाया जा सकता है। वर्तमान में विज्ञान का एक यह आविष्कार अच्छा वरदान साबित हो रहा है। वष कराने के लिए इस तकनीकी से वाष्पीकरण कराया जाता है जो शीघ्रता से वष की बड़ी-बड़ी बूंदों में परिवर्तित हो जाते हैं। इसके लिए बादलों में ठोस कार्बन डाइआक्साइड, सिल्वर आयोडाइड और अमोनियम नाइट्रेट और यूरिया से मुक्त द्रावक प्रयोग में लाये जाते हैं। इसे धरती की सतह या आकाश में बादलों के बीच जाकर भी किया जा सकता है। भारत में इसका प्रयोग 1983 में तमिलनाडु सरकार ने किया था। अनुभव बताते हैं कि किसी क्षेत्र में बारिश करवाने के लिए एक दिन का 18 लाख रुपये का खर्च आता है। तमिलनाडु की तर्ज पर कर्नाटक सरकार ने भी इस विधि से बारिश करवाई थी। कुछ स्थानों पर सिल्वर आयोडाइड की जगह कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग भी इसके लिए किया जाता है।
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नवीन समाचार, नैनीताल, 12 मई 2019। उत्तराखंड वन विभाग द्वारा 4 दिन में 299 वनाग्नि घटनाओं पर काबू पाने में सफल रहा। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा बीती 10 मई को उत्तराखंड में 313 वनाग्नि की घटनाओं को रिकॉर्ड किया गया था, जबकि 14 मई को फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने राज्य में केवल 14 वनाग्नि की घटनाओं रिकॉर्ड की हैं। पश्चिमी वृत्त के वन संरक्षक डा. पराग मधुकर धकाते ने बताया कि उत्तराखंड वन विभाग ने इस दौरान 4500 से अधिक अग्रिम पंक्ति के वन कर्मियों द्वारा स्थानीय लोगों की मदद से तथा एसडीआरएफ, पुलिस एवं प्रशासन के सहयोग से वनाग्नि पर काबू पाया गया है। इस दौरान 298 वाहनों को वनाग्नि सुरक्षा में लगाया गया है। बताया कि इस वर्ष अब तक राज्य में वनाग्नि की घटनाओं में 912 हैक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। वहीं अब तब तीन लोगों को जंगल में आग लगाते हुए पकड़ा गया है जिन्हें भारतीय वन अधिनियम के अंतर्गत वन अपराध दर्ज कर जेल भेजा गया है। उन्होंने साफ किया कि बारिश आने से पहले ही 313 में से 122 वनाग्नि की घटनाओं पर काबू पा लिया गया था।
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-आग की विकरालता ने खोल दी है वन विभाग की अपर्याप्त व अधूरी तैयारियों की पोल
-अनियमित-अप्रशिक्षित कर्मियों से बिना संसाधनों के जरिये हो रहा है आग बुझाने का प्रयास, आग लगने के स्थान तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं वन कर्मी
नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 9 मई 2019। बारिश के एक सप्ताह बाद ही वनों में आग के विकराल रूप धारण करने के पीछे जहां वन विभाग की अपर्याप्त तैयारियां साफ नजर आ रही हैं, वहीं पर्यावरण प्रेमी आग लगने के पीछे साजिश की संभावना भी जता रहे हैं। वनाग्नि की इतनी तेजी से बढ़ रही घटनाओं से साफ है कि विभाग ने ना ही सड़कों के किनारे नियंत्रित तरीके से सूखी पत्तियांे की ‘कंट्रोल बर्निंग’ की है, ना ही जंगलों में आग की घटनाएं न बढ़ पाएं, इस हेतु लाइनें ही काटी गयी हैं। साथ ही ग्रामीणों को वनाग्नि की घटनाएं न होने देने के प्रति संवेदनशील व जागरूक भी नहीं किया गया है। ऐसे में आम जन में भी आग बुझाने के लिए वन कर्मियों पर भरोसा छोड़ हेलीकॉप्टर बुलाने की मांग उठने लगी है। मुख्यालय में बृहस्पतिवार को इस बारे में सोशल मीडिया पर खासी चर्चा दिखी, वहीं अधिवक्ताओं के एक वर्ग ने डीएम व कमिश्नर से मिलने के साथ ही उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने पर भी चर्चा शुरू हो गयी है।
वहीं वन विभाग ग्रामीणों का आग बुझाने में सहयोग लेने में भी सफल नहीं दिख रहा है। दूसरे, यह भी दिख रहा है कि वन विभाग के कर्मी भी आग बुझाने में समर्थ व प्रशिक्षित नहीं हैं। वन विभाग में कर्मियों व संसाधनों की कमी की समस्या भी अपनी जगह है। ऐसे में अनियमित व अप्रशिक्षित कर्मियों से बिना किन्ही उपकरणों के हरी पत्तियों की ‘झांपों’ के भरोसे आग बुझाने का प्रयास चल रहा है। इन अनियमित कर्मियों को वन विभाग अलग से कोई सुरक्षित वर्दी तक उपलब्ध नहीं करा पाया है, ऐसे में एक वन कर्मी के पॉलीएस्टर के कपड़ों के कारण बुरी तरह से झुलसने की घटना भी प्रकाश में आ चुकी है। वहीं वन कर्मियों की वन क्षेत्रों से अनभिज्ञता का आलम यह है कि उन्हें आग लगे हुए स्थान तक पहुंचने का रास्ता ही ढूंढे नहीं मिल पा रहा है। यह स्थिति गत दिवस भीमताल के जून स्टेट में आग लगने के बाद प्रकाश में आई, जब कर्मियों को आग लगने के स्थान का रास्ता ही नहीं मिल पाया। वहीं, प्रकृति एवं पर्यावरण प्रेमी आग लगने के पीछे किसी साजिश की ओर भी इशारा कर रहे हैं। पर्यावरण प्रेमी सुमित साह ने दावा किया कि पद्मश्री अनूप साह के साथ उन्होंने सुबह छह बजे के करीब भवाली-अल्मोड़ा रोड पर आग लगती हुई देखी। इतनी सुबह आग तब तक नहीं लग सकती, जब तक उसे इरादतन लगाया न जाये। उन्होंने कहा कि यह समय वन्य जीवों, पशु-पक्षियों के प्रजनन का भी होता है। ऐसे में इस दौरान जैव विविधता के साथ ही पशु-पक्षियों के अंडों व नवजात बच्चे भी आग की भेंट चढ़ रहे हैं।
