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December 22, 2024

18 नवंबर : नैनीतालवासियों के लिए यह दिन कुछ अधिक ही खास: इसी दिन यहाँ पैर पड़े थे ‘बैरन’ के…. इसी दिन से बनना और बिगड़ना प्रारंभ हुआ था नैनीताल…

Nainital Navin Samachar

-आज के ही दिन यानी 18 नवंबर 1841 को अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन के यहां पड़े थे कदम
नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 18 नवंबर 2019 (18 November-Nainital began to Built or Ruined) ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 18 नवंबर 1841 को नैनीताल में पीटर बैरन नाम के पहले अंग्रेज के कदम पड़े थे। इस आधार पर इधर कुछ वर्षों से इस दिन नगर का ‘जन्मोत्सव’ मनाने की परंपरा चल पड़ी है। नगर के एक वर्ग में आज के दिन को नगर का ‘जन्म दिन’ कहे जाने पर ऐतराज भी है। क्योंकि उनका मानना है कि नैनीतालें 18 नवंबर 1841 से पूर्व भी अस्तित्व में था। यह भी पढ़ें :

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स्कंद पुराण में यहां के सरोवर को मानसरोवर के समान पुण्य प्रदान करने वाला ‘त्रिऋषि सरोवर’ कहा गया है। वहीं 1841 से 18 वर्ष पूर्व 1823 में इस स्थान के बारे में आलेख प्रकाशित हो चुका था और 1823 के अंग्रेजी दौर मानचित्र में भी इस स्थान को प्रदर्शित किया गया था।

यह भी कहा जाता है कि 1841 में आज ही के दिन यानी 18 नवंबर को हुए एक घटनाक्रम से इस नगर का बनना और बिगड़ना साथ ही प्रारंभ हो गया था। इस दिन नगर में एक अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन के कदम पड़े थे, जिसने इस नगर में अपने घर पिलग्रिम लॉज के साथ आधुनिक स्वरूप में बसासत की शुरुआत की, और ‘नोट्स ऑफ वांडरिंग इन द हिमाला’ में इस नगर का एक तरह से विज्ञापन कर यहां बसने के लिए अंग्रेजों को आमंत्रित किया।

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जॉर्ज विलियम ट्रेल थे नगर में आने वाले पहले आधिकारिक अंग्रेज, लेकिन मान्यता मिली पी बैरन को 

18 November-Nainital began to Built or Ruined William Trail - Wikidata
George William Trail

नैनीताल। यह सच्चाई है कि 1841 से 18 वर्ष पहले ही तत्कालीन ब्रिटिश कुमाऊं के दूसरे आयुक्त जॉर्ज विलियम ट्रेल यहां आ और ‘स्टेटिस्टिकल स्केच ऑफ कुमाऊ टिल 1823’ में नैनीताल के विषय में दुनिया को जानकारी दे चुके थे, और यह नगर 1823 के मानचित्र में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हुआ मौजूद था।

नगर के तल्लीताल बाजार में स्थित ‘शाम लाल एंड सन्स’ की एक दुकान 1840 में अपनी स्थापना का दावा करती हुए आज भी मौजूद है। लेकिन तो भी नगर के सही-गलत इतिहास के अनुसार 18 नवंबर 1841 के दिन को नगर की बसासत शुरू होने एवं ‘जन्मोत्सव’ के रूप में मनाने की परंपरा भी हालिया कुछ वर्षों से चल रही है।

बसासत शुरू होते ही प्रकृति ने चेताना भी शुरू कर दिया था

नैनीताल। नगर में बसासत शुरू करने के दौरान नैनीताल की मिल्कियत के तत्कालीन स्वामी, थोकदार नर सिंह से नगर को हड़पने की प्रक्रिया के दौरान नैनी झील में नाव से ले जाकर डुबोने का प्रयास किया, और जबरन स्वामित्व ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार के नाम करवाया। आगे नगर में निर्माण शुरू हुए, जिनका प्रभाव यह रहा कि अपनी बसासत के दो दशक बाद ही 1867, 1880, 1898 व 1924 में भयंकर भूस्खलनों के साथ नगर ने अपनी कमजोर भूगर्भीय संरचना को लेकर संदेश दिये।

बावजूद नगर में निर्माण जारी रहे, और 1880 में अपनी बसासत की ही तारीख यानी 18 सितंबर को तो प्रकृति ने ऐसा भयावह संदेश दिया कि उस भूस्खलन में तब करीब 2,500 की जनसंख्या वाले तत्कालीन नैनीताल नगर के 151 लोगों को जिंदा दफन करने के साथ ही नगर का नक्शा ही बदल दिया था।

