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Uttarakhand Politics : बागेश्वर विधानसभा उप चुनाव से पड़ी I.N.D.I.A. गठबंधन में दरार, अब हरिद्वार सीट गठबंधन की एकता के लिये नई अग्नि परीक्षा !

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नवीन समाचार, देहरादून, 16 सितंबर 2023 (Uttarakhand Politics)। देश में अगले वर्ष प्रस्तावित लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी दलों के I.N.D.I.A. गठबंधन की एकता को उत्तराखंड में एक और झटका लग सकता है। अभी हाल में बागेश्वर के विधानसभा उप चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल सपा द्वारा प्रत्याशी घोषित होने के बाद गठबंधन की चूलें पहले ही हिली हुई हैं, जबकि अब सपा की ओर से हरिद्वार सीट पर अपना दावा ठोक दिया गया है। ऐसे में हरिद्वार सीट भी I.N.D.I.A. गठबंधन के ऐसे ही रण की वजह बन सकती है।

हुआ यह है कि समाजवादी पार्टी ने राष्ट्रीय सचिव एसएन सचान ने एक बयान दिया है कि उत्तराखंड में पांच लोकसभा सीटों में से I.N.D.I.A. गठबंधन के लिहाज से हरिद्वार लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी अपना प्रत्याशी उतारने के लिए तैयार है। सचान ने कहा कि उन्होंने इसके लिए अपनी पार्टी के हाई कमान को भी पत्र भेज दिया है। यदि कांग्रेस उत्तराखंड में गठबंधन धर्म निभाती है तो उसे 5 में से 1 सीट अपने सहयोगियों को देनी चाहिए।

जबकि उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में हरिद्वार लोकसभा सीट उन पांच सीटों में से एक है, जिस पर कांग्रेस को आगामी चुनाव को लेकर सबसे ज्यादा उम्मीद है। शायद इस कारण ही इस सीट पर पूर्व सीएम हरीश रावत के साथ ही पूर्व काबीना मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत भी दावा ठोक रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम के लिहाज से भी भाजपा के लिए सबसे कमजोर सीट हरिद्वार लोकसभा सीट ही मानी जा रही है यानी I.N.D.I.A. गठबंधन व खासकर कांग्रेस के लिये यह सीट अधिक उम्मीदों वाली है।

आगे यदि हरिद्वार लोकसभा सीट पर कांग्रेस को यदि I.N.D.I.A. गठबंधन के साथी दलों का समर्थन मिलता है, तो भाजपा की मुश्किलें यहां और भी अधिक बढ़ सकती हैं। जबकि विधानसभा चुनाव के परिणाम के लिहाज से टिहरी, पौड़ी और अल्मोड़ा सीट पर कांग्रेस की राह काफी मुश्किल दिखाई देती है। हालांकि उधमसिंह नगर नैनीताल लोकसभा सीट पर भी जीत को लेकर कांग्रेस कुछ आशान्वित है। और सभी पांचों सीटों पर चुनाव लड़कर सभी सीटों को जीतने की कोशिश में भी जुटी हुई है।

ऐसे में कांग्रेस के दो धुरंधर प्रत्याशियों के बीच यदि सपा हरिद्वार सीट से अपना प्रत्याशी खड़ा करने का I.N.D.I.A. गठबंधन में शीर्ष स्तर पर सफल दबाव बना लेती है तो कांग्रेस पार्टी व I.N.D.I.A. गठबंधन के लिये यह अत्यधिक चिंता का विषय हो सकता है।

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यह भी पढ़ें : बड़ा सवाल Uttarakhand Politics : बागेश्वर में भाजपा की जीत, पार्टी के लिए खुश होने का विषय या सोचने का…?

नवीन समाचार, नैनीताल, 8 सितंबर 2023 (Uttarakhand Politics)। प्रदेश की सत्तारूढ़ भाजपा ने बागेश्वर का उपचुनाव जीत लिया है। लेकिन हम यहां भाजपा की जीत पर सवाल उठाने जा रहे हैं कि कि भाजपा के लिए यह जीत खुश होने का विषय है या कि सोचने का। आंकड़े भी यह सवाल उठा रहे हैं, लेकिन शायद इस पर कोई चर्चा करना पसंद नहीं करेगा।

Uttarakhand Rajniti, Uttarakhand Politics,हम यहां बिना किसी राजनीतिक चर्चा के सीधे आंकड़ों से बात करेंगे। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में बागेश्वर से भाजपा के तत्कालीन प्रत्याशी चंदन राम दास 33 हजार 18 मत प्राप्त किये थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी बाल किशन को 19 हजार 225 और वर्तमान कांग्रेस प्रत्याशी बसंत कुमार को बसपा से लड़ते हुए 11 हजार 38 मत मिले थे। और भाजपा प्रत्याशी ने यह चुनाव 13 हजार 793 मतों के अंतर से जीता था।

वहीं 2022 के विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार भाजपा के प्रत्याशी रहे चंदन राम दास को 32 हजार 211, कंाग्रेस प्रत्याशी रंजीत दास को 20 हजार 70 एवं वर्तमान कांग्रेस प्रत्याशी बसंत कुमार को आआपा से लड़ते हुए 16 हजार 109 मत मिले थे और भाजपा प्रत्याशी चंदन राम दास ने 12 हजार 141 मतों के अंतर से यह चुनाव लगातार दूसरी बार जीता। इस लगातार दूसरी जीत का तोहफे में भाजपा प्रत्याशी दास को मंत्री पद भी मिला। अलबत्ता यह दुःखद रहा कि मंत्री रहे दास का इस बीच असामयिक निधन हो गया।

उनकी मृत्यु के कारण बागेश्वर विधानसभा में गत 5 सितंबर को हुए उप चुनाव में भाजपा ने स्वर्गीय दास की धर्मपत्नी पार्वती दास को प्रत्याशी बनाया। चुनाव से पहले कांग्रेस के लिए पिछले चुनाव में 20 हजार से अधिक मत लाने वाले रंजीत दास भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ गये थे। ऐसे में भाजपा शायद मान कर चल रही थी कि उसे स्वर्गीय दास के पिछले दो चुनावों में मिले क्रमशः 33 व 32 हजार वोटों के साथ ही रंजीत दास के 20 हजार वोट मिलेंगे और संभवतया इस आधार पर ही मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी चंपावत की तरह यहां भी भाजपा की रिकॉर्ड मतों से एकतरफा जीत अर्जित करने के दावे कर रहे थे।

लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। उप चुनाव में भाजपा प्रत्याशी पार्वती दास स्वर्गीय दास को पिछले दो चुनावों में मिले वोटों से अधिक 33247 मत प्राप्त करने में सफल रही हैं, लेकिन उनकी जीत का अंतर केवल 2405 मतों का रहा है। कांग्रेस प्रत्याशी बसंत कुमार को इस चुनाव में 30842 मत मिले हैं। जबकि पिछले दो चुनावों में उनके प्रत्याशियों को 19-20 हजार मत ही मिले थे। यानी कांग्रेस प्रत्याशी को इस चुनाव में करीब वह 10 हजार मत अधिक मिले हैं, जो पिछले चुनावों में बसपा या आआपा के प्रत्याशियों को मिले हैं। यानी कांग्रेस बसपा व आआपा के प्रत्याशी मैदान में न होने का पूरा लाभ उठा पाई है, और भाजपा नहीं।

यह साफ संकेत कांग्रेस नीत नये बने आई.एन.डी.आई.ए. गठबंधन के लिए सुखद संकेत हो सकता है, कि वह अपने मतों का भाजपा प्रत्याशी के विरुद्ध ध्रुवीकरण करके भाजपा के लिए आगामी लोक सभा चुनाव में भी परेशानी खड़ी कर सकते हैं। लेकिन भाजपा के लिए न केवल उत्तराखंड वरन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिये भी चिंताजनक विषय हो सकता है। गौरतलब है कि आई.एन.डी.आई.ए. गठबंधन के एक घटक दल समाजवादी पार्टी ने बागेश्वर के उपचुनाव में अपना प्रत्याशी खड़ा किया था। यह अलग बात है कि उसे 1000 से भी कम मत मिले।

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यह भी पढ़ें : Uttarakhand Politics : उत्तराखंड में फिर बड़ी राजनीतिक चर्चाएं, कितनी सही-कितनी गलत ?

नवीन समाचार, देहरादून, 20 जुलाई 2023। उत्तराखंड की राजनीति (Uttarakhand Politics) में मंत्रिमंडल में बदलाव व विस्तार की चर्चाएं तो अब एक तरह से लगातार चलती रहने वाली सामान्य बात हो गई है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री के दिल्ली दरबार के चक्कर के बाद इन चर्चाएं तेज हुई थीं, जिस पर ‘नवीन समाचार’ ने तब भी कहा था कि अभी तय नहीं है कि मंत्रिमंडल में बदवाव या विस्तार होने ही वाला है। 

जबकि इधर यह चर्चाएं एक बार और तेज हुई है। साथ ही कुछ लोग तो एक और कुछ लोग कांग्रेस के दो पूर्व विधायकों व चार कांग्रेस विधायकों के भाजपा में शामिल होने की चर्चाएं कर रहे हैं। मीडिया पर भी इस तरह की खबरें आ रहे हैं। हम इन चर्चाओं पर सही स्थिति रखने का प्रयास कर रहे हैं।

सबसे पहले मंत्रिमंडल में बदलाव व विस्तार की चर्चाओं की बात करें तो कहा जा रहा है कि 3 से 4 वर्तमान मंत्रियों के विभागों में काट-छांट की जा सकती है। यानी पहले मंत्रियों के विभाग कटेंगे तब नए मंत्रियों को विभाग बटेंगे। इसके साथ चर्चाओं के अनुसार प्रदेश को जल्द ही नया शिक्षा मंत्री, नया आबकारी मंत्री, नया लोक निर्माण और परिवहन मंत्री मिल सकते हैं।

मंत्रियों का वजन घटने की चर्चाएं

इस तरह वजन घटने वाले संभावित मंत्रियों में पिछले लंबे समय से चर्चा में चल रहे प्रेमचंद्र अग्रवाल व गणेश जोशी, पिछले दिनों अपने ही विभाग के कार्यों और राज्य में आई बाढ़ के दौरान भी गायब रहे सतपाल महाराज, मीडिया में मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी रहे डॉ. धन सिंह रावत, राज्य मंत्रिमंडल की एकमात्र महिला सदस्य रेखा आर्या शामिल है। हो सकता है इनमें से कुछ मंत्रियों को लोकसभा का सपना दिखाकर या बहाना बनाकर मंत्रिमंडल से हटाया भी जा सकता है। इसके अलावा कांग्रेसी विधायकों के आने पर राज्य में पहली बार एक उप मुख्यमंत्री बनाए जाने की भी चर्चाएं हैं।

‘नवीन समाचार’ की संभावना

इस मामले में ‘नवीन समाचार’ का मानना है कि मुख्यमंत्री के दिल्ली से लौटने के बाद राज्य में बने बाढ़ के हालातों के कारण मंत्रिमंडल मंे बदलाव की संभावना पीछे चली गई है। ऐसा भी हो सकता है कि मंत्रिमंडल में बदलाव को अगले वर्ष की शुरुआत में होने वाले लोक सभा चुनावों के दृष्टिगत सितंबर-अक्टूबर माह तक और आगे बढ़ाया जा सकता है। वहीं मंत्रिमंडल विस्तार में जैसा कि भाजपा की सरकारें पहले भी करती रही हैं, सभी पदों को छोड़कर कुछ पदों को को रिक्त भी छोड़ा जा सकता है, ताकि उन पदों को पाने वाले भरोसे में बैठे रहें। यही बात राज्य में दायित्वों के बंटवारे के मामले में भी कही जा सकती है।

कांग्रेसी विधायकों के भाजपा में आने की संभावना

इसके अलावा जहां तक 4 कांग्रेसी विधायकों सहित दो पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्षों के भाजपा में आने की चर्चाओं की बात करें तो इस पर एक प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह इस संभावना से सार्वजनिक तौर पर इंकार कर चुके हैं। लेकिन इसे भी अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता है।

गौरतलब है कि पूर्व में कांग्रेस के दो प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य और किशोर उपाध्याय भाजपा में आ चुके हैं। हां, यशपाल जरूर वापस कांग्रेस में कांग्रेस में जा चुके हैं। जबकि डॉ. हरक सिंह रावत के मामले में और हालिया अजीत पंवार के मामले में देखें तो आखिर तक यह दोनों नेता भी दल बदल की संभावनाओं से सार्वजनिक तौर पर इंकार करने के बावजूद दल-बदल कर चुके हैं। वहीं एक और जिन पूर्व प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल के भाजपा में जाने की चर्चा है, उसकी संभावना ‘नवीन समाचार’ को कम लगती है।

जबकि इनके अलावा तीन अन्य कांग्रेसी विधायकों हरीश धामी, मदन बिष्ट और खुशाल सिंह अधिकारी के भी इस आधार पर कांग्रेस से पाला बदल कर भाजपा में जाने की चर्चा है कि वह कांग्रेस द्वारा घोषित भाजपा सरकार के विरोध-प्रदर्शनों में भी नहीं जा रहे हैं। इसी कारण इन चर्चाओं को बल मिल रहा है, इस बारे में इन विधायकों की ओर से कोई स्पष्ट बयान सामने नहीं आने से भी चर्चाओं को बल मिल रहे हैं।

विधायकों की सदस्यता जाने का खतरा

हालांकि यह भी है कि चार या इससे कुछ अधिक विधायकों के दल-बदल करने पर स्पष्ट तौर पर उनकी विधानसभा से सदस्यता चली जाएगी। इसलिए इस संभावना पर संशय बना हुआ है। यदि इसे कांग्रेस का नाराज गुट मानें, जैसा वह कई मौकों पर प्रदर्शित भी कर चुके हैं तो ऐसी संभावना कम लगती है कि वह महाराष्ट्र के शिव सेना व एनसीपी के विद्रोहियों की तरह पार्टी तोड़ने लायक संख्या बल एकत्र कर पाएं। फिर भी यदि वह अपनी विधानसभा की सदस्यता खोने को तैयार हो जाते हैं तो भी लगता है कि भाजपा सरकार अभी उन्हें पार्टी में लेने के लिए शायद तैयार न हो।

लोक सभा चुनाव के आधार पर ही निर्णय लेगी भाजपा, निकाय चुनाव भी टल सकते हैं !

इसके लिए भी भाजपा लोक सभा चुनाव का इंतजार कर सकती है, ताकि चुनाव में उनकी इस कुर्बानी का लाभ लिया जा सके। लोक सभा चुनाव से जुड़ी एक और संभावना यह भी है कि राज्य सरकार निकाय चुनाव को लोक सभा के चुनाव के बाद तक टाल सकती है। क्योंकि कभी भी निकाय या त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में, जिसमें सामान्यतया विपक्षी कांग्रेस पार्टी अपने सिंबल यानी चुनाव निशान पर चुनाव नहीं लड़ती है और भाजपा के अलावा सभी प्रत्याशी इसे निर्दलीय आधार पर लड़ते हैं, भाजपा या किसी भी राजनीतिक दल के लिए स्पष्ट तौर फायदेमंद नहीं हो सकते। इस कारण भाजपा लोक सभा चुनाव से पहले कोई मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं लेना चाहेगी।

(डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य एवं अधिक पढ़े जा रहे ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। यदि आपको लगता है कि ‘नवीन समाचार’ अच्छा कार्य कर रहा है तो हमें सहयोग करें..यहां क्लिक कर हमें गूगल न्यूज पर फॉलो करें। यहां क्लिक कर यहां क्लिक कर हमारे व्हाट्सएप ग्रुप से, हमारे टेलीग्राम पेज से और यहां क्लिक कर हमारे फेसबुक ग्रुप में जुड़ें। हमारे माध्यम से अमेजॉन पर सर्वाधिक छूटों के साथ खरीददारी करने के लिए यहां क्लिक करें। 

यह भी पढ़ें : Uttarakhand Politics : कांग्रेस नेता पालिकाध्यक्ष के भाजपा नेताओं के साथ लगे पोस्टरों से चर्चा का बाजार गर्म…

-पालिकाध्यक्ष ने साफगोई से रखी बात, कहा-भाजपा सरकार में उन्हें पूरा सहयोग मिला, मिलीं 75 करोड़ रुपए की योजनाएं, उनके सपने पूरे हुए
नवीन समाचार, नैनीताल, 18 जनवरी 2023। मुख्यालय के निकटवर्ती नगर भवाली में कांग्रेस नेता नगर पालिकाध्यक्ष संजय वर्मा की भगवा रंग की बैंकग्राउंड में भाजपा नेताओं के चित्रों के साथ लगी होर्डिंग चर्चाओं में हैं। इन होर्डिंग में भवाली नगर में आम जनमानस की सुविधा के लिए 11 करोड़ की लागत से पार्किंग व शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के निर्माण की स्वीकृति के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी एवं शहरी विकास मंत्री प्रेम चंद्र अग्रवाल का पालिकाध्यक्ष की ओर से आभार जताया गया है। यह भी पढ़ें : सुबह तड़के दुर्घटना में 2 की मौत, एक अन्य गंभीर रूप से घायल

होर्डिंग में मुख्यमंत्री धामी के साथ प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा के केंद्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, प्रदेश अध्यक्ष भट्ट, सांसद व केंद्रीय मंत्री अजय भट्ट, विधायक सरिता आर्य, भाजपा जिलाध्यक्ष प्रताप बिष्ट व पूर्व जिलाध्यक्ष प्रदीप बिष्ट तथा भाजपा के प्रदेश प्रभारियों के चित्र भी लगे हुए हैं, और किसी भी कांग्रेस नेता का चित्र नहीं है। यह भी पढ़ें : बड़ा समाचार : रितेश पांडे, मोहन मेहता, मुक्ता प्रसाद सहित पूरे कुमाऊं में होगी 20 लोगों की संपत्ति जब्त

इस होर्डिंग को लेकर कांग्रेस-भाजपा दोनों दलों में पालिकाध्यक्ष वर्मा के राजनीतिक भविष्य के प्रति इरादे को लेकर चर्चा हो रही हैं। गौरतलब है कि पूर्व काबीना मंत्री व वर्तमान नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य के बेहद करीबी माने लाने वाले संजय वर्मा भाजपा के ही टिकट पर नगर पालिकाध्यक्ष का चुनाव लड़े और जीते थे। वह पिछले विधानसभा चुनाव से पहले यशपाल आर्य व संजीव आर्य के साथ कांग्रेस से भाजपा में आए थे और गत विधानसभा चुनाव से पहले यशपाल आर्य व संजीव आर्य के कांग्रेस में लौट आने पर खुद भी कांग्रेस में शामिल हो गए थे। ऐसे में उनके अब भाजपा नेताओं के फोटो युक्त होर्डिंग लगाने से चर्चाओं का तूफान उठना लाजिमी है। यह भी पढ़ें : हद है, थाना प्रभारी के साथ थाने के ही पुलिस कर्मियों ने की मारपीट, रिपोर्ट दर्ज कराने को लेनी पड़ी कोर्ट की शरण…

इस बारे में पूछे जाने पर श्री वर्मा ने साफगोई से कहा कि वह एक जनप्रतिनिधि हैं। उनकी जनता के प्रति जवाबदेही है। उनका पूरा कार्यकाल भाजपा के शासनकाल में बीता है। वह जानते हैं कि सरकार के सहयोग से ही वह अपनी जनता के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वाह कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने बचपन से भवाली नगर के विकास के लिए जो सपने देखे थे, वह अपने कार्यकाल में भाजपा सरकार के सहयोग से ही पूरा कर पाए हैं। केवल आपदा मद को छोड़कर उनकी सभी मांगें सरकार ने स्वीकृत की हैं। भवाली को इस दौरान 75 करोड़ की योजनाओं का लाभ मिला है। यह भी पढ़ें : 15 साल की नाबालिग से 19 वर्षीय युवक ने कमरे में ले जाकर 2 दिन तक किया दुष्कर्म

