खरी खरी : 70वां गणतंत्र दिवस – संकल्प करने का दिन
खरी खरी – 11
प्रतिवर्ष जनवरी महीने में चार विशेष दिवस एक साथ मनाये जाते हैं | 23, 24, 25 और 26 जनवरी | 23 को नेताजी सुभाष जयंती, 24 को राष्ट्रीय बलिका दिवस ( इस दिन 1966 में श्रीमती इंदिरा गाँधी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी थी ), 25 को मतदाता जागरूकता दिवस और 26 को 1950 में हमारा संविधान लागू हुआ था | वर्ष 2016 से 22 जनवरी को ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ दिवस भी मनाया जाने लगा है | हमने विगत 69 वर्षों में बहुत कुछ पाया है और देश में विकास भी हुआ है परन्तु बढ़ती जनसंख्या ने इस विकास को धूमिल कर दिया | 69 वर्ष पहले हम 43 करोड़ थे और आज 130 करोड़ हैं अर्थात उसी जमीन में 87 करोड़ जनसंख्या बढ़ गई |
हमने मिजाइल बनाए, ऐटम बम बनाया, अन्तरिक्ष में धाक जमाई, कृषि उपज बढ़ी, साक्षरता दर जो तब 2.55% थी अब 74.1% है | रेल, सड़क, वायुयान, उद्योग, सेना, पुलिस, अदालत आदि सब में बढ़ोतरी हुई | इतना होते हुए भी हमारी लगभग 25 % जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है जिनकी प्रतिदिन की आय पचास रुपए से भी कम बताई जाती है | देश की सभी जनता के पास अभी भी शौचालय नहीं हैं | कई स्कूलों और आगनबाड़ी केन्द्रों में पेय जल नहीं है और दूर-दराज में कई जगह अभी बिजली नहीं पहुँची है | प्रतिवर्ष हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं | अदालतों में करीब तीन करोड़ से भी अधिक मामले लंबित हैं और एक केस सुलझाने में कई वर्ष लग जाते हैं | ब्रेन ड्रेन भी नहीं थमा है |
विदेशों की नजर में हम निवेश के लिए सुरक्षित नहीं हैं | 187 देशों में हमारा नंबर 169 है अर्थात उनकी नजर में 168 देश उनके लिए हमसे अधिक सुरक्षित हैं | विश्व के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में हमारा नाम नहीं है | बताने के लिए तो बहुत कुछ है जिससे मनोबल को ठेस लगेगी | प्रतिवर्ष राजपथ पर गणतंत्र दिवस परेड हमारा मनोबल बढ़ाती है | हमारे सुरक्षा प्रहरी हिम्मत और शक्ति के परिचायक हैं जो सन्देश देते हैं कि हमारी सीमाएं सुरक्षित और चाकचौबंद हैं | हमें अपने देश में ईमानदारी के पहरुओं पर भी गर्व है | हम अभी विकासशील देश हैं क्योंकि हमारे पास विकसित देशों जैसा बहुत कुछ नहीं है |
भारत को विकसित राष्ट्र बनने में देर नहीं लगेगी यदि ये मुख्य चार दुश्मनों – भ्रष्टाचार, बेईमानी, अकर्मण्यता और अंधविश्वास से उसे निजात मिल जाय | इसके अलावा नशा, आतंकवाद, अशिक्षा, गरीबी, गन्दगी और साम्प्रदायिकता भी हमारी दुश्मनों की जमात में हैं | यदि हम इन दस दुश्मनों को जीत लें तो फिर भारत अवश्य ही सुपर पावर समूह में शामिल हो सकता है | इन दुश्मनों की चर्चा हमारे राष्ट्र नायकों सहित देश के कई प्रबुद्ध नागरिकों ने पहले भी कई बार की है और आज भी हो रही है | आइये इस गणतंत्र पर संकल्प करें और इन सभी दुश्मनों को जड़ से उखाड़ फेंकने में सहयोग करते हुए देश को महाशक्ति समूह में शामिल करें | आप सबको 70वे गणतंत्र दिवस की बधाई | अगली बिरखांत में कुछ और… (पूरन चन्द्र काण्डपाल 25.01.2019)