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डीएफओ बीजू लाल टी आर ने बताया की आग बेहद भयावह है। वन व अग्निशमन कर्मी बीती रात्रि से आग बुझाने में जुटे हुए हैं। बावजूद आग काबू में नहीं आ रही है, बल्कि तेज हवाओं के साथ भड़कती ही जा रही है। ऐसे में वे जिलाधिकारी नैनीताल से संपर्क कर आग बुझाने हेतु हेलीकॉप्टर मंगाने का प्रयास कर रहे हैं। वहीं डीएम विनोद कुमार सुमन ने कहा कि आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेट के टैंकरों को भेजा गया है। अग्निशमन विभाग के स्टेशन ऑफीसर कैलाश जाटव ने बताया कि रात्रि से आग बुझाने में जुटे हुए हैं। उधर जनपद मुख्यालय से पांच किमी दूर पाइंस और जोखिया, मनोरा रेंज अंर्तगत एरीज बैंड, नैनीताल-हल्द्वानी मार्ग के ताकुला व बल्दियाखान के साथ ही कैंची, जून स्टेट भीमताल आदि के जंगलों में भी आग लगी हुई है। नैनीताल वन प्रभाग के नैना, भवाली, मनोरा रैंज के चीढ़ के वन भी आग के लिए काफी संवेदनशील बने हुए हैं। आग से पूरे क्षेत्र में धुंवा व धुंधलका फैला हुआ है।
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नवीन समाचार, देहरादून/नैनीताल, 8 मई 2019। पिछले 24 घंटे के दौरान उत्तराखंड में आग लगने की 44 घटनाएं सामने आई हैं। इसके साथ ही राज्य में अब तक जंगल में आग की घटनाओं की संख्या बढ़कर 216 पहुंच गई है। इससे 272 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है और 38 लाख रुपये से ज्यादा के नुकसान का अनुमान है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ रहा है, वैसे-वैसे जंगल भी तेजी से धधक रहे हैं। इससे वन महकमे की चिंता में भी इजाफा हो रहा है। पिछले 24 घंटे के दौरान आग बुझाने में वनकर्मियों को पसीने छूट गए। इस दौरान विभिन्न स्थानों पर आग लगने की 44 घटनाएं हुई। हालांकि, कई जगह आग लगी हुई है, जिस पर ग्रामीणों के सहयोग से काबू पाने के प्रयास जारी हैं। इधर नैनीताल के मनोरा वन रेंज के जंगल भी जल रहे हैं। विभाग के कर्मचारी आग बुझाने के लिए दिन भर प्रयासरत रहे लेकिन तेज हवाओं के कारण आग पर काबू पाना संभव नही हुआ। दोपहर से पहले मनोरा रेंज के नलेना कंपार्ट में दो जगह आग लग गई। चीड़ के जंगलों वाले इन क्षेत्रों में चीड़ की पत्तियां एवं झाड़ियां तेजी से जलने लगे और आग ने बड़े वन क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लिया। आलूखेत और रानीबाग के जंगलों में भी आग लगने की सूचना पर विभाग ने कर्मचारियों के दलों को भेजा। रेंज अधिकारी एनके जोशी और उप रेंज अधिकारी आनंद लाल ने बताया कि आग पर काबू पाने के प्रयास किए जा रहे हैं।वहीं, सोमवार की दोपहर नैनीताल के जून स्टेट भीमताल के जंगलों में लगी आग पर काबू नहीं पाया जा सका है। आग से अब तक 10 हेक्टेयर से अधिक जून स्टेट का जंगल जल चुका है। आग जून स्टेट के जंगलों से बढ़ते हुए सातताल के आबादी क्षेत्र में जा पहुंची है। उधर लाखनमंडी (चोरगलिया) के जोगानाली क्षेत्र में सड़क किनारे के जंगल में दोपहर तेज हवा के साथ आग की लपटें जोगानाली के रिहायशी इलाके तक जा पहुंची। इसके बाद जोगानाली वन कैंपस के पास तक आग पहुंच गई। यह देख लोग घरों से पानी लेकर आग बुझाने के लिए पहुंचे। चोरगलिया पुलिस एवं वन विभाग के लगभग दो दर्जन जवान आग को काबू करने में जुट गए। तभी कुछ लोगों ने फायर ब्रिगेड को सूचना दी। फायरब्रिगेड की मदद से दो घंटे के बाद आग पर काबू पाया गया। उत्तरकाशी से सटे बसूंगा रेंज के जंगलों में दिनदहाड़े किसी ने भयानक आग लगा दी। हालांकि मौके पर पहुंचे वन विभाग के अधिकारियों का कहना था कि बड़ेथि चुंगी पर गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण में लगी कंपनी के मजदूरों ने यह आग लगाई है, लेकिन वन विभाग पहले जंगलों की विकराल आग पर काबू पाना चाहता था। आग इतनी भयंकर थी कि वन विभाग के रेंज अधिकारी रविन्द्र पुंडीर सहित सभी अधिकारियों व कर्मचारियों को आग पर काबू पाने में मशक्कत करनी पड़ी।