भवाली नगर की जाम की समस्या के समाधान को रोडवेज स्टेशन की कार्यशाला को हटाकर फरसौली में करीब 6-7 करोड़ की धनराशि से स्थापित किया गया है। नगर में एक भी पार्किंग नहीं थी, दो-दो पार्किंग बन रही हैं। रोडवेज स्टेशन पर 8 करोड़ की पार्किंग, 16 करोड़ से दूसरी पार्किंग, नगर में पेयजल की समस्या के समाधान के लिए करीब 10-15 करोड़ से अल्पसंख्यक मद से नए टेंक व लाइनें बनी हैं। साथ ही सड़कों का विकास हुआ है। नगर के लिए बाइपास भी बन रहा है। शिप्रा नदी की सफाई हुई है। इसमें तालाब बनाने से भूजल स्तर बढ़ने से ट्यूबवेल से अतिरिक्त घंटे पेयजल की आपूर्ति हो पा रही है। यह भी पढ़ें : मंगल को अमंगल, कार दुर्घटना में कार सवार सभी तीन लोगों की मौत…

कहा कि उन्होंने जनप्रतिनिधि होने के नाते भाजपा-कांग्रेस की राजनीति को अलग रखकर खुद से बड़े जनप्रतिनिधियों विधायक, सांसद व मंत्री-मुख्यमंत्री के आगे याचक की भांति योजनाओं को स्वीकृत कराई है। अलबत्ता यह भी कहा कि अभी उनका कांग्रेस पार्टी छोड़ने या भाजपा में जाने का कोई इरादा नहीं हैं। वह स्वस्थ राजनीति के पक्षधर हैं, जिसमें किसी के भी अच्छे कार्यों की प्रशंसा की जानी चाहिए। (डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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Uttarakhand Politicsनवीन समाचार, हरिद्वार, 8 जनवरी 2023। खानपुर के पूर्व विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन ने अपना और अपनी पत्नी के नाम में बदलाव कर दिया है। उन्होंने अपनी पत्नी के नाम से ‘कुंवरानी’ शब्द हटा दिया है, जबकि ‘रानी’ और ‘बिष्ट’ शब्द जोड़ दिए हैं, जबकि चैंपियन ने अपने नाम से ‘कुंवर’ व ‘चैंपियन’ शब्द हटाकर राजा और अपनी रियासत लंधौरा का नाम जोड़ दिया है। इस प्रकार पूर्व विधायक का नाम अब ‘कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन’ की जगह ‘राजा प्रणव सिंह लंधौरा’ और उनकी पत्नी का नाम ‘कुंवरानी देवयानी सिंह’ की जगह ‘रानी देवयानी बिष्ट’ होगा। देहरादून में इसकी कानूनी ऑपचारिक प्रक्रिया पूरी की गई। यह भी पढ़ें : पूरी रात जलता रहा मकान, सुबह पता चला, कई मवेशी जिंदा जले…

प्रणव सिंह का कहना है कि उनकी दादी गढ़वाल के बिष्ट राजपूत परिवार से आती हैं। मातृ शक्ति की पहचान अपने खानदान से होनी चाहिए। इसलिए उनके नाम में यह बदलाव किया गया है। सोशल मीडिया पर अपने निर्णय की जानकारी देते हुए उन्होंने लिखा है, ‘आपसे अपना एक महत्वपूर्ण निर्णय साझा कर रहे हैं। इस नव-नूतन वर्ष की बेला पर रानी साहिबा एवं हमने अपने-अपने नाम में तर्कसंगत परिवर्तन किया है। यह भी पढ़ें : आईजी बनते ही भरणे पूरी फॉर्म में, एक दरोगा को किया सस्पेंड, 5 को लाइन हाजिर व 7 के खिलाफ शुरू की जांच

क्योंकि देवभूमि उत्तरांचल का निर्माण मातृशक्ति के बलिदान से हुआ है व हमारी दादीजी भी पौड़ी लैंसडाउन के पट्टी ज्योत-स्यूँ से ग्राम सीमार खाल की निवासी थी। उनका नाम रानी सरस्वती बिष्ट था, इसलिए रानी साहिबा ने उनको सम्मान देने हेतु भारत की पितृसत्तात्मक समाज की परिपाटी के विरुद्ध जाकर, उत्तराखंड में मातृशक्ति को सम्मान देने हेतु अपना जाति मातृसत्तात्मक व्यवस्था को स्वीकारते हुए ‘बिष्ट’ रखा है। अब से वह रानी देवयानी बिष्ट कर दिया है। यह भी पढ़ें : पति-पत्नी के विवाद में एक दर्जन लोग घायल, अस्पताल में भर्ती…

यह भी कहा है, ‘हम उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड की साझी सांस्कृतिक धरोहर का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब ‘टिहरी गढ़वाल राज्य’ पर गोरखों ने 1799 में आक्रमण किया था, तब दोनों ही “पवांर राजवंश” के राज्य थे। तब टिहरी नरेश महाराज प्रद्युम्न शाह लंधौरा नरेश राजा रामदयाल सिंह जी के दरबार में मदद मांगने पहुँचे थे। लंधौरा राज्य ने 12,000 की विशाल सेना सेनापति मनोहर सिंह व राजा लंधौरा के सुपुत्र कुंवर संवाई सिंह के सह-नेतृत्व में तत्काल गढ़वाल की अस्मिता की रक्षा के लिए भेजी थी। सन् 1800 में देहरादून के खुड़बुड़ा में जबरदस्त युद्ध “टिहरी व लंधौरा संयुक्त सेना” एवं “गोरखा सेना” के मध्य हुआ।’ यह भी कहा है कि लंधौरा और गढ़वाल का रिश्ता 222 साल पुराना है। इसका नवीनीकरण 101 वर्ष पूर्व तब हुआ, जब हमारे दादाजी ने दादीजी से विवाह किया।’ यह भी पढ़ें : बनभूलपुरा पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर नई बहस ? मुख्यमंत्री को भेजा ज्ञापन

माना जा रहा है कि पिछले विधानसभा चुनाव में हार के बाद प्रणव सिंह एक ओर अपने क्षेत्र की जनता में खुद को राजा बताकर अपने क्षेत्र की जनता से और पत्नी के नाम में बिष्ट जोड़कर उत्तराखंड के साथ अपने भावना संबंध को प्रदर्शित करना और इसका राजनीतिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। यह भी पढ़ें : नैनीताल : पालिका आवासों के किराये में वृद्धि के निर्णय को कई ओर से विरोध के बाद अब मिला बड़ा समर्थन…

उल्लेखनीय है कि इससे पहले गोरखे कुमाऊं में बेहद क्रूर शासन कर रहे थे। उत्तराखंड के चाणक्य कहे जाने वाले हरकदेव जोशी ने गोरखों के विरुद्ध गढ़वाल नरेश से मदद मांगी थी, लेकिन गढ़वाल नरेश ने इससे इंकार कर दिया था। गोरखों को इसका पता चला तो उन्होंने इसे गढ़वाल नरेश की कमजोरी माना और खुद ही गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया। खुड़बुड़ा यानी आज के देहरादून के परेड ग्राउंड में हुए युद्ध में टिहरी नरेश प्रद्युम्न शाह वीरगति को प्राप्त हुए थे और इस युद्ध के बाद कुमाऊं के बाद गढ़वाल पर भी गोरखों का राज्य हो गया था। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : Uttarakhand Politics : विशेष आलेख: गुजरात व हिमांचल के चुनाव परिणामों के बाद उत्तराखंड की ‘राजनीति’ में भी बदलेगा बहुत कुछ !

-राजनीति यानी ‘राजकाज चलाने की नीति’ से लेकर ‘राजनीतिक दलों की नीति’ में संभावित परिवर्तन की संभावनाएं
तो क्या 2016 की तरह इस बार भी उत्तराखंड में आएगा राजनीतिक भूचाल ?डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 13 दिसंबर 2022। समान परिस्थितियों के पड़ोसी पर्वतीय राज्य हिमांचल प्रदेश में उत्तराखंड के उलट राजनीति का ‘रिवाज’ नहीं ‘राज’ बदला, जबकि गुजरात में भाजपा ने ‘न भूतो-न भविष्यति’ जैसी बड़ी जीत अर्जित की। इन स्थितियों में माना जा रहा है कि गुजरात व हिमांचल के चुनाव परिणामों के बाद उत्तराखंड की ‘राजनीति’ में काफी कुछ बदल सकता है। इस आलेख में ‘राजनीति’ को हम ‘राजकाज चलाने की नीति’ से लेकर ‘राजनीतिक दलों की नीति’ के रूप में देखने का प्रयास करेंगे। यह भी पढ़ें : गरीब बेटी ने सरकारी कोटे से निकाली मेडिकल की सीट, फीस के लिए मदद की गुहार

सबसे पहले ‘राजकाज चलाने की नीति’ के बारे में बात करें तो राजकाज चलाने वाली सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की बात करेंगे, जिसे शायद पिछले दो विधानसभाओं और लोक सभा चुनाव में मिली प्रचंड जीत के बाद यह गुमान हो गया हो कि राज्य और राज्य की जनता उनकी मुट्ठी में है। शायद इसलिए सरकार अपनी मनमानी से चलती नजर आती है। उसमें किसी एक वर्ग का तुष्टीकरण नहीं हो रहा, यह अच्छी बात हो सकती है, लेकिन किसी को भी ‘संतुष्ट’ न किया जाए, यह राज्य के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। यह भी पढ़ें : शोध छात्र ने छात्राओं को उपलब्ध कराई मासिक धर्म की जानकारी, सैनेटरी पैड भी बांटे

भाजपा सरकार ने न ही अपने पार्टी नेताओं को दायित्वों का बंटवारा न कर, और यहां तक कि सीमित संख्या में उपलब्ध मंत्री पदों पर भी नियुक्तियां न कर एक तरह से तिरस्कृत छोड़ दिया, और मंत्री पदों पर मौजूद नेताओं पर भी लगाम कसी हुई है। विधायक भी बेलगाम नहीं हैं। यह स्थिति उस हद तक ही सही कही जा सकती है, जब तक यह स्थितियां उनके सब्र की सीमा के भीतर हों। अधिक समय तक यह स्थितियां ‘विद्रोह’ जैसी स्थितियां भी उत्पन्न कर सकती हैं। यह भी पढ़ें : बिग ब्रेकिंग: भगत सिंह कोश्यारी ने की इस्तीफे की पेशकश ! चहुंओर से हो रही आलोचनाओं की स्थिति में केंद्रीय गृह मंत्री से मांगा परामर्श…

लेकिन चूंकि सत्तारूढ़ दल और उनका केंद्रीय नेतृत्व अभी अकाट्य-मजबूत स्थिति में है, और नेताओं को भी अहसास है कि वह जिस पद पर भी हैं, अपनी मेहनत से अधिक पार्टी और उसके केंद्रीय नेतृत्व की शक्ति से हैं, इसलिए अब तक सभी ‘अनुशासन’ के नाम पर बंधे हुए हैं। लेकिन कभी भी उनके सब्र का किला या बांध रेत के महल की तरह दरक भी सकता है, इससे पूरी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता है। यह भी पढ़ें : डॉक्टर को पेट दर्द दिखने गई छात्रा, उसने कर दिया दुष्कर्म, , निबंधित, संबद्ध, मुकदमा दर्ज….

वहीं जनता की बात करें तो बड़े भावनात्मक मुद्दों पर तो सरकार निर्णय लेते दिख रही है, किंतु धरातल पर विकास दिख नहीं रहा। चार धाम यात्रा मार्ग को छोड़ तो पिछले पांच-छह वर्षों में राज्य के ग्रामीण व जिला तथा शहरों के आंतरिक मार्गों को तो छोड़िये राष्ट्रीय व राज्य मार्गों में भी गड्ढे बढ़े हैं। डेढ़ वर्ष पूर्व की आपदा में खाई में समा गए राष्ट्रीय राजमार्गों तक की मरम्मत तक नहीं हो पाई है। गांवों में ‘हर घर नल’ लगे हैं, पर नया कोई जल स्रोत न तलाशे जाने से पहले एक स्टेंड पोस्ट पर आने वाला पानी अब किसी एक घर के नल तक भी नहीं पहुंच रहा है। सरकारी स्कूलों, अस्पतालों में शिक्षकों, चिकित्सकों को पहुंचाने में सरकार अपेक्षित सफल नहीं रही है। भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लग पाया है, और बड़े अपराध व दुर्घटनाएं बढ़े ही हैं। बदली राजनीतिक परिस्थितियों में पुरानी पेंशन बहाली का मुद्दा भी गरमा सकता है। यह भी पढ़ें : दो शोध छात्राओं को मिली आईसीएसएसआर की फेलोशिप

उम्मीद की जा रही है कि सरकार अब इन सभी मामलों में अपनी कार्यशैली में बदलाव करेगी। बताया जा रहा है कि राज्य सरकार व पार्टी की ओर से दायित्वों के लिए नेताओं की सूची चयनित कर केंद्रीय हाईकमान को भेज दी गई है। यदि सरकार वाकई जनता के दिलों में गुजरात की तरह जगह बनाना चाहती है और हिमांचल जैसे चुनाव परिणामों की स्थितियों से बचना चाहती है तो वह अपनी इस पहल यहीं तक सीमित नहीं रखेगी, मिले समय का राज्य हित में सदुपयोग करेगी, इसकी उम्मीद करनी होगी। यह भी पढ़ें : संचार, समाचार लेखन, संपादन, विज्ञापन, टेलीविजन, रेडियो, फीचर व ब्रांड प्रबंधन

वहीं राजनीति के दूसरे पहलू ‘राजनीतिक दलों की नीति’ की बात व खासकर कांग्रेस पार्टी की बात करें उसके लिए भी इन दोनों चुनाव परिणामों में सबक छिपे हैं। हिमांचल के चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस को यह अहसास हुआ है कि वह ही भाजपा को हरा सकते हैं, यह अहसास विश्वास में तभी बदल सकता है जब कांग्रेस, जैसा कि पार्टी के नेता प्रीतम सिंह ने कहा भी है, पिछले चुनाव में पार्टी के नेता विधायक बनने के लिए नही, मुख्यमंत्री बनने के लिए चुनाव लड़ रहे थे, ऐसी स्थितियों से बचना होगा। नेतृत्व के नीचे एक टीम के रूप में कार्य करना होगा। यह भी पढ़ें : अंकिता हत्याकांड, वीआईपी के खुलासे को लेकर आरोपितों के नार्को टेस्ट पर आई अपडेट

साथ ही पेट्रोल, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर हवा-हवाई विरोध के लिए विरोध एवं आंदोलन-प्रदर्शन करने की जगह दिन-रात जनता के बीच में रह कर और जनता को बेहतर नीति व विकल्प बताकर काम करना होगा, तभी वह अपने राज्य के साथ अपने राजनीतिक भविष्य को भी बेहतर कर सकते हैं। यदि वह ऐसा न करें तो 5 साल में सत्ता बदलने का रिवाज तो भूल जाइए, गुजरात की तरह कई दशकों बाद भी सत्ता में वापसी का ख्वाब भूलना होगा। वहीं, आम आदमी पार्टी जैसे प्रलोभनवादी तात्कालिक लाभ की राजनीति वाले दलों के लिए भी इन चुनाव परिणाम से सबक है कि जनता उनके हवा-हवाई वादों के जाल में फंसने वाली नहीं है। (डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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भाजपा-कांग्रेस के पूर्व विधायकों के बीच उत्तराखंड में बढ़ीं नजदीकियां, धामी सरकार के सामने रख दी ये मांगेंनवीन समाचार, देहरादून, 25 नवंबर 2022। जनता के मुद्दों पर नहीं, बल्कि अपनी मांगों पर राज्य के पूर्व विधायक एक मंच पर आ गए हैं। उन्होंने अपने मामलों पर दलगत और वैचारिक मतभेद छोड़कर अपने दलों में रहते हुए एक गैरराजनीतिक संगठन बनाने का ऐलान कर दिया है और प्रदेश की विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी से मुलाकात की है, और उनसे संरक्षण मांगते हुए विधानसभा की समिति की तरह ही पूर्व विधायकों की भी एक सांविधानिक समिति बनाने का अनुरोध किया है। यह भी पढ़ें : नैनीताल में बिड़ला रोड पर घंटों आवागमन रहा ठप…

राज्य की पहली अंतरिम सरकार में मंत्री रहे लाखीराम जोशी को संगठन की बागडोर सौंपी गई है जबकि पूर्व विधायक भीमलाल आर्य को सचिव बनाया गया है। अध्यक्ष खंडूड़ी ने उनके इस सुझाव का स्वागत किया और इस पर विचार करने का भरोसा दिया। सगठन का कहना है कि राज्य में सेवानिवृत्ति के बाद अफसरों को पुनर्नियुक्ति दी जाती है। इसी तर्ज पर पूर्व विधायकों, पूर्व मुख्यमंत्रियों के अनुभवों का भी लाभ लिया जाना चाहिए। चुनाव हारते ही उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। यह भी पढ़ें : रात्रि में नाले में गिरा व्यक्ति, पता न चलता तो…

पूर्व विधायकों ने पेंशन और ब्याज मुक्त ऋण देने, विधायकों की पेंशन व पारिवारिक पेंशन दोगुनी करने और उन्हें ब्याज मुक्त ऋण देने, ईंधन व्यय दोगुना करने, परिवार सहित नगदी रहित उपचार की सुविधा देने, सरकारी गेस्ट हाउसों में निःशुल्क आवासीय सुविधा देने और समय-समय पर उनकी सुविधाओं का ख्याल रखने पर जोर दिया। संगठन के अध्यक्ष जोशी के अनुसार आगामी दिसंबर माह में पूर्व विधायकों का एक सेमिनार देहरादून में होगा, जिसमें संगठन का एजेंडा तय होगा। यह भी पढ़ें : हाईकोर्ट ने प्रदेश के सभी डीएफओ पर लगाया 10-10 हजार का जुर्माना, कमिश्नरों सहित उच्चाधिकारियों को व्यक्तिगत तलब किया…

उनका कहना है कि यह एक गैर राजनीतिक संगठन है जो राज्य के ज्वलंत मुद्दों को सरकार के समक्ष रखेगा। संगठन के औचित्य के सवाल पर जोशी ने कहा कि पूर्व विधायकों को कोई नहीं पूछ रहा है। सरकार उन्हें महत्व नहीं दे रही जबकि उनमें से कई यूपी के समय के विधायक रहे और उनका लंबा अनुभव रहा है। वे क्षेत्र की जनता और सरोकारों से लगातार जुड़े हुए हैं। बताया गया है कि प्रदेश में करीब 148 पूर्व विधायक हैं। यह भी पढ़ें : नैनीताल: तीक्ष्ण चढ़ाई में चढ़ने की जगह पीछे भागी कार, आफत में फंसी लोगों की जान

दावा किया गया है कि बैठक में पूर्व कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत, हीरा सिंह बिष्ट, पूर्व विधायक कुंवर प्रणव चौंपियन, देशराज कर्णवाल, राजेश जुंवाठा, मातबर सिंह, गोविंद लाल शाह, मुन्नी देवी, विजय सिंह पंवार, ओम गोपाल रावत सहित 35 पूर्व विधायकों ने बैठक में भाग लिया। आगे भाजपा अध्यक्ष महेंद्र भट्ट, कांग्रेस अध्यक्ष करन माहरा के भी संगठन से जुड़ने की बात कही गई है। (डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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Imageनवीन समाचार, देहरादून, 12 सितंबर 2022। पिछले दिनों राज्य में यूकेएसएसएससी भर्ती घोटाले में मुखर होने के बाद दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से 45 मिनट की बातचीत कर बद्रीनाथ की ओर निकले और अभी भी उसी ओर चमोली जिले के हिमालयी क्षेत्रों के भ्रमण कर रहे पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस पूरे प्रकरण पर एक तरह से झीना सा परदा हटाया है। कहा है कि उनके शुभ चिंतक और कार्यकर्ता चाहते हैं कि वह आने वाले लोकसभा का चुनाव लड़ें। हालांकि उन्होंने यह भी जोड़ा कि चुनाव लड़ने के बारे में अंतिम फैसला पार्टी को लेना है।

