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November 21, 2024

आस्था के साथ ही सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहर भी हैं ‘जागर’

Jagar

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल (Jagar is Cultural-Historical Heritage and Faith) कुमाऊं के जटिल भौगोलिक परिस्थितियों वाले दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में संगीत की मौखिक परम्पराओं के अनेक विशिष्ट रूप प्रचलित हैं। उत्तराखंड के इस अंचल की संस्कृति में बहुत गहरे तक बैठी प्रकृति यहां की लोक संस्कृति के अन्य अंगों की तरह यहां लोक गीतों में भी गहरी समाई हुई है। इन गीतों का मानव पर अद्भुत चमत्कारिक ईश्वरीय प्रभाव भी दिखाई देता है। 

‘जागर’ गीत इसके प्रमाण हैं, जो मानव को इन कठिन परिस्थितियों में युग-युगों से परा और प्राकृतिक शक्तियों की कृपा के साथ आत्मिक संबल प्रदान करते आए हैं, और आज भी यह पल भर में मानव का न केवल झंकायमान कर देते हैं, वरन दुःख-तकलीफों, बीमारियों की हर ओर से गहरी हताशा जैसी स्थितियों से बाहर भी निकाल लाते हैं। जागर के दौरान देवभूमि में मनुष्यों से देवता का साक्षात अवतरण भी होता है।

(Jagar is Cultural-Historical Heritage and Faith) मान चंप्वा देवता जागर मंडाण,गढ़वाली हॅत्या जागर मंडाण || latest new  Garhwali Jagar, गढ़वाली जागर - YouTubeइसीलिए पुरानी पीढ़ियों के साथ ही संस्कृति के अन्य रूपों से दूर हो रही और प्रवास में रहने वाली आधुनिक विज्ञान पढ़ी-लिखी पीढ़ी के लोग भी इन्हें खारिज नहीं कर पाते हैं, और पारिवारिक अनुष्ठान के रूप में इसमें अब भी शामिल होते हैं। जागर के गीतों में लोक देवताओं का कथात्मक शैली में गुणगान करते हुए आह्वान किया जाता है, साथ ही इनमें कुमाऊं के सदियों पुराने प्राचीन इतिहास खासकर कत्यूरी शासकों का जिक्र भी आता है, इस प्रकार यह कुमाऊं के इतिहास के मौखिक परंपरा के प्रमाण भी साबित होते हैं, और इस तरह यह ऐतिहासिक धरोहर भी हैं।

खास बात यह भी है जागर के माध्यम से न केवल व्यक्तिगत वरन भारतीय संस्कृति की मूल व अभिन्न भावना ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ का भी पालन किया जाता है तथा प्रकृति के संरक्षण की भी कामना की जाती है। जागर को सामान्यतया कोई व्यक्ति अकेले नहीं आयोजित कर सकता, वरन उसे अपने पूरे कुटुंब, और पूरे गांव को साथ लेकर यह आयोजन करना होता है। (Jagar is Cultural-Historical Heritage and Faith, Uttarakhand Culture, Jagar, Jagar is Cultural-Historical Heritage, Astha)

इस तरह यह आज के एकल परिवार में टूटते समाज को साथ लाने का एक माध्यम भी बनता है और इसके जरिए समाज में सामूहिकता की भावना भी बलवती होती जाती है। अलबत्ता, सभी लोगों के एक साथ एक अवधि में साथ नहीं जुट पाने की वजह, इस विधा के छूटने की एक बड़ी वजह भी है। (Jagar is Cultural-Historical Heritage and Faith, Uttarakhand Culture, Jagar, Jagar is Cultural-Historical Heritage, Astha)

जिया रानी की जागर में नैनीताल में नयना देवी के मंदिर की स्थापना का जिक्र 

कुमाऊं के लोकगायकों द्वारा चित्रशिला घाट रानीबाग में उत्तरायणी मेले के दौरान के अद्भुद जिया रानी के शौर्य एवं वीरता का उल्लेख करते हुए गाये जाने वाले जागर गीतों में नैनीताल में नयना देवी के मंदिर की स्थापना का जिक्र भी इन शब्दों में आता है- ‘उती को बसना को आयो, यो नैनीताल, नैनीताल, नैनीदेवी थापना करी छ।’ इससे लगता है कि जिया रानी ने नैनीताल में नैना देवी की स्थापना की थी। देखें रानीबाग में उत्तरायणी पर कत्यूरी वंशजों द्वारा किया जाने वाला जियारानी का जागर :

