देवभूमि के कण-कण में ‘देवत्व’: विश्व हिंदी सम्मेलन के संयोजक व अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार डा. अशोक ओझा के हाथों हुआ विमोचन
नैनीताल। अमेरिका में हिंदी के जरिये रोजगार के अवसर विषयक कार्यक्रम के दौरान विश्व हिंदी सम्मेलन के संयोजक, अमेरिकी सरकार समर्थित स्टारटॉक हिंदी कार्यक्रम के निदेशक व अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार डा. अशोक ओझा, उत्तराखंड मुक्त विवि के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के निदेशक डा. गोविंद सिंह, कुमाऊं विवि के कुलपति प्रो. एचएस धामी, कला संकायाध्यक्ष प्रो. भगवान सिंह बिष्ट व परिसर निदेशक प्रो. एसपीएस मेहता तथा पत्रकारिता एवं जन संचार विभाग के अध्यक्ष डा. गिरीश रंजन तिवारी आदि के हाथों पत्रकार नवीन जोशी की पुस्तक देवभूमि के कण-कण में देवत्व का विमोचन किया गया। लेखक नवीन जोशी ने बताया कि पुस्तक कुमाऊं -उत्तराखंड की भावी पीढि़यों और यहां आने वाले वाले सैलानियों को इस उम्मीद के साथ समर्पित है कि उन्हें इस पुस्तक के माध्यम से इस अंचल को समग्रता में समझने में मदद मिलेगी। पुस्तक तीन खंडों- देवभूमि उत्तराखंड व कुमाऊं के इतिहास, यहां के धार्मिक, आध्यात्मिक व पर्यटन महत्व के स्थलों तथा यहां के तीज-त्योहारों, लोक संस्कृति, लोक परंपराओं और विशिष्टताओं का वर्णन करती है। यह देवभूमि के खास तौर पर ‘देवत्व’ को एक अलग अंदाज में देखने का प्रयास है। उनका मानना है कि देवभूमि का देवत्व केवल देवताओं की धरती होने से नहीं, वरन इस बात से है कि यह भूमि पूरे देश को स्वच्छ हवा, पानी, जवानी व उर्वरा भूमि के साथ प्राकृतिक व आध्यात्मिक शांति के साथ और भी बहुत कुछ देती है, और वास्तव में देवता शब्द देता या दाता शब्दों का विस्तार है।e
पुस्तक देवभूमि के कण-कण में ‘देवत्व’ को यहाँ क्लिक करके पीडीएफ फॉर्मेट में भी पढ़ा जा सकता है।
समाचार पत्रों में पुस्तक का विमोचन :
लेखक की पूर्व प्रकाशित पुस्तक कुमाउनी कविताओं के संग्रह: उघड़ी आंखोंक स्वींड़ (लिंक क्लिक कर के PDF फॉर्मेट में पढ़ सकते हैं।) यह पुस्तक गूगल एप्स पर भी इस लिंक पर उपलब्ध है।
पुस्तक देवभूमि के कण-कण में ‘देवत्व’ की एक समीक्षा: नवीन जोशी ‘नवेंदु’ से मेरा परिचय लगभग 14 वर्ष पुराना है। मैंने उन्हें उनकी पत्रकारिता के शुरुआती दिनों से देखा, पढ़ा और इस दौरान खबरों के प्रति लगातार एक नया नजरिया विकसित करते हुए पाया है। दर्जनों बार मैं उनसे और अन्य लोगों से भी यह कह चुका हूं कि खबरों को एक नया एंगल देने में वे बेहद निपुण हैं। उनकी लिखी हर खबर में व्यापक शोध और परिश्रम साफ नजर आता है और पढ़ने वाले को कुछ न कुछ नया अवश्य ही मिल जाता है।
