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December 22, 2024

उत्तराखण्ड की पत्रकारिता का इतिहास

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उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पत्रकार स्वर्गीय राधाकृष्ण वैष्णव

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल (History of Journalism in Uttarakhand)। आदि-अनादि काल से वैदिक ऋचाओं की जन्मदात्री उर्वरा धरा रही देवभूमि उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का गौरवपूर्ण अतीत रहा है। कहते हैं कि यहीं ऋषि-मुनियों के अंतर्मन में सर्वप्रथम ज्ञानोदय हुआ था। बाद के वर्षों में आर्थिक रूप से पिछड़ने के बावजूद उत्तराखंड बौद्धिक सम्पदा के मामले में हमेशा समृद्ध रहा। शायद यही कारण हो कि आधुनिक दौर के ‘जल्दी में लिखे जाने वाले साहित्य की विधा-पत्रकारिता’ का बीज देश में अंकुरित होने के साथ ही यहां के सुदूर गिरि-गह्वरों तक भी विरोध के स्वरों के रूप में पहुंच गया।

Gumani Pant or Lokratn or Loknath | Biography | Real Name | Poems | गुमानी  पंत व लोकरत्न व लोकनाथ | जीवनी | परिचय | रचनाएँकुमाउनी के आदि कवि गुमानी पंत (जन्म 1790-मृत्यु 1846, रचनाकाल 1810 ईसवी से) ने अंग्रेजों के यहां आने से पूर्व ही 1790 से 1815 तक सत्तासीन रहे महा दमनकारी गोरखों के खिलाफ कुमाउनी के साथ ही हिंदी की खड़ी बोली में कलम चलाकर एक तरह से पत्रकारिता का धर्म निभाना प्रारंभ कर दिया था। इस आधार पर उन्हें अनेक भाषाविदों के द्वारा उनके स्वर्गवास के चार वर्ष बाद उदित हुए ‘आधुनिक हिन्दी के पहले रचनाकार’ भारतेंदु हरिश्चंद्र (जन्म 1850-मृत्यु 1885) से आधी सदी पहले का पहला व आदि हिंदी कवि भी कहा जाता है।

हालांकि समाचार पत्रों का प्रकाशन यहां काफी देर में 1842 में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ‘द हिल्स’ नामक उत्तरी भारत के पहले समाचार पत्र के साथ शुरू हुआ, लेकिन 1868 में जब भारतेंदु हिंदी में लिखना प्रारंभ कर रहे थे, नैनीताल से ‘समय विनोद’ नामक पहले देशी (हिंदी-उर्दू) पाक्षिक पत्र ने प्रकाशित होकर एक तरह से हिंदी पत्रकारिता का छोर शुरू में ही पकड़ लिया। यह संयोग ही है कि आगे 1953 में उत्तराखंड का पहला हिंदी दैनिक अखबार ‘पर्वतीय’ भी नैनीताल से ही प्रकाशित हुआ।

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उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के विकास की प्रक्रिया भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की प्रक्रिया के समानान्तर किंतु एक बुनियादी फर्क के साथ रही। क्योंकि देश जब अंग्रेजी शासनकाल से त्रस्त था, तब 1815 में ईस्ट इंडिया कंपनी उत्तराखंड को गोरखों के क्रूर एवं अत्याचारी शासन का अंत कर सत्तासीन हो रही थी। अंग्रेजों को उत्तराखंड अपने घर इंग्लेंड व स्कॉटलेंड जैसा भी लगा था, इसलिए उन्होंने उत्तराखंड को शुरू में अपने घर की तरह माना। नैनीताल को तो उन्होंने ‘छोटी बिलायत’ के रूप में ही बसाया।

इसलिए शुरूआत में अंग्रेजों का यहां स्वागत हुआ। लेकिन धीरे-धीरे देश के पहले स्वाधीरता संग्राम यानी 1857 तक कंपनी के शासन के दौर में और इससे पूर्व गोरखा राज से ही उत्तराखण्ड के कवियों मौलाराम (1743-1833), गुमानी (1790-1846) एवं कृष्णा पाण्डे (1800-1850) आदि की कविताओं में असन्तोष के बीज मिलते हैं।

‘दिन-दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब, चूली में ना बाल एकै कैका’– गुमानी (गोरखा शासन के खिलाफ)

आगे गुमानी ने देश में अंग्रेजों के आगमन को देशी राजाओं की फूट और शिक्षा की कमी का नतीजा बताने के साथ ही उनकी शक्ति को भी स्वीकारा। खड़ी बोली-हिंदी में लिखी उनकी यह कविता उन्हें हिंदी का प्रथम कवि भी साबित करती है-

विद्या की जो बढ़ती होती, फूट न होती राजन में।
हिंदुस्तान असंभव होता बस करना लख बरसन में।
कहे गुमानी अंग्रेजन से कर लो चाहो जो मन में।
धरती में नहीं वीर, वीरता दिखाता तुम्हें जो रण में।

उत्तराखण्ड की पत्रकारिता का उद्भव एवं विकासः

उत्तराखंड में 1815 में अंग्रेजों के प्रादुर्भाव के उपरांत वास्तविक अर्थों में आधुनिक पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ। हम जानते हैं कि 29 जनवरी 1780 को जेम्स ऑगस्टस हिकी द्वारा हिकी’ज बंगाल गजट के रूप में देश में भारतीय पत्रकारिता की नींव रख दी गई थी, लेकिन इसके कई दशकों तक देश में पत्रकारिता बंगाल तथा समुद्र तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित रही थी, और इसे थल मार्ग व खासकर पहाड़ चढ़ने में 62 वर्ष लग गए।

1842 में एक अंग्रेज व्यवसायी और समाजसेवी जान मेकिनन ने अंग्रेजी भाषा में ‘द हिल्स’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन मसूरी के सेमेनरी स्कूल परिसर स्थित प्रिंटिंग प्रेस से शुरू किया, जिसे उत्तरी भारत के पहले समाचार पत्र की मान्यता है। यह पत्र अपने बेहतरीन प्रकाशन और प्रसार के लिए चर्चित रहा। बताया जाता है कि इस पत्र में इंग्लेंड और आयरलेंड के आपसी झगड़ों के बारे में खूब चर्चाएं होती थीं। करीब सात-आठ वर्ष चलने के बाद यह पत्र बंद हो गया। 1860 में डा. स्मिथ ने इसे एक बार पुर्नजीवित करने की कोशिश की, लेकिन 1865 तक चलने के बाद यह पत्र हमेशा के लिए बंद हो गया।

img 20200803 1019001444242362486855739विरासत-2 अगस्त 1845 - इसी दिन रानी लक्ष्मीबाई के वकील जॉन लेंग ने निकाला था  मफसिलाईट अखबार - Avikal Uttarakhandअलबत्ता 1845 में प्रकाशित अखबार ‘मेफिसलाइट’ अंग्रेजी भाषी होने के बावजूद अंग्रेजी शासन के खिलाफ लिखता था। इस पत्र के संपादक जॉन लेंग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के वकील रह चुके थे। वह लक्ष्मीबाई की शहादत के बाद मसूरी पहुंचे, और इस समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुए।