खरी खरी – 10 : प्यारल समझौ नना कैं…
बेई चनरदा मिलीं और अच्यालाक ननाक बार में कुछ ज्यादै चिंता में डुबि रौछी। बतूण लागीं, “ के कई जो हो महाराज हम आपण नना देखि डरै फै गोयूं और डरा मारि हमूल नना हैं के लै कौण छोड़ि हालौ। हर दुसार दिन खबर मिलीं या टी वी में हम देखनूं कि इज या बौज्यूकि डांट पड़ण पर फलाण नान घर बै भाजि गो या फंद पर लटकि गो। य डराक वजैल हमूल लै नना हैं के कौण छोडि है जो भलि बात न्हैति। हमूल नना कैं टैम दीण चैंछ। प्यारल समझै बेर लै नान मानि जानी पर य काम बिलकुल नानछिना यानै शैशव काल बै शुरू हुण चैंछ। जता लै हमू कैं नना में क्वे लै अवगुण नजर ओ, हमूल धृतराष्ट्र या गांधारी नि बनण चैन। दुर्योधनाक अवगुणों कैं वीक इज- बौज्यूल देखीयक अणदेखी करि दे। उनूल गुरु द्रोणाचार्यकि बात कैं लै अणसुणी करि दे। जब लै क्वे हमूं हैं हमार नना कि बुराई करनी हमूल नक् मानणक बजाय चुपचाप विकि बात कैं जाचण –परखण चैंछ। कम उमराक नान लै हमार दिई मोबाइल या कंप्यूटर पर उत्तेजनात्मक दृश्य देखें रईं। देश में 13 साल है कम उम्र क 76 % नान रोज यू ट्यूब में वीडियो देखें रईं जनूल आपण अभिभावकों कि इजाजत ल आपण एकाउंट बनै रौछ। ननाकि भाषा लै गन्दी या अशिष्ट है गे। ऊँ आपण आम-बुबू कैं लै के नि समझन और नै उनरि सुणन। उनू कैं घर का खाण लै भल नि लागन। ऊँ चाउमिन, मोमोज, बर्गर, चिप्स, फिंगर फ्राई और बोतल बंद पेयल म्वाट लै हूं फैगीं या उनरि तंदुरुस्ती बिगड़ण फैगे। घर में लै हाम नना पर के खाश अनुशासन नि लगून और उनुकें ज्यादै पुतपुतै दिनू। रतै उठण बटि रात स्येतण तक नना लिजी टैमक कैद-क़ानून हुण चैंछ। खेल और टी वी पर एक-एक घंट है ज्यादै टैम दींण ठीक न्हैति। 15 अगस्त या 26 जनवरी कि छुट्टी देर तक स्येतणक लिजी नि हुनि बल्कि जल्दि उठि बेर य दिन कैं मनूणक लिजी हिंछ। कुछ लोग आपण अवयस्क लाडलों कैं स्कूटर, मोटरसाइकिल या कार चलूणकि खुलि छूट दीं रईं। गली-मुहल्ल में अक्सर यौ दृश्य हाम देखैं रयूं। अवयस्क लाड़िल आपण वाहन ल नजीक में खेलणी नना कैं कुचलि द्युछ। कैकै निर्दोष नान मारी गाय और य लाड़िल कैं सजा लै नि हुनि क्यलै कि उ अवयस्क मानी जांछ। रात में यूं जोर जोरैल हॉर्न बजै बैर लोगों कैं परेशान करि बेर उड़नछू है जानी। पुलिस सब चैरीं पर चुप भैटी रैंछ। यास ननाक अभिभावकोंक लेसंस रद्द हुण चैंछ। हालकि रिपोटक अनुसार सड़क दुर्घटनाओं में हमार देश में हर साल डेड़ लाख बेक़सूर लोग मारी जानी और तीन लाख लोग घैल है जानी। य संख्या