संचार के द्विपद, बहुपद, अधिनायकवादी, उदारवादी, सामाजिक उत्तरदायित्व युक्त, कम्युनिस्ट व एजेंडा सेटिंग सिद्धांत
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार June 13, 2021 0
English
Other languages
- Abron
- Acoli
- адыгэбзэ
- Afrikaans
- अहिराणी
- ajagbe
- Batak Angkola
- አማርኛ
- Obolo
- العربية
- অসমীয়া
- авар
- تۆرکجه
- ᬩᬮᬶ
- ɓasaá
- Batak Toba
- wawle
- беларуская
- беларуская (тарашкевіца)
- Bari
- روچ کپتین بلوچی
- भोजपुरी
- भोजपुरी
- Ẹdo
- Itaŋikom
- Bamanankan
- বাংলা
- བོད་ཡིག།
- bòo pìkkà
- bèrom
- बोड़ो
- Batak Dairi
- Batak Mandailing
- Sahap Simalungun
- cakap Karo
- Batak Alas-Kluet
- bulu
- bura
- ብሊን
- Mə̀dʉ̂mbɑ̀
- нохчийн
- chinook wawa
- ᏣᎳᎩ
- کوردی
- Anufɔ
- Чăвашла
- Dansk
- Dagbani
- дарган
- dendi
- Deutsch
- Dagaare
- Thuɔŋjäŋ
- Kirdkî
- डोगरी
- Duálá
- Èʋegbe
- efịk
- ẹkpeye
- Ελληνικά
- English
- Esperanto
- فارسی
- mfantse
- Fulfulde
- Suomi
- Føroyskt
- Fon
- poor’íŋ belé’ŋ
- International Phonetic Alphabet
- Ga
- गोंयची कोंकणी / Gõychi Konknni
- 𐌲𐌿𐍄𐌹𐍃𐌺𐌰 𐍂𐌰𐌶𐌳𐌰
- ગુજરાતી
- farefare
- Hausa
- עברית
- हिन्दी
- छत्तीसगढ़ी
- 𑢹𑣉𑣉
- Ho
- Hrvatski
- հայերեն
- ibibio
- Bahasa Indonesia
- Igbo
- Igala
- гӀалгӀай
- Íslenska
- awain
- Abꞌxubꞌal Poptiꞌ
- Jawa
- ꦗꦮ
- ქართული ენა
- Taqbaylit / ⵜⴰⵇⴱⴰⵢⵍⵉⵜ
- Jju
- адыгэбзэ (къэбэрдеибзэ)
- Kabɩyɛ
- Tyap
- kɛ́nyáŋ
- Gĩkũyũ
- Қазақша
- ភាសាខ្មែរ
- ಕನ್ನಡ
- 한국어
- kanuri
- Krio
- कॉशुर / کٲشُر
- Кыргыз
- Kurdî
- Kʋsaal
- Lëblaŋo
- лакку
- лезги
- Luganda
- Lingála
- ລາວ
- لۊری شومالی
- lüüdi
- dxʷləšucid
- madhurâ
- मैथिली
- Ŋmampulli
- Malagasy
- Kajin M̧ajeļ
- മലയാളം
- Монгол
- ᠮᠠᠨᠵᡠ
- Manipuri
- ма̄ньси
- ဘာသာမန်
- moore
- मराठी
- မြန်မာ
- 閩南語 / Bân-lâm-gú
- 閩南語(漢字)
- 閩南語(傳統漢字)
- Bân-lâm-gú (Pe̍h-ōe-jī)
- Bân-lâm-gú (Tâi-lô)
- Khoekhoegowab
- Norsk (bokmål)
- नेपाली
- नेपाल भाषा
- li niha
- nawdm
- Norsk (nynorsk)
- ngiembɔɔn
- ߒߞߏ
- Sesotho sa Leboa
- Thok Naath
- Chichewa
- Nzema
- ଓଡ଼ିଆ
- ਪੰਜਾਬੀ
- Piemontèis
- Ποντιακά
- ⵜⴰⵔⵉⴼⵉⵜ
- Tarandine
- русский
- संस्कृत
- саха тыла
- ᱥᱟᱱᱛᱟᱞᱤ (संताली)
- सिंधी
- کوردی خوارگ
- Davvisámegiella
- Koyraboro Senni
- Sängö
- ⵜⴰⵛⵍⵃⵉⵜ
- တႆး
- සිංහල
- ᠰᡞᠪᡝ
- Slovenčina
- Српски / srpski
- Sesotho
- SENĆOŦEN
- Sunda
- Svenska
- Ślůnski
- தமிழ்
- ತುಳು
- తెలుగు
- ไทย
- ትግርኛ
- ትግሬ
- цӀаӀхна миз
- Setswana
- ChiTumbuka
- Twi
- ⵜⴰⵎⴰⵣⵉⵖⵜ
- удмурт
- Українська
- اردو
- Oʻzbekcha
- ꕙꔤ
- TshiVenḓa
- Vèneto
- Waale
- Wolof
- Likpakpaanl
- Yorùbá
- 中文
- 中文(中国大陆)
- 中文(简体)
- 中文(繁體)
- 中文(香港)
- 中文(澳門)
- 中文(马来西亚)
- 中文(新加坡)
- 中文(臺灣)
यहाँ क्लिक कर सीधे संबंधित को पढ़ें
Toggleसंचार के द्विपद एवं बहुपद सिद्धांत
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल। संचार अथवा जनसंचार की प्रक्रिया केवल वक्ता एवं श्रोता अथवा श्रोताओं के समूह पर स्वतंत्र रूप से निर्भर नहीं रहती है, वरन इन कारकों की अंर्तक्रिया या परस्पर संवाद भी संचार की प्रक्रिया पर प्रभाव डालती है। जनसंचार माध्यमों के प्रभावों को लेकर अनेक शोध व अनुसंधान किए गए हैं। इनके फलस्वरूप शुरुआती दौर में ‘रेंक एवं फाइल ओपिनियन लीडर्स’ और ‘पर्सनल इन्फ्लुएंस थ्योरी’ उद्घाटित हुई।
पत्रकारिता से संबंधित निम्न लेख भी सम्बंधित लाइनों पर क्लिक करके पढ़ें :
पत्रकारिता : संकल्पना, प्रकृति और कार्यक्षेत्र, महिला पत्रकार, पत्रकारिता की उत्पत्ति का संक्षिप्त इतिहास, प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार, वृद्धि और विकास
विश्व व भारत में पत्रकारिताका इतिहास
उत्तराखण्ड की पत्रकारिता का इतिहास
विश्व व भारत में रेडियो-टेलीविज़न का इतिहास तथा कार्यप्रणाली
फोटोग्राफी का इतिहास एवं संबंधित आलेख व समाचार
कुमाऊं के ब्लॉग व न्यूज पोर्टलों का इतिहास
संचार, समाचार लेखन, संपादन, विज्ञापन, टेलीविजन, रेडियो, फीचर व ब्रांड प्रबंधन
संचार, समाचार लेखन, संपादन, विज्ञापन, फीचर व ब्रांड प्रबंधन
न्यू मीडिया (इंटरनेट, सोशल मीडिया, ब्लॉगिंग आदि) : इतिहास और वर्तमान
इंटरनेट-नए मीडिया के ताजा महत्वपूर्ण समाचार
यहां कानून से भी लंबे निकले सोशल मीडिया के हाथ…
काट्ज एवं लाजर्सफेल्ड ने 1955 में कहा कि औपचारिक तौर पर होने वाले संचार या पारस्परिक संवाद में अनौपचारिक तौर पर होने वाले संचार या संवाद का भी बड़ा प्रभाव पड़ता है। इधर-उधर से यानी अन्य श्रोतों से प्राप्त सूचनाओं से नए-नए विचार प्राप्त होते हैं, और इनसे लोगों के मत बदलते रहते हैं। इस मत के अनुसार नई संचार विधियों की खोज के साथ जनसंचार इन अनौपचारिक जनमत नेताओं (ओपिनियन लीडर्स) को नए-नए विचार प्रदान करते हैं, जिन्हें वे अपने व्यक्तिगत संपर्कों से आम लोगों के बीच ले जाते हैं। इस प्रक्रिया को ‘डिफ्यूजन’ या प्रसार की प्रक्रिया कहते हैं।
खासकर ऐसे विचार जो कि किसी समूह की विचारधारा के विपरीत होते हैं, उस विचार को देने वाले व्यक्ति से उस समूह के सभी व्यक्तियों तक सीधे नहीं पहुंचते, वरन पहले उन लोगों तक पहुंचते हैं जो उस विचार से सहमत होते हैं। ये सहमत व्यक्ति ओपिनियन लीडर या जनमत नेता की भूमिका निभाते हुए आगे उस विचार को आमजन के बीच सहज तरीके या उस समूह की भाषा में पहुचाते हैं।
इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि केंद्र अथवा राज्य की सरकार किसी नई योजना की शुरुआत करती है तो आम जनता उस योजना को सीधे ही स्वीकार नहीं कर लेती है। वरन सर्वप्रथम सरकार के नेतृत्वकर्ता दल या पार्टी के लोग उस योजना को सर्वप्रथम समझते या स्वीकार करते हैं, और वे ही उस योजना के लाभों को जनता के बीच ले जाते हैं। हालिया दौर में केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री जन-धन योजना या बीमा योजनाओं के प्रसार में यही कार्य भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया।
जनसंचार के द्वारा भी कमोबेश यही ‘ओपिनियन लीडर्स’ की भूमिका निभाई जाती है। जनसंचार के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से जनमत बदले या पुर्नवलित होते हैं। इसी प्रक्रिया को संचार को द्विपद प्रवाह कहते हैं।
इस तरह हुई संचार के द्विपद प्रवाद सिद्धांत की खोज:

सोचिए जरा ! जब समाचारों के लिए भरोसा ‘नवीन समाचार’ पर है, तो विज्ञापन कहीं और क्यों ? यदि चाहते हैं कि ‘नवीन समाचार’ आपका भरोसा लगातार बनाए रहे, तो विज्ञापन भी ‘नवीन समाचार’ को देकर हमें आर्थिक तौर पर मजबूत करें। संपर्क करें : 8077566792, 9412037779 पर। |
संचार का द्विपद प्रवाह सिद्धांत, व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत की अगली कड़ी में सामने आयी। व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत 1940 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों पर हुये एक अध्ययन का परिणाम है।
1948 में लाजर्सफेल्ड, बेरेल्सन और गौडेल ने एक अध्ययन किया। इनका उद्देश्य चुनावों में उन लोगों के वोट देने के व्यवहार पर जनसंचार के प्रभावों का अध्ययन करना था, जिन्होंने चुनाव के दौरान अपना मत बदला। इस अध्ययन में पता चला कि आपसी संबंधों और अंतरवैयक्तिक प्रभावों के कारण उन्होंने वोट देने के लिए अपना मत बदला। इस अध्यययन के बाद व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत प्रतिपादित हुआ।
उन्होंने अपने शोध के परिणाम स्वरूप कहा कि चुनाव में जनसंचार के बड़े स्तर पर उपयोग ने लोगों की प्रारंभिक प्राथमिकताओं को मजबूत किया, जबकि व्यक्तिगत प्रभावों और आपसी संबंधों ने मतदाताओं के वोट देने के व्यवहार को बदल दिया।
इस प्रकार शोधकर्ताओं ने प्रतिपादित किया कि हर समूह में कुछ लोग अधिक प्रभावशाली होते हैं। इन्हें ‘ओपिनियन लीडर’ या ‘जनमत बनाने वाले नेता’ या ‘जनमत नेता’ नाम दिया गया। इनके अनुसार जनसंचार से कोई विचार शुरू में कुछ प्रमुख व्यक्ति ग्रहण करते हैं, और यही व्यक्ति कम प्रभावशाली व्यक्तियों के लिए जनमत नेता बन जाते हैं। इस तरह से जनसंचार का प्रभाव इन जनमत नेताओं के द्वारा अधिक गति से पड़ता है।
1975 में राइट ने इन ओपिनियन लीडर के बारे में कहा कि ‘वह समूह के अन्य सदस्यों के मुकाबले अपने अधिक ज्ञान और समूह के लोगों से बेहतर संबंधों से समूह के सदस्यों की राय बदलने का माद्दा रखते हैं।’ यह ओपिनियन लीडर किसी भी समाज, आर्थिक स्तर या पेशे के स्तर पर हो सकते हैं, और अपने क्षेत्र की विशिष्टता लिए हुए होते हैं। समाज में अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग ओपिनियन लीडर हो सकते हैं। यह ओपिनियन लीडर सूचनाओं से बेहतर स्तर पर अपडेटेड और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों का अधिक प्रयोग करने वाले होते हैं। इस प्रकार वे आमने-सामने के संचार में समूह के अन्य लोगों को प्रभावित कर लेते हैं। इस तरह संचार के द्विपद प्रवाह सिद्धांत की खोज हुई।