रविवार को त्रिवेंद्र ने बदरीनाथ से आगे पवित्र देवताल स्नान दर्शन के बाद भारत चीन सीमा पर भारत की अंतिम सीमा चौकी माणा पास पहुंचे। आज सोमवार को वह दूसरी सीमांत चौकी नीति पास और टिम्मरसैंण महादेव जाएंगे। इस दौरान कहीं वह सोशल मीडिया के जरिए लोगों को धार्मिक स्थलों के बारे में बता रहे हैं तो कहीं, भुट्टे खाकर ठेठ गढ़वाली में लोगों से बतिया रहे हैं।

राजनैतिक जानकार त्रिवेंद्र के इस भ्रमण को आने वाले लोकसभा चुनाव में पौड़ी सीट से उनके चुनाव लड़ने की तैयारियों के तौर पर देख रहे हैं। पूछे जाने पर उन्होंने खुद भी कहा कि, उनके शुभ चिंतक और कार्यकर्ता चाहते हैं कि, वह लोकसभा का चुनाव लड़ें। आपको बता दें कि पिछले दिनों पूर्व सीएम त्रिवेंद्र की नई दिल्ली में पीएम मोदी से मुलाकात के बाद अटकलों का बाजार गर्म हो गया था। आगे देखने वाली बात होगी कि बात यही है जो त्रिवेंद्र दिखा रहे हैं, या कि यहां भी ‘कहीं पे निगाहें-कही पे निशाना’ वाली स्थिति है। (डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : हरक ने कांग्रेस और हरीश रावत पर हमलों की पृष्ठभूमि में इन दिनों उत्तराखंड आए एक दिग्गज नेता से की भेंट, कहीं भाजपा में आने की जुगत तो नहीं भिड़ा रहे हरक !

harak singh rawat met governor bhagat singh koshyari bjp congress  uttarakhand - BJP छोड़ कांग्रेस में शामिल हरक सिंह रावत की राज्यपाल भगत  सिंह कोश्यारी से मुलाकात, सियासी ...नवीन समाचार, देहरादून, 12 जुलाई 2022। उत्तराखंड की राजनीति में दलबदल की राजनीति के प्रतीक डॉ. हरक सिंह रावत क्या एक बार फिर भाजपा का दामन थाम सकते हैं ? यह चर्चा मंगलवार को एक बार फिर शुरू हो गई। कारण, उत्तराखंड की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से डॉ. हरक सिंह की गुपचुप भेंट हुई है। इसे इस संकेत से जोड़कर देखा जा रहा है कि डॉ. हरक सिंह के मन में कहीं न कहीं भाजपा की ओर आने की अकुलाहट है।

भाजपा के वरिष्ठ नेता और महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से गुपचुप तरीके से उनकी मुलाकात यह बताने को काफी है कि हरक कहीं न कहीं भाजपा के प्रति सकारात्मक रुख रखते हैं। भाजपा छोड़ने और कांग्रेस में जाने के बाद लगभग राजनीति के हाशिए पर आ चुके डॉ हरक सिंह रावत गत दिवस प्रातः काल डिफेंस कॉलोनी स्थित भगत सिंह कोश्यारी के आवास पर उनसे मिलने पहुंचे थे और इसी दिन दोपहर बाद अपने आवास पर पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम व अन्य नेताओं के साथ दिखाई दिए। कांग्रेस नेताओं की इस बैठक के बाद उन्होंने कांग्रेस पर कमजोर विपक्ष होने का भी आरोप लगाया। इसके बाद उन्होंने हरीश रावत पर उम्र बढ़ने के बावजूद गैर गंभीर होने का आरोप लगाया और पौड़ी या हरिद्वार सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने का इरादा भी जताया है।

उल्लेखनीय है कि भगत दा भाजपा के माहिर रणनीतिकार माने जाते हैं, उनके साथ डॉ हरक सिंह की गुपचुप बैठक और फिर अपनी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ बयानबाजी दोनों को जोड़कर देखा जाए तो यही लगता है कि वह एक बार फिर भाजपा मुख्यालय में भगवा पट्टे और गुलदस्ते के साथ नजर आ सकते हैं। यह भी सकता है कि वह अपने साथ कुछ और भी कांग्रेसी नेता और विधायकों को भी भाजपा में ले जाएं। कांग्रेस में क्योंकि इन दिनों भगदड़ जैसे हालात हैं। हर किसी का जैसे कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है और हर किसी को अब कांग्रेस में अपना कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा है।

गत दिनों कांग्रेस नेता आरपी रतूड़ी और महिला कांग्रेस अध्यक्ष कमलेश रमन कांग्रेस छोड़कर आप में चले गए। इससे पूर्व जोत सिंह बिष्ट भी आप में जा चुके हैं। वैसे भी भाजपा ने 2024 के आम चुनाव से पूर्व मिशन कांग्रेस में सफाई छेड़ रखी है। महाराष्ट्र और गोवा इसका उदाहरण है। भले ही उत्तराखंड में कांग्रेस सत्ता से दूर सही लेकिन चुनावी दौर न होने के बावजूद भी कांग्रेस नेता कांग्रेस छोड़कर भाग रहे हैं।

2022 विधानसभा चुनाव से पूर्व डॉ हरक सिंह को भाजपा से निकाल दिया था। अगर उन्हें भाजपा ने निकाला न होता तो वह शायद कांग्रेस में आते भी नहीं। कांग्रेस में फिर आना उनकी मजबूरी ही था लेकिन इसका उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ। उन्हें तो टिकट भी नहीं मिला और अपनी पुत्रवधू अनुकृति जिसे टिकट मिला उसे भी वह चुनाव जिता नहीं सके। घर पर वह खाली बैठ नहीं सकते। ऐसे में उनकी भाजपा में फिर वापसी ही उन्हें एक विकल्प दिख रही है। (डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : त्वरित प्रतिक्रिया: 100 में से 93 वोट के साथ धामी की अविश्वसनीय जीत के क्या हैं मायने..?

Imageडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 3 जून 2022। चंपावत उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी के रूप में पुष्कर सिंह धामी को कुल पड़े 61 हजार 595 वोटों में से 57 हजार 268 यानी 92.97 प्रतिशत और कांग्रेस प्रत्याशी निर्मला गहतोड़ी को 3147 यानी 5.1 प्रतिशत वोट मिले हैं। उन्हें मिलाकर नोटा सहित सभी प्रत्याशियों को भी कुल मिलाकर 7.03 प्रतिशत वोट मिले हैं। यह विजयी प्रत्याशी धामी सहित चुनाव लड़ रहे, एवं कोई भी चुनाव लड़ने वाले किसी भी प्रत्याशी के तहत अविश्वसनीय सी स्थिति है। धामी ने इस जीत के साथ उत्तराखंड जैसे छोटे व कम मतदाताओं वाले राज्य में किसी भी मुख्यमंत्री का सर्वाधिक मतों से जीतने का रिकॉर्ड तो तोड़ा ही है, लेकिन देखना होगा कि उन्होंने इस जीत के साथ सर्वाधिक मत प्रतिशत के मामले में देश-दुनिया के कितने और रिकॉर्ड तोड़े हैं। 100 में से करीब 93 वोट लाना निश्चित ही अविश्वसनीय है।

धामी की इस बड़ी जीत के मायने तलाशें तो नजर आता है कि छोटे से कार्यकाल में मुख्यमंत्री रहते अपनी ‘धाकड़’ तरीके से बड़े निर्णय लेने की छवि बनाकर धामी मार्च 22 में हुए विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी को हर बार सरकार बदलने का मिथक तोड़ते हुए 70 में से 47 सीटें जिता लाए थे, लेकिन खुद 6 हजार से अधिक वोटों से चुनाव हार गए थे। इसके बावजूद जनता में बनी सहानुभूमि को स्वीकारते हुए केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें फिर से राज्य की जिम्मेदारी संभाली। इससे उनके क्षेत्र खटीमा की जनता में भी एक निराशा का भाव गया था। इसके बाद क्षेत्र के कुछ लोगों की ओर से सांकेतिक जल समाधि लेने की घटना भी हुई थी।

इसके बाद धामी ने उपचुनाव हेतु खटीमा से ही लगी मूलतः पर्वतीय मानी जानी जाने वाली चंपावत सीट से उपचुनाव लड़ना तय किया। चुनाव परिणाम क्या होगा, शायद तभी सभी को पता था, शायद इसीलिए चंपावत से विधायक रहे कांग्रेस के तत्कालीन प्रत्याशी हेमेश खर्कवाल ने खुद को दावेदारी से अलग कर लिया। उधर कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व इस दौरान चंपावत क्या, कुमाऊं भी नहीं, दूसरी ओर गढ़वाल में घूमता नजर आया।

बमुश्किल पूर्व जिलाध्यक्ष निर्मला गहतोड़ी को कांग्रेस का टिकट मिला। इसके बाद चंपावत के कांग्रेसियों के भाजपा में शामिल होने का सिलसिला चला। निर्मला के प्रचार के लिए 40 स्टार प्रचारकों की सूची भी बनी। कहने को हरीश रावत भी चुनाव प्रचार को पहुंचे, लेकिन जैसा कि चुनाव परिणाम से एक दिन पूर्व ही निर्मला गहतोड़ी ने बताया कि उनकी रैली की तैयारी भी उन्हें खुद करनी पड़ी। उन्हें 90 प्रतिशत पार्टीजनांे के साथ ही अपने घर के लोगों का भी सहयोग नहीं मिला।

ऐसी स्थितियों में कांग्रेस पिछले दो दिनों से 5 लोकसभा सीटों के राज्य में बैठकर कांग्रेस को 2024 में लोकसभा में जीत दिलाने का ख्वाब देखने का स्वांग करती नजर आई है। उसे समझना होगा। यह भाजपा का दौर है। इसका सामना करना तो उन्हें भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से भी अधिक मेहनत से धरातल पर काम करना होगा। भाजपा सरकार का केवल कहने भर को या हर बात का विरोध करने की जगह गलत कार्यों-नीतियों पर तार्किक व मजबूती से न केवल विरोध करना होगा, बल्कि समस्याओं का समाधान भी दिखाना होगा। राजनीति पूर्णकालिक व सेवाभाव के साथ करनी होगी। वरना तो चंपावत के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने भी कांग्रेस को उसका भाग्य बता दिया है, जहां लग रहा है कि पूरी विधानसभा में कांग्रेस प्रत्याशी को मात्र 3147 मत मिले हैं। इससे अधिक तो विधानसभा में कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारी या कहने को सक्रिय सदस्य व उनके पारिवारिक सदस्य होंगे। यानी उन्होंने भी कांग्रेस प्रत्याशी को वोट नहीं दिया।

वहीं सीएम धामी को भी इस अविश्वसनीय जीत को किसी उपलब्धि या दंभ के तौर पर नहीं, बल्कि जनता से मिले भरोसे व विश्वास के तौर पर लेना होगा। मानना होगा कि इस जीत के पीछे केवल वह नहीं, बिना चंपावत आए भी उनकी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली, जनता के बीच उनका विश्वास, जनसंघ के जमाने से पार्टी के खासकर शीर्ष नेताओं से लेकर निचले दर्जे के कार्यकर्ताओं द्वारा की गई मेहनत व समर्पण से बनाया गया जन विश्वास व राष्ट्रवाद की नीतियां, तथा वास्तव में भविष्य बेहतर, सुरक्षित होने का विश्वास है।

जनता भाजपा पर विश्वास कर रही है कि भाजपा राष्ट्र को मजबूत करने के साथ आगे बेरोजगारी व महंगाई की समस्याओं को दूर करेगी। भ्रष्टाचार व गरीबी का समूह नाश होगा। पहाड़ का पानी व जवानी पहाड़ के काम आएंगे। यहां की बहुमूल्य खनिज संपदा केवल कुछ लोगों की जेबें नहीं भरेगी, केवल एक वर्ग ही अमीर नहीं होगा…. आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : पूर्व सीएम हरीश रावत व सीएम धामी आज अलग कारणों से रहे चर्चा में…

कभी खुद को तो कभी दलित सीएम बनाने की पैरवी करते हैं हरीश रावत, ज्यादा दिन  नहीं टिकेगी उनकी खुशी: धामी - CM Pushkar singh dhami attacked on harish  rawat for hisनवीन समाचार, खटीमा 26 मई 2022। उत्तराखंड में पिछले कुछ समय से कुछ राजनेता अपनी राजनीतिक समझ व कृत्यों से अधिक अन्य कारणों से चर्चा में आने की कोशिश करते नजर रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत जहां अपनी आम, काफल, ककड़ी व रायता पार्टियों के पास ठेलों पर चाट-पकौड़ी परोसने के बाद गुरुवार को दोपहर में हल्द्वानी-लालकुआं रोड पर सड़क के गड्ढों के बीच बैठ गए, वहीं शाम को मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी कमोबेश हरीश रावत की राह पर स्थानीय उत्पाद भुट्टा खाकर प्रचार करते नजर आये। देखें वीडियो:

उल्लेखनीय है कि आज हरीश रावत लालकुआं की ओर से आ रहे थे, जैसे ही वह बरेली रोड पहुंचे तो अपनी कार से उतरकर बीच सड़क पर जा बैठे। रावत ने नेशनल हाईवे ऑथोरिटी से गुहार लगाई है कि वह इस रास्ते को जल्द से जल्द सुधारें ताकि यहां से आने जाने वाले लोगों को गड्ढा मुक्त रास्ता नसीब हो सके।

राधा स्वामी सत्संग में बने हेलीपैड से अपने निजी आवास नगला तराई जाते वक्त पीलीभीत रोड पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने मनीष कश्यप के ठेले पर रुककर भुट्टे का आनंद लिया। इस दौरान वह स्थानीय लोगों से भी मिलते और बात करते नजर आए। इस दौरान श्री धामी ने कहा कि भुट्टा पोष्टिक तत्वों से भरपूर होने व स्वादिष्ट होने के कारण जनता और पर्यटकों के बीच मे काफी लोकप्रिय खाद्य वस्तु बन चुका है।

जहां एक ओर भुट्टा खाने वाले व्यक्ति को पौष्टिक तत्व व शक्ति मिलते हैं, वहीं दूसरी ओर यह किसानों व बेचने वालों की आय का जरिया भी बन रहा है। उन्होंने राज्य में आने वाले पर्यटकों का भी आह्वान किया कि वह भी उत्तराखंड आकर एक बार भुट्टे का आनंद जरूर लें।

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यह भी पढ़ें : बड़ा समाचार: धामी के बाद अब कांग्रेस के एक और विधायक, पूर्व अध्यक्ष के पुत्र सहित कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होने की चर्चाए

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 22 अप्रैल 2022। राजनीति में भले अपने समर्थक दलों के लिए आम लोग बिना किसी निजी स्वार्थ के आपस में सिर-फुटौव्वल करने के स्तर तक भिड़ जाते हों, लेकिन राजनीतिज्ञों के लिए राजनीति अवसरों का खेल है। उनके लिए कोई स्थाई मित्र और कोई स्थायी शत्रु नहीं। उन्हें केवल राजनीति में खुद को स्थापित रखना होता है, और इसके लिए वे धुर विरोधी, पानी पी-पीकर कोसने वाले दलों में जाने से भी गुरेज नहीं करते, बशर्ते कि दूसरा दल भी उनके महत्व को स्वीकार कर उन्हें अपना ले।

पिछले दिनों कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत के लिए सीट छोड़ने वाले एक विधायक हरीश धामी मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए सीट छोड़ने का ऐलान करने व भाजपा में शामिल होने या अलग दल बनाने की चर्चाओं के बाद भाजपा से अपेक्षित रिस्पांस न मिलने के कारण 2027 का चुनाव कांग्रेस से नहीं वरन निर्दलीय लड़ने की घोषणा कर शांत हो गए हैं, अलबत्ता अब एक और कांग्रेस विधायक व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने की तेज चर्चाएं शुरू हो गई है।

प्रीतम सिंह: आयु, जीवनी, शिक्षा, पत्नी, जाति, संपत्ति, भाषण, राजनीतिक दल -  Oneindia Hindiपिछले पांच वर्षों में कांग्रेस व विपक्ष की राजनीति की धुरी रहे प्रीतम के बारे में अपुष्ट चर्चाएं हैं कि उनकी भाजपा के प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व से नई दिल्ली में वार्ता हो चुकी है। भाजपा में जाने के लिए वह अपनी विधायकी छोड़ सकते है। चर्चा है कि इसके बाद वह अपनी चकराता सीट से अपने पुत्र को भाजपा से विधायक बनाना चाहते हैं, और उन्हें 2024 में टिहरी सीट से लोक सभा का टिकट दिया जा सकता है। बताया जा रहा है कि वह अपने पुत्र को कांग्रेस के मंच से राजनीति में स्थापित न कर पाने के कारण भी व्यथित हैं।

इन चर्चाओं की हम अभी पुष्टि नहीं कर रहे, लेकिन जिस तरह गत दिनों पहले प्रीतम और हरीश रावत के खेमों में कांग्रेस की विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद आरोप-प्रत्यारोप हुए और इसके बाद कांग्रेस के नेतृत्व ने न केवल उन्हें बल्कि उनके पूरे गुट को नए दायित्व देने में उपेक्षित छोड़ा, और वह नए प्रदेश अध्यक्ष तथा नेता प्रतिपक्ष व उप नेता प्रतिपक्ष के कार्यभार ग्रहण करने के कार्यक्रमों में नहीं पहुंचे, उसके बाद ऐसी चर्चाओं को बल मिलना स्वाभाविक है।

आगे देखना होगा कि अपने पिता यूपी सरकार में मंत्री रहे गुलाब सिंह के दौर से कांग्रेसी प्रीतम सिंह व उनकी अगली पीढ़ी यानी पुत्र भाजपा के साथ अपनी नई राजनीतिक पारी किस तरह शुरू करते हैं। यदि ऐसा चंपावत उपचुनाव से पहले होता है तो निश्चित ही भाजपा को इसका मनोवैज्ञानिक लाभ मिलेगा और कांग्रेस को पार्टी में एक और टूट के ‘पड़ी में दो लात और’ जैसी स्थितियों से गुजरना पड़ सकता है। अन्य ताज़ा नवीन समाचार पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

यह भी पढ़ें : उत्तराखंड में गर्मियों में लगी आग बुझाने का फरमान बर्फ पड़ने के बाद पहुंचा था, आज क्यों याद आ रहा है गोरखा राज का वह किस्सा

Rajasthan Nagar Nigam Election Result Updates: राजस्थान के 20 जिलों के 90  निकायों में कांग्रेस को बढ़त, बीजेपी पीछे छूटीडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 27 मार्च 2022। उत्तराखंड के कुमाऊं में 1790 से और गढ़वाल में 1805 से 1815 के बीच रहे गोरखा राज के दौरान का एक किस्सा है, कुमाऊं के जंगलों में गर्मियों के मौसम में आग लग गई थी। इस पर की जाने वाली कार्रवाई का आदेश लेने के लिए एक संदेशवाहक को नेपाल भेजा गया। और लौटने पर जब संदेशवाहक ने संदेश सुनाया-‘बुझा दिन्या हो’, यानी आग बुझा दें, तक वहां बर्फ पड़ चुकी थी। यानी सर्दियों के दिन आ चुके थे।

आज उत्तराखंड के राजनीतिक दलों की स्थिति देखकर सदियों पुराना वह किस्सा याद हो आया। यहां कांग्रेस की स्थिति ऐसी है कि 10 मार्च को चुनाव परिणाम निकले एक पखवाड़े से अधिक समय बीत जाने के बावजूद वह अपने विधायकों की बैठक बुलाकर ‘नेता प्रतिपक्ष’ पद के लिए अपना नेता नहीं चुन पाई है। प्रदेश अध्यक्ष ने इस्तीफा दिया है और नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हो पाई है।