उनकी यह पुस्तक उनके विभिन्न समाचार पत्रों, मुख्यतः दैनिक जागरण और राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित लेखों सहित कुछ नई रचनाओं का संग्रह है। इसके हर लेख, हर विषय यहाँ तक कि हर पृष्ठ पर उनकी शोधपरक दृष्टि की झलक मिलती है और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि उनकी इस प्रवृत्ति के कारण यह पुस्तक स्वयं में एक शोध ग्रन्थ के समान ही है जिस पर मामूली तकनीकी सुधार के बाद पी. एच.डी. की उपाधि भी मिल सकती है। इस पुस्तक में कुमाऊं के इतिहास, रीति रिवाज, त्योहारों, परम्पराओं, लोक उत्सवों, पर्यटक स्थलों, लुप्त होती प्रथाओं सहित विविध विषयों का ऐसा सम्मिश्रण है कि इसे कुमाऊं पर एक लघु इनसाइक्लोपीडिया का दर्जा दिया जा सकता है। इसमें शामिल प्रत्येक लेख में उस विषय पर गहन जानकारियां रोचक तरीके से प्रस्तुत की गई हैं लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उन जानकारियों को सम्बंधित विषय के विशेषज्ञ जानकारों से जुटाई गई जानकारी के आधार पर प्रस्तुत किया गया है जो इसमें प्रस्तुत जानकारियों को पुख्ता और प्रमाणिक बनाता है। मेरा विश्वास है कि एक बार इसे पढ़ना प्रारम्भ करने पर कोई भी जिज्ञासु व्यक्ति इसे अधूरा नहीं छोड़ सकता और इसे पूरा पढ़ लेने पर स्वयं को कुमाऊं संबंधी तथ्यों का जानकार होने का दावा आसानी से कर सकता है। पुस्तक पढ़ने के दौरान महसूस होता है कि नवीन जोशी को पहाड़ की मिट्टी, हवा, पानी और परम्पराओं से बहुत प्यार है इसकी झलक तमाम शीर्षकों में भी मिलती है। यह पुस्तक उन्होंने केवल दिमाग ही नहीं बल्कि दिल से लिखी है और यह उनके 15 वर्ष के परिश्रम का परिणाम है। कुमाऊं के धार्मिक स्थलों का वर्णन करने में उन्होंने विभिन्न ऐसे वर्णन किये हैं जो सामान्यतया अछूते हैं मसलन बागेश्वर कांडा के भद्रकाली मंदिर में पिंडी स्वरुप देवी का विराजमान होना, मार्कंडेय, पुलस्य, गर्ग, पुलह सप्तऋषियों का पाताल भुवनेश्वर में पुराणों की रचना करना। कुमाऊं में कत्यूरी, चंद, गोरखाओं और फिर अंग्रेजों के शासन, ब्रिटिश शासकों के स्कॉटलैंड कनेक्शन, कमिश्नर ट्रेल का कुमाऊंनी महिला से विवाह और कुमाँऊनी भाषा सीखने, महात्मा गांधी के के कौसानी प्रवास के दौरान लेखन और इसे स्विट्जरलैंड का दर्जा देने के पीछे की उनकी सोच, स्वामी विवेकानंद, नींब करौरी महाराज और नोबेल पुरस्कार विजेता रोनाल्ड रॉस से जुड़े प्रसंग बहुत रोचक हैं। ऐपण, जागर व बैंसी पर जानकारी विस्तृत और तथ्यात्मक है तो होली, फूल देई पर भी गहराई से जानकारी दी है साथ ही घी त्यार, बटर ट्री च्यूरा, बाखली, श्री पंचमी जैसी लुप्त हो रही कुमाऊँनी विशेषताओं पर भी विस्तृत जानकारी है। मदकोट की तुलना गोवा से करना, ब्यानधूरा मंदिर को देवताओं की विधानसभा और अल्मोड़ा में स्वामी विवेकानंद की बौद्ध गया बताना उनके नजरिये की खासियत दर्शाता है। नैनीताल का तो उन्होंने पूरा इतिहास भूगोल ही संक्षेप