लार्ड डलहौजी ने सात जून 1857 को हुई ‘इंग्लिश मैन क्लब मसूरी’ की बैठक में इसे अंग्रेजों का अखबार होते हुए साम्राज्यविरोधी अखबार करार दिया था। 1882-83 के आसपास लिडिल नाम के अंग्रेज इसके संपादक रहे। इस अखबार का ऐसा नाम था कि लगभग सवा सौ वर्षों के बाद वर्ष 2003 में जय प्रकाश ‘उत्तराखंडी’ ने हिंदी-अंग्रेजी में साप्ताहिक पत्र के रूप में इसका पुर्नप्रकाशन प्रारंभ किया।

इसके बाद 1870 में मसूरी से ही एक और अंग्रेजी अखबार ‘मसूरी एक्सचेंज’ कुछ महीनों का जीवन लेकर मसूरी से ही प्रारंभ हुआ। 1872 में कोलमैन नाम के अंग्रेज ने जॉन नार्थन के सहयोग से पुनः ‘मसूरी सीजन’ नाम के अंग्रेजी अखबार को चलाने का प्रयास किया, परंतु यह अखबार भी करीब दो वर्ष तक ही जीवित रह पाया। इसी कड़ी में आगे 1875 में ‘मसूरी क्रानिकल’ तथा आगे इसी दौरान ‘बेकन’ और ‘द ईगल’ नाम के अल्पजीवी अंग्रेजी समाचार पत्र भी शुरू हुए। इनकी उम्र काफी कम रही, लेकिन मसूरी 1880 के दौर तक उत्तरी भारत का समाचार पत्रों के मामले में प्रमुख केंद्र बना रहा, और यहां कई अंग्रेज पत्रकार और संपादक हुए। आगे 1900 में बाडीकाट ने ‘द मसूरी टाइम्स’ का प्रकाशन शुरू किया, जिसका प्रबंधन बाद में भारतीयों के हाथ में रहा।

बताते हैं कि इस पत्र के संवाददाता यूरोप में भी थे। करीब 30 वर्षों के बाद हुकुम सिंह पंवार ने इसे पुर्नजीवित किया। आगे 1970 के दशक में इस पत्र का हिंदी संस्करण प्रारंभ हुआ। इस बीच 11 फरवरी 1914 से देहरादून से ‘देहरा-मसूरी एडवरटाइजर’ नाम का विज्ञापन पत्र भी प्रकाशित हुआ। 1924 में ‘द हेरल्ड वीकली’ नाम का एक और अंग्रेजी अखबार मसूरी से बनवारी लाल ‘बेदम’ द्वारा प्रारंभ किया गया। इस पत्र में टिहरी की जन क्रांति की खबरें प्रमुखता से छपती थीं।

समय विनोद:

हिंदी भाषा के समाचार पत्रों की बात करें तो 1868 में जब देश में हिंदी लेखन व पत्रकारिता के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु लिखना प्रारंभ कर रहे थे, अंग्रेजों के द्वारा केवल 27 वर्ष पूर्व 1841 में स्थापित हुए नैनीताल नगर से हिंदी पत्रकारिता का शुभारंभ हो गया। संपादक-अधिवक्ता जयदत्त जोशी ने नैनीताल प्रेस से ‘समय विनोद’ नामक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया, जो उत्तराखंड से निकलने वाला पहला देशी (हिन्दी-उर्दू) पाक्षिक पत्र था। आगे यह 1871 तक उत्तराखंड का अकेला हिंदी भाषी पत्र भी रहा।

पत्र ने सरकारपरस्त होने के बावजूद ब्रिटिश राज में चोरी की घटनाएं बढ़ने, भारतीयों के शोषण, बिना वजह उन्हें पीटने, उन पर अविश्वास करने पर अपने विविध अंकों में चिंता व्यक्त की थी। 1918 में यह पत्र अंग्रेज सरकार के खिलाफ आक्रामकता एवं सरकार विरोधी होने के आरोप में बंद हुआ। हालांकि इससे पूर्व ही 1893 में अल्मोड़ा से कुमाऊं समाचार, 1902-03 में देहरादून से गढ़वाल समाचार और 1905 में देहरादून से गढ़वाली समाचार पत्रों के बीज भी अंग्रेजी दमन को स्वर देने के लिए पड़ चुके थे।

अल्मोड़ा अखबारः

अल्मोड़ा अखबार 1871 - उत्तराखंड का पहला कुमाऊँनी समाचार पत्र | भारत वर्ष का  द्वितीय, उत्तर प्रदेश का प्रथम साप्ताहिक हिन्दी समाचार पत्र ...उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के क्षेत्र में 1871 में अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ का विशिष्ट स्थान है। प्रमुख अंग्रेजी पत्र ‘‘पायनियर’’ के समकालीन इस समाचार पत्र का सरकारी रजिस्ट्रेशन नंबर 10 था, यानी यह देश का 10वां पंजीकृत समाचार पत्र था। 1870 में स्थापित ‘डिबेटिंग क्लब’ के प्रमुख बुद्धि बल्लभ पन्त ने इसका प्रकाशन प्रारंभ किया।

Almora Akhbar Weekly 2 July 1810 – यह नवीन समाचार का पुराना संस्करण है, नया  संस्करण http://www.deepskyblue-swallow-958027.hostingersite.com/ पर देखें.इसके 48 वर्ष के जीवनकाल में इसका संपादन क्रमशः बुद्धिबल्लभ पंत, मुंशी इम्तियाज अली, जीवानन्द जोशी, 1909 तक मुंशी सदानन्द सनवाल, 1909 से 1913 तक विष्णुदत्त जोशी तथा 1913 के बाद बद्रीदत्त पाण्डे ने किया। इसे उत्तराखंड में पत्रकारिता की पहली ईंट भी कहा गया है।