वहीं सत्ता पक्ष यानी भाजपा की बात करें तो वह बमुश्किल सरकार गठन की तय संवैधानिक समयसीमा 24 मार्च से एक दिन पूर्व यानी 23 मार्च बमुश्किल 11 की जगह 8 मंत्रियों की घोषणा कर उन्हें शपथ दिला पाई। वह भी राज्य इकाई नहीं, बल्कि केंद्रीय नेतृत्व से आखिरी क्षणों में मिली हरी झंडी के बाद। और अब जबकि 29 मार्च से मंत्रिमंडल की बैठक हेानी है, और मंत्रियों को शपथ लिए 5 दिन हो गए हैं, मंत्री बिना विभाग के हास्यास्पद स्थिति में हैं।

इस पर सवाल उठना लाजिमी है कि क्या उत्तराखंड के दोनों राजनीतिक दलों पर उनका दिल्ली में बैठा केंद्रीय हाईकमान आवश्यकता से अधिक हावी है, या कि उनकी राज्य की यूनिटें इस कदर नाकारा हैं कि वह एक-एक निर्णय के लिए अपने केंद्रीय नेतृत्वों का मुंह ताकती हैं और हर निर्णय के लिए उन्हीं पर निर्भर हैं, और केंद्र से भी गर्मियों में लिए जाने वाले निर्णय सर्दियों तक आ पाते हैं। अन्य ताज़ा नवीन समाचार पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 23 मार्च 2022। दो-तिहाई बहुमत से एकतरफा जीत के बावजूद भाजपा की पुष्कर सिंह धामी के नए मंत्रिमंडल में उपलब्ध सीटों के सापेक्ष केवल 8 यानी करीब दो-तिहाई सीटों पर ही मंत्री तैनात किए जा सके हैं। मंत्रिमंडल में राज्य के 13 में से 7 जिलों को स्थान नहीं मिल पाया है। धामी बड़े बहुमत के बावजूद बोल्ड तरीके से निर्णय लेकर मंत्रिमंडल का गठन नहीं कर पाए हैं।

मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों का विश्लेषण करें तो साफ तौर पर दिखता है कि प्रदेश के दो मंडलों में से एक कुमाऊं मंडल के 3 मंत्रियों का पत्ता काट दिया गया है, और उसके खाते में 8 में से 3 पद ही आए हैं। वहीं 8 मंत्रियों में से कांग्रेसी मूल के विधायकों को लगातार दूसरी बार मंत्री बनाया गया है। भाजपा किसी भी पिछले कांग्रेसी मंत्री को हटाने का साहस नहीं कर पाई। यहां तक कि 70 वर्ष की उम्र पार कर गए सतपाल महाराज को फिर से और सबसे वरिष्ठ मंत्री बनाया गया है। केवल दो ही नए मंत्री बनाए गए हैं।

यही नहीं भाजपा सभी मंत्री पदों पर भी विधायकों को दायित्व नहीं दे पाई। कुमाऊं मंडल के 6 में से तीन जिलों-नैनीताल, चंपावत व पिथौरागढ़ को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया गया है। छह में से 5 विधानसभा सीटें दिलाने व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व सीएम हरीश रावत को हराने के बावजूद नैनीताल जनपद के हाथ भी मंत्रिमंडल में रीते रहे हैं। मंडल के जिन तीन विधायकों का मंत्री बनाया गया है, उनमें से एक सौरभ बहुगुणा भले यहां की सितारगंज सीट से विधायक बने हों, किंतु मूलतः वह भी गढ़वाल मंडल से आते हैं।

जबकि अन्य दो मंत्री रेखा आर्य व चंदन राम दास आरक्षित वर्ग से आते हैं, इस तरह कुमाऊं मंडल के मूल सवर्ण वर्ग के एक भी विधायक को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिल पाया है। अलबत्ता समग्र तौर पर देखें तो मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री सहित तीन-तीन ब्राह्मण व क्षत्रिय, दो अनुसूचित एवं एक वैश्य समाज के मंत्री शामिल हैं। उत्तराखंड उच्च न्यायालय से कार्रवाई की तलवार लटकने के बावजूद एक विधायक को मंत्री बनाया गया है। माना जा रहा है कि उन्हें खुद को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बताने का लाभ मिला है।

यहां तक कि राज्य की पांच में से एक लोकसभा हरिद्वार से एक भी मंत्री नहीं बनाया गया है। वहीं अनुभव की बात करें तो दो के पहली बार मंत्री बनने के साथ ही केवल सतपाल महाराज को छोड़कर कोई भी मंत्री पांच वर्ष से अधिक समय के लिए मंत्री नहीं रहा है। जबकि स्वयं मुख्यमंत्री को बिना मंत्री रहे केवल 6-7 माह ही मुख्यमंत्री रहने का अनुभव है। यानी मंत्रिमंडल अनुभव के लिहाज से भी असंतुलित है।

वहीं गढ़वाल मंडल की बात करें तो तीनों सीमांत चमोली, रुद्रप्रयाग व उत्तरकाशी के साथ ही हरिद्वार जिले को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला है। चमोली व उत्तरकाशी में भाजपा ने तीन में से तथा रुद्रप्रयाग में दो में से दो सीटें जीती थीं। जबकि पौड़ी जिले से सतपाल महाराज व डॉ. धन सिंह रावत यानी दो रावतों, देहरादून जिले से गणेश जोशी व प्रेम चंद्र अग्रवाल तथा टिहरी से एक सुबोध उनियाल को मंत्री बनाया गया है। इस तरह गढ़वाल मंडल के साथ ही प्रदेश के क्षत्रियों में से किसी भी गैर रावत को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिल पाया है। अन्य ताज़ा नवीन समाचार पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

इतना रहा उत्तराखंड के अब तक के मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल:
1.नित्यानंद स्वामी- 9 नवंबर 2000 से 29 अक्टूबर 2001
2. भगत सिंह कोश्यारी- 30 अक्टूबर 2001 से 1 मार्च 2002
3. नारायण दत्त तिवारी- 2 मार्च 2002 से 7 मार्च 2007
4.भुवन चंद्र खंडूड़ी – 7 मार्च 2007 से 26 जून 2009
5.डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ – 27 जून 2009 से 10 सितंबर 2011
6. भुवन चंद्र खंडूड़ी – 11 सितंबर 2011 से 13 मार्च 2012
7.विजय बहुगुणा- 13 मार्च 2012 से 31 जनवरी 2014
8.हरीश चंद्र सिंह रावत- 1 फरवरी 2014 से 27 मार्च 2016
9. हरीश चंद्र सिंह रावत – 11 मई 2016 से 18 मार्च 2017
10. त्रिवेंद्र सिंह रावत- 18 मार्च 2017 से 9 मार्च 2021
11.तीरथ सिंह रावत- 10 मार्च 2021 से 2 जुलाई 2021
12 पुष्कर सिंह धामी – 4 जुलाई 2021 से 11 मार्च 2022, वर्तमान में कार्यकारी मुख्यमंत्री भी आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : आज 21 वर्ष के युवा उत्तराखंड में युवा सीएम धामी की ताजपोशी के साथ बहुत कुछ होगा खास, टूटेंगे कई बड़े मिथक भी

-राज्य को पहली बार मिलेगा अपनी ‘पसंद’ का मुख्यमंत्री,
-अब तक कभी भी जिसके नेतृत्व चेहरे पर चुनाव जीता गया, नहीं बना मुख्यमंत्री, हाईकमान की मनमानी पसंद को बनाया गया मुख्यमंत्री
Imageडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 23 मार्च 2022। 21 वर्ष के हो चुके युवा उत्तराखंड की राजनीति के साथ ही राज्य के भविष्य के लिए बुधवार का दिन एक बार फिर एक नई करवट लेने वाला होने जा रहा है। आज राज्य को नया व सही अर्थों में पहली बार ‘अपनी पसंद’ का 45 वर्षीय युवा मुख्यमंत्री मिलने जा रहा है। अपनी पसंद का पहला इसलिए क्योंकि अब तक राज्य में कभी भी जिस चेहरे पर चुनाव लड़कर पार्टी सत्ता में आई, उसे नहीं बल्कि हमेशा केंद्रीय हाईकमान द्वारा थोपे गए राजनेता मुख्यमंत्री बनते रहे हैं और इस कारण छोटे से 21 वर्ष के राज्य में 12वीं बार मुख्यमंत्री के पद पर पुष्कर सिंह धामी और उनका मंत्रिमंडल शपथ ग्रहण करने जा रहा है।

पुष्कर की ताजपोशी के साथ यह मिथक भी टूटने जा रहा है कि एनडी तिवारी द्वारा शुरू कराए गए और 2010 में बनकर तैयार हुए राज्य के मुख्यमंत्री आवास में रहा तथा राज्य का कोई भी मुख्यमंत्री दुबारा चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बन रहा है। साथ ही यह तो है ही कि राज्य में पहली बार किसी पार्टी की लगातार दूसरी बार सरकार बन रही है।

उत्तराखंड राज्य के इतिहास में पहली बार है जब राज्य में चेहरा घोषित किए गए और मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार व हकदार पुष्कर सिंह धामी मुख्यमंत्री बन रहे हैं। वह भी तब, जबकि वह दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों में अपनी विधानसभा का चुनाव हार गए। जबकि इससे पहले का उत्तराखंड का राजनीतिक इतिहास देखें तो यहां राज्य के जन्म से लेकर अब तक हमेशा केंद्र से मुख्यमंत्री थोपे गए हैं। यही नहीं, ऐसे व्यक्ति मुख्यमंत्री बने जो चुनाव में चेहरा नहीं रहे। यह भी कि वह मुख्यमंत्री के स्वाभाविक दावेदार भी नहीं रहे और जब वह मुख्यमंत्री बने, तब एक तरह से उनका इस पद पर हक भी नहीं बनता था। केवल उन्हें थोपे जाते वक्त विधानमंडल दल की बैठकों में विधायकों की पसंद बताने का ढोंग रचा गया।

यही कारण रहा कि नौ नवंबर 2000 को राज्य बनने पर उस दौर में भगत सिंह कोश्यारी के राज्य में भाजपा का प्रमुख चेहरा होने के बावजूद यूपी विधान परिषद के सदस्य रहे, यानी जनता से चुने विधायक भी न रहे नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री बनाया गया। लिहाजा वही हुआ, स्वामी को 29 अक्टूबर 2001 तक यानी एक वर्ष का कार्यकाल भी पूरा किए बिना मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी। बाद में भाजपा ने 30 अक्टूबर 2001 को कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाकर भूल सुधार किया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। कोश्यारी को 123 दिन में सत्ताच्युत होना पड़ा। वह भाजपा की सरकार भी वापस नहीं लाए।

कांग्रेस को 2002 के विधानसभा चुनाव में बहुमत मिला। तब हरीश रावत स्वाभाविक तौर पर मुख्यमंत्री पद पर जनता की पसंद थे, लेकिन कांग्रेस हाइकमान ने भाजपा की ही गलती दोहराते हुए ‘मेरी लाश पर उत्तराखंड बनेगा’ कहने वाले पं. नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बना दिया। रावत तिवारी सरकार में हमेशा विपक्ष जैसी भूमिका में रहे। उनकी सरकार हर दिन संकट में रही, फिर भी यूपी जैसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्री रहे अनुभवी तिवारी किसी तरह अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा कर पाए, पर कांग्रेस की सरकार वापस न ला पाए।

2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा जीती तो इसमें बड़ा योगदान पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का रहा, लेकिन भाजपा हाइकमान ने फिर पुरानी गलती दोहराते हुए आश्चर्यजनक तौर पर केंद्र में सड़क परिवहन मंत्री रहे सेना से आए सेवानिवृत्त मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया। कड़क मिजाज के खंडूड़ी अपने विधायकों को भी डांटते-फटकारते 23 जून 2009 तक मात्र 839 दिन तक मुख्यमंत्री रह पाए। इस बार भी भाजपा ने कोश्यारी को दरकिनार किया और डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को मुख्यमंत्री बना दिया। निशंक भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे और पार्टी सर्वे में उनके नेतृत्व में मात्र 16 सीटें जीतने की संभावना प्रकाश में आई तो एक बार फिर 11 सितंबर 2011 को खंडूड़ी को फिर से ‘जरूरी’ बताकर मुख्यमंत्री बना दिया गया। बावजूद खंडूड़ी खुद चुनाव हार गए और उनके नेतृत्व में भाजपा स्वयं खंडूड़ी की एक सीट से कांग्रेस से पीछे रह गई और सत्ता गंवा बैठी।

आगे कांग्रेस 2012 में वापस सत्ता में आई तो हरीश रावत पुनः मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे, किंतु एक बार पुनः उन्हें दरकिनार कर विधायक भी न रहे विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया गया। हरीश रावत ने दिल्ली में खुद को मुख्यमंत्री बनाने के लिए धरना दे दिया। 2013 में आई केदारनाथ आपदा में बहुगुणा के राजनीतिक कौशल की विफलता जगजाहिर हुई तो कांग्रेस ने मजबूरी में हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना दिया। अब तक हरीश को यह गुमान हो गया था कि वह अपने दम पर मुख्यमंत्री बने हैं। उन्होंने कांग्रेस को ‘हरीश कांग्रेस’ भी बनाने का प्रयास किया। परिणाम यह हुआ कि पार्टी में बड़ी टूट हो गई। नौ विधायक विधानसभा के सत्र के दौरान ही कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए।

फिर भी राजनीतिक कौशल से हरीश केंद्र में भाजपा सरकार होने के बावजूद अपना बचा कार्यकाल पूरा करने में तो सफल रहे पर 2017 के विधानसभा चुनावों में खुद दो सीटों से चुनाव हारने के साथ भाजपा को 70 में से 57 सीटों की बड़ी जीत दिला गए। ऐसी तीन-चौथाई बहुमत की भाजपा की जीत में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे, किंतु भाजपा हाइकमान ने फिर पुरानी गलती दोहराते हुए भट्ट के चुनाव हारने का बहाना बनाकर और विधायकों को उनका नेता चुनने देने की जगह अपनी पसंद के त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना दिया। नतीजा यह रहा कि उन्हें और उनके बाद भी एक बार फिर गलती दोहराते हुए सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना दिया।

इस बीच लोकसभा का चुनाव राज्य में सर्वाधिक मतों से जीतने के साथ अजय भट्ट जनता के नेता के रूप में उभरे थे, फिर भी भाजपा ने एक नए चेहरे पुष्कर सिंह धामी को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया। अलबत्ता, धामी राज्य में इतिहास रचकर और कई मिथकों को तोड़ने के साथ भाजपा को तो सत्ता में ला गए किंतु मुख्यमंत्रियों के चुनाव न जीतने के मिथक से पार नहीं बन पाए। अलबत्ता इस बार भाजपा ने यह कहकर उन्हें मुख्यमंत्री पद दे दिया है कि उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा गया, तो यह सुखद ही कहा जाएगा।

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डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 22 मार्च 2022। विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अपनी विधानसभा सीट हार गए। लेकिन फिर भी राज्य में पहली बार धामी के रूप में दूसरी बार कोई मुख्यमंत्री बनने जा रहा है। अब जबकि धामी के नाम की घोषणा हुए काफी घटना हो चुकी है, फिर भी लोग अभी भी यही चर्चा कर रहे हैं कि धामी कैसे दूसरी बार हाईकमान की पसंद बने। यदि उन्हें मुख्यमंत्री बनाना ही था तो राज्य के 12वें मुख्यमंत्री के नाम के लिए क्यों 11 दिनों तक सस्पेंस बनाकर रखा गया।

हालांकि जानकार मानते हैं कि जिस दिन केंद्रीय हाईकमान ने राजनाथ सिंह को उत्तराखंड का केंद्रीय पर्यवेक्षक बनाया गया, उसी दिन यह तय हो गया था कि धामी ही दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। कारण, धामी को कोश्यारी के बाद राजनाथ सिंह का सबसे पसंदीदा माना जाता है। राजनाथ ने ही धामी के लिए धाकड़ बल्लेबाज और चर्चित फिल्म पुष्पा की तर्ज पर ‘फ्लावर और फायर’ कहा था।

यह कहने वालों की भी कमी नहीं है, जो मानते हैं कि गत दिवस महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के नई दिल्ली पहुंचने के बाद धामी को दूसरी बार मुख्यमंत्री बनाने को तैयार हुई। क्योंकि इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी धामी से उत्तराखंड के चुनाव परिणाम आने के बाद नहीं मिले थे। कोश्यारी के दिल्ली से लौटने के बाद ही धामी को दुबारा दिल्ली बुलाया गया।

उच्च पदस्थ सूत्र यह भी बता रहे है कि प्रधानमंत्री मोदी इस बात से चिंतित थे कि भाजपा अपनी दो सरकारों में पांच मुख्यमंत्री बदल चुकी है। इससे पार्टी पर अपने मुख्यमंत्रियों पर भरोसा न करने के आरोप भी लगते हैं। धामी भले अपना चुनाव हार गए हों लेकिन उनके सीएम और सीएम का चेहरा रहते भाजपा उत्तराखंड में दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में लौटने में सफल रही।

धामी इस पूरे चुनाव में भाजपा-कांग्रेस या किसी भी दल के इकलौते नेता रहे जो अपनी सीट पर फंसे बिना पूरे प्रदेश में चुनाव प्रचार में गए। उन्हें मुख्यमंत्री बनाने पर राज्य के साथ ही देश की जनता व पार्टी कार्यकर्ताओं में यह संदेश भी जा रहा है, कि पार्टी मेहनत करने वाले व्यक्ति पर विश्वास जताती है, धोखा नहीं देती है। गढ़वाल मंडल के ब्राह्मण के प्रदेश अध्यक्ष और कुमाऊं मंडल के ब्राह्मण अजय भट्ट के केंद्रीय मंत्री होने के नाते क्षत्रिय होने के कारण भी भाजपा धामी को दुबारा मुख्यमंत्री बनाने को तैयार हुई।

उन्हें राज्य में भाजपा को जिताने की ही जिम्मेदारी दिखाई, जिसे उन्होंने ‘लो प्रोफाइल’ रहते हुए भी जिताया। उनके चेहरे जीत पर अधिक खुश और हार पर दुःखी होने जैसे भाव भी नहीं आते और वह अपनी हर उपलब्धि का श्रेय केंद्रीय नेतृत्व को देते रहे हैं। उन्हें एक और बार मुख्यमंत्री बनाने के साथ भाजपा राज्य में उनके रूप में एक ऐसा नेतृत्व भी खड़ा करना चाहती है जो 2023 में निकाय व 2024 में लोकसभा चुनाव के बाद 2027 के विधानसभा चुनाव में अपने दम पर भी पार्टी को जीत के रास्ते पर ले जाए। उनके यह गुण और परिस्थितियां भी उनके पक्ष में गईं और वह दुबारा मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 15 मार्च 2022। भले ही कांग्रेस ने चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलने के प्रयोग पर तीखा निशाना साधा। तीन तिगाड़ा-काम बिगाड़ा मुहिम के जरिए अपने पक्ष में करने की कोशिश की। लेकिन चुनाव नतीजे और सेंटर फर स्डडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस)-लोकनीति के मतदान बाद सर्वेक्षण के नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा का मुख्यमंत्री बदलने और पुष्कर सिंह धामी को कमान सौंपने का चुनावी दांव काम कर गया है।

भाजपा ने इसके जरिए सत्ता विरोधी रुझान को खत्म ही कर दिया। इस सर्वे में पता चला है कि त्रिवेंद्र रावत की चार साल की सरकार असंतुष्टि के मामले में पुष्कर सिंह धामी की सात महीने की सरकार बहुत आगे थी। त्रिवेंद्र सरकार से जहां करीब ६१ फीसद लोग असंतुष्ट थे वहीं केवल ३३ फीसद संतुष्ट थे। जबकि धामी सरकार से ५९ फीसद लोग संतुष्ट थे और ३२ फीसद लोग असंतुष्ट थे।