में वर्णित कर दिया है साथ में कमिश्नर ट्रेल, जिम कॉर्बेट से जुड़ी रोचक जानकारियां पुस्तक को समृद्ध बनाते हैं। नैनीताल में हुई फिल्मों की शूटिंग संबंधी इतनी विस्तृत जानकारी शायद ही अन्यत्र किसी एक जगह संगृहीत हो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी नवीन एक बेहतरीन फोटोग्राफर भी हैं, इसके लिए उन्हें प्रदेश के राज्यपाल सहित अनेक संस्थाओं से पुरस्कार मिल चुके हैं। ब्लॉग लेखन के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया है और उनका ब्लॉग मनकही उत्तराखंड समाचार देश के शीर्ष 300 ब्लॉग्स में शामिल है। कुमाऊँनी भाषा में उनकी पुस्तक ‘उघड़ी आंखोंक स्वींड़ ’ बहुत चर्चित हुई है। : डा. गिरीश रंजन तिवारी (विभागाध्यक्ष, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल)
पुस्तक के आमुख के अंशः
मानव तन प्रकृति के पांच मूल तत्वों-पंच महाभूतों ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा’ से बना है। यह इन्हीं तत्वों से पोषित होता है, और आखिर इन्हीं तत्वों में समाहित हो जाता है। क्षिति यानी धरती और मिट्टी मानव का बाह्य तन या काया है, जिसके भीतर रक्त के साथ ही चंचलता के रूप में जल तत्व, आत्मा व कल्पनाशीलता के रूप में गगन तत्व, सांसों के साथ ही मन की प्रफुल्लता में समीर तत्व तथा आगे बढ़ने की ऊर्जा व जिजीविषा में अग्नि तत्व विद्यमान रहते है। मानव स्वयं को पोषित करने के लिए जो भी कुछ सीधे अथवा परोक्ष तौर पर धरती से उत्पन्न भोजन, सूर्य के ताप व रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा, पवन से सांसें, और जल आदि भीतर ग्रहण करता है, और कल्पनाओं के अनंत आकाश में असीम संभावनाओं के साथ उड़ता है, उस दौरान वह बाहर से भी इन्ही तत्वों युक्त प्रकृति के पास रहना चाहता है। दैनंदिन जीवन की व्यस्तताओं के बीच बार-बार उसका मन करता है, कहीं शांति की खोज में ईश्वर और प्रकृति के बीच चला जाए, जहां ये ही पंच महाभूत मौजूद हों, और वह उनमें स्वयं को आत्मसात कर आत्मा व परमात्मा का मिलन करा ले। मानव की प्रकृति प्रियता के साथ ही पर्यटन और आध्यात्मिकता का यही मूल आधार है।
आज जबकि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं से अधिक मृगतृष्णाओं की प्रतिपूर्ति के लिए दिन-रात एक किए है। उसके पास अपने परिवार क्या स्वयं के लिए भी समय नहीं है, ऐसे में वह घर-दफ्तर में ‘एयरकंडिशनर’ और ‘प्लास्टिक के फूलों’ व दीवारों को रंग-बिरंगे रंगने, प्राकृतिक चित्र लगाने सरीखे कृत्रिम उपायों से स्वयं को पंच महाभूतों यानी प्रकृति के करीब रखने की असफल कोशिश करता है। और जब कभी भी मौका मिल जाए, कोई धार्मिक-सांस्कृतिक त्यौहार हो या स्वतंत्रता दिवस-गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व ही क्यों ना हों, सब कुछ छोड़कर प्रकृति की गोद में दौड़ा चला जाता है। देवभूमि उत्तराखंड की सैर पर आना आध्यात्मिक और घुमक्कड़ी के दोनों तरह के शौकीन सैलानियों के लिए पहली पसंद रहता है।
