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April 17, 2025

उत्तराखंड में जनसंख्या असंतुलन और भावी परिसीमन से देश की सीमा पर सुरक्षा के अधिक कमजोर होने का खतरा !!

Uttarakhand Map

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 11 अप्रैल 2025 (Delimitation-Danger of Security on Borders of UK)। परिसीमन को लेकर दक्षिण भारत के पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों की गोलबंदी के बाद उत्तराखंड में भी इस मुद्दे पर गहरी चिंता है। 9 नवम्बर 2000 को गठित उत्तराखंड में अब तक दो बार परिसीमन की प्रक्रिया (2001 और 2008 में) हो चुकी हैं। इन परिसीमनों ने राज्य की राजनीतिक संरचना और विशेषकर पर्वतीय व मैदानी क्षेत्रों के बीच सत्ता संतुलन को गहराई से प्रभावित किया है। राज्य में तेजी से बदलती जनसंख्या संरचना अगले प्रस्तावित परिसीमन के दृष्टिगत भी राज्य के भविष्य के राजनीतिक संतुलन और पर्वतीय अस्तित्व के सामने गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा कर रही है।

राज्य के नौ पर्वतीय जिलों से लगातार हो रहे पलायन और चार मैदानी जिलों में तेजी से बढ़ रही आबादी के बीच खाई गहराती जा रही है। यदि यह स्थिति अगले परिसीमन तक बनी रही और परिसीमन की प्रक्रिया में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो पर्वतीय जिलों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कम होने का खतरा पैदा हो सकता है, जिससे राज्य की पर्वतीय अवधारणा कमजोर हो सकती है। पर्वतीय क्षेत्रों में विकास भी और अधिक अवरुद्ध होगा और पलायन के और अधिक तेजी से बढ़ने के साथ देश की सीमाओं पर मानव दीवार के खाली और सुरक्षा अधिक कमजोर होने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। 

विधानसभा गठन और पहला चुनाव (2002)

(Delimitation-Danger of Security on Borders of UKराज्य बनने के बाद वर्ष 2002 में पहली बार विधानसभा चुनाव आयोजित हुए। उस समय अधिकांश जनसंख्या पर्वतीय जिलों में ही केंद्रित थी, और तब राज्य की कुल 70 विधानसभा सीटों में से पर्वतीय क्षेत्रों में 41 और मैदानी क्षेत्रों में 29 सीटें थीं। यह संतुलन राज्य की पर्वतीय पहचान को ध्यान में रखते हुए तय किया गया था। पहाड़ की भौगोलिक विषमताओं को देखते हुए इसे न्यायसंगत भी माना गया।

2008 का परिसीमन: संतुलन में पहली बड़ी दरार

किन्तु वर्ष 2001 की जनगणना को आधार मानकर 2008 में परिसीमन आयोग ने नए सिरे से सीटों का निर्धारण किया। इस परिसीमन में पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभा सीटों की संख्या 41 से घटाकर 34 कर दी गई, जबकि मैदानी क्षेत्रों की सीटें 29 से बढ़कर 36 हो गईं। 

यह परिवर्तन पर्वतीय जिलों से हो रहे निरंतर पलायन और मैदानी जिलों में जनसंख्या वृद्धि का सीधा परिणाम था। चूंकि परिसीमन प्रक्रिया पूरी तरह जनसंख्या आधारित थी, इसलिए जिन क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व अधिक था, वहां सीटें भी बढ़ गईं।

वर्तमान स्थिति 

वर्तमान में उत्तराखंड के मैदानी जिलों—देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल के पास 36 सीटें हैं, जबकि बाकी 9 पर्वतीय जिलों — चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी, बागेश्वर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा और चंपावत — के पास केवल 34 सीटें हैं।

यानी राज्य की राजनीतिक सत्ता अब स्पष्ट रूप से मैदानी जिलों की ओर झुक चुकी है, जबकि उत्तराखंड की स्थापना की मूल भावना पर्वतीय क्षेत्र की उपेक्षा और पिछड़ेपन के खिलाफ थी।

तेजी से घट रही पर्वतीय हिस्से की भागीदारी

वर्ष 2002 में राज्य के पहले विधानसभा चुनावों के समय जहां मैदानी जिलों का मतदाता प्रतिशत 52.7 था, वहीं 2022 तक यह बढ़कर 60.6 प्रतिशत हो गया। इसके विपरीत, 2002 में पर्वतीय जिलों में मतदाता प्रतिशत 47.3 था, जो 2022 में घटकर मात्र 39.4 प्रतिशत रह गया। यानी बीस वर्षों में पर्वतीय मतदाताओं की भागीदारी में लगभग आठ प्रतिशत की गिरावट आई है।

मैदानों में बढ़ती जनसंख्या का दबाव

2002 में जहां मैदानी जिलों में कुल मतदाताओं की संख्या 2779523 थी, वह 2022 में बढ़कर 5010881 हो गई। वहीं, पर्वतीय जिलों में 2002 की 2490852 मतदाताओं की संख्या 2022 में केवल 3255763 तक पहुंची। बीते एक दशक में जहां मैदानी जिलों में मतदाताओं की वृद्धि दर 72 प्रतिशत रही, वहीं पर्वतीय जिलों में यह महज 21 प्रतिशत रही।