English
Other languages
- Abron
- Acoli
- адыгэбзэ
- Afrikaans
- अहिराणी
- ajagbe
- Batak Angkola
- አማርኛ
- Obolo
- العربية
- অসমীয়া
- авар
- تۆرکجه
- ᬩᬮᬶ
- ɓasaá
- Batak Toba
- wawle
- беларуская
- беларуская (тарашкевіца)
- Bari
- روچ کپتین بلوچی
- भोजपुरी
- भोजपुरी
- Ẹdo
- Itaŋikom
- Bamanankan
- বাংলা
- བོད་ཡིག།
- bòo pìkkà
- bèrom
- बोड़ो
- Batak Dairi
- Batak Mandailing
- Sahap Simalungun
- cakap Karo
- Batak Alas-Kluet
- bulu
- bura
- ብሊን
- Mə̀dʉ̂mbɑ̀
- нохчийн
- chinook wawa
- ᏣᎳᎩ
- کوردی
- Anufɔ
- Чăвашла
- Dansk
- Dagbani
- дарган
- dendi
- Deutsch
- Dagaare
- Thuɔŋjäŋ
- Kirdkî
- डोगरी
- Duálá
- Èʋegbe
- efịk
- ẹkpeye
- Ελληνικά
- English
- Esperanto
- فارسی
- mfantse
- Fulfulde
- Suomi
- Føroyskt
- Fon
- poor’íŋ belé’ŋ
- International Phonetic Alphabet
- Ga
- गोंयची कोंकणी / Gõychi Konknni
- 𐌲𐌿𐍄𐌹𐍃𐌺𐌰 𐍂𐌰𐌶𐌳𐌰
- ગુજરાતી
- farefare
- Hausa
- עברית
- हिन्दी
- छत्तीसगढ़ी
- 𑢹𑣉𑣉
- Ho
- Hrvatski
- հայերեն
- ibibio
- Bahasa Indonesia
- Igbo
- Igala
- гӀалгӀай
- Íslenska
- awain
- Abꞌxubꞌal Poptiꞌ
- Jawa
- ꦗꦮ
- ქართული ენა
- Taqbaylit / ⵜⴰⵇⴱⴰⵢⵍⵉⵜ
- Jju
- адыгэбзэ (къэбэрдеибзэ)
- Kabɩyɛ
- Tyap
- kɛ́nyáŋ
- Gĩkũyũ
- Қазақша
- ភាសាខ្មែរ
- ಕನ್ನಡ
- 한국어
- kanuri
- Krio
- कॉशुर / کٲشُر
- Кыргыз
- Kurdî
- Kʋsaal
- Lëblaŋo
- лакку
- лезги
- Luganda
- Lingála
- ລາວ
- لۊری شومالی
- lüüdi
- dxʷləšucid
- madhurâ
- मैथिली
- Ŋmampulli
- Malagasy
- Kajin M̧ajeļ
- മലയാളം
- Монгол
- ᠮᠠᠨᠵᡠ
- Manipuri
- ма̄ньси
- ဘာသာမန်
- moore
- मराठी
- မြန်မာ
- 閩南語 / Bân-lâm-gú
- 閩南語(漢字)
- 閩南語(傳統漢字)
- Bân-lâm-gú (Pe̍h-ōe-jī)
- Bân-lâm-gú (Tâi-lô)
- Khoekhoegowab
- Norsk (bokmål)
- नेपाली
- नेपाल भाषा
- li niha
- nawdm
- Norsk (nynorsk)
- ngiembɔɔn
- ߒߞߏ
- Sesotho sa Leboa
- Thok Naath
- Chichewa
- Nzema
- ଓଡ଼ିଆ
- ਪੰਜਾਬੀ
- Piemontèis
- Ποντιακά
- ⵜⴰⵔⵉⴼⵉⵜ
- Tarandine
- русский
- संस्कृत
- саха тыла
- ᱥᱟᱱᱛᱟᱞᱤ (संताली)
- सिंधी
- کوردی خوارگ
- Davvisámegiella
- Koyraboro Senni
- Sängö
- ⵜⴰⵛⵍⵃⵉⵜ
- တႆး
- සිංහල
- ᠰᡞᠪᡝ
- Slovenčina
- Српски / srpski
- Sesotho
- SENĆOŦEN
- Sunda
- Svenska
- Ślůnski
- தமிழ்
- ತುಳು
- తెలుగు
- ไทย
- ትግርኛ
- ትግሬ
- цӀаӀхна миз
- Setswana
- ChiTumbuka
- Twi
- ⵜⴰⵎⴰⵣⵉⵖⵜ
- удмурт
- Українська
- اردو
- Oʻzbekcha
- ꕙꔤ
- TshiVenḓa
- Vèneto
- Waale
- Wolof
- Likpakpaanl
- Yorùbá
- 中文
- 中文(中国大陆)
- 中文(简体)
- 中文(繁體)
- 中文(香港)
- 中文(澳門)
- 中文(马来西亚)
- 中文(新加坡)
- 中文(臺灣)
English
Other languages
- Abron
- Acoli
- адыгэбзэ
- Afrikaans
- अहिराणी
- ajagbe
- Batak Angkola
- አማርኛ
- Obolo
- العربية
- অসমীয়া
- авар
- تۆرکجه
- ᬩᬮᬶ
- ɓasaá
- Batak Toba
- wawle
- беларуская
- беларуская (тарашкевіца)
- Bari
- روچ کپتین بلوچی
- भोजपुरी
- भोजपुरी
- Ẹdo
- Itaŋikom
- Bamanankan
- বাংলা
- བོད་ཡིག།
- bòo pìkkà
- bèrom
- बोड़ो
- Batak Dairi
- Batak Mandailing
- Sahap Simalungun
- cakap Karo
- Batak Alas-Kluet
- bulu
- bura
- ብሊን
- Mə̀dʉ̂mbɑ̀
- нохчийн
- chinook wawa
- ᏣᎳᎩ
- کوردی
- Anufɔ
- Чăвашла
- Dansk
- Dagbani
- дарган
- dendi
- Deutsch
- Dagaare
- Thuɔŋjäŋ
- Kirdkî
- डोगरी
- Duálá
- Èʋegbe
- efịk
- ẹkpeye
- Ελληνικά
- English
- Esperanto
- فارسی
- mfantse
- Fulfulde
- Suomi
- Føroyskt
- Fon
- poor’íŋ belé’ŋ
- International Phonetic Alphabet
- Ga
- गोंयची कोंकणी / Gõychi Konknni
- 𐌲𐌿𐍄𐌹𐍃𐌺𐌰 𐍂𐌰𐌶𐌳𐌰
- ગુજરાતી
- farefare
- Hausa
- עברית
- हिन्दी
- छत्तीसगढ़ी
- 𑢹𑣉𑣉
- Ho
- Hrvatski
- հայերեն
- ibibio
- Bahasa Indonesia
- Igbo
- Igala
- гӀалгӀай
- Íslenska
- awain
- Abꞌxubꞌal Poptiꞌ
- Jawa
- ꦗꦮ
- ქართული ენა
- Taqbaylit / ⵜⴰⵇⴱⴰⵢⵍⵉⵜ
- Jju
- адыгэбзэ (къэбэрдеибзэ)
- Kabɩyɛ
- Tyap
- kɛ́nyáŋ
- Gĩkũyũ
- Қазақша
- ភាសាខ្មែរ
- ಕನ್ನಡ
- 한국어
- kanuri
- Krio
- कॉशुर / کٲشُر
- Кыргыз
- Kurdî
- Kʋsaal
- Lëblaŋo
- лакку
- лезги
- Luganda
- Lingála
- ລາວ
- لۊری شومالی
- lüüdi
- dxʷləšucid
- madhurâ
- मैथिली
- Ŋmampulli
- Malagasy
- Kajin M̧ajeļ
- മലയാളം
- Монгол
- ᠮᠠᠨᠵᡠ
- Manipuri
- ма̄ньси
- ဘာသာမန်
- moore
- मराठी
- မြန်မာ
- 閩南語 / Bân-lâm-gú
- 閩南語(漢字)
- 閩南語(傳統漢字)
- Bân-lâm-gú (Pe̍h-ōe-jī)
- Bân-lâm-gú (Tâi-lô)
- Khoekhoegowab
- Norsk (bokmål)
- नेपाली
- नेपाल भाषा
- li niha
- nawdm
- Norsk (nynorsk)
- ngiembɔɔn
- ߒߞߏ
- Sesotho sa Leboa
- Thok Naath
- Chichewa
- Nzema
- ଓଡ଼ିଆ
- ਪੰਜਾਬੀ
- Piemontèis
- Ποντιακά
- ⵜⴰⵔⵉⴼⵉⵜ
- Tarandine
- русский
- संस्कृत
- саха тыла
- ᱥᱟᱱᱛᱟᱞᱤ (संताली)
- सिंधी
- کوردی خوارگ
- Davvisámegiella
- Koyraboro Senni
- Sängö
- ⵜⴰⵛⵍⵃⵉⵜ
- တႆး
- සිංහල
- ᠰᡞᠪᡝ
- Slovenčina
- Српски / srpski
- Sesotho
- SENĆOŦEN
- Sunda
- Svenska
- Ślůnski
- தமிழ்
- ತುಳು
- తెలుగు
- ไทย
- ትግርኛ
- ትግሬ
- цӀаӀхна миз
- Setswana
- ChiTumbuka
- Twi
- ⵜⴰⵎⴰⵣⵉⵖⵜ
- удмурт
- Українська
- اردو
- Oʻzbekcha
- ꕙꔤ
- TshiVenḓa
- Vèneto
- Waale
- Wolof
- Likpakpaanl
- Yorùbá
- 中文
- 中文(中国大陆)
- 中文(简体)
- 中文(繁體)
- 中文(香港)
- 中文(澳門)
- 中文(马来西亚)
- 中文(新加坡)
- 中文(臺灣)
Other languages
- Abron
- Acoli
- адыгэбзэ
- Afrikaans
- अहिराणी
- ajagbe
- Batak Angkola
- አማርኛ
- Obolo
- العربية
- অসমীয়া
- авар
- تۆرکجه
- ᬩᬮᬶ
- ɓasaá
- Batak Toba
- wawle
- беларуская
- беларуская (тарашкевіца)
- Bari
- روچ کپتین بلوچی
- भोजपुरी
- भोजपुरी
- Ẹdo
- Itaŋikom
- Bamanankan
- বাংলা
- བོད་ཡིག།
- bòo pìkkà
- bèrom
- बोड़ो
- Batak Dairi
- Batak Mandailing
- Sahap Simalungun
- cakap Karo
- Batak Alas-Kluet
- bulu
- bura
- ብሊን
- Mə̀dʉ̂mbɑ̀
- нохчийн
- chinook wawa
- ᏣᎳᎩ
- کوردی
- Anufɔ
- Чăвашла
- Dansk
- Dagbani
- дарган
- dendi
- Deutsch
- Dagaare
- Thuɔŋjäŋ
- Kirdkî
- डोगरी
- Duálá
- Èʋegbe
- efịk
- ẹkpeye
- Ελληνικά
- English
- Esperanto
- فارسی
- mfantse
- Fulfulde
- Suomi
- Føroyskt
- Fon
- poor’íŋ belé’ŋ
- International Phonetic Alphabet
- Ga
- गोंयची कोंकणी / Gõychi Konknni
- 𐌲𐌿𐍄𐌹𐍃𐌺𐌰 𐍂𐌰𐌶𐌳𐌰
- ગુજરાતી
- farefare
- Hausa
- עברית
- हिन्दी
- छत्तीसगढ़ी
- 𑢹𑣉𑣉
- Ho
- Hrvatski
- հայերեն
- ibibio
- Bahasa Indonesia
- Igbo
- Igala
- гӀалгӀай
- Íslenska
- awain
- Abꞌxubꞌal Poptiꞌ
- Jawa
- ꦗꦮ
- ქართული ენა
- Taqbaylit / ⵜⴰⵇⴱⴰⵢⵍⵉⵜ
- Jju
- адыгэбзэ (къэбэрдеибзэ)
- Kabɩyɛ
- Tyap
- kɛ́nyáŋ
- Gĩkũyũ
- Қазақша
- ភាសាខ្មែរ
- ಕನ್ನಡ
- 한국어
- kanuri
- Krio
- कॉशुर / کٲشُر
- Кыргыз
- Kurdî
- Kʋsaal
- Lëblaŋo
- лакку
- лезги
- Luganda
- Lingála
- ລາວ
- لۊری شومالی
- lüüdi
- dxʷləšucid
- madhurâ
- मैथिली
- Ŋmampulli
- Malagasy
- Kajin M̧ajeļ
- മലയാളം
- Монгол
- ᠮᠠᠨᠵᡠ
- Manipuri
- ма̄ньси
- ဘာသာမန်
- moore
- मराठी
- မြန်မာ
- 閩南語 / Bân-lâm-gú
- 閩南語(漢字)
- 閩南語(傳統漢字)
- Bân-lâm-gú (Pe̍h-ōe-jī)
- Bân-lâm-gú (Tâi-lô)
- Khoekhoegowab
- Norsk (bokmål)
- नेपाली
- नेपाल भाषा
- li niha
- nawdm
- Norsk (nynorsk)
- ngiembɔɔn
- ߒߞߏ
- Sesotho sa Leboa
- Thok Naath
- Chichewa
- Nzema
- ଓଡ଼ିଆ
- ਪੰਜਾਬੀ
- Piemontèis
- Ποντιακά
- ⵜⴰⵔⵉⴼⵉⵜ
- Tarandine
- русский
- संस्कृत
- саха тыла
- ᱥᱟᱱᱛᱟᱞᱤ (संताली)
- सिंधी
- کوردی خوارگ
- Davvisámegiella
- Koyraboro Senni
- Sängö
- ⵜⴰⵛⵍⵃⵉⵜ
- တႆး
- සිංහල
- ᠰᡞᠪᡝ
- Slovenčina
- Српски / srpski
- Sesotho
- SENĆOŦEN
- Sunda
- Svenska
- Ślůnski
- தமிழ்
- ತುಳು
- తెలుగు
- ไทย
- ትግርኛ
- ትግሬ
- цӀаӀхна миз
- Setswana
- ChiTumbuka
- Twi
- ⵜⴰⵎⴰⵣⵉⵖⵜ
- удмурт
- Українська
- اردو
- Oʻzbekcha
- ꕙꔤ
- TshiVenḓa
- Vèneto
- Waale
- Wolof
- Likpakpaanl
- Yorùbá
- 中文
- 中文(中国大陆)
- 中文(简体)
- 中文(繁體)
- 中文(香港)
- 中文(澳門)
- 中文(马来西亚)
- 中文(新加坡)
- 中文(臺灣)