हिमालय की गोद में रचा-बसा देवभूमि उत्तराखंड वास्तव में दिव्य देव लोक की अनुभूति कराता है। देश के नाम ‘भारत’ के प्रेरणादायी राजा भरत के माता-पिता महाराज दुश्यंत एवं रानी शकुंतला की प्रेम गाथा पर आधारित, यहीं कण्वाश्रम में लिखित, महाकवि कालीदास के कालजयी महाकाव्य अभिज्ञान शाकुंतलम में उल्लेखित ‘देवतात्मा’ यानी केवल देवता नहीं वरन ‘देवताओं की आत्मा के वास स्थल’ कहा गया उत्तराखंड, मानव की प्रकृति प्रियता के साथ ही पर्यटन और आध्यात्मिकता का आदि-अनादि काल से केंद्र रहा है। मेरे लिए ‘देवता’ वह है जो सिर्फ ‘देता’ है। उत्तराखंड भी इस परिभाषा के अनुरूप न सिर्फ अपने पास आने वाले मानवों को शुद्ध हवा-पानी ‘देता’ है, और उन्हें उनके मूल पंच महाभूतों से मिलाता है। वरन अपने ‘वाटर टावर ऑफ एशिया’ कहे जाने वाले हिमालय और वर्ष भर छलछलाती सदानीरा नदियों से पूरे देश को ‘पानी’ के साथ ही अन्न से पुष्ट करने के लिए उर्वरा धरा तथा रक्षा करने के लिए ‘जवानी’ भी देता है। और इस तरह शायद ‘देवता’ शब्द ‘देता’ या ‘दाता’ शब्दों का ही विस्तार है, तथा देवभूमि उत्तराखंड अपने यहां मौजूद देव मंदिरों के लिए ही नहीं, वरन सही मायनों में ‘दाताओं’ की भूमि है, और सही अर्थों में इसलिए देवभूमि कही जाती है। यहां के कण-कण में देवताओं का वास और पग-पग पर देवालयों की भरमार है। यहां की शांत वादियों में घूमने मात्र से सांसारिक मायाजाल में घिरे मानव की सारी कठिनाइयों का निदान हो जाता है। उसे यहां से आत्मिक संबल मिलता है। यही कारण है कि एक बार यहां आने वाले सैलानी लौटते हैं तो देवों से दुबारा बुलाने की कामना करते हैं। इसी कारण पर्यटन प्रदेश कहे जाने वाले उत्तराखण्ड के पर्यटन में बड़ा हिस्सा यहां के तीर्थाटन की दृष्टि से मनोहारी देवालयों में आने वाले सैलानियों की दिनों-दिन बढ़ती संख्या और धार्मिक पर्यटन का है। धार्मिक पर्यटन का राज्य की आर्थिकी को बढ़ाने में भी बड़ा योगदान रहता है। यहां यह कहना भी समीचीन होगा कि प्रदेश का गढ़वाल मंडल जहां इस संदर्भ में कुछ हद तक भाग्यशाली रहा है, वहीं कुमाऊं मंडल के कई प्राकृतिक रूप से सुंदर व समृद्ध तथा धार्मिक-आध्यात्मिक पर्यटन महत्व के स्थल इन क्षेत्रों में प्रसार की अपार संभावनाओं के बावजूद अभी भी सैलानियों की नजरों से बहुत दूर हैं। इस कारण अपनी क्षमताओं का अपेक्षित लाभ उन्हें और राज्य को हासिल नही हो पा रहा है।
