12 फरवरी को महर्षि दयानंद के जन्म दिवस पर विशेषः उत्तराखंड में यहाँ है महर्षि दयानंद के आर्य समाज का देश का पहला मंदिर
- आर्य समाज की 1875 में स्थापना से पूर्व 1874 में महर्षि दयानंद से प्रभावित नगर के लोगों ने नगर में बनाई थी ‘सत्य धर्म प्रकाशिनी सभा’, और की थी आर्य समाज मंदिर की स्थापना
नवीन जोशी, नैनीताल। अंग्रेजों द्वारा ‘छोटी बिलायत’ के रूप में 1841 में बसायी गयी सरोवरनगरी नैनीताल के 1845 में ही देश की प्रारंभिक नगर पालिका के रूप में स्थापित होने, यहीं से उत्तराखंड में देशी (हिंदी-उर्दू) पत्रकारिता की 1868 में शुरुआत ‘समय विनोद’ नाम के पाक्षिक समाचार पत्र से होने सहित अनेकानेक खूबियां तो जगजाहिर हैं, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि नैनीताल में ही देश का पहला आर्य समाज मंदिर 1874 में आर्य समाज की स्थापना से भी पूर्व से नगर के तल्लीताल में स्थापित हुआ था। इसे आजादी के बाद 1941 से नगर के पहले भारतीय नगर पालिका अध्यक्ष रहे रायबहादुर जसौत सिंह बिष्ट तथा कुमाऊं के आयुक्त आरबी शिवदासानी के प्रयासों से इसे मल्लीताल के वर्तमान स्थल पर स्थानांतरित किया गया।
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इतिहासकार डा. अजय रावत ने बताया कि हिंदू धर्म में 19वीं शताब्दी में आयी बलि प्रथा व अवतारवाद जैसे झूठे कर्मकांडों व अंधविश्वासों के उन्मूलन के लिए भारतीय सुधार आंदोलन कहे जाने वाले ‘आर्य समाज’ की स्थापना करने के साथ ही देश की स्वाधीनता के पहले संग्राम के लिए क्रांति की मशाल जलाने तथा सत्यार्थ प्रकाश जैसी धर्मसुधारक पुस्तक लिखने वाले और देश के स्वाधीनता संग्राम के लिए क्रांति की मशाल जलाने के साथ ही मैडम भीकाजी कामा, स्वामी श्रद्धानंद, लाला हरदयाल, मदन लाल ढिंगरा, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, लाला लाजपत राय व वीर सावरकर आदि अनेक क्रांतिकारियों के प्रणेता महान वेदांत विद्वान स्वामी दयानंद सरस्वती (जन्म 12 फरवरी 1824) 1855 में कुमाऊं के भ्रमण पर आये थे। वे सर्वप्रथम यहां पंडित गजानंद छिमवाल के नैनीताल जनपद स्थित ढिकुली रामनगर की इस्टेट में आये थे, और इस दौरान सीताबनी व काशीपुर भी गये थे, और यहां द्रोण सागर के पास उस स्थान पर तपस्या की थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहीं द्रोणाचार्य ने कौरव व पांडव राजकुमारों को तीरंदाजी का प्रशिक्षण दिया था। इसके अलावा वे नैनीताल जिले के गरमपानी, रानीखेत, द्वाराहाट और दूनागिरि (द्रोणगिरि) भी गये थे।
बहरहाल, महर्षि दयानंद सरस्वती के दर्शन से प्रभावित पंडित गजानंद छिमवाल और उनके साथियों ने नगर में 20 मई 1874 को सत्य धर्म प्रकाशिनी सभा की स्थापना की थी। 1875 में महर्षि द्वारा मुंबई में आर्य समाज की स्थापना करने के बाद ‘सत्य धर्म प्रकाशिनी सभा’ के सदस्यों ने आर्य समाज से हाथ मिला लिये, और अपने तल्लीताल स्थित भवन में आर्य समाज मंदिर की स्थापना की। आर्य समाज मंदिर के पदाधिकारियों की सूची में भी इसकी पुष्टि होती है। जिसके अनुसार 1874 से 1877 तक आर्य समाज नैनीताल के प्रधान गजानंद छिम्वाल व मंत्री राम दत्त त्रिपाठी रहे। इसके साथ ही कुमाऊं के विभिन्न स्थानों पर आर्य समाज की शाखाएं जसपुर में 1880 में, काशीपुर में 1885 में, 1898 में हल्द्वानी में व 1904 में रामनगर में स्थापित हुईं।
महर्षि दयानंद की शिक्षाओं से कुमाऊं में हुआ अछूतोद्धार
नैनीताल। डा. रावत ने बताया कि महर्षि दयानंद सरस्वती की शिक्षाओं से ही कुमाऊं में अछूतोद्धार का मार्ग प्रशस्त हुआ। महर्षि से प्रभावित होकर ही 1906 से अछूतों को महात्मा गांधी द्वारा दिये गये शब्द ‘हरिजन’ की जगह ‘शिल्पकार’ कहे जाने के लिए प्रयासरत खुशी राम 1907-08 में आर्य समाजी राम प्रसाद के संपर्क में आये और उन्हें 1921 में शिल्पकारों को पवित्र ‘जनेऊ’ धारण करने का अधिकार मिलने के साथ उनकी कोशिश में सफलता हाथ लगी। इसके बाद ही खुशी राम को कांग्रेस के नेताओं की ओर से राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने की पेशकश की गयी, और 1934 में उनके प्रयासों से ही ‘शिल्पकार आंदोलन’ देश की राष्ट्रीय धारा का एक अभिन्न अंग बना। उत्तराखंड में जयानंद भारतीय, कोतवाल सिंह नेगी, बलदेव सिंह आर्य, दिवान सिंह नेगी व नरदेव शास्त्री आदि उत्तराखंडी आर्य समाजियों ने भी राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।