उत्तराखंड में चैत्र माह की भिटौली: बेटियों और बहनों के लिए प्रेम और स्नेह का पर्व

नवीन समाचार, नैनीताल, 28 मार्च 2025 (Bhitauli Parampara of Chaitra Month in Kumaun)। उत्तराखंड की सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं में चैत्र माह का विशेष महत्व है। इस माह में मनाया जाने वाला भिटौली पर्व बेटियों और बहनों के प्रति प्रेम और स्नेह का प्रतीक है। यह परंपरा कुमाऊं क्षेत्र में विशेष रूप से प्रचलित है, जहाँ माता-पिता और भाई अपनी विवाहित बेटियों और बहनों को भिटौली के रूप में उपहार देते हैं। यह पर्व न केवल पारिवारिक रिश्तों को मजबूत करता है, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को भी जीवित रखता है। भिटौली के साथ जुड़े लोक गीत इस पर्व को और जीवंत बनाते हैं।
भिटौली की परंपरा और महत्व
भिटौली उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का एक पारंपरिक पर्व है, जो चैत्र माह (मार्च-अप्रैल) में मनाया जाता है। यह पर्व नवविवाहित बेटियों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। परंपरा के अनुसार, नवविवाहित बेटी को पहली भिटौली वैशाख माह में दी जाती है, और इसके बाद हर वर्ष चैत्र माह में यह परंपरा निभायी जाती है।
इस दौरान माता-पिता अपनी बेटी के ससुराल जाते हैं और उसे घर का बना भोजन, मिठाइयाँ, कपड़े और अन्य उपहार देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह पर्व परिवार के मिलन का अवसर बनता है, जहाँ बेटी अपने मायके वालों से मिलकर पुरानी यादें ताजा करती है। शहरी क्षेत्रों में भाई अपनी बहनों को भिटौली के रूप में धनराशि भेजते हैं। यह परंपरा बेटियों को उनके मायके से जोड़े रखने का एक भावनात्मक माध्यम है।
भिटौली का सामाजिक महत्व भी गहरा है। यह पर्व उत्तराखंड की महिलाओं की सामाजिक भूमिका को रेखांकित करता है। यहाँ की महिलाएँ समाज की रीढ़ मानी जाती हैं, और भिटौली उनके प्रति सम्मान और स्नेह का प्रतीक है। यह पर्व परिवारों को एकजुट करता है और सामाजिक बंधनों को मजबूत करता है। चैत्र माह में नयी फसल के आने का उत्सव भी मनाया जाता है, और भिटौली इस उत्सव का हिस्सा बनकर खुशहाली का संदेश देती है।
‘न्यौली’ चिड़िया और कुमाउनी लोक कथा ‘भै भूखों मैं सिती’
चैत्र का महीना शुरू हो गया था। पहाड़ की हरियाली पर हल्की धूप खिली थी। हवा में बुरांश की खुशबू घुली थी। कुमाऊं के एक छोटे से गाँव में रहने वाली धना अपने भाई का रास्ता देखने लगी। सभी ब्याहता बेटियों की तरह उसकी आँखें भी दरवाजे पर टिकी थीं। उसे उम्मीद थी कि उसका छोटा भाई भिटौली लेकर आएगा। भाई के आने से मायके के दुख-सुख का हाल पता चलेगा। धनाएक गरीब परिवार से थी।
उसके बाबू यानी पिता बचपन में ही इस दुनिया को छोड़कर चले गए थे। घर में सिर्फ उसकी माँ और छोटा भुला यानी भाई थे। धना की शादी कच्ची उम्र में ही हो गयी थी। उसका मायका ससुराल से चार गाँव, चालीस कोस और अस्सी गाड़-गधेरों के पार था। उन दिनों मायके से जुड़ाव का एकमात्र मौका भिटौली का महीना ही होता था। न तो आने-जाने के साधन थे, न ही घर-खेत के काम से फुर्सत मिलती थी। अरसे से उसे माँ और गाँव की कोई खबर नहीं मिली थी।
गाँव में सभी बहू-बेटियों की भिटौली आने लगी थी। हर कोई चहक रहा था। उनके चेहरों पर मायके की यादों की खुशी साफ झलक रही थी। लेकिन धना उदास थी। फिर भी उसे अपने भाई पर भरोसा था। वह आशा भरी उदासी में दिन काट रही थी। कई दिन बीत गए, पर भाई नहीं आया। उसकी उदासी अब चिंता में बदल गयी। मन में अनिष्ट की आशंका ने घर कर लिया। क्या मायके में सब ठीक है? क्या माँ और भाई की तबियत तो खराब नहीं हो गयी? ये सवाल उसे सताने लगे। एक दिन वह घर, गोठ और जंगल के सारे काम निपटाकर थकान और चिंता में डूबी दो घड़ी लेट गयी। लेटते ही उसकी आँख लग गयी।
संयोग की बात, उसी दोपहर उसका छोटा भाई गोपाल भिटौली लेकर उसके ससुराल पहुँच गया। माँ ने तड़के ही पकवान बनाकर उसे धना के लिए रवाना कर दिया था। रास्ता लंबा था। चार गाँव, पहाड़ों की चढ़ाई-उतराई और गाड़-गधेरों को पार करना था। गोपाल सुबह से भूखा-प्यासा चलता रहा।