जंगल में आग की घटनाओं की संख्या बढ़कर 216 पहुंची
काउंटर फायर की रणनीति के साथ काफी कोशिशों के बाद वन विभाग के कर्मचारियों ने आग पर काबू पाया। इस बीच डीएफओ संदीप कुमार भी फायर ब्रिगेड के साथ मौके पर पहुंच गए। मंगलवार को अल्मोड़ा राष्ट्रीय राजमार्ग पर गंगरकोट में नवोदय विद्यालय के पास हाइवे से सटे जंगल में आग लग गई। स्थानीय लोग आग को बुझाने के प्रयास में लगे। वन विभाग के कर्मियों को जब घटना की सूचना देने की कोशिश की गई तो सभी के फोन स्विच ऑफ मिले। किसी तरह उपजिलाधिकारी कौश्याकुटौली गौरव चटवाल को सूचना दी गई तो उन्होंने फायर ब्रिगेड को फोन कर भेजा।
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मनोज कुमार जोशी @ नवीन समाचार, पहाड़पानी (नैनीताल), 6 मई 2019। पिछले सप्ताह सक्रिय हुए विक्षोभ के साथ हुई बारिश के निपटने के तीन दिन बाद ही पहाड़ के जंगल एक बार फिर तापमान बढ़ने के साथ धधकने लगे हैं। नैनीताल जनपद में ही कई स्थानों पर जंगल धधकने लगे हैं। जनपद के ओखलकांडा ब्लॉक के ढोलीगांव व देश के गिने-चुने देवगुरु बृहस्पति के मंदिर के आसपास के अपेक्षाकृत अधिक ऊंचाई वाले काफल, बांज, बुरांश आदि के चौड़ी पत्ती वाले जंगलों के साथ ही भीमताल के निकट जून स्टेट के जंगल तेजी से जलते नजर आ रहे हैं। इससे इन जंगलों की समृद्ध जैव विविधता व बहुमूल्य वन संपदा के साथ ही वन्य जीवों, पशु-पक्षियों के साथ ही छोटे उड़ या भाग न सकने वाले बच्चे और अंडे आदि भी आग की भेंट चढ़ रहे हैं। बताया गया है कि ढोलीगांव के पास तो वन कर्मी आग बुझाने में जुटे हुए हैं, जबकि जून स्टेट में आग लगे स्थान को ढूंढने के लिए वन कर्मी रास्ता नहीं खोज पाये।
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p style=”text-align: justify;”>-उत्तराखंड में साल-दर-साल बढ़ रही वनाग्नि की दुर्घटनाएं, 2018 में बने सर्वाधिक क्षति के रिकार्ड
-राज्य बनने के 18 वर्षों में कुल 38,791 हैक्टेयर वनों को नुकसान पहंुचा और कुल 185 लाख रुपये का नुकसान हुआ
-कार्रवाई के नाम पर वर्ष 2016 में आठ, वर्ष 2017 में शून्य और वर्ष 2018 में सात लोगों को आग लगाते हुए पकड़ा गया है।
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p style=”text-align: justify;”>नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 22 अप्रैल 2019। सर्वाधिक वन होने का दंभ भरने वाले उत्तराखण्ड राज्य में राज्य बनने के बाद वनाग्नि की दुर्घटनाएं न केवल रुकने का नाम नहीं ले रही हैं, वरन हर वर्ष बढ़ती जा रही हैं, और बीते वर्ष 2018 में तो सर्वाधिक वन क्षेत्र से वनाग्नि के भेंट चढ़ जाने और सर्वाधिक नुकसान होने के मामले में रिकार्ड ही बन गया है। वर्ष 2018 में राज्य में रिकार्ड 4480.04 हैक्टेयर वन क्षेत्र वनाग्नि की चपेट में आया और अब तक का सर्वाधिक 86.05 लाख रुपये की आर्थिक क्षति भी हुई। यह आंकड़े वर्ष 2016 से भी बड़े हैं, जबकि उत्तराखंड के वनों की आग पूरे देश की मीडिया में छा गयी थी और यहां वनाग्नि की घटनाओं को रोकने के लिए पहली बार हेलीकॉप्टर का प्रयोग भी करना पड़ा था। इस प्रकार राज्य बनने के 18 वर्षों में कुल 38,791 हैक्टेयर वनों को नुकसान पहंुचा और कुल 185 लाख रुपये का नुकसान हुआ। यह स्थिति तब है जब राज्य का वन महकमा वनाग्नि को रोकने के लिए तमाम प्रयास किये जाने की बात कर रहा है। अलबत्ता कार्रवाई के नाम पर वर्ष 2016 में आठ, वर्ष 2017 में शून्य और वर्ष 2018 में सात लोगों को आग लगाते हुए पकड़ा गया है।
जनपद के सूचना अधिकार कार्यकर्ता हेमंत गौनिया को सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार राज्य बनने से शुरू करें तो वर्ष 2000 में केवल 925 हैक्टेयर वन क्षेत्र में आग लगने की दुर्घटना हुई थी और 2.99 लाख रुपये की आर्थिक क्षति हुई थी, वहीं वर्ष 2003 व 2004 के वर्ष इस मामले में सबसे आगे रहे। 2003 में 4983 व 4850 हैक्टेयर वन आग की भेंट चढ़े, लेकिन आर्थिक क्षति क्रमशः 10.12 व 13.14 लाख की रही। वहीं सर्वाधिक चर्चा में रहे 2016 में 4433.75 हैक्टेयर वनों में आग लगी और 4.65 लाख रुपये का नुकसान हुआ। जबकि बीते वर्ष 4480.04 हैक्टेयर वन क्षेत्र में लगी लेकिन खर्च के मामले में 86.05 लाख का नुकसान हुआ, जबकि अन्य वर्षों के आंकड़े कहीं इसके आसपास भी नहीं हैं।
उत्तराखंड में राज्य बनने के बाद वर्षवार वन भूमि एवं आर्थिक क्षति के आंकड़े
