गूगल ने चिपको आन्दोलन पर डूडल बनाकर बढाया उत्तराखंड का मान
चिपको से रहा है उत्तराखण्ड की महिलाओं के आन्दोलन का इतिहास
महिलाएं उत्तराखंड की दैनिक काम-काज से लेकर हर क्षेत्र में धूरी हैं। कदाचित वह पुरुषों के नौकरी हेतु पलायन के बाद पूरे पहाड़ का बोझ अपने ऊपर ढोती हैं। विश्व विख्यात चिपको आंदोलन और शराब विरोधी आंदोलनों से उनका आन्दोलनों का इतिहास रहा है। वनों को बचाने हेतु रैणी गांव की एक साधारण परंतु असाधारण साहस वाली महिला ‘गौरा देवी ने 21 मार्च 1974 को अपने गांव के पुरुषों की अनपुस्थिति में जिस सूझबूझ व साहस का परिचय दिया, वह चिपको आंदोलन के रूप में इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित होने के साथ ही अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया। जब उन्होंने व विभाग के कर्मचारियों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया और न मानने पर वो तकरीबन 30 अन्य महिलाओं के साथ पेड़ों पर चिपक गई जिससे पेड़ काटने वालों को उल्टे पैर वापस जाना पड़ा। इस घटना के बाद 1975 में गोपेश्वर व 1978 में बद्रीनाथ समेत अनेक क्षेत्रों में महिलाओं ने विरोध कर जंगलों को काटने से बचाया।
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His faith was unshakable, like the mountains he mapped a way through. Remembering Nain Singh Rawat, on his 187th birthday. #GoogleDoodle pic.twitter.com/SwZy2ma0kG
— Google India (@GoogleIndia) October 21, 2017
- ‘विक्टोरिया पदक’ व ‘कम्पेनियन इंडियन एम्पायर अवार्ड-सीआईएम’ जैसे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित प्रथम भारतीय थे नैन सिंह
- गूगल ने उन्हें बताया है, ‘उनके द्वारा नापे गए पर्वतों (हिमालय) की तरह अडिग विश्वास वाला व्यक्ति’
- अनपढ़ होते हुए भी स्कूल खोलने व शिक्षक के रूप में कार्य करने पर मिली थी ‘पंडित’ की पदवी
- अपने बराबर कदमों से चलकर और कंठी माला पर कदमों को गिनकर नापे थे हिमालय पर स्थित ‘एशिया की पीठ’ और बनाए थे मानचित्र
नवीन जोशी, नैनीताल। दुनिया का सबसे बड़ा खोज इंजन यूं हर खास मौके पर एक नया डूडल बनाने के लिए भी विख्यात है। किंतु आज 21 अक्टूबर को उसने जो डूडल बनाया है उसे देश के साथ खासकर उत्तराखंड वासियों का सिर गर्व से ऊंचा हो गया है, और वे दीपावली-भैया दूज पपर गूगल से मिले इस खास तोहफे को शायद कभी न भुला पाएं। यह तोहफा है गूगल द्वारा आज के दिन के लिये बनाया गया डूडल, जिसमें हाथ में कंठी माला पकड़े एक व्यक्ति को हिमालय के खूबसूरत पहाड़ों व नदी को सलाम करते हुए दिखाया गया है। गूगल पर अपना मनपसंद विषय खोजने वाली पूरी दुनिया आज इस शख्श के बारे में जानने को उत्सुक है। गूगल ने उन्हें ‘उनके द्वारा नापे गए पर्वतों (हिमालय) की तरह अडिग विश्वास वाला व्यक्ति’ बताया है। उत्तराखंड के लिये गर्व करने वाली बात यह है कि यह शख्श महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार, हिमालय पुत्र पंडित नैन सिंह रावत हैं, और देश के गिने-चुने व्यक्तियों में शुमार और उत्तराखंड के ऐसे पहले व्यक्ति हो गए हैं, जिनके 187वें जन्मदिन पर गूगल ने आज उन पर खास डूडल बनाया है।
नैनीताल। 19वीं शताब्दी के उस दौर में अंग्रेज भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे और लगभग पूरे भारत का नक्शा बना चुके थे। वे आगे बढ़ते हुए तिब्बत का नक्शा चाहते थे लेकिन इस जगह पर किसी भी विदेशी के जाने पर मनाही थी। यदि कोई वहां छिपकर पहुंच भी जाएं तो बाद में पकड़े जाने पर मौत की सजा दी जाती थी। ऐसे में किसी भारतीय को ही वहां भेजने की योजना बनाई गई। इसके लिए लोगों की खोज शुरू हुई। आखिरकार 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी को 33 साल के नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मानी सिंह के रूप में दो ऐसे इच्छित लोग मिल गए। दोनों को देहरादून में सर्वे ऑफ इंडिया में प्रशिक्षण दिया गया। जिसके बाद दोनों भाई केवल अपने कदमों व कंठी माला, कंपास व थर्मामीटर जैसे परंपरागत उपकरणों से अपने बराबर चले हुए कदमों को अपनी अनूठी कला व प्रतिभा के बल पर कंठी माला के दानों में गिनते और डायरी में नोट करते हुए सटीक दूरियां इंगित करते हुए नक्शे बना पाए, और सबसे पहले दुनिया को ल्हासा की समुद्र तल से ऊंचाई और उसके अक्षांश और देशांतर से अवगत कराया। यही नहीं उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की थी। उन्होंने दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुने रहस्यों के बारे में भी बताया। तिब्बती भिक्षु के रूप में प्रसिद्ध रावत अपने घर से काठमांडू, ल्हासा और तवांग से लेकर मानसरोवर तक गए थे।
नैनीताल। पंडित नैन सिंह पर काफी कार्य करने वाले डा. शेखर पाठक ने बताया कि स्वयं अनपढ़ होने के बावजूद नैन सिंह ने अपने सर्वेक्षण कार्यों से अपने गृह क्षेत्र में शिक्षा के प्रसार हेतु कार्य किये। 1859 में मिलम और धारचूला में 1863 में उन्होंने स्कूल खोले। शिक्षक के रूप में कार्य करने पर ही उन्हें क्षत्रिय वर्ग से आने के बावजूद ‘पंडित’ की उपाधि मिली। इस दौरान ही जर्मनी के हरमन श्लाघइटवाइट व उनके दो अन्य सर्वेक्षक श्लाघइटवाइट बंधुओं के साथ उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए भारत के साथ तिब्बत, अफगानिस्तान व मध्य एशिया के विभिन्न क्षेत्रों का 1854 से 1858 के बीच चुंबकीय (मैग्नेटिक सर्वे) सर्वेक्षण किया। श्लाघइटवाइट बंधुओं द्वारा किये गये कुमाऊं के उन सर्वेक्षण कार्यों के दस्तावेज और नैन सिंह की स्मृतियां आज भी बर्लिन और म्यूनिख के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। इन कार्य से प्रभावित होकर स्लागंट वाइट बंधु उन्हें साथ लंदन ले जाना चाहते थे। परंतु भाइयों के विरोध के कारण वे तब उनके साथ नहीं गए, परंतु बाद में स्लागंट वाइट बंधुओं ने ही उनका नाम तिब्बत व ल्हासा के सर्वेक्षण के लिये अंग्रेजों को सुझाया था।