December 24, 2025

उत्तराखंड के एकमात्र ‘भारत रत्न’ पंडित गोविंद बल्लभ पंत : हिमालय सा विराट व्यक्तित्व और दिल में बसता था पहाड़

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Vishesh Aalekh Special Article Navin Samachar
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लखनऊ, दिल्ली की रसोई में भी महकता था कुमाउनी भोजन, पर्वतीय लोगों से अपनी बोली- भाषा में करते थे बात (Bharat Ratna Pandit Govind Ballabh Pant)

Bharat Ratna Pandit Govind Ballabh Pant चित्र:Statue of Govindballabh Pant, at Mall Road, Nainital.jpg - विकिपीडियाडॉ.नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल। देश की आजादी के संग्राम और आजादी के बाद देश को संवारने में अपना अप्रतिम योगदान देने वाले उत्तराखंड के लाल, उत्तराखंड के एकमात्र ‘भारत रत्न’, देश की आजादी से पूर्व 1937 से 1939 तक संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री व 1945 से 1954 तक संयुक्त उत्तर प्रदेश के पहले प्रधानमंत्री और 1955 से 1961 तक देश के गृह मंत्री रहे पंडित गोविंद बल्लभ पंत (जन्म 10 सितंबर 1987-मृत्यु 1961) का व्यक्तित्व हिमालय जैसा विशाल था। वह राष्ट्रीय फलक पर सोचते थे, लेकिन दिल में पहाड़ ही बसता था। उन्हें पहाड़ और पहाड़वासियों से अपार स्नेह था। पंत आज के नेताओं के लिए भी मिसाल हैं।

वे महान ऊंचाइयों तक पहुंचने के बावजूद अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहे और स्वार्थ की भावना से कहीं ऊपर उठकर अपने घर से विकास की शुरूआत की। उनके घर में आम कुमाउनी रसोई की तरह ही भोजन बनता था और आम पर्वतीय ब्राह्मणों की तरह वे जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे।

Govind+Ballabh+Pant+(2) 1945 से पूर्व संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री (प्रीमियर) रहने के दौरान तक पं. पंत नैनीताल के तल्लीताल नया बाजार क्षेत्र में रहते थे। यहां वर्तमान क्लार्क होटल उस समय उनकी संपत्ति था। यहीं रहकर उनके पुत्र केसी पंत ने नगर के सेंट जोसफ कालेज से पढ़ाई की।

वह अक्सर यहां तत्कालीन विधायक श्याम लाल वर्मा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल, दलीप सिंह कप्तान आदि के साथ बी. दास, श्याम लाल एंड सन्स, इंद्रा फाम्रेसी, मल्लीताल तुला राम आदि दुकानों में बैठते और आजादी के आंदोलन और देश के हालातों व विकास पर लोगों की राय सुनते, सुझाव लेते, र्चचा करते और सुझावों का पालन भी करते थे।

Govind+Ballabh+Pant+(3)

बाद में वह फांसी गधेरा स्थित जनरल वाली कोठी में रहने लगे। यहीं से केसी पंत का विवाह बेहद सादगी से नगर के बिड़ला विद्या मंदिर में बर्शर के पद पर कार्यरत गोंविद बल्लभ पांडे ‘गोविंदा’ की पुत्री इला से हुआ। केसी पूरी तरह कुमाऊंनी तरीके से सिर पर मुकुट लगाकर और डोली में बैठकर दुल्हन के द्वार पहुंचे थे। इस मौके पर आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे कैप्टन राम सिंह ने बैंड वादन किया था।

आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे पंत सदन (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का आवास) में रहे, जोकि मूलत: रामपुर के नवाब की संपत्ति था और इसे अंग्रेजों ने अधिग्रहीत किया था। साह बताते हैं कि वह जब भी उनके घर जाते, उनकी माताजी पर्वतीय दालों भट, गहत आदि लाने के बारे में पूछतीं और हर बार रस- भात बनाकर खिलाती थीं।

Govind+Ballabh+Pant+(1)

उनके लखनऊ के बदेरियाबाग स्थित आवास पर पहाड़ से जो लोग भी पहुंचते, पंत उनके भोजन व आवास की स्वयं व्यवस्था कराते थे और उनसे कुमाऊंनी में ही बात करते थे। उनका मानना था कि पहाड़ी बोली हमारी पहचान है। वह अन्य लोगों से भी अपनी बोली-भाषा में बात करने को कहते थे। साह पं. पंत की वर्तमान राजनेताओं से तुलना करते हुए कहते हैं कि पं. पंत के दिल में जनता के प्रति दर्द था, जबकि आज के नेता नितांत स्वार्थी हो गये हैं।

पंत में सादगी थी, वह लोगों के दुख-दर्द सुनते और उनका निदान करते थे। वह राष्ट्रीय स्तर के नेता होने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे। उन्होंने नैनीताल जनपद में ही पंतनगर कृषि विवि की स्थापना और तराई में पाकिस्तान से आये पंजाबी विस्थापितों को बसाकर पहाड़ के आँगन को हरित क्रांति से लहलहाने सहित अनेक दूरगामी महत्व के कार्य किये। 