प्रारम्भिक तीन दशकों में ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ सरकारपरस्त था फिर भी इसने औपनिवेशिक शासकों का ध्यान स्थानीय समस्याओं के प्रति आकृष्ट करने में सफलता पाई। कभी पाक्षिक तो कभी साप्ताहिक रूप से निकलने वाले इस पत्र ने आखिर 1910 के आसपास से बंग-भंग की घटना के बाद अपने तेवर बदलकर अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त पर्वतीय जनता की मूकवाणी को अभिव्यक्ति देने का कार्य किया, और कुली बेगार, जंगल बंदोबस्त, बाल शिक्षा, मद्य निषेध, स्त्री अधिकार आदि पर प्रखर कलम चलाई।

1913 में ‘कुमाऊँ केसरी’ बद्री दत्त पांडे के ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ के संपादक बनने के बाद इस पत्र का सिर्फ स्वरूप ही नहीं बदला वरन् इसकी प्रसार संख्या भी 50-60 से बढकर 1500 तक हो गई। इसमें बेगार, जंगलात, स्वराज, स्थानीय नौकरशाही की निरंकुशता पर भी इस पत्र में आक्रामक लेख प्रकाशित होने लगे। 14 जुलाई 1913 के अंक में प्रकाशित संपादकीय को देखने से स्पष्ट होता है कि यह पत्र कुमाऊं में विकसित होती राजनैतिक चेतना का कैसा प्रतिबिम्ब बन रहा था।

‘‘कुली के प्रश्न ने हमको वास्तव में बेजार कर दिया है। यह प्रश्न जंगलात के कष्ट से भी गुरूतर है क्योंकि जगंलात का प्रश्न आर्थिक है पर यहां मानहानि है। आज जबकि अमेरिका के हबशी और दक्षिण अफ्रीका के असभ्य तक उन्नति की चेष्टा कर रहे है, कूर्मांचल जैसे सभ्य, विद्या सम्पन्न देश के सदस्यों को कुली कहा जाना कैसा अपमान जनक है, सो कह नहीं सकते। वह वास्तव में जातीय आत्मघात है, यदि एक चींटी को भी आप हाथ में बंद कर दें तो वह भागने का प्रयत्न करती है, पर हमको एक सभ्य सरकार कुली बना रही है और हम चुप्पी साधे बैठे रहे। शोक। महाशोक।’’

बद्री दत्त पांडे द्वारा उपनिवेशवाद के खिलाफ लिखने पर अंग्रेजों ने इस पर जुर्माना लगाया। जुर्माना न दे पाने पर अखबार को बंद करने का हुक्म सुना दिया गया, जिस पर अल्मोड़ा अखबार अंततः 1918 में बंद हो गया।

अल्मोड़ा अखबार का ऐसा असर था कि इसके बंद होने की कथा भी दंतकथा बन गई। कहते हैं कि तत्कालीन डिप्टी कमीश्नर लोमस तत्कालीन जंगलात नीति का कट्टर समर्थक, और बडे़ ही गर्म मिजाज का था। पाण्डे जी के जंगलात विरोधी लेखों के चलते उसने उन्हें बुलवाया और धमकी दी कि वह अखबार को बंद कर देगा। बद्रीदत पाण्डे के शब्दों में- ‘‘लोमस कभी पैर पटकता, दाँत पीसता और कभी मेज पर हाथ पटकता, वह फिरंगी मेरे से बेढंग बिगड़ चुका था और भालू की तरह गुस्से में था।’’

अल्मोड़ा अखबार ने 1918 के होली अंक के संपादकीय में नौकरशाही पर व्यंग्य करते हुए ‘जी हजूर होली’ और डिप्टी कमीश्नर लोमस पर ‘लोमस की भालूशाही’ शीर्षक से लेख प्रकाशित किया। इस लेख के तुरन्त बाद एक घटना घटी लोमस एक सुन्दरी के साथ स्याही देवी के जंगल में मुर्गी का शिकार खेलने गया। इस दौरान एक कुली के शराब देर से लाने पर उसने कुली पर छुरे से वार कर मार दिया।

इस खबर को पाण्डे जी ने अखबार में छाप दिया। लोमस तो अखबार बंद करवाने का मन पहले ही बना चुका था उसने अल्मोड़ा अखबार से 1000 रुपये की जमानत मांगी व व्यवस्थापक संदानंद सनवाल को बुलाकर अल्मोड़ा अखबार को बंद करा दिया। इस बाबत गढ़वाल से प्रकाशित समाचार पत्र-गढ़वाली ने समाचार छापते हुए सुर्खी लगाई थी-‘एक गोली के तीन शिकार-मुर्गी, कुली और अल्मोड़ा अखबार।’

शक्तिः

शक्ति (1918) | समाचार पत्र | संपादक | अल्मोड़ा | उत्तराखंड | Shakti 1918 |  Newspaper | Almoraअल्मोड़ा अखबार के बंद होने की भरपाई अल्मोड़ा अखबार के ही संपादक रहे बद्री दत्त पाण्डे ने अल्मोड़ा में देशभक्त प्रेस की स्थापना कर 18 अक्टूबर 1918 को विजयादशमी के दिन ‘‘शक्ति’’ नाम से दूसरा अखबार निकालकर पूरी की। शक्ति पर शुरू से ही स्थानीय आक्रामकता और भारतीय राष्ट्रवाद दोनों का असाधारण असर था।

‘‘शक्ति’’ ने न सिर्फ स्थानीय समस्याओं को उठाया वरन् इन समस्याओं के खिलाफ उठे आन्दोलनों को राष्ट्रीय आन्दोलन से एकाकार करने में भी उसका महत्वपूर्ण योगदान रहा। ‘‘शक्ति’’ की लेखन शैली का अन्दाज 27 जनवरी 1919 के अंक में प्रकाशित निम्न पंक्तियों से लगाया जा सकता है-

‘‘आंदोलन और आलोचना का युग कभी बंद न होना चाहिए ताकि राष्ट्र हर वक्त चेतनावस्था में रहे अन्यथा जाति यदि सुप्तावस्था को प्राप्त हो जाती है तो नौकरशाही, जर्मनशाही या नादिरशाही की तूती बोलने लगती है।’’ शक्तिः 27 जनवरी 1919।

शक्ति ने एक ओर बेगार, जंगलात, डोला-पालकी, नायक सुधार, अछूतोद्धार तथा गाड़ी-सड़क जैसे आन्दोलनों को इस पत्र ने मुखर अभिव्यक्ति दी तो दूसरी ओर असहयोग, स्वराज, सविनय अवज्ञा, व्यक्तिगत सत्याग्रह, भारत छोड़ो आन्दोलन जैसी अवधारणाओं को ग्रामीण जन मानस तक पहुॅचाने के लिए एक हथियार के रूप में प्रयास किया, साथ ही साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को भी मंच प्रदान किया। इसका प्रत्येक संपादक राष्ट्रीय संग्रामी था। 10 जून 1942 को तत्कालीन संपादक मनोहर पंत को सरकार विरोधी लेख प्रकाशित करने के आरोप में डीआईआर एक्ट के तहत जेल भेज दिया गया, जिस कारण 1942 से 1945 तक शक्ति का प्रकाशन फिर से बंद रहा, और 1946 में पुनः प्रारंभ हुआ।