2000 में 925 हैक्टेयर – 2.99 लाख
2001 में 1393 हैक्टेयर – 1.17 लाख
2002 में 3231 हैक्टेयर – 5.19 लाख
2003 में 4983 हैक्टेयर – 10.12 लाख
2004 में 4850 हैक्टेयर – 13.14 लाख
2005 में 3652 हैक्टेयर – 10.82 लाख
2006 में 562.44 हैक्टेयर – 1.62 लाख
2007 में 1595.35 हैक्टेयर – 3.67 लाख
2008 में 2369 हैक्टेयर – 2.68 लाख
2009 में 4115 हैक्टेयर – 4.75 लाख
2010 में 1610.82 हैक्टेयर – 0.05 लाख
2011 में 231.75 हैक्टेयर – 0.30 लाख
2012 में 2826.3 हैक्टेयर – 3.03 लाख
2013 में 384.05 हैक्टेयर – 4.28 लाख
2014 में 930.33 हैक्टेयर – 4.39 लाख
2015 में 701.36 हैक्टेयर – 7.94 लाख
2016 में 4433.75 हैक्टेयर – 4.65 लाख
2017 में 1244.64 हैक्टेयर – 18.34 लाख
2018 में 4480.04 हैक्टेयर – 86 लाख
कविता : ओहो दाजू इतुक भयंकर आग ,
हमर पहाङक जंगल जलबेर है गयीं खाक ,
य कैकि साजिश छू ,
या लाग जे आफि आफ ,
हो दाजू इतुक भयानक आग,जानवर और पक्षी है रईं परेशान ,
बचूं हुुं आपणी जान,
ऊँ लै ऊनी हमार घरोंक आसपास ।
ओहो दाज्यू इतुक भयंकर आग ।य कोई अपुण फैद लीजी लगे दयू आग,
या कोई अपुण नाकामी छुपुण लिजी लगे दयू आग,
ओहो दाजू हमर पहाड जंगल जलबेर है कि खाक,
अगर पहाड घुमनु उछा तो खबरदार ,
बीङी सिगरेट पीछा तो ,
ध्यान धरिया बुझे बेर फैकिया बीङी सिगरेट कणी ,
वरना तुम ले होला जिम्मेदार ,
हाथ जोड बेर प्रार्थना छू ,
जस हमर छू घरबार ,
उसी प्रकार जंगल मै ले छू बेजुबान जीव जंतु क परिवार ,
य छु हाथ जोड बेर विनती बारंबार ।
#खीमदा (साभार)
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-सभी आग कहीं न कहीं लोगों द्वारा ही व साजिशन लगाई गई हैं, तापमान कम होने से प्राकृतिक कारणों से आग लगने का अभी कोई कारण नहीं
-आग को भड़काने में प्राकृतिक हालात बने मददगार, अलबत्ता लकड़ी माफिया द्वारा आग लगाने की संभावनाओं से इन्कार
नवीन जोशी, नैनीताल। पहली बार ‘राष्ट्रीय आपदा’ घोषित उत्तराखंड की वनाग्नि पूरी तरह मानव जनित है, और इसके प्राकृतिक कारणों से शुरू होने के कहीं कोई सबूत या स्थितियां नहीं हैं। अलबत्ता जब यह आग दावानल के रूप में दिखाई दी, तब प्राकृतिक हालातों ने जरूर इसे इस हद तक भड़काने में ‘आग में घी डालने’ जैसा कार्य किया। वहीं वन माफिया द्वारा आग लगाने के दावों को खारिज तो नहीं किया जा रहा है, पर इसकी स्पष्ट वजह भी नहीं बताई जा रही है।
गर्मियों के दिनों में आग के शुरू होने के दो ही प्रमुख कारण होते हैं, मानव जनित और प्राकृतिक। प्राकृतिक कारण तापमान के 30-35 डिग्री सेल्सियस से ऊपर और आद्र्रता के 20 डिग्री तक पहुंच जाने की स्थितियों में बनते हैं, जब पहाड़ी चट्टानों से वन्य जीवों के गुजरने से गिरने वाले पत्थरों की आपसी रगड़ से आग उत्पन्न हो जाती है, और जंगल में फैल जाती है। जबकि मानव जनित आग लगने के गलती, लापरवाही व नासमझी के साथ जानबूझकर आग लगाने के अनेक कारण हो सकते हैं। जंगल के बीच से गुजरते लोग गलती से धूम्रपान के शेष अवशेषों को लापरवाही से जंगल में फेंक देते हैं, जंगल में पिकनिक या ऐश-तफरी करने वाले युवा भी कई बार आग लगा देते हैं। वहीं ग्रामीणों पर बेहतर घास उगने की संभावना के मद्देनजर और वन महकमे के कर्मियों पर पौधारोपण की कमियों को छुपाने व कभी लीसे के नुकसान को बड़ा दिखाने की नीयत से आग लगाने के आरोप भी लगते हैं।
बहरहाल, इस बार दुनिया की सर्वाधिक भयावह आगों में शुमार-दावानल की श्रेणी में लगी वनाग्नि की घटना के लिए शुरुआत में आग शुरू होने के लिए पूरी तरह मानव जनित और बाद में आग के भड़कने के लिए प्राकृतिक कारणों को दोषी माना जा रहा है। आग बुझाने के लिए अनेक लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है, लेकिन अधिकांश के साजिशन आग लगाने की संभावनों की पुष्टि नहीं हो रही है। डीएम दीपक रावत ने माना कि आग लोगों के द्वारा लगाए जाने की बात को वह पूरी तरह स्वीकार करते हैं। ऐसा हो रहा है कि किसी ओर जाते हुए आग नहीं होती है, और लौटने तक आग लग जाती है। यानी इस बीच में किसी ने आग लगाई है। वहीं कमोबेश सभी आग किसी न किसी सड़क या पैदल मार्ग के पास से ही शुरू हुई हैं। अलबत्ता उन्होंने किसी तरह साजिशन आग लगाए जाने का कोई सबूत न होने की बात कही।