ग्वेल देवता की जागर का मंचन

जागर का शाब्दिक अर्थ जागरण या जगाना है। इस शैली में ‘जगरिया’ या ‘धौंसिया’ कहा जाने वाला और गुरू गोरखनाथ का प्रतिनिधि माने जाने वाला लोक गायक अपने ‘भग्यार’ कहे जाने वाले साथियों की मदद से देवी-देवताओं को कथात्मक शैली में उनकी गाथा गाते हुए उनकी प्रशंसा कर उन्हें जागृत तथा पवित्र अवसरों पर पधारने के लिए आमंत्रित करता है, तथा उनसे जीवन में हुई गलतियों और व्याप्त दुःख-तकलीफों का समाधान तथा आशीर्वाद प्राप्त करता है।

इस दौरान जगरिया रामायण, महाभारत आदि धार्मिक ग्रंथों की कहानियों के साथ ही ग्वेल या गोलू, नरसिंह या नृसिंह, भनरिया, काल्सण यानी कालू सैम, हरू या हरज्यू, सैम, भोलानाथ, कलविष्ट सैम, भोलनाथ, गंगनाथ भैरों, ऐड़ी, आछरी, जीतू, लाटू, भगवती, चंडिका, विनसर, नागर्जा, नरसिंह, भैरों, ऐड़ी, आछरी, जीतू, लाटू, पांडवों, कत्येर आदि स्थानीय व लोक तथा कुल एवं ग्राम इष्ट देवताओं या ‘ग्राम देवताओं’ में से जिस देवता को जगाना होता है उस देवता की गाथाओं का बखान करता है।

कई जागरों, जैसे रानीबाग में उत्तरायणी के पर्व की पहली रात कत्यूरी राजाओं के वंशजों द्वारा की जाने वाली जागर में कत्यूरी शासकों के काल का जिक्र आता है। इसी तरह अन्य जागरों में कुमाऊं की प्रसिद्ध प्रेम लोकगाथा-राजुला मालूशाही का भी जिक्र आता है, जो कुमाऊं के तत्कालीन इतिहास को भी बयां करती हैं, इस प्रकार यह ऐतिहासिक धरोहरें भी हैं, जिन्हें सहेजने की जरूरत महसूस की जाती है।

जागर के दौरान ईश्वरीय व परा शक्तियों के आवाहन में कुमाऊं के परंपरागत वाद्य यंत्र हुड़का के साथ कांसे की थाली और छोटे-बड़े ढोलों व दमाऊ आदि का प्रयोग इस तरह एक विशिष्ट प्रकार से किया जाता है कि गायन और वाद्यों की ध्वनि, लय, सुर और तान से एसे दिव्य वातावरण का निर्माण हो जाता है कि ‘डंगरिया’ (उसे डगर या रास्ता बताने वाला भी माना जाता है) कहे जाने वाले कुछ विशिष्ट लोगों ईश्वरीय शक्ति या देवता का अवतरण हो जाता है, और वह उसके प्रभाव में आकर नृत्य करने लगते हैं, तथा अन्य उपस्थित लोगों की आत्मा, मस्तिष्क और अन्तर्रात्मा भी झंकायमान हो जाते हैं।

डंगरिये स्त्री और पुरूष दोनों हो सकते हैं। कहते हैं कि इस स्थिति में साफ-सफाई के साथ रोज-स्नान ध्यान कर पूजा तथा अनेक नियमों का पालन करने वाले डंगरियों में ईश्वरीय भक्ति, आस्था व प्रेम की इस त्रिवेणी जैसी स्थिति में लोक देवताओं की शक्ति संचारित हो जाती है और उनमें जागर जगाने वाले ‘सौकार’ या ‘स्योंकार’ (सेवाकार) व उसकी पत्नी-‘स्योंनाई’ तथा जागर में उपस्थित लोगों के प्रश्नों का ‘दानी’ या ‘दांणी’ (चावल के दाने) देखकर उत्तर देने की परा भौतिक-ईश्वरीय शक्ति आ जाती है, और वे मानव दुःखों के निवारण और मानव मात्र के कल्याण के लिए पूछे जाने वाले प्रश्नों के जवाब सहज रूप से देने लगते हैं।