उनके अलावा भी बद्रीदत्त पांडे, मोहन जोशी, दुर्गादत्त पाण्डे, राम सिंह धौनी, मथुरा दत्त त्रिवेदी, पूरन चन्द्र तिवाड़ी आदि में से एक-दो अपवादों को छोड़कर ‘‘शक्ति’’ के सभी सम्पादक या तो जेल गये थे या तत्कालीन प्रशासन की घृणा के पात्र बने और इस तरह यह अखबार उत्तराखंड में आजादी के आंदोलन में अग्रदूत व क्रांतिदूत की भूमिका में रहा।

वर्तमान में भी प्रकाशित (वर्तमान संपादक शिरीष पाण्डेय) इस समाचार पत्र को उत्तराखंड के सबसे पुराने व सर्वाधिक लंबे समय तक प्रकाशित हो रहे समाचार पत्र के रूप में भी जाना जाता है। 1922 में अल्मोड़ा से ही बसंत कुमार जोशी द्वारा प्रकाशित कुमाऊं कुमुद अखबार ने भी राष्ट्रीय विचारों की ज्वालो को शक्ति के साथ आगे बढ़ाया। इस समाचार पत्र ने लोकभाषा के रचनाकारों को भी काफी प्रोत्साहित किया।

गढ़वाल समाचार और गढ़वालीः

गढ़वाली अखबार 1905-1950 | उत्तराखंड का पहला गढ़वाली समाचार पत्र | संपादक |  इतिहास | Garhwali Akhbar | Newspaper1902 से 1904 तक लैंसडाउन से गिरिजा दत्त नैथाणी द्वारा संपादित मासिक पत्र ‘‘गढ़वाल समाचार’’ गढ़वाल से निकालने वाला पहला हिंदी अखबार था। बाद में 1913 से 1915 तक इसे एक बार फिर श्री नैथाणी ने  दोगड्डा से निकला। इसे भी अपनी उदार और नरम नीति के बावजूद औपनिवेशिक शासन की गलत नीतियों का विरोध करते रहे थे।

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का इतिहास 1 New Positive नवीन समाचारउत्तराखण्ड में पत्रकारिता के विकास के क्रम में देहरादून से प्रकाशित ‘गढ़वाली’ (1905-1952) गढ़वाल के शिक्षित वर्ग के सामूहिक प्रयासों द्वारा स्थापित एक सामाजिक संस्थान था। इसे वास्तविक अर्थों में उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल में उद्देश्यपूर्ण पत्रकारिता की नींव की ईंट और गढ़वाल में पुनर्जागरण की लहरों को पहुँचाने वाला अखबार भी कहा जाता है। उदार सरकारपरस्त संगठन ‘गढ़वाल यूनियन’ (स्थापित 1901) का पत्र माने जाने वाले गढ़वाली का पहला अंक मई 1905 को निकला जो कि मासिक था तथा इसके पहले सम्पादक होने का श्रेय गिरिजा दत्त नैथानी को जाता है।

आगे ‘गढ़वाली’ के दूसरे संपादक तारादत्त गैरोला तथा तीसरे संपादक विश्वम्भर दत्त चंदोला (1916 से 1952 तक) रहे, जिनकी इसे आगे बढ़ाने में महती भूमिका रही। श्री चंदोला ने टिहरी रियासत में घटित रवांई कांड (मई 1930) के समय जनपक्ष का समर्थन कर उसकी आवाज बुलंद की, इस घटना में पत्रकारिता के उच्च आदर्शों का पालन करने की कीमत उन्हें 1 वर्ष की जेल जाकर चुकानी पड़ी। इसे देश के पत्रकारिता इतिहास की दूसरी घटना बताया जाता है। इस पत्र ने वर्तमान पत्रकारिता के छात्रों के लिहाज से ‘टू-वे कम्युनिकेशन सिस्टम’ के लिहाज से अत्यधिक महत्वपूर्ण ‘पाठकों के पत्र सम्पादक के नाम’ की शुरुआत भी की, तथा अंग्रेजों के अलावा टिहरी रियासत के खिलाफ भी पहली बार आवाज उठाने की हिम्मत की।

47 साल तक जिन्दा रहने वाले इस पत्र ने अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं से लेकर विविध राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रखरता के साथ लिखा तथा अनेक आन्दोलनों की पृष्ठभूमि तैयार की। कुली बर्दायश की कुप्रथा के खिलाफ ‘गढ़वाली’ ने इस तरह लेखनी चलाई-

‘कुली बर्दायश की वर्तमान प्रथा गुलामी से भी बुरी है और सभ्य गवरमैण्ट के योग्य नहीं, कतिपय सरकारी कर्मचारियों की दलील है, कि यह प्राचीन प्रथा अर्थात दस्तूर है, किंतु जब यह दस्तूर बुरा है तो चाहे प्राचीन भी हो, निन्दनीय है और फौरन बन्द होना चाहिए। क्या गुलामी, सती प्रथा प्राचीन नहीं थीं।’

गढ़वाली ने गढ़वाल में कन्या विक्रय के विरूद्ध भी आंदोलन संचालित किया, और कुली बेगार, जंगलात तथा गाड़ी सड़क के प्रश्नों को भी प्रमुखता से उठाया। गढ़वाल में वहां की संस्कृति एवं साहित्य का नया युग ‘‘गढ़वाली युग’’ आरम्भ करना ‘‘गढ़वाली’’ के जीवन के शानदार अध्याय हैं। बाद के दौर में गढ़वाली ने स्थानीय मुद्दों के साथ राष्ट्रीय मुद्दों की ओर भी कलम चलाई, और इसे ‘क्रांति की नहीं ग्रांधीवाद की सत्याग्रही नीति’ पर चलने वाला अखबार भी बताया गया।