द्विपद सिद्धांत : संचार के इस सिद्धांत को पॉल लाजर्सफेल्ड ने अपने साथियों के साथ प्रतिपादित किया था। इस सिद्धांत के अनुसार संचार वर्टिकल यानी ऊर्ध्वाधर यानी नीचे की ओर और हारिजेंटल यानी क्षैतिज की दो दिशाओं में चलता है। ओपिनियन लीडर क्षैतिज दिशा के विभिन्न माध्यमों से सूचनाएं लेकर उन्हें ऊर्ध्वाधर दिशा में अन्य लोगों को हस्तांतरित कर देते हैं। शोधकर्ताओं को इस प्रक्रिया में संचार माध्यमों के सीधे प्रभाव के भी कुछ सबूत मिले। अलबत्ता, लोग आमने-सामने के संवाद से अधिक प्रभावित दिखे। इस पर लाजर्सफेल्ड और उनके शोध साथियों ने सुझाया कि लोगों की ओर संचार के प्रवाह में ओपिनियन लीडर्स ने सूचनाओं को फैलाने के साथ ही उन्हें समझाने में बड़ी भूमिका निभाई। इस पर उन्होंने संचार के द्विपद प्रवाह सिद्धांत को प्रतिपादित किया, जो कि बाद में अन्य शोधों से सामान्यतौर पर उपयोगी यानी सही साबित हुआ।
कोई व्यक्ति किसी जनसंचार की प्रक्रिया या अंतरवैयक्तिक संचार से कितना प्रभावित होगा यह निम्न पर निर्भर करता है :-
1. जागरूकता की स्थिति : व्यक्ति नए विचार की पृष्ठभूमि के प्रति कितनी जानकारी रखता है।
2. सूचनाओं की स्थिति : व्यक्ति नए विचार के बारे में और अधिक सूचनाएं प्राप्त करने का प्रयास करता है।
3. लाभप्रदता : व्यक्ति नए विचार के स्वयं के लिए उपयोगी अथवा अनुपयोगी होने का अनुमान लगाते हुए इसे स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेता है।
4. जांच : व्यक्ति नए विचार की अस्थाई तौर पर जांच करता है।
5. अंगीकरण : आखिर में व्यक्ति निर्णय लेता है कि वह नए विचार का उपयोग करेगा अथवा नहीं। व्यक्ति सूचनाओं की वैधता को समय-समय पर परखने का प्रयास करते हैं, और उसी के अनुसार प्रभावित होते हैं। वैधता के परीक्षण में साथियों, मित्रों एवं पड़ोसियों के साथ व्यक्तिगत संबंध एवं संचार प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
<
p style=”text-align: justify;”>कमियां :
अलबत्ता, अन्य सिद्धांतों की ही तरह संचार के द्विपद प्रवाह सिद्धांत की भी कुछ कमियां हैं।
1. यह जनसंचार के मूल एवं सीधे प्रभाव को घटाता है।
2. इसे स्पष्ट तौर पर राजनीतिक अध्ययनों में ही देखा जा सकता है।
3. चूंकि इसके प्रभावों को दशकों पूर्व के अध्ययनों में देखा गया था, इसलिए वर्तमान या समकालीन अध्ययनों में यह प्रभावी नहीं भी हो सकता है।
4. जरूरी नहीं कि ओपिनियन लीडर हमेशा जनसंचार एवं समूह के व्यक्तियों के बीच कड़ी का ही कार्य करें। विषयवस्तु के अनुसार कई बार उनके व्यक्तिगत प्रभाव में अंतर आ जाता है।
5. ओपिनियन लीडर्स के व्यक्तिगत संचार की भूमिका तभी तक अधिक प्रभावी रहती है जब तक कोई संदेश जनसंचार के माध्यम से लोगों तक प्रभावी ढंग से नहीं पहुंंच जाता है। जब संदेश जनता में प्रभावी तरीके से पहुंच जाता है, उसके बाद व्यक्तिगत संवाद की भूमिका सीमित हो जाती है।
6. इसके विपरीत जनसंचार माध्यमों के अभाव वाले स्थानों पर ओपिनियन लीडर की एक ‘गेट कीपर’ के रूप में प्रमुख भूमिका होती है। वह सूचनाओं के प्रवाह को नियंत्रित एवं संतुलित करता है।
<
p style=”text-align: justify;”>संचार को बहुपद प्रवाह सिद्धांत : यह द्विपद सिद्धांत का इस अर्थ में विस्तार है कि ओपिनियन लीडर्स भी कुछ ऐसे लोगों से परामर्श करते हैं, जिन्हें वे ओपिनियन लीडर मानते हैं। इन ओपिनियन लीडर्स का प्रभाव एक तरफा न होकर बहुतरफा होता है। यह पाया जाता है कि अनेक बार जनमाध्यमों का प्रभाव केवल ऊपर या नीचे न होकर चारों ओर पड़ता है। क्योंकि लोग संचार माध्यमों के साथ ही ओपिनियन लीडर्स के साथ भी अपनी अंर्तदृष्टि और विचारों को बांटते हैं।
उदाहरण के लिये कई बार सूचनायें जनसमूह के पास प्रत्यक्ष तौर पर पहुंच जाती हैं, जबकि कई बार अप्रत्यक्ष रूप से कई ओपिनियन लीडर्स के स्तरों से घट-बढ़ कर पहुंचती हैं, जिससे आखिरी श्रोता तक पहुंचने तक उसके अर्थ ही बदल जाते हैं।
इस प्रकार किसी संदेश के कई प्रसारण बिंदु बन जाते हैं, और पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि कोई संदेश एक श्रोत से सीधी रेखा में किसी संचार माध्यम से संचारित होता है। यह सिद्धांत सुझाव देता है कि संचार की प्रक्रिया में कोई संदेश अनेक संचार माध्यमों से संचारित और अनेक स्तरों पर ग्रहण किया जा सकता है।
<
p style=”text-align: justify;”>संचार के चरण निम्न पर निर्भर करते हैं:-
1. श्रोत के उद्देश्य
2. जनसंचार माध्यम की उपलब्धता
3. संचार माध्यमों की पहुंच में मौजूद श्रोताओं की संख्या
4. संदेश की प्रकृति और
5. श्रोताओं के लिये संदेश का महत्व
इस प्रकार बहुपद प्रवाद सिद्धांत की उपयोगिता इसलिये अधिक है कि यह शोधकर्ताओं को संचार की अनेकों स्थितियों में होने वाले संचार का अध्ययन करने में सहयोग करता है।
यह भी ध्यान रखने की बात है कि संचार के दोनों, द्विपद और बहुपद सिद्धांत स्पष्ट तौर पर जनसंचार माध्यमों के जनसमूह पर पड़ने वाले प्रभावों या जनसंचार माध्यमों के योगदान को, सामान्यतया बहुआयामी और बेहद जटिल बाहरी कारणों से प्रभावित होने, व्यक्तिगत प्रभावों और आपसी सामाजिक संबंधों की वजह से अस्वीकार करते हैं।
संचार के अधिनायकवादी, उदारवादी, सामाजिक उत्तरदायित्व युक्त और सोवियत कम्युनिस्ट सिद्धांत
<
p style=”text-align: justify;”>1956 में संचारविद् फ्रेड साइबर्ट थिओडोर पीटरसन और विल्बर श्रैम ने अपनी पुस्तक ‘फॉर थ्योरीज ऑफ प्रेस’ में वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विविधताओं को ध्यान में रखते हुए अधिनायकवादी, उदारवादी, सामाजिक उत्तरदायित्व युक्त और सोवियत कम्युनिस्ट सिद्धांतों युक्त मीडिया सिद्धांतों के जरिए विभिन्न देशों की राजनीतिक व्यवस्था में मीडिया की कार्यप्रणाली और इसकी भूमिका के बारे में बताया। साथ ही मीडिया को प्रभावित करने वाले कारकों की चर्चा की। इन सिद्धांतों के अस्तित्व में आने के 27 वर्षों बाद 1983 में संचारविद डेनिस मेक्वेल ने वैश्विक पटल के समक्ष दो अन्य मीडिया सिद्धांत-विकास संचार और लोकतांत्रिक सहभागिता सामने रखे । इन सिद्धांतों के प्रतिपादन की खास वजह विश्व की बदलती परिस्थितियां रहीं।
ब्रिटेन की ‘द इकनोमिस्ट’ मैगजीन ने विश्व के 167 देशों में सर्वे किया और अपने रिपोर्ट में यह बताया कि उत्तरी कोरिया इरीट्रिया, इक्वेटोरियल गुएना, तुर्कमेनिस्तान, बहरीन, ब्रूनेई, बर्मा, बुरूंडी, कांगो, इथियोपिया, गाम्बिया, जॉर्डन, कजाकिस्तान, ओमान, रूस, रवांडा, सोमालिया, सूडान, सीरिया, स्वाजीलैंड, ताजिकिस्तान, यमन, वियतनाम, लीबिया, क्यूबा, ब्राजील, चिली, अर्जेंटीना, उजबेकिस्तान, सीरिया, बेलारूस, आर्मेनिया, बहरीन, कंबोडिया, इरान, लाओस, सउदी अरब, तुर्की, वियतनाम, अफगानिस्तान, अल्जीरिया, अंगोला, चीन, पाकिस्तान और जिम्बाब्वे आदि करीब 55 देशों में अधिनायकवाद फल-फूल रहा है, और यहां मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करता रहा है। इन देशों की राजनीतिक व्यवस्था ने हमेशा नागरिक और मीडिया स्वतंत्रता को ताक पर रखा है। मीडिया यहां कठपुतली मात्र है। यहां मीडिया संदेशों की निगरानी के लिए सेंसरशिप और प्री सेंसरशिप सिस्टम लागू है, और मीडिया के लिए राज्य के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना ही पहला और अंतिम विकल्प है। ऐसा न करने की स्थिति में मीडिया को कठोर कार्रवाई का सामना करना पड़ता है।
इस अधिनायकवाद का ही एक अन्य स्वरूप ‘सोवियत कम्युनिस्ट मीडिया सिस्टम’ 1917 की रूसी क्रांति के बाद उभरा, जो मार्क्स, स्टालिन, लेनिन व एंजेल की विचाराधारा से प्रेरित रहा। लेनिन ने जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए मीडिया को सबसे बडा हथियार माना और साफ संदेश दिया कि मीडिया को हमेशा राज्य के साथ मिलकर समाज की सेवा करनी चाहिए। इस प्रकार कम्युनिस्टों ने मीडिया पर अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण कर लिया। यह राजनीतिक व्यवस्था काफी हद तक अधिनायकवाद तंत्र से ही प्रभावित रही, जहां राज्य के खिलाफ कुछ लिखने-बोलने की स्वतंत्रता नहीं थी। रूस, चीन, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, क्यूबा और चिली जैसे देश इसी ‘कम्युनिस्ट मीडिया सिस्टम’ से ही प्रभावित हैं। यहां मीडिया हमेशा भय के साए में काम करता है। इन देशों में भी सेंसरशिप और प्री सेंसरशिप सिस्टम लागू है और कडे़ दंडात्मक प्रावधान किए गए हैं।
आगे 20वीं शताब्दी की शुरुआत में विश्व के कई देशों ने इस मुददे पर चर्चा शुरू करने और यह तय करने का प्रयास किया कि मीडिया के लिए वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन। इसके मददेनजर 1923 में ‘अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूजपेपर एडिटर्स’ ने मीडिया के सामाजिक उत्तरदायित्व पर विस्तार से चर्चा की और मीडिया की आचार संहिता से जुडे कुछ बिंदुओं को सामने रखा। इसके तहत मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देते हुए जिम्मेदार, यथार्थपरक, निष्पक्ष और संतुलित बनाने का प्रयास किया गया।