वहीं डीएफओ डा. तेजस्विनी अरविंद पाटिल ने कहा कि पिछले वर्ष अगस्त माह से अच्छी बारिश न होने की वजह से बीती 26 अप्रैल से 28-29 तक आर्द्रता 20 डिग्री के स्तर तक आ गई थी। वहीं हवाएं अत्यधिक तेज व घुमावदार थीं। इस कारण यहां मुख्यालय के निकट ही खुर्पाताल क्षेत्र में 29 की शाम से रात्रि तक दावानल जैसी स्थिति रही। इस दौरान सैकड़ों फीट ऊंचे चीड़ के पेड़ की ‘केनोपी’ यानी शीर्ष भाग धू-धू कर जले और यहां तक कि आग करीब 70-80 फीट चौड़े निहाल नाले के इस पार से उस पार भी बिना किसी प्रतिरोध के पहुंच गई। अलबत्ता, उन्होंने भी आग को लकड़ी माफिया द्वारा या किसी के द्वारा साजिशन जलाए जाने की संभावना से इंकार किया। कहा कि आग से हुए नुकसान से और खासकर यदि चीड़ के पेड़ जल कर बहुतायत में जमीन पर गिर भी जाते हैं तो इसे लकड़ी माफिया को अच्छी गुणवत्ता की लकड़ी प्राप्त नहीं होती है।
जनसहभागिता की कमी व वन्य जीवों से होने वाला नुकसान भी जिम्मेदार
नैनीताल। वनाग्नि के अधिक तेजी से भड़कने के पीछे वन विभाग को स्थानीय जनता का साथ यानी सहभागिता न मिलने को भी बड़ा व प्रमुख कारण माना जा रहा है। जानकारों के अनुसार उचित मात्रा में बुनियादी हक-हुकूक न मिलने, वन विभाग की वजह से कई बार विकास कार्यों, खासकर पहुंच मार्गों के निर्माण की अनुमति न मिलने तथा योजनाओं में स्थानीय जनता को उचित प्रतिनिधित्व, काम न मिलने से ग्रामीणों एवं वन विभाग व वनों के पूर्व की तरह आत्मीय रिस्ता कमजोर हुआ है। इस वजह से लोगों में आग की घटना होते ही इस बुझाने को स्वत: आगे आने या विभाग को जानकारी देने के प्रति लापरवाही दिखती है। इधर यह भी देखने में आया है कि ग्रामीण वन्य जीवों के द्वारा खेती को नुकसान पहुंचाने की वजह भी वनों को मानते हैं तथा वन्य जीवों से होने वाली जन-धन की क्षति में वन विभाग पर अपेक्षित सहयोग, मुआवजा आदि देने में कंजूसी बरतने के आरोप भी लगाते हैं। वनों में गश्त करने वाले पतरौलों की कमी भी बड़ा कारण है। जिस वजह से राज्य में अंग्रेजी दौर में बनी चार-पांच फीट चौड़ी व एक फीट करीब गहरी फायर लाइन कही जाने वाली करीब 8447 किमी लंबी खाइयों में से आधे से अधिक से पिरूल व लकड़ी आदि ज्वलनशील पदार्थो की सफाई नहीं हो पाई थी। 1981 से प्रदेश में एक हजार मीटर से अधिक ऊंचाई के वनों में हरे वृक्षों के पातन पर लगी रोक को भी वनाग्नि की घटनाओं के बढ़ने का एक प्रमुख कारण बताया जा रहा है।
बाम्बी बकेट ने नागालेंड के बाद उत्तराखंड में साबित की उपयोगिता :
वनाग्नि बुझाने में भारतीय वायु सेना के एमआई-17 द्वारा जिन बाम्बी बकेट का इस्तेमाल किया जा रहा है। उसके बारे में बताया गया है कि इन्हें रूस से लाया गया है। आग बुझाने के लिए एक बार में 5000 लीटर पानी या फोम ले जाने की सुविधा युक्त बाम्बी बकेट का इससे पूर्व इस्तेमाल नागालैंड में किया था। यह आग पर तेज बारिश जैसी फुहारें डालकर इसे बुझाने में खासी कारगर है। बताया गया है कि हल्द्वानी से संचालित एमआई-17 इस बाम्बी बकेट की सहायता से आग बुझाने में करीब 40 फेरे लगा चुका है। मंगलवार को इसने रामगढ़ के हरतोला क्षेत्र में लगी आग एक दर्जन और क्वैदल में लगी आग पर आधा दर्जन बार चक्कर लगाकर आग बुझाई।
2009 के बाद की सबसे बड़ी आग :
इस वर्ष लगी आग को वर्ष 2009 के बाद की सबसे बड़ी आग बताया गया है। वन विभाग से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करीब 71 फीसद वनों से आच्छादित राज्य उत्तराखंड में इस वर्ष अभी तक करीब 3466 हैक्टेयर वन भूमि में आग लग चुकी है, जबकि इससे पूर्व 4115 हैक्टेयर वन भूमि में आग लगी थी, जबकि 2012 का 2,824 हैक्टेयर में आग लगने का रिकार्ड इस वर्ष टूट चुका है। अपर मुख्य सचिव एस रामास्वामी ने बताया कि इस फायर सीजन में अब तक 1591 वनाग्नि की घटनाएं हो चुकी हैं। आग बुझाने में भारतीय वायु सेना के एमआई-17 हेलीकाप्टर, राज्य सरकार के 11,160 कर्मचारियों के साथ ही एनडीआरएफ व एसडीआरएफ के लोग भी जुटे हैं। अभी तक आग लगाने के कुल 46 मामले दर्ज किए गए है। आग से कुल 4 जनहानि दर्ज की गई है जबकि 16 व्यक्ति घायल हुए हैं।
‘अग्नि परीक्षा’ पास करने की ओर :
तीन-चार दिनों की कड़ी मशक्कत के बाद आखिर भारतीय वायु सेवा, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, वन, अग्निशमन एवं राजस्व आदि विभाग वनाग्नि को बुझाने की राह पर हैं। बताया गया है कि मंगलवार को केवल 11 स्थानों पर ही आग लगी होने की सूचना आई। इनमें से पांच स्थानों पर आग को दोपहर तक बुझा लिया गया था। शेष 6 स्थानों की आग को बुझाने में तेजी से कार्य हो रहा है, और इन्हें भी जल्द बुझा लिए जाने का भरोसा है।