स्वाधीन प्रजाः

देशभक्त मोहन जोशी: स्वतंत्रता सेनानी जो अंग्रेजों की मशीनगन के सामने भी  नहीं झुके Victor Mohan Joshi Desh Bhaktउत्तराखण्ड की पत्रकारिता के इतिहास में अल्मोड़ा से एक जनवरी 1930 से प्रकाशित ‘‘स्वाधीन प्रजा’’ भी अत्यंत महत्वपूर्ण पत्र है, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौर में प्रकाशित हुआ, तथा बीच में बंद होने के बाद वर्तमान में भी अपनी यात्रा जारी रखे हुए है। इसके सम्पादक प्रखर राष्ट्रवादी नेता विक्टर मोहन जोशी थे। यह पत्र शुरुआत से अत्यधिक आक्रामक रहा। पत्र ने अपने पहले अंक में ही लिखा-

भारत की स्वाधीनता भारतीय प्रजा के हाथ में हैं। जिस दिन प्रजा तड़प उठेगी, स्वाधीनता की मस्ती तुझे चढ़ जाएगी, ग्राम-ग्राम, नगर-नगर देश प्रेम के सोते उमड़ पड़ेंगे तो बिना प्रस्ताव, बिना बमबाजी या हिंसा के क्षण भर में देश स्वाधीन हो जाएगा। प्रजा के हाथ में ही स्वाधीनता की कुंजी है।’

यह लगातार अंग्रेजी सरकार के खिलाफ अपने शब्दों को धार देता रहा। इसने भगत सिंह को फांसी देने की घटना को सरकार का ‘गुंडापन’ करार दिया। इसके शब्दों की ऐसी ठसक का ही असर रहा कि प्रकाशन के पांच माह के भीतर ही इस पर आक्रामक लेखन के लिए 10 मई 1930 को उस दौर के सर्वाधिक छह हजार रुपए का जुर्माना थोपा गया।

जुर्माने की राशि का इंतजाम न हो पाने की वजह से अखबार के 19वें अंक के दो पृष्ठ छपे बिना ही रह गए, और अखबार बंद हो गया। अक्टूबर 1930 में संपादक कृष्णानंद शास्त्री ने इसे पुनः शुरू करवाया, जिसके बाद 1932 में यह पुनः छपना बंद हो गया। 35 वर्षों के बाद 1967 में पूर्ण चंद्र अग्निहोत्री ने इसका प्रकाशन पुनः शुरू कराया, और तब से यह निरंतर प्रकाशित हो रहा है। प्रकाश पांडे इसके संपादक हैं।

स्वतंत्रता पूर्व की अन्य पत्र-पत्रिकाएंः

पत्रकारिता के इसी क्रम मे वर्ष 1893-1894 में अल्मोड़ा से ‘‘कूर्मांचल समाचार’’ और  पौड़ी से सदानन्द कुकरेती ने 1913 में ‘विशाल कीर्ति’ का प्रकाशन किया।

आगे 1917 में (कहीं 1918 भी अंकित) ‘गढ़वाल समाचार’ तथा ‘गढ़वाली’ के सम्पादक रहे गिरिजा दत्त नैथाणी ने दोगड्डा-लैंसडाउन से ‘पुरूषार्थ’ (1917-1921) का प्रकाशन किया। इस पत्र ने भी स्थानीय समस्याओं को आक्रामकता के साथ उठाया। इस पत्र ने राष्ट्रीय आन्दोलन के तीव्र विकास को गढ़वाल के दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँचाने का कार्य किया। इसने प्रेस एक्ट व रौलेट एक्ट से लेकर सभी स्तरों पर ब्रिटिश सरकारों की आलोचना की।

स्थानीय राष्ट्रीय आन्दोलन के संग्रामी तथा उत्तराखण्ड के प्रथम बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने जुलाई 1922 में लैंसडाउन से ‘तरूण कुमाऊॅ’ (1922-1923) का प्रकाशन कर राष्ट्रीय तथा स्थानीय मुद्दों को साथ-साथ अपने पत्र में देने की कोशिश की। इसी क्रम में 1922 में अल्मोड़ा से बसन्त कुमार जोशी के संपादकत्व में पाक्षिक पत्र ‘जिला समाचार’ (District Gazette) निकला और 1925 में अल्मोड़ा से ‘कुमाऊॅ कुमुद’ पाक्षिक का प्रकाशन हुआ। इसका सम्पादन प्रेम बल्लभ जोशी, बसन्त कुमार जोशी, देवेन्द्र प्रताप जोशी आदि ने किया। शुरू में इसकी छवि राष्ट्रवादी पत्र की अपेक्षा साहित्यिक अधिक थी।

गढ़देश:

साप्ताहिक पत्र गढ़देश कोटद्वार से कृपाराम मिश्र, मनहर और कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के संपादन में 4 अप्रैल 1930 से प्रारंभ हुआ। गढ़देश के राष्ट्रीय आंदोलन में उल्लेखनीय भूमिका रही। ब्रिटिश सरकार की ओर से इस अखबार पर दायर एक मुकदमे में मनहर जी को जेल की सजा भी काटनी पड़ी। इसके प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर स्वतंत्रता के संबंध में आयरलेंड के अमर योद्धा महात्मा मैक्सिनी के ओजस्वी विचार अंकित थे: ‘दास देश में दोष फलते-फूलते हैं। जो आदमी यह बात भली-भांति जान लेता है, उसके लिए इसके विरुद्ध लड़ने के सिवा और चारा ही नहीं रहता।‘

गढ़देश का घोषवाक्य था – ‘मिटा अविद्या अंधकार अरु, फैलाने को ज्ञानलोक। जन्मा है ‘गढ़देश’ लोक में, देश दुर्दशा निज अवलोक !’ 13 जून 1930 को गढ़देश का अंतिम अंक निकला। सत्याग्रह आंदोलन का काम बढ़ जाने के कारण प्रभाकर इसकी संपादकी से निवृत्त हुए।

इसी क्रम में 1930 में विजय, 1937 में उत्थान व इंडिपेंडेंट इंडिया और 1939 में पीताम्बर पाण्डे ने हल्द्वानी से ‘जागृत जनता’ का प्रकाशन किया। अपने आक्रामक तेवरों के कारण 1940 में इसके सम्पादक को सजा तथा 300 रुपए जुर्माना किया गया।

गढ़वाल के तत्कालीन प्रमुख कांग्रेसी नेता भक्तदर्शन तथा भैरव दत्त धूलिया द्वारा लैंसडाउन से 1939 से आजादी के बाद तक प्रकाशित ‘‘कर्मभूमि’’ पत्र ने ब्रिटिश गढ़वाल तथा टिहरी रियासत दोनों में राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक चेतना फैलाने का कार्य किया। अन्य कांग्रेसी नेता कमल सिंह नेगी, कुन्दन सिंह गुसांई, टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष में शहीद हुए और ‘अमर शहीद’ के रूप में विख्यात श्रीदेव सुमन, ललिता प्रसाद नैथाणी और नारायण दत्त बहुगुणा इसके सम्पादक मण्डल से जुड़े थे।