जागर कई प्रकार की होती हैं। इसका आयोजन सामान्यतया चैत्र, आसाढ़ व मार्गशीर्ष महीनों में एक, तीन अथवा पांच रात्रि के लिए किया जाता है। अलबत्ता, सामुहिक रूप से कई जगह ‘धूनी’ जलाकर भी जागर लगाई जाती है, जिसे ‘धूनी’ ही कहते हैं। ऐसी जागर 22 दिन तक चलती है जिसे ‘बैसी’ कहा जाता है। इसी तरह 14 दिनों की जागर भी जोती है, जिसे ‘चौरास’ कहते हैं।

बैसी के आखिरी दिन ‘किलोर मारना’ मनाया जाता है। जिसमें हल के पृथ्वी को जोतने के लिए लोहे का टुकड़ा लगी नसूट कही जाने वाली लकड़ी के टुकड़े से निर्मित खूंटों को गांव की चारों दिशाओं में इस विश्वास के साथ गाड़ दिया जाता है, कि इससे प्राकृतिक आपदाओं तथा अन्य बुराइयों से गाँव की रक्षा होगी। बैसी में अनेक ‘गुरू-मुन्डा’ कहे जाने वाले जगरिए भाग लेते हैं, और इस तरह भविष्य की जागरों के लिए प्रशिक्षण भी लेते हैं।

जागर पूरी प्रक्रिया में साफ-सफाई व आचरण की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है। जागर के लिये धूणी यानी धूनी जलाने के लिए लोग नहा-धो यानी शुद्ध होकर पंडित जी के अगुवाई में शुद्ध स्थान का चयन किया जाता है, फिर वहां पर गौ-दान किया जाता है तथा गोलाकार भाग में थोड़ी सी खुदाई कर वहां पर लकड़ियां रखी जाती हैं। लकड़ियों के चारों ओर गाय के गोबर और दीमक की बांबी वाली मिट्टी (यदि उपलब्ध न हो तो शुद्ध स्थान की लाल मिट्टी) से लीपा जाता है। स्योंकार द्वारा यहां पर दीप जलाया जाता है, और शंखनाद कर धूनी को प्रज्जवलित किया जाता है।

इस धूनी में किसी भी अशुद्ध व्यक्ति के जाने और जूता-चप्पल लेकर जाने का निषेध होता है। आगे जागर को मुख्यतः आठ चरणों में पूरा किया जाता है। प्रथम चरण में जगरिया हुड़्के या ढोल-दमाऊं के वादन के साथ सांझवाली गायन यानी पंच नाम देवों की आरती और संध्या वंदन करता है। इस गायन में जगरिया सभी देवी-देवताओं का नाम, उनके निवास स्थानों का नाम और संध्या के समय सम्पूर्ण प्रकृति एवं दैवी कार्यों के स्वतः प्राकृतिक रुप से संचालन का वर्णन करता है।

दूसरे चरण में बिरत्वाई यानी महाभारत के कोई आख्यान और संबंधित देवता की गाथाओं-बिरुदावली का गायन कर तीसरे चरण में औसाण यानी डंगरिया के रूप में देवता को प्रज्जलित धूनी के चारों ओर विशिष्ट कराते हुए नृत्य कराता है। इस चरण में जगरिये के गायन से डंगरिये का शरीर धीरे-धीरे झूमने लगता हैं। इसके साथ ही जगरिया अपने स्वरों और वादन की गति को बढ़ाता जाता है, जिसके फलस्वरूप डंगरिये के शरीर में देवी-देवता का अवतरण हो जाता है, और वे नाचने लगते है, तथा नाचते-नाचते अपने आसन में बैठ जाते हैं।