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नैनीताल। रविवार को निकटवर्ती भवाली के भूमियाधार के सामने के जंगलों में लगी आग सोमवार को और अधिक भड़क गई है। आग से करोड़ों के वन सम्पदा को नुक्सान पहुँचने और अनेक वन्य जीवों, प्रवास पर आये देशी विदेशी व स्थानीय पक्षियों के जान गंवाने की संभावना है। आग लगने के पीछे गर्मी व मानवीय भूल से अधिक वन संपदा के माफिया को कारण एवं आग को साजिशन भड़काया गया बताया जा रहा है। आग की वजह से भूमियाधार-भवाली क्षेत्र में जबर्दस्त धुंवा उठ रहा है। वहीं वन विभाग की ओर से आग बुझाने के प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। डीएफओ बीजू लाल टीआर ने बताया कि स्थानीय रेंज अधिकारी आग बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। परंतु आग चट्टान वाले क्षेत्र में लगी हुई है, इसलिए इसे बुझाने में कठिनाई हो रही है। वे स्वयं भी रात्रि में आग बुझाने के प्रयासों की मौके पर जाकर मोनिटरिंग कर रहे हैं।
डीएफओ बीजू लाल टीआर की अगुवाई में 21 मई की देर रात्रि भवाली के जंगल में आग बुझाने में जुटे वनाधिकारी व कर्मी
पर्यटन व्यवसायी राष्ट्रीय मीडिया से नाराज
-पर्यटन के प्रभावित होने संबंधी खबरों से हैं नाराज, इस तरह पर्यटन के वास्तव में प्रभावित हो जाने की जता रहे आशंका
नैनीताल :नगर के वरिष्ठ पर्यटन व्यवसायी।
नैनीताल। कुछ राष्ट्रीय मीडिया चैनलों पर वनाग्नि की घटनाओं से अनेक पर्यटकों द्वारा अपनी बुकिंग निरस्त करने एवं इस कारण उत्तराखंड का पर्यटन बुरी तरह से प्रभावित होने की खबरें कथित तौर पर चलाई जा रही हैं। इससे नगर के पर्यटन व्यवसायी बेहद नाराज हैं। उनका मानना है कि इस तरह की खबरें चलती रहीं तो प्रदेश का पर्यटन वास्तव में प्रभावित हो सकता है। वहीं कांग्रेस के प्रदेश सचिव त्रिभुवन फत्र्याल ने कहा कि वनाग्नि की घटनाओं से उत्तराखंड राष्ट्रीय मीडिया में जिस तरह से आ रहा है, इससे प्रदेश की छवि को आघात पहुंच रहा है। पर्यटकों में यहां आने को लेकर असुरक्षा की भावना घर कर रही है। राज्यपाल को मीडिया एवं अन्य माध्यमों से देश-विदेश में पर्यटन की दृष्टि से उतराखंड के सुरक्षित होने का संदेश देने की मांग की है, ताकि पर्यटन व्यवसायियों के सम्मुख आर्थिक संकट उत्पन्न न हो।
इस संबंध में नगर के पर्यटन व्यवसायियों का मन जानने का प्रयास किया तो पर्यटन व्यवसायी खासकर राष्ट्रीय मीडिया चैनलों की भूमिका पर नाराज नजर आए। नैनीताल होटल रेस्टोरेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष दिनेश साह, उत्तर भारत होटल एंड रेस्टोरेंट एसोसिएशन के कार्यकारिणी सदस्य प्रवीण शर्मा, शेरवानी हिल टॉप के प्रबंधक गोपाल सुयाल, प्रशांत होटल के स्वामी अतुल साह, प्रिमरोज होटल स्वामी चंद्रमोहन बिष्ट व दिग्विजय बिष्ट, मनु महारानी होटल के वरिष्ठ प्रबंधक प्रमोद बिष्ट सहित अनेक होटल व्यवसायियों ने इस बात का पुरजोर तरीके से खंडन किया कि एक भी पर्यटक ने अपनी बुकिंग अभी तक वनाग्नि की वजह से निरस्त कराई है। वनाग्नि नियंतण्रमें है। इससे सैलानियों को नुकसान नहीं होने वाला है। पेयजल संकट को लेकर खबरें आई थीं। इन पर भी होटल व्यवसायियों का कहना था कि जल संस्थान एवं जिला प्रशासन ने उन्हें जल संकट न होने देने के प्रति आास्त किया है। आगे अच्छा मानसून होने की उम्मीद है।
दावानल से दृश्यता, जैव विविधता, भूजल व नदियों के प्रवाह में भी आई कमी
नैनीताल। वनाग्नि की घटनाओं की वजह से दृश्यता में तो भारी कमी आई ही है, साथ ही जैव विविधता को भी भारी नुकसान पहुंचा है। खासकर पक्षियों के इस प्रजनन के मौसम में वनाग्नि के बजाय खासकर खुर्पाताल सहित अनेक क्षेत्रों में नन्हे पशु-पक्षी, उनके घोंसले व अंडे नष्ट हो गए हैं, साथ ही आहार श्रृंखला में उनका भोजन बनने वाले भू सतह पर रहने वाले सरीसृप वर्ग के नन्हे जीव व कीट-पतंगे भी नष्ट हो गए हैं। लिहाजा जहां बड़ी संख्या में परिंदों और जीव-जंतुओं ने इस दौरान प्राण गंवाए हैं, वहीं बड़े जीव-जंतुओं का आहार भी समाप्त हो गया है। साथ ही बांज-बुरांश व काफल जैसी चौड़ी पत्ती व जल संरक्षण के लिए जरूरी मानी जाने वाली प्रजातियों के वनों को भी अत्यधिक नुकसान पहुंचा है। परेशानी यह है कि सामान्यतया इन प्रजातियों के पौधों का रोपण भी नहीं किया जाता। नगर के सीआरएसटी इंटर कॉलेज के जंतु विज्ञान प्रवक्ता कमलेश चंद्र पांडेय ने कहा कि दावानल से हुए नुकसान की भरपाई दशकों में भी होनी मुश्किल बताई जा रही है। स्थानीय आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान यानी एरीज के वायुमंडलीय वैज्ञानिक डा. मनीश नाजा ने इस वजह से वायु प्रदूषण में भी पांच से 10 गुना तक की वृद्धि हो गई है। साथ ही तापमान में भी 0.8 डिग्री केल्विन की भी प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। इसके अलावा इसी वजह से प्राकृतिक जल श्रोतों को भी भारी नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा वैज्ञानिक दावानल व इस वर्ष शीतकालीन वर्षा न होने की वजह से प्रदेश में 50 फीसद जल श्रोतों के सूखने तथा नदियों में पानी के प्रवाह में 20 फीसद की गिरावट आने का दावा कर रहे हैं। इसका प्रभाव ग्लेशियरों के पिघलने पर भी पड़ने का अंदेशा जताया जा रहा है।