‘‘कर्मभूमि’’ को समय-समय पर ब्रिटिश सरकार तथा टिहरी रियासत दोनों के दमन का सामना करना पड़ा। 1942 में इसके संपादक भैरव दत्त धूलिया को चार वर्ष की नजरबंदी की सजा दी गयी। इनके अलावा उत्तराखंड में 1940 में सन्देश व हिमालय केसरी, 1945 में रियासत और 1947 में युगवाणी नाम के पत्र भी शुरू हुए।

अगस्त 1947 / युगवाणी - Gadya Kosh - हिन्दी कहानियाँ, लेख, लघुकथाएँ, निबन्ध,  नाटक, कहानी, गद्य, आलोचना, उपन्यास, बाल कथाएँ, प्रेरक कथाएँ, गद्य कोश
युगवाणी

युगवाणी की स्थापना आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, प्रो. भगवत प्रसाद पंथेरी व तेज राम भट्ट ने साप्ताहिक के रूप में की थी। टिहरी रियासत में यह पत्रिका प्रतिबंधित रही। जिसके पास भी यह पत्रिका मिलती, उसे सीधे जेल में डाल दिया जाता था। चिपको आन्दोलन के दौरान भी इस पत्र की प्रमुख भूमिका रही। वर्तमान में संजय कोठियाल के संपादकत्व में यह पत्र मासिक प्रकाशित होता है।

इसके अलावा भी देहरादून से यशपाल चौहान द्वारा पर्वतवाणी, गिरीश जोशी द्वारा जनपक्ष आजकल, शशिभूषण पाण्डेय द्वारा उत्तराखंड शक्ति, वीरेंद्र बिष्ट द्वारा उत्तराखंड पोस्ट, नारायण परगाई द्वारा उत्तराखंड दर्पण, श्रीनगर गढ़वाल से राजकुमारी भंडारी द्वारा अपराजिता, पिथौरागढ़ से 1984 से बद्री दत्त कसनियाल द्वारा पहले साप्ताहिक समाचार पत्र और वर्तमान में त्रैमासिक स्वरुप में आज का पहाड़,  पर्वत जन, समय साक्ष्य, हल्द्वानी से दिवाकर भट्ट द्वारा हिंदी की साहित्यिक पत्रिका आधारशिला आदि पत्र-पत्रिकाएं भी प्रमुख हैं। 2008 से उत्तराखंडी गीत, संगीत, वीडियो एल्बम व फिल्मों आदि की ख़बरों के लिए मसूरी से प्रदीप भंडारी द्वारा हिलिवुड पत्रिका निकाली जा रही है।

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का इतिहास 1 New Positive नवीन समाचारउत्तराखंड का पहला हिंदी दैनिक अखबार होने का गौरव नैनीताल से प्रकाशित ‘दैनिक पर्वतीय’ को जाता है। 1953 में शुरू हुए इस समाचार पत्र के संपादक विष्णु दत्त उनियाल थे। आगे 1976 में उत्तर उजाला दैनिक पत्र हल्द्वानी से प्रारंभ हुआ। वर्तमान में डा.उषा किरण भंडारी इसकी संपादक हैं।

उत्तराखंड के प्रमुख पत्रकार/संपादकः

इस दौर में भैरव दत्त धूलिया-कर्मभूमि, बद्री दत्त पांडे-शक्ति, विश्वंभर दत्त चंदोला-गढ़वाली, राज महेंद्र प्रताप-निर्बल सेवक, स्वामी विचारानंद सरस्वती-अभय, विक्टर मोहन जोशी-स्वाधीन प्रजा, बैरिस्टर बुलाकी राम-कास्मोपोलिटन, बैरिस्टर मुकुंदी लाल-तरुण कुमाऊं, कृपा राम ‘मनहर’-गढ़देश व संदेश, अमीर चंद्र बम्बवाल-फ्रंटियर मेल, कॉमरेड पीतांबर पांडे-जागृत जनता, हरिराम मिश्र ‘चंचल’-संदेश, महेशानंद थपलियाल-उत्तर भारत व नव प्रभात तथा ज्योति प्रसाद माहेश्वरी-उत्थान आदि संपादकों एवं पत्रों ने भी देश की स्वाधीनता के यज्ञ में अपना बड़ा योगदान दिया। इनके अलावा भी टिहरी जनक्रांति के महानायक अमर शहीद श्रीदेव सुमन, भक्तदर्शन, हुलास वर्मा, चंद्रमणि ‘विद्यालंकार’, गोविंद प्रसाद नौटियाल, राधाकृष्ण वैष्णव,

श्याम चंद्र नेगी, गिरिजा दत्त नैथानी, बुद्धि बल्लभ पंत, मनोरथ पंत, मुंशी सदानंद सनवाल, मुंशी हरिप्रसाद टम्टा, मुंशी इम्तियाज अली खां, कृष्णानंद शास्त्री, विष्णु दत्त जोशी, रुद्र दत्त भट्ट, कृष्णानंद जोशी, दुर्गा दत्त पांडे, राम सिंह धौनी, श्यामा चरण काला, दुर्गा चरण काला, रमा प्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’, इला चंद्र जोशी, हेम चंद्र जोशी सहित अनेक नामी व अनाम संपादकों, पत्रकारों का भी अविस्मरणीय योगदान रहा है।

उत्तराखंड में लोक भाषाई पत्रकारिताः

उत्तराखंड में कुमाउनी एवं गढ़वाली लोक भाषाओं की पत्रिकाओं का भी अपना अलग महत्व है। 1922 में प्रकाशित कुमाऊँ कुमुद में भी हालाँकि कुमाउनी रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थीं, पर 1938 में जीवन जोशी द्वारा प्रकाशित ‘अचल’ (मासिक) को कुमाउनी के साथ ही प्रदेश की लोकभाषाओं की पहली पत्रिका कहा जाता है, जबकि 1946 में जय कृष्ण उनियाल द्वारा प्रकाशित फ्योंली (मासिक) को गढ़वाली की पहली पत्रिका व एस वासु के गढ़ ऐना (1987) को गढ़वाली में पहले दैनिक समाचार पत्र होने का गौरव प्राप्त है।