में अवयस्क लाडलों द्वारा मारी गईं निर्दोष लोग लै शामिल छीं। नना दगै देशप्रेम और शहीदोंकि चर्चा लै हुण चैंछ। हमूल आपण नना क व्यवहार, बोलचाल, संगत, आदत, आहार और स्वच्छता पर जरूर नजर धरण चैंछ। अगर शुरू बटि अनुशासन ह्वल तो अघिल जै बेर डांटणक सवाल पैद नि हवा। नना दगै अभिभावकोंक मित्रवत व्यवहारल उनर भविष्य भल रांछ और नान एक समझदार नागरिक बननी। तो अंत में य कूण चानू कि आपण नना लिजी टैम जरूर निकालिया नतर एक दिन पछताण पड़ि सकूं।” (पूरन चन्द्र काण्डपाल
20.01.2019)
खरी खरी -9 : निगम बोध घाट पर शवदाह, उत्तराखंडी और क्योटो…
उत्तराखंड के सरोकारों से सराबोर होने की बात तो हम सब करते ही हैं परन्तु अपने हिस्से का क्रियान्वयन हम नहीं करते। हम ‘बन बचाओ, नदी बचाओ, पेड़ लगाओ, प्रकृति से छेड़छाड़ मत करो और शराब-धूम्रपान-गुट्का से उत्तराखंड को बचाओ’ भी कहते हैं। हम गंगा-यमुना की स्वच्छता बहश में भागीदारी भी करते रहे हैं। परन्तु न हमें पेड़ लगाने की चिंता हैं, न पर्यावरण बचाने की और न नदी बचाने की। उदाहरण के लिए दिल्ली में यमुना किनारे स्थित निगम बोध श्मशान घाट की चर्चा करते हैं। यहाँ पर उत्तराखंड एवं कुछ अन्य जगहों के लोग शवदाह यमुना नदी के किनारे करते हैं और चार-पांच घंटे में शव दाह कर सम्पूर्ण राख-कोयला यमुना में बहा देते हैं। काला गंदा नाला बन चुकी यमुना की दुर्दशा निगमबोध घाट पर देखी नहीं जा सकती है। यहाँ पर शवदाह की व्यवस्था (CNG) सी एन जी फर्नेश से भी है। छह फर्नेश (भट्टी) चालू हालत में हैं। एक शवदाह में एक घंटा बीस मिनट का समय लगता है। शवदाह में समय तो बचता ही है एक पेड़, पर्यावरण, हवा और यमुना भी बचती है और शवदाह में कर्मकांड की वे सभी क्रियाएं भी की जाती हैं जो लकड़ी के दाह में की जाती हैं। शवदाह में सी एन जी खर्च मात्र एक हजार रुपये है जबकि लकड़ियों का खर्च ढाई से पांच हजार रुपये तक हो जाता है। अक्सर फट्टे, लकडियां, चीनी दोबारा मंगाई जाती हैं क्योंकि फट्टे और चीनी में मुर्दाघाट में भी कमीशन का यमराज बैठा है। यह सब जानते हुए भी लोगों का रुझान सी एन जी दाह के प्रति नहीं दिखाई देता। अन्धविश्वास की जंजीरें उन्हें बांधे हुए हैं। तर्क दिया जाता है कि ‘हमारी परम्परा लकड़ी में ही जलाने की है और लकड़ी में जलाने से ही मृत व्यक्ति सीधा स्वर्ग जाएगा।’ यमुना के मायके वाले उत्तराखंडियों को तो यमुना की अधिक चिंता होनी चाहिए। यदि मानसिकता नहीं बदली तो प्रधानमंत्री के बनारस को क्योटो बनाने के सपने का क्या होगा ? वहां भी पण्डे घाटों की स्वच्छता में कुछ न कुछ रोड़ा अटका रहे हैं। पेड़, पर्यावरण, प्रदूषण एवं नदियों की चिंता के साथ आज रुढ़िवादी एवं अंधविश्वासी परम्पराओं-प्रथाओं को बदलने की आवश्यकता भी है। क्या हम सोसल मीडिया के भागीदार इन मुद्दों पर जनजागृति करेंगे ? वक्त आने पर इसे अपनायेंगे या अपनाने को कहेंगे ? या सिर्फ दूसरों से ही इस कदम की अपेक्षा करेंगे ? हो सके तो इस मुद्दे पर चर्चा करें और वक्त आने पर क्रियान्वयन में मदद करें। कौन क्या कर रहा है, बात यह नहीं है। मुख्य बात है कि हम क्या कर रहे हैं ? कथनी –करनी में अंतर हम रोज देखते हैं। शराब-धूम्रपान-गुट्के के विरोध में मंच से कविता पाठ करने वाले तथा लम्बे-लम्बे भाषण देने वालों को मैंने उसी समारोह के समापन के तुरंत बाद शराब गटकते, सिगरेट पीते और गुट्का फांकते देखा है। पर उपदेश.. के प्रवचनों की हमारे इर्द-गिर्द बाड़ आई है। हम स्वयं से इन सवालों को पूछें और अपने हिस्से का क्रियान्वयन से कतराएं नहीं। अगली बिरखांत में कुछ और… (पूरन चन्द्र काण्डपाल 19.01.2019)
खरी खरी -8 : न मचाइये ‘शोर’
अदालत की नाराजगी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले साल धार्मिक स्थलों और सार्वजनिक स्थानों पर बिना सरकारी अनुमति के लाउडस्पीकर लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया था । कहा गया था कि शीघ्र ही लाउडस्पीकर हटाने का कार्य आरम्भ हो जाएगा । मज़हब, धर्म, आस्था के नाम पर शोर करने वालों को खुशी-खुशी अदालत के आदेश को मानते हुए स्वयं लाउडस्पीकरों को हटा लेने की अपील भी की गई थी । पता नहीं उस अपील की कितनी मान्यता हुई और उस कानून का पालन हुआ कि नहीं ? देश की राजधानी में तो प्रतिबंध के बाद भी खुलेआम अवहेलना होती है । चार दशक पहले सुप्रसिद्ध सिनेस्टार मनोज कुमार ने एक फ़िल्म “शोर” बनाई थी जिसमें ध्वनि प्रदूषण से होने वाले रोगों और परेशानियों को रेखांकित किया गया था । आज समाज में धार्मिक आयोजन के नाम पर पूरी रात लोगों को परेशान किया जाता है । डीजे, बारात के लाउडस्पीकर वाले बैंड, बारात के पटाखों और मंत्रियों के कारों पर लगे उच्च शोर के हूटरों पर भी सख्ती से प्रतिबंध लगना चाहिए । जिस आयोजन में डीजे बजता है वहाँ न आप किसी से बोल सकते हैं और न वहाँ खड़े रह सकते हैं फिर भी वहाँ पर हम अपने छोटे- छोटे बच्चों को नाचने के लिए प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि उस नन्हे के कान के पर्दों पर इस शोर का कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है । उस शोर से उत्पन्न सिर दर्द के साथ हम वापस आते हैं । ध्वनि प्रदूषण से परेशानी तो होती है कई प्रकार के रोग भी इस मानव जनित समस्या से लगते हैं। समाज को दुखित करने वाली शोर जनित इन समस्याओं से निपटने के लिए जन-संगठनों को पूर्ण रूप से सहयोग करना चाहिए । इस कानून का हाल भी नदियों में मूर्ति विसर्जन नहीं करने और रात को पटाखे नहीं चलाने जैसा नहीं होना चाहिए । ये दोनों ही कानून अवहेलना की भेंट चढ़ गए । (पूरन चन्द्र काण्डपाल 11.01.2019)
खरी खरी – 7 : प्यार करिये मगर…उन्हें मत बिसारिये
