उत्तराखंड में शुरू हुई भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची में शामिल होने की मांग, जानें इसके ऐतिहासिक संदर्भ और इससे उत्तराखंड को क्या लाभ मिलेंगे ?
डॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 22 अक्टूबर 2024 (5th Schedule of Indian Constitution needed in UK)। उत्तराखंड में भू कानून के साथ अब राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों को संविधान की पांचवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग एक बार फिर जोर पकड़ रही है। गत 19 अक्टूबर को हल्द्वानी में इस संबंध में अधिवेशन के बाद आगामी 22 दिसंबर को नई दिल्ली में इस मुद्दे को लेकर बड़ा प्रदर्शन होने वाला है, जहां उत्तराखंड के विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। आइए जानते हैं कि उत्तराखंड को संविधान की पांचवीं अनुसूची में शामिल होने के उत्तराखंड से संबंधित ऐतिहासिक संदर्भ क्या हैं, और इससे उत्तराखंड को क्या लाभ मिलेंगे।
विदित हो कि वर्ष 1972 से पहले उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में संविधान की पांचवीं अनुसूची लागू थी। बताया जाता है कि उस समय उत्तराखंड कुमाऊं कमिश्नरी के अंतर्गत आता था, और यहाँ पहाड़ी क्षेत्रों में अंग्रेजों द्वारा 1921 में नॉन रेगुलेशन सिस्टम के थाहात शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट-1874 लागू किया था, जिसके तहत इस क्षेत्र में रेगुलर पुलिस के बजाय राजस्व पुलिस व्यवस्था लागू की गई थी, जिसे पटवारी व्यवस्था के रूप में जाना जाता है। बताया जाता है कि इसे बाद में राजनीतिक साजिश के तहत हटा लिया गया। यह भी पढ़ें : उत्तराखंड में भू-कानून: विकास की कहानी और चुनौतियां
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत सरकार की लोकुर समिति द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर उत्तराखंड के मूल निवासी जनजाति का दर्जा पाने के योग्य हैं। अगर राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों को संविधान की पांचवीं अनुसूची में शामिल कर अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाता है, तो इन क्षेत्रों के लोगों को अपने जंगलों, नदियों और जमीनों का कानूनी अधिकार स्वत: ही मिल जाएगा। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में भी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के साथ जौनसार क्षेत्र के लोगों को जनजातीय क्षेत्र के लाभ मिलते हैं।
ब्रिटिश शासन से मिला था विशेष दर्जा, लेकिन आजादी के बाद छीन लिया गया
ब्रिटिश शासनकाल में उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों को विशेष दर्जा मिला हुआ था। 1931 में ब्रिटिश सरकार ने इन पहाड़ी क्षेत्रों में Scheduled Districts Act 1874 लागू किया था, जिसे आज के संदर्भ में संविधान की 5वीं और 6वीं अनुसूची के समान समझा जा सकता है। उस समय के उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों—अल्मोड़ा और ब्रिटिश गढ़वाल—को विशेष अधिकार दिए गए थे, जो यहां की जनता को जल, जंगल और जमीन पर अतिरिक्त संरक्षण प्रदान करते थे। टिहरी अलग रियासत थी, लेकिन वहां भी यह अधिकार अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावी थे।
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इस विशेष दर्जे को समाप्त कर दिया। 1971 में पहाड़ी जिलों को 5वीं अनुसूची से बाहर कर दिया गया, जो अधिकार अंग्रेजों के समय में पहाड़ के लोगों को मिले थे। इसके बाद से उत्तराखंड को 5वीं अनुसूची के अंतर्गत शामिल करने की मांग लगातार उठ रही है।
5वीं अनुसूची से क्यों बच सकता है उत्तराखंड?
संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल होने से उत्तराखंड को न केवल अपने प्राकृतिक संसाधनों—जल, जंगल, और जमीन—की रक्षा करने में मदद मिलेगी, बल्कि स्थानीय लोगों को भी कई अन्य लाभ प्राप्त होंगे। इनमें केंद्रीय नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में 7.5 प्रतिशत आरक्षण का लाभ प्रमुख है। 5वीं अनुसूची के तहत बाहरी व्यक्तियों द्वारा भूमि खरीद पर सख्त नियम लागू किए जा सकते हैं, जिससे संसाधनों की हो रही अंधाधुंध खपत पर रोक लगाई जा सकेगी। इसके अलावा स्थानीय समुदायों की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना भी संरक्षित रहेगी।
यूपी सरकार ने खत्म कर दिया था पहाड़ का आरक्षण
उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों को विशेष दर्जा छिनने के साथ ही 1995 में उत्तर प्रदेश सरकार ने पहाड़ के लोगों को नौकरियों में मिलने वाले 6 प्रतिशत आरक्षण को भी खत्म कर दिया। इसी के बाद से उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग और तेज हो गई थी। आंदोलन की परिणति 2000 में उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) के गठन में हुई, लेकिन 5वीं अनुसूची के तहत मिलने वाले अधिकार अब तक राज्य को नहीं मिले।
जौनसार बाबर: 5वीं अनुसूची का उदाहरण
उत्तराखंड के कुछ क्षेत्रों जैसे जौनसार बाबर में आज भी विशेष कानून लागू हैं। यहां बाहरी लोगों को भूमि खरीदने में सख्त नियमों का पालन करना होता है, और स्थानीय निवासियों को नौकरी में आरक्षण भी प्राप्त है। जौनसार बाबर क्षेत्र का यह ट्राइबल स्टेटस उन अधिकारों का उदाहरण है जो 5वीं अनुसूची के अंतर्गत दिए जा सकते हैं।
क्या है 5वीं अनुसूची में शामिल होने का लाभ?
उत्तराखंड के लिए 5वीं अनुसूची में शामिल होना एक सुरक्षा कवच के रूप में काम कर सकता है। राज्य के प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगेगी और बाहरी व्यक्तियों द्वारा भूमि खरीद के नियम सख्त होंगे। इससे स्थानीय समुदायों की आजीविका और संसाधनों पर अधिकार सुरक्षित रहेंगे। साथ ही, युवाओं को सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण का लाभ मिलेगा।
भू कानून की मांग: एक समाधान या चुनौती?
उत्तराखंड में लंबे समय से भू-कानून को सख्त करने की मांग उठती रही है। 2003 में नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने इस दिशा में प्रयास किए और बाहरी व्यक्तियों द्वारा राज्य में भूमि खरीदने पर सख्त प्रावधान लागू किए। इसके बाद 2007 में भुवन चंद्र खंडूड़ी की सरकार ने इन प्रावधानों को और कड़ा बनाया। हालांकि, 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार ने इन नियमों में कई संशोधन किए। वर्तमान में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार इस दिशा में एक व्यापक भू-कानून लाने के प्रयास में है। धामी सरकार ने बाहरी व्यक्तियों द्वारा भूमि खरीद के मामलों की जांच के लिए एक समिति भी गठित की है।
विशेषज्ञों की राय: 5वीं अनुसूची क्यों आवश्यक है?
विधिक विशेषज्ञों के अनुसार, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 244 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वे भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर किसी भी राज्य को ट्राइबल स्टेट घोषित कर सकते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय निवासियों के अधिकारों और संसाधनों की रक्षा करना है। अगर उत्तराखंड को 5वीं अनुसूची के अंतर्गत लाया जाता है, तो राज्य के प्राकृतिक संसाधन संरक्षित रहेंगे और बाहरी लोगों द्वारा इनका दुरुपयोग नहीं हो सकेगा।
5वीं अनुसूची में शामिल होने से उत्तराखंड के लोगों के अधिकार सुरक्षित होंगे और राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण सुनिश्चित हो सकेगा। उत्तराखंड के पहाड़ों को बचाने और यहां के लोगों के जल, जंगल, जमीन के अधिकारों की सुरक्षा के लिए 5वीं अनुसूची में शामिल होना एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। यह न केवल स्थानीय संसाधनों के संरक्षण की दिशा में एक बड़ा कदम होगा, बल्कि यहां के निवासियों के सामाजिक और आर्थिक हितों की रक्षा भी करेगा।
उत्तराखंड में भू-कानून: विकास की कहानी और चुनौतियां
भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची के बारे में पूरी जानकारी (5th Schedule of Indian Constitution needed in UK
भारतीय संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रबंधन और प्रशासन के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं, जिनमें पांचवीं अनुसूची एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह अनुसूची उन क्षेत्रों पर लागू होती है जहां मुख्यतः आदिवासी जनसंख्या रहती है और इसके उद्देश्य इन क्षेत्रों के प्रशासन में विशेष ध्यान देना और आदिवासी समुदायों के कल्याण को सुनिश्चित करना है।