इस पर जगरिये द्वारा फिर से इन देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, और देवता से जागर लगवाने वाले की मनोकामना पूर्ण करने का अनुरोध करता है। आगे चौथे चरण में हरिद्वार में गुरु की आरती की जाती है। पांचवे चरण को खाक रमाना कहते हैं। वहीं छठे चरण में दाणी यानी स्योंकार एवं अन्य लोगों द्वारा अपने घर से लाए जाने वाले चावलों को देखकर देवता से उन पर विचार करवाया जाता है। फलस्वरूप डंगरिये चावल के दानों हाथों में लेकर भूत, भविष्य और वर्तमान के विषय में सभी बातें बताने लगते हैं। आगे सातवें चरण में स्योंकार व अन्य लोगों को देवता से आशीर्वाद दिलाया जाता है।

इसी दौरान देवता लोगों को संकट हरण के उपाय बताते हैं, और सभी विघ्न-बाधाओं को मिटाने का भरोसा दिलाते हैं, तथा आखिरी आठवां चरण में देवता को उनके निवास स्थान माने जाने वाले कैलाश पर्वत और हिमालय पर्वत को प्रस्थान कराया जाता है। इन जागर लोकगीतों का दुर्लभ सांस्कृतिक और साहित्यिक ज्ञान पहाड़ों में बिखरा पड़ा है, लेकिन इसके मर्मज्ञ लोक कलाकार धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं, ऐसे में इन्हें सहेजने, इनका आलेखीकरण करने की बड़ी आवश्यकता महसूस की जा रही है, अन्यथा यह अमूल्य निधि विलुप्त ही हो जाएगी।

गंगनाथ की जागर का सार

गंगनाथ की जागर में डोटी के कुंवर गंगनाथ के जन्म से लेकर उनका उनकी रूपवती प्रेमिका भाना से प्रेम प्रसंग और इसके फलस्वरूप् उनकी निर्मम हत्या का उल्लेख मिलता है। गंगनाथ की जागर में केवल हुड़के और कांसे की थाली का वाद्य यंत्र के रूप में प्रयोग होता हैं। गंगनाथ को गुरु गोरखनाथ का शिष्य बताया जाता है और उनके जागरों में नाथ पंथी मंत्रो का प्रभाव स्पष्ट देखा जाता है। गंगनाथ और भाना की अमर व करुण प्रेम गाथा के अनुसार डोटी के अपने नाम के अनुसार धन धन्य से संपन राजा वैभव चन्द और उनकी पत्नी प्योंला देवी को संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था।

आखिर प्योंला देवी को शिव ने उनकी आराधना के बाद स्वप्न में दर्शन दिये और पुत्र प्राप्ति के लिए मार्ग सुझाया। इस प्रकार प्योंला रानी ने एक सुन्दर, दिव्य तेजवान और अदभुत बालक को जन्म दिया। शिव की कृपा से प्राप्त होने की वजह से राजकुमार का नाम गंगनाथ रखा गया। लेकिन राज ज्योतिष ने अपनी भविष्यवाणी से राजा-रानी को चिंता में डाल दिया कि गंगनाथ 14 वर्ष के बाद प्रेम -वियोग में जोगी हो जाएगा ओर डोटी को सदा के लिये छोड़ देगा। यह भविष्यवाणी सच भी साबित हुआ।

भाना नाम की सुंदरी उसके स्वप्न में आई और उसे मिलने के लिए जोशी खोला (अल्मोड़ा ) बुलाया। गंगनाथ इस स्वप्न के बाद दीवाना-जोगी होकर डोटी छोड़कर हरिद्वार आकर गुरु गोरखनाथ से शिक्षा दीक्षा लेते हैं, और गुरु गोरखनाथ से बुक्सार विद्या का दुर्लभ ज्ञान तथा दिव्य और अनिष्ठ रक्षक वस्त्र तथा ग्वेल देवता से भी शक्ति प्राप्त करते हैं। आगे वह साधुओं का चोला धारण कर बारही जोगी बनकर भिक्षा मांगते मांगते हुआ देवीधुरा के बन में ध्यान आसन लगाता हैं। इस दौरान लोग उनके अपने दुःखों व समस्याओं का कारण-निवारण पूछते हैं। लेकिन भाना की स्वप्न स्मृतियां उनके ध्यान को तोड़ता रहता है।