तब तत्कालीन हुक्मरानों ने कुछ सबक लेते हुए जरूर नगर को सुरक्षित करने के लिए प्रयास किए। कुमाऊं के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर सीएल विलियन की अध्यक्षता में अभियंताओं एवं भू-गर्भ वेत्ताओं की ‘हिल साइड सेफ्टी कमेटी’ का गठन किया था। इस समिति में समय-समय पर अनेक रिपोर्ट पेश कीं, जिनके आधार पर नगर में बेहद मजबूत नाला तंत्र विकसित किया गया, जिसे आज भी नगर की सुरक्षा का मजबूत आधार बताया जाता है।

इस समिति की 1928 में नैनी झील, पहाड़ियों और नालों के रखरखाव के लिये आई समीक्षात्मक रिपोर्ट और 1930 में जारी स्टैंडिंग आर्डर आए, जिनकी रिपोर्टों को तब से लेकर आज तक शासन-प्रशासन पर लगातार ठंडे बस्ते में डालने के आरोप लगते रहते हैं। नगर में स्थानीय लोगों के तो नियम कड़े से कड़े होते चले गये, परंतु बाहरी बिल्डरों, धनवानों के लिए ‘ग्रीन बेल्ट’ में भी निर्माण अनुमति लेकर होते रहे। इधर कुछ समय से नालों को साफ रखने के प्रति प्रशासनिक स्तर पर सक्रियता देखी जा रही है।

1995 में नाम भर की त्रुटिपूर्ण नगर योजना…

नैनीताल। 1995 में नाम भर की त्रुटिपूर्ण नगर योजना बनी, उसके अनुरूप कोई कार्य नहीं हुए, और 2011 में वह कालातीत भी हो गयी, बावजूद सात वर्षों से व्यवस्था नयी नगर योजना नहीं बना पाई। स्थिति यह है कि यहां अधिकारी अब केवल उच्च न्यायालय में चल रही जनहित याचिका की सुनवाई के ठीक एक दिन पहले जागते हैं, और फिर सो जाते हैं।

इसका प्रभाव यह है कि बीते एक दशक में नगर की प्राण-आधार व हृदय कही जाने वाली नैनी झील वर्ष में भरे रहने से अधिक सूख जाने के लिए चर्चा में रहती है। उच्च न्यायालय को नगर में सैलानियों के वाहनों का प्रवेश भी प्रतिबंधित करने जैसे आदेश देने पड़े हैं। इसलिए इस दिन का कितना और कैसा उत्सव मनाया जाए, यह सवाल हर वर्ष आज के दिन खड़ा होता है, साथ ही अब भी संभलने का संदेश भी देता है।

आधुनिक समय की समस्याएं और समाधान की ओर संकेत (18 November-Nainital began to Built or Ruined)

बैरन के आगमन के साथ नैनीताल ने आधुनिक रूप लिया, लेकिन यह भी ध्यान देने योग्य है कि उनके कदमों के साथ ही नगर की प्रकृति ने चेतावनी देना शुरू कर दिया। भूस्खलनों और जलवायु परिवर्तनों ने नगर की कमजोर भूगर्भीय स्थिति पर बार-बार ध्यान केंद्रित किया। समय के साथ नगर में अनियंत्रित निर्माण और प्रशासनिक उदासीनता ने चुनौतियों को बढ़ाया। 1995 की त्रुटिपूर्ण नगर योजना और 2011 से नई योजना का अभाव नगर की प्रबंधन समस्याओं को दर्शाता है। उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद, नगर में नैनी झील और पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कदमों की आवश्यकता है।

यह दिन न केवल नगर का इतिहास याद दिलाता है, बल्कि यह भी चेताता है कि विकास और संरक्षण के बीच संतुलन बनाना अत्यंत आवश्यक है। नैनीताल का “जन्मोत्सव” मनाने के साथ-साथ यह समझना भी जरूरी है कि इस नगर की प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना हमारा दायित्व है। (18 November-Nainital began to Built or Ruined, Nainital History, Nainital Establishment Day, 18 November 1841, Peter Barron)