ऐसे में कुमाऊं की मिट्टी में पैदा होने तथा एक लेखक व छायाचित्रकार होने के नाते मेरा दायित्व है कि मैं अपनी मिट्टी, हवा व पानी की अध्यात्म और पर्यटन क्षमताओं को दुनिया के समक्ष रखूं। जो सैलानी यहां आएं, वह केवल ऊपर से उड़कर यानी बिना यहां की प्रकृति, लोक संस्कृति और सभ्यता, यहां के खान-पान को जाने, अपने शहरों के ही पिज्जा-बर्गर में जीकर यहां से लौट न जाएं, वरन इस स्थान को भोगें, महसूस करें, आत्मसात करें और यहां की सुमधुर यादें समग्र तौर पर लेकर जाएं, यह मेरी कोशिश है। यही इस पुस्तक को लिखने का अभीष्ट है।
पुस्तक मूल्य : रुपये 500/-, सीधे मंगाने पर 20% की विशेष छूट का लाभ ले सकते हैं। संपर्क करें @ +91 9412037779. पुस्तक नैनीताल के कंसल स्टेशनर्स मल्लीताल, नागपाल कॉम्युनिकेशन, नारायंस व साईं बुक डिपो तथा अल्मोड़ा के किताबघर आदि पर भी उपलब्ध है।
पुस्तक की विषय माला :
इतिहास
- पाषाण युग से यायावरी का केंद्र रहा है कुमाऊं
- 1.4 करोड़ वर्ष पूर्व भी उत्तराखंड में था मानव, चार हजार वर्ष पुराना हड़प्पा कालीन है इतिहास
- तीन हजार वर्ष पूर्व उत्तराखंड में आए थे आर्य
- स्कॉटलेंड से गहरा नाता रहा है कुमाऊं और उत्तराखंड का
- महर्षि मार्कंडेय सहित सप्तऋषियों की भी तपस्थली रहा है कुमाऊं
- उत्तराखंड में 1400 वर्ष पुराना है श्रमिक आंदोलनों का इतिहास
- ‘ब्रिटिश कुमाऊं’ के दौर से गूंजे थे जंगे आजादी के ‘गदर’ में विद्रोह के स्वर
- उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का इतिहास
आध्यात्मिक-प्राकृतिक पर्यटन के दृष्टिकोण से कुमाऊं:
- कुमाऊं-उत्तराखंड से ही है कैलाश मानसरोवर का पौराणिक व शास्त्र सम्मत मार्ग
- नैनीताल क्या नहीं, क्या-क्या नहीं, यह भी, वह भी, यानी ‘सचमुच स्वर्ग’
- साततालः तालों और अनछुवी प्रकृति का समग्र
- एशिया का पहला जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान और ब्याघ्र अभयारण्य
- पक्षी-तितली प्रेमियों का सर्वश्रेष्ठ गंतव्य है पवलगढ़ रिजर्व
- भगवान राम की नगरी के करीब माता सीता का वन ‘सीतावनी’
- स्वामी विवेकानंद का ‘बोध गया’: काकड़ीघाट
- आदि गुरु शंकराचार्य का उत्तराखंड में प्रथम पड़ाव: कालीचौड़ मंदिर
- किलवरीः ‘वरी’ यानी चिंताओं को ‘किल’ करने (मारने) का स्थान
- बाबा नीब करौरी का कैंची धाम: जहाँ बाबा करते हैं भक्तों से बातें
- मुक्तेश्वर: जहां होते है प्रकृति के बीच ‘मुक्ति के ईश्वर’ के दर्शन
- महेशखान: यानी प्रकृति और जैव विविधता की खान
- उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी-रत्नगर्भा अल्मोड़ा
- प्रकृति को संजोऐ एक वास्तविक हिल स्टेशन, रानी पद्मावती का खेत-रानीखेत
- समृद्ध सांस्कृतिक विरासत सहेजे मंदिरों का नगर द्वाराहाट
- रामायण-महाभारतकालीन द्रोणगिरि वैष्णवी शक्तिपीठ दूनागिरि
- विश्व धरोहर स्मारक बनने की ओर जागेश्वर, देश की 25 पुरातात्त्विक धरोहरों में हुआ शामिल
- बिन्सरः प्रकृति की गोद में कीजिए प्रभु का अनुभव
- कौसानीः भारत का स्विटजरलेंड, गांधी-पंत का कौसानी
- कटारमलः जहां है देश का प्राचीनतम सूर्य मंदिर