आखिर भाना से उनका मिलन होता है। अल्मोड़ा के दीवान जोशी को जब उनकी नजदीकी का पता लगता है तो वे एक साजिश के तहत होली के दिन गंगनाथ को भंग पिला कर उनको गोरखनाथ से प्राप्त अनिष्ठ रक्षक दिव्य वस्त्र उतार कर आखिर अल्मोड़ा के पास विश्वनाथ घाट पर मौत के घाट उतार देते हैं। इस दौरान भाना विलाप करती हुई उसके प्राणों की दुहाई देती रहती है, पर उसकी एक नहीं सुनी जाती। इस पर क्रोधाग्नि में जलती भाना उनको फिटगार मारती (श्राप) देती है कि उन सबका घोर अनिष्ठ होगा, ओर वे पानी की बूंद और अन्न के एक दाने के लिए भी तरसेंगे।

इस पर क्रोध में आकर दीवान भाना को भी मौत के घाट उतार देता है। इसके कुछ दिन बाद ही सारा जोशी खोला ओर विश्वनाथ घाट डोलने लगता है ओर वहां घोर अकाल जैसी स्थिति उत्पन हो जाती है। आखिर भयाक्रांत होकर वे गंगनाथ और भाना की पूजा कर उनसे क्षमा याचना करते हैं, और उन्हंे देव रूप में स्थापित करते हैं। तब से कुमाऊं के अनेक क्षेत्रों में गंगनाथ जी की लोक देवता रूप में पूजा अर्चना की जाती है उनका जागर लगाया जाता है। (Jagar is Cultural-Historical Heritage and Faith, Uttarakhand Culture, Jagar, Jagar is Cultural-Historical Heritage, Astha)

जागर की शुरुआत कुछ इस तरह से होती है:

सिद्धिदाता भगवान गणेश, संध्याकाल का प्रज्ज्वलित पंचमुखी पानस, माता-पिता, गुरु-देवता, चार गुरु चौरंगीनाथ, बार गुरु बारंगी नाथ, नौखंडी धरती, ऊंचा हिमाल-गहरा पाताल, कि धुणी-पाणी सिद्धों की बाणी-बिना गुरु ग्यान नहीं, कि बिणा धुणी ध्यान नहीं, चौरासी सिद्ध-बारह पंथ-तैंतीस कोटि देवता-बावन सौ बीर-सोलह सौ मशान, न्योली का शब्द-कफुवे की भाषा, सुलक्षिणी नारी का सत, हरी हरिद्वार की, बद्री-केदार, पंचनाम देवताओं का सत……….

(इन सभी के धीर-धरम, कौल करार और महाशक्ति को साक्षी करके बजने लगता है शंख, कांसे की थाली, बिजयसार का ढोल और ढोल के बाईस तालों के साथ जगरिया हुड़का ढोल बजाने लगता है- भम भाम, पम पाम और पय्या के सोटे से बजने लगती है कांसे की थाली।) (Jagar is Cultural-Historical Heritage and Faith, Uttarakhand Culture, Jagar, Jagar is Cultural-Historical Heritage, Astha)

जै गुरु-जै गुरु
माता पिता गुरु देवता
तब तुमरो नाम छू इजा…….
यो रुमनी-झूमनी संध्या का बखत में,
तै बखत का बीच में,
संध्या जो झुलि रै।

बरम का बरम लोक में, बिष्णु का बिष्णु लोक में,
राम की अजुध्या में, कृष्ण की द्वारिका में,
यो संध्या जो झुलि रै,
शंभु का कैलाश में,
ऊंचा हिमाल, गैला पताल में,
डोटी गढ़ भगालिंग में

गंगनाथ की जागर के कुछ अंश: प्योंला रानी को आशीष प्राप्ति का अंश :

हे भुल्लू
सुण म्यारा गंगू अब, यो मेरी बखन
यो राजा भबै चन्न तब बड़ दुःख हई राही हो ओ आं…………
हे भुल्लू क्या दान करैछ अब, यो माता प्योंला राणी
यो गंगा नौं की नाम तुमुल, यो गध्यार नहाल हो आं…..
इज्जा गंगा नाम की गध्यार नयाली आं……

हे भुल्ली
ये देबता नाम का तुमुल, यो ढुंगा ज्वाड़ी व्हाला
कैसी कन देखि तुमुल, यो संतानौं मुख आं…….
हे भुल्ली
को देब रूठो सी कौला यो डोटी भगलिंग
हाँ क्या दान करलू भग ?, ये डोटीगढ़ मझ हो औ डोटी भागलिंग की आन छै,
आं………

हे भुल्ली
यो तुम्हरी धातुन्द एगे, तौं डोटी भगलिंग
ये सुणिक सपन ऐगे,
ओ माता प्योंला राणी हों
डोटी भगलिंग जा ,माता प्योला राणि स्वीली सपन हेगि आं…….