सर्वे में यह भी पता चला कि कुल दस वोटरों में से तीन और भाजपा के पारंपरिक पांच वोटरों में से दो त्रिवेंद्र सरकार के कामकाज से असंतुष्ट थे लेकिन धामी सरकार से संतुष्ट थे। यही वजह थी कि सरकार बदलने पर इन वोटरों ने भाजपा को ही वोट किया।

मुख्यमंत्री के रूप में पहली पसंद धामी
सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे में एक खास बात और सामने आई कि मुख्यमंत्री के रूप में पहली पसंद के रूप में प्रदेश में पुष्कर सिंह धामी सारे प्रतिद्वंद्वियों से आगे नजर आए। पुष्कर सिंह धामी जहां सर्वे में शामिल ३७ फीसद लोगों की पसंद थे वहीं हरीश रावत २२ फीसद, प्रीतम सिंह ३ फीसद, कर्नल अजय कोठियाल दो फीसद और सतपाल महाराज एक फीसद लोगों की पसंद थे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 10 मार्च 2022। कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है, लेकिन भाजपा को प्रदेश में प्रचंड जीत के बावजूद एक इतिहास का दोहराना ऐसी अजीबोगरीब स्थिति में डालेगा, इसकी किसी ने कल्पना भी न की होगी।

वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा विपक्ष में थी और अजय भट्ट नेता प्रतिपक्ष होने के साथ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी थे। इस प्रकार इस चुनाव में भाजपा अजय भट्ट की दोहरी जिम्मेदारी के साथ उनके नेतृत्व में ही चुनाव जीती लेकिन अजय भट्ट खुद रानीखेत से चुनाव हार गए। उनकी हार के बावजूद भाजपा की सरकार बनी और यह मिथक भी बना कि रानीखेत सीट से जिस पार्टी का विधायक हारता है, उसकी ही राज्य में सरकार बनती है। यह मिथक हालांकि इस बार भी टूट रहा है, क्योंकि इस बार रानीखेत से भाजपा के प्रत्याशी प्रमोद नैनवाल जीते हैं, पर सरकार भाजपा की ही बन रही है।

बहरहाल, हम इस नहीं दूसरे संयोग की बात कर रहे हैं। वह संयोग है इस चुनाव में प्रदेश में भाजपा के चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की हार का। धामी हारे हैं, लेकिन उनकी पार्टी जीती है। ऐसे में पार्टी की जीत की चाशनी में जैसे किसी ने एक कड़वा नीम का पत्ता डाल दिया हो, ठीक वैसे ही जैसे 2012 में हुआ था।

इस चुनाव में एक और संयोग देखिए कि भाजपा के साथ ही कांग्रेस के चुनाव के मुख्य चेहरे हरीश रावत के साथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल और आम आदमी पार्टी मुख्य चेहरे व प्रदेश अध्यक्ष कर्नल अजय कोठियाल भी चुनाव हार गए हैं।

हालांकि यह कहना भी समीचीन है कि 2012 में अपनी पार्टी को जिताने के बावजूद हारने वाले अजय भट्ट आज नैनीताल के सांसद बनने के बाद केंद्रीय रक्षा राज्य मंत्री भी हैं, जबकि पुष्कर सिंह धामी का क्या राजनीतिक भविष्य होगा अभी इस पर जरूर संशय के बादल छा गए हैं। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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-चुनाव परिणाम उससे कहीं अधिक चौंकाने वाले होंगे जितनी कोई उम्मीद नहीं कर रहा….

-कांग्रेस की लहर के शोर में मौन रहे भाजपा के मतदाता, कांग्रेस चुनाव प्रचार में पीछे पर आखिरी दौर के ‘प्रबंधन’ में रही आगे

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 23 फरवरी 2022। उत्तराखंड में भाजपा कांग्रेस के 70 में से 60-48 सीट जीतने के मतदान पूर्व व बाद के दावे ‘कांटे की टक्कर’ तक आ पहुंचे हैं। हालत यहां तक पतली हो गई है कि पूरे प्रदेश की 70 सीटों पर एक लाख से भी कम, यानी हर सीट पर औसतन डेढ़ हजार से भी कम पोस्टल वैलेट यानी डाक मत्र पत्रों पर पूरा चुनावी फोकस आकर ठहर गया है। देखें हरीश रावत द्वारा सोशल मीडिया पर डाला गया पोस्टल वैलेट का वीडियो :

इसका कारण इस पूरे विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि है, और इसके लिए पिछले यानी 2017 के विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि को भी देखा जाना जरूरी है। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस की सरकार भी तमाम भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी थी। उसके मुखिया भ्रष्टाचार पर ‘आंखें मूंद’ लेने की बात’ कहते देखे-सुने गए थे। तीन चरणों में एक दर्जन विधायक सत्तारूढ़ दल को छोड़ गए थे। ऊपर से राज्य में प्रधानमंत्री ‘मोदी की लहर’ थी। ऐसे में भाजपा के नेता व कार्यकर्ताओं के साथ भाजपा के आम समर्थक मतदाता भाजपा की जीत के प्रति निश्चिंत और सोशल मीडिया के साथ गली-नुक्कड़ों पर भी मुखर थे। फिर भी कोई उम्मीद नहीं कर रहा था कि भाजपा को 70 में से 57 सीटें मिल जाएंगी और कांग्रेस 11 सीटों के साथ बमुश्किल दहाई का आंकड़ा छू पाएगी। लेकिन यह हुआ।

जबकि इधर, 2022 के विधानसभा चुनाव तक 2002, 2007, 2012 व 2017 के चार चुनावों में सत्ता परिवर्तन का मिथक मजबूत हो चुका है। प्रधानमंत्री मोदी का जादू मंद पड़ गया है, ऐसा बहुत से गैर भाजपाई लोगों को लगता है। उत्तराखंड में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की उत्तर प्रदेश जैसी संभावना भी कम लगती है। कहा जाता है कि भाजपा को त्रिकोणीय मुकाबले अधिक रास आते हैं। भाजपा विरोधी वोट बंटने पर ही भाजपा जीतती है। लेकिन उत्तराखंड में 70 में से करीब 50 सीटों पर भाजपा इस बार सीधे मुकाबले में रही। अन्य दल या निर्दलीय मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की स्थिति में नहीं रहे। इस आधार पर कांग्रेस चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने से पूर्व से आश्वस्त रही कि राज्य में हर पांच वर्ष में सत्ता परिवर्तन का मिथक बना रहेगा। हरीश रावत ने सार्वजनिक तौर यह बात कही भी।

यह भी हुआ कि  मतदान के बाद कांग्रेस 48 सीटों पर, जबकि भाजपा शुरू से 60 सीटों पर जीतने की बात करती रही। यह अलग बात है कि यदि दोनों दल सच बोल रहे हों तो राज्य में 108 यानी 38 सीटें अधिक होने पर ही ऐसे परिणाम आ सकते हैं। तय है दोनों अथवा दोनों में से कोई एक आंशिक अथवा पूरी तरह झूठ बोल रहा है।

बहरहाल, इस चुनाव में जमीनी हकीकत यह रही कि कांग्रेस के नेताओं, कार्यकर्ताओं व कांग्रेसी मतदाता इस बार अपनी जीत के प्रति अधिक आश्वस्त दिखे। कांग्रेस के चुनाव जीतकर सत्ता में लौटने की ‘लहर’ जैसी भी दिखी। इसका प्रभाव यह हुआ कि भाजपाई कार्यकर्ता और मतदाता सोशल मीडिया के साथ आम चर्चाओं में भी भाजपा की जीत की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त व मुखर नहीं रहे। इस तथ्य को यदि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में संचार के अंतर्गत ‘मौन के वलय का सिद्धांत’ की कसौटी पर कसा जाए तो पता चलता है कि जब किसी व्यक्ति को अपनी बात पर दूसरे की ओर से समर्थन न मिलने की संभावना लगती है, तो वह मौन हो जाता है। यानी वह अपनी बात को दूसरे के समक्ष रखने, उसे समझाने का प्रयास भी नहीं करता। यही इस चुनाव में भाजपा के लोगों ने भी नहीं किया। इससे कांग्रेस और भी अधिक अपनी जीत के प्रति आश्वस्त होती चली गई।

इस कारण ही कांग्रेस उत्तराखंड में चुनाव प्रचार के मामले में थमी सी रही। उसके प्रदेश अध्यक्ष से लेकर चुनाव संचालन समिति के अध्यक्ष व नेता प्रतिपक्ष तक कोई अपनी सीट से इतर दूसरी सीटों पर चुनाव प्रचार के लिए नहीं गए। उनके प्रदेश के प्रभारी भी राजधानी स्थित ‘वॉर रूम’ से बाहर चुनाव प्रचार के लिए नहीं निकले। पार्टी की स्टार प्रचारकों की घोषणा तो हुई पर राहुल गांधी व प्रियंका गांधी की सीमित जनसभाओं के इतर अधिकांश ‘स्टार’ ‘ईद के चांद’ बने रहे। जबकि पार्टी के प्रवक्ता केवल पत्रकार वार्ताओं तक सीमित रहे।

जबकि दूसरी ओर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री मोदी से लेकर अमित शाह, राजनाथ सिंह, जेपी नड्डा व योगी आदित्यनाथ के साथ ही प्रदेश के मुख्यमंत्री पूरे प्रदेश में भाजपा के पक्ष में अकेले-अकेले जोर लगाए रहे। अलबत्ता, मतदान के 24-48 घंटे पहले की ‘कयामत की रातों’ में कांग्रेस का ‘प्रबंधन’ भाजपा से कहीं आगे रहा।

ऐसे में ‘नवीन समाचार’ ने मतदान बाद खासकर कुमाऊं मंडल की अनेकों सीटों पर आम जनता का मन भांपने का प्रयास किया तो जमीनी हकीकत व चुनाव में जीत-हार की संभावना उससे कुछ अलग ही नजर आई, जिसकी संभावना व्यक्त की जा रही है। यहां भाजपा को वोट देने वाले लोग भी आपस में दु:खी से होते हुए यह बात करते नजर आए कि कांग्रेस चुनाव प्रचार के आखिरी दौर के ‘प्रबंधन’ की वजह से जीत रही है। लोग अपनी सीट पर कांटे का मुकाबला होने और दूर की दूसरी सीटों पर कांग्रेस के जीतने की संभावना जताते भी नजर आए।

चुनाव में कुछ सीटों पर प्रत्याशियों के द्वारा शराब और पैंसा पानी की तरह बहाया-बांटा गया, चुनाव परिणाम इन प्रत्याशियों के खिलाफ भी जा सकते हैं। जनता के लोग कहते सुने गए-इन्होंने हमारे बच्चों को बिगाड़ दिया है। हमारे ही रुपए तो दे रहे हैं। रुपए तो ले लेंगे लेकिन वोट नहीं देंगे। इसी तर्ज पर कई जगह सरकार द्वारा दिए गए राशन का जहां असर जनता के वोट पर दिखा है, वहीं कई लोग यह कहते भी सुने गए, सरकार ने अपनी जेब से नहीं दिया।

दूसरी ओर कांग्रेस की ओर से मोदी समर्थकों को नाराज न करते हुए उनके वोट प्राप्त करने के लिए ‘केंद्र में मोदी, उत्तराखंड में अपनी यानी कांग्रेस सरकार’ का नारा भी चलाया गया था। इसका असर भी चुनाव पर पड़ सकता है। मतदान पर महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दों का असर केवल कांग्रेसी मतदाताओं पर पड़ा नजर आ रहा है। अलबत्ता किसी कारण प्रभावित भाजपाई मतदाताओं के मतदाताओं के एक सीमित वर्ग ने किसी कारण प्रभावित होने पर ‘केंद्र में मोदी-उत्तराखंड में कांग्रेस’ या महंगाई-बेरोजगारी के मुद्दों का सहारा लिया है। अन्यथा भाजपा का बड़ा मतदाता वर्ग प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर अडिग रहा है।

इसके अलावा कांग्रेस को वोट देने वाले लोग इस बात को स्वीकार करते हुए नजर आए कि मोदी लहर उनकी उम्मीद से कहीं अधिक, बल्कि पिछली बार से भी अधिक मजबूत थी। इसलिए उनका प्रत्याशी जीत तो जाएगा, किंतु कांटे के मुकाबले में और मामूली अंतर से। उतने अंतर से नहीं, जितने के पहले दावे किए जा रहे थे। इस बात की पुष्टि कांग्रेस के डाक मत पत्रों के लिए इतना अधिक चिंतित होने से भी हो रही है। इस प्रकार लगता है कि इस बार के चुनाव परिणाम निश्चित ही उतने चौंकाने वाले हो सकते हैं, जितनी कोई उम्मीद भी नहीं कर रहा है…..। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : हरीश रावत की तरह उत्तराखंड के एक दर्जन नेता भी या तो इतिहास रचेंगे या घर बैठेंगे !

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 16 फरवरी 2022। उत्तराखंड की 70 सीटों पर मतदान हो चुका है, और 632 प्रत्याशियों की किस्मत 10 मार्च तक के लिए ईवीएम में कैद हो चुकी है। इसका सभी को इंतजार रहेगा। इस चुनाव में राज्य की राजनीति में कुछ ऐसे नेताओं की किस्मत भी दांव पर लगी है, जो हारे तो राजनीति से आउट हो जाएंगे और जीते तो इतिहास के साथ रिकॉर्ड भी बनाएंगे।

इस सूची में पूर्व मुख्यमंत्री तथा कांग्रेस के चुनाव अभियान की कमान संभाल रहे पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, 7वीं जीत के लिए चुनाव लड़ रहे बंशीधर भगत, 5 बार से विधायक और कैबिनेट मंत्री रहे बिशन सिंह चुफाल, राजनीतिज्ञ और आध्यात्मिक गुरू सतपाल महाराज और पूर्व कैबिनेट मंत्री और उत्तराखंड क्रांति दल के प्रदेश अध्यक्ष रहे दिवाकर भट्ट, सतपाल महाराज, मातबर सिंह कंडारी, डॉ. हरक सिंह रावत, तिलक राज बेहड़, ऋतु खंडूड़ी, चंद्रा पंत, त्रिलोक चीमा शामिल हैं, जो हारे तो उनका राजनीतिक कॅरियर दांव पर लग सकता है।

सबसे पहले बात हरीश रावत यानी हरदा की। 73 वर्ष के हरदा मतदान निपटने के बाद अपने पहले बड़े बयान में कह चुके हैं, या तो मुख्यमंत्री बनेंगे या घर बैठेंगे। साफ है कि यह चुनाव उन्हें या तो राज्य का दूसरी बार बनने का मौका देगा, अन्यथा वह खुद ही घर बैठने तथा पूर्व में राजनीति से सन्यास लेने की बात कह चुके हैं।

दूसरा नाम बंशीधर भगत का है। 7वीं जीत के लिए चुनाव लड़ रहे बंशीधर भगत इस चुनाव से पहले ही चुनाव न लड़कर अपने बेटे को कालाढुंगी की अपनी राजनीतिक विरासत सोंपने की बात कर रहे थे, लेकिन पार्टी ने उन्हें ही टिकट दिया। बंशीधर मैदान में उतरे लेकिन चुनाव से दो दिन पहले उनके जैसे अश्लील ऑडियो सामने आए, उनके पूर्व में तत्कालीन मंत्री डॉ. इंदिरा हृदयेश के लिए की गई टिप्पणी के बाद किसी के मन में उनकी छवि और उनके बयान के प्रति संशय नहीं रहा। बंशीधर ने भी किसी तरह की सफाई नहीं दी। बहरहाल, बंशीधर यह चुनाव जीते तो लगातार 8 जीत का रिकॉर्ड बनाएंगे और हारेंगे तो राजनीति से बाहर हो जाएंगे। क्योंकि उनके लिए तय माना जा रहा है कि उनका यह आखिरी चुनाव था। हालांकि यह कहने में भी गुरेज नहीं कि राजनेताओं के लिए आखिरी कुछ नहीं होता। पूर्व सीएम एनडी तिवारी ने कई चुनाव अपना आखिरी चुनाव बताकर लड़े।

इस सूची में तीसरा नाम छठी बार चुनाव मैदान में मौजूद बिशन सिंह चुफाल का है। चुफाल भी कमोबेश अपना आखिरी चुनाव लड़े हैं, और अपनी राजनीतिक विरासत अपनी बेटी को सोंपने के हामी हैं। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके चुफाल डीडीहाट विधानसभा से लगातार 5 बार से विधायक हैं। 1996 में उत्तर प्रदेश राज्य में पहली बार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे, तब से अपनी सीट में हमेशा अजेय रहे हैं।

सूची में चौथा नाम उत्तराखंड क्रांति दल के अध्यक्ष और मंत्री रह चुके दिवाकर भट्ट का है। 2007 में भाजपा की भुवन चंद्र खंडूरी के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के समय सहयोगी उत्तराखंड क्रांति दल उक्रांद के कोटे से सिंचाई मंत्री रहे भट्ट बाद में वर्ष 2012 में भाजपा में शामिल हो गये। 2017 में भाजपा के प्रत्याशी विनोद कंडारी के सामने निर्दलीय चुनाव लड़े और हारे लेकिन भाजपा ने उन्हें निष्कासित कर दिया। अब भट्ट पुनः विनोद कंडारी के खिलाफ इस चुनाव में मजबूत स्थिति मंे उत्तराखंड क्रांति दल के रूप में देवप्रयाग से चुनाव लड़ रहे हैं। 70 पार के दिवाकर के लिए भी यह चुनाव राजनीतिक भविष्य तय करने वाला हो सकता है।

इसी तरह यह चुनाव कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए पूर्व सांसद, केंद्रीय मंत्री व राज्य के कबीना मंत्री के अलावा आध्यात्मिक गुरु के तौर पर जाने जाने वाले सतपाल महाराज के लिए यह चुनाव राजनीतिक भविष्य तय करने वाला हो सकता है। इसके अलावा इस चुनाव में राज्य में भाजपा सरकार में कबीना मंत्री रहने के बाद कांग्रेस में शामिल हुए और अब कांग्रेस के बागी के रूप में रुद्रप्रयाग से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे मातबर सिंह कंडारी तथा भाजपा के बाद कांग्रेस द्वारा भी उपेक्षित कर दिए गए डॉ. हरक सिंह रावत के लिए भी यह चुनाव महत्वपूर्ण होने जा रहा है, जो अपना प्रभाव 30 सीटों पर बता रहे थे, परंतु इस चुनाव में केवल अपनी बहु अनुकृति गुसांई की लैंसडाउन सीट पर उलझकर रह गए। इसी तरह रुद्रपुर में लगातार दो चुनाव हारने के बाद किच्छा से चुनाव लड़ रहे कांग्रेस सरकार के पूर्व मंत्री तिलक राज बेहड़ के लिए भी हारने पर यह चुनाव राजनीतिक कॅरियर का अंतिम चुनाव साबित हो सकता है।

इसके अलावा यह चुनाव भाजपा के दिवंगत दिग्गज नेता प्रकाश पंत की पत्नी चंद्रा पंत और पूर्व सीएम भुवन चंद्र खंडूड़ी की पुत्री ऋतु खंडूड़ी के राजनीतिक कॅरियर के लिए निर्णायक हो सकते हैं, क्योंकि दोनों किसी तरह दूसरी बार टिकट पाने में सफल रही हैं, लेकिन हारीं तो उनका राजनीतिक कॅरियर भी समाप्त हो सकता है। इसी तरह काशीपुर सीट पर भाजपा के दिग्गज विधायक हरभजन सिंह चीमा की जगह उनकी विरासत संभालने रहे उनके पुत्र त्रिलोक चीमा के लिए भी यह चुनाव राजनीतिक कॅरियर की दिशा निर्धारित करने वाला हो सकता है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