नैनीताल की आज के स्वरूप में स्थापना और खोज को लेकर ऐतिहासिक भ्रम की स्थिति

डॉ. नवीन जोशी, नैनीताल। इतिहास जैसा लिख दिया जाए, वही सच माना जाता है, और उसमें कोई झूठ हो तो उस झूठ को छुपाने के लिए एक के बाद एक कई झूठ बोलने पड़ते हैं। प्रकृति के स्वर्ग नैनीताल के साथ भी ऐसा ही है। युग-युगों पूर्व स्कंद पुराण के मानस खंड में त्रिऋषि सरोवर के रूप में वर्णित इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि सर्वप्रथम पीटर बैरन नाम का अंग्रेज व्यापारी 18 नवंबर 1841 को यहां पहुंचा, और नगर में अपना पहला घर-पिलग्रिम लॉज बनाकर नगर को वर्तमान स्वरूप में बसाना प्रारंभ किया। लेकिन अंग्रेजी दौर के अन्य दस्तावेज भी इसे सही नहीं मानते।

उनके अनुसार 1823 में ही कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल यहां पहुंच चुके थे और इसकी प्राकृतिक सुन्दरता देखकर अभिभूत थे, लेकिन उन्होंने इस स्थान की सुंदरता और स्थानीय लोगों की धार्मिक मान्यताओं के मद्देनजर इसे न केवल अंग्रेज कंपनी बहादुर की नजरों से छुपाकर रखा, वरन स्थानीय लोगों से भी इस स्थान के बारे में किसी अंग्रेज को न बताने की ताकीद की थी। इसके अलावा भी बैरन के 1841 की जगह 1839 में पहले भी नैनीताल आने की बात भी कही जाती है।

मिस्टर ट्रेल ने नैनीताल के बारे में किसी को कुछ क्यों नहीं बताया, इस बाबत इतिहासकारों का मत है कि शायद उन्हें डर था कि मनुष्य की यहाँ आवक बड़ी तो यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता पर दाग लग जायेंगे, और इस स्थान की पवित्रता को ठेस पहुंचेगी। ट्रेल के बारे में कहा जाता है कि वह कुमाउनी संस्कृति के बड़े प्रशंसक थे।

उन्होंने रानीखेत की कुमाउनी युवती से ही विवाह किया था, और वह अच्छी कुमाउनी भी जानते थे। उन्हें 1834 में हल्द्वानी को बसाने का श्रेय भी दिया जाता है। उन्होंने ही 1830 में भारत-तिब्बत के बीच 5,212 मीटर की ऊंचाई पर एक दर्रे की खोज की थी, जिसे उनके नाम पर ही ट्रेल’स पास कहा जाता है।

बताया जाता है कि उस दौर में निचले क्षेत्रों से लोग पशुचारण के लिए यहां सूर्य निकलने के बाद ही आते थे, और धार्मिक मान्यता के मद्देनजर सूर्य छुपने से पहले लौट जाया करते थे। यही कारण था कि ट्रेल ने इस स्थान की सुंदरता और स्थानीय लोगों की धार्मिक मान्यताओं के मद्देनजर इसे न केवल अंग्रेज कंपनी बहादुर की नजरों से छुपाकर रखा, वरन स्थानीय लोगों से भी इस स्थान के बारे में किसी अंग्रेज को न बताने की ताकीद की थी।

इसी कारण 18 नवंबर 1841 में जब शहर के खोजकर्ता के रूप में पहचाने जाने वाले रोजा-शाहजहांपुर के अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन कहीं से इस बात की भनक लगने पर जब इस स्थान की ओर आ रहे थे तो किसी ने उन्हें इस स्थान की जानकारी नहीं दी।

इस पर बैरन को नैंन सिंह नाम के व्यक्ति (उसके दो पुत्र राम सिंह व जय सिंह थे। ) के सिर में भारी पत्थर रखवाना पड़ा। उसे आदेश दिया गया, ‘इस पत्थर को नैनीताल नाम की जगह पर ही सिर से उतारने की इजाजत दी जाऐगी”। इस पर मजबूरन नैन सिंह बैरन को तत्कालीन आर्मी विंग केसीवी के कैप्टन सी व कुमाऊँ वर्क्स डिपार्टमेंट के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर कप्तान वीलर के साथ सैंट लू गोर्ज (वर्तमान बिडला चुंगी) के रास्ते नैनीताल लेकर आया।

यह भी उल्लेख मिलता है कि बैरन ने यहाँ के तत्कालीन स्वामी, थोकदार नर सिंह को डरा-धमका कर, यहाँ तक कि उन्हें पहली बार लाई गयी नाव से नैनी झील के बीच में ले जाकर डुबोने की धमकी देकर इस स्थान का स्वामित्व कंपनी बहादुर के नाम जबरन कराया था। हालांकि अंतरराष्ट्रीय शिकारी जिम कार्बेट व ‘कुमाऊं का इतिहास” के लेखक बद्री दत्त पांडे के अनुसार बैरन दिसंबर 1839 में भी नैनीताल को देख कर लौट गया था, और 1841 में पूरी तैयारी के साथ वापस लौटा।