हे भुल्ली
त्यार कुड़ी का रवाडी होलो, यो सांदंण कु खुंट
सात दिन तू तो राणि,
यो जल चढ़ा दिये…
इज्जा सांदंण फूल मा जल चढई तू आं……

हे भुल्ली
सात दिन कौला अब, यो फल खिली जाल आं…..
यो फल आयी जालू तब ,संतान हई जाली हो
इज्जा सांदंण खुंट भटेय कल्ल खिलल तब संतान व्हेली आं…..
हे भुल्ली
वो माता प्योंला राणि तब, यरणित उठी जैली आं…
रात-ब्याण बगत प्योंला आं…. क्या जल चढाली ? हो……..

(2) गंगनाथ की गुरु गोरखनाथ जी से दीक्षा का अंश

ए तै बखत का बीच में, हरिद्वार में बार बर्षक कुम्भ जो लागि रौ।
ए गांगू! हरिद्वार जै बेर गुरु की सेवा टहल जो करि दिनु कूंछे….!
अहा तै बखत का बीच में, कनखल में गुरु गोरखीनाथ जो भै रईं…!
ए गुरु कें सिरां ढोक जो दिना, पयां लोट जो लिना…..!
ए तै बखत में गुरु की आरती जो करण फैगो, म्यरा ठाकुर बाबा…..!

अहा गुरु धें कुना, म्यारा कान फाड़ि दियो,
मून-मूनि दियो, भगैलि चादर दि दियौ, मैं कें विद्या भार दी दियो,
मैं कें गुरुमुखी ज बणा दियो। ओ…
दो तारी को तार-ओ दो तारी को तार,
गुरु मैंकें दियो कूंछो, विद्या को भार,
बिद्या को भार जोगी, मांगता फकीर, रमता रंगीला जोगी, मांगता फकीर।

(3) मृत्यु उपरान्त जोशी खोला में गंगनाथ और भाना की आत्मा आहवान का अंश

मानी जा हो डोटी का कुंवर अब
मानी जा हो रूपवती भाना अब
जागा हो डोटी का कुंवर अब
जागा हो रूपवती भाना अब
प्राणियों का रणवासी छोडियो अब
छोडियो डोटी वास

माँ का प्यार पिता का द्वार -2, छोडियो तू ले आज
भभूती रमाई गंगनाथा रे -2
डोटी का कुंवर गंगनाथा रे -2
रूपवती भाना गंगनाथा रे -2
ताज क्यूँ उतारी दियो नाथा रे -2
जोगी का भेष लियो नाथा रे -2
भभूती रमाई गंगनाथा रे -2

नरसिंग जागर और नाथपंथी मन्त्र:

आम तौर पर नरसिंग (नृसिंह-नरसिंह का अपभ्रंश) को भगवान को विष्णु का अवतार माना जाता है, किन्तु कुमाऊं व गढ़वाल में यह गुरु गोरखनाथ के चेले के रूप में ही पूजे जाते हैं। नरसिंगावली का मंत्रों और घड़ेलों में जागर के रूप में भी प्रयोग होता है। नरसिंग नौ प्रकार के बताए जाते हैं-इंगला वीर, पिंगला बीर, जतीबीर, थतीबीर, घोरबीर, अघोरबीर, चंड बीर, प्रचंड बीर, दुधिया व डौंडिया नरसिंग। आमतौर पर दुधिया नरसिंग व डौंडिया नरसिंग के जागर लगते हैं। दुधिया नरसिंग शांत नरसिंग माने जाते है, जिनकी पूजा रोट काटने से पूरी हो जाती है। जबकि, डौंडिया नरसिंग घोर बीर माने जाते हैं व इनकी पूजा में भेड़-बकरी का बलिदान करने की प्रथा भी है।

नरसिंग की जागर के कुछ अंश:

जाग जाग नरसिंग बीर बाबा
रूपा को तेरा सोंटा जाग, फटिन्गु को तेरा मुद्रा जाग .
डिमरी रसोया जाग, केदारी रौल जाग
नेपाली तेरी चिमटा जाग, खरुवा की तेरी झोली जाग
तामा की पतरी जाग, सतमुख तेरो शंख जाग
नौलड्या चाबुक जाग, उर्दमुख्या तेरी नाद जाग

गुरु गोरखनाथ का चेला जाग
पिता भस्मासुर माता महाकाली जाग
लोह खम्भ जाग रतो होई जाई बीर बाबा नरसिंग
बीर तुम खेला हिंडोला बीर उच्चा कविलासू
हे बाबा तुम मारा झकोरा, अब औंद भुवन मा
हे बीर तीन लोक प्रिथी सातों समुंदर मा बाबा
हिंडोलो घुमद घुमद चढे बैकुंठ सभाई, इंद्र सभाई

तब देवता जागदा ह्वेगें, लौन्दन फूल किन्नरी
शिवजी की सभाई, पेंदन भांग कटोरी
सुलपा को रौण पेंदन राठवळी भंग
तब लगया भांग को झकोरा
तब जांद बाबा कविलास गुफा
जांद तब गोरख सभाई , बैकुंठ सभाई
गुरु खेकदास बिन्नौली कला कल्पण्या

अजै पीठा गजै सोरंग दे सारंग दे
राजा बगिया ताम पातर को जाग
न्यूस को भैरिया बेल्मु भैसिया
कूटणि को छोकरा गुरु दैणि ह्वे जै रे
ऊंची लखनपुरी मा जै गुरुन बाटो बतायो
आज वे गुरु की जुहार लगान्दु

जै दुध्या गुरून चुडैलो आड़बंद पैरे
ओ गुरु होलो जोशीमठ को रक्छ्यापाल
जिया व्बेन घार का बोठ्या पूजा
गाड का गंगलोड़ा पूज्या
तौ भी तू जाती नि आयो मेरा गुरु रे
गुरून जैकार लगाये, बिछुवा सणि नाम गहराए
क्विल कटोरा हंसली घोड़ा बेताल्मुखी चुर्र
आज गुरु जाती को ऐ जाणि रे………….

जै नौ नरसिंग बीर छयासी भैरव
हरकी पैड़ी तू जाग
केदारी तू गुन्फो मा जाग
डौंडी तू गढ़ मा जाग
खैरा तू गढ़ मा जाग
निसासु भावरू जाग

सागरु का तू बीच जाग
खरवा का तू तेरी झोली जाग
नौलडिया तेरी चाबुक जाग
टेमुरु कु तेरो सोंटा जाग
बाग्म्बरी का तेरा आसण जाग
माता का तेरी पाथी जाग
संखना की तेरी ध्वनि जाग

गुरु गोरखनाथ का चेला पिता भस्मासुर माता महाकाली का जाया
एक त फूल पड़ी केदारी गुम्फा मा
तख त पैदा ह्वेगी बीर केदारी नरसिंग
एक त फूल पड़ी खैरा गढ़ मा
तख त पैदा ह्वेगी बीर डौंडि
एक त फूल पोड़ी वीर तों सागरु मा
तख त पैदा ह्वेगी सागरया नरसिंग

एक त फूल पड़ी बीर तों भाबरू मा
तख त पैदा ह्वेगी बीर भाबर्या नारसिंग
एक त फूल पड़ी बीर गायों का गोठ, भैस्यों क खरक
तख त पैदा ह्वेगी दुधिया नरसिंग
एक त फूल पड़ी वीर शिब्जी क जटा मा
तख त पैदा ह्वेगी जटाधारी नरसिंग

हे बीर आदेसु आदेसु बीर तेरी नौल्ड्या चाबुक
बीर आदेसु आदेसु बीर तेरो तेमरू का सोंटा
बीर आदेसु आदेसु बीर तेरा खरवा की झोली
वीर आदेसु आदेसु बीर तेरु नेपाली चिमटा
वीर आदेसु आदेसु बीर तेरु बांगम्बरी आसण
वीर आदेसु आदेसु बीर तेरी भांगला की कटोरी