इस दिशा में मजबूत पहल करते हुए 1947 में गठित ब्रिटेन की ‘रॉयल कमीशन’ ने इसी वर्ष अपनी रिपोर्ट में प्रेस काउंसिल की सिफारिश करते हुए मीडिया के स्वनियमन पर जोर दिया। कमीशन ने कहा कि प्रेस काउंसिल एक वाचडॉग की तरह मीडिया को अपनी जिम्मदारियों का समय समय पर अहसास कराएगी। 1947 में ही अमेरिका के ‘हचिंस कमीशन’ (जिसे आधिकारिक तौर पर ‘कमीशन ऑन फ्रीडम ऑफ प्रेस’ के नाम से भी जाना जाता है) ने अपनी रिपोर्ट में समाज के प्रति मीडिया की भूमिका को अति महत्वपूर्ण माना और आचार संहिता को ध्यान में रखते हुए समाज तक संदेश पहुंचाने का निर्देश दिया। विश्व के कई लोकतांत्रिक देशों ने इन रिपोर्टों को अपनी व्यवस्था में जगह दी।
इन चार सिद्धांतों पर ब्रिटेन की ‘द इकनोमिस्ट’ की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, चेक रिपब्लिक, आयरलैंड, दक्षिणी कोरिया, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, स्वीडेन, स्पेन, जापान, आयरलैंड, आइसलैंड, स्विटजरलैंड, अमेरिका, जर्मनी, फिनलैंड, कोस्टा रिका, कनाडा, ब्रिटेन, बेल्जियम और उरूग्वे आदि 24 देश पूरी तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित हैं। इसी रिपोर्ट में एंटीगुआ, अर्जेंटीना, बेनिन, बोत्सवाना, साइप्रस, डोमिनिका, डोमिनिकन रिपब्लिक, ईस्ट तिमोर, अल सल्वाडोर, एस्टोनिया, फ्रांस, घाना, ग्रीस, गुएना, हांगकांग, हंगरी, भारत, इंडोनेशिया, इजराइल, इटली, जमैका, किरीबाती, लातविया, लेसोथो, लिथुआनिया, मैसेडोनिया, मालावी, मलेशिया, मेक्सिको, मोल्दोवा, मोनेको, मंगोलिया, नामीबिया, पनामा, पापुआ न्यू गिनी, पराग्वे, पेरू, कोलंबिया, चिली, फिलीपींस, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, सेंट लुसिया, दक्षिण अफ्रीका, ताइवान और सुरीनाम आदि करीब 54 देशों को ‘दोषपूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था’ की श्रेणी में रखा गया है।
द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले विकसित हुई इन राजनीतिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए विल्बर श्रैम, फ्रेड साइबर्ट और थिओडोर पीटरसन ने मीडिया सिद्धांतों की विस्तार से चर्चा की, लेकिन इसके बाद वैश्विक परिदृश्य काफी बदल गया। औपनिवेशिक दासता से मुक्त हुए एशिया और अफ्रीका के कई देश सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर जीर्ण-शीर्ण हो चुके थे। इनकी अर्थव्यवस्था कुपोषण का शिकार थी। इनका मुख्य लक्ष्य एक विकसित व्यवस्था तैयार करना था और इसमें मीडिया की भूमिका क्या हो, इस पर संचारविद डेनिस मेक्वेल ने चर्चा करते हुए कुछ नए सिद्धांत प्रतिपादित किए।
<
p style=”text-align: justify;”>मेक्वेल ने विकासशील और अर्धविकसित देशों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए मीडिया की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया और विकास संचार की पुरजोर वकालत की, जो देश की आंतरिक स्थिति को मजबूती प्रदान कर सके। संचारविद डेनियल लर्नर और विल्बर श्रैम ने भी यह पहलू सामने रखा कि इन देशों की स्थिति में सुधार लाने के लिए लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना जरूरी है। उन्हें विकास के लिए प्रेरित करना होगा, जो मीडिया के माध्यम से किया जा सकता है।
1980 में यूनेस्को के प्रयास से गठित ‘मैकब्राइड कमीशन’ ने अंतराष्ट्रीय मीडिया की स्थितियों से रूबरू करवाते हुए बताया कि वैश्विक स्तर पर मीडिया संदेशों का प्रवाह असंतुलित और एकतरफा है, जो पश्चिमी विकसित देशों से होकर पूर्वी विकासशील व अर्धविकसित देशों तक आता है, और उनकी सही तस्वीर पेश नहीं करता। लिहाजा, कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में अंतराष्ट्रीय मीडिया के लोकतंत्रीकरण पर बल दिया। यूनेस्को की इस रिपोर्ट का कई विकसित देशों ने बहिष्कार किया। वहीं, कई संचारविदों ने इसे सही ठहराते हुए माना कि विकसित देशों की कभी यह मंशा नहीं रही कि उनके समक्ष कोई नया साधन संपन्न देश खड़ा हो, क्योंकि यह उनके वर्चस्व को चुनौती दे। इसलिए इन देशों ने वैश्विक स्तर पर इन देशों की गलत तस्वीर पेश कर उनमें घुसने की कोशिश की। इस प्रकार सूचना साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का नया दौर शुरू हुआ, जिसमें कमजोर देशों के सूचना तंत्र और संस्कृति पर प्रहार किया गया।
मेक्वेल ने इस स्थितियों से बचने के लिए लिए विकसित देशों की मीडिया के समक्ष एक वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने का सुझाव दिया, जो इनके प्रोपेगंडा को समझ सके और उसकी काट खोज सके। उन्होंने कहा कि इन देशों को अपनी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को मजबूत करना होगा, जिसमें मीडिया काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके साथ ही उन्होंने अपने लोकतांत्रिक सहभागिता सिद्धांत में मैकब्राइड कमीशन की रिपोर्ट से मिलती जुलती व्यवस्था का पुरजोर समर्थन किया। उन्होंने मीडिया के लोकतंत्रीकरण और विकेंद्रीकरण पर जोर देते हुए कहा कि विकास के लिए लोकतांत्रिक सहभागिता जरूरी है। उन्होंने कहा कि हर देश विविधताओं से भरा है और इसके सही प्रतिनिधित्व के लिए विभिन्न स्तरों पर लोगों के समूह द्वारा मीडिया का संचालन किया जाना चाहिए, ताकि किसी क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों से सही तरीके से रूबरू होकर विकास के लिए कदम उठाया जा सके। इस प्रकार मीडिया केंद्रीकरण का खतरा भी कम हो जाएगा।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया:
<
p style=”text-align: justify;”>संचारविद मैक्स मैककाम्ब और डोनाल्ड शॉ ने एजेंडा सेटिंग सिद्धांत के जरिए किसी राजनीतिक व्यवस्था में तीन प्रकार के एजेंडे का जिक्र किया। इनमें पब्लिक एजेंडा, मीडिया एजेंडा और पॉलिसी एजेंडा शामिल हैं। एक आदर्श स्थिति में पब्लिक एजेंडा लोगों की विभिन्न परिस्थितियों से जुड़ा हैं, जिसे वह मीडिया एजेंडे के जरिए राज्य तक पहुंचाना चाहते हैं, ताकि उसे राज्य की पॉलिसी में शामिल किया जा सके। वहीं, मीडिया एजेंडा लोगों के मुद्दों को राज्य तक पहुंचाने का एक माध्यम है, जो राज्य का ध्यान उस ओर आकर्षित करता है। जबकि पॉलिसी एजेंडा राज्य द्वारा तय किया जाता है, जो पब्लिक को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए, लेकिन इन तीनों एजेंडों में तालमेल व्यावहारिकता के धरातल पर कम ही दिखाई पड़ता है। ज्यादातर मीडिया और राज्य के पॉलिसी एजेंडे एक साथ काम करते हैं, और पब्लिक एजेंडा हाशिए पर चला जाता है। लेकिन जहां इन तीनों में तालमेल कभी हो पाता है, वहां समाज, मीडिया और राज्य अपने अधिकारों का भरपूर दोहन करते हुए सुखद स्थिति में होते हैं। ऐसी स्थितियां विश्व के फिनलैंड, स्वीडन, नीदरलैंड, नार्वे, डेनमार्क, आस्ट्रेलिया, कनाडा, लक्जमबर्ग, स्विटजरलैंड, आयरलैंड, न्यूजीलैंड और आस्ट्रिया जैसे देशों की ऐसी पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में देखने को मिलती है, जहां मीडिया को अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता होती है। इसकी खास बात यह है कि उस व्यवस्था के सबल और दुर्बल पक्षों को सामने रखने के लिए मीडिया स्वतंत्र होती है, और लोकहित तीनों एजेंडों में सर्वप्रमुख होता है। यहां का उदारवादी मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करता है।
लेकिन दुनिया में कई ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं भी हैं, जहां खामियां हैं। किंतु यहां भी मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन यह उदारवादी, सामाजिक उत्तरदायित्व, विकास संचार और लोकतांत्रिक सहभागिता के घालमेल से होते हुए लोगों तक पहुंचता है। परिपक्वता के अभाव के कारण कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है, जब मीडिया और समाज को अराजक स्थिति का सामना करना पड़ता है। यहां इन तीनों एजेंडों में तालमेल का घोर अभाव दिखता है। कई मौकों पर राज्य और मीडिया एजेंडा एक साथ होकर व्यवस्था का संचालन करते हैं, जबकि कुछ मौकों पर पब्लिक के लामबंद होने पर मीडिया अपना एजेंडा बदलकर उनके साथ हो लेता है। इन सभी खामियों के बावजूद यहां की व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश है और यह अधिनायकवाद की स्थिति से काफी बेहतर है।
इससे इतर उत्तरी कोरिया, इक्वेटोरियल गुएना, इरीट्रिया, सेंट्रल अफ्रीका रिपब्लिक, चाड, टोगो, म्यांमार, सउदी अरब, गुएना, क्यूबा, सीरिया, लाओस, सूडान, विएतनाम, चिली और अर्जेंटीना जैसे कई देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं होता है। यहां की राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरह अधिनायकवाद या फिर कम्युनिस्ट व्यवस्था से प्रभावित होती है। यहां मीडिया के लिए राज्य का एजेंडा पहला और अंतिम विकल्प होता है, और यहां किसी भी स्थिति में राज्य के एजेंडे को चुनौती नहीं दी जा सकती है।
इससे यह स्पष्ट है कि मीडिया का विकास और उसकी भूमिका मुख्य रूप से विशुद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में निखरकर सामने आती है और एक सफल लोकतंत्र के लिए मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बेहद जरूरी है।