अनुच्छेद 244(1): पांचवीं अनुसूची का दायरा
अनुच्छेद 244(1) के अनुसार संविधान की पांचवीं अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम को छोड़कर सभी राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन पर लागू होती है। ये प्रावधान मुख्यतः उन क्षेत्रों के लिए हैं जहां आदिवासी समूहों की प्रबल उपस्थिति होती है, और इनका उद्देश्य उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रशासनिक ढांचा प्रदान करना है।
अनुसूचित क्षेत्रों की घोषणा
भारत के राष्ट्रपति को अधिकार है कि वे किसी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकते हैं। साथ ही किसी राज्य के राज्यपाल से परामर्श करके इस क्षेत्र की सीमाओं को घटा-बढ़ा सकते हैं। इसके अलावा राष्ट्रपति इस क्षेत्र का पूरा या कोई हिस्सा अनुसूचित क्षेत्र से बाहर भी कर सकते हैं।
राज्य और केंद्र की कार्यकारी शक्ति
संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य की कार्यकारी शक्ति उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों में भी लागू होती है। हर राज्य का राज्यपाल, जिनके राज्य में अनुसूचित क्षेत्र हैं, उनके प्रशासन के बारे में राष्ट्रपति को रिपोर्ट देने के लिए जिम्मेदार होता है। इसके अलावा, केंद्र सरकार के पास भी यह अधिकार होता है कि वह राज्य को इन क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में निर्देश दे सके।
जनजाति सलाहकार परिषद (TAC)
पांचवीं अनुसूची के अनुसार प्रत्येक राज्य जिसमें अनुसूचित क्षेत्र हैं, वहां एक जनजाति सलाहकार परिषद का गठन किया जाएगा। इस परिषद का उद्देश्य अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और उन्नति से संबंधित मामलों पर सलाह देना है। परिषद के सदस्यों की संख्या अधिकतम 20 हो सकती है, जिसमें तीन-चौथाई सदस्य राज्य विधान सभा में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधि होने चाहिए।
अनुसूचित क्षेत्रों पर कानूनों का प्रभाव
राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह किसी कानून को अनुसूचित क्षेत्र में लागू होने से रोके या उसे संशोधन के साथ लागू करे। राज्यपाल इन क्षेत्रों के लिए शांति और प्रशासनिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए नियम भी बना सकता है। इसके अतिरिक्त, वे भूमि के हस्तांतरण, भूमि आवंटन और धन उधार देने वाले व्यक्तियों के व्यवसाय से संबंधित मामलों में भी नियम लागू कर सकते हैं।
अन्य प्रावधान: पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996
पांचवीं अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्रों को संविधान के भाग IX (पंचायत प्रावधान) से छूट दी गई है। इसके बावजूद, 1996 में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम को पारित किया गया, ताकि कुछ संशोधनों के साथ इन क्षेत्रों में पंचायतों की स्थापना की जा सके। (5th Schedule of Indian Constitution needed in UK, Uttarakhand News, Demand, 5th Schedule of Indian Constitution, Demand for inclusion in the Fifth Schedule of the Indian Constitution started in Uttarakhand)
चुनौतियां और सुधार की आवश्यकता
पांचवीं अनुसूची के प्रभावी कार्यान्वयन के बावजूद, कई चुनौतियां सामने आई हैं। इनमें जनजाति सलाहकार परिषद की सीमित शक्तियां, राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों की अस्पष्टता, और आदिवासी भूमि पर गैर-आदिवासियों द्वारा अतिक्रमण शामिल हैं। इसके साथ ही, राजनीतिक दलों द्वारा TAC की संरचना को नियंत्रित करने के कारण परिषद की स्वतंत्रता में कमी आ सकती है। इन समस्याओं के समाधान के लिए संस्थागत तंत्र को मजबूत करना और आदिवासी समुदायों के स्वशासन को बढ़ावा देना आवश्यक है। (5th Schedule of Indian Constitution needed in UK, Uttarakhand News, Demand, 5th Schedule of Indian Constitution, Demand for inclusion in the Fifth Schedule of the Indian Constitution started in Uttarakhand)
इस प्रकार भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन और उनके कल्याण के लिए एक महत्वपूर्ण प्रावधान है। इसे प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी दोनों संस्थानों को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। इसके साथ ही, इन क्षेत्रों में संसाधनों का उचित आवंटन, समावेशी विकास और सामाजिक सुरक्षा उपायों का कार्यान्वयन आदिवासी समुदायों के कल्याण के लिए आवश्यक है। (5th Schedule of Indian Constitution needed in UK, Uttarakhand News, Demand, 5th Schedule of Indian Constitution, Demand for inclusion in the Fifth Schedule of the Indian Constitution started in Uttarakhand)
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