जनता के साथ नेता और देवी-देवता भी कर चुके पलायन

राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों की घटते राजनीतिक ताकत के पीछे पलायन और पलायन के पीछे सुविधाओं की दौड़ बड़ा कारण है। स्थिति ऐसी है कि पर्वतीय क्षेत्र की बड़ी आबादी मैदानी क्षेत्रों की ओर पलायन कर आ गयी है। यही नहीं, राज्य के 90 फीसद से अधिक सांसद-विधायकों ने भी अपने घर मैदानी जनपदों, खासकर देहरादून, हल्द्वानी और हरिद्वार व रामनगर में बना लिये हैं।

पहले पर्वतीय लोग हर वर्ष अपने देवताओं को पूजने के लिये अपने गांव जाते थे, लेकिन कई तो अब अपने देवताओं को भी मैदानी क्षेत्रों में ला गये हैं, और अब पूजा के लिये भी अपने मूल पर्वतीय गांव नहीं जा रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों का शायद ही कोई गांव हो, जिसके मूल निवासियों ने पलायन नहीं किया होगा।

परिणाम और चिंताएं

पर्वतीय क्षेत्रों में घटती राजनीतिक भागीदारी के कारण कई बार यह शिकायत उठती रही है कि राज्य सरकारों की प्राथमिकताएं मैदानी क्षेत्रों की ओर केंद्रित रहती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के लिए जल, जंगल, जमीन जैसे मुद्दे हाशिए पर चले गये हैं, और बुनियादी सुविधाओं, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा और संचार के मामले में अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है।

वहीं, विशेषज्ञ यह भी चेतावनी देते हैं कि यदि आने वाले परिसीमन में जनसंख्या ही एकमात्र आधार बना रहा, तो पर्वतीय जिलों की राजनीतिक भागीदारी और कम हो सकती है। इससे न केवल पर्वतीय क्षेत्रों की आवाज दबेगी, बल्कि उत्तराखंड की पर्वतीय पहचान पर भी संकट खड़ा हो सकता है।

राजनीतिक अस्तित्व को खतरा

राजनीतिक विश्लेषकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि यदि यही स्थिति बनी रही तो भविष्य के परिसीमन में पर्वतीय जिलों की विधानसभा सीटें घट सकती हैं, जिससे उनका राजनीतिक प्रभाव सीमित हो सकता है। सामाजिक विश्लेषकों के अनुसार जनसंख्या आधारित परिसीमन की जगह क्षेत्रफल आधारित व्यवस्था ही पर्वतीय क्षेत्रों की राजनीतिक सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती है।

संभावित समाधान

राजनीतिक और सामाजिक विचारकों का मत है कि आने वाले परिसीमन में केवल जनसंख्या नहीं, बल्कि भौगोलिक क्षेत्रफल, दुर्गमता, विकास स्तर और पलायन दर जैसे कारकों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए क्षेत्रफल आधारित परिसीमन मॉडल को उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्यों में अपनाने की मांग उठ रही है, जैसा कि संविधान की धारा 371 के अंतर्गत कुछ पूर्वोत्तर राज्यों को विशेष दर्जा प्राप्त है।

वहीं कुछ लोग पर्वतीय जिलों का राजनीतिक संतुलन बनाए रखने के लिए वहां मतदाताओं की संख्या बढ़ाने और इसके लिए आजीविका, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं के विस्तार पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता भी जताते हैं, जिससे लोग अपने गांव छोड़ने को विवश न हों।

विकास योजनाओं से जगी आस

चारधाम ऑलवेदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना, हवाई सेवाओं के विस्तार सहित अन्य आधारभूत योजनाओं से राज्य सरकार को उम्मीद है कि पहाड़ी क्षेत्रों में कनेक्टिविटी सुधरेगी और विकास को गति मिलेगी। सरकार द्वारा सौर ऊर्जा, होम स्टे, उद्यानिकी और स्वरोजगार योजनाओं के माध्यम से रिवर्स पलायन को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जा रहा है। (Delimitation-Danger of Security on Borders of UK, Uttarakhand News, Delimitation, Parisiman, Migration)

समस्या सिर्फ उत्तराखंड की नहीं (Delimitation-Danger of Security on Borders of UK)

पर्यावरणविद पद्मभूषण अनिल जोशी के अनुसार यह समस्या केवल उत्तराखंड की नहीं बल्कि समूचे राष्ट्र के ग्रामीण व पर्वतीय क्षेत्रों की है। विकास की योजनाओं को धरातल पर उतारने और सुविधाएं उपलब्ध कराने से ही पहाड़ को बचाया जा सकता है।राज्य के लिए यह समय केवल आंकड़ों को देखने का नहीं, बल्कि ठोस नीतिगत हस्तक्षेप का है। यदि जनसंख्या का यह असंतुलन जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पर्वतीय राज्य की अवधारणा सिर्फ इतिहास के पन्नों में रह जायेगी। (Delimitation-Danger of Security on Borders of UK, Uttarakhand News, Delimitation, Parisiman, Migration)

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