प्रश्नावली
<
p style=”text-align: justify;”>किसी शोध कार्य में शोध अध्ययन समस्या का समाधान निकालने के लिए प्राथमिक आंकड़ों का संग्रहण एक बेहद महत्वपूर्ण, वरन यह भी कहा जा सकता है कि सर्वाधित महत्वपूर्ण कार्य होता है। इसके बिना किसी सर्वेक्षण शोध की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
आंकड़ों का संग्रहण करने के लिए अलग-अलग प्रकार की शोध समस्याओं के समाधान के लिए, उनकी प्रकृति के अनुरूप अनेक आंकड़े संग्रहण तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। इनमें प्रमुख हैं :-
1. प्रश्नावली तकनीक
2. अवलोकन तकनीक
3. साक्षात्कार तकनीक
4. संबंधित विषय के साहित्य-ग्रंथों का अध्ययन
किसी शोध अध्ययन में सर्वेक्षण शोध विधि के अंतर्गत प्राथमिक आंकड़े एकत्र करने के लिए एक उपकरण के रूप में प्रश्नावली का प्रयोग प्रमुख रूप से किया जाता है। इस प्रविधि के अंतर्गत शोधार्थी के द्वारा अपनी शोध अध्ययन समस्या के पूरे समग्र और समग्र के क्षमता से अधिक बड़े होने की स्थिति में तय नमूनों में शामिल लोगों से प्रश्न पूछकर, प्राप्त उत्तरों के जरिए तथ्य एकत्र किए जाते हैं।
प्रश्नावली की तकनीक :
शोध समस्या का समाधान खोजने के लिए सर्वेक्षण विधि के अंतर्गत प्राथमिक आंकड़ों एवं तथ्यों का संग्रहण करने के लिए कई तकनीकें प्रयोग की जाती हैं। इन मूलभूत आंकड़ों को एकत्रित करने की तकनीकों में प्रश्नावली तकनीक का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। इस तकनीक के तहत शोधार्थी शोध अध्ययन से संबंधित लोगों को डाक से प्रश्नवाली भेजकर प्रश्न पूछते और तथ्य एकत्र करते हैं।
परिभाषाएं :
<
p style=”text-align: justify;”>सामान्यतया ‘प्रश्नावली’ शब्द प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने की उस प्रणाली को कहते हैं, जिसमें स्वयं उत्तरदाता द्वारा भरे जाने वाले पत्रक का प्रयोग किया जाता है।
1. बुश एवं हार्टर का मत है कि – ‘प्रश्नावली प्राय: सर्वेक्षण में प्राथमिक आंकड़ा संग्रहण उपकरणों के रूप में प्रयुक्त की जाती है।’
2. कृष्ण कुमार के अनुसार- ‘प्रश्नावली एक लिखित प्रलेख है, जिसमें अध्ययन किए जा रहे समस्या से संबंधित प्रश्नों, जिनका कि शोधार्थी उत्तर प्राप्त करना चाहता है, की श्रृंखला की सूची होती है।’
3. गुडे एवं हट्ट के अनुसार- ‘प्रश्नावली प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने की एक प्रकार की विधि है, जिसमें एक प्रपत्र का उपयोग किया जाता है, जिसकी पूर्ति स्वयं उत्तरदाता करता है।’
4. जॉर्ज ए लुण्डबर्ग के अनुसार- ‘मूलत: प्रश्नावली प्रेरणाओं का एक समूह है, जिसे शिक्षित लोेगों के सम्मुख, उन प्रेरणाओं के अंतर्गत उनके मौखिक व्यवहारों का अवलोकन करने के लिए प्रस्तुत किया जाता है।
5. विलसन गी के अनुसार- ‘यह (प्रश्नावली) बड़ी संख्या में लोगों से अथवा छोटे चुने हुए एक समूह से जो विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है, सीमित मात्रा में सूचना प्राप्त करने की एक सुविधाजनक प्रणाली है।’
6. ई. बोगार्ड्स के अनुसार- ‘प्रश्नावली विभिन्न व्यक्तियों को उत्तर देने के लिए दी गई प्रश्नों की एक तालिका है।’
7. एफ .एन.कर्लिजर के अनुसार- ‘प्रश्नावली का अभिप्राय किसी भी ऐसे उपकरण से है, जिसके अंतर्गत प्रश्न अथवा मद पाये जाते हैं, तथा जिनका उत्तर व्यक्ति प्रदान करते हैं, किंतु ‘प्रश्नावली’ शब्द मुख्यत: स्वप्रशासित उपकरणों से संबंधित है, जिसके अंतर्गत प्राय: बंद अथवा निश्चित विकल्प प्रकार के मद पाये जाते हैं।’
8. सिन पाओ यंग लिखते हैं कि – ‘अपने सरलतम रूप में प्रश्नावली प्रश्नों की एक ऐसी अनुसूची है, जिसे सर्वेक्षण हेतु प्रदान किए गए प्रतिचयन से संबंधित व्यक्तियों के पास डाक द्वारा भेजा जाता है।’
इस प्रकार प्रश्नावली आंकड़े एकत्रित करने की ऐसी विधि है, जिसमें अनुसंधानकर्ता व उत्तरदाता के मध्य कोई प्रत्यक्ष संपर्क नहीं होता है। अनुसंधानकर्ता प्रश्नावली को सामान्यतया डाक से, अथवा वर्तमान में ई-मेल या सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों से उत्तरदाता को भेजता है, और उत्तरदाता स्वयं प्रश्नावली में निहित प्रश्नों को समझकर उनके प्रत्युत्तरों को भर कर अनुसंधानकर्ता को लौटाता है। प्रश्नावली का प्रयोग विशेषकर ऐसे अनुसंधानों में किया जाता है, जिनमें विस्तृत भौगोलिक क्षेत्रों में फैले उत्तरदाताओं से बड़ी संख्या में परिमापनीय एवं योगात्मक आंकड़ों की आवश्यकता होती है।
<
p style=”text-align: justify;”>प्रश्नावली के प्रकार:
प्रश्नावलियां अनेक प्रकार की होती हैं। लुण्डबर्ग ने प्रश्नावली के दो मुख्य प्रकार बताए हैं।
1. तथ्य संबंधी प्रश्नावली तथा
2. मत और मनोवृत्ति संबंधी प्रश्नावली।
यानी प्रथम प्रकार की प्रश्नावली से सामाजिक व आर्थिक दशाओं से संबंधित तथ्य एवं दूसरी प्रकार की प्रश्नावली से उत्तरदाताओं की रुचियों, विचारों और मनोवृत्तियों को जाना जाता है।
<
p style=”text-align: justify;”>वहीं पीवी यंग ने प्रश्नावली को दो अलग प्रकार से विभाजित किया है :-
1. संरचित प्रश्नावली
2. असंरचित प्रश्नावली
<
p style=”text-align: justify;”>संरचित प्रश्नावली : संरचित प्रश्नावली उस प्रश्नावली को कहते हैं जिसमें संरचना निश्चित एवं पूर्व निर्धारित प्रश्नों के द्वारा की जाती है। इस प्रकार की प्रश्नावली का निर्माण शोध अध्ययन करने से पूर्व ही कर लिया जाता है। इस तरह की प्रश्नावली में चूंकि प्रश्न पूर्व निर्धारित होते हैं, लेकिन यदि अध्ययन के दौरान शोधार्थी को लगता है कि किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता है, तो वह सामान्यतया नहीं, किंतु विशेष परिस्थितियों में अतिरिक्त प्रश्न जोड़ सकता है।
पीवी यंग ने इस प्रकार की प्रश्नावली में जरूरत पड़ने पर अतिरिक्त प्रश्नों को जोड़ने की बात भी कही है। संभवतया इसी आधार पर जहोदा एवं कुक ने इस प्रकार की प्रश्नावली को ‘मानक प्रश्नावली’ का नाम भी दिया है।
इस तरह की प्रश्नावली बनाने में इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि प्रश्न अस्पष्ट अथवा अनेकार्थक ना हों, वरन छोटे व सीधे अपनी बात कहने वाले हों।
उदाहरण के लिए नाम, उम्र, वैवाहिक स्थिति, बच्चों की संख्या आदि पूछे जाने वाले प्रश्न संरचित एवं सीधे प्रश्न की श्रेणी में आते हैं।
<
p style=”text-align: justify;”>असंरचित प्रश्नावली : असंरचित प्रश्नावली में केवल शीर्षक या उपशीर्षकों का उल्लेख किया जाता है। ऐसी प्रश्नावली में उत्तरदाता अपनी इच्छानुसार उत्तर लिख सकता है। इस तरह की प्रश्नावली का प्रयोग मुख्यतया साक्षात्कारों में किया जाता है। यानी इस तरह की प्रश्नावली की बड़ी विशेषता इसमें लचीलापन का होना है। लेकिन इसी से इसका दोष भी प्रकट होता है कि इसके प्राप्त मनमाने उत्तरों का सारणीयन करना मुश्किल होता है।
कैंट के अनुसार ‘असंरचित प्रश्नावली वह होती है जिसमें कुछ निश्चित विषय क्षेत्रों का समावेश होता है, और जिनके बारे में साक्षात्कार के दौरान ही सूचना प्राप्त करनी होती है, लेकिन इस प्रणाली में प्रश्नों के स्वरूप और उनके क्रम का निर्धारण करने में अनुसंधानकर्ता को काफी स्वतंत्रता प्राप्त होती है।’
इस प्रकार की प्रश्नावली तभी लाभदायक होती है, जब अध्ययन का क्षेत्र सीमित हो, तथा प्रत्येक उत्तरदाता से संपर्क करना संभव हो। इसके बाद भी कई विद्वान असंरचित प्रश्नावली को प्रश्नावली के बजाय साक्षात्कार विधि के आधार के रूप में मानते हैं। क्योंकि इसमें साक्षात्कार की बात भी कही जाती है, और प्रश्नावली में साक्षात्कार का कोई स्थान नहीं होता, इसलिए अनेक विद्वान पीवी यंग के इसे प्रश्नावली का एक प्रकार बताने से सहमत नहीं होते।
<
p style=”text-align: justify;”>इसके अलावा प्रश्नावली को प्रश्नों की प्रकृति के आधार पर निम्न प्रकार से भी विभाजित कर सकते हैं :-
1. सीमित प्रश्नावली
2. खुली प्रश्नावली
3. चित्रमय प्रश्नावली
4. मिश्रित प्रश्नावली
<
p style=”text-align: justify;”>सीमित या बंद प्रश्नावली :
सीमित प्रश्नावली के अंतर्गत प्रश्नों को इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है कि उत्तरदाता उनका उत्तर हां या नहीं अथवा सहमत या असहमत, अथवा सत्य या असत्य में ही दे सकता है।
इस तरह की प्रश्नावली का लाभ इससे प्राप्त उत्तरों के सारणीयन में मिलता है।
वहीं इसका नुकसान यह है कि उत्तरदाता की विस्तृत भावना उसके उत्तरों में नहीं आ पाती है। कई बार यदि उत्तरदाता का उत्तर सत्य और असत्य के बीच में अर्धसत्य सरीखा हो तो उसके पास अपनी पूरी कहने का विकल्प नहीं होता है।
कई बार सीमित प्रश्नावली के अंतर्गत बहुविकल्पीय प्रश्न भी पूछे जाते हैं। जैसे- आपके अध्ययन का उद्देश्य क्या है ?