उत्तराखंड में ‘दावानल’ राष्ट्रीय आपदा घोषित, पीएमओ सक्रिय, सेना-एनडीआरएफ तैनात
-2000 हेक्टेयर वन फुके, 15 सौ गांवों को खतरा, 7 मरे, नैनीताल में भड़का दावानल, ऊंचे पेड़ों की ‘केनोपी” भी जलीं, आर्द्रता 20 फीसद से भी कम रह गई है
-करीब 12 घंटे में चला 10 किमी वन क्षेत्र, शेड्यूल-1 के चीड़ फीजेंट सहित अनेकों पक्षी, सरीसृप,कीट-पतंगे आदि जंतु प्रजातियां भी जलीं
-1998 के बाद बताई जा रही सबसे भयावह आग, रात भर सोये नहीं खुर्पाताल क्षेत्र के ग्रामीण, किसी तरह गांव को बचाया
नवीन जोशी, नैनीताल। दावानल को दुनिया की सबसे भयावह आगों में शुमार किया जाता है। वनाग्नि की श्रेणी से कहीं बड़ा दावानल से उत्तराखंड में 1900 हेक्टेयर से अधिक जंगल वनाग्नि की वजह से राख हो गए हैं, और 1500 गांवों को खतरा उत्पन्न हो गया है। प्रदेश में अग्निकांड की घटनाओं का स्कोर करीब एक हजार तक पहुंच गया है। इनमें करीब 600 घटनाएं गढ़वाल और 400 कुमाऊं में बताई जा रही हैं। इसमें 7 लोगों की जानें गई हैं, जिनमें 3 महिलाओं सहित एक बच्चा भी शामिल है। साथ ही एक दर्जन से अधिक मवेशियों की भी मौत हो चुकी है। इस पर प्रधानमंत्री कार्यालय भी सक्रिय हो गया है। भारतीय सेना और एनडीआरएफ की तीन टीमों को भी आग बुझाने के लिए भेज दिया गया है। साथ ही एसडीआरएफ को भी आग बुझाने के काम में लगा दिया गया है।
कालागढ़ और कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में भी आग की 48 घटनाएं रिपोर्ट की गई हैं। मामले की गंभीरता को देखते हुए उत्तराखंड के राज्यपाल केके पॉल ने NDRF की 3 टीमों को लगाया है। NDRF के 135 लोग राज्य के अलग-अलग जिलों में आग बुझाने का काम कर रहे हैं। राज्य के 4500 वन्य कर्मचारी आग की घटनाओं पर नजर बनाए हुए हैं। प्रदेश के सभी 11 पहाड़ी जिलों में हाई अलर्ट जारी कर दिया गया है। वनाग्नि की इन घटनाओं के लिए शरारती तत्वों तथा धूम्रपान तथा घरों के पास सफाई आदि के लिए आग लगाने वालों के साथ ही वन माफिया को भी जिम्मेदार बताया जा रहा है।
इधर नैनीताल के निकटवर्ती जंगलों में देर रात्रि तक कहर ढाता रहा। यहां निकटवर्ती वजून में भी तीन मवेशी आग की वजह से जिंदा जल गए। गढ़वाल और कुमाऊं मंडल के जंगल अभी हफ्ते भर पहले फिर आग से प्रभावित हुए हैं। वन कर्मियों सहित किसी की हिम्मत नहीं हुई कि इसे बचाने को कुछ किया जा सके। आखिर ग्रामीण ही रात भर अपने गांव व घरों को इसकी चपेट में आने से बचाने के लिए रात भर जूझे, और किसी तरह गांव के चारों ओर के बड़े क्षेत्र पर ‘फायर लाइन’ काटकर किसी तरह दावानल से गांव को बचा लिया गया। दावानल की विभीषिका इतनी भयावह थी कि आग सैकड़ों फीट ऊंचे चीड़ के पेड़ों की ‘केनोपी’ यानी शीर्ष भाग भी धू-धू कर जलते रहे। आग में पेड़-पौधों के साथ ही व्यापक स्तर पर वन्य जीव-जंतुओं को अपनी जान गंवानी पड़ी है। क्षेत्र में ऐसे जले-भुने जीव जंतुओं के शवों की भरमार है।
मुख्यालय के निकटवर्ती क्षेत्रों के जंगलों में हालांकि सप्ताह भर से आग धधकी हुई है। लेकिन बताया गया है कि खुर्पाताल क्षेत्र में बृहस्पतिवार अपराह्न और देर शाम से लेकर रात्रि आग ने दावानल का रूप ले लिया। दावानल का यह नजारा बेहद डरावना था। प्रत्यक्षदर्शी एवं भुक्तभोगी रहे मल्ला बजून के ग्राम निवासी नगर के सीआरएसटी इंटर कॉलेज में जीव विज्ञान प्रवक्ता कमलेश चंद्र पांडेय ने बताया कि रात्रि तीन बजे तक ग्रामीण अपने गांव को बचाने के लिए गांव के गिर्द स्वयं फायर लाइन बनाने में जुटे रहे। इस दौरान चीड़ के सैकड़ों फीट ऊंचे पेड़ों की ‘केनोपी” धू-धू कर जल रही थी, और आग तेजी से गांव की ओर आ रही थी। ग्रामीणों को अपनी जान जाने का भय सता रहा था। आग में करीब 10 किमी क्षेत्र में खुर्पाताल में झील के चारों ओर को जलाने के साथ ही घिंघारी, बजून आदि गांवों से लेकर नैनीताल राजभवन के पीछे की पहाड़ी व