बैरन को बिलायत से भी सुंदर लगा था नैनीताल

नैनीताल। नैनीताल आने के बाद बैरन ने 1842 में आगरा अखबार में नैनीताल के बारे में पहला लेख लिखा। जिसमें लिखा था, ‘अल्मोड़ा के पास एक सुन्दर झील व वनों से आच्छादित स्थान है जो विलायत के स्थानों से भी अधिक सुन्दर है”। हालांकि यह भी यही कारण है कि अंग्रेजों ने नैनीताल को अपने घर बिलायत की तरह ही ‘छोटी बिलायत” के रूप में बसाया, और इसके पर्यावरण और इसकी सुरक्षा के भी पूरे प्रबंध किए।

1840 में (स्थापना से पहले से) स्थापित दुकान भी है शहर में

नैनीताल। दिलचस्प तथ्य है कि जिस शहर की अंग्रेजों द्वारा खोज व बसासत की तिथि 18 नवंबर 1841 बताई जाती है, वहां 1840 में स्थापित दुकान आज भी मौजूद है। तल्लीताल बाजार में ‘शाम लाल एंड संस” नाम की इस दुकान के स्वामी राकेश लाल साह ने बताया कि उनके परदादा शाम (श्याम का अपभ्रंश) लाल साह ने मंडलसेरा बागेश्वर से आकर यहां 1840 में दुकान स्थापित की थी।

शुरू में यहां राशन का गोदाम था, जिससे अंग्रेजों को आपूर्ति होती थी। वह अंग्रेजों को उनके पोलो खेलने के लिए प्रशिक्षित घोड़े भी उपलब्ध करवाते थे। 1842-43 में गोदाम कपड़े की दुकान में परिवर्तित हो गई। तभी से दुकान के बाहर इसकी स्थापना का वर्ष लिखा है, जिसे समय-समय पर केवल ऊपर से पेंट कर दिया जाता है। उनके पास दुकान से संबंधित कई पुराने प्रपत्र भी हैं।

इस दुकान के पास उस दौर में इंग्लेंड से सीधे कपड़े आयात व निर्यात करने का लाइसेंस भी था। यहां इंग्लेंड का हैरिस कंपनी का ट्वीड का कपड़ा मिलता था। बताया कि अगल-बगल वर्तमान मटरू शॉप में गोविंद एंड कंपनी वाइन शॉप तथा वर्तमान बिदास संस में पॉलसन बटर शॉप भी समकालीन थीं। अंग्रेजी दौर के बहुत बाद के वर्षों तक तल्लीताल बाजार में यहाँ से आगे के बाजार में अंग्रेज सैनिकों, अधिकारियों का जाना प्रतिबंधित था। वहां केवल भारतीय ही खरीददारी कर सकते थे। वहां नाच-गाना भी होता था।

विश्वास करेंगे, 1823 के मानचित्र में प्रदर्शित है नैनीताल

India 1823
India 1823

हम इस मानचित्र की सत्यता का दावा नहीं करते, परंतु 1823 में प्रकाशित बताए गए एटलस में भारत के इस मानचित्र में नैनीताल भी दर्शाया गया है। इस मानचित्र में उत्तराखंड का नैनीताल के अलावा केवल एक ही अन्य नगर-अल्मोड़ा प्रदर्शित किया गया है। यह मानचित्र विश्वसनीय विकीपीडिया की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है, तथा इसे वर्ष 2005 की नगर पालिका नैनीताल द्वारा शरदोत्सव पर प्रकाषित स्मारिका-शरदनंदा में भी प्रकाशित किया गया था। (18 November-Nainital began to Built or Ruined, Nainital History, Nainital Establishment Day, 18 November 1841, Peter Barron)

यदि इस मानचित्र पर इसके प्रकाशन का वर्ष 1823 सही लिखा है तो यह सोचने वाली बात होगी कि 18 नवंबर 1841 को अंग्रेजों द्वारा पहली बार खोजा गया बताया जाने वाला नैनीताल 1823 में कोई छोटा स्थान नहीं, अपितु नामचीन स्थान रहा होगा। कम से कम इतना ख्याति प्राप्त कि इस मानचित्र के निर्माता का ध्यान जब उत्तराखंड के स्थानों का नाम लिखने की ओर गया होगा तो उसे अल्मोड़ा के अलावा केवल नैनीताल नाम ही याद आया होगा। उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष यानी 1823 में ही जॉर्ज विलियम ट्रेल के नैनीताल आने की बात कही जाती है। उल्लेखनीय है कि नैनीताल का “त्रिषि सरोवर” के नाम से पौराणिक इतिहास भी है।