( खरी खरी -6 (07.01.19) से ही संदर्भित ) बूबू कालिदास से लेकर बूबू शेक्सपियर तक सबने कहा है कि प्यार करना गुनाह नहीं है परंतु इन्होंने प्यार को अँधा भी बताया है । हम अंधे प्यार करने वाले न बनें । कुछ लोग कहते हैं प्यार किया नहीं जाता हो जाता है । जब तक दिल का आदेश नहीं होगा तब तक यह कैसे हो जाएगा ? ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि मन लगा गधी पर तो परी क्या चीज है ? हम पेड़ या पत्थर से तो नहीं उगे । दिल- दिमाग से सोचना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं और किधर जा रहे हैं ? हम बालिग़ या बड़े सिर्फ इसी स्वच्छंदता के लिए तो नहीं हुए कि दिवाने हो जाएं और अपनों को ही रास्ते से हटा दें । यह विषय बहुत बड़ा है, गंभीर है और गूढ़ है । मां- बाप को भुला देना इतना आसान भी नहीं है । इस बात का पता प्यार का खुमार उतरने के बाद चलता है । इसलिये प्यार करिये, प्यार को मंजिल तक पहुंचाइये मगर उन्हें मत बिसारिये जिन्होंने आपको प्यार करने लायक बनाया । हमें याद रखना चाहिए कि हमें कहाँ तक स्वीकारा जा सकता है और कहाँ तक नहीं ? पूरन चन्द्र काण्डपाल (8.1.2019)
खरी खरी – 6 : प्रेम-विवाह करिये पर रहे ध्यान इतना…
लव मैरेज या प्रेम विवाह पर पूछे गए एक प्रश्न पर कहना चाहूंगा कि प्रेम विवाह में अभिभावकों को विश्वास में लेना जरूरी है। कुछ लोग जोखिम उठा रहे हैं जो तब तक सफल नहीं होते जब तक विनम्रता से सुलह नहीं कर लेते। शादी के लिए मात्र 6 लोग चाहिए। 2 वे प्रेमी खुद,2 उधर के अभिभावक और 2 इधर के। बाकी सब तो उत्सव में नुक़्तेदार भागीदारी निभाते हैं। इसलिए शादी करने वालों ने उधर के 2 और इधर के 2 (दोनों ओर के माता-पिता या अभिभावकों) को जरूर विश्वास में लेना चाहिए या तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए जब तक वे मान न जाएँ और हरी झंडी न दिखा दें। माँ-बाप आपका भला सोचते हैं। उनका अनुभव होता है। उनसे विद्रोह करना अनुचित। उनका दृष्टिकोण जरूर ठन्डे दिमाग से सोचें। देर-सबेर आप कहेंगे कि मेरे माता-पिता सही थे। बाद में यह न कहना पड़े “सबकुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया।” स्मरण रहे यहां प्रेम-विवाह का विरोध नहीं किया जा रहा है। किसी भी विवाह की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि विवाह के पश्चात यह युगल एक-दूसरे के साथ कितना एडजस्ट (निभाना) कर सकता है। यह कटु सत्य है कि विवाह का एक नाम समझौता भी है क्योंकि दोनों को ही यदाकदा ऐसा लगता है कि उनकी स्वतंत्रता,विचार और व्यवहारिकता का हनन हो रहा है। निष्कर्ष यह है कि प्यार करिये, अपनों को विश्वास में लीजिये, प्यार के बाद विवाह करिये और अंत तक निभाइए ताकि बेचारे प्रेम-विवाह पर कोई अंगुली न उठा सके।