क- ज्ञान प्राप्ति ख- मनोरंजन ग- दक्षता में वृद्धि घ- परीक्षा उत्तीर्ण करना ङ- ज्ञान में वृद्धि च- कौशल विकास छ- बेहतर भविष्य ज-अन्य कोई (स्पष्ट कीजिए)
इस प्रकार सीमित प्रश्नावली को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है।
<
p style=”text-align: justify;”>सीमित प्रश्नावली के लाभ :
1. आंकणों के संकेतीकरण, तालिकाकरण, सारणीयन एवं विश्लेषण में आसानी होती है।
2. उत्तरदाताओं के प्रश्नों की आसानी से तुलना की जा सकती है।
3. उत्तरों में भ्रम की संभावना नहीं रहती है।
4. उत्तरदाता को उत्तर देने में आसानी रहती है।
5. अधिक विश्वसनीय एवं लागत प्रभावी।
<
p style=”text-align: justify;”>सीमित प्रश्नावली के दोष :
1. उत्तरदाता अपने मन के उत्तर न होने पर हतोत्साहित हो सकता है, और कई बार दिए गए विकल्पों में से ही अपने मन के उत्तर को देने की कोशिश में भ्रमित होकर गलत उत्तर भी दे देता है।
2. गलत उत्तर मिल सकते हैं।
3. अधिक विकल्प होने से भी भ्रमित हो सकता है।
<
p style=”text-align: justify;”>खुली प्रश्नावली :
खुली प्रश्नावली उस प्रश्नावली को कहते हैं, जिसमें उत्तरदाता के समक्ष कोई विकल्प या शर्तें नहीं रखी जाती हैं, वरन उन्हें उत्तर देने के लिए पूरी स्वतंत्रता दी जाती है। इस प्रकार खुली प्रश्नावली एक तरह से असंरचित प्रकार की प्रश्नावली भी होती है। इस प्रश्नावली में प्रश्न लिखकर उत्तर देने के लिए खाली स्थान छोड़ दिया जाता है। उदाहरणार्थ:
प्रश्न: आपके विचार से आपके क्षेत्र की समस्याओं का समाधान क्या है ?
<
p style=”text-align: justify;”>खुली प्रश्नावली के लाभ :
1. उत्तरदाता अपनी भाषा और शब्दों में खुलकर उत्तर दे पाता है, जिससे शोधार्थी को विषय को गहराई से समझने, नई दिशाएं जानने के मौके मिलते हैं।
2. उत्तरदाता अपने कथन की पुष्टि में तर्क दे सकता है।
3. शोधार्थी को उत्तरदाता की मौलिक सोच व मत का पता चल जाता है।
<
p style=”text-align: justify;”>खुली प्रश्नावली के दोष :
1. खुली प्रश्नावली के उत्तर देने में कई बार उत्तरदाता विषय से भटक सकता है।
2. विषय से हटकर या औचित्यहीन उत्तर मिल सकते हैं।
3. उत्तरों में विश्वसनीयता का अभाव हो जाता है।
4. उत्तरदाता को उत्तर लिखने के लिए अधिक समय देना पड़ता है।
5. प्रश्नावली में काफी स्थान छोड़ना पड़ता है, इसलिए प्रश्नावली का प्रकाशन महंगा हो सकता है।
6. एक ही प्रश्न के अनेकों प्रकार के उत्तर मिलने से उनका सारणीयन करने से लेकर विश्लेषण करने तक कुछ भी आसान नहीं होता है।
7. केवल उच्च शिक्षित व्यक्तियों को ही खुली प्रश्नावली दी जा सकती है।
<
p style=”text-align: justify;”>चित्रमय प्रश्नावली
चित्रमय प्रश्नावली में चित्रों के उत्तर प्राप्त करने के लिए चित्रों एवं प्रतीकों का उपयोग किया जाता है। इस प्रश्नावली का उपयोग छोटे बच्चों अथवा अल्प शिक्षित एवं कम बुद्धिमान वर्ग के लोगों से उत्तर प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
<
p style=”text-align: justify;”>मिश्रित प्रश्नावली
मिश्रित प्रश्नावली से आशय एक ऐसी प्रश्नावली से है, जिसमें संरचित, असंरचित, सीमित, असीमित या खुली तथा चित्रमय आदि सभी प्रकार के प्रश्न रखे जाते हैं।
<
p style=”text-align: justify;”>वहीं मैककोरनम ने प्रश्नावली को निम्न तीन भागों में श्रेणीबद्ध किया है :
1. मेल प्रश्नावली
2. समूह प्रशासित प्रश्नावली
3. व्यक्तिगत संपर्क प्रश्नावली
<
p style=”text-align: justify;”>मेल प्रश्नावली
इस तरह की प्रश्नावली का प्रयोग डिजिटल फॉर्मेट में यानी कागज के बजाय कम्प्यूटर पर माइक्रोसॉफ्ट वर्ड, नोट पैड या वर्डपैड अथवा कागज पर तैयार प्रश्नावली को स्कैन कर चित्र रूप आदि के रूप में तैयार कर ईमेल के रूप में उत्तरदाताओं को भेजी जाती हैं। और उत्तरदाता भी इन्हें उचित तरीके से भर कर ईमेल के माध्यम से ही वापस शोध कर्ता को भेज देते हैं।
शुरुआती चरण में डाक से भौगोलिक रूप से दूर मौजूद उत्तरदाताओं को डाक के माध्यम से भेजी जाने वाली प्रश्नावलियों को भी मेल प्रश्नावली कहा जाता रहा है।
<
p style=”text-align: justify;”>डाक से भेजी जाने वाली प्रश्नावली में शोधार्थी को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :
1. प्रश्नावली के ऊपर सहयोग हेतु आग्रह संबंधी एक पत्र होना चाहिए। इस पत्र में शोध का प्रयोजन, शोध का शीर्षक, शोध के उद्देश्य, शोधार्थी द्वारा प्राप्त उत्तरों की गोपनीयता का वचन, उत्तर देने के लिए यदि कोई हों तो दिशा-निर्देश उत्तरदाता के सहयोग के प्रति धन्यवाद ज्ञापन लिखा होना चाहिए।
2. पत्र में प्रश्नावली भरकर वापस करने के लिए समय का उल्लेख भी कर देना चाहिए। यह अवधि दो से चार सप्ताह के बीच हो सकती है।
3. प्रश्नावली को वापस लौटाने के लिए शोधार्थी को अपना पता लिखा लिफाफा डाक टिकट लगाकर प्रश्नावली के साथ संलग्न करना चाहिए।
<
p style=”text-align: justify;”>मेल प्रश्नावली के लाभ :
1. कम लागत। शोधार्थी को उत्तर दाता के पास स्वयं किराया, समय आदि खर्च कर पहुंचने के धन व परेशानी से मुक्ति मिल जाती है।
2. सुदूर क्षेत्र से भी जानकारी/उत्तर प्राप्त किए जा सकते हैं।
3. शोधार्थी घर बैठे ही सूचना/उत्तर प्राप्त कर सकता है।
4. विस्तृत क्षेत्र का अध्ययन संभव।
5. उत्तरदाता अपनी सुविधा अनुसार पूरा समय लेकर उत्तर लिख पाता है।
<
p style=”text-align: justify;”>मेल प्रश्नावली के दोष :
1. कई बार उत्तरदाता आलस्य में अथवा अब-तब के चक्कर में उत्तर समय से नहीं दे पाता है। इसलिए प्रश्नावलियों की उत्तर की दर कम होती है।
2. कई बार उत्तरदाता को कई प्रश्न समय में नहीं आते हैं। वह ऐसे प्रश्नों को खाली छोड़ देता है।
3. ऐसे में अधूरे उत्तर प्राप्त होने की स्थिति में विश्लेषण में समस्या आती है।
4. प्रश्नावलियां समय से वापस नहीं लौट पाती हैं।
5. उत्तरदाता द्वारा प्रश्नावली में भरकर भेजी गई जानकारी की पुष्टि संभव नहीं होती है।
<
p style=”text-align: justify;”>समूह प्रशासित प्रश्नावली
इस तरह की प्रश्नावली में उत्तरदाता एक स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं और प्रश्नावली के उत्तर लिखते हैं। इस प्रश्नावली का उपयोग शिक्षकों के द्वारा शोध प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
<
p style=”text-align: justify;”>व्यक्तिगत संपर्क प्रश्नावली :
व्यक्तिगत संपर्क प्रश्नावली में शोधार्थी और उत्तरदाता आपस में मिलते हैं और शोधार्थी की उपस्थिति में ही प्रश्नों का उत्तर उत्तरदाता लिखता है। इसका लाभ यह है कि जहां भी स्पष्टीकरण की जरूरत या कोई शंका होती है, उसका मिलकर समाधान निकाला जा सकता है।
<
p style=”text-align: justify;”>ऑनलाइन प्रश्नावली :
ऑनलाइन प्रश्नावली आधुनिक तकनीक से युक्त ऐसी प्रश्नावली है, जो आधुनिक सॉफ्टवेयरों के माध्यम से बनाई जाती है। इसे इंटरनेट के ई-मेल के साथ ही शोधकर्ता द्वारा अपनी वेबसाइट अथवा सोशल मीडिया के अनेक अन्य माध्यमों के जरिए उत्तरदाताओं तक भेजा जाता है। उत्तरदाता अपने कम्प्यूटर पर इंटरनेट के माध्यम से इसे प्राप्त करते हैं, तथा प्रश्नों के उत्तर देकर ऑनलाइन यानी इंटरनेट के माध्यम से ही इसे शोधकर्ता को वापस लौटा देते हैं।
ऑनलाइन प्रश्नावली में यह सुविधा भी होती है कि इस माध्यम से प्राप्त उत्तरों का सारणीयन, विश्लेषण आदि भी कम्प्यूटर पर मिनटों में, बेहद शीघ्रता एवं आसानी से किया जा सकता है। इस प्रकार ऑनलाइन प्रश्नावलियों का प्रयोग आज के दौर में लगातार बढ़ता जा रहा है, और पसंद भी किया जा रहा है।
इस प्रकार की प्रश्नावली में हर तरह के प्रश्न-सीमित, असीमित, चित्रमय, संरचित, असंरचित आदि भी शामिल किए जा सकते हैं।
इस प्रकार की प्रश्नावली को प्रयोग करने में एक ही बड़ी समस्या यह हो सकती है कि इसका प्रयोग केवल ऑनलाइन उपलब्ध होने वाले आधुनिक उत्तरदाताओं में ही किया जा सकता है। इंटरनेट, कम्प्यूटर आदि की सुविधा विहीन उत्तरदाताओं के लिए इस प्रकार की प्रश्नावली का कोई अर्थ नहीं है।
