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October 6, 2024

देवीधूरा की बग्वाल : जहाँ लोक हित में पत्थरों से अपना लहू बहाते हैं लोग 

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Devidhura Mandir
(Devidhura ki Bagwal)

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, 31 अगस्त 2023। (Devidhura ki Bagwal) कहा जाता है कि जब पृथ्वी पर मानव सभ्यता की शुरुआत हुई तो तत्कालीन आदि मानव के हाथ में एकमात्र वास्तु ‘पाषाण’ यानी पत्थर था, तभी उस युग को पाषाण युग कहा गया। पत्थर से ही आदि मानव ने घिसकर नुकीले औजार बनाये, उदर की आग को बुझाने के लिए जानवर मारे और पत्थरों को ही घिसकर आग जलाई और पका हुआ भोजन खाया, बाद में पत्थर से ही गोल पहिये बनाए और जानवरों पर सवारी गांठकर खुद को ब्रह्मा की बनाई दुनियां का सबसे बुद्धिमान शाहकार साबित किया। देखें इस वर्ष के बगवाल का वीडिओ :

(Devidhura ki Bagwal) अपना लहू बहने पर होती है खुशी

आज जहाँ एक ओर अपनी तरक्की से हमेशा असंतुष्ट रहने वाला मानव पृथ्वी से भी ऊँचा उठकर चाँद व मंगल तक पहुँच गया है, वहीँ दूसरी ओर वही मानव आज भी मानो उसी पाषाण युग में पत्थरों को थामे हुए भी जी रहा है। जातीय व धार्मिक दंगो से कहीं दूर देवत्व की धरती देवभूमि उत्तराखंड के देवीधूरा नामक स्थान पर, वह अपने ही भाइयों पर पत्थर मारता है, पर खुशी उसे उनका लहू बहाने से अधिक उनके पत्थरों से अपना लहू बहने पर होती है। देखें वर्ष 2023  के बगवाल का वीडिओ :

वर्ष में कुछ मिनटों के लिए यहाँ होने वाले पत्थर युद्ध में लोक-लाभ की भावना से लोग अपने थोड़े-थोड़े रक्त का योगदान देते हुए पूरे एक मनुष्य के बराबर रक्त बहाते हैं। लेकिन वर्षों से चली आ रही इस परंपरा ने आज तक किसी की जान नहीं ली है, वरन किसी की जान ही बचाई है। यह मौका है जब सवाल-जबाबों से परे होने वाली आस्था के बिना भी अपनी जड़ों और अतीत को समझने का प्रयास किया जा सकता है। देखें वीडिओ :

यूँ उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है, “नौ नौर्त, दस दशैं, बिस बग्वाल, ये कुमू फुलि भंग्वाल, हिट कुमय्या माल..।” अर्थात शारदीय नवरात्रि व विजयादशमी के बाद भैया दूज को बीस स्थानों पर बग्वाल खेलकर कुमाऊंवासी माल प्रवास में चले जाते थे। लेकिन अब केवल देवीधूरा में ही बग्वाल खेली जाती है।

देवीधुरा यानी “देवी के वन” नाम का छोटा सा कस्बा उत्तराखंड के चंपावत ज़िले में कुमाऊं मंडल के तीन जिलों अल्मोडा, नैनीताल और चंपावत की सीमा पर समद्रतल से लगभग 2,400 मीटर (लगभग 6,500 फिट) की ऊंचाई पर लोहाघाट से 45 किमी तथा चम्पावत से 61 किमी की दूरी पर स्थित है।

यहाँ ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और नैसर्गिक सौंदर्य की त्रिवेणी के रूप में मां बाराही देवी का मंदिर स्थित है, जिसे शक्तिपीठ की मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है कि चंद राजाओं ने अपने शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और महाकाली की स्थापना की थी। महाकाली को महर और फर्त्याल जाति के लोगों द्वारा बारी-बारी से प्रतिवर्ष नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी।

बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के दौरान कत्यूरी राजाओं द्वारा मां बाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारों ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया।

(Devidhura ki Bagwal)-महाभारतकालीन इतिहास भी

इस स्थान का महाभारतकालीन इतिहास भी बताया जाता है, कहते हैं कि यहाँ पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी। ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। इनमें से एक को राम शिला कहा जाता है। जन श्रुति है कि यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था, दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं। निकट ही स्थित भीमताल और हिडिम्बा मंदिर भी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। 

वैसे अन्य इतिहासकर इस परंपरा को आठवीं-नवीं सदी का तथा कुछ खस जाति से भी सम्बिन्धित मानते हैं । दूसरी ओर पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राक्षक्षराज हिरणाक्ष व अधर्मराज पृथ्वी को अपहरण कर पाताल लोक ले गए, तब पृथ्वी की करुण पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने बाराह यानी सूकर का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाया, और उसे अपनी बांयी ओर धारण किया। तभी से पृथ्वी वैष्णवी बाराही कहलायी गईं।