नैनीताल बाईपास का क्षेत्र आग से खाक हो गया। इससे पूर्व बुधवार को पाटियाखान, सैमाधार, फगुनियाखेत व अधौड़ा के तथा मंगलवार को पटवाडांगर, नैना गांव व बेलुवाखान के जंगल पूरी तरह स्वाहा हो चुके हैं। इस आग में चीड़ के साथ ही राज्य वृक्ष होने के साथ ही जूस-स्क्वैश बनाने के लिए उपयोगी लोगों की आजीविका से जुड़े बुरांश, काफल व बांज के जंगल भी तबाह हो गए हैं। साथ ही स्थानीयों के साथ ही इन दिनों गर्म मैदानी क्षेत्रों से पहाड़ों के प्रवास पर आए प्रवासी पक्षी और ‘ब्रीडिंग सीजन” में नई संतति उत्पन्न कर रहे पक्षी, उनके अंडे और नन्हे बच्चे तथा रेंगने वाले सरीसृप वर्ग के एवं शाही जैसे छोटे वन्य जीव भी आग में भश्म हो गए हैं। इस दावानल से क्षेत्र ही नहीं नैनीताल नगर का वायुमंडल भी शुक्रवार को पूरे दिन धुंवे की गिरफ्त में रहा, और धूप ठीक से नहीं निकल पाई। उधर आग अब नगर के नारायणनगर वार्ड की ओर आगे बड़ गई है। ग्रामीणों के अनुसार दावानल के भड़कने के लिए वन विभाग के जिम्मेदार कर्मियों के द्वारा इस वर्ष अग्नि जागरूकता के कार्यक्रम, कंट्रोल बर्निंग व अंग्रेजी दौर से बनी फायर लाइनों को भी साफ न करने को भी महत्वपूर्ण कारण बताया जा रहा है।
राजनीतिक उठापटक की वजह से बढ़ी दावाग्नि की घटनाएं: उक्रांद
नैनीताल। उत्तराखंड क्रांति दल के पूर्व केंद्रीय अध्यक्ष डा. नारायण सिंह जंतवाल ने प्रदेश में दावाग्नि की घटनाओं के बढ़ने और इस कारण वन संपदा की भारी क्षति पर गहरा दु:ख जताया है। उन्होंने कहा कि प्रदेश में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की सरकार बनाने-बिगाड़ने की कोशिश के बीच इधर ध्यान न जाने की वजह से यह घटनाएं बढ़ी हैं। कहा कि प्रदेश की पहचान यहां वनों से हैं, जोकि उनकी वजह से चर्चा में नहीं हैं। वनाग्नि में बड़ी संख्या में वन एवं वन्य जीव नष्ट हुए हैं, तथा अनेक स्थानों पर जन-धन की क्षति हुई है जो गंभीर चिंता का विषय है। इसकी भरपाई शायद दशकों में भी पूरी न हो सके। इस घटना से सबक लेते हुए प्राकृतिक धरोहरों को बचाने की नई नीतियां बनाई जानी चाहिए।
आग बुझाने में झुलसे पूर्व जिपं सदस्य की दिल्ली ले जाते हुए मौत
नैनीताल। बृहस्पतिवार को आग बुझाने के दौरान बुरी तरह से जल गए पूर्व जिला पंचायत सदस्य 75 वर्षीय जय सिंह बोरा ने दिल्ली ले जाते हुए रास्ते में दम तोड़ दिया है। उनके शव को वापस उनके गांव लाया जा रहा है। । बताया गया है कि इसके साथ ही प्रदेश में वनाग्नि से जलकर मरने वालों मी संख्या सात हो गई है।
कुछ सवाल – क्यों लगती है वनाग्नि ?
अक्सर वन विभाग की ओर से कहा जाता है कि आम लोग ही घास-चारे के लिए जंगलों में आग लगाते हैं। जबकि आम लोगों की इस बात में अधिक दम नजर आता है कि प्रतिवर्ष लाखों-करोड़ों रुपये से किये जाने वाले वृक्षारोपण की धांधलियों को छिपाने के लिए वन विभाग के कर्मचारी खुद ही जंगलों में आग लगा देते हैं। वन सम्पदा के माफिया प्रकृति के लोगों पर भी ऐसे आरोप लगते हैं। माना जाता है कि ग्रामीण वन पंचायतों के पास मौजूद 30 प्रतिशत सिविल सोयम की वन भूमि पर अपने परंपरागत अनुभव के आधार पर अच्छी घास की पैदावर के लिए आग लगाते हैं। इससे पेड़ों को नुकसान नहीं होता और अनावश्यक खर-पतवार भी नष्ट हो जाते हैं, तथा बरसात के बाद घास अच्छी उगती है। पहले पतरोल स्थानीय समाज से जुड़ा हुआ होता था। उसकी एक आवाज पर लोग जंगलों की आग बुझाने दौड़ पड़ते थे। उसे इस बात का भी अहसास रहता था कि आखिर वनों पर स्थानीय लोगों के भी हक-हकूक हैं। सवाल यह है कि आज क्यों नहीं लाइन काटने के स्थानीय लोगों के परंपरागत अनुभव का लाभ उठाया जाता है? इसका कारण यह भी है कि वनाग्नि बुझाने में यदि कोई ग्रामीण मर जाये तो वन विभाग उसे मुआवजा नहीं देता। ग्रामीणों को उनके हक़-हकूक की लकड़ी, चारा-पत्ती भी बिना हाथ जोड़े नहीं मिलती । दूसरे पहाड़ पर हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्र में फैली चीड़ की पत्तियां गर्मियों के दिनों में सड़कों के किनारे एकत्रित हो जाती हैं। गलती से कोई राहगीर माचिस की जलती तिल्ली या बीड़ी-सिगरेट छोड़ दे तो ये पत्तियां आग पकड़ लेती हैं। इन पत्तियों को समय से उठाने, ‘कंट्रोल बर्निंग’ करने और ‘फायर लाइन’बनाने के प्राविधान हैं, किन्तु धन और कर्मियों की कमी बताकर वन विभाग अपने इन दायित्वों को पूरा नहीं करता, और परिणामस्वरूप जंगलों की आग बुझाने में स्थानीय लोगों की सहभागिता की सोच वातानुकूलित कमरों से धरातल तक नहीं पहुंच पाती है।