पन्त के जीवन के कुछ अनछुवे पहलू 

राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद पं. पंत अपने क्षेत्र-कुमाऊं, नैनीताल से जुड़े रहे। केंद्रीय गृह मंत्री और संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री रहते हुई भी वह स्थानीय इकाइयों से जुड़े रहे। उनकी पहचान बचपन से लेकर ताउम्र कैसी भी विपरीत परिस्थितियों में सबको समझा-बुझाकर साथ लेकर चलने की रही। कहते हैं कि बचपन में वह मोटे बालक थे, वह कोई खेल भी नहीं खेलते थे, एक स्थान पर ही बैठे रहते थे, इसलिए बचपन में वह ‘थपुवा” कहे जाते थे। लेकिन वे पढ़ाई में होशियार थे।

कहते हैं कि गणित के एक शिक्षक ने कक्षा में प्रश्न पूछा था कि 30 गज कपड़े को यदि हर रोज एक मीटर काटा जाए तो यह कितने दिन में कट जाएगा, जिस पर केवल उन्होंने ही सही जवाब दिया था-29 दिन, जबकि अन्य बच्चे 30 दिन बता रहे थे। अलबत्ता, इस दौरान उनका काम खेल में लड़ने वाले बालकों का झगड़ा निपटाने का रहता था।

भारत के इस सपूत को समझ पाना बड़ा मुश्किल था 

उनकी यह पहचान बाद में गोपाल कृष्ण गोखले की तरह तमाम विवादों को निपटाने की रही। संयुक्त प्रांत का प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते वह रफी अहमद किदवई सरीखे अपने आलोचकों और अनेक जाति-धर्मों में बंटे इस बड़े प्रांत को संभाले रहे और यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री रहते 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौर में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने चीनी समकक्ष चाऊ तिल लाई से बात नहीं कर पा रहे थे, तब पं पंत ही थे, जिन्होंने चाऊलाई को काबू में किया था। इस पर चाऊलाई ने उनके लिए कहा था-भारत के इस सपूत को समझ पाना बड़ा मुश्किल है।

अलबत्ता, वह कुछ गलत होने पर विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे। कहते हैं कि उन्होंने न्यायाधीश से विवाद हो जाने की वजह से अल्मोड़ा में वकालत छोड़ी और पहले रानीखेत व फिर काशीपुर चले गए। इस दौरान एक मामले में निचली अदालत में जीतने के बावजूद उन्होंने सेशन कोर्ट में अपने मुवक्किल का मुकदमा लड़ने से इसलिए इंकार कर दिया था कि उसने उन्हें गलत सूचना दी थी, जबकि वह दोषी था।

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राजनीति और संपन्नता विरासत में मिली थी

राजनीति और संपन्नता उन्हें विरासत में मिली थी। उनके नाना बद्री दत्त जोशी तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर सर हेनरी रैमजे के अत्यधिक निकटस्थ सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे, और उनके दादा घनानंद पंत टी-स्टेट नौकुचियाताल में मैनेजर थे। कुमाऊं परिषद की स्थापना 1916 में उनके नैनीताल के घर में ही हुई थी।

सोच बड़ी थी, उत्तराखंड राज्य के पक्ष में नहीं थे

प्रदेश के नया वाद, वनांदोलन, असहयोग व व्यक्तिगत सत्याग्रह सहित तत्कालीन समस्त आंदोलनों में वह शामिल रहे थे। इसी तरह उन्होंने गृह मंत्री रहते देश की आजादी के बाद के पहले राज्य पुर्नगठन संबंधी पानीकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ जाते हुए हिमांचल प्रदेश को संस्कृति व बोली-भाषा का हवाला देते हुए अलग राज्य बनवा दिया, लेकिन उत्तरखंड के कुली बेगार आंदोलन में उनका शामिल न होना अनेक सवाल खड़ा करता है। साथ ही पूर्व कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल के इसी तर्ज पर उत्तराखंड को भी अलग राज्य बनाने के प्रस्ताव पर बुरी तरह से यह कहते हुए डपट दिया था कि ऐसा वह अपने जीवन काल में नहीं होने देंगे।

आलोचक कहते हैं कि बाद में पंडित नारायण दत्त तिवारी (जिन्होंने भी उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा कहा था) की तरह वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें एक अपेक्षाकृत बहुत छोटे राज्य के मुख्यमंत्री के बारे में इतिहास में याद किया जाए।  

नेहरू को बचाने के लिए लाठियां खाई थीं

1927 में साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को बचाकर लाठियां खाई थीं। इस पर भी आलोचकों का कहना है कि ऐसा उन्होंने नेहरू के करीब आने और ऊंचा पद प्राप्त करने के लिए किया। 1929 में वारदोली आंदोलन में शामिल होकर महात्मा गांधी के निकटस्थ बनने तथा 1925 में काकोरी कांड के भारतीय आरोपितों के मुकदमे कोर्ट में लड़ने जैसे बड़े कार्यों से भी उनका कद बढ़ा था।

वास्तव में 30 अगस्त है पं. पंत का जन्म दिवस 

नैनीताल। पं. पंत का जन्म दिन हालांकि हर वर्ष 10 सितम्बर को मनाया जाता है, लेकिन वास्तव में उनका जन्म 30 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा जिले के खूंट गांव में हुआ था। वह अनंत चतुर्दशी का दिन था। प्रारंभ में वह अंग्रेजी माह के बजाय हर वर्ष अनंत चतुर्दशी को अपना जन्म दिन मनाते थे। 1946 में अनंत चतुर्दशी यानी जन्म दिन के मौके पर ही वह संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री बने थे, यह 10 सितम्बर का दिन था। इसके बाद उन्होंने हर वर्ष 10 सितम्बर को अपना जन्म दिन मनाना प्रारंभ किया।

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