यूं ही नहीं, तत्कालीन विश्व राजनीति की रणनीति के तहत अंग्रेजों ने बसासा था नैनीताल

-रूस को भारत आने से रोकने और पहले स्वतंत्रता आंदोलन का बिगुल फूंक चुके रुहेलों से बचने के लिए अंग्रेजों ने बसाया था नैनीताल, नैनीताल के प्राकृतिक सौंदर्य ने भी खूब लुभाया था अंग्रेजों को

डॉ. नवीन जोशी, नैनीताल। ऐसा माना जाता है कि 18 नवम्बर 1841 को एक अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन नैनीताल आया और उसने इस स्थान के थोकदार नर सिंह को नाव से झील के बीच ले जाकर डुबो देने की धमकी दी और शहर को कंपनीबहादुर के नाम करवा दिया था। यह अनायास नहीं था कि एक अंग्रेज इस स्थान पर आया और उसकी खूबसूरती पर फिदा होने के बाद इस शहर को ‘छोटी विलायत’ के रूप में बसाया।

साथ ही शहर को अब तक सुरक्षित रखे नाले और अब भी मौजूद राजभवन, कलेक्ट्रेट, कमिश्नरी, सचिवालय (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट) तथा सेंट जॉन्स, मैथोडिस्ट, सेंट निकोलस व लेक र्चच सहित अनेकों मजबूत व खूबसूरत इमारतों के तोहफे भी दिए। सर्वविदित है कि नैनीताल अनादिकाल काल से त्रिऋषि सरोवर के रूप में अस्तित्व में रहा स्थान है। अंग्रेजों के यहां आने से पूर्व यह स्थान थोकदार नर सिंह की मिल्कियत थी। तब निचले क्षेत्रों से ग्रामीण इस स्थान को बेहद पवित्र मानते थे, लिहाजा सूर्य की पौ फटने के बाद ही यहां आने और शाम को सूर्यास्त से पहले यहां से लौट जाने की धार्मिक मान्यता थी।

कहते हैं 1815 से 1830 के बीच कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर रहे जीडब्ल्यू ट्रेल यहां से होकर ही अल्मोड़ा के लिए गुजरे और उनके मन में भी इस शहर की खूबसूरत छवि बैठ गई, लेकिन उन्होंने इस स्थान की धार्मिक मान्यताओं की मर्यादा का सम्मान रखा। दिसम्बर 1839 में पीटर बैरन यहां आया और इसके सम्मोहन से बच न सका। व्यवसायी होने की वजह से उसके भीतर इस स्थान को अपना बनाने और अंग्रेजी उपनिवेश बनाने की हसरत भी जागी और 18 नवम्बर 1841 को वह पूरी तैयारी के साथ यहां आया। वह औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था।

नए उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैंड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किये, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। (18 November-Nainital began to Built or Ruined, Nainital History, Nainital Establishment Day, 18 November 1841, Peter Barron)

इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बंद हो गऐ थे और वह केवल तिब्बत की ओर के मागरे से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखंड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दरे से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। ऐसे में अंग्रेज रूस को यहां आने से रोकने के लिए पर्वतीय क्षेत्र में अपनी सुरक्षित बस्ती बसाना चाहते थे।

दूसरी ओर भारत में पहले स्वाधीनता संग्राम की शुरूआत हो रही थी। मैदानों में खासकर रुहेले सरदार अंग्रेजों के दुश्मन बने हुऐ थे। मेरठ गदर का गढ़ था ही। ऐसे में मैदानों के सबसे करीब और कठिन दरे के संकरे मार्ग से आगे का बेहद सुंदर स्थान नैनीताल ही नजर आया, जहां वह अपने परिवारों के साथ अपने घर की तरह सुरक्षित रह सकते थे। ऐसा हुआ भी। (18 November-Nainital began to Built or Ruined, Nainital History, Nainital Establishment Day, 18 November 1841, Peter Barron)

हल्द्वानी में अंग्रेजों व रुहेलों के बीच संघर्ष हुआ, जिसके खिलाफ तत्कालीन कमिश्नर रैमजे नैनीताल से रणनीति बनाते हुए हल्द्वानी में हुऐ संघर्ष में 100 से अधिक रुहेले सरदारों को मार गिराने में सफल रहे। रुहेले दर्रे पार कर नैनीताल नहीं पहुंच पाये और यहां अंग्रेजों के परिवार सुरक्षित रहे। (18 November-Nainital began to Built or Ruined, Nainital History, Nainital Establishment Day, 18 November 1841, Peter Barron)

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