- राजुला-मालूशाही और उत्तराखंड की रक्तहीन क्रांति की धरती, कुमाऊं की काशी-बागेश्वर
- बैजनाथ: जहां हुआ था शिव-पार्वती का विवाह
- पोथिंग की माता नंदा भगवती: जो करती हैं एक-एक सैनिक की रक्षा
- सबसे करीब पिंडारी, कफनी और सुंदरढूंगा ग्लेशियर
- भद्रकालीः जहां वैष्णो देवी की तरह त्रि-पिंडी स्वरूप में साथ विराजती हैं माता सरस्वती, लक्ष्मी और महाकाली
- अटूट आस्था के केंद्र शिखर-भनार व सनगाड़ के देव मंदिर
- दो करोड़ वर्ष पुराना इतिहास संजोए, उच्च हिमालयी मिनी कश्मीर-सोर घाटी पिथौरागढ
- सच्चा न्याय दिलाने वाली माता कोटगाड़ीः जहां कालिया नाग को भी मिला था अभयदान
- पंचाचूली की गोद में ‘सात संसार-एक मुनस्यार’
- मदकोट में मिलते हैं गंधक के पानी के ‘तप्त स्विमिंग पूल’
- चंपावत से मिला ‘कुमाऊं’ को अपना नाम और यही ‘कुमाऊं’ की मूल पहचान
- देवीधूरा की बग्वाल: जहाँ लोक हित में पत्थरों से अपना लहू बहाते हैं लोग
- लोक देवताओं की विधान सभा है ब्यानधूरा मंदिर
- पूर्णागिरि शक्तिपीठः जहां गिरी थी माता की नाभि
- घोडाखाल, चितई और चंपावत में अर्जियां पढ़कर ग्वेल देवता करते हैं न्याय
धर्म-संस्कृति
- 1830 से है विश्व के सबसे लंबे सजीव गीत-नाट्य धारावाहिक कुमाउनी रामलीला का इतिहास
- 400 वर्ष पुरानी कुमाउनी शास्त्रीय होली ऐसी छाई झकझोर कुमूं में….
- कुमाऊं में ‘च्यूड़ा बग्वाल’ के रूप में मनाई जाती थी परंपरागत दीपावली
- कुमाऊं में परंपरागत ‘जन्यो-पुन्यू’ के रूप में मनाया जाता है रक्षाबंधन
- कुमाऊं का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, ऋतु व लोक पर्व भी है उत्तरायणी
- हरेलाः लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये….
- स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का लोकपर्व घी-त्यार, घी-संक्रांति
- गौरा-महेश को बेटी-दामाद के रूप में विवाह-बंधन में बांधने का पर्व: सातूं-आठूं (गमरा)
- फूल देई-छम्मा देई-जतुकै देला-उतुकै सही
- कुमाऊं में परंपरागत तौर पर ‘श्री पंचमी’ के रूप में मनायी जाती है बसंत पंचमी
- ‘खतड़ुवा’ आया, संग में सर्दियां लाया
- उत्तराखंड में अनूठी है भाई-बहन के प्रेम की ‘भिटौली’ परंपरा
- कुमाउनी ऐपण: शक, हूण सभ्यताओं के साथ ही तिब्बत, महाराष्ट्र, राजस्थान व बिहार की लोक चित्रकारी की भी मिलती है झलक
- चंद राजाओं की विरासत है कुमाऊं का प्रसिद्ध छोलिया नृत्य
- आस्था के साथ ही सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहर भी हैं ‘जागर’
- बाखलीः पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनी
- बुरांशः ‘जंगल की ज्वाला’ संग मुस्कुराता है पहाड़..
- पहाड़ का कल्पवृक्ष है इंडियन बटर ट्री-च्यूरा
- भैया, यह का फल है ? जी यह ‘काफल’ ही है…
- आड़ू, बेड़ू जैसा नहीं घिंघारू
- कौन हैं दो देवियाँ, मां नंदा-सुनंदा