खरी ख़री – 5 : तेलंगाना-आंध्रा से भी कुछ नहीं सीखा हमने…
देश का 29वां राज्य तेलंगाना 2 जून 2015 को घोषित हुआ। इसकी राजधानी हैदराबाद घोषित हुयी। आंध्रा के लिए नयी राजधानी अमरावती तय हुयी जिसका निर्माण कार्य जोरों पर है। हमारे राज्य को बने हुए 18 वर्ष हो गए। इस दौरान यहां 8 मुख्यमंत्री बने परंतु राजधानी गैरसैण तय होने के बाद भी अभी तक देहरादून में अटकी है। अभी तक गैरसैण को राजधानी घोषित भी नहीं किया गया है। तेलंगाना में 11 अक्टूबर 2016 को 21 नए जिले भी अस्तित्व में आ गए हैं। उत्तराखंड में 4 जिले घोषित हुए एक अरसा बीत गया परंतु अस्तित्व अभी दूर है। हम कुछ तो तेलंगाना-आंध्र प्रदेश से सीखें। हमें शायद बुसिल ढुंग इसीलिये कहने लगे हैं लोग। क्या गैरसैण राजधानी के लिए एक आंदोलन की आवश्यकता पड़ेगी ? उनका सिंगल इंजन और इनका डबल इंजन शक्तिहीन हो गए हैं। राजधानी की कोई बात ही नहीं करता। अब जनता को सोचना है। पलायन रोकने और उत्तराखंड में विकास को गति देने के लिए राजधानी का गैरसैण कूच नितांत आवश्यक है। राज्य आंदोलन के 42 शहीदों ने भी राजधानी गैरसैण ही तय की थी और इसके लिए अपना बलिदान दिया था। पलायन से विगत 10 वर्षों में करीब 5 लाख लोग राज्य से पलायन कर गए। गैरसैण राजधानी बनती तो पलायन अवश्य थमता। 2019 चुनाव का मुद्दा ‘राजधानी गैरसैण’ बने तो बात बन सकती है।
पूरन चन्द्र काण्डपाल
06.01.2019
खरी ख़री – 4 : काइ कमै वापिस ल्यौ, देश लुटणियां कैं जेल भेजो
काइ कमै करनै करनै
भरी गईं स्विस बैंक,
देश क धन विदेश छिरिकी गो
न्हैगो भरि भरि टैंक,
न्हैगो भरि भरि टैंक
यां धरुहैं जागि नि छी,
काव् धन येतू है गोछी
विकि समाव को करछी,
कूंरौ ‘पूरन’ लगौ जुगत
वापिस ल्यौ एक एक पाइ,
देश लुटणियां कैं जेल भेजो
कब्जै ल्यो कमै जो काइ ।
पूरन चन्द्र काण्डपाल
05 .01. 2019
खरी खरी – 3 : राष्ट्र गीत ‘वंदे मातरम’
कुछ मित्रों ने 'वंदेमातरम' राष्टगीत के बारे में जिज्ञासा जाहिर की है। वर्ष 1876 में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने सन्यासी विद्रोह पर आधरित 'आनंद मठ' पुस्तक में यह गीत लिखा। 1896 में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर ने कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में इस गीत को स्वर दिया। 1905 में अखिल भारतीय कांग्रेस के वाराणसी अधिवेशन में इसे आजादी की लड़ाई का गीत बनाया गया। बाद में अंग्रेजों ने इस गीत पर प्रतिबंध लगा दिया। आजादी के बाद संविधान सभा में इसे 'राष्ट्रगीत' का दर्जा मिला जबकि 'जनगणमन' को राष्ट्रगान का दर्जा दिया गया।