<
p style=”text-align: justify;”>ऑनलाइन प्रश्नावली में ध्यान देने योग्य बातें :
1. अपनी अथवा किसी संस्था की वेबसाइट या सोशल साइट में सार्वजनिक तौर पर रखी गई ऑनलाइन प्रश्नावली का उत्तर कोई भी दे सकता है। इससे शोध की गुणवत्ता में फर्क पड़ सकता है। इस परेशानी से बचने के लिए प्रश्नावली को पासवर्ड युक्त बनाया जा सकता है, तथा जिन उत्तरदाताओं से प्रश्नावली भरवानी हो, उनका परीक्षण कर उसे पासवर्ड देकर प्रश्नावली भरवाई जा सकती है।
2. ई-मेल के जरिए प्रश्नावली को भेजने एवं वापस मंगाने के लिए शोधकर्ता के पास उत्तरदाता का तथा उत्तरदाता के पास शोधकर्ता का ई-मेल पता होना चाहिए। शोध कर्ता को यह दोनों स्तरों पर सुनिश्चित करना चाहिए।
3. प्रश्नावली को भरने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश पूर्व में ही दे दिए जाने चाहिए।
4. यदि प्रश्नावली सीमित लोगों से ही भरवानी हो तो आईडी या पासवर्ड अवश्य दिया जाए।
5. यदि संभव हो तो प्रश्नों के संभावित उत्तर विकल्पों के रूप में उत्तर दाता को उपलब्ध कराए जा सकते हैं, ताकि वह उत्तर देते हुए भ्रमित न हो और अपेक्षित उत्तर दे।
6. प्रश्नावली आकर्षक हो, परंतु भड़कीली नहीं होनी चाहिए।
7. प्रश्नावली का डिजाइन और निर्माण इस तरह से होना चाहिए कि रंग व फॉन्ट आदि में समानता हो।
8. प्रश्न और भरे जाने वाले स्थान का रंग अलग-अलग होना चाहिए, साथ ही पाठ्य सामग्री के रंग और पृष्ठभूमि के रंग में पर्याप्त वैषम्यता होना चाहिए। सामान्यतया पाठ्य सामग्री के लिए नीले रंग का प्रयोग अच्छा रहता है।
9. प्रश्नावली में कई फॉन्टों के प्रयोग से बचना चाहिए, तथा फॉन्टों का आकार पढ़ने योग्य, सरल व स्पष्ट होना चाहिए, भ्रमित करने वाले फॉन्टों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
10. यदि प्रश्नावली बच्चों या वृद्धों से भरवानी हो तो फॉन्ट का आकार बड़ा रखना चाहिए।
11. प्रश्नावली में चित्रों व प्रतिबिम्बों तथा एनीमेशन आदि का उपयोग कम करना चाहिए, क्योंकि इससे प्रश्नावली को डाउनलोड करने में कठिनाई आती है, तथा अधिक समय लगता है।
12. प्रश्नावली के लेखन में मानक भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।
13. प्रश्नावली बहुत बड़ी नहीं होनी चाहिए।
ऑनलाइन सॉफ्टवेयर टूल :
- http:\\www.infopoll.com
- http:\\www.surveywriter.com\homepage.html
- http:\\www.questionpro.com
<
p style=”text-align: justify;”>ऑनलाइन प्रश्नावली उपकरण – http:\www.videlicet.com
नि:शुल्क ऑनलाइन प्रश्नावली निर्माण के लिए – iit-it.enrc.gc
नि:शुल्क ऑनलाइन सर्वेक्षण के लिए-freeonlinesurvey.com
ऑनलाइन सर्वे सॉफ्टवेयर – http:\www.sawtoothsoftware.com
<
p style=”text-align: justify;”>प्रश्नावली के गुण और लाभ :
1. विशाल अध्ययन : इस पद्धति से बड़े भौगोलिक क्षेत्र में फैली विशाल जनसंख्या का सफलतापूर्वक अध्ययन किया जा सकता है।
2. कम व्यय : अधिक अनुसंधानकर्ताओं को नियुक्त करने की जरूरत नहीं पड़ती। अनुसंधानकर्ता के आवागमन का व्यय भी नहीं होता। केवल प्रश्नावलियों की छपाई और डाक खर्च का व्यय ही आता है।
3. सुविधाजनक : सूचनाएं कम समय में घर बैठे प्राप्त हो जाती हैं।
4. पुनरावृत्ति भी संभव : अलग-अलग समय अंतरालों पर बार-बार भी सूचनाएं प्राप्त की जा सकती हैं, और लोगों की बदली मनोवृत्ति का पता भी आसानी से लगाया जा सकता है।
5. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष सूचना : चूंकि उत्तरदाता अलग-अलग स्थानों पर होते हैं, और आपस में एक-दूसरे के विचारों से प्रभावित नहीं होते, इसलिए प्राप्त होने वाली सूचनाएं स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होती हैं।
6. विश्वसनीय एवं प्रमाणिक : चूंकि सूचना लिखित तरीके से आती हैं, और उन्हें जरूरत पड़ने पर कहीं सबूत के तौर पर पेश भी किया जा सकता है। उत्तरदाता भी सोच-समझकर लिखकर सूचनाएं भेजते हैं, इसलिए सूचनाएं विश्वसनीय और प्रमाणिक भी होती हैं।
<
p style=”text-align: justify;”>प्रश्नावली के दोष या सीमाएं :
1. प्रतिनिधित्वपूर्ण सेंपलिंग की संभावना नहीं : चूंकि प्रश्नावली का प्रयोग केवल शिक्षित व्यक्तियों से तथ्य संकलित करने के लिए ही किया जा सकता है, इसलिए इसके माध्यम से प्रतिनिधित्वपूर्ण सेंपलिंग की संभावना नहीं होती है।
2. गहन अध्ययन के लिए अनुपयुक्त : प्रश्नावली से केवल मोटे-मोटे तथ्यों को ही संकलित किया जा सकता है, प्रश्नों की गहराई तक नहीं पहुंचा जा सकता है। इससे बेहतर साक्षात्कार की पद्धति से उत्तरदाता के मनोभावों, मनोवृत्तियों का आंकलन भी किया जाता है।
3. पूर्ण सूचना की कम संभावना : प्रश्नावली के संबंध में आम तौर पर देखने में आता है कि उत्तरदाता इन पर बहुत दिलचस्पी नहीं लेते और जहां प्रश्नावलियों के वापस भरकर आने की बहुत कम संभावना रहती है, वहीं उत्तरदाता बहुत सरसरी तौर पर ही और लापरवाही से इन्हें भरकर वापस भेजता है। कई बार वह प्रश्नों को ठीक से समझ भी नहीं पाता है। ऐसा इसलिए भी कि उसके समक्ष उत्तर देने के समक्ष शोध अनुसंधानकर्ता प्रेरित करने, प्रश्नों को स्पष्ट करने के लिए स्वयं उपस्थित नहीं होता है।
<
p style=”text-align: justify;”>प्रश्नावली का निर्माण :
प्रश्नावली का निर्माण करते समय निम्न लिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए :-
1. प्रश्नावली बनाने से पहले अन्य प्रश्नावलियांे का अध्ययन कर लेना चाहिए, एवं पूर्व में ऐसी प्रश्नावलियां बना चुके लोगों व विद्वानों से परामर्श कर लेना चाहिए।
2. प्रश्नावलियों का निर्माण शोध उद्देश्यों के अनुसार करें। उद्देश्यों की पूर्ति हेतु जितने भी प्रश्न आवश्यक हों उन्हें प्रश्नावली में रखें तथा अनावश्यक प्रश्न न रखें।
3. जहां तक संभव हो प्रश्नावली को संक्षिप्त रखें।
4. प्रश्नावली में प्रश्न वस्तुनिष्ठ हों। उनमें किसी के प्रति झुकाव या द्वेष प्रकट नहीं होना चाहिए।
5. प्रश्नावली में प्रश्नों का संयोजन किसी तार्किक क्रम में रखा जाना चाहिए। यदि प्रश्नों की संख्या काफी अधिक है तो विषय को खंड एवं उपखंडों में विभक्त कर, संबंधित खंड व उपखंड में ही प्रश्नों को रखा जाना चाहिए।
6. प्रश्नावली में भावनात्मक एवं विवादास्पद तथा ऐसे प्रश्नों को रखने से बचना चाहिए, जिनका उत्तर देने में उत्तरदाता को संकोच हो सकता हो। साथ ही ऐसे प्रश्न भी नहीं रखे जाने चाहिए, जिन्हें उत्तरदाता न समझ सके।
7. प्रश्नों की भाषा सरल सरल होनी चाहिए, ताकि उत्तरदाता प्रश्नों को तत्काल आसानी से समझ पाए।
8. द्विअर्थी एवं अस्पष्ट अर्थ वाले शब्दों से बचा जाना चाहिए।
9. प्रश्नों का निर्माण करते समय उत्तर के लिए सीमित या खुला कौन सा विकल्प दिया जाना चाहिए, इसका निर्धारण प्रश्न व शोध की प्रकृति पर दिया जाना चाहिए।
10. उत्तरदाता को ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए, जिन्हें सामाजिक या मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उत्तरदाता देना उचित न समझता हो।
11. प्रश्नावली में प्रश्न वस्तुनिष्ठ हों। उनमें किसी के प्रति झुकाव या द्वेष प्रकट नहीं होना चाहिए।
एक अच्छी प्रश्नावली की विशेषताएं :
<
p style=”text-align: justify;”>ए.एल. बाउले के अनुसार एक अच्छी प्रश्नावली में निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिए :-
1. प्रश्नों की संख्या कम से कम होनी चाहिए।
2. प्रश्न ऐसे होने चाहिए, जिनका उत्तर हां या नहीं में दिया जा सकता हो।
3. प्रश्नों की संरचना ऐसी होनी चाहिए कि व्यक्तिगत पक्षपात की संभावना ना बचे।
4. प्रश्न सरल, स्पष्ट व एक-अर्थक होने चाहिए, यानी द्विअर्थी या भ्रम उत्पन्न करने वाले नहीं होने चाहिए।
5. प्रश्न एक दूसरे को पुष्ट करने वाले हों।