वीर आदेसु आदेसु बीर तेरी संखन की छूक
वीर रुंड मुंड जोग्यों की बीर रुंड मुंड सभा
वीर रुंड मुंड जोग्यों बीर अखाड़ो लगेली
वीर रुंड मुंड जोग्युंक धुनी रमैला
कन चलैन बीर हरिद्वार नहेण
कना जान्दन वीर तैं कुम्भ नहेण

नौ सोंऊ जोग्यों चल्या सोल सोंऊ बैरागी
वीर एक एक जोगी की नौ नौ जोगणि
नौ सोंऊ जोगयाऊं बोडा पैलि कुम्भ हमन नयेण
कनि पड़ी जोग्यों मा बनसेढु की मार
बनसेढु की मार ह्वेगी हर की पैड़ी माग
बीर आदेसु आदेसु बीर आदेसु बीर आदेसु

पारबती बोल्दी हे मादेव, और का वास्ता तू चेला करदी
मेरा भंग्लू घोटदू फांफ्दा फटन, बाबा कल्लोर कोट कल्लोर का बीज
मामी पारबती लाई कल्लोर का बीज, कालोर का बीज तैं धरती बुति याले
एक औंसी बूते दूसरी औंसी को चोप्ती ह्वे गे बाबा
सोनपंखी ब्रज मुंडी गरुड़ी टों करी पंखुरी का छोप
कल्लोर बाबा डाली झुल्मुल्या ह्वेगी तै डाली पर अब ह्वेगे बाबा नौरंग का फूल

नौरंग फूल नामन बास चले गे देवता को लोक
पंचनाम देवतों न भेजी गुरु गोरखनाथ , देख दों बाबा ऐगे कुसुम की क्यारी
फूल क्यारी ऐगे अब गुरु गोरखनाथ
गुरु गोरखनाथ न तैं कल्लोर डाली पर फावड़ी मार
नौरंग फूल से ह्वेन नौ नरसिंग निगुरा, निठुरा सद्गुरु का चेला
मंत्र को मारी चलदा सद्गुरु का चेला…….

(यह गढ़वाली जागर कत्यूर शासन और केदारनाथ धाम की स्थापना के बाद की मानी जाती है, क्योंकि इसमें केदार नाथ धाम और वहां के पुजारी रावल का साथ कत्यूर वंश की तत्कालीन राजधानी जोशीमठ का जिक्र भी है।)

नरसिंगावली में उल्लेखित नरसिंग का मंत्र (Jagar is Cultural-Historical Heritage and Faith, Uttarakhand Culture, Jagar, Jagar is Cultural-Historical Heritage, Astha)

ऊं नमो गुरु को आदेस … प्रथमे को अंड अंड उपजे धरती, धरती उपजे नवखंड, नवखंड उपजे धूमी, धूमी उपजे भूमि, भूमि उपजे डाली, डाली उपजे काष्ठ, काष्ठ उपजे अग्नि, अग्नि उपजे धुंवां, धुंवां उपजे बादल , बादल उपजे मेघ , मेघ पड़े धरती, धरती चले जल, जल उपजे थल, थल उपजे आमी, आमी उपजे चामी, चामी उपजे चावन छेदा बावन बीर उपजे महाज्ञानी, महादेव न निलाट चढाई अंग भष्म धूलि का पूत बीर नरसिंग…. (Jagar is Cultural-Historical Heritage and Faith, Uttarakhand Culture, Jagar, Jagar is Cultural-Historical Heritage, Astha)

(डा. शिवानन्द नौटियाल, पंडित गोकुलदेव बहुगुणा, डा. विष्णु दत्त कुकरेती व रूहेम सिंह बिष्ट आदि के संकलनों से साभार ) आज के अन्य एवं अधिक पढ़े जा रहे उत्तराखंड के नवीनतम अपडेट्स-‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। यहां क्लिक कर हमारे व्हाट्सएप चैनल से, फेसबुक ग्रुप से, गूगल न्यूज से, टेलीग्राम से, एक्स से, कुटुंब एप से और डेलीहंट से जुड़ें। अमेजॉन पर सर्वाधिक छूटों के साथ खरीददारी करने के लिए यहां क्लिक करें। यदि आपको लगता है कि ‘नवीन समाचार’ अच्छा कार्य कर रहा है तो हमें यहाँ क्लिक करके सहयोग करें..

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