1954 में ठाकुर चंदन सिंह के संपादकत्व में देहरादून से नेपाली भाषा के अखबार गोरखा संसार की शुरुआत भी हुई। बी मोहन नेगी व बहादुर बोरा ‘श्रीबंधु’ द्वारा प्रकाशित हिंदी पत्रिका ‘प्रयास’ का एक अंक कुमाउनी-गढ़वाली को समर्पित रहा था। आगे देहरादून से गढ़वालै धै, रन्त-रैबार, चिट्ठी, जग्वाल और पौड़ी से उत्तराखंड खबर सार, अल्मोड़ा से अधिवक्ता बालम सिंह जनौटी द्वारा प्रकाशित तराण, दीपक कार्की व अनिल भोज द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित फोल्डर स्वरूप ब्याण तार (मासिक), रामनगर से मथुरा दत्त मठपाल के संपादकत्व में दुदबोलि, नैनीताल से अनिल भोज की आशल-कुशल, अल्मोड़ा से डा. सुधीर साह की हस्तलिखित पत्रिकाएं-बास से कफुवा, धार में दिन व रत्तै-ब्याल तथा 1996 में उदयपुर राजस्थान से नवीन पाटनी द्वारा प्रकाशित ‘बुरांस’ प्रमुख रही हैं।

इससे पूर्व अल्मोड़ा अखबार, शक्ति, स्वाधीन प्रजा, पर्वत पीयूष, हिलांस, उत्तरायण, पुरवासी, धाद, शैलसुता, पहाड़, जनजागर, शैलवाणी, खबर सार, पर्वतीय टाइम्स, अरुणोदय, युगवाणी, लोकगंगा, बाल प्रहरी, उत्तरांचल पत्रिका, डांडी-कांठी, उत्तराखंड उद्घोष, नैनीताल की श्रीराम सेवक सभा स्मारिका व शरदोत्सव स्मारिका-शरदनंदा, उत्तर उजाला, तथा नवल आदि पत्र-पत्रिकाएं भी कुमाउनी-गढ़वाली रचनाओं को लगातार स्थान देती हैं। इधर अल्मोड़ा से डा. हयात सिंह रावत के सम्पादकत्व में कुमाउनी पत्रिका पहरू तथा अल्मोड़ा से ही कुमाउनी समाचार पत्र ‘कूर्मांचल अखबार’ डा. चंद्र प्रकाश फुलोरिया द्वारा एवं आदलि कुशलि पिथौरागढ़ से डा. सरस्वती कोहली द्वारा प्रकाशित किये जा रहे हैं।

इस कड़ी में लखनऊ से आकाशवाणी के उत्तरायण कार्यक्रम के प्रस्तोता रहे बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ द्वारा जनवरी 1993 से शुरू की गई प्रवासी पत्रिका ‘आंखर’ का नाम सर्वप्रथम लिया जाना उचित होगा, जिन्होंने आधुनिक दौर में लोक भाषाओं की पत्रिकाओं को प्रकाशित करने का मार्ग दिखाया।  1990 के दशक में ही हिंदी के साहित्यकार बलवंत मनराल ने जनकपुरी दिल्ली से कत्यूरी मानसरोवर पत्रिका का त्रैमासिक प्रकाशन प्रारंभ किया था, जो बाद में नरसिंहबाड़ी अल्मोड़ा से निकलती रही, 2007 में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र दीपक मनराल इसे प्रकाशित करते हैं ।

प्रवासी पत्रिकाओं में जयपुर राजस्थान से ठाकुर नारायण सिंह रावत द्वारा प्रकाशित निराला उत्तराखंड, दिल्ली से ही सुरेश नौटियाल द्वारा उत्तराखंड प्रभात व यहीं से देवभूमि दर्पण, चंडीगढ़ से डा. सुमन शंकर तिवारी द्वारा ‘फूलदेई’, नेहरु प्लेस दिल्ली से दीपा जोशी द्वारा उत्तराँचल पत्रिका, ठाणे से सुधाकर त्रिपाठी द्वारा हिमशैल और देहरादून-दिल्ली से प्रकाशित देवभूमि की पुकार जैसी कई प्रवासी पत्रिकाएं भी कुमाउनी-गढ़वाली लोक भाषाओं की रचनाओं को स्थान देती हैं। इधर हल्द्वानी से संपादक दामोदर जोशी ‘देवांशु’ द्वारा प्रकाशित की जा रही पत्रिका ‘कुमगढ़’ उत्तराखंड की सभी लोकभाषाओं को एक मंच पर लाने का नए सिरे से और अपनी तरह का पहला सराहनीय प्रयास कर रही है।

अन्य भाषाओं की पत्रकारिता :

हल्द्वानी से उर्दू में कोहसार, पैगाम-ए-पर्वत, वारंट, चट्टान, ढोल का पोल, आहटी चट्ान, कायदा-उल-अंसार, पर्वत विकास, नमक और मुजाहिद-ए-वतन, काशीपुर से 1978 में नवा-ए-अर्श आदि अल्पजीवी अखबार भी निकले। ओम प्रकाश आर्य का खबर संसार भी शुरुआत में हल्द्वानी से उर्दू में छपता था। फितरत अंसारी अल्मोड़वी, अब्दुल कद्दुस पिथौरागढ़वी, जाकिर भारती-नैनीताल, गुरुदयाल आनंद, प्रीतम सिंह कोहली, सरदार गुलाब दिलवर आदि भी उर्दू अखबारों में लिखते थे। वर्तमान में हल्द्वानी से जोखिम नाम का दैनिक उर्दू पत्र भी वर्ष 2015 से छप रहा है।

रुद्रपुर से तरुण वसु और शिव पद सरकार के प्रकाशन और पथिक राजबाला के संपादक में एकमात्र बांग्ला भाषी पत्र ‘देशांतर’ भी निकल रहा है। 1966 में नैनीताल से हिंदी, अंग्रेजी और गुरुमुखी में ‘ह्यूमेनिस्ट आउटलुक’ नाम की एक त्रिभाषी पत्रिका के प्रकाशन का संदर्भ भी मिलता है। उधर जनकवि बल्ली सिंह चीमा ने सुल्तानपुर पट्टी से गुरुमुखी में ‘अखर’ नाम का एक साप्ताहिक पत्र भी निकाला। 1998 में रुद्रपुर से गुरुमुखी का एक और अखबार ‘खोजपथ’ छपना शुरू हुआ। इस दौर में साहित्यिक पत्रकारिता में शून्य दिखाई देता है।

प्रतिनिधित्व के तौर पर अल्मोड़ा से प्रकाशित द्विमासिक माद्री, मासिक शिल्पी, पिथौरागढ़ से मासिक पथिक, रुद्रपुर से विद्यार्थियों की पत्रिका ‘युग समर्पण’ और ‘हस्तक्षेप’ का उल्लेख इस श्रेणी में किया जा सकता है। (History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)