6. प्रश्नों की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए कि अभीष्ट सूचना को प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त किया जा सके।
7. प्रश्न अशिष्ट नहीं होने चाहिए।
<
p style=”text-align: justify;”>पूर्व टेस्ट अथवा पायलट अध्ययन :
इतना सब कुछ करने के उपरांत भी कई बार ऐसी स्थितियां आती हैं कि प्रश्नावली के जरिए उत्तरदाता से शोध समस्या के उत्तर प्राप्त करने में कई प्रश्न उत्तरदाता को असंगत, गैर जरूरी, समझ में न आने वाले, द्वेष प्रकट करने वाले या सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक स्तर पर चिढ़ाने, परेशान करने वाले लग सकते हैं, अथवा कुछ और प्रश्नों की भी जरूरत महसूस की जा सकती है। ऐसी स्थितियों से बचने के लिए शोधकर्ता को प्रश्नावली को वास्तविक उत्तरदाताआंे को देने से पूर्व उनका अपने साथियों या छोटे समूह में पूर्व टेस्ट या परीक्षण कर लेना चाहिए, तथा रेखांकित होने वाली गलतियों, अवांछित तत्वों और कमियों पर आवश्यक संसोधन एवं परिमार्जन करके व सुझावों को शामिल करके ही एवं प्रश्नावली को अपने सर्वश्रेष्ठ स्वरूप में बनाने के बाद ही उत्तरदाताओं को भेजना चाहिए।
<
p style=”text-align: justify;”>मुख पृष्ठ या कवर पेज :
प्रश्नावली को अंतिम तौर पर तैयार कर लेने के बाद प्रश्नावली के लिए मुख पृष्ठ तैयार करना भी एक जरूरी उपक्रम होता है। इस मुख पृष्ठ या कवर पेज का उपयोग प्रश्नावली को उत्तरदाता को भेजने में बड़ी भूमिका निभाता है। मुख पृष्ठ में शोध समस्या का शीर्षक, शोध का उद्देश्य और उत्तरों की गोपनीयता का आश्वासन, उत्तर देने के लिए आवश्यक निर्देश एवं सहयोग के लिए आभार-धन्यवाद देना चाहिए। उत्तर देने के लिए समय सीमा बताकर उत्तर शीघ्र देने का अनुरोध भी किया जा सकता है।
इसके साथ ही प्रश्नावली के साथ स्वयं का डाक टिकट युक्त लिफाफा अथवा ऑन लाइन या मेल प्रश्नावली की स्थिति में अपना ई-मेल का पता भी भेजना चाहिए। यदि उत्तरदाता किसी संस्था से जुड़े हों तो उस संस्था के प्रमुख अथवा प्रशासनिक अधिकारी से पूर्व में ही इस हेतु अनुमति लेकर अनुमति के पत्र की छायाप्रति भी प्रश्नावली के साथ उत्तरदाता को भेजी जानी चाहिए।
<
p style=”text-align: justify;”>प्रत्युत्तर दर :
डाक अथवा ईमेल के माध्यम से उत्तरदाताओं को भेजी जाने वाली प्रश्नावलियों में से जितनी प्रश्नावलियां उत्तरदाताओं से वापस उत्तर सहित प्राप्त हो पाती हैं, उसे प्रश्नावलियों की प्रत्युत्तर दर कहा जाता है। यदि प्रश्नावली अथवा उसका विषय उत्तरदाताओं के लिए रोचक न हो तो प्रत्युत्तर की दर और अधिक कम हो जाती है। इस दर को अच्छे स्तर पर बनाए रखने के लिए शोधार्थी को प्रश्नावली भेजने के चार से छह सप्ताह के उपरांत भी वापस न आने पर पुन: स्मरण पत्र भेजने चाहिए। स्मरण पत्र भेजने से प्रत्युत्तर की दर बढ़ सकती है।
प्रश्नोत्तरी का प्रारूप
विषय : उपभोक्तावादी संस्कृति : एक सामाजिक समस्या के रूप में विषय पर प्रश्नावली
<
p style=”text-align: justify;”>आदरणीय महोदय,
यह प्रश्नावली आपको कुमाऊं विश्वविद्यालय डीएसबी परिसर नैनीताल में पत्रकारिता एवं जन संचार विभाग में लघु शोध के लिये प्रस्तुत करने के लिए भेजी जा रही है। इस लघु शोध प्रबंध का मुख्य उद्देश्य समाज में बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कति के बारे में जानकारी लेना है। कृपया, दो सप्ताह के भीतर इस प्रश्नावली को भरकर वापस भेजने की कृपा करें। ईमेल का पता एवं डाक टिकट लगा पता युक्त लिफाफा भी संलग्न है।
<
p style=”text-align: right;”>नवीन चंद्र जोशी
शोध छात्र
पत्रकारिता एवं जन संचार विभाग
पत्रकारिता विभाग, डीएसबी परिसर, कमाऊं विश्व विद्यालय, नैनीताल।
ईमेल: saharanavinjoshi@gmail.com
<
p style=”text-align: justify;”>1. नाम : रमेश चंद्र पांडे
2. उम्र : अ. 18 से 30 आ. 31 से 45 इ. 46 से 60 ई. 60 से ऊपर
3. लिंग : अ. स्त्री आ. पुरुष
4. जाति : अ. सामान्य आ. अनुसूचित जाति/जनजाति इ. अन्य पिछड़ा वर्ग
5. पेशा : अ. नौकरी आ. व्यापार इ. स्वरोजगार ई. गृहकार्य एवं अन्य
6. आपका आवास : अ. अपना घर ब. किराए का स. किसी के साथ
7. आय (प्रति वर्ष) :
अ. 1.5 लाख से कम आ. 5 लाख तक इ. 10 लाख तक ई. 10 लाख से ऊपर
8. खर्च (प्रति वर्ष आय के प्रतिशत में) : अ. 50 फीसद से कम आ. 75 फीसद इ. 100 फीसद ई. 100 फीसद से अधिक
9. बचत (प्रति वर्ष आय के प्रतिशत में): अ. शून्य ब. 25 फीसद तक स. 50 फीसद तक द. 75 फीसद या अधिक
10. खर्च विवरण (आप का अधिक खर्च किन चीजों पर होता है): अ. खाने-पीने पर आ. गृह सुविधाओं पर इ. बच्चों की शिक्षा पर ई. स्वास्थ्य प्राविधान/इंश्योरेंस इत्यादि उ. कर्ज/लोन की किस्त इत्यादि ऊ . इलेक्ट्रॉनिक सामान ए. सौंदर्य प्रसाधन ऐ. ऐशो-आराम के सामान ओ. अन्य
11. आय से अधिक खर्च होने की स्थिति में आप प्रतिपूर्ति करते हैं : अ. कर्ज लेकर ब. आय के अतिरिक्त श्रोत उत्पन्न कर स. अगले महीने के खर्च में कटौती कर द. अन्य
12. आपके खर्च/सामान की खरीद का आधार है: अ. जरूरत के आधार पर ब. दूसरों/पड़ोसियों/रिश्तेदारों को देखकर स. टीवी/इंटरनेट पर विज्ञापन द. अन्य (स्पष्ट कीजिए)
13. टीवी/इंटरनेट पर आने वाले विज्ञापनों ने क्या आपके खर्च बढ़ाये हैं ? अ. हां आ. नहीं
14. क्या आप मॉल आदि में खरीददारी करने जाते हैं: अ. रोजाना आ. हर सप्ताह इ. महीने में ई. अन्य
15. क्या मॉल/मल्टी प्लेक्स में जाकर आपके खर्चे उम्मीद से अधिक बढ़ जाते हैं ? अ. हां ब. नहीं स. कह नहीं सकते
16. बीते वर्षों में आपके खरीद/खर्च के तरीके/आदतों में परिवर्तन हुआ है : अ. हां ब. नहीं स. कह नहीं सकते
17. यदि हां तो कारण बताएं :
टीवी/इंटरनेट पर आने वाले विज्ञापनों की वजह से नए व बेहतर लगने वाले उत्पादों, ऐशो आराम के सामानों की खरीद करने का मन करता है।
18. यदि नां तो कारण बताएं : परिवर्तन हुआ है।
19. आपके खर्चों से आपके जीवन स्तर पर प्रभाव पड़ा है : अ. सकारात्मक ब. नकारात्मक स. कह नहीं सकते
20. आप अपने बढ़ते खर्चों के लिए जिम्मेदार मानते हैं : अ. खुद व परिवार के सदस्यों को ब. बढ़ती महंगाई स. उपभोक्तावादी संस्कृति द. नित बदलती तकनीकी य. अन्य
21. क्या आप स्वयं को उपभोक्तावादी संस्कृति से प्रभावित मानते हैं? अ. हां ब. नहीं स. कह नहीं सकते
22. उपभोक्तावादी संस्कृति से आपके जीवन पर कैसे प्रभाव पड़े हैं ? अ. सकारात्मक ब. नकारात्मक द. कह नहीं सकते
‘डॉ.नवीन जोशी, वर्ष 2015 से उत्तराखंड सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकार, ‘कुमाऊँ विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में पीएचडी की डिग्री प्राप्त पहले पत्रकार’ एवं मान्यता प्राप्त राज्य आंदोलनकारी हैं। 15 लाख से अधिक नए उपयोक्ताओं के द्वारा 140 मिलियन यानी 1.40 करोड़ से अधिक बार पढी गई आपकी अपनी पसंदीदा व भरोसेमंद समाचार वेबसाइट ‘नवीन समाचार’ के संपादक हैं, साथ ही राष्ट्रीय सहारा, हिन्दुस्थान समाचार आदि समाचार पत्र एवं समाचार एजेंसियों से भी जुड़े हैं।
नवीन समाचार’ विश्व प्रसिद्ध पर्यटन नगरी नैनीताल से ‘मन कही’ के रूप में जनवरी 2010 से इंटरननेट-वेब मीडिया पर सक्रिय, उत्तराखंड का सबसे पुराना ऑनलाइन पत्रकारिता में सक्रिय समूह है। यह उत्तराखंड शासन से मान्यता प्राप्त रहा, अलेक्सा रैंकिंग के अनुसार उत्तराखंड के समाचार पोर्टलों में अग्रणी, गूगल सर्च पर उत्तराखंड के सर्वश्रेष्ठ, भरोसेमंद समाचार पोर्टल के रूप में अग्रणी, समाचारों को नवीन दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने वाला ऑनलाइन समाचार पोर्टल भी है।










सोचिए जरा ! जब समाचारों के लिए भरोसा ‘नवीन समाचार’ पर है, तो विज्ञापन कहीं और क्यों ? यदि चाहते हैं कि ‘नवीन समाचार’ आपका भरोसा लगातार बनाए रहे, तो विज्ञापन भी ‘नवीन समाचार’ को देकर हमें आर्थिक तौर पर मजबूत करें। संपर्क करें : 8077566792, 9412037779 पर।