ह भी पढ़ें : जनता को पहाड़ चढ़ाने वाले नेता ही ‘रणछोड़’ बन कर गये पहाड़ से ‘पलायन’

-मौजूदा विस चुनाव में ‘रणछोड़’ बताए जा रहे पूर्व सीएम हरीश रावत के अलावा कोश्यारी, बहुगुणा, निशंक, हरक भी कर चुके हैं अपनी पर्वतीय सीटों से मैदानों की ओर पलायन
-एक दौर में यूपी के सीएम चंद्रभान गुप्ता ने पहाड़ की रानीखेत विधानसभा से लड़ा था चुनाव
-अब जनता पर कि ‘रणछोड़’ नेताओं को सबक सिखाती है कि स्वयं भी पहाड़ से पलायन कर पहाड़ की ‘नराई’ ही लगाती रहती है
पलायन की वजह से यहां खाली हो गए 1200 गांव, अब सरकार करने जा रही ये बड़ा काम  | News Track in Hindiडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 2 फरवरी 2022। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने नैनीताल उच्च न्यायालय में हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के एक कार्यक्रम में 12 नवंबर 2014 को अधिवक्ताओं के बीच पलायन पर गहरी चिंता प्रकट करते हुए कहा था, ‘तो क्या पहाड़ पर बुल्डोजर चला दूं। प्रदेश के अधिकारी-कर्मचारी पहाड़ पर तैनाती के आदेशों पर ऐसी प्रतिक्रिया करते हैं, मानो किसी ने उनके मुंह में नींबू डाल दिया हो…’

उनका तात्पर्य पहाड़ों पर बुल्डोजर चलाकर उन्हें मैदान कर देने से था, ताकि पहाड़-मैदान में असुविधाओं का भेद मिट जाये। लेकिन इस वक्तव्य के करीब सवा दो वर्ष बाद ही उनकी अगुवाई में ही जब उनकी पार्टी के प्रत्याशियों की सूची जारी हुई तो स्वयं रावत ही अपनी धारचूला सीट छोड़कर दो-दो मैदानी सीटों-किच्छा और हरिद्वार ग्रामीण सीटों पर पलायन कर गये थे। इस बार भी वह पहले पहाड़ की मानी जाने वाली रामनगर की जगह भाबर की ‘लालकुआं’ सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। जबकि एक दौर में पूर्ववर्ती राज्य यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभान गुप्ता (1960 में) पहाड़ की रानीखेत सीट से चुनाव लड़े और जीते थे। अकबर अहमद डम्पी जैसी मैदानी नेता भी राज्य बनने से पूर्व पहाड़ से चुनाव लड़ने से गुरेज नहीं करते थे।

गौरतलब है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में जनाक्रोश भड़कने और लोगांे के आंदोलित होने में पलायन की गंभीर समस्या सर्वप्रमुख थी। लेकिन पलायन का मुद्दा राज्य बनने के बाद पहली बार 2001 में हुई जनगणना में ही पहाड़ की जनसंख्या के बड़े पैमाने पर मैदानों की ओर पलायन करने से हाशिये पर आना शुरू गया। यहां तक कि राज्य में 2002 के बाद पांच वर्ष के भीतर ही 2007 में दूसरी बार विस सीटों का परिसीमन न केवल बिना किसी खास विरोध के हो गया, वरन नेता मौका देख कर स्वयं ही नीचे मैदानों की ओर सीटें तलाशने लगे। 2007 के नये परिसीमन के तहत पहाड़ों का पिछड़ेपन, भौगोलिक व सामाजिक स्थिति की वजह से मिली छूटें छीन ली गयीं, और पहाड़ की छह विस सीटें घटाकर मैदान की बढ़ा दी गयीं।

पहली बार नये परिसीमन पर हुए 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस नेता डा. हरक सिंह रावत, अमृता रावत व यशपाल आर्य सहित कई नेता पहाड़ छोड़कर मैदानी सीटों पर ‘भाग’ आये। अलबत्ता यशपाल ने अपने पुत्र संजीव आर्य को नैनीताल भेजकर एक तरह से पहाड़ के प्रति कुछ हद तक सम्मान का परिचय भी दिया। इस बार की बात करें तो पूर्व सीएम हरीश रावत व उनकी बेटी अनुपमा रावत के साथ विजय बहुगुणा केे बेटे सौरभ बहुगुणा और नैनीताल के डॉ. महेंद्र पाल सिंह भी पहाड़ की जगह मैदानी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और उनके खिलाफ कांग्रेस के प्रत्याशी भी पहाड़ी मूल के होने के बावजूद खटीमा को अपनी कर्मभूमि बनाए हैं, और यहीं से फिर चुनाव मैदान में हैं। बहरहाल, अब जनता को तय करना है कि वे अपने पहाड़ के इन ‘रणछोड़’ नेताओं का क्या भविष्य तय करती है। याकि स्वयं भी पहाड़ से पलायन कर पहाड़ की ‘नराई’ ही लगाती रहती है।

बड़े नेता भी पीछे नहीं रहे पहाड़ की उपेक्षा करने में
नैनीताल। पहाड़ की उपेक्षा करने में पहाड़ के बड़े नेता भी पीछे नहीं रहे। यहां तक कहा जाता है कि पहाड़ के कई बड़े नेता अलग पर्वतीय राज्य का इसलिये विरोध करते थे कि इससे कहीं उनकी पहचान भी छोटे राज्य की तरह सिमट न जाये। वहीं लोक सभा चुनावों में भी कांग्रेस के बड़े हरीश रावत से लेकर दूसरे पूर्व सीएम डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ अपनी परंपरागत सीट छोड़कर हरिद्वार तो भाजपा के पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय बची सिंह रावत व केंद्रीय मंत्री अजय भट्ट को नैनीताल-ऊधमसिंह नगर सीट पर उतरने से कोई गुरेज नहीं रहा।

वहीं एक अन्य पूर्व सीएम नारायण दत्त तिवारी पहाड़ के होते हुए भी कमोबेश हमेशा ही काशीपुर व रामनगर की मैदानी सीटों से चुनाव लड़े। कुछ इसी तरह पर्वत पुत्र कहे जाने वाले हेमवती नंदन बहुगुणा को भी पहाड़ की बजाय मैदानी सीटें ही अधिक रास आईं। स्वर्गीय प्रकाश पंत भी एक बार चुनाव लड़ने को तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का मुकाबला करने सितारगंज आए लेकिन हार के बाद पिथौरागढ़ लौट गए और उनके देहांत के बाद उनकी पत्नी चंद्रा पंत यहां से विधायक हैं और दुबारा चुनाव मैदान में हैं। जबकि विजय बहुगुणा के पुत्र सौरभ बहुगुणा ने सितारगंज को ही अपनी कर्मभूमि बना लिया। वे इस बार भी यहीं से भाजपा प्रत्याशी हैं।

जबकि ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मैदानी मूल के होने के होने के होने के बावजूद 1960 में पहाड़ की रानीखेत विधानसभा सीट से चुनाव लड़े और जीते थे। उनके अलावा भी पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, भाजपा नेता तरुण विजय व कांग्रेस नेता राजबब्बर सहित कई नेता उत्तराखंड की सीटों से राज्य सभा में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।

पहाड़ के छह फीसद गांव खाली, 32 लाख लोग कर चुके पलायन
नैनीताल। उत्तराखंड प्रदेश में विकास के लिये अरबों रुपये कर्ज लेने के बाद भी राज्य की अवधारणा के अनुरूप पलायन नहीं रुका है। एक दशक पुरानी 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश के 1,793 गांवों में 1,053 यानी करीब छह फीसद गांव खाली हो चुके हैं, बल्कि इन्हें ‘भुतहा गांव’ (घोस्ट विलेज) कहा जा रहा है। वहीं कुल मिलाकर करीब सवा करोड़ की आबादी वाले इस राज्य की पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाली 60 लाख की आबादी में से 32 लाख लोगों का पलायन हो चुका है।

प्रदेश के अधिकांश बड़े राजनेताओं (कोश्यारी, बहुगुणा, निशंक, हरीश रावत व यशपाल आर्य) ने भी अपने लिये मैदानी क्षेत्रों की सीटें तलाश ली हैं। यही नहीं पहाड़ के भूमिया, ऐड़ी, गोलज्यू, छुरमल, ऐड़ी, अजिटियां, नारायण व कोटगाड़ी सहित पहाड़ों के कई कुल व ईष्ट देवताओं के मंदिरों को मैदानों पर स्थापित कर एक तरह से उनका भी पलायन कर दिया गया है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : अजब-गजब: उत्तराखंड की एक ‘लकी’ सीट पर पति-पत्नी चुनाव में साथ भी और आमने-सामने भी, राजनीतिक निष्ठाएं भी दांव पर

Uttarakhand Election 2022 : सोमेश्वर विधानसभा सीट पर पत‍ि पत्‍नी एक दूसरे के ख‍िलाफ चुनाव लड़ रहे हैं।नवीन समाचार, अल्मोड़ा, 31 जनवरी 2022। चुनाव में अजब-गजब मामले भी प्रकाश में आते हैं। राज्य के अल्मोड़ा जिले की एकमात्र आरक्षित विधानसभा सोमेश्वर में जहां प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री रेखा आर्या प्रत्याशी हैं, और यह सीट विजयी रहने वालों के लिए विधानसभा से सीधे संसद जाने और मंत्री बनने के संयोगों के साथ काफी ‘लकी’ सीट मानी जाती है, वहीं इस बार यह सीट एक अलग कारण, पति-पत्नी के एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव मैदान में होने को लेकर भी चर्चा में है।

यहां समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी बलवंत आर्या के साथ ही उनकी पत्नी मधुबाला निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ रही हैं। दोनों में से किसी ने नाम भी वापस नहीं लिया है, और अब दोनों अन्य प्रत्याशियों के साथ ही एक-दूसरे के खिलाफ भी चुनाव मैदान में हैं।

उल्लेखनीय है कि सोमेश्वर सीट के दो पूर्व विधानसभा प्रत्याशी अजय टम्टा व प्रदीप टम्टा न केवल लोक सभा व राज्य सभा सांसद बल्कि अजय केंद्र में जबकि रेखा टम्टा राज्य में मंत्री बने हैं। इस लिहाज से यह काफी ‘लकी’ सीट मानी जाती है। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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वंशवाद की राजनीति में गरीबों का लोकतंत्र | Dynasty and Money Politics in UP  Assembly Election 2017 - Hindi Oneindiaडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 28 जनवरी 2022। उत्तराखंड में आसन्न विधानसभा चुनाव में वंशवाद की बेल और बढ़ेगी। राज्य के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा-कांग्रेस ने राजनीतिक वंशवाद की बेल को आगे बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। दलील दी जा रही है कि जब किसान का बेटा किसान, व्यवसायी का बेटा व्यवसायी हो सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं हो सकता है। इस तरह जिस तरह दोनों दलों ने दलबदलुओं को टिकट देकर दलबदलू का मुद्दा खो दिया है, वैसे ही वंशवाद भी दोनों दलों के लिए बोलने लायन मुद्दा नहीं रह गया है। यही स्थिति कई सीटों पर बाहरी-भीतरी व पैराशूट प्रत्याशी जैसे मुद्दों पर भी है।

कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के एक परिवार से एक ही प्रत्याशी को टिकट देने के फॉर्मूले के विपरीत स्वयं चुनाव संचालन समिति के अध्यक्ष हरीश रावत ने खुद के साथ अपनी बेटी अनुपमा रावत को टिकट दे दिया। वरिष्ठ नेता यशपाल आर्य व संजीव आर्य को भी टिकट मिले, अलबत्ता भाजपा से निष्काशित हरक का जरूर इस आधार पर टिकट काट दिया गया कि उनकी बहु अनुकृति गुसांई को टिकट दे दिया गया। स्वर्गीय डॉ. इंदिरा हृदयेश के पुत्र सुमित हृदयेश, पूर्व सांसद केसी बाबा के पुत्र नरेंद्र चंद्र सिंह एवं पूर्व विधायक स्वर्गीय सुरेंद्र राकेश की विधायक पत्नी ममता राकेश को भी कांग्रेस ने टिकट दिया गया है।

इसके अलावा भाजपा की बात करें तो स्वर्गीय हरबंश कपूर की पत्नी सविता कपूर, स्वर्गीय प्रकाश पंत की पत्नी व विधायक चंद्रा पंत, विधायक कुंवर प्रणव चैंपियन का टिकट काटकर उनकी पत्नी कुंवरानी देवयानी, विधायक हरभजन चीमा का टिकट काटकर उनके पुत्र त्रिलोक चीमा, पूर्व सीएम भुवन चंद्र खंडूड़ी की पुत्री विधायक ऋतु भूषण खंडूड़ी व पूर्व सीएम विजय बहुगुणा के पुत्र सौरभ बहुगुणा को भी टिकट दिए गए हैं। इनके अलावा पूर्व विधायक स्वर्गीय सुरेंद्र सिंह जीना के भाई विधायक महेश जीना को भी टिकट दिया गया है। लैंसडाउन के कद्दावर नेता भारत सिंह रावत के पुत्र दो बार के विधायक महंत दिलीप सिंह रावत, से है जिन्होंने 2012 में अपने पिता एवं क्षेत्र के की राजनीतिक विरासत संभाली थी। जबकि पूर्व विधायक स्वर्गीय मगन लाल साह की पत्नी विधायन मुन्नी साह का टिकट काटा गया है। (डॉ. नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : तो भाजपा ने बड़बोले-अशिष्ट व जनता की उम्मीदों पर खरे न उतरे विधायकों के लिए अपनी चुनावी संभावनाओं को भी ताक पर रखा…

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 27 जनवरी 2022। कांग्रेस ने रुद्रपुर विधानसभा से अपने विधायक राजकुमार ठुकराल का टिकट काट दिया। वह भी तब जब ठुकराल पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य में सर्वाधिक वोटों से चुनाव जीते थे, और इस बार भी वह पार्टी के सर्वेक्षणों में निर्विवाद तौर पर जीत रहे थे। उनकी वजह से रुद्रपुर से कांग्रेस के प्रत्याशी पूर्व मंत्री तिलक राज बेहड़ को किच्छा पलायन करना पड़ गया। फिर भी भाजपा ने ठुकराल का टिकट काट दिया और जिलाध्यक्ष शिव अरोड़ा को टिकट देकर अपनी चुनाव जीतने की संभावनाएं कम कर दी हैं।

कहना गलत न होगा कि ठुकराल का टिकट केवल उनके बड़बोलेपन, विधायक पद की गरिमा के विपरीत अपशब्दों के प्रयोग, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के लिए भी उनके गालियों वाले वीडियो वायरल होने का परिणाम है। कुछ इसी तरह भाजपा ने अपने दो और बड़बोले विधायकों कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन और देशराज कर्णवाल के टिकट भी काट दिए हैं जो खुद को पार्टी से बड़ा मानने लगे थे। चैंपियन तो कई बार पार्टी व पार्टी नेताओं के साथ ही राज्य के लिए भी अपशब्द बोल चुके थे। यहां भाजपा ने भले उनकी पत्नी को टिकट दे दिया, लेकिन उनका टिकट काटकर साफ संकेत दिया है कि इस तरह का बड़बोलापन बर्दास्त नहीं किया जाएगा। ऐसी ही सजा कर्णवाल को भी टिकट काटकर दी गई है।

इसके अलावा पार्टी ने पिछले चुनाव में दूसरे नंबर के सर्वाधिक वोटों से चुनाव जीते लालकुआं विधायक नवीन दुम्का और विधानसभा उपाध्यक्ष जैसे सम्मानित पद पर रहने वाले अल्मोड़ा विधायक रघुनाथ सिंह चौहान का टिकट काटकर भी दिया है, जो जनताा की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाए। खासकर दुम्का जो 2017 में उनके पक्ष में उमड़ आए पार्टी कार्यकर्ताओं को खुद से जोड़कर नहीं रख पाए, और जनता में भी अपने प्रति प्रेम व विश्वास को बरकरार नहीं रख पाए। इसी तरह द्वाराहाट के विधायक महेश नेगी का भी टिकट काटा गया है, जिन पर एक महिला ने अपनी बच्ची का पिता होने का आरोप लगाया था। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : कांग्रेस ने किशोर के लिए दुविधा की समाप्त, भाजपा से मैदान में उतरेंगे

Uttarakhand Congress leader Kishore Upadhyay removed from all postsनवीन समाचार, देहरादून, 27 जनवरी 2022। पिछले कुछ दिनों की संशयपूर्ण स्थिति और दोनों ओर से चल रही धैर्य टूटने की परीक्षा में आखिर कांग्रेस का धैर्य पहले टूटा। कांग्रेस पार्टी ने अपने पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और कभी हरीश रावत के बेहद खास और उत्तराखंड आंदोलन के दौर में हरीश रावत को राज्य विरोधी की छवि से बाहर निकालने वाले किशोर उपाध्याय को पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाते छह वर्ष के लिए पार्टी से बाहर निकाल दिया है।

इसके बाद किशोर उपाध्याय को लेकर दुविधा समाप्त हो गई है। किशोर आज निःसंकोच भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर सकते हैं। अलबत्ता उनकी सीट को लेकर जरूर संशय है। टिहरी की उनकी परंपरागत सीट पर भाजपा विधायक धन सिंह नेगी अपना टिकट कटने को लेकर आशंकित हैं, जबकि भाजपा के पास उनके लिए टिहरी के अलावा डोईवाला का विकल्प भी है, जहां से टिकट घोषित किया है।

गौरतलब है कि दूसरी ओर ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस पार्टी पिछले दिनों भाजपा से कांग्रेस में शामिल हुए हरक सिंह रावत को टिकट नहीं देने जा रही है। टिकट की तीन सूचियां जारी होने के बावजूद इनमें हरक का नाम नहीं है, साथ ही उनकी पसंद की डोईवाला, लैंसडाउन व चौबट्टाखाल से कांग्रेस अपने प्रत्याशी घोषित कर चुकी है। लैंसडाउन से हरक की बहु अनुकृति को टिकट दिया गया है। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : राजनीति में नेताओं की अपने दलों की निष्ठाएं केवल टिकट तक ?

-आज भाजपा-उक्रांद के एक पूर्व विधायक कांग्रेस से जुड़े, कल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष भाजपा में शामिल होंगे !