कहा जाता हैं कि तभी से मां वैष्णवी बाराही आदिकाल से गुफा गह्वरों में भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही हैं। इन्हीं मां बाराही की पवित्र भूमि पर उल्लास, वैभव एवं उमंग से भरपूर सावन के महीने में जब हरीतिमा की सादी ओढ़ प्रकृति स्वयं पर इठलाने लगती हैं, आकाश में मेघ गरजते हैं, दामिनी दमकती है और धरती पर नदियां एवं झरने नव जीवन के संगीत की स्वर लहरियां गुंजा देते हैं, बरसात की फुहारें प्राणिमात्र में नव स्पंदन भर देती हैं तथा खेत और वनों में हरियाली लहलहा उठती है।

ऐसे परिवेश में देवीधूरा में प्राचीनकाल से भाई-बहन के पवित्र प्रेम के पर्व रक्षाबंधन से कृष्ण जन्माटष्मी तक आषाड़ी कौतिक (मेला) मनाया जाता है, वर्तमान में इसे बग्वाल मेले के नाम से अधिक प्रसिद्धि प्राप्त है।

(Devidhura ki Bagwal) पाषाण युद्ध

कौतिक के दौरान श्रावणी पूर्णिमा को ‘पाषाण युद्ध’ का उत्सव मनाया जाता है। एक-दूसरे पर पत्थर बरसाती वीरों की टोलियां, वीरों की जयकार और वीर रस के गीतों से गूंजता वातावरण, हवा में तैरते पत्थर ही पत्थर और उनकी मार से बचने के लिये हाथों में बांस के फर्रे लिये युद्ध करते वीर।

सब चाहते हैं कि उनकी टोली जीते, लेकिन साथ ही जिसका जितना खून बहता है वो उतना ही ख़ुशक़िस्मत भी समझा जाता है। इसका मतलब होता है कि देवी ने उनकी पूजा स्वीकार कर ली। आस-पास के पेड़ों, पहाड़ों औऱ घर की छतों से हजारों लोग सांस रोके पाषाण युद्ध के इस रोमांचकारी दृश्य को देखते हैं। कभी कोई पत्थर की चोट से घायल हो जाता है तो तुरंत उसे पास ही बने स्वास्थ्य शिविर में ले जाया जाता है। युद्धभूमि में खून बहने लगता है, लेकिन यह सिलसिला थमता नहीं।

साल-दर-साल चलता रहता है, हर साल हजारों लोग दूर-दूर से इस उत्सव में शामिल होने आते हैं। आस-पास के गांवों में हफ़्तों पहले से इसमें भाग लेने के लिये वीरों और उनके मुखिया का चुनाव शुरू हो जाता है. अपने-अपने पत्थर और बांस की ढालें तैयार कर लोग इसकी बाट जोहने लगते हैं।

(Devidhura ki Bagwal) पौराणिक मान्यता 

बग्वाल यानी पाषाण युद्ध की यह परंपरा हजारों साल से देवीधूरा में चली आ रही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था, सघन वन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों का आतंक था, उन्हें प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी।

देवीधूरा के आस-पास वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहड़वाल खामों (ग्रामवासियों का समूह, जिनमें महर और फर्त्याल जाति के लोग ही अधिक होते हैं) के लोग रहते थे, इन्हीं खामों में से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी।

(Devidhura ki Bagwal) वृद्धा के पौत्र को बचाने के लिए निकाली युक्ति-नर बलि की कुप्रथा हुई बंद

एक बार चम्याल खाम की एक ऐसी वृद्धा के पौत्र की बारी आई, जो अपने वंश में इकलौता था। अपने कुल के इकलौते वंशज को बचाने के लिये वृद्धा ने देवी की आराधना की तो देवी ने वृद्धा से अपने गणों को खुश करने के लिये कहा।

वृद्धा को इस संकट से उबारने के लिये चारों खामों के लोगों ने इकट्ठे होकर युक्ति निकाली कि एक मनुष्य की जान देने से बेहतर है कि आपस में पाषाण युद्ध “बग्वाल” लड़ (खेल) कर एक मानव के बराबर रक्त देवी व उसके गणों को चड़ा दिया जाए। इस तरह नर बलि की कुप्रथा भी बंद हो गयी। तभी से बग्वाल का एक निश्चित विधान के साथ लड़ी नहीं वरन खेली जाती है

(Devidhura ki Bagwal) ऐसे होता है बग्वाल का आयोजन

मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाड़ी कौतिक के रुप में लगभग एक माह तक चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की द्वितीया तक परम्परागत पूजन होता है।