कुमाऊं में महिला पत्रकारिता : (History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)

1989 में नैनीताल से डा. उमा भट्ट ने महिलाओं की पहली पत्रिका ‘उत्तरा’ त्रैमासिक स्वरूप में शुरू की, जो वर्तमान में भी नियमित रूप से निकल रही है। ‘उत्तरा’ उत्तराखंड की गिनी-चुनी महिलाओं की पत्रिकाओं में शामिल है। कुमाऊं में महिला पत्रकारों के रूप में नैनीताल डा. उमा भट्ट, शीला रजवार, योजना गुसांई ऊधमसिंह नगर, अल्मोड़ा की कमल पंत, कंचना पांडे, बागेश्वर की सुमित्रा पांडे व हल्द्वानी की उत्तर उजाला दैनिक समाचार पत्र की संपादक डा. उषा किरन भंडारी और स्नेहलता भंडारी आदि गिने-चुने नाम हैं।

हालांकि एक बड़ा नाम मूलतः कुमाऊं के अल्मोड़ा निवासी, मध्य प्रदेश में जन्मी व नैनीताल से प्रारभिक शिक्षा लेने वाली मृणाल पांडे का भी है, जो दूरदर्शन एवं हिंदुस्तान समूह के साथ राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता की बड़ी हस्ताक्षर हैं। (History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)

उत्तराखण्ड में दलित पत्रकारिताः (History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)

उत्तराखण्ड में दलित पत्रकारिता का उदय 1935 में अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘‘समता’’ (1935 से लगातार) पत्र से हुआ। इसके संपादक हरिप्रसाद टम्टा थे। यह पत्र राष्ट्रीय आन्दोलन के युग में दलित जागृति का पर्याय बना। इसके संपादक सक्रिय समाज सुधारक थे। इस कड़ी में समता की महिला सम्पादक लक्ष्मी टम्टा व वीरोंखाल के सुशील कुमार ‘निरंजन’ के नाम भी दलित संपादकों में उल्लेखनीय हैं। श्रीमती टम्टा को उत्तराखंड की प्रथम महिला एवं दलित पत्रकार तथा प्रथम दलित महिला स्नातक होने का गौरव भी प्राप्त है। (History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)

कुमाऊं में जनवादी पत्रकारिता : (History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)

1955 में काशीपुर से पहला जनवादी अखबार-‘जन जागृति’ हरीश ढोंढियाल व राधाकृष्ण कुकरेती से शुरू किया। 1965 के आसपास रामनगर से सुशील कुमार ‘निरंजन’ ने ‘पर्वतराज टाइम्स’ नाम से एक और जनवादी अखबार निकाला। निरंजन ने बाद में रामनगर से एक और अखबार ‘शैल शिल्पी’ का प्रकाशन भी किया। 1979 में हल्द्वानी के नित्यानंद भट्ट और भवाली के मुक्तेश पंत ने अंग्रेजी मासिक ‘हिल रिव्यू’ का प्रकाशन शुरू किया, किंतु इसके केवल दो अंक ही निकल पाये। रामनगर से 1998 में मुनीष कुमार व संतोष सिंह ने ‘नागरिक’ नाम से एक अन्य वामपंथी विचारधारा पत्र शुरू किया, जो अब भी छप रहा है। (History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)

नैनीताल से प्रकाशित उत्तराखंड के प्रथम दैनिक समाचार पत्र के संस्थापक-संपादक बीडी उनियाल की स्मृतियों को किया याद (History of Journalism in Uttarakhand)

(History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 8 अक्तूबर 2022। उत्तराखंड के पहले दैनिक समाचार पत्र ‘पर्वतीय के संस्थापक-संपादक, उत्तराखंड की पत्रकारिता के भीष्म पितामह, स्वनामधन्य पत्रकार विष्णु दत्त उनियाल के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर शनिवार को उनकी कर्मस्थली नैनीताल में वृहद मंथन आयोजित हुआ। नगर के कुमाऊं विवि के हरमिटेज परिसर स्थिति यूजीसी एचआरडीसी के बुरांश सभागार में बीडी उनियाल ‘पर्वतीय चैरिटेबल ट्रस्ट के तत्वावधान में आयोजित ‘अभिव्यक्ति नाम से बीडी उनियाल ‘पर्वतीय स्मृति समारोह आयोजित हुआ।

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डा. लक्ष्मण सिंह बिष्ट की अध्यक्षता एवं डॉ. नीरजा टंडन के संचालन में आयोजित समारोह का शुभारंभ स्वर्गीय उनियाल के अपने गांव से एक बालक विष्णु के देहरादून, लाहौर, दिल्ली व अल्मोड़ा होते नैनीताल तक पहुंचने और यहां 1953 में अल्मोड़ा से शुरू किए गए पर्वतीय का 1956 से प्रकाशन करने की पूरी आत्मकथा देवेन मेवाड़ी की परिकल्पना एवं स्वरित उनियाल मिश्रा की परिकल्पना पर आधारित सुंदर एनीमेशन वृत्त चित्र के माध्यम से प्रदर्शित की गई। देखें फिल्म :

आगे प्रो. शेखर पाठक, नवीन जोशी, प्रो. अजय रावत, प्रो. गिरीश रंजन तिवारी, डॉ. नारायण सिंह जंतवाल, डॉ. पंकज तिवारी व डॉ. नीरज शाह आदि ने स्वर्गीय उनियाल के कृतित्व व व्यक्तित्व के साथ उनके सामाजिक सरोकारों, उनकी निर्भीक-बेबाक पत्रकारिता का अपने शब्दों में दृश्यावलोकन प्रस्तुत किया। बताया कि उनका जीवन नई पीढ़ी के लिए कितना प्रेरणास्पद हो सकता है। (History of Journalism in Uttarakhand, History, History of Journalism, Uttarakhand, Journalism in Uttarakhand, History)

इस दौरान ‘पर्वतीय समाचार पत्र और उत्तराखंड में स्वातंत्रयोत्तर पत्रकारिता एवं ‘स्मृतियों के प्रांगण से नाम की दो पुस्तकों का विमोचन भी किया गया। स्वर्गीय उनियाल की पुत्री एवं डॉ. उनियाल ट्रस्ट की अध्यक्ष डॉ. सीमा उनियाल मिश्रा ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम में डॉ. बीपी पांडे, ट्रस्ट की सचिव रचना जोशी इस्सर एवं टीसी उनियाल सहित बड़ी संख्या में पत्रकार एवं अन्य लोग उपस्थित रहे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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