 BJP को एक और तगड़ा झटका,पूर्व विधायक ओमगोपाल रावत कांग्रेस में शामिलडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 26 जनवरी 2022। जी हां, राजनीति में नेताओं की अपने दलों की निष्ठाएं केवल टिकट तक सीमित हैं। आज उक्रांद से भाजपा में आए के एक पूर्व विधायक ओम गोपाल रावत ने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली, जबकि कल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के भाजपा में शामिल होने की पूरी संभावना है। हालांकि किशोर उपाध्याय के आज भी अपराह्न दो बजे भाजपा में शामिल होने की चर्चा थी, लेकिन आखिरी क्षणों में यह कार्यक्रम टला।

बताया जा रहा है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों दल अपनी रणनीति से दूसरे को संभलने का मौका नहीं देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। भाजपा ने कांग्रेस से पहले टिकट घोषित करके कुछ हद तक यह मौका खोया। पार्टी ने नरेंद्र नगर सीट से कबीना मंत्री सुबोध उनियाल को टिकट दिया तो उन्हें पूर्व में चार वोटों से हराने वाले ओम गोपाल रावत को पार्टी बदलने, कांग्रेस से बात करने का समय मिल गया और आज वह कांग्रेस में शामिल हो गए। समय न मिले, इसी रणनीति के तहत भाजपा ने हल्द्वानी, लालकुआं सहित कई सीटों पर प्रत्याशी घोषित नहीं किए।

यदि यही रणनीति भाजपा ने रामनगर व बाजपुर सहित कुछ अन्य सीटों पर भी अपनाई होती तो राजनीतिक जानकार मानते हैं कि आज कुछ स्थिति अलग होती। कांग्रेस के नाराज व टिकट से वंचित दावेदार भाजपा में आ सकते थे। इसके उलट हल्द्वानी में टिकट घोषित न करने का परिणाम कांग्रेस से सुमित हृदयेश को कांग्रेस का टिकट मिल जाने के रूप में भी हुआ। यदि सुमित को कांग्रेस टिकट नहीं देती तो उनके पास अपना राजनीतिक भविष्य तय करने के विकल्प मौजूद होते।

बहरहाल, अब बात किशोर उपाध्याय की। बताया जा रहा है कि किशोर और भाजपा दोनों तय कर चुके हैं कि किशोर को टिहरी से टिकट दिया जाएगा। कांग्रेस उनके कांग्रेस छोड़कर जाने की स्थिति में असहज होने से बचने के लिए उन्हें पार्टी के सभी पदों से निष्काशित भी कर चुकी है, और उन्हें टिकट देने की घोषणा भी नहीं की गई। अब माना जा रहा है कि भाजपा उन पर शुक्रवार को कोई निर्णय ले सकती है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : तो निशाने पर लगा प्रधानमंत्री मोदी का केदारनाथ में हिंदुत्व के मोर्चे पर बढ़ाया गया कदम

Tour Of Pm Modi In Kedarnath And Badrinath - वाराणसी में वोटिंग से पहले  बाबा केदारनाथ की शरण में जाएंगे पीएम, इस गुफा में साधना करेंगे मोदी |  Patrika Newsडॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 6 नवंबर 2021। केदारनाथ धाम में दीपावली के अगले दिन रुद्राभिषेक तथा आदि गुरु शंकराचार्य की पुनर्निर्मित समाधि और प्रतिमा का अनावरण कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां एक ओर भाजपा के लिए हिंदुत्व के मोर्चे पर एक और कदम बढ़ा दिया है, वहीं ऐसा लगता है कि उनका यह तीर निशाने पर भी लगा है। देखें विडियो :

शायद इसी की बानगी है कि कांग्रेस को भी पूर्व सीएम हरीश रावत की अगुवाई में प्रधानमंत्री मोदी को निशाने पर लेना पड़ा और खुद भी मंदिरों का रुख करना पड़ा। अलबत्ता, यह भी है कि भाजपा का हिंदुत्व तो उसके कैडर मतदाताओं में असर करता है, लेकिन कांग्रेस का हिंदुत्व की ओर उठता कोई भी कदम हिंदू मतदाताओं को प्रभावित नहीं करता और कांग्रेस के अल्पसंख्यक कैडर में भी पार्टी की ढुलमुल छवि बनती है, और विकल्प उपलब्ध होने पर वह दूसरे दलों की ओर भी कटते हैं।

इस बार तो बाबा के दर पर हरीश रावत की अगुवाई में पंजाब कांग्रेस के नेताओं के बीच दिखाई गई एका भी दो दिन में ही बिखर गई। जबकि रावत द्वारा पहले दौरे पर बाबा से मांगा सत्ता में वापसी का आशीर्वाद फलीभूत होगा या नहीं, यह अभी भविष्य के गर्भ में है।

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी चाहे जितनी बार केदारनाथ आए हों, और तब चाहे उनके हिंदुत्व पर विपक्ष की ओर से सवाल न उठे हों, परंतु आसन्न विधानसभा चुनाव के दृष्टिगत उनके कदम को विपक्ष का चुनावी दौरा कहना एक तरह से खीझ मिटाने वाला ही लगता है। क्योंकि इससे एक सप्ताह पूर्व ही कांग्रेस नेता हरीश रावत दो बार केदारनाथ हो आए और पहली बार तो वहां नाचते भी दिखे।

बावजूद उनके दौरे को किसी ने उस तरह नोटिस नहीं किया, जैसा मोदी के दौरे को किया गया। रावत अपने दो दौरों से मोदी की तरह हिंदू मतदाताओं को वैसा संदेश भी नहीं दे पाए, जैसा मोदी अपने एक दौरे से दे गए हैं। ऐसा इसलिए कि चुनाव के मौके पर ‘जनेऊधारी’ राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी की चुनाव के दौरान मठ-मंदिरों की परिक्रमा के पदचिन्हों पर चलते हुए हरीश रावत और उनके द्वारा प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल को भगवान गणेश से जोड़ना हिंदू मतदाताओं पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ता है। 

रावत अपने दो दौरों से मोदी की तरह हिंदू मतदाताओं को वैसा संदेश भी नहीं दे पाए, जैसा मोदी अपने एक मोदी से दे गए हैं। ऐसा इसलिए कि चुनाव के मौके पर ‘जनेऊधारी’ राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी की चुनाव के दौरान मठ-मंदिरों की परिक्रमा के पदचिन्हों पर चलते हुए हरीश रावत और उनके द्वारा प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल को भगवान गणेश से जोड़ना हिंदू मतदाताओं पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ता है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : यशपाल-संजीव के साथ काऊ को भी करनी थी कांग्रेस में घर वापसी, पर अचानक कैसे बदला खेल और अब क्यों बदल गए हैं काऊ व हरक के सुर, जानें इनसाइड स्टोरी…

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 14 अक्टूबर 2021। गत 11 अक्टूबर को यशपाल-संजीव के साथ भाजपा विधायक उमेश शर्मा ‘काऊ’ को भी कांग्रेस में घर वापसी करनी थी। ऐसी खबरें पुख्ता तौर पर मीडिया में थीं, लेकिन अचानक ऐसा कुछ हुआ कि काऊ कांग्रेस भवन से ही गायब हो गए और अब उनके ही नहीं अब तक तल्ख रहे कबीना मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत के सुर भी बदल गए हैं। ऐसा क्या हुआ, जानें इस सबकी इनसाइड स्टोरी…

तो क्या टॉयलेट के बहाने रफ्फूचक्कर हो गए उमेश काऊ, क्या दिया इसका लालच? |  Khabar Uttarakhand Newsकाऊ के कांग्रेस भवन जाने के बावजूद कांग्रेस पार्टी में शामिल न होने की इनसाइड स्टोरी सामने आई है। स्वयं काऊ भी इस बारे में कुछ-कुछ बोले हैं। दरअसल अब इस मामले में जानकारी आई है कि यशपाल-संजीव एवं काऊ जब राहुल गांधी के घर ‘घर वापसी’ के लिए पहुंचे थे, और उनकी राहुल गाधी से मुलाकात होनी थी।

इस बीच राहुल गांधी को, जैसी कि उनकी मिलने वालों को ‘लटकाने’ की आदत है, उनसे आने में थोड़ा विलंब हुआ, तभी भाजपा के राज्य सभा सांसद अनिल बलूनी और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक का फोन उन्हें आ गया। इस पर काऊ टॉयलेट जाने के बहाने सबके बीच से किनारे हुए और बात की, और इसके बाद वह गायब हो गए। ऐसे गायब हुए कि वह राहुल गांधी के आवास से ही बाहर निकल आए और फिर कांग्रेस नेताओं के संपर्क में ही नहीं आए।

इस बीच भाजपा नेताओं की उनसे क्या बात हुई और ऐसे क्या हालात बने की काऊ इस तरह राहुल गांधी के घर से गायब हुए, इस पर कुछ अपुष्ट बातें सामने आ रही हैं। पहला भाजपा नेताओं की ओर से उन्हें यशपाल की खाली हो रही कबीना मंत्री की कुर्सी देने की पेशकश हुई। दूसरी बात यह भी थी कि काऊ खुद के साथ हरक की भी साथ में कांग्रेस में वापसी चाहते थे, ताकि कांग्रेस में लौटकर भी अपना ‘दबाव समूह’ बनाए रखना चाहते थे, लेकिन हरीश रावत ने हरक के नाम पर ‘वीटो’ लगा रखा था। इसलिए भाजपा नेताओं के फोन के बाद अकेले कांग्रेस में शामिल होने पर उनके कदम ठिठक गए। इधर यह घटनाक्रम भी हुआ है कि हरिद्वार की डाम कोठी में हरक एवं मदन कौशिक के बीच लंबी ‘राजनीतिक वातार्’ भी हुई है।

इन घटनाक्रमों का असर अब दिखने भी लगा है। हरक ने जहां हरीश रावत को उनके ‘पापी’ संबंधी बयान पर ‘महापापी कहकर कड़ा प्रत्युत्तर दिया है, वहीं काऊ ने भी यह कहकर खुद को भाजपा के प्रति समर्पित बताने का प्रयास किया है कि पुष्कर सिंह धामी के मुख्यमंत्री बनने के दिन यशपाल, हरक और सतपाल नाराज थे और शपथ नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने ही यानी काऊ ने इन स्थितियों में मध्यस्थ की भूमिका निभाकर तीनों को शपथ लेने के लिए तैयार किया था और उन्हें बड़े व अधिक मंत्रालय दिलाकर उनका ‘कद’ बढ़वाया था।

इन स्थितियों के बीच जहां हरीश रावत बागियों के माफी मांगने की जिद पर अड़े हुए हैं, वह खुद से ऊपर भी किसी को नहीं देखना चाहते, ऐसे में अब लगता है कि फिलहाल भाजपा से किसी भी पूर्व कांग्रेसी की कांग्रेस में वापसी होनी फिलहाल संभव नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा ने अब विधायकी से भी त्यागपत्र दे चुके यशपाल व संजीव से मुक्त होकर अपना बाकी घर बचा लिया है। इसके बाद बताया जा रहा है कि भाजपा कांग्रेस पर हमले तेज कर इस नुकसान की भरपाई का प्रयास करेगी। इस हेतु कुछ ऑडियो मीडिया में लाने की तैयारी चल रही है…..। अन्य नवीन समाचार पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : दलों के दलदल से यशपाल-संजीव के बाद दल-बदल पर एक राजनीतिक विश्लेषण

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 13 अक्टूबर 2021। भाजपा के तीन विधायकों को अपने खेमे में करने के बाद यशपाल आर्य की पुत्र संजीव आर्य समेत कांग्रेस में वापसी अंतिम नहीं दलों के दलदल में निष्ठाओं के बदलने का बीच का पड़ाव है। भाजपा-कांग्रेस दोनों ओर से इसके प्रयास तेज हैं। आम आदमी पार्टी सहित अन्य पार्टियां के लिए अभी सिर्फ दोनों ओर देखने का वक्त है। उन्हें चुनाव से ठीक पहले टिकट मिलने से छूट गए नेताओं के अपने खेमे में आने का इंतजार करना है।

इस दल-बदल के दौर में वैचारिक की निष्ठाएं व क्षेत्रीय विकास ताक पर और निजी हित चाक पर हैं। आम जनता में भी ऐसे दल-बदलुओं को सबक सिखाने के दशकों से किए जा रहे दावे हो रहे हैं, पर सबको पता है, चुनाव में इसका कोई प्रभाव न पहले पड़ा था-न अब पड़ेगा। क्योंकि निजी क्षणिक हित जितने नेताओं के लिए मायने रखते हैं, उतने ही उन लोगों के लिए भी, जो वोट देते हैं। नेताओं को भी पता है, ऐसी बड़ी-बड़ी बातें तो वे कर रहे हैं, जो वोट देने ही नहीं जाते, और उन्हें जिसे वोट देना है-उसे ही देंगे। उन्हें समझाकर या उनकी परवाह कर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। बहरहाल, फिलवक्त स्थिति यहां तक है कि ऐसे लोगों के जाने से कहीं खुशी है तो कहीं आने पर भी खुशी नहीं है।

यशपाल व संजीव के भाजपा छोड़ कांग्रेस में जाने के पीछे एक बड़ी वजह मोदी भी बताए जा रहे हैं। सियासी गलियारों में चर्चा है कि 2016 इमं कांग्रेस से आये नेताओं को अब भाजपा में भविष्य नहीं दिख रहा है। इसकी अहम वजह सीएम पुष्कर धामी का पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नजरों में चढ़ जाना है। इसकी बानगी मोदी के ऋषिकेश दौरे के दौरान देखने को मिली, जब कई बार मोदी ने धामी की तारीफ की और उनको अपने मित्र के रूप में संबोधित किया। प्रदेश में भाजपा ने 3 बार सीएम बदला लेकिन किसी कांग्रेसी माने जाने वाले नेता को तरजीह देना तो दूर, उनसे पूछा तक नहीं। न ही किसी को विश्वास में लेने की कोशिश ही की। ऐसे में ‘खाओ और खाने दो’ की नीति वाली कांग्रेस से आए नेताओं में ‘न खाऊंगा-न खाने दूंगा’ वाली भाजपा में दम घुंटना तो समझ में आने की ही बात है।

इसी क्रम में मंगलवार को कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक के बीच करीब 1 घंटे बंद कमरे में बातचीत हुई। चर्चा है कि है कि यशपाल आर्य के जाने के बाद जो चर्चाएं चल रही थीं कि डॉ. हरक सिंह रावत भी कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। उन्हीं चर्चाओं के संबंध में मदन कौशिक ने हरक सिंह रावत से बातचीत की है। लेकिन मदन कौशिक से मुलाकात के बाद हरक सिंह रावत ने एक बार फिर चुनाव न लड़ने का ऐलान कर दिया।

उन्होंने दोहराया कि वह 2022 में विधानसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं। इसको लेकर पार्टी के बड़े नेताओं को बता चुके हैं। उन्होंने कहा कि वे 20 साल से सदन में लोगों की आवाज को बुलंद कर रहे हैं। साथ ही यह भी कहा कि उत्तराखंड की पहाड़ से लेकर मैदान तक की करीब 30 ज्यादा से सीटों पर हरक सिंह रावत का प्रभाव है। यह बयान हरक सिंह रावत द्वारा स्वयं चुनाव न लड़कर अपनी बहू और ‘मिस इंडिया’ रह चुकीं अनुकृति गुसाईं को चुनाव लड़वाने की इच्छा के रूप में भी देखा जा रहा है।

इधर भाजपा के खेमे से कांग्रेस के कुमाऊं मंडल से आने वाले एक विधायक को और अपनी पार्टी में शामिल होने की खबरें भी आई हैं, लेकिन राजनीतिक जानकार इसे कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना मान रहे हैं। हरीश धामी को पहले टारगेट पर माना जा रहा था, लेकिन हरीश रावत के लिए अपनी सीट छोड़ने वाले धामी वह हो ही नहीं सकते। धामी भी यह साफ कर चुके हैं। बहरहाल, निशाना कहीं और है।

उधर, कांग्रेस में भाजपा में गए अपने नौ विधायकों को वापस लेने को लेकर दो चीजें चल रही हैं। नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद भी प्रदेश अध्यक्ष रहने के दौरान से ही कमजोर माने जाने वाले प्रीतम सिंह इन नेताओं को पार्टी में शामिल कराकर अपनी ताकत बढ़ाने के फेर में है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि प्रीतम ही यशपाल व संजीव की कांग्रेस में घर वापसी के पीछे थे। हरीश रावत 9 बागियों की सशर्त, माफी मांगने पर उनकी वापसी में आढ़े नहीं आने की बात कर रहे हैं। वह यह भी नहीं चाहते हैं कि उन्हें चुनौती देने की हैसियत रखने वाला कोई नेता पार्टी में आए।

दूसरी ओर भाजपा में शामिल कांग्रेस के बागी नेता उसी तरह संगठित होकर कांग्रेस में आना और अपना दबाव समूह बनाए रखना चाहते हैं, जैसा वह भाजपा में बनाए रहे। उल्लेखनीय है कि यशपाल-संजीव के साथ एक और पूर्व कांग्रेसी भाजपा विधायक उमेश शर्मा ‘काऊ’ के भी उसी दिन कांग्रेस में शामिल होना तय था, लेकिन वह हरक सिंह के साथ कांग्रेस में आना चाहते थे, जबकि हरीश रावत ने हरक के नाम पर ‘वीटो’ लगा रखा था। इधर अब दल-बदल के इच्छुक नेता इस कोशिश में भी हैं कि यशपाल-संजीव की घर वापसी से जनता व कार्यकर्ताओं की मनोदशा का आंकलन कर लिया जाए, और अनुकूल परिस्थितियां बनने पर ही अगला कोई कदम उठाया जा सके। (डॉ. नवीन समाचार) अन्य नवीन समाचार पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : तो हरीश रावत को मिल गया उत्तराखंड के अगले सीएम के लिए ‘दलित का बेटा’, इसीलिए रेणुका से उतरवाई यशपाल की आरती ?

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 12 अक्टूबर 2021। उत्तराखंड में चुनाव संचालन समिति के अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत उत्तराखंड में ‘दलित के बेटे’ को मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते हैं। अब जबकि राज्य का सबसे बड़़़ा दलित चेहरा, 6 बार के विधायक, कांग्रेस के साथ ही भाजपा में भी प्रभावशाली कैबिनेट मंत्री तथा दो बार कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष एवं विधानसभा अध्यक्ष रहे यशपाल आर्य कांग्रेस पार्टी में ‘घर वापसी’ कर गए हैं, तो ऐसा लगता है कि हरीश अब मुख्यमंत्री पद के लिए यशपाल का नाम आगे करके अपने स्वप्न को साकार करने एवं राज्य की राजनीति को एक नयी दिशा देने का ऐलान भी कर सकते हैं।

इसके संकेत इस बात से भी मिले हैं कि नई दिल्ली के कांग्रेस भवन में पार्टी में शामिल होने के बाद हरीश रावत ने सबसे पहले यशपाल आर्य को अपने दिल्ली स्थित घर बुलाया और पत्नी रेणुका रावत से उन्हें तिलक करवाया और उनकी आरती भी उतरवाई। ऐसे अप्रत्याशित स्वागत से अभिभूत यशपाल ने भी उनके पैर छूकर आर्शीवाद लिया। यही नहीं हरीश ने यशपाल आर्य के कांग्रेस परिवार में शामिल होने पर उनका हृदय की गहराइयों से बहुत-बहुत स्वागत किया है, और संबंधित चित्रों युक्त पोस्ट को अत्यधिक महत्व देते हुए पिन भी किया है।

हालांकि यह संकेतों, सामान्य शिष्टाचारों व निहितार्थों की बात है, लेकिन इसके इतर भी उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की राजनीति अब तक जातीय तौर पर ब्राह्मण-क्षत्रिय में ही अटकी हुई है। राज्य के दोनों ही प्रमुख दल भाजपा व कांग्रेस हमेशा पर यह आरोप है कि सत्ता में रहने पर मुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष तथा विपक्ष में रहने पर नेता प्रतिपक्ष व प्रदेश अध्यक्ष में से एक क्षत्रिय व दूसरा ब्राह्मण हो। पूर्व में केवल कांग्रेस पार्टी ने ही यशपाल आर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर यह मिथक तोड़ा, उन्हें विधानसभा अध्यक्ष भी बनाया। यह भी है कि कांग्रेस पार्टी ने हमेशा यशपाल सहित अन्य दलित वर्ग के नेताओं को भी आगे बढ़ाया और दलित वर्ग कांग्रेस पार्टी का वोट बैंक भी रहा है, जबकि इधर यह वोट बैंक भाजपा के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में धार्मिक-राष्ट्रवाद की राजनीति के आगे बढ़ने एवं बसपा जैसे दलितों की राजनीति करने वाले दल के उत्तराखंड में नैपथ्य में चले जाने से भाजपा की ओर भी जाने लगा है।