श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन चारों खामो के लोगों द्वारा सामूहिक पूजा-अर्चना, मंगलाचरण, स्वस्तिवान, सिंहासन-डोला पूजन और सांगी पूजन विशिष्ट प्रक्रिया के साथ किये जाते हैं। इस बीच अठ्वार का पूजन भी होता है, जिसमें सात बकरों और एक भैंसे का बलिदान दिया जाता है।

(Devidhura ki Bagwal) पूर्णमासी के दिन चारों खामों व सात तोकों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वन्द्विता व शौर्य के साथ बाराही देवी के मंदिर में एकत्र होते हैं, जहां पुजारी सामूहिक पूजा करवाते हैं । बग्वाल खेलने वाले बीरों (स्थानीय भाषा में द्योंकों) को घरों से महिलाएँ आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक-चंदन लगाकर व हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बग्वाल के लिए भेजती हैं।

(Devidhura ki Bagwal) द्योंके युद्ध से पहले एक महीने तक संयम तथा सदाचार का पालन करते हैं, और सात्विक भोजन करते हैं।पूजा के बाद पाषाण युद्ध में भाग लेने वाले चारों खामों के योद्धाओं की टोलियाँ अपने घरों से परम्परागत वेश-भूषा में सुसज्जित होकर ढोल, नगाड़ो के साथ

सिर पर कपड़ा बाँध, हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजे व रिंगाल की बनी हुई छन्तोली कही जाने वाली छतरियों (फर्रों) के साथ धोती-कुर्ता या पायजामा पहन व कपड़े से मुंह ढंक कर अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण दुर्वाचौड़ मैदान में पहुँचती  हैं, और दो टीमों के रुप में मैदान में बंट जाती हैं।

(Devidhura ki Bagwal) सर्वप्रथम मंदिर की परिक्रमा की जाती है। इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । सबका मार्ग पहले से ही निर्धारित होता है। मैदान में पहुचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल खोलीखाण दूर्वाचौड़ मैदान में आते हैं।

दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलते हैं, और देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले दूर्वाचौड़ मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं।

(Devidhura ki Bagwal) दोपहर में जब मैदान के चारों ओर आस्था का सैलाब उमड़ पड़ता है, तब एक निश्चित समय पर मंदिर के पुजारी बग्वाल प्रारम्भ होने की घोषणा करते हैं। इसके साथ ही खामों के प्रमुखों की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ हो जाती है। ढोल का स्वर ऊँचा होता चला जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं।

धीरे-धीरे बग्वाली एक दूसरे पर प्रहार करते हुए मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। फर्रों की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है। जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं।

(Devidhura ki Bagwal) पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँवर के साथ मैदान में आकर बग्वाल सम्पन्न होने की घोषणा शंखनाद से करते हैं। तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता प्रदर्शित कर आपस में गले मिल, अपने क्षेत्र की समृद्धि की कामना करते हुए द्योंके धीरे-धीरे मैदान से बिदा होते हैं। श्रद्धालुओं में प्रसाद वितरण किया जाता है।

(Devidhura ki Bagwal) इसके बाद भी मंदिर में पूजार्चन चलता रहता है। देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का होता है। फुलारा कोट के फुलारा जानी के लोग मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं। मनटांडे और ढोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं। भैंसिरगाँव के गहढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं।

(Devidhura ki Bagwal) लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फर्त्याल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि पहले जो बग्वाल आयोजित होती थी उसमें फर्रों का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् 1945 के बाद से फर्रे प्रयोग किये जाने लगे। बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है । रात्रि में मंदिर में देवी जागरण होता है।

(Devidhura ki Bagwal) आंखों पर काली पट्टी बांधकर कराते हैं माता की मूर्तियों को स्नान

खोलीखांड-दूर्वाचौड़ मैदान के सामने बने मंदिर की ऊपरी मंजिल में तांबे की पेटी में मां बाराही, मां सरस्वती और मां महाकाली की मूर्तियां हैं। ऐसा माना जाता है कि खुली आंखों से इन मूर्तियों को आज तक किसी ने नहीं देखा है। मां बाराही की मूर्ति कैसी और किस धातु की है यह आज भी रहस्य है। कहा जाता है कि मूर्तियों को खुली आंखों से देखने नेत्र की ज्योति चली जाती है। इसलिए मूर्तियों को स्नान कराते समय पुजारी भी आंखों पर काली पट्टी बांधे रहते हैं।

(Devidhura ki Bagwal) इन मूर्तियों की रक्षा का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है, जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी। गहढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है। श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है। (Devidhura ki Bagwal, Devidhura, Bagwal, Patthar Yuddha, Pashan)

भक्तजनों की जय-जयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है। चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते हैं। कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं। (Devidhura ki Bagwal, Devidhura, Bagwal, Patthar Yuddha, Pashan)

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