उसे शाम तक लौटना भी था, क्योंकि ससुराल में रात रुकना उचित नहीं माना जाता था। राधा को भाई के आने की आहट नहीं मिली। वह गहरी नींद में थी। गोपाल उसके सिरहाने बैठ गया। उसने बहन का घर-बार देखा तो उसे अच्छा लगा। दीदी सुकून से सो रही थी। उसने धीरे से आवाज दी, “दी! दीदी!” लेकिन धना नहीं जागी। गोपाल छोटा था। उसे समझ नहीं आया कि दीदी को जगाए या नहीं।
शाम होने को थी। माँ ने रात तक लौटने को कहा था। रास्ते में जंगली जानवरों का डर भी था। गोपाल का मन भारी हो गया। उसने दीदी के माथे पर टीका लगाया और भिटौली की टोकरी उसके सिरहाने रख दी। फिर चुपके से घर की ओर चल पड़ा। उस समय राधा सपने में अपने भाई को देख रही थी। सपने में गोपाल भिटौली की टोकरी लिए मुस्कुराता हुआ उसे पुकार रहा था, “दी! दीदी!” उसी पल उसकी नींद खुल गयी। लेकिन तब तक गोपाल वापसी का आधा रास्ता तय कर चुका था।
राधा ने सिरहाने देखा तो भिटौली की टोकरी रखी थी। उसने पूरा घर छान मारा। फिर गाँव के रास्ते की ओर दौड़ी। दूर-दूर तक नजर दौड़ायी, पर गोपाल कहीं नहीं दिखा। वह पहाड़ चढ़कर दूसरी ओर ढलान में जा चुका था। राधा वापस लौटी। उसका दिल भारी हो गया, जैसे कोई बड़ा बोझ रख दिया गया हो। वह फूट-फूटकर रोने लगी। रोते-रोते वह कहने लगी, “ये कैसी नींद आयी मुझे! मैं सोती रही और मेरा भुला भिटौली लेकर इतनी दूर से आया और लौट गया। दिनभर का भूखा होगा बेचारा। बिना खाए-पिए ही चला गया। मैं उससे मायके का हाल-चाल तो दूर, दो घूँट पानी भी न पिला सकी। खाना खिलाना तो दूर की बात है।”
वह बार-बार कहती रही, “भै भूखों मैं सिती, भै भूखों मैं सिती,” यानी भाई भूखा था और मैं सोती रही। यह सदमा उसके लिए असहनीय हो गया। वह रोते-रोते बेहोश हो गयी और उसके प्राण निकल गए।
कहते हैं कि धना को अगले जन्म में ‘न्यौली’ नाम की चिड़िया का रूप मिला। आज भी चैत्र-बैशाख के महीनों में न्यौली चिड़िया के करुण स्वर में मानो उसी बहन की व्यथा गूंजती है। वह पहाड़ों में उड़ते हुए पुकारती है – “भै भुखो मैं सिती… भै भुखो मैं सिती…” इस चिड़िया की करुण आवाज आज भी भाई-बहन के अटूट प्रेम की वह मार्मिक कथा सुना देती है, जो हर बार मन को गहरे तक भिगो देती है।
भिटौली का बदलता स्वरूप
समय के साथ भिटौली की परंपरा में बदलाव देखने को मिला है। पहले जहाँ माता-पिता स्वयं ससुराल जाकर बेटी को भिटौली देते थे, वहीं अब शहरी क्षेत्रों में यह परंपरा डाक या डिजिटल माध्यम से धनराशि भेजने तक सीमित हो गयी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा अपने मूल रूप में जीवित है। यहाँ बेटी के ससुराल में माता-पिता का आना, उसके साथ समय बिताना और घर का बना भोजन देना अभी भी प्रचलित है। लेकिन आधुनिकीकरण के प्रभाव से इस परंपरा को जीवित रखने की चुनौती बढ़ रही है।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
भिटौली पर्व उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह पर्व न केवल पारिवारिक रिश्तों को मजबूत करता है, बल्कि सामाजिक एकता को भी बढ़ावा देता है। यह बेटियों और बहनों को यह अहसास दिलाता है कि मायके में उनकी जड़ें अभी भी मजबूत हैं। सोशल मीडिया पर भी भिटौली की चर्चा देखने को मिलती है, जहाँ लोग इस पर्व की तस्वीरें और अनुभव साझा करते हैं। (Bhitauli Parampara of Chaitra Month in Kumaun, Uttarakhandi Lok Parampara, Kumauni Lok Parampara, Bhitauli of Chaitra month in Uttarakhand, A festival of love and affection for daughters and sisters)
संरक्षण की आवश्यकता (Bhitauli Parampara of Chaitra Month in Kumaun)
विशेषज्ञों का कहना है कि भिटौली जैसी परंपराओं को संरक्षित करने की आवश्यकता है। इसके लिए युवा पीढ़ी को इसकी महत्ता से अवगत कराना होगा। स्कूलों और सामुदायिक कार्यक्रमों में भिटौली से जुड़े गीत और कहानियाँ सिखायी जानी चाहिए। सरकार और सांस्कृतिक संगठनों को भी इस दिशा में कदम उठाने चाहिए ताकि यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक पहुँच सके। (Bhitauli Parampara of Chaitra Month in Kumaun, Uttarakhandi Lok Parampara, Kumauni Lok Parampara, Bhitauli of Chaitra month in Uttarakhand, A festival of love and affection for daughters and sisters)
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