'वंदेमातरम' गीत पर देश में अक्सर राजनीति होती है। परन्तु इसे गाया जाना स्वैच्छिक है अर्थात राष्ट्रगान की तरह अनिवार्य नहीं। (यदि है तो मेरी जानकारी भी बढ़ाएं।) कई बार यह भी सुनने को मिलता है कि अमुक ने इसे अमुक जगह जरूर गाने या बोलने पर बाध्य किया। देशप्रेम की बात तब जोर-जबर्दस्ती नहीं हो सकती जब इस पर राजनीति हो। हमारा राष्ट्र ध्वज तिरंगा है। हम इसकी आन-बान-शान पर कुर्बान होने की शपथ लेते हैं। इसके लहराते ही हम 'राष्ट्रगान: गाते हैं या इसकी धुन बजाते हैं। हमें अपने दिल से 'राष्ट्रगान' का सम्मान करना चाहिए और इसके गाने के वैधानिक नियमों को भी समझना चाहिए। साथ ही हमें अपने 'राष्ट्रगीत' का सम्मान भी करना चाहिए भले ही इसके गाने या समय की कोई वैधानिक नियमावली नहीं है।
कुछ दिन पहले हमने 'वंदेमातरम' के बारे में कई मित्रों से चर्चा की। सभी वर्ग-आयु के लोगों से इसके बारे में पूछा। जो 'वंदेमातरम' को हर जगह जबरजस्ती अनिवार्य करने के पक्ष में थे। उनमें से किसी को भी राष्ट्रगीत का 'तीसरा शब्द' भी मालूम नहीं था। कई लोग तो 'राष्ट्रगान' भी अच्छी तरह नहीं जानते। पहले हम 'राष्ट्रगान' और 'राष्ट्रगीत' को स्वयं याद करें और इनका शुद्ध उच्चारण और भावार्थ समझें तब अन्य मित्रों से इसकी उम्मीद करें। जो मित्र राष्ट्रगीत को जानने की जिज्ञासा रखते हैं उनके लिए इसका आरंभिक छंद नीचे उधृत है :-
वन्दे मातरम.. वन्दे मातरम्..
सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्
शस्य श्यामलां मातरं वन्दे मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिनीम्,
सुखदां वरदां मातरम,वन्दे मातरम्
वन्दे मातरम.. वन्दे मातरम् ।
पूरन चन्द्र काण्डपाल
04.01.2019
खरी-खरी – 2 : दुनिया के साथ हैपी न्यू ईयर भी सही
जी हां, आपको भी ‘हैपी न्यू ईयर’, नव वर्ष की बधाई। भारत का नव वर्ष तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (मार्च द्वितीय सप्ताह) माना जता है परन्तु उस दिन बहुत कम लोगों को हैपी न्यू ईयर या नव वर्ष की बधाई कहते हुए सुना गया है। हमारे देश में मुख्य तौर से प्रति वर्ष तीन नव वर्ष मनाये जाते हैं। पहला 1 जनवरी को जिसकी पूर्व संध्या 31 दिसंबर को मार्केटिंग के बड़े शोर-शराबे के साथ मनाई जाते है। 1 जनवरी का शुभकामना संदेश भी बड़े जोर-शोर से भेजा जाता है। आज भी यही हो रहा है। वाट्सैप, फेसबुक सहित सभी सोशल मीडिया में इस तरह के संदेशों का सैलाब आया है कि संभाले नहीं संभल रहा। यह नव वर्ष भारत सहित अंतरराष्ट्रीय जगत में सर्वमान्य हो चुका है। दुनिया के साथ चलना ही पड़ता है। जो नहीं चलेगा वह पीछे रह जाएगा, कम्प्यूटर क्रान्ति इसका एक उदाहरण है। हमने माशा, रत्ती, तोला, छटांग, सेर और मन की जगह मिलि, सेंटी, डेसी,/ डेका, हेक्टो, किलो, क्विंटल और टन अपनाया है तो विश्व के साथ जनवरी 1 को नववर्ष मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए। घर में हमने अपने बच्चों को हिन्दी महीनों/दिनों के नाम बताने भी छोड़ दिये हैं। 