ऐसे में अब हरीश रावत पर भी दबाव होना लाजिमी है कि वह अपने वचन व इच्छा के अनुरूप उत्तराखंड ही नहीं पूर्ववर्ती राज्य उत्तर प्रदेश में भी दो बार विधायक रहे तथा लगातार दो कार्यकाल से राज्य के कैबिनेट मंत्री रहे ‘दलित के बेटे’ यशपाल आर्य को आगामी विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में आगे करेंगे। इससे राज्य की राजनीति भी सामाजिक सद्भाव के एक नए मुकाम पर जाएगी और इस मामले में कांग्रेस को भी अकाट्य राजनीतिक बढ़त मिलेगी। और लगता है कि उन्होंने पत्नी से यशपाल की आरती उतरवाकर इसके संकेत भी दे दिए हैं….। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : काबीना मंत्री यशपाल आर्य व नैनीताल विधायक संजीव आर्य कांग्रेस में शामिल हुए जानें वजहें, और देखें उनके कांग्रेस में शामिल होने की एक्सक्लूसिव फोटो एवं वीडियो:

डॉ. नवीन जोशी, नवीन समाचार, नैनीताल, 11 अक्टूबर 2021। उत्तराखंड की भाजपा सरकार में काबीना मंत्री व 6 बार के विधायक यशपाल आर्य व उनके पुत्र नैनीताल से विधायक संजीव आर्य भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। नई दिल्ली में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात के बाद पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल, प्रीतम सिंह एवं कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव सहित अन्य वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं की उपस्थित में दोनों पिता-पुत्र ने कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया। दोनों ने 2017 में कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा था। देखें संबंधित फोटो एवं वीडियो एक्सक्लूसिवली नवीन समाचार पर :

यह तब है जबकि भाजपा से कांग्रेस में शामिल होने के लिए अन्य काबीना मंत्री का नाम प्रमुखता से चर्चा में था। यशपाल आर्य के बारे में केवल गत 25 सितम्बर को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के उनके आवास पर चाय पर आने के दिन से चर्चा शुरू तेज हुई थी। जबकि स्वयं श्री आर्य ने इस संभावना को सिरे से खारिज किया था। हालांकि नैनीताल में उनके विरोधी लंबे समय से उनके कांग्रेस में शामिल होने के लिए तारीखें घोषित कर रहे थे।

इधर आखिरी बार 18 अक्टूबर की तिथि उनके कांग्रेस में शामिल होने की बताई गई थी, लेकिन इससे पहले ही उनके कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।

उनके कांग्रेस में शामिल होने से जहां भाजपा को नैनीताल में सीधा झटका लगना कमोबेश तय है। क्योंकि संजीव चाहे भाजपा से लड़ंे या कांग्रेस में, दोनों जगह से उन्हें टिकट मिलना और जीतना कमोबेश तय माना जा रहा है। भाजपा में रहते हुए उन्हें भविष्य का मुख्यमंत्री का चेहरा भी माना जा रहा था। अलबत्ता यशपाल आर्य के लिए बाजपुर की सीट भाजपा में रहते किसान आंदोलन के दृष्टिगत कठिन मानी जा रही थी। दोनों पिता-पुत्र के कांग्रेस में शामिल होने के पीछे यही सबसे बड़ी वजह मानी जा रही है।

हालांकि कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि हरीश रावत के किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाने के बयान के बाद यशपाल ने कांग्रेस में जाने का मन बनाया हो या हरीश ने उनके लिए ही यह बयान दिया हो राजनीति के दूसरे जानकार ऐसा नहीं मानते। राज्य के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री का मानना है कि यह बयान हरीश रावत ने प्रदीप टम्टा के लिए दिया है, क्योंकि प्रदीप हरीश के सबसे करीबी हैं। वैसे भी हरीश स्वयंभू तरीके से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं और वह कभी भी यशपाल को मुख्यमंत्री के पद पर नहीं देखना चाहंेगे।

अलबत्ता ऐसी भी चर्चाएं हैं कि यशपाल आर्य अब नैनीताल से विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। यशपाल व संजीव आर्य के भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाने के साथ एक नगर पालिका अध्यक्ष एवं कुछ ब्लॉक प्रमुख व जिला पंचायत सदस्यों के भी भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाने की चर्चाएं है। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : हरीश रावत चले एनडी की राह, बोले 2022 उनका आखिरी चुनाव, त्रिवेंद्र ने तत्काल घेरा….

नवीन समाचार, देहरादून, 10 अगस्त 2021। उत्तराखंड के वरिष्ठ कांग्रेस नेता व पूर्व सीएम पार्टी के अन्य पूर्व सीएम नारायण दत्त तिवारी की राजनीतिक राह पर नजर आ रहे हैं। मंगलवार को रावत ने स्वर्गीय तिवारी द्वारा कई बार आजमाए गए ‘इमोशनल कार्ड’ को चलते हुए कह दिया, आगामी विधानसभा उनका आखिरी चुनाव होगा। साथ ही बोले कि वह उत्तराखंडियत के मुद्दे पर जनता का समर्थन मांगेंगे। लेकिन इस बार भाजपा ने तत्काल ही रावत की जुबान पकड़ ली और नहले पर दहला मार दिया। भाजपा नेता व पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कह दिया, रावत बूढ़े हो चले हैं तो उन्हें क्या वोट देना। हरीश रावत की अब काफी उम्र हो गई है। उनके दायें हाथ को पता नहीं होता कि बायां हाथ क्या कर रहा है।

8 जुलाई 2020 को अपने हाथों से त्रिवेन्द्र रावत को आम खिलाते हरीश रावत (फाइल फोटो)

उल्लेखनीय है कि हरीश रावत के लिए अगले विधानसभा चुनाव एक तरह से ‘करो या मरो’ वाले बन गए हैं। मुख्यमंत्री रहते दो सीटों से विधानसभा चुनाव के बाद लोक सभा चुनाव भी रिकॉर्ड वोटों से हारने के बावजूद हरीश रावत खुद को आगामी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस पार्टी का चेहरा बताने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा ने पुष्कर सिंह धामी के रूप में युवा चेहरा आगामी विधानसभा चुनाव के लिए खड़ा कर दिया है। इस स्थिति में कांग्रेस हाईकमान ने भी रावत खेमे के युवा गणेश गोदियाल को राज्य की कमान सोंपी। इसके बावजूद शायद हरीश चाहते हैं कि खुद को बुजुर्ग बताकर चुनाव को युवा विरुद्ध बुजुर्ग या नौसिखिया विरुद्ध अनुभवी करना चाह रहे हों। लेकिन लगता है भाजपा उन्हें किसी भी तरह छोड़ने के मूड में नहीं है। (डॉ.नवीन जोशी) आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

ह भी पढ़ें : …तो मोदी-शाह के होते हुए भी उत्तराखंड में बनी हुई है कोश्यारी की ठसक !

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 09 जुलाई 2021। भले ही एक जमाने के भाजपाई दिग्गज पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी और भगत सिंह कोश्यारी अलग-अलग वजहों से राज्य की राजनीति से दूर हों मगर भाजपा में मोदी-शाह युग होने के बावजूद, जिसमें कहा जाता है कि कोई भी अन्य नेता प्रभावी नहीं रहते, उत्तराखंड में अटल युग के दो नेता, पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी व भुवन चंद्र खंडूड़ी अभी भी पूरी ठसक के साथ प्रभावी हैं। खासकर कोश्यारी, वर्तमान में जिन्हें ही राजनीतिक गुरु मानने वाले एक नेता, पुष्कर सिंह धामी राज्य के मुख्यमंत्री बन गए हैं, और दूसरे, अजय भट्ट उत्तराखंड के कोटे से केंद्र में इकलौते मंत्री बनने में सफल रहे हैं। गौरतलब है कि इससे पहले खुलकर खंडूड़ी को अपना गुरु कहने वाले तीरथ सिंह रावत, जबकि उनसे पहले कोश्यारी के चहेते त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे। जरूर कोश्यारी वर्तमान में सक्रिय राजनीति और उत्तराखंड से दूर, संवैधानिक पद पर विराजमान हैं, पर उनकी ठसक अभी भी उत्तराखंड में न केवल बनी हुई है बल्कि इधर और बढ़ी है।

यह विषय इसलिए भी प्रासंगिक है कि मोदी मंत्रिमंडल में हुए ताजा पुर्नगठन में यह तथ्य सुर्खियों में है कि अटल युग के नेताओं की मंत्रिमंडल से छुट्टी की गई है, और अब केंद्र में केवल रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अलावा मुख्तार अब्बास नकवी और प्रह्लाद पटेल ही ऐसे मंत्री बचे रह गए हैं, जो अटल मंत्रिमंडल में भी मंत्री थे। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि भाजपा के साथ कांग्रेस पार्टी की राज्य इकाइयों पर यह आरोप लगते हैं कि उनमें केंद्रीय नेतृत्व के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। खासकर अनुशासित कही जाने वाली भाजपा में, जहां गत दिवस प्रधानमंत्री मोदी के चाहने पर केवल केंद्रीय अध्यक्ष के एक-एक फोन कॉलों पर रविशंकर प्रसाद, डॉ. हर्षवर्धन व डॉ. निशंक जैसे बड़े मंत्रालय संभाल रहे नेताओं सहित 11 मंत्रियों ने बिना एक भी प्रतिक्रिया किए अपने इस्तीफे प्रधानमंत्री को भेज कर एक तरह की मिसाल पेश कर दी।

उत्तराखंड में वर्तमान में भले मुख्यमंत्री बने धामी व केंद्रीय मंत्री बने भट्ट के समक्ष संवैधानिक मजबूरी हो कि वह पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी को खुलकर किसी तरह का श्रेय दे पाएं या उनका गुणगान कर पाएं, क्योंकि कोश्यारी वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं, और भाजपा से इस्तीफा दे चुके हैं, और गैर राजनीतिक व संवैधानिक पद पर हैं, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आगामी विधान सभा चुनाव के लिए भाजपा के द्वारा बिछाई जा रही इस पूरी बिसात के तहत आगे बढ़ाए जा रहे इन दोनों नेताओं को उनका आशीर्वाद प्राप्त है। वरना उनके लिए इन पदों को पाना शायद संभव न होता। वहीं, अब यह भी कहा जाने लगा है कि यदि भाजपा को वास्तव में उत्तराखंड में सत्ता वापसी की इच्छा है तो कोश्यारी इस रणनीति की धुरी हो सकते हैं। क्योंकि यदि कांग्रेस हरीश रावत को आगामी विधानसभा चुनाव की कमान सोंपती है तो कोश्यारी राज्य की सक्रिय राजनीति में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ सकते हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। कहना गलत न होगा कि 2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के पीछे कोश्यारी ही थे, जो पूरे प्रदेश में जननेता के रूप में सक्रिय रहे थे। अलबत्ता, भाजपा नेतृत्व ने तब खंडूड़ी को राज्य की कमान सोंप दी थी। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : जगा जोश: मुख्यमंत्री धामी के ‘युवा-मंत्र’ से देवभूमि में अच्छे दिन के ख्वाब देखने लगा युवा वर्ग

शंभू नाथ गौतम @ नवीन समाचार, 05 जुलाई 2021। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की ताजपोशी के बाद सड़कों पर नौजवानों में जश्न का माहौल छाया हुआ है। ये युवा चाहे किसी भी पेशे से जुड़े हुए क्यों न हो लेकिन अब उन्हें धामी के रूप में नई ‘उम्मीद’ दिखाई दे रही है। राज्य में अभी तक राजनीतिक दलों के नेताओं का युवाओं पर इतना ‘फोकस’ नहीं किया गया। जिससे युवा वर्ग ‘उपेक्षित’ भी महसूस करने लगा था। इसके साथ पिछले डेढ़ सालों से कोरोना और लॉकडाउन की वजह से युुवाओं की परेशानी और बढ़ा दी है। राज्य में रोजगार, व्यापार और काम-धंधे ठप होने से तेजी के साथ बढ़ी बेरोजगारी की वजह से युवाओं में ‘मायूसी’ छाई हुई है। लेकिन रविवार को उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने शपथ लेते ही युवाओं में ‘ऊर्जा’ भर दी है।

यहां हम आपको बता दें कि मुख्यमंत्री धामी अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर राज्य के युवाओं को साथ लेकर चलना चाहते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान से ही धामी ‘छात्र राजनीति’ में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी निभाई है। वे युवाओं की सोच और महत्वकांक्षी से भलीभांति परिचित भी हैं। दिल्ली भाजपा हाईकमान का धामी को कमान सौंपने का एक उद्देश्य यह भी है कि राज्य के युवाओं को अधिक से अधिक पार्टी से जोड़ा जाए। धामी अभी खुद भी 45 साल के युवा है और प्रदेश के सबसे कम आयु वाले पहले मुख्यमंत्री बने हैं। राज्य की कमान संभालने के बाद मुख्यमंत्री पुष्कर ने नौजवानों में ‘जोश’ जगा दिया है। मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने शपथ लेने के दो घंटे बाद अपने इरादे जाहिर करते हुए नवयुवकों को लेकर ‘प्लान’ भी तैयार कर लिया है।

रविवार शाम बुलाई गई पहली कैबिनेट की बैठक में मुख्यमंत्री का पूरा फोकस राज्य के युवाओं को लेकर ही रहा। बैठक में युवा मुख्यमंत्री ने बढ़ती बेरोजगारी के लिए युवाओं की दुखती रग पर हाथ रख दिया हैं। उन्होंने युवाओं को आश्वासन दिलाया कि प्रदेश की राजनीति बदलेगी। धामी ने कहा, ‘मैं युवाओं के बीच काम करता रहा हूं और मुद्दों को अच्छी तरह समझता हूं। कोरोना ने उनकी जिंदगी पर असर डाला है। हम उनके लिए हालात को बेहतर बनाने के लिए काम करेंगे। राज्य में खाली पदों पर नौजवानों को अपॉइंट करने की कोशिश की जाएगी। इसमें कुछ मुश्किलें हैं। लेकिन राज्य में टूरिज्म और चार धाम यात्रा फिर से शुरू करना हमारे लिए बहुत जरूरी है। मेरी उम्र कम है। यहां हर कोई अनुभवी है। मेरी पार्टी के लिए, जिसने मुझे यह मौका दिया है, मेरा कर्तव्य है कि मैं नए और पुराने सदस्यों को एक साथ रखूं’।

कैबिनेट मीटिंग के बाद राज्य सरकार के प्रवक्ता सुबोध उनियाल ने बताया कि युवाओं और बेरोजगारों के लिए कई अहम फैसले लिए गए हैं। बता दें कि बेरोजगारी के इस मुद्दे को अगर सीएम धामी ने बेहतर तरीके से हल किया तो आगामी 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा का सरकार बनाना आसान हो सकता है। फिलहाल देवभूमि के युवा पुष्कर सिंह धामी से बड़ी उम्मीदें लगाए बैठे हैं। अब देखना होगा आने वाले समय में मुख्यमंत्री इन युवाओं की उम्मीदों पर कितना खरा उतरते हैं।

आइए अब पहलेेेे दिन कैबिनेट मंत्री अरविंद पांडे का ‘धामी गुणगान’ भी जान लिया जाए। पांडे ने कहा, ‘पुष्कर सिंह ने छह महीने के लिए नहीं, छह साल के लिए मुख्यमंत्री पद की शपथ ली हैैै, हमारी बात को रिकॉर्ड रखिएगा। पुष्कर सिंह धामी इस कार्यकाल के छह महीने और आने वाले पांच साल तक सीएम रहेंगेे’। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड की जनता जानती है कि विकास बीजेपी की सरकार ही करेगी। उत्तराखंड राज्य को हम पर्वतीय प्रदेशों में पहले नंबर पर ले जाएंगे। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद धामी को शुभकामनाएं दी हैं। उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव होने के लिए सात महीने से भी कम वक्त बचा है। पुष्कर सिंह धामी को अब तेजी के साथ काम करना होगा और अपने सहयोगियों के साथ-साथ वोटरों का भरोसा जीतना होगा। इसके साथ पार्टी के नेताओं की नाराजगी भी दूर करनी होगी, तभी वह अपने आपको ‘मिशन 22’ के लिए तैयार कर पाएंगे। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह भी पढ़ें : सीएम बनते ही मोदी, योगी, केजरीवाल, जयललिता की लंबी रेस के घोड़े साबित हुए विशिष्ट नेताओं की श्रेणी में शामिल हुए धामी

-यह सभी भी बिना मंत्री बने सीधे विधायक से मुख्यमंत्री बने और इनकी उम्र भी 45 से 50 के बीच थी
डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 05 जुलाई 2021। रविवार को देहरादून राजभवन में नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने के साथ ही पुष्कर सिंह धामी देश के ऐसे कुछ विशिष्ट चुनिंदा राजनीतिज्ञों की जमात में शामिल हो गए हैं, जिन्हें बिना मंत्री बने सीधे मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने का अवसर मिला है। दिलचस्प बात यह भी है कि यह सभी राजनीति में लंबी रेस का घोड़ा साबित हुए और मुख्यमंत्री बनते समय इनकी उम्र धामी की तरह ही 45 से 50 की बीच ही थी। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि धामी ऐसे नेताओं की सूची में शामिल होने के बाद लंबी रेस को घोड़ा साबित होने के मिथक को कितना सच साबित कर पाते हैं।

भाजपा की बात करें तो यहां सीधे सीएम की कुर्सी संभालने वाले नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। इनमें सबसे बड़ा नाम नरेन्द्र मोदी का है। मोदी को २००१ में गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया था तो उन्हें भी सरकार चलाने का अनुभव नहीं था। यह भी सर्वविदित है कि पहली बार ही लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद वह २०१४ में सीधे प्रधानमंत्री जैसे अति महत्वपूर्ण पद पर पहुंच गये और तब से इसी पद पर बने हैं। इस सूची में उत्तराखंड के पड़ोसी व पूर्ववर्ती राज्य उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल हैं जो २०१७ में बिना मंत्री के अनुभव के सीधे एनेक्सी के पंचम तल पर पहुंचने में कामयाब रहे। इस सूची में यूपी में ही मुख्यमंत्री रहे व बाद में राज्यपाल भी बने कल्याण सिंह भी शामिल हैं। कल्याण सिंह पहले एमएलसी हुआ करते थे और १९९१ में भाजपा की पहली सरकार बनते ही सीधे मुख्यमंत्री बनाए गए। वहीं उत्तराखंड के दूसरे पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश के पूर्व व पहले भाजपा सीएम शांता कुमार भी सूची में शामिल हैं। बल्कि सूची को इस सूची में सबसे ऊपर होना चाहिए, क्योंकि उन्हीं से किसी भाजपा नेता के विधायक से सीधे मुख्यमंत्री बनने की शुरुआत हुई थी। शांता कुमार मुख्यमंत्री बनने से पहले जिला परिषद के अध्यक्ष से आगे नहीं बढ़ पाये थे, लेकिन १९७७ में हिमाचल की पहली गैर कांग्रेसी-जनसंघ सरकार बनी तो वह पहली बार विधायक चुने जाने के साथ ही मुख्यमंत्री भी बन गये थे।

सीधे मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले देश के अन्य दलों के राजनेताओं का राजनीतिक इतिहास देखें तो ये सभी लंबी रेस के घोड़े साबित हुए। जयललिता १९९१ में 47 वर्ष की उम्र में संगठन से सीधे तमिलनाडु की सबसे कम उम्र की मुख्यमंत्री बनीं। इसी तरह प्रफुल्ल कुमार महंत बिना किसी अनुभव के पहली बार विधायक बनते ही असम के मुख्यमंत्री बन गये। तब उनकी आयु तो केवल ३३ साल थी। वह दो कार्यकाल तक असम से सीएम रहे। इसी तरह चार बार मिजोरम के मुख्यमंत्री रहने वाले एल. ललथनहावला भी १९८४ में बिना किसी अनुभव के सीधे सीएम बन गए थे। इसी राज्य में एक समझौते के तहत अलगाववादी नेता पी लालडेंगा भी सीधे मुख्यमंत्री बनकर ऐसे ही सौभाग्यशाली नेताओं में शुमार हुए। इस सूची में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी शामिल हैं, जो नई पार्टी बनाने के साथ २०१३ से सीधे सीएम के पद पर बैठे तो आज तक बैठे ही हैं। आज के अन्य ताजा ‘नवीन समाचार’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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