29, 39, 49, 59, 69, 79, 89 और 99 को हिंदी में क्या कहते हैं, हमारे अधिकांश बच्चे नहीं जानते। पूछ कर आज ही देखिये। हम कोई भी भाषा सीखें परन्तु अपनी मातृभाषा तो नहीं भूलें। हमारे देश का वित्त नव वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च तक होता है। दूसरे नव वर्ष को विक्रमी सम्वत कहते हैं जो ईसा पूर्व 57 से मनाया जता है। 2019 में वि.स. 2076 है जो 21 मार्च 2018 को आरम्भ हुआ था। तीसरा नव वर्ष साका वर्ष है जो 78 ई. से आरम्भ हुआ अर्थात यह वर्तमान 2018 से 78 वर्ष पीछे है। इसका वर्तमान वर्ष 1940 है। भारत एक संस्कृति बहुल देश है जहां कई संस्कृतियाँ एक साथ फल-फूल रहीं हैं। यहां लगभग प्रत्येक राज्य में अलग अलग समय पर नव वर्ष मनाया जाता है। अनेकता में एकता का यह एक विशिष्ट उदाहरण है। हमारे देश ‘भारत’ का नाम अंग्रेजी में ‘इंडिया’ है। कई लोग कहते हैं कि हमारे देश का नाम सिर्फ और सिर्फ ‘भारत’ होना चाहिए। पड़ोसी देशों के नाम अंग्रेजी में भी वही हैं जो वहां की अपनी भाषा में हैं। ‘इंडिया’ शब्द ‘इंडस’ से आया। ‘इंडस’ शब्द ‘हिंदु’ से आया और ‘हिंदु’ शब्द ‘सिन्धु’ से आया (इंडस रिवर अर्थात सिन्धु नदी)| ग्रीक लोग इंडस के किनारे के लोगों को ‘इंदोई’ कहते थे| जो भी हो यदा कदा यह प्रश्न बना रहता है कि एक देश के दो नाम क्यों ? देश में कुछ लोग ‘इंडिया’ को अमीर और ‘भारत’ को गरीब भी मानते हैं अर्थात इंडिया मतलब ‘शहरीय भारत’ और भारत मतलब ‘ग्रामीण भारत’। हमारा देश सिर्फ ‘भारत’ ही पुकारा जाय तो अच्छा है। हमारे संविधान के आमुख में भी लिखा है “वी द पीपल आफ इंडिया दैट इज ‘भारत’…” अर्थात हम भारत के लोग…। हम भारतीय हैं, ‘वसुधैव कुटम्बकम’ हमारा विश्व दर्शन इसलिए सबके साथ 1 जनवरी को मुस्कराते हुए नव वर्ष की बधाई कहने में हिचक कैसी ? अगली बिरखांत में कुछ और …पूरन चन्द्र काण्डपाल (03.01.2019)।
आज हम ‘नवीन समाचार’ में एक नया स्तम्भ ‘खरी-खरी’ शुरू कर रहे हैं। इस स्तम्भ में प्रदेश के हिंदी एवं कुमाउनी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, रोहिणी दिल्ली निवासी पूरन चंद्र कांडपाल जी समसामयिक विषयों पर लिखा करेंगे। पेश है पहला अंक :
खरी खरी – 1 : राजनैतिक दलों के चंदे की घोषणा हो!
प्रधानमंत्री जी से उम्मीद है कि जिस तरह 8 नवम्वर 2016 को अचानक नोटबंदी की घोषणा की गई थी उसी तरह एक दिन किसी भी तारीख को अचानक यह घोषणा भी होनी चाहिए कि अमुक दिन से देश का कोई भी राजनैतिक दल केवल चैक या कैशलेस से ही चंदा स्वीकार करेगा और चंदे का अधिकांश भाग बैंक में रखेगा। चंदे का पूरा हिसाब भी जनता को बताएगा। सभी राजनैतिक दलों को इस दायरे में शीघ्र लाया जाय। इससे भ्रष्टाचार पर अवश्य नकेल लगेगी। नकदी रहित की शुरुआत घर से होनी चाहिए। यदि यह नहीं हो सकता तो इसका कारण भी जनहित में सार्वजनिक किया जाना चाहिए। पूरन चन्द्र काण्डपाल (02.01.2019)।